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समस्त पाठकगणों से मेरा विशेष अनुरोध है कि वे बहुत बारीकी से इस शास्त्र का अध्ययन करें और यथार्थता की तलहटी का स्पर्श कर अपनी ज्ञानदृष्टि को प्राञ्जल करें, पवित्र करें।
यह ग्रन्थ अमृतघट के तुल्य है, शब्दपरिमित हैं, सीमित हैं पर अंतिगम्भीर है । गागर में सागर ही भरा है। समुद्र का जल तो खारा है पर इस प्रथमानुयोग की गगरी में मौजूद सागर का जल अति मधुर सरस और शीतल, उत्तम औषध के समान है । जन्म, जरा मृत्युरूपी असाध्य रोग का भी निवारण करने वाला है, परम सुखकारी है। - ध्यान रखें कि जिस प्रकार भौतिक विज्ञान के साहित्य को शब्दमात्र से स्मरण कर लेने से काम नहीं चलता उसके वाच्यभूत पदार्थ का ज्ञान ब प्रयोग भी अपेक्षणीय है, उसी प्रकार जिनवाणी के शब्दों को पढ़ने सुनने मात्र से काम नहीं चलता, जीवन सुखकर नहीं बन सकता है। जीवन में उसके उपयोग की आवश्यकता है। जिस प्रकार आप धन कमाने में सब कुछ भूल जाते हैं। उसी प्रकार इन शास्त्रों का स्वाध्याय करते समय सब कुछ भूल जाय, याद रखें एकमात्र चेतना । तभी यह डगमगातो हुई नैया पार हो सकती है।
जिनवाणी माता की गोद का प्राश्रय ही इस निकृष्ट काल में विकल्परूपी निशाचरों से हमें बचाने में समर्थ है। कहा भी है
जान समान न मान जगत में सुख को कारण ।
इह परमामृत जन्म जरा मृत्यु रोग निवारण ।
इस 'श्रीपाल चरित्र' को पढ़ने से विपत्ति में धैर्य धारण करने के प्रति हमारा झकाव होता है तथा धर्म पुरुषार्थ ही हमारे जीवन विकास की कुन्जो है यह बात समझ में पाती है। अनन्य जिनभक्ति का मधुरफल देखकर मन के विचारों को एक नई दिशा प्राप्त होती है, सम्यग्दर्शन की पुष्टि होती है। शील, सदाचार ही जीवन का रस है, यह अनुभव में आता है । संसार, शरीर, भोगों में उदासीनता स्वतः होने लगती है । जिस प्रकार हवा के झोंकों से सघन बादल भी विघटित हो जाते हैं उसी प्रकार इस श्रीपाल चरित्र को पढ़ने से दुःख, शोक, संताप के बादल तत्काल विलीन हो जाते हैं । इस प्रकार मिथ्यात्व का उन्मूलन कर सम्यग्ज्ञान ज्योति को प्राप्त कराने वाला यह ग्रन्थ उपयोगी हो नहीं परमोपयोगी है।
फिर वक्ता की प्रमाणता से वचनों में प्रमाणता आती है। इस ग्रन्थ की टीका करने वाली पूज्या माताजो ने जिनवाणी का दूब मन्थन और आलोटन किया है, आपका ज्ञान बहुत गम्भीर और सूक्ष्म है । कठिन से कठिन प्रश्नों का समाधान विद्वज्जन आपके पास सहज प्राप्त कर लेते हैं । आपने. समाधिसम्राट प्राचार्य श्री १०८ महावीरकीति जी महाराज के पास रह कर चारों अनुयोगों का गहन अध्ययन किया था और अापको परम सुयोग्य शिष्या समझ कर प्राचार्य श्री ने अपनी समाधि के समय गणिनी" पद प्रदान किया था । संघस्थ त्यागी पढ़ाने का काम मस्यरूप से पाप हो करती थीं और अभी मो वही ऋम है। आपके । हुए बहुत से मुनि और प्राचार्य प्राज अपनी देशना स भाजीवों का कल्याण कर रहे हैं ।
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