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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेदः]
[१२७ रति से भी अधिक लावण्यमयी है और इसका पति श्रीपाल गलित कोड से पीडित है। यह मिलन सर्वथा अयोग्य ही नहीं निध भी है । कण्टकारक है ॥१२५१५
कोमलां मालतीमालां रसालां चित्तहारिणीम् ।
कारीबाग्नौ क्षिपत्यज्ञस्तथा च मयकाकृतम् ॥१२६॥ अन्वयार्थ -जिस प्रकार कोई (अज्ञ) अज्ञानी (कोमला) कोमल (च) और (रसालाम्) अानन्ददायिनी (चित्तहारिणीम्) मन को हरने वाली (मालती माला) मालती पुष्पों से गुम्फित माला को (कारीपानी) कण्डे को जलती आग में झोंक दे (तथा) उसी प्रकार यह (मयका) मेरे द्वारा (कृतम्) किया गया है ।
भावार्य--जिस प्रकार कोई मुर्ख अज्ञानी सुन्दर, कोमल, सामर्षक मालतीमाला को कण्डे (उपले) की धधकती अग्नि में डाल देता है उसी मूर्ख के समान किया गया यह मेरा कार्य है। मैंने मेरी अत्यन्त कोमलाङ्गी, मधूरभाषिणी, सर्वप्रिय कन्या को कुष्ठी के साथ व्याहा है। यह दुखाग्नि की ज्वाला में डालने के सहश कार्य है ।।१२६।। और भी
चिन्तारत्नं यथा कोऽपिमढः क्षिपतिकर्दमे ।
कन्यारत्न तथा दिव्यं महास्थाने नियोजितम् ॥१२७॥
अन्वयार्थ - (यथा) जिस प्रकार (कोऽपि) कोई भी (मूढः) मूर्ख व्यक्ति (चिन्तारत्नम् ) चिन्तामणिरत्न को (कर्दमे) कीचड में (क्षिपति) फेंक देता है (तथा) उसी प्रकार (दिव्यं) अनुपम (कन्यारत्नम ) बान्यारत्न को (महास्थाने) भयंकर अयोग्य स्थान में (नियोजितम्) नियुन किया है।
भावार्थ भूपाल सोच रहा है, जिस प्रकार कोई मुर्ख अज्ञानी मनुष्य चिन्तामणि को पाकर उसे पंक (कीचड) में डाल देता है उसी प्रकार मैंने चिन्तामणि सदृश अपने कन्यारत्न को अयोग्य व्यक्ति के हाथ में सौंप दिया है। विवेकी योग्य वस्तुओं का संयोग कराता है परन्तु अबिवेकी. मूर्ख पुरुष योग्यायोग्य का विचार नहीं करता । मेरी भी यही दशा है ।।१२७।।
सन्तिदुष्टानराः केचित् स्वार्थिनश्शत्रुकाविषु ।
मां विहाय न कोप्यस्ति पुत्रीसंतापकारकाः ।।१२।। अन्वयार्थ --- (केचित्) कुछ (स्वार्थिनः) स्वार्थी (नराः) मनुष्य (शत्रुकादिपु) शत्रुओं, विरोधियों में (संतापकारकाः) कष्ट देने वाले (सन्ति) हैं किन्तु (पुत्रीसंतापकारकाः) पुत्री को संताप देने वाला तो (मा) मुझको (विहाय) छोडकर (कोऽपि) कोई भी (न) नहीं (अस्ति) है।
भावार्थ संसार में शत्रुओं को त्रास देने वाले बहुत हैं। अपने प्रतिकूल चलने वालों