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________________ - - श्रोपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद] [१४५ सज्ञानं लोचनं प्रायं सततं सर्वदेहिनाम् । । तत्प्रमादं समुत्सृज्य संधयन्तु सुखाथिनः ॥२॥ अन्वयार्थ-(यज्ज्ञानम् ) जो ज्ञान (विरोधपरिवजितम्) पूर्वापर विरोध से रहित (शर्मदम्) शान्तिदायक (नित्यं) सतत (संसाराब्धितरण्डकम् ) संसार सागर तिरने को नौका है (तद्। बड़ी (श्रीजिनेन्द्रोक्तम) श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा हुआ (ज्ञानम्) सम्यग्ज्ञान है, (तत्) वह (सज्ञानम् ) सम्याज्ञान (प्रायम्) प्राय करके (सर्वदेहिनाम् ) समस्त शरीर धारियों का (सततम्) सदाकाल (लोचनम्) नेत्र है (गुखार्थिनः) सुखेच्छों को (प्रमादम् ) आलस्य (उत्सृज्य) छोडकर (तत्) उस ज्ञान का (सश्रयन्तु) सम्यक्प्रकार आश्रय करना चाहिए। भावार्थ-जो ज्ञान संशय, विपर्य, और अनध्यवसाय से रहित है, जिसमें पूर्वापरआगे-पीछे विरोध उत्पन्न नहीं होता उसे जिनेन्द्र प्रभु ने सम्यकज्ञान कहा है । जो ज्ञान अनेक कोटियों का स्पर्श करे वह संशय है यथा सफेद वस्तु में यह चांदी है या सीप है इत्यादि संदेह रूप ज्ञान होना । विपरीत वस्तुज्ञान को विपर्य कहते हैं यथा चाँदी को सीप, दूध को मट्ठा आदि जानना । कोई भी निर्णय नही उस ज्ञान को अनध्यबसाय कहते हैं यथा चलते समय तिनके आदि का स्पर्श होने पर कछ है सा ग्राभास होना। ये तीनों ज्ञान दोष हैं। इनमें से कोई भी दोष न हो बही सम्यग्ज्ञान है ऐसा आईत मत में कहा है । यह ज्ञान स्वपर प्रकाशक होता है । मोहान्धकार का नाश करता है, अन्तरङ्ग विवेक-हेयोपादेय बुद्धि को प्रकट करता है । अतः इसे "नेत्र" कहा है। वाह्य चर्म चक्षुओं से पदार्थ का यथार्थ ज्ञान सतत् नहीं होता और सम्पूर्णरूप से भी नहीं होता। परन्तु सम्यग्ज्ञान नित्य, सदैव, वरनु तत्व का निर्णायक होता है । अत: सर्वज्ञ प्रणीत पागम में इसे तीसरा नेत्र कहा है । यही सम्यक् सच्चा ज्ञान है। ११-२॥ यत्र काव्यपुराणेषु चरित्रे विशेषतः । अहिंसा परमोधर्मस्तत्संज्ञानं बुधोत्तमम् ॥३॥ अन्वयार्थ (यत्र) जिन (काव्यपुराणेषु ) काव्य पुराणों में (विशेषतः) विशेषरूप से (चरित्रेषु) चरित्रणित शास्त्रों में (अहिंसा परमोधर्म:) अहिंसा परम धर्म निरूपण है (तत्) वही (संज्ञानम् ) सम्यग्ज्ञान है (बुधोत्तमम.) विद्वानों में श्रेष्ठ भव्यों को (प्राश्रयन्तु) प्राधय करना योग्य है । - - . - m a -MT माया---प्राध्य ग्रन्थ हो, पुराण हो अथवा चारित्र-सठगलाका पुरुषों का चरित्र निरूपण करने वाले शास्त्र हों, जिनमें अहिंसा को परमधर्म कहा है वे ही सम्यक काव्य, पुराण, चरित्र । ये ही हैं सम्यग्ज्ञान के हेतू हैं । स्वयं सम्यग्ज्ञान ही हैं । कारण में कार्य का उपचार कर, ज्ञान के कारण आगम को भी सम्यग्ज्ञान कहा है यथा "अन्नं यं प्राणः" प्राणधारण का कारण अन्न को भी प्राण कहा जाता है ।।३।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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