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________________ श्रीपाल चरित्र अष्टम परिच्छेद] मावार्थ-अतिचार अनाचारादि, शङ्काकाञ्छा आदि दोषों से रहित निर्मल सम्यग. दर्शन का पालन-रक्षण वही कर सकता है जो भव्य आठ मूल गुणों का धारी और सप्त व्यसन का त्यागी है। अनन्यशरणीभूत पञ्चश्रीपरमेष्ठिः । संसार देहभोगेषु विरक्तस्तत्त्वचिन्तनः ॥१॥ श्रीममिनपदामोअसेशन या कामासः । निन्थ मूनिनाथानां सदाराधनतत्परः ॥२॥ दयाधर्मरतो नित्यं सुधी सझान संयुतः । स स्याद् दार्शनिको भव्यः प्रथमः श्रावको भुवि ।।८३॥ अन्वयार्थ-(श्रीपञ्चपरमेष्ठिषु अनन्यशरणीभूत) श्रीपञ्चपरमेष्ठी के अद्वित्तीय शरण को प्राप्त हुआ (तत्त्वचिन्तनैः) तत्त्व चिन्तन में दत्तचित्त रहने से (संसार देह भोगेष विरक्त) संसार शरीर और भोगों में विरक्त रहने वाला (मधुव्रतः) तथा भ्रमर समूह के समान (श्रीमज्जिनपदाम्भोजसेवनक) श्री जिनेन्द्र प्रभु के चरण कमलों का अनःय भक्तसेवक (निर्ग्रन्थमुनिनाथानां) निर्ग्रन्थ मुनिराजों की (सदाराधनतत्परः) याराधना में सदा तत्पर रहने वाला (दयाधर्मरतो नित्यं) दया धर्म में सदा अनुरक्त (सद्ज्ञानसंयुत: सुधी) सम्यग्ज्ञान से युक्त जो सुधी (भव्य:) भव्य पुरुष है (स) बह (भुवि) पृथ्वी पर (दार्शनिको प्रथमः) प्रथम दर्शन प्रतिमा का धारी (श्रावको) श्रावक है । मायार्थ-- मुधी, भव्य पुरुष ऐसा विचार करते हैं कि शरीर की सेवा करने वालेपिता, पत्र, पत्नी बन्ध बान्धव हमारे लिये शरण देने वाले नहीं हो सकते हैं, ये सभी मोह को बढ़ाने वाले और संसार कीचड़ में फंसाने वाले हैं । अत: वे इनको शरणभूत नहीं मानते हैं अपितु जन्म-मरण के भयंकर दुःखों से छटकारा प्रदान करने वाले पञ्चपरमेष्ठी के चरण कमलों को ही अद्वितीय शरण समझते हैं क्योंकि जीवों को पाप रूपी कीचड़ से निकाल कर मोक्षमार्ग में आरूढ करने वाले पञ्चपरमेष्ठी ही है। उनमें प्रगाढ़ भक्ति रखने वाले ही निर्मल सम्यम्हष्टि हो सकते हैं। पुनः जो तत्त्व चिन्तन में अनुरक्त रहते हैं तथा संसार शरीर और भोगों के प्रति उदासीन-बिरक्त रहते है, निग्रन्थ मुनिराज की आराधना में सदा तत्पर रहते हैं तथा जिनका चित्त दया से अभिसिञ्चित है जो सदा दयाधर्म में रत रहने वाले और मम्यग्ज्ञान से सहित है वे भव्य पुरुष पृथ्वी पर प्रथम दर्शन प्रतिमा के धारी श्रावक है ऐसा जिनागम में बताया है। ॥८१ से २३ अण वृतानि पञ्चव त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षावतानि चत्वारि यो धत्ते स द्वितीयकः ।।८४॥ अन्वयार्थ—(पञ्चग्रण ब्रतानि) पांच प्रण व्रतों को (विप्रकारंगुणवतं) तीन प्रकार के गणव्रतों को (चत्वारि शिक्षाप्रतानि) चार प्रकार के शिक्षाग्रतों को (यो) जो श्रापक (धत्ते) धारण करता है (स द्वितीयकः) वह द्वितीय प्रतिमा का धारी है।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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