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________________ ४२४] [ श्रीपाल चरित्र सप्तम परिच्छेद वाले ( जिनेन्द्राणां ) जिनेन्द्र प्रभु के ( धर्मं कुर्वन ) धर्म को करता हुया ( दनपूजाव्रतोपेत ) दान पूजा प्रतादि से सहित (परोपकृति तत्परः) परोपकार में तत्पर वह श्रीपाल ( राज्ये ) राज्य में ( सौख्यं स्थितः ) सुखपूर्वक रहा ( स श्रीपाल ) वह श्रीपाल ( पुत्रवत ) पुत्र के समान ( सर्वाः प्रजाः प्रीत्यापालन ) समस्त प्रजा का प्रीति पूर्वक पालन करता हुआ (सद्राज्यपालनात ) राज्य का श्रेष्ठ रोति से पालन करने से ( सुनोतित्रित ) नीति को सम्यक् प्रकार जानने वाला (सत्य) यथार्थ (प्रजातः ) राजा हुआ । भावार्थ - इस प्रकार राजाओं के द्वारा सेव्यमान और पञ्चेन्द्रियों ने उत्पन्न सुख को अत्यन्त आनन्द से भोगता हुआ चिरकाल तक जगत का हित करने वाले जिनधर्म का अर्थात् श्रावक धर्म का अच्छी तरह पालन करता हुआ वह श्रीपाल निरन्तर दान पूजा में तथा व्रतानुष्ठान में तत्पर रहता था । | कहा है “नादाने किन्तु दाने हि सतां तुष्यन्ति मानस' सज्जनों का चित्त लेने से नही अपितु देने से त्याग से सन्तुष्ट होता है। इसी प्रकार श्रीपाल महाराज की प्रजा की सेवा कर वा परोपकार कर विशेष श्रानन्द होता था । उनका चित्त सदा परोपकार में संलग्न था । वे पुत्र के समान समस्त प्रजा का प्रीतिपूर्वक पावन करते थे। इस प्रकार राजोचित समस्त धष्ट गुणों से युक्त, नीति को सम्यक् प्रकार जानने वाले श्रीमान महाराज ही यथार्थ प्रभावशाली राजा हुए ।।६० से ६२ ।। धर्मेण निर्मलकुलं विमला च लक्ष्मी । धर्मेण निर्मलयो विमलं च सौख्यम् ।। स्वर्गापवर्गभ्रमलं जिनधर्मतश्च । तस्मात् सुधर्ममतुलं सुधियः कुरुध्वम् ||३|| अन्वयार्थ --- (अ) धर्म कार्य को करने से ( निर्मलकुलं ) श्रेष्ठ पवित्र कुल (विमला लक्ष्मी च ) न्यायोपात्त धन अथवा गद रहित, सातिशय पुण्य को उत्पन्न करने वाली सम्पत्ति प्राप्त होती है । ( धर्मेण ) धर्म से ( निर्मलयो) निर्मल यश (म) और (विमलं सौख्यम ) निर्मल अर्थात निराकुल स्थाई यथार्थ सुख प्राप्त होता है। ( च स्वर्गापवर्गम् अमलम् ) स्वर्ग और कर्मफल से रहित सिद्ध अवस्था अर्थात् मोक्ष ( जिनधर्मतश्च ) जिनधर्म से प्राप्त होता है। ( तस्मात् ) इस लिये (सुधियः) सुश्रीजन, विइञ्जन ( सुधर्म अतुलं ) श्रेष्ठ, अनुपम जिनधर्म को (कुरुध्वम् ) करें। भावार्थ - - श्रीपाल महाराज के पवित्र जीवन चरित्र को उपस्थित कर यहाँ धर्म के अतुल माहात्म्य को प्रकट किया है। धर्मान्तरण से उच्च, पवित्र कुल और न्यायोपात वा जो मदको पैदा न करे ऐसा धन वैभव प्राप्त होता है। कहा भी है "सा श्रीर्यान मंद कुर्यात " वही धन सुख को देने वाला है जो मद को पैदा न करें। ऐसा सातिशय पुण्य को उत्पन्न करने वालो लक्ष्मी भो धर्माचरण से प्राप्त होती है। धर्म से निर्मल यश और निराकुल स्थाई सुख प्राप्त होता है | इसलिये विद्वज्जनों को चाहिये कि वे निरन्तर श्रेष्ठ अनुपम उस जिनधर्म का पालन करते रहें ||३||
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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