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________________ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद] [३४५७ सौभाग्य के भार से अलकृत उत्तम सुधारस की वापिका स्वरूप (ता:) उन (कन्यकाः) कन्याओं को (समालोक्य) अबलोकन कर (सर्वकलाविज्ञानसम्पन्न:) समस्त कला-विज्ञान में निपुण (सुधी:) बुद्धिमान श्रीपाल ने (त्रैलोक्यमोहनम्) तीनों लोकों को मुग्ध करने वाले (गानादिकम् ) गानादिक (कृत्वा) करके (सर्व) राजा प्रजा सबको (मोहयित्वा) मोहित कर (च) और (तन्मनः) उन कन्याओं को भी प्रसन्न कर (असो) उसने (महोत्सवः) महान् उत्सव के साथ (तत्कन्य काणतम् ) उन सौ कन्याओं को (परिणीय) विवाह कर (तत्र) वहीं (सुस्वेन) सुख से (संस्थितः) रहने लगा (सुपुण्यात्) श्रेष्ठ पुण्य से (किम्) ज्या (न जायते) प्राप्त नहीं होता ? अर्थात् सब कुछ होता है। ___ भावार्थ-श्रीपाल द्वारा पूछे जाने पर वे व्यापारी अपना परिचय देते हैं। प्रथम विनय से नमस्कार किया । पुन : कहने लगे हे भूपाल हम लोग कुण्डलपुर नगर से आये हैं । वहाँ मकरध्वज नामका राजा प्रजापालन करता है । उसकी गुणवती सुन्दरी का नाम का रतिलका है। उन दोनों दम्पत्ति से उत्पन्न जन्मे मदनसुन्दर और अमरसुन्दर नामके कलागुण सम्पन्न दो पुत्र हैं । तथा रूप लावण्य सुधास्वरूप सौ कन्यायें है। ये एक से एक सुन्दरी पीयूषधाग समान सुख की खान हैं । सभी संगीत, नत्य, बादित्र कलाओं में निपूण हैं। इनमें ज्येष्ठ पत्री का नाम चित्ररेखा है। दूसरी जगदरेखा, सुरेखा, गुणरेखा, मनोरेखा, जीवन्ती, रम्भा, भोगवती, रतीरेस्त्रा इत्यादि यथा नाम तथा गुण १०० कन्याए हैं। इन सभी ने कठोर प्रतिज्ञा की है कि "जो महानुभाव, सत्पुरुष हम लोगों के नृत्य करते समय वाद्यवादन, गान गायन विद्याओं का प्रदर्शन करते हुए राजा का हृदय अनुरजित करेगा अर्थात् भूपति को प्रसन्न करेगा वही हम सबका प्राणवल्लभ होगा। यह हमारी घ्र व प्रतिज्ञा है। अन्य किसी भी पुरुष के साथ हम लोग विवाह नहीं करेंगी।" इस प्रकार उन वणिजनों से कन्याओं का वृत्तान्त ज्ञात कर श्रीपाल भूपाल तत्क्षण वहाँ जाने को तैयार हो गये । अतिशीघ्र वे कुण्डलपुर जा पहुंचे । शचि, रति समान उन अप्सरारूपिणी कन्याओं का अवलोकन किया । वास्तव में वे चन्द्रकला सरण सर्वाङ्ग सुन्दरी, नाना कला-गुणों को खान स्वरूप थीं। श्रीपाल कोटीभट के आदेशानुसार कन्याओं ने नत्यारम्भ किया । इधर गान योर वाद्य कलानों के पारङगत श्रीपाल ने अपना कोशल प्रदर्शित किया उस समय सभा का रूप यथार्थ इन्द्रसभा समान था । कुछ ही समय में राजा-प्रजा तन्मय हो गए । अपनी सुध-बुध भूल गये । फलत: राजा हर्ष विभोर हो गया और साथ ही वे कन्याए भी आकृष्ट हो निजभान खो बैठी। श्रीपाल महाराज ने तीनों लोकों को मोहित करने वाला गान गाया । समधुर कण्ठध्वनि से हृदय तार मंकृत हो गये और सारी सभा मस्ती मे भूमने लगी। मधुर बाद्यवादन भी तो वेजोड ही था। इस प्रकार विजयो श्रीपाल ने महावैभव और उत्सव के साथ उन सौ कन्याओं के साथ घूम-धाम से विधिवत पाणिग्रहण क्रिया । समस्त वधुओं के साथ वहीं स्थित हो गया । सत्य ही है पुण्य से जीव को क्या प्राप्त नहीं होता ? सब कुछ अनायास ही मिल जाता है । सुन्दर रमणियों के साथ अनेक प्रकार को भोगोपभोग की सामग्रियाँ भी प्राप्त हुयीं ॥३, ४, ५, ६, ७, ८, ६. १० ११ १२।। यथा स राजाऽपि तदा तस्मै सन्तुष्टो मकरध्वजः। श्रीपालाय ददौ तत्र नाना रत्नादि सम्पदः ॥१३॥
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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