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________________ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ] [ २८५ को अग्नि परीक्षा ली गई । उस समय उस महासती ने इसी परम पावन मन्त्र के प्रभाव से सफलता प्राप्त की। अग्निकुण्ड को शीतल जल भरा सरोवर बना दिया। यही नहीं देवों से पूज्य भी हुयी। इस मन्त्रराज के प्रसाद से सर्व कार्य सिद्ध होते हैं। सुदर्शन मेठ की शूली सिंहासन बन गई । महाशीलवन्ती सोमा के घड़े में स्थित सर्प सुन्दर मुक्ताहार बन गया। इतना ही नहीं इसके प्रभाव से जन्मजन्मान्तर में अर्जित पाप समूह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार रत्रि के उदय होते ही घोर अन्धकार विलोन हो जाता है । भयङ्कर प्रटदो निवासी र हिंसक, दुष्ट सिंहव्याघ्न, भालू आदि पशु भी शान्त हो जाते हैं, स्वभाव से बैर त्याग देते हैं, मित्रवत् सरल हो जाते हैं । प्रागहारी भी सहायक बन जाते हैं । दु:ख, दरिद्रता, दुर्भाग्य, राज्य विप्लव रोग, शोक जन्य कष्टों का भय नहीं रहता । श्राकस्मिक घटनाओं का आत प्रक्रमण नहीं कर सकता | बल्कि विपत्तियाँ सम्पत्तियाँ हो जाती हैं। दुर्जन सज्जन और शत्रु मित्र हो जाते हैं । इस मन्त्रराज के प्रभाव से बेचारा दुर्गति में पड़ा कुत्ता भी क्षणमात्र में सुन्दर सुख सम्पन्न देव हो गया । शिशकते कुत्ते को दयालु जोबन्धर कुमार ने पञ्चनमस्कार मन्त्र सुनाया, जिसे अवधारण कर वह दूसरे स्वर्ग में ऋद्धिधारी देव हो गया । क्या विशाल महिमा है इसकी कि एक नीच चोर भी अन्तर्मुहूर्तमात्र में स्वर्ग में जा बसा । यह सर्वत्र प्रसिद्ध है । इस मन्त्र द्वारा राक्षस, भूत, व्यन्तर पिशाचादि क्रूर जीव भी दूर भागते हैं, वैर-विरोध छोड़ देते हैं यहीं नहीं सेवक बन कर सेवा करने लगते हैं। भक्त बन जाते हैं । यादर-सत्कार करते हैं । इस मन्त्रराज से दुर्गतियाँ नहीं होती। वे रुष्ट हो जाती हैं । भव भव भी पास नहीं प्राती : सद्गति स्वयंमेव चली आती हैं । जिस प्रकार मन्त्रवादी इच्छित पदार्थ को आकर्षित कर लेता है, उसी प्रकार तीनों लोकों का वैभव, सुख सामग्री इस मन्त्र के प्रभाव से बिना चाहे, स्वयमेव चली माती है । आचार्य श्री कहते हैं भो भव्यजन हो यह पञ्चपरमेष्ठी वाचक मन्त्र पैंतीस अक्षरों, अठ्ठावन मात्राओं से युक्त है, इसके आराधना से शुद्ध नन वचन, काय से ध्याने से इन्द्र, अहमिन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि की सम्पदा सहज ही प्राप्त होती है । सुख-शान्ति का साम्राज्य मिलता है, जो चाहे वह प्राप्त होता है | यह मन्त्र क्या है ? वस्तुतः यह इच्छितदाता कल्पवृक्ष हैं, कल्पवृक्ष तो जिस कोटि का होता है उसी कोटि की वस्तु देता है यथा 'भूषणाङ्ग' जाति का आभूषण, पानाङ्ग जाति का पेय आदि परन्तु यह तो अकेला हो दशों प्रकार के कल्पवृक्षों के कार्य को कर देने की सामर्थ्य रखता है । यह चिन्तित फलदायी चिन्तामणि रत्न है। यही नहीं जो भक्तिभाव से इसका ध्यान करता है वह बिना चिन्त ही फन पाता है । वाञ्छित फलदायी "कामधेनु" हैं यह । आचार्य परमेष्ठी परमगुरु आदेश देते हैं कि हे सुखार्थी भव्यजन हो आप निश्चय समझो, यह मन्त्र आत्मरक्षण का पिता, पालनकर्ता माता, सहायक बन्धु तथा मित्र है अतः सदैव ही भव्याशियों द्वारा दुःख-सुख हर हालत में इसका प्राराधन करना चाहिए । अहो, इस मन्त्र वो प्रभाव से तीर्थङ्कर को विभूति प्राप्त होती है तो फिर अन्य लौकिक सम्पदाओं की क्या कथा ? अधिक क्या कहें इस महामन्त्र के प्रसाद से स्वर्गादि की विभूति तो घास-फूस जैसे बिना ही श्रम के अनायास प्राप्त हो जाती है । परम्परा से मुक्ति लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है जो अचल अक्षय, अव्यय, अखण्ड, अविनाशी अनुपम सुख की खान है । इसके समक्ष स्वर्गादि का ara महातुच्छ है क्योंकि वह नश्वर और परिवर्तनशील है । अतः सुखेच्छों को निरन्तर इस मन्त्र का स्मरण करते रहना चाहिए। क्योंकि सुखी जनों के सुख की अभिवृद्धि होगी और r
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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