Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवेन्द्रसूरि विरचित 2945 शतक नामक कर्म ग्रन्थ [पंचम भाग] [मूल, शब्दार्थ, गाथार्थ, विशेषार्थ,विवेचन एवं टिप्पण पारिभाषिक शब्दकोष आदि से युक्त व्याख्याकार मरुधरकेसरी, प्रवर्तक स्व. मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज सम्पादक श्रीचन्द सुरामा 'सरस' देवकुमार जैन प्रकाशक श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति जोधपुर-ग्यावर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय थी मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति के विभिन्न उद्देश्यों में से एक प्रमुख एवं रचनात्मक उद्देश्य है-जैनधर्म एवं दर्शन से सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन करना। संस्था के मार्गदर्शक परमश्रद्धय प्रवर्तक स्व. श्री मरुधरकेसरीजी महाराज स्वयं एक महान विद्वान, आशुकवि तथा : आगमा दर्शन को गर्म और सही के मार्गदर्शन में संस्था की विभिन्न लोकोपकारी प्रवृत्तियां आज भी चल रही हैं । गुरुदेव श्री साहित्य के मर्मज्ञ भी थे और अनुरागी भी थे। उनकी प्रेरणा से अब तक हमने प्रवचन, जीवन चरित्र, काव्य, आगम तथा गम्भीर विवेचनात्मक अनेकों ग्रन्थों का प्रकाशन किया है। अब विद्वानों एवं तत्त्वजिज्ञासु पाठकों के सामने हम कर्मग्नन्थ भाग ५ का द्वितीय संस्करण प्रस्तुत कर रहे हैं । ____ कर्मग्रन्थ जैन दर्शन का एक महान् ग्रन्थ है । इसमें जन तत्त्वज्ञान का सर्वांग विवेचन समाया हुआ है। . ___ स्व. पूज्य गुरुदेवश्री के निर्देशन में जैन दर्शन एवं साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान सम्पादक श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराना एवं उनके सहयोगी श्री देवकुमारजी जैन ने मिलकर इस गहन ग्रन्थ का सुन्दर सम्पादन दिया है। इसका प्रथम संस्करण सन् १९७६ में प्रकाशित हुआ, जो कव का समाप्त हो चुका, और पाठकों की मांग निरन्तर आदो रही। पाठकों की मांग के अनुसार समिति के कार्यकर्ताओं ने प्रवर्तक श्री रूपचन्दजी महाराज एवं उपप्रवर्तक श्री सुकनमुनिजी महाराज से इसके द्वितीय संस्करण के लिए स्वीकृति मांगी, तदनुसार गुरुदेवश्री की स्वीकृति एवं प्रेरणा से अब यह द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में प्रस्तुत है । आशा है, कर्म सिद्धान्त के जिज्ञासु, विद्यार्थी आदि इससे लाभान्वित होंगे। विनीत : मन्त्रीश्री मरुधर केसरी साहित्य प्रकासन समिति Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात जैन दर्शन को समझने की कुजी है-'कर्मसिद्धान्त' । यह निश्चित है कि समग्र दर्शन एवं तत्त्वज्ञान का आधार है आत्मा की विविध दशाओं, स्वरूपों का विवेचन एवं उसके परिवर्तनों का रहस्य उद्घाटित करता है 'कर्मसिद्धान्त' । इसलिए जैनदर्शन को समझने के लिए 'कर्मसिद्धान्त' को समझना अनिवार्य है । ___ कर्मसिद्धान्त का विवेचन करने वाले प्रमुख ग्रन्थों में श्रीमद् देवेन्द्रसूरि रचित कर्मग्रन्थ अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। जैन साहित्य में इनका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । तत्त्वजिज्ञासु भी कर्मअन्थों को आगम की तरह प्रतिदिन अध्ययन एवं स्वाध्याय को वस्तु मानते हैं। कर्मग्रन्थों की संस्कृत टीकाएं बड़ी महत्वपूर्ण हैं। इनके कई गुजराती अनुवाद भी हो चुके हैं। हिन्दी में कर्मग्रन्थों का सर्वप्रथम विवेचन प्रस्तुत किया था विद्वद्वरेण्य मनीषी प्रवर महाप्राज्ञ पं० सुखलालजी ने । उनकी शैली तुलनात्मक एवं विदस्ता प्रधान है। पं० सुखलालजी का विवेचन आज प्रायः दुष्प्राप्य सा है। कुछ समय से आशुकविरत्न गुरुदेव श्री मरुधर केसरीजी महाराज की प्रेरणा मिल रही थी कि कर्मग्रन्थों का आधुनिक शैली में विवेचन प्रस्तुत करना चाहिए । उनकी प्रेरणा एवं निदेशन से यह सम्पादन प्रारम्भ हुआ । विद्याविनोदी श्री सुकनमुनिजी की प्रेरणा से यह कार्य बड़ी गति के साथ आगे बढ़ता गया। श्री देवकुमारजी जन का सहयोग मिला और कार्य कुछ समय में आकार धारण करने योग्य बन गया । इस सम्पादन कार्य में जिन प्राचीन ग्रन्थ लेखकों, टीकाकारों, . विवेचनकर्ताओं सथा विशेषतः पं० श्री सुखलालजी के ग्रन्थों का सह्योग ।। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) प्राप्त हुआ और इतने गहुम ग्रन्थ का विवेचन सहजगम्य बन सका । मैं उक्त सभी विद्वानों का असीम कृतज्ञता के साथ आभार मानता हूँ । श्रद्धेय श्री मरुधर केसरीजी महाराज का समय-समय पर मार्ग - दर्शन, श्री रजतमुनिजी एवं श्री सुकनमुनिजी की प्रेरणा एवं साहित्य समिति के अधिकारियों का सहयोग विशेषकर समिति के व्यवस्थापक श्री सुजानमलजी सेठिया की सहृदयता पूर्ण प्रेरणा व सहकार से ग्रन्थ के सम्पादन - प्रकाशन में गतिशीलता आई है, मैं हृदय से आभार स्वीकार करू - यह सर्वथा योग्य ही होगा । विवेचन में कहीं त्रुटि, सैद्धान्तिक भूल, अस्पष्टता तथा मुद्रण आदि में अशुद्धि रही हो तो उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी है और हंसबुद्धि पाठकों से अपेक्षा है कि वे स्नेहपूर्वक सूचित कर अनुगृहीत करेंगे। भूल सुधारं एवं प्रमाद परिहार में सहयोगी बनने वाले अभिनन्दनीय होते हैं। बस इसी अनुरोध के साथ द्वितीयावृत्ति "कर्मग्रन्थ " भाग ५ का यह द्वितीय संस्करण छप रहा है। आज स्व. गुरुदेव हमारे बीच विद्यमान नहीं हैं, किन्तु उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान निधि, आज भी हम सबका मार्गदर्शन कर रही है। गुरुदेवधी के प्रधान शिष्य उपप्रवर्तक श्री सुकनमुनिजी उसी ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित रखते हुए आज हम सबको प्रेरणा एवं प्रोत्साहन दे रहे हैं, उन्हीं की शुभ प्रेरणा से "कर्मग्रन्थ " का यह द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है । प्रसन्नता । विनीत - श्रीचन्द सुराना 'सरस' Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ मुख विवेचन का आधार । अपने सुख-दुःख का वाला भी वही है । जैन दर्शन के सम्पूर्ण चिन्तन, मनन और आत्मा है । आत्मा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र शक्ति है निर्माता भी वही है और उसका फल भोग करने आत्मा स्वयं में अमूर्त है, परम विशुद्ध है, किन्तु वह शरीर के साथ मूर्तिमान बनकर अशुद्ध दशा में संसार में परिभ्रमण कर रहा है। स्वयं परम आनन्दस्वरूप होने पर भी सुख-दुःख के सत्र में पिस रहा है। अजर-अमर होकर भी जन्म-मृत्यु के प्रवाह में वह रहा है । आश्चर्य है कि जो परम शक्तिसम्मत है वही दीन-हीन, दुःखी, दरिद्र के रूप में यातना और कष्ट भी भोग रहा है । इसका कारण क्या है ? " जैनदर्शन इस कारण की विवेचना करते हुए कहता है- आत्मा को संसार में भटकाने वाला कर्म है । कर्म ही जन्म-मरण का मूल है कम्मं च आई मरणस्स मूलं - भगवान श्री महावीर का यह कथन अक्षरश: सत्य है, तथ्य है। कर्म के कारण हो यह विश्व विविध विचित्र घटनात्रों में प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है। ईश्वरवादी दर्शनों ने इस विश्ववैचित्र्य एवं सुख-दुःख का कारण जहां ईश्वर को माना है, वह जैनदर्शन ने समस्त सुख-दुःख एवं विश्ववैचित्र्य का कारण मूलतः जीव एवं उसका मुख्य सहायक कर्म माना है । कर्म स्वतन्त्र रूप से कोई शक्ति नहीं है, वह स्वयं में पुद्गल है, जड़ है । किन्तु राग-द्वेष वशवर्ती आत्मा के द्वारा कर्म किये जाने