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________________ ४३०] [श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद अन्वयार्थ-(तत्समाकर्य) श्रीपाल के उन प्रश्नों को सुनकर (श्रुतसागरः) धतसागर (मुनीन्द्रः) मुनिराज (सम्प्राह) बोले (भो श्रीपालः) हे श्रीपाल (प्रभो ! ) राजन (ते) तुम्हारे (सर्वम् ) सम्पूर्ण (भवम ) भव की घटना को (वक्ष्ये) कहूँगा (स्वम ) तुम (शृण ) सुनो। भावार्थ-श्रीपाल के प्रश्नों को सुनकर आचार्य श्री श्रुतसागर जी महाराज कहने लगे भो श्रीपाल राजन् ! आपके पूर्व भव का सकल वृतान्त मैं निरूपगा करता हूँ आप ध्यान पूर्वक सुनिये । पाप पुण्य का परिणाम क्या होता है अापको स्पष्ट हो जायेगा ।।७।। इहैव भारते क्षेत्रे पवित्रे जिन जन्मभिः । विजयार्द्ध गिरौ रम्ये विद्यानामास्पबे शुभे ॥८॥ एकोन षष्ठिकं तत्र पुरं रत्नाकराभिधम् । उत्तरणिसंस्थन् तत्त्पतिविद्याधराधिपः ॥६॥ श्री कान्ताख्या सतीतस्य श्रीमती प्राणवल्लभा । जिनं स्नपनम् पूजाद्यैः पात्रदानरण व्रतः ॥१०॥ उपवासादिभिपुण्यं श्रीमती कुरुते सदा । श्रीकान्तः केवलं भोगान् भुनक्ति विषयान्ध धीः ॥११॥ अन्वयार्थ---(इहैव) यहीं (भारते क्षेत्रे) भरतक्षेत्र में जो (जिनजन्मभिः) जिनाकों द्वारा पवित्र) पवित्र उसमें (रम्ये) रमणीक (विजयार्द्धगिरी) विजयगिरि पर (भे) शुभ (विद्यानामास्पदे) विद्याधरों के निवास में (उत्तरश्रेणी संस्थन्) उत्तर श्रेणो में स्थित (एकौनषष्टिकं) उनसठवाँ (रत्नाकराभिधम् ) रत्नाकर नामक (पुरम् ) नगर था (तत्र) वहाँ (तत्पतिः) उस पुर का राजा (विद्याधराधिप:) विद्याधर भूपति (श्रीकान्ताख्याः) श्रीकान्तनामा राजा और (श्रीमती सती) सती श्रीमती थीं। (श्रीमती) श्रीमती रानी (सदा) हमेशा (जिनस्नपनम ) जिनाभिषेक (पूजाद्य :) अष्ट विधि पूजादि (पात्रदानः) सत्पात्रदान (अण व्रतैः) प्रण व्रतपालन, (उपवासादिभिः) उपवास आदि द्वारा (पुण्यम.) पुण्यकार्य (कुरुते) करती रहती थी किन्तु (श्रीकान्तः) श्रीकान्त राजा (विषयान्ध घो:) विषयों में अन्धबुद्धि (केवलम् ) मात्र (भोगान्) भोगों को (भुनक्ति) भोगता था । भावार्थ--भारत क्षेत्र में विजयाद्ध पर्वत है । यह गिरि श्री जिनेन्द्र प्रभु के जन्माभिषेकों द्वारा महा पवित्र है । इसकी उत्तर श्रेणी में ६० विद्याधर नगरियाँ हैं । उनमें से उन. सठवीं पुरी का नाम रत्नाकर है। यह पर्वत जितना पावन था उतना ही यह नगर भी सुन्दर था । उसका विद्याधर राजा श्रीकान्त नामका राजा था उसकी रानी श्रीमती थी। श्रीमती महा पतिव्रता, शीलवती थी। वह हमेशा प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक, अष्टविधपूजा, पात्रदान, अण व्रत पालन, उपवास, जप, तप आदि द्वारा पुण्य सम्पादन करती थी।
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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