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________________ ३४ ] [श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद अन्वयार्थ- (यथा) जिस प्रकार (स प्रभुः) वह महामण्डलेश्वर श्रेणिक राजा (पञ्चाङ्गमन्त्रैण) सहायक, साधन, कोषादि पञ्चमंत्रों से (प्रविराजते) सुशोभित होता है (तथा) उसी प्रकार (पञ्चनमस्कार महामन्त्रेण) अनादि अनिधन महामन्त्र के द्वारा (शुद्ध धी:) शुद्ध बुद्धिवाला (अध्यात्म क्षेत्र में शोभता है) भावार्थ-राज्य की सफलता के लिये राजनीतिज्ञों ने पञ्च अङ्ग रूप मन्त्र कहा है। ये पञ्च अङ्ग हैं-सहायक, साधनोपाय, देश की स्थिति स्वजाना और बलाबल । इनका प्रयोग करने वाला राजा, राज्य को समृद्धि करने में उसी प्रकार सफल होता है जिस प्रकार पच्ननमस्कार मन्त्र से शुद्ध बुद्धि वाला, प्राध्यात्मिक-धार्मिक क्षेत्र में सम्यक विकास को प्राप्त हुआ शोभता है। __णनोकार मन्त्र सर्वोत्तम है. इसके द्वारा उभय लोक की सिद्धि होती है । मन वचन काय पवित्र होते हैं । विघ्न, उपद्रव, संकट टल जाते हैं । उपसर्ग परोषह आदि नष्ट हो जाते हैं। परिणाम शुद्धि होती है। भयङ्कर विषादि का परिहार होता है। डाकिनी, शाकिनी, भूत व्यंतर आदि बाधायें आती नहीं। आई हुई दूर हो जाती है। परलोक में स्वर्गादि को प्राप्ति होती है। परम्परा से मोक्ष को प्राप्ति होती है । इसी प्रकार राजाओं को राज्य संचालन के लिये भी पाँच अङ्ग कहे गये हैं । उनका प्रयोक्ता राजा स्वचक्र परचक्र आदि उपद्रवों से रक्षित होकर राज्यकार्य में सफल होता है । ||७५।। सहायं साधनोपायो दैश्यं कोषं बलाबलम् । । विपत्तश्च प्रतीकारः पञ्चाङ्ग मन्त्रमाश्रयेत् ।।७६।। अन्वयार्थ--(विपतः। आपत्ति या संकट के (प्रतीकारः) प्रतोकार स्वरूप (सहायं) अनुकूल सहयोगी, (साधनोपाय) कार्यसिद्धि में कारण भुत उपाय-प्रयत्न, (दैश्य) देश सम्बन्धी स्थितियों का ज्ञान, (कोष) खजाना, (च) और (बलावलम्) बल और अबल रूप (पञ्चाङ्ग) पञ्चाङ्ग (मन्त्री मन्त्र को (आश्रयेत्) आश्रय करें। भावार्थ----राजा अपने राज्य को स्थायी दृढ़ और विकसित करने के लिये सर्व प्रथम अपने सहायक तैयार करता है अर्थात् स्नेह बन्धन में बांधकर अपने अनुयायियों को सदा अनुकूल बनाये रखता है । वह अपने कार्य की सिद्धि के लिये न्यायोचित उपाय करते रहना तथा धर्मक्रिया, मन्त्र आदि का संचय, सन्धि विग्रह आदि की जांच पड़ताल आदि साधनोपाय में संलग्न रहता है। इसी प्रकार देश्य, अजाना और बलाबल का भी आश्रय लेता है। देश मेंराज्य में कहां क्या हो रहा है। लोग राज्यानुसार चलते या नहीं। राजकीय नियमों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है ? कौन दुःखी है कौन सुखी है किसे क्या चाहिये क्या नहीं, इसका ध्यान रखना देण्य है। खजाने में कितना धन है ? बढ़ रहा है या घट रहा है इसका ध्यान रखना । कम हृया तो क्यों ? उसकी वृद्धि किस प्रकार करना आदि का ऊहापोह करते रहना क्योंकि खजाना भरपूर रखने पर युद्ध ईति भीति अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि उपद्रव टल सकते हैं।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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