पर वे इतने बलवान और शक्तिसम्पन्न बन जाते हैं कि कर्त्ता को भी अपने बंधन में बांध लेते हैं | मालिक को भी नौकर को तरह नचाते हैं । यह कर्म की बड़ी विचित्र शक्ति है । हमारे जीवन और जगत के समस्त परिवर्तनों का यह मुख्य वीज कर्म क्या है, इसका स्वरूप क्या है ? इसके विविध परिणाम कैसे होते हैं ? यह बड़ा ही गम्भीर विषय है। जैनदर्शन में Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्म का बहुत ही विस्तार के साथ वर्णन दिया गया है। कर्म का सूक्ष्मातिसूक्ष्म और अत्यन्त गहन विवेचन जैन आगमों में और उत्तरवर्ती ग्रन्थों में प्राप्त होता है । वह प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में होने के कारण विद्वद्भोग्य तो है, पर साधारण जिज्ञासु के लिये दुबोध है । थोकड़ों में कर्म सिद्धान्त के विविध स्वरूप का वर्णन प्राचीन आचार्यों ने गंथा है, कण्हस्थ बारने पर साधारण तत्त्व-जिज्ञासु के लिये अच्छा ज्ञानदायक सिद्ध होता है । कर्मसिद्धान्त के प्राचीन ग्रन्थों में कर्मग्रन्थ का महत्वपूर्ण स्थान है । श्रीमद् देवेन्द्रसूरि रचित इस बांध भाः अपना ही महापूर्ण हैं। इनमें जैनदर्शनसम्मत समस्त कर्मवाद, स्थान, मार्गणा, जीव, अजीव के भेद-प्रभेद आदि समस्त जनदर्शन का विवेचन प्रस्तुत कर दिया गया है । ग्रन्थ जटिल प्राकृत भाषा में है और इसकी संस्कृत में अनेक टीकाएँ भी प्रसिद्ध हैं। गुजराती में भी इसका विवेचन काफी प्रसिद्ध है। हिन्दी भाषा में इस पर विवेचन प्रसिद्ध विद्वान मनीषी पं० श्री मुखलालजी ने लगभग ४० वर्ष पूर्व तैयार किया था । वर्तमान में कर्मग्रन्थ का हिन्दी विवेचन दुप्प्राप्य हो रहा था, फिर इस समय तक विवेचन की शैली में भी काफी परिवर्तन आ गया। अनेक तत्त्व जिज्ञासु मुनिवर एवं श्रद्धालु श्रावक परम श्रद्धय गुरुदेव मरुधर केसरीजी महाराज साहब से कई वर्षों से प्रार्थना कर रहे थे कि कर्मग्रन्थ जैसे विशाल और गम्भीर ग्रन्थ या नये ढंग से विवेचन एवं प्रकाशन होना चाहिए। आप जैसे समर्थ शास्त्रज्ञ विद्वान एवं महास्थविर सन्त ही इस अत्यन्त श्रमसाध्य एव व्यय साध्य कार्य को सम्पन्न करा सकते हैं | गुरुदेवधी का भी इस ओर आवार्षण हुआ और इस कार्य को आगे बढ़ाने का संकल्प किया। विवेचन लिखना प्रारम किया। विवेचन को भाषा-शैली आदि हदियों से सुन्दर एवं सूचिकर बनाने तथा फुटनोट, आगमों के उद्धरण संकलन. भूमिका, लेखन आदि कार्यो का दायित्व प्रसिद्ध विद्वान श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराना को Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौंपा गया। श्री सुरानाजी गुरुदेव श्री के साहित्य एवं विचारों से अतिनिकट सम्पर्क में रहे हैं । गुरुदेव के निर्देशन में उन्होंने अत्यधिक श्रम करके यह विद्वत्तापूर्ण तथा सर्वसाधारण जन के लिए उपयोगी लिन तैयार किया है। एक दोर्घकालीन अभाव की पूर्ति हो रही है। साथ ही समाज को एक सांस्कृतिक एवं दार्शनिक निधि नये रूप में मिल रही है, यह अत्यधिक प्रसन्नता की बात है । मुझे इस विषय में विशेष रुचि है। मैं गुरुदेव की तथा संपादक बन्धुओं को इसकी मम्पूर्ति के लिए समय-समय पर प्रेरित करता रहा। चार भागों के पश्चात् यह पांचवां भाग आज जनता के समक्ष आ रहा है। इसकी मुझे हार्दिक प्रसन्नता है । यह पांचवा भाग पहले के चार भागों से भी अधिक विस्तृत बना है, विषय गहन है, गहन विषय की स्पष्टता के लिए विस्तार भी भावश्यक हो जाता है। विद्वान सम्पादक बंधुओं ने काफी श्रम और अनेक ग्रन्थों के पर्यालोचन से विषय का तलस्पर्शी विवेचन किया है। आशा है, यह जिज्ञासु पाठकों की ज्ञानवृद्धि का हेतुभूत बनेना । द्वितीय संस्करण आज लगभग १३ वर्ष बाद "कर्मग्रन्थ " के पंचम भाग का यह द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है। इसे अनेक संस्थाओं ने अपने पाठ्यक्रम में रखा है। यह इस ग्रन्थ की उपयोगिता का स्पष्ट प्रमाण है। काफी समय से ग्रन्थ अनुपलब्ध था, इस वर्ष प्रत्रर्तक श्री रूपचन्दजी महाराज साहब के साथ मद्रास चातुर्मास में इसके द्वितीय संस्करण का निश्चय हुआ, तदनुसार ग्रन्थ पाठकों के हाथों में है । आज पूज्य गुरुदेवश्री हमारे मध्य विद्यमान नहीं हैं, किन्तु जहाँ भो हैं, उनकी दिव्य शक्ति हमें प्रेरणा व मार्गदर्शन देती रहेगी । इस शुभाशापूर्वक पूज्य गुरुदेवश्री की पुण्य स्मृति के साथ """" - उपप्रवर्तक सुकन मुनि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - कर्म सिद्धान्त का आशय कर्मसिद्धान्त भारतीय चिन्तकों एवं ऋषियों के चिन्तन का नबनीत है । यथार्थ में आस्तिक दाई भव्य सामयिहान गर आधारित है । इसको यों भी कह सकते हैं कि आस्तिक दर्शनों की नींव ही काम सिद्धान्त है । भले ही काम के स्वरूप-निर्णय में मतक्य न हो, पर अध्यात्मसिद्धि कर्ममुक्ति के बिन्दु पर फलित होती है। इसमें मतभिन्नता नहीं है। प्रत्येक दर्शन में किसी न किसी रूप में कर्म की मीमांसा की गयी है ! जैनदर्शन में इसका चिन्तन बहुत ही विस्तार और सूक्ष्मता से किया गया है । ___ संसार के सभी प्राणधारियों में अनेक प्रकार की विषमतायें और विविधतायें दिखलाई देती हैं । इसके कारण के रूप में सभी आत्म बादी दर्शनों ने कर्मसिद्धान्त को माना है । अनात्मवादी बौद्धदर्शन में । कर्मसिद्धान्त को मानने के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि-- ___ सभी जीव अपने कमों से ही फल का भोग करते हैं, सभी जीव अपने कर्मों के आप मालिक हैं, अपन कमों के अनुसार ही नाना योनियों में उत्पन्न होते हैं, अपना कर्म ही अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्चय है, कर्म ही से ऊंचे और नीचे हुए हैं। (मिलिन्द प्रपन पृ. ५०.८१) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जयन्त ने भी यही बात बताई है जगतो यच्च वैचित्र्यं सुखदुःशावि भेदतः । कृषिसेवाविसाम्पेऽपि विलक्षणफलोदयः ॥ अफस्मानिधिलामश्च विद्युत्पातश्च कस्यचित् । कचित्फलमयत्नेऽपि स्नेऽप्यफलता पवचित् ।। तदेतद् दुर्घटं दृष्टात्कारणाद् त्यभिचारिणः । सेनादृष्टमुपेतव्यमस्य किचन कारणम् ।। (न्यायमंजरी पृ. ४२--उत्तरभाग) अर्थात्---संसार में कोई सुखी है तो कोई दुःसी है । खेती, नौकरी बगैरह करने पर भी किसी को विशेष लाभ होता है और किसी को नुकसान उठाना पड़ता है । किसी को अकस्मात सम्पत्ति मिल जाती है और किसी पर बैठे-बिठाये बिजली गिर पड़ती है। किसी को बिना प्रयत्न कि हो त्र-प्राप्ति हो जाती है गौर गिली कोसा करने पर भी फल-प्राप्ति नहीं होती है। ये सब बातें किसी दृष्ट कारण की वजह से नहीं होती । अतः इनका कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए | इसी तरह ईश्वरवादी भी प्रायः इस में एक मत हैं कि करम प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो सस फल चाखा। कर्म का स्वरूप उपर्युक्त प्रकार से कर्मसिद्धान्त के बारे में ईश्वरवादियों और अनीश्वरवादियों, आत्मवादियों और अनात्म वादियों में मतैक्य होने पर भी कम के स्वरूप और उसके फलदान के सम्बन्ध में मौलिक मतभेद है। लौकिक भाषा में तो साधारण तौर से जो कुछ किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं । जैसे खाना-पीना, चलना, फिरना, हेंसना, बोलना, सोचना, चित्रा रना इत्यादि । लेकिन कम का सिर्फ इतना ही अर्थ नहों Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इसीलिये परलोकवादी दार्शनिकों ने कर्म का विशिष्ट अर्थ ग्रहण किया है । उनका मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा और बुरा कार्य अपना एक संस्कार छोड़ जाता है। जिसे नैयायिक और बैशेषिक धर्माधर्म कहते हैं । योग उसे आशय और बौद्ध अनुशय नाम से सम्बोधित करते है । कर्म के अर्थ को स्पष्ट करने वाले उक्त नामों में भिन्नता है, लेकिन उनका तात्पर्य यह है कि जन्म-जरा-मरण रूप संसार के चक्र में पड़े हुए प्राणी अज्ञान, अविचा, मिथ्यात्व से आलिप्त हैं । जिसके कारण वे संसार का वास्तविक स्वरूप समझने में असमर्थ रहते हैं । अतः उनका जो भी कार्य होता है वह अज्ञानमूलक होता है, उसमें रागढेष का अभिनिवेश-दुराग्रह लेता है । इसलिए उनका प्रत्येक कार्य आत्मा के बन्धन का कारण होता है । यदि उन दार्शनिकों के मन्तव्यों का सारांश निकाला जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके अभिमतानुसार कर्म नाम क्रिया या प्रवृत्ति का है और उस प्रवृत्ति के मूल में रागद्वेष रहते हैं । यद्यपि यह प्रवृत्ति क्षणिक होती है किन्तु उसका संरकार फल-काल तक स्थायी रहता है । जिसका परिणाम यह होता है कि संस्कार से प्रवृत्ति और प्रबत्ति से संस्कार की परम्परा चलती रहती है और इसी का नाम संसार है। किन्तु जैन दर्शन के मतानुसार कर्म का स्वरूप किसी अंश में उक्त मतों से भिन्न है । जैनदर्शन में कर्म का स्वरूप जैनदर्शन में कर्म केवल संस्कारमात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी, हषी लीव की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ उसी तरह घुल-मिल जाता है जैसे दूध में पानी । यद्यपि वह पदार्थ है तो भौतिक, किन्तु उसका कम नाम इसलिये रूढ हो गया है कि जीव के कर्म अर्थात् निया के कारण आकृष्ट होकर वह जीव के साथ बंध जाता है । ये पदार्थ छह दिशाओं से गृहीत, जीव प्रदेश के Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४ । क्षेत्र में स्थित, सूक्ष्म, कर्मप्रायोग्य अनन्तानन्त 'परमाणुओं से बने होते हैं। आत्मा अपने सब प्रदेशों, सौंग से कर्मों को आकृष्ट करती है। प्रत्येक कर्मस्कन्ध वा सभी आत्मप्रदेशों के साथ बन्धन होता है और बे कर्मस्कन्ध ज्ञानावरण आदि भिन्न-भिन्न प्रकृतियों में निमित्त होते हैं। प्रत्येक आत्मप्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-पुद्गलस्कन्ध चिपके रहते हैं। उक्त कथन का आशय यह है कि जहाँ अन्य दर्शन गाग और द्वेष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते हैं और उस कर्म के क्षणिक होने पर भी तज्जन्य संस्कारों को स्थायी मानते हैं, वहाँ जैनदर्शन का मन्तव्य है कि राग-द्रप से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ एक प्रकार का द्रव्य' आत्मा में आता है, जो उसके रागदेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बंध जाता है । कालान्तर में वही द्रव्य आत्मा को शुभ या अशुभ फल देता है । जैनदर्शन ने रागद्वेषमय आत्मपरिणति और उसके सम्बन्ध से आकृष्ट संश्लिष्ट भौतिक द्रव्य को क्रमशः भावकर्म और द्रव्यकर्म नाम दिया है । इनमें से भावकम की तुलना योगदर्शन की वृत्ति एवं न्यायदर्शन की प्रवृत्ति से की जा सकती है परन्तु जैनदर्शन के कर्म स्वरूप में तथा अन्य दर्शनों के कर्म स्वरूप मानने में अन्तर है । जैनदर्शन में द्रव्यकर्म के बारे में माना है कि अपने चारों ओर जो कुछ भी हम अपने धर्म-चक्षुओं से देखते हैं, वह पुद्गल द्रव्य है । यह पुद्गल द्रव्य तेईस प्रकार की वर्गणाओं में विभाजित है और उन वर्गणाओं में एक कार्मणवर्गणा है, जो समस्त संसार में व्याप्त है। यह कार्मणवर्गणा ही जोव के भावों का निमित्त पाकर नर्म मप परिणत हो जाती है परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो | तं पविसदि कम्मरयं गाणावरणाविभावेहि । अर्थात्-जब रागद्वेष से युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामों में । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ] लगती है तब कर्म रूपी रज ज्ञानावरणादि रूप से उसमें प्रवेश करता है । जो जीव के साथ यंत्र को प्राप्त हो जाता है ' अमूर्त का मूर्त के साथ बंध जीव अमूर्ति है और कर्मद्रव्य मूर्तिक है । ऐसी दशा में उन दोनों का बन्ध ही सम्भव नहीं है। क्योंकि मूर्तिक के साथ मूर्तिक का बन्ध तो हो सकता है, किन्तु अमूर्तिक के साथ मूर्तिक का बन्ध कैसे सम्भव है ? इसका समाधान यह है कि अन्य दर्शनों की तरह जैनदर्शन ने जीव और कर्मप्रवाह को अनादि माना है । ऐसी मान्यता नहीं है कि जीव पूर्व में सर्वन शुद्ध था और में बध हुआ | क्योंकि इस मान्यता में अनेक प्रकार की विसंगतियों हैं और शंकाएँ पैदा होती हैं। जीव और कर्म के अनादि सम्बन्ध को स्पष्ट करते 'हुए आचार्यों ने सयुक्तिक समाधान किया है जो इस प्रकार हैजो खलु संसाररथों जीवो तत्तो व होषि परिणामो । परिणामाको धम्मं कम्मावो होदि गदिसु गदि || अर्थात् - जो जीव संसार में स्थित है यानि जन्म और मरण के चक्र में पड़ा हुआ है, उसके राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं । उन परिणामों से नये कर्म बन्धते हैं और उन कर्मों के बंध से गतियों में जन्म लेना पड़ता है । उक्त कथन का तात्पर्य यह हुआ कि प्रत्येक संसारी जीव अनादि काल से राग-द्वेषयुक्त है। उस राग-द्वेषयुक्तता के कारण कर्म बंधते हैं। जिसके फलस्वरूप विभिन्न गतियों में पुनः पुनः जन्म-मरण होते रहने से नवीन कर्मों का बन्ध और उस बंध से जन्म-मरण, संसार का चक्र अबाधगति से चलता रहता है । जब जन्म लेने से नवीन गति की प्राप्ति होती है तो उसके बाद के क्रम का दिग्दर्शन कराते हुए आचार्य कहते हैं कि- Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गदिमधिगदस्स देहो देहादी इन्द्रियाणि जायन्ते । तेहिं बु बिसयगहणं तत्तो रागो छ दोसो व ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इपि जिणवरेहि भणिदो अगादिणिधणो सणिधणो धा ।। जन्म लेने पर शरीर होता है, शरीर में इन्द्रियां होती हैं, इन्द्रियों मे विषय ग्रहण करता है। विषयों के ग्रहण करने से राम वष रूप परिणाम होते हैं। इस संमारचक्र में पड़े हुए जीव के भावों से कर्म और कर्म से भाव होते रहते हैं। यह प्रवाह अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-अनन्त और भव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-सान्त है । उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संसारी जीव अनादि काल से मूर्तिक कर्मों से बंधा हुआ है । जब जीव मूर्तिक कर्मों से बंधा है तब उसके जो नवीन कर्म बंधते हैं वे कर्म जीव में स्थित मूर्तिक कमों के साथ ही बंधते हैं । क्योंकि मूर्तिक का मूर्तिक के साथ संयोग होता है और मूर्तिक का मूर्तिक के साथ ही बंध होता है । इसलिये आत्मा में स्थित पुरातन कर्मों के साथ ही नये कर्म वन्ध को प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकार कथंचित् मूर्तिक आत्मा के साथ मूर्तिक कर्मद्रव्य का सम्बन्ध जानना चाहिये । सारांश यह है कि जनदर्शन में जीव से सम्बद्ध मूर्तिक द्रव्य और उसके निमित्त से होने वाले रागढ़े घम्प भावों को कर्म कहा गया है। कर्म केवल जीव द्वारा किये गये अच्छे बुरे कर्मों का नाम नहीं है किन्तु जीब के कर्मों के निमित्त से जो पुद्गल परमाणु आकृष्ट होकर उसके साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं. वे पुद्गल परमाणु भी कर्म कहलाते हैं और उन पुद्गल