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[ श्रपान चरित्र सप्तम परिच्छेद
अपनी श्रेष्ठ गुणवती पत्नियों-परिजन पुरजनों के साथ बड़े-बड़े राजा महाराजा भी बादित्रों की मधुर संगीत ध्वनि और पञ्चवर्ण वालों ध्वजाओं के साथ उपस्थित थे। सभी सज्जन पुरुष श्रीपाल महाराज की सेवा में तत्पर थे । इस प्रकार चारण भाटों के स्तुतिगान और वादित्र की सुमधुर ध्वनियों से युक्त राजा महाराजों से सेवित वह श्रीपाल ऐसा प्रतीत होता था मानो छत्र चमरों को धारण किये हुए देवों से सहित सत् देवेन्द्र हो है ।।७२ मे ७५।।
तत्र चम्पापुरीमध्ये पितुः स्थानमनुत्तरम् ।
सुधोस्संप्राप्य संतुष्टो, मानसे भरतो यथा ॥ ७६ ॥
अन्वयार्थ - ( तत्र ) वहां (चम्पापुरीमध्ये ) चम्पापुरी नगरी के अन्दर ( पितुः ) पिता के ( अनुतरम् स्थानम् ) श्रेष्ठ राजपद को (संप्राप्य ) प्राप्त कर (मानसे सन्तुष्टो वे उस प्रकार चित्त में सन्तुष्ट हुए ( यथा ) जैसे ( भरती ) भरत चक्रवती दिग्विजय से संतुष्ट हुआ था ।
भावार्थ- अपनी चम्पापुरी नगरी में पिता के श्रेष्ट राजपद पर अवस्थित वह श्रीपाल ति में उसी प्रकार मन्तुष्ट हुआ जैसे दिग्विजय से षट्खण्डाधिपति भरत को सन्तोष हुआ था ।। ७६ ।।
तदा ते भूमिपासवें परमानन्द निर्भराः । जिनेन्द्रस्नपनं कृत्वा सारपञ्चामृतादिभिः ॥७७॥ स्वर्ण सिंहासने तुङ्ग महोत्सवशतैरपि । श्रीपाल स्थापयित्वोच्चैस्वच्छतोयादिसंभूतैः ॥ ७८ ॥ लसत्काञ्चनसत्कुम्भेगत वादित्र मङ्गलैः । राज्याभिषेकमत्युचैः कृत्वा प्रीत्या शुभोदयात् ॥७६॥ वस्त्राभरणसंदोहैः पूजयन्तिस्म भक्तितः । सत्यं स्वपूर्व पुण्येन किं न जायेत भूतले ॥८०॥
अन्वयार्थ - - ( तदा ) तत्र ( परमानन्दनिर्भरा : ) परमानन्द से भरे हुए ( ते सर्वे भूमिपाः ) उन सभी राजाओं ने (सारपञ्चामृतादिभिः ) सारभूतपञ्चामृतजल, इक्षुरस, घुल, दुग्ध और सर्वोषधि से (जिनेन्द्रस्तपनं कृत्वा) जिनेन्द्र प्रभु का अभिषेक कर ( महोत्सवतैरपि सैकड़ों महाउत्सवों के साथ (तु स्वर्णसिहासने ) ऊँचे स्वग्भिय सिहासन पर (श्रीपाल स्थापयित्वा ) श्रीपाल को स्थापित कर ( उच्चैः ) श्रेष्ठ, उत्तम, ( स्वच्छतोयादिसंभूतः ) रवच्छ जल से भरे हुए( लसत्काञ्चन सत्कुम्भः) सुन्दर, सुवशमय उत्तम कलशों से ( गीत वादित्र मङ्गले) मङ्गलमय वादित्र ध्वनि के साथ ( उच्चैः प्रीत्या ) अत्यन्त प्रीति पूर्वक ( राज्याभिषेकं कृत्वा) राज्याभिषेक करके ( वस्त्राभरणसन्दोहैः ) वस्त्राभूषणों से ( शुभोदयात् ) पुण्योदय से अथवा शुभ परिणामों से (भक्तितः) भक्तिपूर्वक ( पूजयन्तिरम ) पूजा की। (सत्य) ठीक ही है (स्वपूर्वपुण्येन) अपने पूर्वपुण्य से ( भूतले) पृथ्वी पर (किं न जायेत ) क्या अशक्य है ? अर्थात् कुछ भी अशक्य वा अप्राप्त नहीं होता ।