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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ]
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उत्तम, मध्यम, जघन्य सत्पात्रों को आहारादि चारों प्रकार के दान देते थे। नारियाँ पतिव्रतधर्म से विभूषित थीं । पुरुष भी शील मण्डित थे। सभी पर्वो के दिनों में उपवास, एकाशन, परित्यागादि नाना करते थे । दान-पूजादि से प्रभूत पुण्यार्जन करते हुए बहुत काल तक अर्थात् आयुष्यपर्यन्त नाना प्रकार पञ्चेन्द्रियों के विषय-भोगों से उत्पन्न सुखों का aar करते थे । आयु के अन्त में यथा योग्य समाधि सिद्ध कर उत्तम स्वर्गादि को प्राप्त कर पुनः मनुष्यभव प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त करते थे ॥ २१ ॥
निर्ग्रन्थ मुनयो स्वस्थचित्ता निरन्तरम् ।
सुद्ध रत्नत्रयेणोच्चैर्यान्ति स्वर्गापवर्गकम् ||२२||
अन्वयार्थ - ( यत्र ) उस अवन्ति देश में ( निरन्तर ) सतत हमेशा ( स्वस्थचित्ता ) एकाग्रध्यानी-वशी (शुद्ध) निर्मल २५ दोषादि रहित ( रत्नत्रयेणोच्चैः ) रत्नत्रय से उन्नत ( निन्यामुनयः ) दिगम्बर मुनि ( स्वर्गापवर्गकम् ) स्वर्ग व भोक्ष को ( यान्ति ) जाते हैं ।
भावार्थ- - वह अवन्ति देशधर्म का शिरोमणिस्वरूप था। वहीं सदा ही निन्य दिगम्बर साधु विहार करते थे । मन इन्द्रियों को वश करने वाले एकाग्र चित्त से ध्यान करते थे । शुद्ध निर्दोष सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले थे। सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाले २५ दोष हैं----ङ्कादि दोष, मंद, ६-- प्रनायतन और ३-- मूढ़ताएँ ये २५ दोष हैं । आट दोष-
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१. शङ्गा तत्व के विषय में संदेह रखना ।
२. कांक्षा - धार्मिक क्रियाएँ करते हुए परभव सम्बन्धी भोग की वाञ्छा रखना ।
३. विचिकित्सा - धर्म और धर्मात्माओं में ग्लानि करना ।
४. मूड दृष्टित्व-- मिथ्या दृष्टियों की प्रशंसादि करना ।
५. प्रस्थितिकरण—स्वयं अथवा अन्य के धर्मभाव से विचलित होने पर स्थिर नहीं
करना ।
६. वात्सल्य और धर्मात्माओं के प्रति प्रेम नहीं रखना उनसे द्वेषादि करना । ७. प्रनुपगूहन अपनी प्रशंसा और अन्य की निंदा करना अथवा धर्म और धारियों में कारणवश दोष लग जाने पर उन्हें प्रकट करना बढ़ा-चढ़ाकर कहना ।
धर्ममार्ग की हानि करना निन्दा करना विघ्न डालना
८ प्रभावना - धर्म और आदि ।
आठ मद-मद का अर्थ है हंकार-अभिमान ये निम्न हैं ।
१. ज्ञानमद -- ज्ञानीपने का ग्रहंकार होना ।