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नमः ॥
|| दशम परिच्छेदः ॥
प्रदुद्भ्योऽनन्त सिद्धेभ्यो सर्व साधुभ्य एव च । धर्माया शरम्येभ्यो नमश्शरण सिद्धये ॥ १॥
अन्वयार्थ ( शरणसिद्धये ) श्राश्रयरूप शरण की सिद्धि के लिए (धर्मा) आत्मस्वभाव पाने के लिए (अद्द्भ्यः ) घरहंत परमेष्ठी के लिए (प्रनन्तसिद्ध भ्यः) अनन्त सिद्धों को (च) और (शरण्येभ्यो ) शरण देने योग्य ( सर्वसाधुभ्यः ) सम्पूर्ण साधु आचार्यः उपाध्याय और साधु (एक) ही हैं उन्हें (अत्र ) यहाँ (नमः) नमस्कार है ।
भावार्थ - इस संसार में भव्यात्माओं को पञ्चपरमेष्ठी हो शरण भूत हैं। क्योंकि जो स्वयं पूर्ण स्वाधीन हो गये वे ही अन्य को अपने आश्रित रखने में समर्थ होते हैं । अतएव इस श्लोक में मङ्गलाचरण करते हुए आचार्य श्री पञ्चपरमेष्ठी को नमस्कार करते हैं । अरहंत, सिद्ध और सर्वसाधु से यहाँ आचार्य, उपाध्याय को भी गर्भित समझना चाहिए क्योंकि मूल में सब वीतराग दिगम्बर यति ही हैं कार्य विशेष या कर्त्तव्य विशेषापेक्षा आचार्य और उपाध्याय पदों का आरोप किया जाता है । अस्तु साधु शब्द तीनों परमेष्ठियों का घोतक है । area कविराज ने अरहन्त, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और सर्वसाधु इन पचपरमेष्ठियों को मरण प्राप्त करने के लिए नमस्कार किया है। संसार सागर में पञ्चपरमेष्ठी ही सुद्ध नौका समान सहारे हैं । इनका माश्रय लेने वाला स्वयं स्वाश्रयी हो शरण्यभूत हो जाता है ॥ १ ॥
अथ श्रीपाल राजेन्द्रो गृहमागत्य पुष्यधीः । महापरिच्छदं सार्थ सान्तः पुरस्समन्वितः ॥ २॥ आष्टा महाप महोत्सवमकारयत् । तदा चम्पापुरी मध्ये महाशोभा ध्वजादिभिः ॥ ३ ॥ कारयित्वा सुधश्चाष्टौ दिनानि विधिपूर्वकम् । जिनेन्द्र प्रतिमानाञ्च सिद्धचक्रस्य भक्तितः ॥४॥ पञ्चामृतप्रवाहैश्च विधाय स्नपनं महत् । पूजामष्टौ दिनान्युरुचैरसञ्चकार महोत्सबैः ||५॥
अन्वयार्थ -- ( अथ ) इसके बाद ( पुण्यश्रीः ) पुण्यात्मा ( राजेन्द्रः ) महामण्डलेश्वर