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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद |
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नगर (नदी) सरीता (अद्रि) पहाड (सालं) पंक्ति से (वेष्टयं) घिरा (खेटम् ) वेट (अभितः) चारों ओर (पर्वतेन) पहाड़ से (परिवत:) घिरा हो वह (खर्वटः) स्वर्वट (दशशतः) एक हजार ग्रामों से (वलित युवतं) चारों ओर सहित है । वह (मडम्ब) मडम्ब (रत्नयोनि) रत्नों की खान वाल। (पत्तनं पत्तन (सिन्धु वेला बलय-वलियितु ) सागर की लहरों को चारों ओर घेर कर रहने वाले (द्रोणः) द्रोण (च) और (आद्रिस्टम् ) पहाड़ पर बसने वाला (संवाहनं) संवाहन (आत्यम् ) कहा जाता है।
सरलार्थ.- जो चारों ओर वृक्षादि की बाद्ध मे वेष्टित रहता है उसे गाँव कहते हैं। जिसकी चारों दिशाओं में एक-एक गोपुर विशाल द्वार रहता है उसे नगर कहा है जो नदी पर्वत और कोट से घिरा रहता है उसे "खेट" कहते हैं। जो चारों ओर पर्वत मालाओं से परिवृत.धिरा रहता है उसे ''खर्वट" कहा जाता है। जिसके आधीन चारों ओर एक हजार गाँव शोभित होते हैं । उसे "मडम्ब" कहा गया है। जहाँ नाना रत्नों की खाने रहती हैं उसे "पत्तन" संज्ञा दी जाती है । जो समुद्र की लहरों से शोभित हो वह "द्रोग" कहा जाता है । तथा पर्वतों पर बसे हुए प्रदेश को संवाहन कहा जाता है। इनका विशेष स्वरूप प्रथम परिच्छेद में आ चुका है ।।५।।
यत्रवापीतटाकादि स्वच्छतोया जलाशयाः।
रेजिरे चाति गम्भीरा मुनीनां मनसोपमाः ।।६।। अन्वयार्थ-(यत्र) उस देण में (बापी) बाबड़ी:कूप (तटाकादि) सरोवरादि (स्वच्छतोया) निर्मल जल भरे (जलाशयाः) (च) और तडागादि, नदी वगैरह (अति ) बहुत (गम्भीरा) गहरे-गहरे (मुनीनां) वीतरागी साधुओं के (मनसोपमाः) निर्दोष मन के सदृश (रेजिरे) सुशोभित थे।
सरलार्थ दिगम्बर साधुओं के मन के समान उस अबन्ति देश के जलाशय-नद-नदी कूप, सरोवर, आदि निर्मल जल से मनोहर हो रहे थे।
भावार्थ---मुनिराजों का पावन मन विषय-कसायों रागद्वेष की पर से रहित कैसा है, अाशा तृष्णा की शैवाल बिहीन होता है । अतः विकार रहित स्वच्छ रहता है । इसी प्रकार उस अवन्ति देण के जलाशयों नदी सरोवर आदि का जल कीचड़ शैवाल, काई आदि से रहित था, स्वच्छ पवित्र, मधुर पोर आनन्द देने वाला था। इसलिए यहां प्राचार्य श्री ने उस जल को निर्मलता की तुलना मुनिराज के पवित्र मन से की है । सद्गुरुत्रों का मन समतारस से आव्यापित जगत हित कर्ता होता है । सर्वोदय की भावना से भरा रहता है। जल तो शरीर और वस्त्रों का मल धोने में समर्थ होता है किन्तु मुनिमन आत्मा की अनादिवास नोद्भत कर्म कल्मष प्रक्षालन करने में समर्थ होता है । "साधु' का दर्शन मात्र ही पाप कालिमा को स्वच्छ कर देता है कहा भी है “साधुनां दर्शनं पुण्यं" साधुओं का दर्शन पुण्य रूपी वारनिस कर आत्मा को चमका देता है ।।६।।