परमाणुओं के फलोन्मुख होने पर उनके निमित्त से जीव में जो कामक्रोधादि भाव होते हैं, वे भी कर्म कहे जाते हैं । सम्बन्ध की अनाविता जैनदर्शन में वैदिकदर्शन के ब्रह्मतत्त्व के समान आत्मा को निर्मल, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) ह विशुद्ध तत्व माना है । समयप्राभृत में आत्मा (जीव ) के स्वरूप का निर्देश करते हुए रसाहि पंवर अव्यक्त और चेतना गुण वाला बतलाया है। वर्धापि तस्वार्थ सूत्र में जीव को उपयोग लक्षण बाला लिखा है परन्तु इससे उक्त कथन का ही समर्थन होता है। क्योंकि ज्ञान और दर्शन ये चेतना के भेद हैं । उपयोग शब्द से इन्हीं का बोध होता है । जीव के सिवाय अन्य जो पदार्थ हैं, जिनमें ज्ञान दर्शन नहीं पाया जाता, उन्हें अजीब कहते हैं। जड़, अचेतन यह अजीव के नामान्तर हैं। वैज्ञानिकों ने ऐसे जड़ पदार्थों की संख्या अनेक बतलाई है । परन्तु जैनदर्शन में वर्गीकरण करके ऐसे पदार्थ पाँव बतलाये हैं। जिनके नाम हैं--- धर्म, अधर्म, आकाश, काल और उद्गल । इनमें वैज्ञानिकों द्वारा बतलाये गये सब पदार्थो इत्वों का समावेश हो जाता है। उक्त पाँच तत्वों के साथ जीव को मिलाने से छह तत्व होते हैं। इन छह तत्वों को छह द्रव्य कहते हैं। - उक्त छह द्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य सदा अविकारी माने गये हैं। निमित्तवश इनके स्वभाव में कभी भी विपरिणाम — विकार नहीं होता है किन्तु जोव और पुद्गल ये दो द्रव्य ऐसे हैं जो विकारों और अविकारी दोनों प्रकार के होते हैं । जब ये अन्य द्रव्य से संश्लिष्ट रहते हैं तब विकारी होते हैं और इसके अभाव में अधिकारी होते हैं। इस हिसाब से जीव और पुद्गल के दोदो भेद हो जाते हैं । संसारी और मुक्त, ये जीव के दो भेद हैं तथा अणु और स्कन्ध, ये पुद्गल के दो भेद हैं। जीव मुक्त अवस्था में अविकारी है और संसारी अवस्था में विकारी | पुद्गल अणु अवस्था में अविकारी और स्कन्ध अवस्था में विकारी । तात्पर्य यह है कि जीव और पुद्गल जब तक अन्य द्रव्य से संश्लिष्ट रहते हैं तब तक उस संश्लेष के कारण उनके स्वभाव में विपरिणति हुआ करती है । इस Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये वे उस समय विकारी रहते हैं और संश्लेष के हटते ही वे अविकारी हो जाते हैं। जीव और पुद्गलों का अन्य द्रव्य से संश्लिष्ट होना इनकी योग्यता पर निर्भर है । अन्य द्रव्यों में यह योग्यता नहीं है । ऐसी योग्यता का निर्देश करते हुए जीव में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कापाय और योग रूप तथा पुद्गल में उसे स्निग्ध और रूक्ष गुण रूप बतलाया है ! जीव मिथ्यात्व शादि के निमित्त से अन्य द्रव्य मे धत' है और पुद्गल स्निग्ध और रूक्ष गुण के निमित्त से अन्य द्रव्य से बंध को प्राप्त होता है । ___ जीव में मिथ्यात्वादि रूप योग्यता संश्लेषपूर्वक ही होती है और इससे वह कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करके मलिन बनता है । परन्तु वह कर्मवर्गणाओं को ग्रहण कब से कर रहा है, इन दोनों का सम्बन्ध कबसे जुड़ा ? तो इसका समाधान अनादि शब्द के द्वारा किया जा सकता है । क्योंकि आदि मानने पर अनेक विसंगतियां आती हैं । जैसे -- सम्बन्ध यदि सादि है तो पहले आत्मा है या कर्म हैं या युगपद् दोनों का सम्बन्ध है । पहले प्रकार में शुद्ध आत्मा कर्म करती नहीं है । दूगरे भंग में कर्म कर्ता के अभाव में बनते नहीं हैं। तीसरे भंग में युगपद् जन्म लेने वाले कोई भी दो पदार्थ परस्पर कर्ता-कर्म नहीं बन सकते हैं । इसलिये कर्म और आत्मा का अनादि सम्बन्ध मानना युक्तिसंगत है। हरिभद्रसूरि ने योगशतक श्लोक ५५ में आत्मा और कर्म के अनादित्व को समझाने के लिए एक बड़ा ही सुन्दर उदाहरण दिया है कि अनुभव तो वर्तमान समय का करते हैं, फिर भी वर्तमान अनादि है क्योंकि अतीत अनन्त है और कोई भी अतीत वर्तगन के बिना नहीं बना । यह वर्तमान का प्रवाह कब से चला आ रहा है, इस प्रश्न का उत्तर अनादि के द्वारा ही दिया जाता है । इसी प्रकार कर्म और Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा का सम्बन्ध प्रवाह की दृष्टि से अनादि है। परन्तु यहाँ यह जानना माहिए कि क र मारमा त राम्राध स्वर्गा मृत्तिका की तरह अनादि-सान्त है । जैसे अग्नि के ताप से मृत्तिका को गलाकर स्वर्ण को विशुद्ध किया जा सकता है, वैसे ही शुभ अनुष्ठानों से कर्म के अनादि सम्बन्ध को तोड़कर आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया आत्मा के साथ कर्मवन्ध की प्रक्रिया चार प्रकार की है-१प्रकृति बन्ध, २-स्थितिबन्ध, ३-अनुभागबन्ध, ४–प्रदेशबन्ध । ग्रहण के समय कर्मपुद्गल एकरूप होते हैं । किन्तु इन्धकाल में उनमें आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि भिन्न-भिन्न गुणों को रोकने का भिन्नभिन्न स्वभाव हो जाता है । इसे प्रकृतिबन्ध फहते हैं। उनमें समय की मर्यादा का निर्धारण होना स्थितिबन्ध है | आत्मपरिणामों की तीव्रता और मंदता के अनुरूप कर्मबन्धन में तीन रस और मंद रस का होना अनुभाग बन्ध कहलाता है और कर्म पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ एकीभाव या कर्मप्रदेशों की संख्या का निर्धारण होना प्रदेशबन्ध है । प्रथम कर्मग्रन्थ में मोदक के दृष्टान्त द्वारा कर्मबन्ध के इन चारों प्रकारों को बहुत ही सुन्दर रीति से स्पष्ट किया गया है । जैसे मोदक पित्तनाशक है या कफनाशक है, यह उसके स्वभाव पर निर्भर है, वह मोदक कितने काल तक अपने स्वभाव रूप में बना रहेगा, यह उसकी स्थिति है। उसकी मधुरता या कटुता का तारतम्य रस पर अवलम्बित है और मोदक का वजन कितना है, यह उसके परमाणुओं पर निर्भर है । इस प्रकार मोदक का यह रूपक कर्मबन्धन की प्रक्रिया का ययार्थ निर्देशन कर देता है। उक्त प्रकृतिबन्ध आदि बन्ध के चार प्रकारों में से आत्मा को योग शक्ति प्रकृति और प्रदेशबन्ध की कारण है और स्थिति एवं अनुभाग बन्ध के कारण काषायिक परिणाम हैं। कर्मबन्धन दो तरह का होता Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है-१-सांपरायिक, एवं २- ईपिथिक बन्ध । सकषायी का बन्ध सांपरायिक होता है । यह अनन्त संसार का कारण है और अकषायी का बन्ध ईपिथिका होता है, जिसमें प्रथम समय में कर्म परमाणु आत्मा के साथ बंधते हैं और दूसरे समय में निर्जीर्ण हो जाते हैं। यह बन्ध आत्मा पर अपना कुछ भी प्रभाव नहीं दिखलाता है। बर के निरूपण की जनदर्शन में दो दृष्टियाँ हैं जिन्हें निश्चयनय और व्यवहारनब कहते हैं । जो परनिमित्त के बिना वस्तुस्वरूप का कथन करता है उसे निश्चयनय कहते हैं और परनिमित्त की अपेक्षा से जो वस्तु का कथन करता है, वह व्यवहारनय है । जैनदर्शन में जीव के कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का विचार भी इन दोनों नयों से किया गया है। कर्म का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका है और यह भी संकेत किया गया है कि कर्म का जीब के साथ अनादि सम्बन्ध है । इन कर्मों के कर्तृत्व और भोवतृत्व के बारे में जब हम निश्चय वृष्टि से विचार करते हैं तो जीव न तो द्रव्य कर्मों का कर्ता ही प्रमाणित होता है और न उनके फल का भोक्ता ही। क्योंकि द्रव्यकर्म पांगलिक हैं, पुद्गल द्रव्य के विकार हैं, इसीलिए पर हैं । उनका कर्ता चेतन जीव नहीं हो सकता है । चेतन का कर्म चैतन्य रूप होता है और अचेतन का कर्म अचेतन रूप | यदि चेतन का कर्म भी अचेतन रूप होने लगे तो चेतन और अचेतन का भेद नष्ट होकर संकर दोष उपस्थित हो जायेगा । इसका फलितार्थ यह हुआ कि प्रत्येक द्रव्य स्वभाव का कर्ता है, परभाव का कर्त्ता नहीं है । जैसे जल का स्वभाव शीतल है किन्तु अग्नि का सम्बन्ध होने से उष्ण हो जाता है। किन्तु इस उष्णता का कर्ता जल को नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उष्णता तो अग्नि का धर्म है और वह जल में अग्नि के सम्बन्ध से आई है, अतः आरोपित है ! अग्नि का सम्बन्ध अलग होते ही चली जाती है। इसी प्रकार जीव के अशुद्ध भावों का निमित्त पाकर जो पुद्गलद्रव्य कर्म Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप परिणत होते हैं, उनका कर्ता स्वयं पुद्गल है, जीव उनका कर्ता। नहीं हो सकता है, जीव तो अपने भानों का कर्ता है । इसी बात को समयप्राभूत गाथा ८६.