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________________ ४४] [श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद इन दुष्कर्मों का कठोर फल मुझे भोगना न पडे इस प्रकार का मार्गदर्शन कीजिये, जिससे मेरा कल्याण हो । श्राप विश्व बन्धु हैं, आप ही पिता हैं, पालक हैं, आप ही त्राता है पाप हो सब के गुरु हैं, सर्वज्ञाता हैं, सबका हित करने वाले हैं । भव्य रूपी कमलों को प्रबुद्ध-खिलाने वाल अपूर्व सूर्य हैं । हे गुरुवर ! आप करुणा सागर हैं । आप ऐसा व्रत दीजिये जिससे कि मेरे पापों का नाश हो और उत्तमगति को प्राप्ति हो। अथवा कोई भी दण्ड दीजिये जिससे मैं दुर्गति से बच सकू। और पापों का नाश कर आत्मशुद्धि करने में समर्थ हो सकू। अब, आप ही मुझे शरण हैं, पाप पतित उधाहरण हैं ।।४१ स ५।। सोऽपि श्रीवरदत्ताख्यो मुनिः सदज्ञान लोचनः श्रायकानां व्रतान्युच्चस्तस्मै दत्त्वा पुनर्जगौ ॥५७।। श्रूयतां भो प्रभो लोके सर्वपाप प्रणाशकृत् । सिद्धचक्रवतं पतं सर्वसिद्धि विधायकम् ।।५८॥ कुरु त्वं पापनाशाय सत्सखाय च शान्तये । वतेनतेन भो राजन् जायन्ते भूरिसम्पदः ।।५।। अन्वयार्थ----श्रीकान्त नरेश की प्रार्थना सुनकर श्री मुनिराज उसे सन्मार्ग प्रदर्शित करते हैं । (सद्ज्ञानलोचन:) सम्यग्ज्ञान नेत्रधारी (सः) वे (श्रीवरदत्ताख्य) श्रीवरदस नामक (मुनिः) मुनिराज (अपि) भी (तस्मै) उसके लिए (उच्चैः) उत्तम (थाबकानाम् ) श्रावकों के (वतानि) व्रत (दवा) देकर (पुनः) पुन: (जगौ) वोले (भो प्रभो) हे राजन् (श्रूयताम् ) सुनो (लोके) संसार में (सर्वपापप्रणाशकृत्) सम्पूर्ण पापों का नाशक (सर्वसिद्धिविधायकम् । सम्पूर्ण सिद्धियों का सिद्धिकारक (सिद्धचक्रवतम) सिद्धचक्रवत (पूतम् ) पवित्र प्रत को (त्वम् ) पाप (पापनाशाय) पाप नष्ट करने को (सत्मुखाय) उत्तम सुख प्राप्त्यार्थ (च) और (शान्तये) शान्ति पाने के लिए (कुरु) करो (भो राजन्) हे राजन ! (एलेन) इस (व्रतेन) व्रत से (भूरिसम्पदः) अनेक सम्पत्तियाँ (जायन्ते) प्राप्त हो जाती हैं। भावार्थ-श्रीकान्त राजा ने निविकार बालबत् अपने समस्त अपराध, दोष गुरुदेव श्रीवरदत्त मुनिराज के समक्ष निवेदन कर दिये । श्री वरदत्त मुनिराज सम्यग्ज्ञान रूपी लोचन से उसके सरल परिणाम और यथार्थ पालोचना को समझ गये 1 वीतरागी गुरु सर्वहितैषी होते हैं । उन्होंने उसे धैर्य बंधाते हुए मार्गदर्शन किया । उन्होंने सर्वप्रथम उसे पवित्र श्रावक के व्रत धारण कराये । पुनः बोले ! हे नप ! सुनो, संसार में समस्त पापों को क्षणभर में नष्ट करने घाला तथा सकल मनोकामनाओं का पूर्ण करने वाला सिद्धचक्र विधान है। इस व्रत से भवभव के पातक उस प्रकार विलीन हो जाते हैं जैसे सूर्योदय से रात्रि जन्य सघन तिमिर विलीन हो जाता है । सम्पूर्ण मनोकामनाए स्वयमेव पूरी हो जाती हैं । सिद्धियाँ आकर्षित हो दीड प्राती हैं । इसलिए तुम पातक हर, सुख बर्द्धक, शान्तिदायक महापवित्र सिद्धचक्र व्रत को धारण करो। भो राजन्, इस व्रत से अनेकों संकट टल जाते हैं और नाना सम्पदाएं खिंची चली आती
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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