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________________ ३८२] [श्रीपाल धरित्र षष्टम परिच्छेद श्रीपालं तं विलोक्योच्चस्सा माता कमलावती। सन्तुष्टा मानसे गाढं स्वतत्त्वं वा मुनेर्मतिः ।।१२५॥ ततः तदर्शनेनोच्चर्भार्या मदनसुन्दरी । प्रकाशं कमपि प्राप भास्करस्येव पधिनी ॥१२६॥ अन्वयार्थ - (तम ) उस (श्रीपालम ) श्रीपाल पुत्र को (गाढं) अत्यन्त प्रेम म (विलोक्य) देखने से (सा) वह (माता कमलावती) मां कमलावती (मानसे) मन में (सन्तुष्टा) सन्तुष्ट हुयी (वा) मानों जैसे (मुने:) मुनिराज की (मतिः) बुद्धि (स्वतत्त्वम् ) स्व-यात्म तत्त्व को पा लिया हो (ततः) इसी प्रकार (तदर्शनेन) उस श्रीपाल के दर्शन से (उच्चैः। विशेषरूप से भार्या; माद ) मदनसुन्दरी (कमपि) कोई भी मानों (प्रकाशम् ) प्रकाश ही (प्राप) प्राप्त किया हो (भास्करस्य) मूत्र का प्रकाश्य (एव) ही (पद्मिनी) पद्मिनी को मिला हो । भावार्थ--अपने आज्ञाकारी, विनम्र, गुणान्वित पुत्र श्रीपाल को देखकर माता कमलावती को असीम आनन्द हुआ । उसका मन उमंग और शरीर रोमाञ्चों से पुलकित हो गया । उस समय ऐसा लगता था मानों कोई आगम के अध्ययन में संलग्न मुनिराज किसी तत्त्व को पागये हों । अर्थात् तत्वान्वेषी साधु तत्त्व का परिज्ञान कर जिस प्रकार आनन्दित होते हैं उसी में डूब जाते हैं उसी प्रकार कमलावतो पुत्र प्रेम में निमग्न हो गई। उसी प्रकार महासती मैंनासुन्दरी को भी मानों प्रकाश की किरण मिली । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से पचिनो प्रफुल्ल हो जाती है उसी प्रकार श्रीपाल नृप की प्रेमभरी दृष्टि से मदनसुन्दरी का म्लानमुख विकसित हो गया । अन्तःकरण की किरणें नेत्रों से प्रस्फटित हो निकलती हैं । यद्यपि श्रीपाल जी ने अपनी पत्नी का प्रालिंगन नहीं किया, स्पर्श भी नहीं किया क्योंकि यह माता के समक्ष अशिष्टता का प्रतीक है । तो भी जिस प्रकार सूर्य दूर रहकर भो अपना किरणों से कुमुद को विकसित वार देता है उसी प्रकार श्रीवाल की अनुराग भरी दृष्टि ने अपनी भार्या को प्रसन्न कर दिया ।।१२५, १२६।। तदा स्वयं यथालाभ कथानकमनुत्तमम् । गदित्वा च तयोश्चितं रञ्जयामास धीर धीः ।।१२७।। अन्वयार्थ-(तदा) यथास्थान स्थित हो तब (स्वयम ) स्वयं थोपाल ने (यथालाभम ) जिस-जिस प्रकार लाभ-धन मम्पदादि प्राप्त किये वे (अनुत्तमम् ) अद्भुत और अश्रुतपूर्व महान (कथानकम ) कथानकों को (गदित्वा) कहकर (च) और सुनकर (तयोः) उन दोनों का (चित्तम्) मन (धीर धी:) स्थितप्रज्ञ श्रीपाल ने (रज्जयामास) अनुरजित किया । भावार्थ-माताजी की अभ्यर्थना कर कोटीभट स्थिरता से विराजे । सभी एक अनूपम आनन्द तरङ्गों में हिलोरे लेने लगे । उसी समय महाराज श्रीपाल ने अपने प्रवास के
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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