८ में स्पष्ट किया है, जिसका सारांश है जीव तो अपने रागद्वेषादि रूप भावों को करता है किन्तु उन भावों का निमित्त पाकर कर्म रूप होने के योग्य पुद्गल कर्म रूप परिणत हो जाते हैं तथा कर्म रूप परिणत हुए पुद्गल द्रव्य जब अपना फल देते हैं तो उनके निमित्त को पाकर जीव भी रागादि रूप परिणमन करता है । यद्यपि जीव और पौद्गलिक कम दोनों एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं तो भी न तो जीव पुद्गल कर्मों के गुणों का कर्ता है और न पुद्गल कर्म जीव के गुणों के का है, किन्तु परस्पर में दोनों एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं । अतः आत्मा अपने भावों का ही कर्ता है, पुद्गलकर्मकृत समस्त भावों का कर्ता नहीं है। उक्त वाथन पर यह शंका हो सकती है कि जैनदर्शन भी सांख्यदर्शन के पुरुष की तरह यात्मा को सर्वथा अकर्ता और प्रकृति की तरह पुद्गल को ही कर्ता मानता है। किन्तु ऐसी बात नहीं है । सांत्यदर्शन का पुरुष तो सर्वथा अकता है किन्तु जैनदर्शन में आत्मा कां सर्वथा अकर्ता नहीं माना है । वह अपने स्वाभाविक भाव-ज्ञान, दर्शन, सुख शादि तथा वैभाविक भाव-रागद्वेष, मोह आदि का कर्ता है किन्तु उनके निमित्त से जो पुद्गलों में कर्म रूप परिणमन होता है। उसका वह कर्ता नहीं है । उक्त कथन का सारांश यह है कि वास्तव में नपादान-कारण को ही किसी वस्तु का कर्त्ता कहा जा सकता है तथा निमित्तकारण में जो कर्ता का व्यवहार किया जाता है, वह व्यावहारिक लौकिक दृष्टि से किया जाला है । कर्तृत्व के बारे में जो बात कही गई है, वहीं भोक्तृत्व के बारे में भी जाननी चाहिए । जो जिसका कर्ता होता है वही उसका भोक्ता हो सकता है और जो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) जिसका कर्ता ही नहीं वह उसका भोक्ता कैसे दो साता ' हा प्रकार कर्तृत्व और भोक्तृत्व के बारे में दृष्टिभेद से जैनदर्शन की द्विविध व्याख्या है कि वास्तव में तो आत्मा अपने ही स्वाभाविक और बैभाविक भावों का कर्ता और भोक्ता है लेकिन व्यवहार से उसे स्वकृत कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाले सुख-दुःखादि का भोक्ता वाहा जाता है। ___इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि जैनदर्शन ईश्वर को सृष्टि का नियन्ता नहीं मानता है, अतः कर्मफल देने में भी उसका हाथ नहीं है, कर्म अपना फल स्वयं देते हैं। उनके लिए अन्य न्यायाधीशों की आवश्यकता नहीं है । जैसे शराब नशा पैदा करती है और दूध ताकत देता है । जो मनुष्य शराब पीता है उसे बेहोशी होती है और जो दुध पीता है उसके शरीर में पुष्टता आती है। शराब या दूध पीने के बाद यह आवश्यकता नहीं रहती है कि उसका फल देने के लिए दूसरी नियामक शक्ति हो । इसी प्रकार जीव के प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक परिस्पन्द के द्वारा जो कर्म परमाणु जीवात्मा की ओर आकृष्ट होते हैं तथा रागद्वेष का निमित्त पाकर उसमें बंध जाते हैं, उन कर्म परमाणुओं में भी शराब और दूध की तरह शुभ या अशुभ करने की शक्ति रहती है जो चैतन्य के सम्बन्ध से व्यक्त होकर उस पर अपना प्रभाव दिखलाती है और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम करता है जो उसे सुखदायक और दुःखदायक होते हैं । यदि कर्म करते समय जीव के भाव अच्छे होते हैं तो बंधने वाले कर्म-परमाणुओं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और कालान्तर में उससे अच्छा फल मिलता है तथा यदि भाव बुरे हों तो बुरा असर पड़ता है और कालान्तर में फल भी बुरा ही मिलता है। यदि ईश्वर को फलदाता माना जाये तो जहाँ एक मनुष्य दुसरे मनुष्य का घात करता है, वहाँ घातक को दोष का भागी नहीं होना चाहिए, क्योंकि उस मनुष्य के द्वारा ईश्वर भरने वाले को मृत्यु का Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) दण्ड दिलाता है । जैसे राजा जिन पुरुषों के द्वारा अपराधियों को दण्ड दिलाता है, वे पुरुष अपराधी नहीं कहे जाते, क्योंकि वे राजा की आज्ञा का पालन करते हैं। इसी तरह किसी का घात करने वाला घातक भी जिसका घात करता है, उसके पूर्वकृत कर्मों का फल भुगतवाता है, क्योंकि ईश्वर ने उसके पूर्वकृत कर्मों की यही सजा नियत की होगी, तभी तो उसका वध किया गया है । यदि कहा जाय कि मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है अतः घातक का कार्य ईश्वर प्रेरित नहीं है किन्तु उसकी स्वतन्त्र इच्छा का परिणाम है तो कहना होगा कि संसार दशा में कोई भी प्राणी वस्तुतः स्वतन्त्र नहीं, सभी अपनेअपने कर्मों से बंधे हुए हैं- "कर्मणा बध्यते जन्तु" (महाभारत) और कर्म की अनादि परम्परा है। ऐसी परिस्थिति में 'बुद्धि कर्मानुसारिणी' अर्थात् कर्म के अनुसार प्राणी को बुद्धि होती है, के न्यायानुसार किसी भी काम को करने या न करने के लिए मनुष्य स्वतन्त्र नहीं है । इस स्थिति में यह कहा जाय कि ऐसी दशा में तो कोई भी व्यक्ति मुक्ति लाभ नहीं कर सकेगा क्योंकि जीव कर्म से बंधा हुआ है और कर्म के अनुसार जीव की बुद्धि होती है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कर्म अच्छे भी होते हैं और बुरे भी होते हैं अतः अच्छे कर्म का अनुसरण करने वाली बुद्धि मनुष्य को सन्मार्ग की ओर और बुरे कर्म का अनुसरण करने वाली बुद्धि मनुष्य को कुमार्ग पर ले जाती है | सन्मार्ग पर चलने से मुक्ति लाभ और कुमार्ग पर चलने से कर्मबंध होता है । ऐसी दशा में बुद्धि के कर्मानुसारिणी होने से मुक्तिलाभ में कोई बाधा नहीं आती है । आत्मा का स्वातन्त्र्य और पारतंत्र्य साधारणतया कहा जाता है कि आत्मा कर्मों के कर्तृत्व काल में स्वतन्त्र है और भोक्तृत्व काल में परतन्त्र । जैसे कि विष खाने के बारे Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ २४ ) में मनुष्य स्वतन्त्र है, वह खाये या न खाये, लेकिन विष खा लेने के बाद मृत्यु से बचना उसके हाथ की बात नहीं है। यह एक रथूल उदाहरण है, क्योंकि उपचार से निर्विष भी हुआ जा सकता है, मृत्यु से बचा जा सकता है। आत्मा में भी कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों अवसरों पर स्वातंत्र्य और पारतंत्र्य फलित होते हैं। जिनका स्पष्टीकरण नीचे करते हैं हा आना कर्म कर में स्वतन्त्र है । वह चाहे जैसे भाग्य का निर्माण कर सकती है। कर्मों पर पूर्ण विजय प्राप्त करके शुद्ध बन कर मुक्त हो सकती है। किन्तु कभी-कभी पूर्वजनित कर्म और बाह्य निमित्त को पाकर ऐसी परतन्त्र बन जाती है कि वह जैसा चाहे वैसा कभी भी नहीं कर सकती है। जैसे कोई आत्मा सन्मार्ग पर बढ़ना चाहती है, किन्तु