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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ]
पुत्री च गुणमालाख्या सज्जाता स्वगुणान्विता । रत्नमालेव पूतात्मा सती सज्जनसंस्तुता ॥ ५०॥
अन्वयार्थ - (च) और ( रत्नमाला ) रत्नों की माला ( इव) सरण ( पूतात्मा ) पविआत्मा (सती) मीलवतो ( सज्जन संस्तुता) सत्पुरुषों से प्रशंशित (स्वगुरणान्विता ) अपने नायेंचित गुणों से सम्पन्न ( गुणमाला) गुणमाला ( प्राख्या) नामक (पुत्री) कन्या ( सञ्जाता ) हुयी थी ।
भावार्थ - उपर्युक्त तीन पुत्रों के अतिरिक्त उस धनपाल भूपाल की एक कन्या हुयी । वह महान सुन्दरी, रूपवती तथैव गुणवती, शोलरूप आभूषण की धारक, रत्नमाला समान सर्वप्रिय, निर्विकार पवित्र नारी के गुणरत्नों की खान थी। उसका नाम गुणमाला था । वस्तुतः वह गुणरूपी मरिण माणिक्यों से गूंथी माला ही थी । रति और अप्सराओं को तिरस्कृत करतो थी । साक्षात् सरस्वतों का ही अवतार थी ।। ५० ।।
एकदा भूपति सोऽपि धनपालस्सुभक्तितः । पपृच्छ मुनिमानम्य ज्ञानिनं परमादरात् ॥५१॥
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अन्वयार्थ - (एकदा) किसी एक समय (सः) उस ( धनपाल ) धनपाल ( भूपतिः ) राजाने (अपि) भी ( भक्तितः ) भक्तिपूर्वक ( परमादरात्) प्रत्यन्त विनय से (ज्ञानिनम् ) अवधिज्ञान (मुनिम्) मुनिराज को (आनभ्य) नमस्कार कर (पपृच्छ) पूछा ।
भावार्थ- एक दिन उस धनपाल राजा ने अवधिज्ञानी मुनिराज के दर्शन किये। परमभक्ति से विनयपूर्वक नमस्कार किया । तथा इस प्रकार पूछा ।। ५१ ।।
हो स्वामिन् सुताया मे को वरीsa भविष्यति तन्निशम्य जगादोच्चमुनिः शृण महीपतेः ॥ ५१ ॥ योभुजाभ्यां समुत्तीर्य समुद्रञ्चागमिष्यति । स ते सुतापतिर्भावी, तत्समाकर्ण्य भुततिः ॥ ५३ ॥ तदाप्रभृति सद्भृत्यान् स्वाँस्तमन्वेषणे क्षणात् । योजयामास सर्वत्र तवा तत्पुण्य योगतः ॥ ५४॥ तत्र वृक्षतले संस्थं श्रीपालं श्रमहानये । स्थिरच्छायं तमालोक्यपादपञ्चाति भक्तितः ।। ५५ ।।
सत्यं स एव पूजात्मा समायातः स्वपुण्यतः । मत्त्वेतिमानशे तुष्टा गत्वा तं भूपति जगुः ॥ ५६॥