SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद] अन्वयार्थ-(राजीव लोचनः) कमल सदृश नेत्रों वाला (स राजा) यह श्रेणिक नृपति (त:) उन (षभिःराजगुणैः) छः राजाओं के गुणों द्वारा (तथा रेजे) उस प्रकार शोभायमान हुआ (यथा) जिस प्रकार (मुनिनाथे) मुनिपुङ्गब-प्राचार्य (षडावश्यक कर्मभिः छःआवश्यक कर्मों का पालन कर (रेजे) शोभते हैं। भावार्थ -मनुष्य की योग्यता, प्रभुता का आधार-उसकी कर्तव्यनिष्ठता है। जो अपने पदानुसार अपने अधिकारों के रक्षक कर्तव्यों का जितनी कठोरता से पालन करता है उसका जीवन उतना ही प्राञ्जल होकर महान बन जाता है। जैनागम में दिगम्बर साधुओं के अवश्य ही पालन करने योग्य षड् कर्म कहे हैं । जिनका पालन करना यतिधर्म में अनिवार्य है उन्हें आवश्यक कर्म कहते हैं। ये कर्म ६ हैं--१ समता, २ वन्दना, ३ स्तुति, ४ प्रतिक्रमण ५ स्वाध्याय और ६ कायोत्सर्ग । (१) समता-राग द्वेष का परिहार कर प्राणी मात्र के प्रति समान भाव रखना अथवा सुख दुःख, जीवन मरण, कांच काञ्चन, लाभ अलाभ आदि में साम्य भाव का होना, हर्ष विपाद नहीं करना "समता है। (२) वन्दना-- २४ तीर्थंकरों या पञ्चपरमेष्ठियों में से किसी एक का गुणगान करना स्तोत्र पढ़ना, बन्दना कहलाती है। (३) स्तुति--सामूहिक रूप से सभी तीर्थकरों का स्तोत्र पड़ना स्तुति कहलाती है। (४) प्रतिक्रमण--प्रमाद व कपायादि से अपने ब्रतों में लगे दोषों का परिहार करते हुए पाठ करना प्रतिक्रमण कहलाता है। प्रति का अर्थ है प्रत्येक और क्रम का अर्थ है चरण अर्थात् प्रत्येक क्रिया के आचरण के प्रति सावधान रहने का उपाय प्रतिक्रमण है। (५) स्वाध्यस्य--सर्वज्ञ प्रणीत आगम का पाठ प्रकार की शुद्धियों सहित अध्ययन करना, तत्त्वों का अभ्यास करना स्वाध्याय कहलाता है। (६) कायोत्सर्ग---शरीर से ममत्त्व त्यागकर खड़े होकर निश्चल ध्यान करना कायोत्सर्ग है । आत्मध्यान के अभ्यास के लिए बैठकर शरीर ममत्व का त्याग भी कायोत्सर्ग है। इस प्रकार ये साधु के छह आवश्यक कर्म हैं । निष्प्रमाद और जागरूक रहकर जो इनका निरतिचार पालन वारता है वह उतना ही महान होता है, आत्मीय गुणों से अनंकृत होकर देदीप्यमान होता है । इसी प्रकार राजाओं में जो राजा-राज्य के षडङ्गों का प्रयोग करता है उसका राज्य और वह दोनों ही विशेष यशस्वी, कीर्तिमान और समृद्ध कहलाता है । इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि राजा इस लोक सम्बन्धी राज्य का भोक्ता है और साधु पारलौकिक सुख के भोक्ता होते हैं । दोनों ही को अपने अपने कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है। अतः कर्तव्यपरायणता हो सफलता को कुञ्जी है ।।७४।। यथा पञ्चाङ्ग मन्त्रेण स प्रभुः प्रविराजत तथा पञ्चनमस्कार महामन्त्रेण शुद्धधीः ।।७५॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy