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________________ २६.०] [श्रीपाल चरित्र 'पञ्चम परिच्छेद जनों के नपनों को प्रिय लगने वाले श्रीपाल को (सादरम्) आदर सहित (निज) अपने ! मन्दिरम्) राजमहल में (ग्रानोय) लिवा लाकर (शुभे लग्ने) शुभलग्न में (रम्ये) महोहर-शुभ (दिने) दिन में (सज्जन:) पुरजन परिजनों से (परिवारितः) समन्वित हो (विधिना) विधिवत् अग्निसाक्षी पूर्वक (गुणोज्वलाम्) उत्तम गुणों से शोभित (सर्वाभरणभूषिताम् ) नाना अलङ्कारों से सजी, (कोमलाम्) सुकुमारी (कल्पवल्ली) कल्पलता (इव) समान (मनोनयन मन और नेत्रों को (बल्लभाम्) प्रिय (सतीम् ) साध्वी (गुणमालाख्याम् ) गुणमाला नाम वाली (नानारत्न) अनेकों रत्नों (सुवर्णाद्य:) सुवणादि (वाहनीय:) गज' अश्व रथादि के समूहों से (समन्विताम् ) सहित (ताम् ) उस (कन्याम् ) कन्या को (परमानन्दनिर्भरः) परम आनन्द से उल्लसित नरपति ने (महोत्सव शतः) सैकड़ों महा उत्सव (कृत्वा) करके (तस्मै) उस श्रोपाल को (ददौ) प्रदान की। भावार्थ--अपने सेवकों को द्वारा प्राप्त समाचार से महीपति धनपाल को बहुत प्रसन्नता हुयी । वह समस्त राज्यकार्य छोडकर दल-बल सहित स्वयम् उस पुण्यवन्त वीर गिरीमणि को देखने के लिए चल पड़ा। कुछ ही क्षणों में भूपति सागर तट पर प्रा पहुंचे । पाते क्यों नहीं संसार में योग्य वर की तलाश को दूर-दूर द्वीप, समुद्र अटवी पार कर जाना पड़ता है, वर्षों खोज करना होता है, अनेकों कष्ट और श्रम उठाना पड़ता है, फिर भला घर बैठे ही अनुपम रूप गुण, विद्या, कलाधर स्वयं आ जाय तो उसका स्वागत क्यों न किया जाता । उस अनुपम लावण्य और अनेकों उत्तम । ज्योचित चिन्हों से अलंकृत नवयुवक सत्पुरुष को देखते हो राजा के आश्चर्य और कन्या के पुण्योदय का ठिकाना न रहा । बस्तुतः सर्वगुण सम्पन्न योग्य वर पूर्वोपाजित विशेष पुण्यकर्म का ही फल है । भूपाल ने बड़े ही प्रेम, अनुराग वात्सल्य विनय और आदर से कृशल समाचार पूछा । क्षार जल से क्षत-विक्षत श्रीपाल को स्वच्छ निर्मल, शीतल, मधुर जल से स्नान कराया। उसके योग्य गंध पुष्प, माला, बस्त्र, अलङ्कार, यान-सवारी आदि भेंट की । कण्ठ में रत्नहार धारण कराया। अन्यजनों ने भी विनयभक्ति से उसका भरपूर आदर सम्मान किया । इस समस्स सज्जा घज्जा, भान-सम्मान से मनीषी श्रीपाल को न विस्मय था न हर्ष और न ही शोक । क्यों तत्वविद वैषयिक सूख सामग्री के पाने पर हर्ष और जाने पर विषाद नहीं करते । वे जानते हैं कि ये दोनों ही अवस्था कर्माधीन और क्षणिक हैं । धर्म और आत्मा को छोडकर कोई भी कुछ भी स्थायी नहीं है । अत: कोटिभट कर्मोदय समभ. इस वातावरण को भी तटस्थभाव से देख रहा था। स्नानादि होने पर नरेश धनपाल ने अपने महल में पधारने का अनुरोध किया। वह भी वालकवत निविकारभाव से उसके यहाँ जाने को तैयार हो गया । अत्यन्त टाट-बाट उत्सव, नृत्य, गान, बाजा-गाजा सहित श्रीपाल को नगर प्रवेश कराया जिसकी दृष्टि उस पर पडती, वहीं अटक जाती । सभी सतृष्णनेत्रों से उसे निहारते। अत: सर्वप्रिय नयनतारा हो गया वह पुण्यभण्डारी श्रीपान । राजा-रानी को परम सन्तोष हुमा उसे राजमहल में प्रवेश करा कर राजकुमारी ही नहीं समस्त परिजन-पुरजन उन होनहार भावी वर-वधू को शीघ्र ही तद् प देखने को लालायित थे। अस्तु, धनपाल राजा ने विद्वान ज्योतिषियों से निर्णयकर शुभलग्न, शुभदिन और शुभ वातावरण में अपने परिवार जन समूह और पुरजनों से समन्वित हो बडे ही महोत्सव सहित, समस्त
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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