कर्मोदय की बलवता से उस मार्ग पर बल नहीं पाती है, फिसल जाती है। यह है आत्मा का कर्तृत्व काल में स्वातंत्र्य और पारतंत्र्य | कर्म करने ने वाद आत्मा पराधीन कर्माधीन हो वन जाती है, ऐसा नहीं है। उस स्थिति में भी आत्मा का स्वातंत्र्य सुरक्षित है। वह चाहे तो अशुभ को शुभ में परिवर्तित कर सकती है, स्थिति और रस का हाल कर सकती है, विपाक (फलोदय) का अनुदय कर सकती है, फलोदय को अन्य रूप में परिवर्तित कर सकती है। इसमें आत्मा का स्वातंत्र्य मुखर है। परतंत्रता इस दृष्टि से है कि जिन कर्मों को ग्रहण किया है, उन्हें बिना भोगे मुक्ति नहीं होती है। भले ही सुदीर्घ काल तक भोगे जाने वाले कर्म घोड़े समय में ही भोगे जायें, किन्तु सबको भोगना ही पड़ता है । कर्मभोग के प्रकार जीव द्वारा कर्म फल के भोग को कर्म की उदयावस्था कहते हैं । उदयावस्था में कर्म के शुभ या अशुभ फल का जीव द्वारा वेदन किया Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ ) ( जाता है । यह कर्मोदय दो प्रकार का है - ( १ ) प्रदेशोदय और ( २ ) विपाकोदय | जिन कर्मों का भोग सिर्फ प्रदेशों में होता है, उसे प्रदेशोदय कहते हैं और जो कर्म शुभ-अशुभ फल देकर नष्ट होते हैं, वह त्रिपाकोदय है । कर्मों का विपाकोदय ही आत्मा के गुणों को रोकता है और नवीन कर्मबन्ध में योग देता है। जबकि प्रदेशोदय में नवीन कर्मों के बन्ध करने की क्षमता नहीं है और न वह आत्मगुणों को आवृत करता है । कर्मों के द्वारा आत्मगुण प्रकट रूप से आवृत होने पर भी कुछ अंशों में सदा अनावुत ही रहते हैं, जिससे आत्मा के अस्तित्व का बोध होता रहता है । कर्मावरणों के सघन होने पर भी उन आवरणों में ऐसी क्षमता नहीं है जो आत्मा को अनात्मा, चेतन को जड़ बना दें। कर्मक्षय की प्रक्रिया जैनदर्शन की कर्म के बन्ध, उदय की तरह कर्मक्षय की प्रक्रिया भी सयुक्तिक और गम्भीरता लिए हुए है। स्थिति के परिपाक होने पर कर्म उदयकाल में अपना बदन कराने के बाद झड़ जाते हैं । यह तो कर्मों का सहज क्षय है । इसमें कर्मों की परम्परा का प्रवाह नष्ट नहीं होता है। पूर्व कर्म नष्ट हो जाते हैं लेकिन साथ ही नवीन कर्मों का का बन्ध चालू रहता है। यह कर्मों के क्षय की यथार्थ प्रक्रिया नहीं है । कर्मों का विशेष रूप से क्षय करने के लिए जिससे आत्मा अ-कर्म होकर मुक्त हो सके, विशेष प्रयत्न करना पड़ता है। यह प्रयत्न संयम, तप, त्याग आदि साधनों द्वारा किए जाते हैं। अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान तक तो उक्त साधनों द्वारा कर्मक्षय विशेष रूप से होता रहता है और सातवें गुणस्थान में आत्म-शक्ति में प्रौढ़ता आने के बाद जब आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान की प्राप्ति करती है तो विशेष रूप से कर्मक्षय करने के लिए विशेष प्रकार की प्रक्रिया होती है । वह इस प्रकार है - ( १ ) अपूर्व स्थितिघात (२) अपूर्व रसधात, (३) गुण श्रेणि, (४) संक्रमण, (५) अपूर्व स्थितिबंध | Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त पांचों का सामान्य विवेचन इस तरह है सर्वप्रथम आत्मा अपर्वतनःकरण के द्वारा फार्मों को अन्तर्मुहर्त में स्थापित कर पुणश्रेणि का निर्माण करती है । स्थापना का अम यह है कि-उदयकालीन समय को लेकर अन्तर्मुहूतं पर्यन्त प्रथम उदया. स्मक समय को छोड़कर अन्तर्मुहर्त के शेष जितने समय हैं, इनमें कर्मदलिकों को क्रमबद्ध श्रेणी रूप से स्थापित किया जाता है । प्रथम समय में स्थापित कर्मदलिक सबसे कम होते हैं। दूसरे समय में स्थापित कर्मदलिक प्रथम समय में स्थापित कर्मदलिकों से असंख्यात गुणे अधिक, तीसरे समय में द्वितीय समय से भी असंख्यात गुणे अधिक होते हैं। यह क्रम अन्तर्मुहुर्त के चरम समय तक जानना चाहिए । इस प्रकार प्रत्येक समय कर्मदलिकों की स्थापना असंख्यात गुणी अधिक होने के कारण इसे गुणवेणि कहा जाता है । इस अवसर पर आत्मा अतीव स्वल्प स्थिति के कर्मों का बन्धन करती है, जैसा उसने पहले कभी नहीं किया है । अतः इस अवस्था का बंध अपूर्व स्थितिबंध कहलाता है । स्थितिघात और रसघात भी इस समय में अपूर्व होता है । गुण-संप्रामण में अशुभ कर्मों की शुभकर्म रूप परिणति होती जाती है । अष्टम गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में ज्यों-ज्यों आत्मा वढ़ती है, त्यों-त्यों अल्प समय में कर्मदलिक अधिक मात्रा में क्षय होते जाते हैं। इस उत्क्रान्ति की स्थिति में बढ़ती हुई आत्मा जन्न परमात्मशक्ति को जागृत करने के लिए सन्नद्ध हो जाती है, आयु अल्प रहता है एवं कर्मदलित अधिक रहते हैं तब इन अधिक स्थिति और दलिको बाले कर्मों को आयु के समय के बराबर करने के लिए केवलीसमुद्यात होता है । इस समुद्घात काल में अधिक शक्तिशाली माने जाने वाले कर्मों को आत्मा अपने वीर्य से पराजित कर दुर्बल बना देती है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) उनकी स्थिति और संख्या, प्रदेश उतने ही रह जाते हैं जितने कि आयुकर्म के रहते हैं। ऐसा होने पर शेष रहे कर्मों का आयुकर्म की समयस्थिति के साथ ही क्षय हो जाने से आत्मा पूर्ण निष्कर्म होकर सिद्ध-बुद्ध हो जाती है। यही आत्मा का लक्ष्य है, जिसे प्राप्त करने में आत्मा के पुरुषार्थ की सफलता है । इस प्रकार से जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त का वैज्ञानिक रूप से निरू पण किया गया है। जिसमें अनेक उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाया है । विभिन्न रहस्यों को उद्घाटित किया है और आत्मा में स्वतन्त्रता प्राप्ति का उत्साह जगता है । स्वपुरुषार्थ पर विश्वास करने की प्रेरणा मिलती है । ग्रन्थ परिचय प्रस्तुत शतक नामक कर्मग्रन्थ श्री देवेन्द्रसूरि रचित नवीन कर्मग्रन्थों में पाँचवाँ कर्मग्रन्थ है । इसके पूर्व के चार कर्मग्रन्थ क्रमशः (१) कर्म विपाक ( २ ) कर्मस्तव, (३) बंधस्वामित्व ( ४ ) षडशीति नामक इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो चुके हैं । उन कर्मग्रन्थों की प्रस्तावना में उनके बारे में परिचय दिया गया है । यहाँ उसी क्रम से इस पंचम कर्मग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है। इस पंचम कर्मग्रन्थ में प्रथम कर्मग्रन्थ में वर्णित प्रकृतियों में से कौन-कौन प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी, अध्रुवबन्धिनी, अबबन्धिनी, धवोदया, अवोदय, सत्ताक, अध्र ुबसत्ताक, सर्वदेशघाती, अघाती, पुण्य, पाप, परावर्तमान, अपरावर्तमान हैं, यह बतलाया है । उसके बाद उन्हीं प्रकृतियों में कौन-कौन क्षेत्रविपाको, जीवविपाकी, भवविपाकी और पुद्गलविपाकी हैं, यह बताया गया है । अनन्तर कर्म प्रकृतियों के प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध और प्रदेशवन्ध, इन चार प्रकार के बन्धों का स्वरूप बतलाया है । प्रकृतिबन्ध के कथन के प्रसंग में भूल तथा उत्तर प्रकृतियों में भूयस्कार, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य बन्धों को गिनाया है। स्थितिबन्ध को बतलाते हुए मूल तथा उत्तर प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति, एकेन्द्रिय आदि जीवों के उसका प्रमाण निकालने की रीति और उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामियों का वर्णन किया है | अनुभाग (रस) बन्ध को बतलाते हुए शुभाशुभ प्रकृतियों में तीव्र था मन्द रस पड़ने के कारण, शुभाशुभ रस का विशेष स्वरूप, उत्कृष्ट व जघन्य