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[ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद
मन्त्र तन्त्रादिभिर्यत्र पशूनां हिंसनं मतम् । तत्कुज्ञानं सदा त्याज्यं नरकादिगति प्रदम् | १४ ||
अन्वयार्थ - ( पत्र ) जहाँ जिनग्रन्थों में ( मन्त्रतन्त्रादिभिः) मन्त्र तन्त्रों के द्वारा (पशु) पशुओं का ( हिंसनम) वध करना ( मतम् ) धर्म माना है (तत्) बह ( कुज्ञानम् ) मिथ्याज्ञान ( नरकादिगति ) नरकादि दुर्गतियों को (प्रदम) देने वाला (सदा ) हमेशा, सर्वथा ( त्याज्यम) त्यागने योग्य है ।
भावार्थ जो वेद पुराण प्रारिंग वध का निरूपण करते हैं। हिंसा को धर्म कहते हैं । मन्त्र तन्त्र का प्रयोग कर पशुयज्ञ में होने जाने वाले जीवों को कष्ट नहीं होता, वे स्वर्ग में जाते हैं इत्यादि असत् कथन करते हैं वे सब मिथ्याशास्त्र हैं । दुःख के कारण हैं। प्रत्यक्ष जीवों को दुःख उत्पन्न होता देखा जाता है, उसका लोप कर मिथ्या प्रचार करने वाले दुर्गतियों के कारण हैं । घोर नरक में ढकेलने वाले हैं । उभय लोक में महादुःख देने वाले हैं। इस प्रकार विधमयों के द्वारा कथित शास्त्र मिथ्या हैं, मिथ्याज्ञान के हेतू कारण हैं, बुद्धि भ्रष्ट करने वाले, अधर्म के पोषक हैं। इन का सर्वथा सर्वदा त्याग करना चाहिए । अर्थात हिंसा स्तकों को कभी भी नहीं चहिए।
किं बहुनोक्त ेन भी भव्यास्तद्ज्ञानं शर्मकोटिदम् । स्वदेशे परदेशे च सुज्ञानं पूज्यते यतः ॥१५॥
श्रन्वयार्थ - ( भो भव्यः ) हे भव्य ! ( बहुनोक्तेन ) अधिक कहने से (किं) क्या ?
( सज्ञानम) सम्यग्ज्ञान ( शर्मकोटियम् ) करोडों सुखों को देने वाला (च) और (स्वदेशे ) अपने देश में (परदेश) अन्य दूसरे देश में ( यतः ) क्योंकि ( मुज्ञानम् ) सम्यग्ज्ञान ( पूज्यते ) पूज्य होता है | मान्य होता है ।
भावार्थ - प्राचार्य श्री कहते हैं, है भव्यात्मन् सम्यग्ज्ञान करोड़ों सुखों का देने वाला है। यही नहीं अपने माना जाता है । यथार्थ वस्तुस्वरूप निरूपण में विवाद नहीं सम्यग्ज्ञान सतत् वस्तुयाथात्म्य का निरूपक होता है, श्रतः सर्वत्र मान्यता प्राप्त करता है यथा दो और दो मिलकर चार होते हैं यह विश्वभाग्य हैं क्योंकि सत्य है। अतः सभ्यग्ज्ञान सदैव सर्वत्र पूज्य होता है ||५ ॥
राजन्, हम अधिक क्या कहें ? यह देश में और परदेश में सर्वत्र पूज्य होता, सत्य सर्वमान्य होता है ।
सद्ज्ञान शून्यैर्बहुभिस्तपोभि-स्संक्लेश लाक्ष्यै बहुभिर्भवश्च । यत्पापमातुमशक्यमज्ञ - स्तद्वन्यते चैकभवेन सद्ज्ञैः || ६ ||
श्रन्वयार्थ – 1 सद्ज्ञानशून्यैः ) सम्यग्ज्ञानरहित (ग्रज्ञ :) अज्ञानियों द्वारा (यत्) जो ( पापम् ) पाप ( बहुभिर्भुवः) अनेकों भवों के ( संक्ले पालाक्ष्यैः ) लाखों कष्टों द्वारा (च) और