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[श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद
भावार्थ-हृदय द्रावक विलाप करती हयो मदनमञ्जुषा कुररी की भांति छट-पटाने लगी। उसके रोदन से मनुष्य ही नहीं पाषाण भी द्रवित हो जाय इतना उग्र था। उसकी अविरल अश्रुधारा पावसकाल की मेध धारा समान प्रवाहित हो रही थी ।कण्ठ सूख गया । नेत्र अरुण हो टेसू के फूल की भाँति फूल गये । गला रूध गया। वह कहने लगो, हे प्राणवल्लभ आपको कहाँ पाऊँ ? किधर जाऊँ ? कहाँ खोजू ? इस समय आपके बिना कहाँ रहूँ ? किस प्रकार जीवन धारण करूं ? जिस प्रकार मोली मृगी अपने समूह से बिछड कर भयङ्कर अटवी में फंस जाय और चारों ओर उसने मा प्रज्वलित हा उके, उस समय उस बेचारी मगो को क्या दा होगो, वही हाल था इस समय इस एकाकी, परिवार कुटुम्ब विहीन पति वियुक्ता मदनभञ्जूषा की। वह बिरह रूपी ज्वाला से वारों पोर प्रज्वलित सी हो रही थी। उसके ओठ सूख गये । मुख म्लान हो गया । वह गला फाड-फाड कर चिल्लाने लगी, हाय, हाय पर मैं क्या करू! हे प्राणाधार, प्राणप्रिय स्वामिन् आपको कहाँ देख, किस प्रकार प्रापका मुदर्शन होगा ! आओ प्रभो, एक बार तो अपना मुख चन्द्र दिखाओ ! क्या इस सघन तमातोम आच्छादित भयावमी काली रात्रि में मुझे एकाकी छोड़ जाना उचित है ? अाप महा विज्ञ हैं ! चारों ओर अन्धकार व्याप्त भूमि पर मैं किस प्रकार प्रापका अनुसरण कर सकती हूँ। जाना ही था तो मुझसे कह तो जाते ! हे नाथ मेरी दशा तो देखो ! और एक बार आकर मेरी दर्दशा का अवलोकन तो करो ? मैं सूर्य बिना कमलों समान छाया विहीन हो गई हूँ, कान्तिहीन इस शरीर में न जाने प्राण भी क्यों रहना चाहते हैं । हे प्रभो! हे स्वामिन् आज मैं पादप रहित लता समान असहाय, दुखिया, भिखारिणी हो गई हूँ। नारी का आश्रय एकमात्र पति ही होता है । आपके बिना मैं किस प्रकार जीवित रह सकती हूँ। रोते-रोते हताश हुयी वह दुर्भाग्य को उलाहना देती है । अपने पूर्वकृत दुष्कर्मों का चिन्तवन करती है । हे भगवन यह वज्रपात क्यों हुया ? यह असह्य है । क्या मैंने पूर्व जन्म में बीतरागी, निर्दोष, आत्मचिन्तन लीन किन्ही महा मुनिराज का सन्ताप उपजाया वया ? हाँ हाँ अवश्य ऐसा ही घोर पाप किया है। मुनि निन्दा से बढ़कर अन्य कोई महापाप नहीं है । हे आराध्य देव, हे. प्राणनाथ उसी पाप का यह फल है । निश्चय ही गुरू निन्दा के पाप से ही आपका बिधोग जन्य यह भीषण सङ्कट आ पडा है । अथवा किसी प्रेमी युगल का वियोग कराया होगा, कि वा किसी कामिनी को उसके प्रियपति के मिलन में बाधा डाली गई होगी? मिथ्यात्व भाव के तीव्र उदय से मैंने दर्भाब से अटवो को भस्मकरा या कराया होगा ? अर्थात् बन दाह लगाया होगा। यहां आज कल जङ्गल जलाने की लोग एजेंसो लेते हैं. ठेका लेते हैं, थ्यापार करते है। उन्हें यह सिद्धान्त विचारणो है । अर्थात् बनदाह भयङ्कर पाप कार्य है, अहिंसा धर्म पालकों को इसका ठेका लेना व्यापार करना सर्वथा निषिध्य है। इस पाप से परिवार-कुटुम्बादि का वियोग जन्य भयङ्कर दुःख भोगना पड़ता है । वंश-
निश हो जाता है । वह सती कहती है क्या यह वन दाह ही मेरे द्वारा किया गया है ! इस प्रकार अनेक प्रकार से ऊहा-पोह करते हुए उसने जल-थल अाकाश का भो दहलाना बाला करुण बिलाप किया। शोक भार से लदो उस विरहनी ने अपने नयन जल प्रभाव से दुसरा ही सागर मानों भर दिया और स्वयं ही उस शोक जलधि में डूब गई। दुःख उदधि में निमग्न उसका विलाप उसी के समान था । सागर के ऋ र प्राणी भी द्रविल हो गये । उसके रुदन से पेड़-पौधे, बनस्पति भी पिघल गयी । यही नहीं स्वयं सागर भी अपनी