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[ श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद
होने पर ही खिलते हैं। संध्याकाल सूर्यास्त के साथ जलज ( कमल) भी कुन्द हो जाते हैं । श्रतः पद्मों के विकसित होने से दिन में वह खातिका अद्वितीय रूपराशी दृष्टिगत होती थी । यहाँ "दिवस" द्वितीयान्त शब्द है । किन्तु निरन्तर के अर्थ में यह प्रयोग 'सप्तमी' के अर्थ में हुआ है यथा-मासे मत्रीते" महिने भर पढ़ा, परन्तु लगातार नहीं पढ़ा "मास मघोते" एक महा पढ़ा अर्थात् बिना रुके लगातार महोने भर पढ़ा इसी प्रकार यहाँ भी वह खातिका सतत् रोज हो दिन में शोभित रहती थो ।
पञ्चसप्ततलास्तुङ्गा रत्नस्वर्णादि निर्मिताः ।
सद्गुहा या हसन्तिस्म ध्वजाद्यैः स्वर्गाजांश्रियम् ||२६||
satta- - इस नगरी के ( रत्नस्वर्णादि निर्मिला : ) स्वर्ण से बने रत्नों से खचित ( पञ्चसप्ततलाः ) पाँच तल्ले, सात खने (तुङ्गा) ऊँ (सद्गृहाः) श्रेष्ठ घर-मकान (वा) मानों (ध्वजाद्य : ) ध्वजापताकादि द्वारा (स्वर्गजां श्रियम् ) स्वर्ग से उत्पन्न लक्ष्मी वैभव को ( हसन्तिम ] ही हंस रहे थे । अर्थात् उपहास कर रहे थे ।
भावार्थ -उस उज्जयनी परी में पाँच-पाँच सात-सात खन मंजिल के विशाल घरमकान थे । उन प्रासादों पर ध्वजाऐं फहराती थी। घंटियाँ बंधी थी तोरण द्वार लटकते थे जिससे ऐसा प्रतीत होता था मानों स्वर्ग में उत्पन्न लक्ष्मी का ये उपहास हो कर रहे हैं । क्योंकि ये महल सुवनिर्मित थे। रंग-विरत नाना रत्नों से खचित थे ज्योतिर्मय थे | जगमगाते ये प्रासाद अपनी कान्ति से स्वर्ग विभूति को मानों हंस रहे थे ||२८||
या पुरीसर्वदा सर्वसाखस्तु समुच्चयः ।
संभूता सजनारेजे श्री र्वा तद्रूपशालिनी ॥२६॥
अन्वयार्थ (सारवस्तु समुच्चयैः ) सारभूत उत्तम वस्तुओं के मुंह से (संभूता ) गरी हुई ( सजना) श्रेष्ठ जनों से सहित (तद्रूपशालिनी) श्रेष्ठ रूप को धारण करने वाली (वापुरी) जो नगरी अर्थात् वह उज्जयनी नगरी (श्री व ) मानों साक्षात् लक्ष्मी ही है । इस प्रकार ( रेजे) सुशोभित थी ।
भावार्थ - वह उज्जयनी नगरी अनेक प्रकार की उत्तमोत्तम वस्तुओं से भरी थी । अनेक सारभूत वस्तुओं से भरी हुई तथा वैभवशाली सम्पन्न सुन्दर श्रेष्ठ पुरुषों से सहित वह नगरी ऐसी भालुम होती थी मानों साक्षात् लक्ष्मी ही हो ।
यत्र भव्यजना सौख्यं संवसन्तिस्म पुण्यतः । धनधन्यैर्मनो रम्यैस्साज्जनः परिवारिताः ॥ ३० ॥
अन्वयार्थ - ( यत्र ) जहाँ उस नगर में ( भव्यजनाः ) भव्यजीव ( पुण्यतः ) अपने पुण्योदय से ( मनोरम्यैः) मन को प्रियकारी (घनैः धान्यै) धन धान्य ( सज्जनैः ) सत्पुरुष,