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________________ ४५६] [ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद इसी प्रकार माँस भी महाविकृति को पैदा करने वाला है। जो माँस पिण्ड को खाता है, वह अनन्त जीवराशि को तो खाता ही है साथ ही जो उस माँस पिण्ड को छ ूता है वह भी उन जीवों का घातक है। मांस का स्पर्श भी दुर्गति का कारण है, तीव्र हिंसा का मूलभूत है । क्योंकि कच्ची, पकी हुई, पकती हुई भी माँस की डलियों में उसी जाति के निगोत जीव राशियों को निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है। मांस के समान मधु भी महाविकृति का हेतु है कहा भी है "मधु कलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्मकं भवति लोके । भजति मधु मूढधीको यः स भवति हिंसकोत्यन्तं || पुरुषा० ६६ ॥ मधु की एक बिन्दु भी बिना मक्खियों की हिंसा किये नहीं मिल सकती जो मधु एक बूँद भी खाता है वह असंख्य जीवों का घात करने वाला है तथा वह सात गाँवों को जला देने के बराबर हिंसा का भागी होता है । "सप्तग्रामेषु दग्धेषु यत्पापं जायते नृणाम् । तत्पापं जायते पुंसां मधुविद्वेन्क भक्षणात् ॥ 17 श्रावक ही मोक्षमार्ग में प्रवृत्त की भी होता है। वह इस प्रकार इनका त्यागकर आठ मूल गुणों का घारी हो सकता है आठ मुल गुणों का पारी यह जुम्रा, चोरी, मांस, मदिरा, वेश्यासेवन, शिकार और परस्त्रीरमण का त्यागी होता है। जूना सभी अनर्थों का मूल है ---- सर्वानर्थं प्रथमं मंथनं शौचस्य सद्म मायायाः । दुरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम् ।। १४६ ।। पुरुषा ।। जो सभी अनर्थों का मूल है, शौच धर्म को नष्ट करने वाला और माया का घर है चोरी और असत्य को जन्म देने वाला है ऐसे चत कर्म अर्थात् जुआ को दूर से ही छोड़ देना चाहिये। इसी प्रकार चोरी, मांस, आदि भी महाश्रनर्थों के कारण दुःखों के समुद्र जीव को डालने वाले हैं अतः इनका त्याग करना चाहिये । इनको व्यसन इसलिये कहा गया है कि ये सभो जीव को विपत्तियों में डालने वाले हैं। अतः उन सभी बुरी प्रादतों को व्यसन कहते हैं विपत्तियों में जीव को डालते हैं अत: सुख की इच्छा करने वाले भव्य जीवों को इनका त्याग करना ही चाहिए ॥७६ ७६ ॥ उक्तं गुणैर्युक्तः सप्तव्यसनवजितः । यो भव्यसारसम्यक्त्वं पूर्वोक्तं परति निर्मलम् ॥८०॥ 'अन्वयार्थ - (उक्त मूलगुणैर्युक्तः ) पूर्वोक्त श्रष्टमूलगुणों से युक्त (सप्तव्यसन वर्जितः ) सप्त व्यसनों का त्यागी ( यो भव्यः ) जो भव्य पुरुष वही (पूर्वोक्तं ) पूर्व कथित ( निर्मलं सार सम्यक्त्वं) निर्मल-निर्दोष सारभूत सम्यग्दर्शन की ( पाति) रक्षा कर सकता है अर्थात् रक्षण करता है !
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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