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________________ भोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] [५१६ अन्वयार्थ--(सुधीः) बुद्धिमान भूपति (भव्यसत्तमः) भव्यात्मा (स्वचित्ते) अपने मन में (सं-चिन्तयामास) बार-बार विचारने लगा (अहो) पाश्चर्य है (यथा) जिस प्रकार (अत्र) यहाँ (कर्दमे) कीचड में (अयम् ) यह (महागजेन्द्र:) विशालकाय हाथी (मग्नः) दुब गया (तथा) उसी प्रकार (मोहकर्दमे) मोहरूपी कीचड़ में (सर्वः) सर्व (मूत्र:) मूर्ख (जनः) लोग (निर्मग्नः) डूब गये, (तथा) उसी प्रकार (कामज्वरातिसन्तप्ता) कामज्वर की दाह से सन्तप्त (मूढः) अज्ञानी (मे मे कुर्वन्) मेरा-मेरा करते हुए (स्त्रीकायकर्दमे) स्त्रीके शरीररूपी कीचड़ में (मग्नः) फंस (यममन्दिरम् ) मृत्युमहल को (यास्यन्ति) चले जायेगे अत: (यः) जो (अङ्गिनः) प्राणियों को (बलात्) बलपूर्वक (नयति) ले जाता है (स: एव) वही (यमः) यमराज-मृत्यु ( हन्तव्य:) नष्ट करनी चाहिए। भावार्थ----उस श्रीपाल महास्वामी के राज्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये द्विजातीय उसी के समान दयाधर्म का पूर्णतः सावधानी से रालन करते थे । ब्राह्मण, क्षत्रिय योर वश्य का दो बार संस्कार होता है इसलिए ये द्विजातीय कहलाते हैं। प्रथम इनका जन्म संस्कार होता है तथा पुनः आठ वर्ष, ११ वर्ष में पुनः यज्ञोपवीत संस्कार होता है । अतः ये तीनों वर्ण द्विज को हो,: द्विवे द्विजाती। इन है . मी अहिंसाधर्म का यत्नतः पालन करते थे। जिनधर्म धारी राजा स्वयं जिनधर्म की ध्वजा धारण कर दयाधर्म विजयी हो दान, दया, पूजा करता हुआ परोपकार में संलग्न रहता था। उसने अपने तेज और प्रताप से समस्त मात्रुओं को मित्र बना लिया था। सर्वत्र विजय पताका फहरा विशाल साम्राज्य का अधिकारी हुमा सजनजनचित्तवल्लभ वह नाना सुखोपभोग की सामग्री प्राप्त कर बहुत काल तक सुख ..... -- - .. . AITHI 3 . 111
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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