अनुभाग बंध के स्वामी आदि का वर्णन किया है । प्रदेशबंध का वर्णन करते हुए वर्गणाओं का स्वरूप, उनकी अवगाहना, बद्धकर्मदलियों का मूल एवं उत्तर प्रकृतियों में बंटवारा, कर्मक्षपण की कारण ग्यारह गुणश्रेणियाँ, गुणश्र ेणी रचना का स्वरूप गुणस्थानों का और उत्कृष्ट अन्तराल, प्रसंगवश पल्योपम सागरोपम और पुलपरावर्त के भेदों का स्वरूप, उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेशबंध के स्वामी, योगस्थान वगैरह का अल्पबहुत्व और प्रसंगवश लोक वगैरह का स्वरूप बतलाया है । अन्त में उपशमणि और क्षणकोणि का कथन करते हुए ग्रन्थ को समाप्त किया है | पंचम कर्मग्रन्थ की रचना का आधार जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है कि श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने इन नवीन कर्मग्रन्थों के नाम प्राचीन कर्मग्रन्थों के आधार पर ही रखे हैं तथा उनके आधार परी इनकी रचना हुई है । इसका प्रमाण यह है कि पंचम कर्मग्रन्थ की टीका के प्रारम्भ में श्री देवेन्द्रसूरि ने प्राचीन शतक के प्रणेता श्री शिवशमंसूरि का स्मरण किया है और अन्त में लिखा है कि कर्मप्रकृति पंचसंग्रह, वृहत्तक आदि ग्रन्थों के आधार पर इस शतक की रचना की है। इसके अतिरिक्त इसकी रचना के मुख्य आधार कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह प्रतीत होते हैं। क्योंकि इसकी टीका में अनेक स्थानों में संदर्भ ग्रन्थों के रूप में कर्मप्रकृति चूणि, कर्मप्रकृति टीका, पंचसंग्रह Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) और पंचसंग्रह टीका का उल्लेख किया गया है। इन ग्रन्थों के अलावा अन्य ग्रन्थों का उल्लेख विशेषरूप से नहीं हुआ है । शतक की अनेक गाथाओं पर पंचसंग्रह की स्पष्ट छाप है, कहीं-कहीं तो थोड़ा सा ही परिवर्तन पाया जाता है । शतक की ३६ वीं गाथा का विवेचन ग्रन्थकार ने पहले पंचसंग्रह के अभिप्रायानुसार किया है और उसके बाद कर्म प्रकृति के अभिप्रायानुसार कर्म प्रकृति और पंचसंग्रह में कुछ बातों को लेकर मतभेद हैं । कर्मप्रकृति का मत प्राचीन प्रतीत होता है फिर भी कहीं-कहीं कर्मग्रन्थकार का झुकाव पंचसंग्रह के मत की ओर विशेष जान पड़ता है । यद्यपि उन्होंने दोनों मलों को समान भाव से अपने ग्रन्थ में स्थान दिया है और कर्मप्रकृति को स्थान-स्थान पर प्रमाण रूप में उपस्थित किया है तो भी पंचसंग्रह के मत को उद्धृत करते हुए कहीं-कहीं उसे अग्रस्थान देने से भी वे नहीं चुके हैं। अतएव यह कहना होगा कि विशेष इन्हीं दोनों ग्रन्थों के आधार पर उन्होंने शतक की रचना की है । इस प्रकार से प्राक्कथन के रूप में कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी कुछ एक पहलुओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालने के साथ ग्रन्थ की रूपरेखा वनलाई है। इन विचारों के प्रकाश में कर्मसाहित्य का विशेष अध्ययन किया जाये तो कर्मसिद्धान्त का अच्छा ज्ञान हो सकता है । यद्यपि कर्मसाहित्य अपनी गंभीरता के कारण अभ्यासियों को नीरस प्रतीत होता है, लेकिन क्रम-क्रम से इसके अध्ययन को बढ़ाया जाये तो बहुत ही सरलता से समझ में आ जाता है। इसके लिये आवश्यक है जिज्ञासावृत्ति और सतत अभ्यास करते रहने का अदम्य उत्साह | पाठकगण उक्त संकेत को ध्यान में रखकर कर्मग्रन्थ का अध्ययन करेंगे, यही आकांक्षा है । सम्पादक श्रीचन्द सुराना देवकुमार जैन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका गाथा १ मंगलाचरण ग्रन्थ के वर्ण-विषयों का संकेत कतिपय अग्य-विषयों की परिभाषाएं गाथा २ ध्र वबन्धिनी प्रकृतियों के नाम मुलकर्म प्रकृतियों की अपेक्षा ध्र २बन्धिी प्रकृतियों का वर्गीकरण ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के ध्र वबन्धित्व का कारण गाथा ३, ४ १४-२२ अध वबन्धिनी प्रकृतियों के नाम अध्र बबन्धिनी प्रकृतियों का मूल कर्मों की अपेक्षा वर्गीकरण अध्र ववन्धिनी मानने का कारण कर्मबन्ध और कर्मोदय दशा में होने वाले भंगों का कारण २० अनादि, अनन्त आदि चार भंगों का स्वरूप गाथा ५ २२-२६ ध्र व और अध्र व बंध, उदय प्रकृतियों में उक्त भंगों के विधान का सोपपत्तिक वर्णन गो कर्मकाण्ड में प्रदर्शित भंगों के साथ तुलना गाथा ६ २६-२६ ध्र वोदय प्रकृतियों के नाम ध्र वोदय प्रकृतियों का मूल कर्म प्रकृतियों की अपेक्षा वर्गी २१ करण उक्त प्रकृतियों को ध्र वोदया मानने का कारण । ३० ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) ३१ गाया ७ २६-३६ अध वोदय प्रकृतियों के नाम उक्त प्रकृतियों के अन वोदय होने का कारण बन्न एवं उदय प्रकृतियों में अनादि, अनन्त आदि भंगों का स्पष्टीकरण गाथा ८, ३६-४१ नव और अन व सत्ता वालो प्रकृतियों के नाम ध्रव और अनब सत्ता प्रकृतियों के कथन करने वाली संज्ञाओं का विवरण धव और अध्र व सत्ता प्रकृतियों की संख्या अल्पाधिक होने का कारण १३० प्रकृतियों के ध्र व सत्ता वाली होने का कारण ४० २८ हतियों के अनसता काली होने का स्पष्टीकरण ४१ गाथा १०, ११, १२ ४२-५१ गुणस्थानों में मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता का विचार मिथ मोहनीय और अनन्तानुबंधी कषाय की सत्ता का नियम आहारक सप्तक और तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता का नियम मिथ्यात्व आदि पन्द्रह प्रकृतियों की सत्ता का गुणस्थानों में विचार करने का कारण गाथा १३, १४ ५२-६२ सर्वघातिनी, देशघातिनी और अधातिनी प्रकृतियाँ प्रकृतियों के घाति और अधाति मानने का कारण सर्वघातिनी प्रकृतियां कौन-कौनसी और क्यों ? देशघातिनी प्रकृतियां कौन-कौनसी हैं और क्यों ? सर्वपाति और देशघाति प्रकृतियों का विशेष स्पष्टीकरण ४८ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) ७-६९ अधाति प्रकृतियाँ कौन-कौनसी हैं गाथा १५, १६, १७ पुण्य और पाप प्रकृतियाँ कौन-सी हैं और क्यों ? गाथा १८ अपरावर्तमान प्रकृतियाँ अपरावर्तमान शब्द की व्याख्या मिथ्याल्न प्रकृति को अपरावर्तमान मानने का कारण गाथा १६ परावर्तमान की व्याख्या परावर्तमान प्रकृतियाँ विपाक का लक्षण और भेद कर्म प्रकृतियों के ध्र वबंधी आदि भेदों का विवरण क्षेत्रावपाकी प्रकृतियां आनुपूर्वी नामवार्म को क्षेत्रविपाकी मानने का कारण गाथा २० जीवविषाकी और भबबिपाको प्रकृतियाँ गाथा २१ पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ कौन-कौन और क्यों ? रति, अरति मोहनीय का विपाक सम्बन्धी स्पष्टीकरण गति नामकर्म भवविपाकी क्यों नहीं आनुपूर्वी नामकर्म विषयक स्पष्टीकरण कर्म प्रकृतियों के क्षेत्रविपाकी आदि भेदों का यन्त्र बंध के भेद और उनका स्वरूप गाथा २२ मूल प्रकृतिबंध के बंधस्थान और उनमें भूयस्कर आदि बंधों का विवेचन मूल प्रकृतियों में बंधस्थानों की संख्या ७४-७६ ७ ८८-६४ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U . . . . . RE-१०६ मूल प्रकृतियों में भूयस्कर बंध की संख्या का विवेचन ....