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________________ मित शब्द जिनवाणी का भवन चार स्तम्भों का मेल हे । वे हैं प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरगानुयोग और द्रव्यानुयोग "प्रथमं करणं वरां द्रव्यं नमः ।" इससे प्रकट है । इनमें प्रथम स्थान प्रथमानूयोग को प्राप्त है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार पठनकला में निष्णात होने के लिए 'अ' अक्षर (वर्ग) अनिवार्य है उसी प्रकार अतिगंभीर और विस्तृत सागर समान श्रतसागर का पाग्गामो हान के लिए प्रथमानुयोग का अध्ययन आवश्यक है । वस्तुतः द्वादशाङ्ग में प्रविष्ट होने का यह मुख्य द्वार है या यों कहें कि तत्त्वस्वरूप के विश्लेषण द्वार को कुञ्जी है । जिन लोगों को यह भ्रान्त धारगा है कि यह कोरा कथा--विन्यास है-कहानी है या अतिशयोक्तियों का एकत्रित अखाड़ा है इत्यादि बे महान भ्रान्त है, अज्ञानतम के शिकार हैं और अपनी ज्ञान लघिमा के परिचायक हैं । प्रथमानुयोग, कथारूपी चासनी से लिपटी वह परम अचक औषधि है जो सरलता से अल्प प्रयास से आबालवृद्ध के कण्ठ से उतर कर उदर में पहुँच जाती है और उसके विषय-कषायों जन्य भोषण रोगों का सहज शमन कर स्वास्थ्य प्रदान करती है । प्रज्ञा को सजग बनाती है। चिन्तनशक्ति को प्रदीप्त करती है। धारणाशक्ति को ठोस बनाती है । ध्यान को बल प्रदान करती है। संयम त्याग ओर वैराग्य का मैल जमाती है। मनुष्य को जिनभक्त बना सम्यग्दृष्टि सम्याज्ञानी बना-विषयानुराग त्यागी और सम्यक तपी या चारित्रधारो बना ध्यानी बनाती हैं। जन्म, जरा, मरण के झमेले को दर्शाती और मिटाती है। परमागम के ये चारों अनुयोग एक दूसरे के पूरक हैं । तो भी प्रथमानुयांग देहली का प्रदीप है। जैन सिद्धान्त और दर्शन की गहन तत्बाटवी में सुगमता से प्रवेश कराने का द्वार है या यों कहो कि यह द्रव्यानुयोग तक पहुंचाने के लिए मार्गदर्शक है । प्रथमानुयोग का अर्थ है प्रथम अर्थात मिथ्यादृष्टि या अन्नतिक अव्युत्पन्न श्रोता को लक्ष्य करके जो प्रव्रत हो। इसमें सठ सलाका पुरुषों प्रादि का वर्णन किया जाता है। उसके अध्ययन से जीवन और मरण की कला हमें प्राप्त होती है । कुमरण और कुजन्म से बचने का उपाय अवगत होता है । पुण्य-पाप अर्जन रक्षण और उनके फल दृष्टिगत होते हैं जिससे संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति होती है । शुभाशुभ का भेद ज्ञात होता है. क्रमशः अशुभ से शुभ का और शुभ से शुद्ध का प्रादुर्भाव हो किस प्रकार प्रात्मा परमात्मा बन जाता है यह हमें प्राप्त होता हैं प्रथमानुयोग से । हम यदि यह कहें कि प्रथमागुयोग वह पुष्टबीज है जिसके पनपने पर फलने-फूलने पर अन्य अनुयोग भी विस्तार प्राप्त करते हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । प्रस्तुत शास्त्र प्रथमानुयोग सम्बन्धी है। इसमें श्रीपाल कोटिभट का जीवन ही अङ्कित नहीं, अपितु उभयघमै (श्रावक और यति) एवं अनेकान्त सिद्धान्त का भी विशद विश्लेषण है । जिनक्ति और सिद्धभक्ति के मधुर फल का अप्रतिम उदाहरण है। संसारी प्राणो बिभिन्न प्राधि-व्याधियों का शिकार होता है आलित हो शिकारियों से पीरित असहाय
SR No.090464
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages598
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size16 MB
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