SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 581
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपाल चरित्र दशम परिच्छेद] [५४५ अन्वयार्थ--(सत्यम्) सत्य ही (दिवाकराणाम् ) सूर्यो की (प्रभा) कान्ति (नत्यशः) सतत (तस्थ्यापि) उसी में ही रहती है उसी प्रकार (अस्मिन्लोके) इस संसार में (अासन्न भन्यामूर्तय:) निकट भव्यजन (किम् ) क्या (त्यज्यन्ति) स्वस्वभाव छोड़ते हैं। (न) नहीं त्यामते। मावार्थ---ठीक ही है । आचार्य कहते हैं कि सूर्य निरन्तर ही अपनी प्रभा को अपने ही में समेट कर रखता है। कभी नहीं छोडता उसी प्रकार प्रासन्नभव्य मानव अपने भव्यत्वस्वभाव को क्या त्याग सकते हैं ? नहीं । महारानियों जिस प्रकार राज्यावस्था में राजा के साथ भोगों में साथ-साथ रहीं उसी प्रकार इस समय वैराग्य पथ पर पाने पर भी उसी का अनुशरण कर प्रवज्या मे विभूषित हो तपश्चरण में लीन हो गई । भला भव्यजन अपना स्वभाव क्यों तजे ? अर्थात् निरन्तर निजस्वभाव में ही रहते हैं ।।६।। कुर्वस्तपश्चिरं कालं श्रीपालो मुनिसत्तमः । यथा राज्यं कृतं पूर्व मुक्तिराज्यं कृतोद्यमः ।।१८।। साररत्नत्रयं धृत्वा शक्तियनानुत्तरम् । मोहाराति निराकतुं स स्वामी सुभटो यथा ॥६६॥ धर्मध्यानं चतुर्भेदं महासैन्यं चकार च । पक्षमासोपवासादि तपन्नाह्वमुद्रह्न ॥१०॥ अन्वयार्थ—(यथा) जिस प्रकार (पूर्व) पहले गृहस्थावस्था में (राज्यम् ) राज्य शासन (कृतम्) किया था उसी प्रकार (मुक्तिराज्यम्) मोक्षरूपी राज्य को (कृतोद्यमः) करने में उद्यमशील हो (श्रीपाल:) श्रीपाल (मुनिसत्तम:) मुनिपुङ्गव (चिरंकालम्) बहुत काल (तपः । तपश्चरण (बुबन्) करते हुए (हि) निश्चय से (यत्र) जिसमें (अनुत्तरमशक्तिः) अलौकिक शक्ति है उस (साररत्नत्रयम्) सारभूतरत्नत्रय को (धृत्वा) धारण कर (राः) उस श्रीपाल स्वामी मुनिराज ने (मोहारातिम्) मोह शत्रु को (निराकत म्) नाश करने के लिए (च) और (पक्षमासोपवासादितपन्) पन्द्रह व एकमास के उपवासों को करते हुए तपोजन्य (आह्वम्) संग्रामभूमि को (उहह्न) वहन करते हुए (चतुविधम् ) चार प्रकार धर्मध्यानम् ) धर्मपान म्प (महासन्यम्) विशाल सेना को (चकार) तैयार की (सुभटो यथा) एक महावीर योद्धा के समान (महासन्यम ) वृहद् सेना (चकार) तैयार की। सायार्थ परमपावन जिनदोक्षा धारण कर अब श्रीपाल कोटिभट महामुनीश्वर हो गये। जिस प्रकार श्रावक अवस्था में राज्य शासन को व्यवस्थापूर्ण-वीरता और न्याय से की थी उसी प्रकार अब मोक्षराजधानी के शासक बनने को भी उद्यमशोल हो घोर तप तपने लगे। पक्षोपबास, मासोपवादि कर घोर तप में संलग्न हुए। जिस प्रकार समराङ्गण में एका शूरवीर विशाल सेना लेकर सन्नद्ध हो युद्ध करता है शत्रु को परास्त करता है उसी प्रकार मोहरूपो सेना को परास्त करने के लिए ये मुनिपुङ्गव तपश्चरणरूप संग्रामभूमि में चार प्रकार के धर्मध्यानमयी
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy