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श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ]
हरम्) सुन्दर (चतुर्विधमहासङ्घबात्सल्यम्) चतुर्विधमहासङवात्सल्य (चकार) किया (भूरिः) बहुत सा (स्वर्णादि दानतः) स्वर्ण प्रादि दान से (याचकादीनाम्) याचकों का (दारिदयम्) दारिद्रय (चोदयामास) दूरकर दिया (सत्यम् ) निश्चय ही (भवात्मा) भव्यजन (जिन पूजा महोत्सवैः) जिनदेवपूजनादि महोत्सत्रों द्वारा (नित्यम् ) प्रतिदिन (जगज्जीवनमु. त्तमम् ) संसारी जोत्रों को उत्तम (श्री मज्जिनेन्द्राणाम्) श्री मज्जिनेन्द्र बिम्बों की (प्रतिष्टादिषु) प्रतिष्ठा आदि (कर्मसु) कार्यों में {पूजनम् ) पूजा (संभवेत्) सम्भव होवे वो करें (इत्यादिकम्) उपर्युक्त धर्मकार्यों (जिनः) जिनप्रभु से (प्रोक्तम) उपदिष्ट (दानपूजादि लक्षणम्) दान पूजादि लक्षण भूत कार्यों को (सदा ) सतत् (कृर्वन) करता हुआ (सः) बह (श्रीपाल:) श्रीपाल (महाराज:) महाप्रभु (सुखम् ) सुखपूर्वक स्थितः) रहने लगा। (तथा) इस प्रकार (तस्य। उस (नरेन्द्रस्य नरनाथ का (शर्मदा:) शान्तिदेने वाला (सर्वसज्जनानाम् ) सभी सत्पुरुषों को (मनः प्रिया) चित्तहारी (सम्पदः) वैभव (संक्षेपेण) संक्षेप से (निगद्यते) वर्णन करा जाता है ।
मावार्थ--श्रीमद् कोटिभट महामण्डलेश्वर सपरिवार समस्त अन्तः पुर सहित तथा परिजन-पुरजन सहित पुन: महा परम पावन श्री सिद्ध व्रत धारण कर माया । समयानुसार आष्टाहिक पर्व आने पर पुनः उसने आठ दिन उपवास कर उत्तम विधि से अनेको महोत्सवों सहित सकल नर-नारियों से मण्डित हो यह अपूर्व ब्रत सम्पन्न किया। पूर्ववत उससे भी अधिक भक्ति, श्रद्धा वात्सल्य, प्रभावना युत उद्यापन किया।गनचम्बी अत्यन्त उच्चत समनोज. आकर्षक अनेकों जिनालयों का निर्माण कराया । उन्हें सुन्दर नानारंगों वाली अनेकों स्वर्ण रत्नमयी बाजारों से, तोरणों, मालाओं, कलशों आदि से सज्जित कराया। प्रकृत्रिम चैत्यालयों से भी प्रतिस्पर्धा करते हुए दृष्टिगत होते थे। परमानन्द विधायिनी स्वर्ण और रत्नों की अमूल्य, मन-मोहक जिन प्रतिमाएँ पञ्चकल्याण विधि से प्रतिष्ठा करवाकर विराजमान करवायो । चतुर्विध संघ की साक्षी में आषोक्त विधि से विधि-विधान कराये । स्वर्णरत्नादि निर्मित कलशारोहण व ध्वजाराहण कराया। धमत्मिा जनों का यथा योग्य भादर-सत्कार किया। स्वयं सविभूति श्री जिनालय में आया । चतुर्विध संघ से परम वात्सल्य प्रदर्शित किया। संघ की पूजा-भक्ति, धर्मश्रवण, तत्त्व चर्चा, सेवासुथ्षा, वैयावृत्ति आदि कर परमानन्द लाभ लिया। स्वयम् भूपेन्द्र ने याचक जनों को इतना दान दिया कि राज्य में दारिदय संज्ञा भी खोजने पर न मिले अर्थात् सबको धनाढ्य बना दिया । सबके दुःख, दैन्य, ताप दूर कर दिये । जिनपूजा, प्रतिष्ठा विधि-विधानों में जितना जो-जो संभव हो सकता है वह सब कुछ उस राजा ने किया। इस प्रकार महा महात्सवों सहित अत्यन्त सुख से वह महीधर श्रीपाल राजेन्द्र कालयापन करने लगा । प्रतिदिन, दानपूजादि षटकर्मों का पालन करने लगा। अपार वैभव के साथ उसकी जिन भक्ति और जिनाममनरुचि तथा गुरुभक्ति भी उत्तरोत्तर प्रगाढ होती गई । इस प्रकार उसका प्रानन्द से लौकिक जीवन व्यय होने लगा और पारलौकिक जीवन का पूर्ण विकास को आधार शिला सुरत होने लगी। आचार्य श्री १०८ सकलकोति जी पाठकों को पुण्यकार्यों में उत्साहित करने के लिए अब उस महानुभाव श्रीपाल के वैभव का संक्षिप्त वर्णन करते हैं ।।६ से १५॥