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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद
द्वार की प्राढ से उसकी गतिविधि को जानना चाहा । मन तो कभी का यहाँ पा चुका था अब शरीर ने भी उसी का अनुकरण किया । मानस ही उन्नत क्यों रहे शरीर भी तो उसका साथी है । अतएव श्रीपाल राजेन्द्र प्रिया महल में आ छ पकर बैठ गया ॥११० १११||
प्रच्छन्नं संस्थितं यावत् तावन्मदनसुन्दरी।
स्वभावे संस्थितां श्वश्रू सतों संम्प्राह सादरम् ॥११२॥
अन्वयार्थ--(यावत्) जब कि श्रीपाल (प्रच्छन्नम् ) गुप्तरूप से (संस्थितम् ) आकर बैठ गये (तावत) उसी समय (मदनमुन्दरी) मैंनासुन्दरी (स्वभावे संस्थिताम) शान्तस्वभाव में स्थित बैठी (सतीम् ) साध्वोरुपा (श्वम्) साजो को (सादरम्) विनयभक्ति से (सम्प्राह ) कहने लगी।
भावार्थ-उधर भूपेन्द्र श्रीपाल चुप-चाप आ बैठा, इधर उसी समय अपनी सती माध्वी शान्तस्वभावी सासू के पारा गाकर नमना और प्रादरभाव से विनयशोला मदनसुन्दरी अपना निर्णय कहने लगी । अर्थात् आगे क्या करना है-अभिप्राय बोली ।।११२।। क्या कहती है
ययुस्संवत्सरा भो मात ! द्वादशव निरन्तरम् । प्रद्याऽपि नो समायात पुत्रस्ते वल्लभो मम ॥११३॥ इदानी संग्रहिष्यामि संयमं श्रीजिनोदितम् ।
पापसंताप दावाग्नेश्शमनैक धनाधनम् ।।११४॥
प्रन्धयार्ण—मैंनासुन्दरो अपनी साम से कहती है (भो मात ! ) हे मातेश्वरी ! (निरन्तरम् ) दिन-दिन करके (द्वादश) बारह (एव) हो (सम्बन्तरा:) वर्ष ही (ययुः) बोत गये किन्तु (अद्य) आज (अपि) भी (ते) अापका (पुत्र) बेटा (मम) मेरा (वल्लभः) प्राणबल्लभ (न) नहीं (समायालः) पाये। (इदानीम्) इस समय मैं (पाप सन्ताप दावाग्ने:) पाप, सन्ताप रूपी दावाग्नि को शान्त करने के लिए (शमनैक) शमन करने के लिए (घनाएनम् ) सघनबादल है ऐसा (श्रीजिनोदितम् ) श्रीजिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित (संयमम् । संयममहावत (गृहिष्यामि । ग्रहण करूंगी।
भावार्थ - मदनसुन्दरी रात्रि के समय अपनी सास कमलावती से कहती है हे मातेश्वरी प्रतीक्षा करते हुए एक-एक कर ग्राज बारह वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं, परन्तु वचनानुसार आपके प्रिय पुत्र और मेरे प्राणेश्वर बल्लभ पतिदेव लौटकर नहीं आये। अब इस गहवास से मुझे. क्या प्रयोजन ? मैं इस समय पाप और सन्ताप का नाश करने वाला सबम धारण करूगी। हे माते ! स्त्री पर्याय के नाशक संयम का ही शरण मुझे. श्रेयस्कर है। श्रीजिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित तर हो मेरा आधार है । अस्तु, पाप तप को प्रान्ना दें ॥११३ ११४||