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________________ ४] श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद शीतलोत्तम दिव्यध्वनि को धारण करने वाले (श्री शीतलं जिन) श्री शीतलनाथ प्रभु को (बन्दे) मैं नमस्कार करता हूँ। __ भावार्थ-कुन्दपुष्प का वर्ण श्वेत-धवल होता है और श्री पुष्पदन्त भगवान भी उत्तम धवल कीति और गुणों के धारी थे तथा शरीर का वर्ण भी श्वेत कान्ति से युक्त था अतः प्राचार्य श्री ने स्तुति करते समय आपको कुन्दपुष्पवत बताया है । पुनः श्री शीतलनाथ भगवान की स्तुति करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि आपकी वाणी सर्वाधिक शीतलता और शान्ति प्रदान करने वाली है। यद्यपि लोक में बहुत से शीतल पदार्थ हैं लेकिन वे किसी निश्चित समय में और निश्चित पदार्थ को ही शीतल बनाते हैं और आपकी वाणी प्राणीमात्र को सुख शान्ति प्रदान करने वाली हैं अर्थात् सर्वभूतहितषिरणी है । इस प्रकार स्तुति करते हुए उन गुरणों को प्राप्ति के लिये आचार्य श्री नवें और दसवें तीर्थंकर श्री पुष्पदन्त और श्री शीतलनाथ प्रभु को भी नमस्कार करते हैं ।। ६ ।। श्रेयोजिनं जगच्छ यस्कारणं भवतारणम् । वासुपूज्यं जगत्पूज्यं पनरागमणिप्रभम् ।। ७ ।। निर्मलं विमलाधीशं संस्तुवे शर्मदायकम् ।। अनन्तानन्त समात्रमानन्हं जिलदगम् ।।८।। - अन्वयार्थ--(जगच्छ यस्कारग) जगत् के लिये श्रेयभूत जो मोक्ष है उसकी प्राप्ति में समर्थ कारण स्वरूप तथा (भवतारणं कारग) संसार समुद्र को पार करने में कारणभूत (श्रेयोजिन) श्री श्रेयांसनाथ भगवान को तथा (पद्यरागमणिप्रभम्) पद्यरागमरिण के समान कान्ति वाले (जगत्पूज्यं) तीन लोक के द्वारा पूज्य ऐसे (वासुपूज्यं) वासुपुज्य भगवान को तथा (निर्मल) मोह रूपीमल से रहित (शर्मदायकम्') उत्तम सुख को देने वाले (विमलाधीशं) विमलनाथ भगवान को तथा (अनन्तानन्त सज्ञान) अनन्तानन्त पर्यायों सहित अनन्त पदार्थों को जानने वाले (अदभुतम् ) अलौकिक गुरगों के धारी (अनन्तं) अनन्तनाथ भगवान को (संस्तुबे) स्तुत करता हूँ अर्थात् उनको मैं नमस्कार करता हूँ। . भावार्थ-यहाँ प्राचार्य श्री श्रेयांस नाथ, वासुपूज्य, बिमलनाथ और अनन्तनाथ भगवान को भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। धातिया कर्मों को पागम में मल कहा है क्योंकि ये सभी पाप रूप हैं जीव के गुणों का घात करने वाले हैं । ऐसे धाति कर्म रूपीमल का जिन्होंने समूल नाश कर दिया है ऐसे श्री विमल नाथ भगवान हैं । पुन: अनन्त दोषों का स्थान जो मोह वा अज्ञान उसको मेद विज्ञान के बल से जिन्होंने नष्ट कर दिया है ऐसे श्री अनन्तनाथ भगवान हैं । जिनको आत्म अभ्युदय के लिये प्राचार्य श्री नमस्कार करते हैं ।। ७ ।। ८ ॥ धर्म सवधर्मतीर्थेशं मुक्तिदं संभजाम्यहम् ।। शान्तीशं शान्तिदं वन्दे शान्तदान्तस्समाश्रितम् ।।६। ।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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