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________________ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ] [ १८३ अन्वयार्थ - ( धौतैः ) धुले हुए ( सिते) सफेद (अक्षतः) खण्ड (अक्षतैः) चावलों से ( तुङ्गपुञ्जी ) ऊँचे पुञ्ज ( कृतैः ) करके ( मुक्तिनायक: ) मुक्ति के नायक ( परमानन्द ) परमोत्कृष्ट आनन्द के दायक (पूज्यते) पूजने योग्य हैं। अक्षतपूजर का वन हुआ मावार्थ - बासमती आदि उत्तम अखण्ड चावलों को शुद्ध जल से धोना चाहिए । उन पवित्र चावलों को दोनों मुट्ठियों से भरकर श्री जिनभगवान व यन्त्रराज के सम्मुख पुञ्जरूप में चढाना चाहिए। ध्यान रहे अक्षत रकेबी आदि से नहीं चढावे क्योंकि मुट्टी से ही चढ़ाये जा सकते हैं । चावल टूटे नहीं होना चाहिए। यह अक्षत पूजा अक्षयपद, परमानन्द की देने वाली है । पुष्पपूजा ॥१००॥ का स्वरूप : जातिचम्पक पुन्नागैः पद्माद्यैः कुसुमोत्करैः । इन्द्रादिभिः समभ्यर्च्यमर्चयन्तु बुधोत्तमाः ॥ १०१ ॥ अन्वयार्थ - ( इन्द्रादिभिः ) इन्द्रादि द्वारा पूज्य ( समभ्यर्च्यम्) पूजनीय जिनेन्द्रभगवान को ( बुधोत्तमाः) उत्तम बुद्धिमान भव्य श्रावक ( जाति चम्पक) जाति, मल्लिका, चम्पा ( पुन्नागैः ) पुन्नाग, केशर (पद्याद्य) कमल, गुलाब जुही, चमेली आदि (कुसुमोत्करैः ) सुन्दर सुगन्धित पुष्पसमूहों से ( अर्चयन्तु) पूजा करें भावार्थ – सिद्धचक्र - जिनभगवान की १०० इन्द्र नाना प्रकार के उत्तमोत्तम पुष्पों से पूजा करते हैं । उन जिन सिद्ध प्रभु की भव्य श्रावक वृन्द को भी भक्तिभाव से जुही, चमेली, जाति, पाटल, पुण्डरीक, कमल, नागकेसर, मल्लिका श्रादि के सुवासित, मनोहर पुष्पों से पूजा करना चाहिए। इस पूजा से कामवासना का नाश होता है और परिणाम विशुद्धि होती है ।। १०१ ।। पक्वान्नैश्चारुपीयूषंर्व्यञ्जनाद्यैरनुत्तमैः । दुःखदारिद्रय दौर्भाग्यदावानल घनाघनम् ॥१०२॥ अन्वयार्थ - - ( चारु) सुन्दर ( पियुषैः ) मधुर अमृतमय, (अनुत्तमैः) अपूर्व ( व्यञ्जनाद्यं :) पक्वान्नों ( पक्वान्नैः ) सुपच्य अन्नों से की गई पूजा ( दुःखदारिद्रय) दारिद्रय से उत्पन्न दुःख ( दौर्भाग्य) दुर्भाग्यजन्य पीडा रूपी ( दावानल) दावाग्नि के लिए ( घनाघनम् ) घनघोर घटा से घिरा मेघ है । भावार्थ- नाना प्रकार के मधुर लाडू, पेडा, बर्फी, खाजा ताजा और शुद्ध बनाकर, बाटी आदि घृतपूरित पक्वान्नों से तथा खीरादि व्यञ्जनों से प्रतिदिन श्री जिनेन्द्र भगवान, सिद्धचकादि की पूजा करना चाहिए। इस पूजा से दरिद्रता, दुर्भाग्य से उत्पन्न कष्टरूपी दावानल क्षणमात्र में उस प्रकार नष्ट हो जाती है, जिस प्रकार वनखण्ड में लगी दवाग्नि मेघवर्षण से शान्त हो जाती है ।। १०२ ।।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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