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________________ 1 श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] एकदेशेन हिंसादि त्यागादण समाहृतम् । श्रावकानां पूतं स्वर्गादिसुखदायकम् ॥३॥ अन्वयार्थ - ( हिंसादि) हिंसादि पाँच पापों का ( एकदेशेन ) एक देशरूप से . ( त्यागात् ) त्याग करने से ( स्वर्गादिसुखदायकम् ) स्वर्गादिक के सुखों को देने वाला (श्रावकानाम् ) श्रावकों गृहस्थों का (पू) पवित्र (अण) अंग ( व्रतम् ) व्रत ( समाहृतम् ) कहा गया है। भावार्थ - उपर्युक्त हिंसादि पाँच पापों का एकदेश त्याग करना अणुव्रत है। इनका पालन श्रावक करते हैं । गृहस्थ सर्वथा आरम्भ परिग्रह के त्यागी हो नहीं सकते । अत: वे इनका अंश रूप से त्याग कर सकते हैं। इसीलिए ये अणुव्रत कहलाते हैं । ये व्रत प्रत्यक्षसाक्षात् स्वर्गादि वैभव, सुख, सामग्री के दाता हैं तथा परम्परा से मोक्ष के हेतु हैं । इन पवित्र व्रतों का पालन करना प्रत्येक श्रावक श्राविका का अनिवार्य कर्तव्य है ॥ १३ ॥ I तदहं संप्रवक्ष्यामि संक्षेपेण सुखप्रदम् । चारित्रं वावकारणां हि लोकद्वय हितावहम् ॥४॥ f ९४e अन्वयार्थ --- आगे श्री गुरु मुनिराज कहने लगे--- ( लोकद्वय हितावहम ) उभयलोक इहलोक और परलोक दोनों में हिल करने वाले ( सुखप्रदम ! मुख को देने वाले (श्रावकाणाम् ) गृहस्थों के ( चारित्रम ) चारित्र को (हि) निश्चय से (अहं) में आचार्य श्री (संक्षेपेण) संक्षेप मैं थोडे रूप में (तत ) उसे ( प्रवक्ष्यामि ) कहूँगा । भावार्थ - प्राचार्य श्री श्रावक धर्म का उपदेश करने की प्रतिज्ञा करते हैं । श्रीपाल सुन्दरी से कहते हैं कि इस समय मैं आप लोगों को श्रावकाचार का उपदेश देता हूँ । यह उभयलोक में आपका जीवों का कल्याण करने वाला है । संक्षेप में उसका स्वरूप समझाऊँगा । यह सुख का बीज है। क्रमशः मुक्तिरूपी फल को देने वाला है ॥४॥ इन्द्र नागेन्द्र चक्रयादिपवं यस्मात्समाप्यते । तच्चारित्रं जिनः प्रोक्तं जयतात्सर्य देहिनाम् ॥५॥ अन्वयार्थ - ( यस्मात् ) जिससे ( इन्द्र नागेन्द्र चक्रवर्त्यादिपदम् ) इन्द्र, धरगेन्द्र, चक्रभव्यजीवों को ( समाप्यते ) भलेप्रोक्तम् ) कथित् ( चारित्रम् ) वर्ती, बलदेव, नारायण आदि पद ( सर्वदेहिनाम् ) समस्त प्रकार प्राप्त होते हैं (तत्) वह (जिनैः ) जिनेन्द्र भगवान ( सम्यक्चारित्र ( जयत्तात् ) जयवन्त होवे । भावार्थ---- यह श्रावकाचार अणु रूप सम्यक् चारित्र गृहस्थ - श्रावकों को इन्द्र, , धरगेन्द्र षट्खण्डाधिपतित्त्व (चक्रवर्ती) त्रिखण्डाधिपति (नारायण) बलदेव, कामदेव, यहां तक कि तीर्थकरपद भी प्रदान करने में समर्थ हैं। इसके निरूपक श्री सर्वज्ञ जिनेन्द्र प्रभु हैं । अतः यह कयन पूर्णतः प्रमाणित और सत्य है। इस प्रकार का यह सम्यक् चारित्र निरन्तर जयशीख
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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