६० मूल प्रकृतियों में अल्पनर बंध की संख्या मूल प्रकृतियों में अवस्थित बंध की संख्या . . मूल प्रकृतियों में अवक्तव्य बंध न होने का कारण गाथा २३ १४-६६ भुयस्कार आदि बंधों के लक्षण भूयस्कार मादि बंधों विषयक विशेष स्पष्टीकरण . . ६६ गाथा २४ दर्शनावरण कर्म के बंधस्थान आदि की संख्यां ... ... ... .. मोहनीय कर्म के बधस्थान की संख्या मोहनीय कर्म के भूयस्कार आदि वन्ध गाथा २४ १४-११५ नामकर्म के बन्धस्थानों का विवेचन नामकर्म के बन्धस्थानों में भूयस्कार आदि बन्ध १११ नामकर्म के बन्धस्थानों में सातवें भूयस्कार के सम्बन्ध में: स्पष्टीकरण आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के बन्धस्थाम तथा भूय- । स्कार आदि बंधों का कोष्टक गाथा २६, २७ . ११५-१२२ मूल कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति मूल कर्मों की जघन्य स्थिति व उसका स्पष्टीकरण . ११७ गाथा २८ .. १२२-१२४ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्म को सभी उत्तर : प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति असाता वेदनीय और नामकर्म की कूछ उत्तर प्रकृतियों -। . की उत्कृष्ट स्थिति Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा २६ कषायों की उत्कृष्ट स्थिति वर्णचतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति गापा ३० ( ३४ ) दस और पन्द्रह कोड़ा कोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली प्रकृतियों के नाम प्रकृतियों के नाम उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में अबाधाकाल का प्रमाण गाया ३३ १२४ - १२५ १२५ १२५ १२६-१२७ गाया ३१, ३२ बौरा कोड़ा सोधी सागरोद की उत्कृष्ट स्पिति वाली १२६ १२७-१३२ आयुकर्म के अबाधाकाल सम्बन्धी विचार १२८ १२६ १३२-१३६ आहारकद्विक और तीर्थकर नाम की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति और अवाधाकाल तोर्थंकर नामकर्म का स्थिति सम्बन्धी शंका-समाधान मनुष्य और तिर्यन्च आयु की उत्कृष्ट स्थिति गामा ३४ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी जीव के आयुकर्म के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का प्रमाण १३७-१४२ १३७ १३६ १४३-१४४ १४३ १४४-१४६ १४३ गामा ३५ पन्द्रह घाति और तीन अघाति प्रकृतियों की जघन्यस्थिति गाया ३६ १३२ १३३ १३६ संज्वलनत्रिक व पुरुषवेद को जघन्य स्थिति शेष उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति निकालने के लिये सामान्य नियम १४६ १४६ - १५४ गाथा ३७, ३८ एकेन्द्रिय जीव के उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट और जघन्य Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) स्थितिबन्ध का प्रमाण द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थितिबन्ध का प्रमाण आयुकर्म की उतर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति गाथा ३६ गाथा ४०, जघन्थ अबाधा का प्रमाण तीर्थंकर और आहारकाद्वेक नामकर्म की जघन्य स्थिति के सम्बन्ध में मतान्तर ४१ क्षुल्लकभव के प्रमाण का विवेचन १५३ १५४ १५५ - १५६ १५५ गाथा ४२ तीर्थंकर आहारकद्विक और देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामी व तत्सम्बन्धी शंका-समाधान शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामी १५६ १५७-१६० १५८ १६०-१६८ गाथा ४३, ४४, ४५ चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव किन-किन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामी हैं ? जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों का कथन गाथा ४८ गुणस्थानों की अपेक्षा स्थितिबंध का विचार १५० १६१ १६६ १६८-१७६ गाथा ४६ भूल कर्म प्रकृतियों के स्थितिबंध के उत्कृष्ट आदि भेदों में सादि वगैरह भंगों का विचार १६ १७४ १७६-१५० गाथा ४७ उत्तर कर्म प्रकृतियों के स्थितिबंध के उत्कृष्ट आदि भेदों में सादि वगैरह भंगों का विचार १७७ १८०-१८३ १८१ १६४ - १८७ १८४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४६. ५०, ५१ एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा स्थितिबंध में अस्पबहुत्व का विचार गाथा ५२ ( ३६ ) स्थितिबंध के शुभत्व और अशुभत्व का कारण स्थितिबंध और अनुभागबंध सम्बन्धी स्पष्टीकरण गाथा ५३, ५४ योग और स्थितिस्थान का लक्षण १८७ - १६५ १८६ १६६-१६६ १६६ १६७ १६६ - २०६ २०० जीवों की अपेक्षा योग के अल्पबहुत्व और स्थितिस्थान का विचार प्रमाण स्थितिबंध के कारण अध्यवसायस्थानों का प्रमाण २०२ २०६-२०० गांवा ५५. अपर्याप्त जीवों के प्रतिसमय होने वाली योगवृद्धि का २०६ २०७ २०८ - २१३ गाथा ५६, ५७ पंचेन्द्रिय जीव के जिन इकतालीस कर्म प्रकृतियों का बंध अधिक से अधिक जितने काल तक नहीं होता, उन प्रकृतियों और उनके अबन्ध काल का निरूपण माथा ५८ उक्त इकतालीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अबन्धकाल का स्पष्टीकरण गाया ५६, ६०, ६१, ६२ अध बंधिनी तिहत्तर प्रकृतियों के निरन्तरबंध काल का निरूपण २०६ २१४ - २१५. २१४ २१६-२२४ २१८ २२४-२३३ गाथा ६३, ६४ शुभ और अशुभ प्रकृतियों में सीव्र तथा मन्द अनुभाग बंध का कारण २२४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन तथा मन्द अनुमः। पंच के ( चरः विदाः उनके होने का कारण १२७ गाथा ६५ २३३-२३६ शुभ और अशुभ रस का विशेष स्वरूप २३४ गाथा ६६, ६७, ६८ २३६-२४३ सब कर्म प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों का विवेचन २३७ गाथा ६६, ७०,७१, ७२, ७३ २४३-२५८ सब कर्म प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों का निरूपण २४४ गाथा ७४ २५८-२६५ मूल और उत्तर प्रकृतियों के अनुभाग बंध के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट आदि विकल्पों में सादि वगैरह भंगों का विचार २५६ गाथा ७५,७६, ७७ २६६-२७८ प्रदेशबंध का स्वरूप वर्गणा का लक्षण २६७ ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य वर्गणाओं का स्वरूप २६८ वर्गणाओं की अवगाहना का प्रमाण गाथा ७८, ६ २७८-२८५ जीव के ग्रहण करने योग्य कर्मदलिकों का स्वरूप २७६ परमाणु का स्वरूप २७६ गुरुलघु और अगुरुलघु २८१ रसाण का स्वरूप जीव की कर्मदलिकों को ग्रहण करने की प्रक्रिया २८४ गाथा ७६, ८० २५-२८६ जीव द्वारा ग्रहीत कर्मदलिकों का मूल कर्मप्रकृतियों में २७७ २८२ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग का क्रम गाथा ८१ मूल कर्मों में विभक्त कर्मदलिकों का उत्तर प्रकृतियों विभाग का क्रम गाथा ८२ गुणश्रेणियों की संख्या और उनका वर्णन गाथा ८३ ( ३८ } गुणश्रेणि का स्वरूप प्रत्येक गुणश्रेणि में होने वाली निर्जरा का प्रमाण ग्राथण ८४ गुणस्थानों के जघन्य और उत्कृष्ट अन्तराल का वर्णन गाथा ६५ पल्योपम और सागरोपम के भेदों का विवेचन अंगुल के भेदों की व्याख्या गाथा ८६ ८७ ८८ गाथा ५६ पुद्गल परावर्त के भेद बादर और सूक्ष्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव पुद्गल परावर्तों का स्वरूप उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामी गाया ६०, ६१, ६२ मूल और उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का निरूपण गाया ६३ मूल और उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों का विवेचन २८६ २८६ - २६६ २५६ २६७-३०१ २६७ ३०१-३०६ ३०२ ३०५ ३८६-३१३ ३०६ ३१३-३२३ ३१४ ३२१ १२३-३३३ ३२४ ३२७ ३३४-३३६ ३३५ ३३६-३४४ ३३७ ३४४-३४८ * Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ गाथा ६४ ३४८-३५४ प्रदेशबंध के सादि वगैरह भंग ३४६ गाथा ६५, ६६ ३५४-३६२ योगस्थान, प्रकृति, स्थितिबंध, स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान, अनुभाग-धंधाध्याय चाल, कहा और रमच्छेद का परस्पर में अल्पबहुत्व ३५५ प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बंध के कारण गाथा ६७ ३६२-३७० लोक का स्वरूप ३६२ लोक का आधार व आकार ३६४ अधोलोक का समीकरण ऊर्ध्वलोक का समीकरण श्रेणि और प्रतर का स्वरूप ३६६ माथा १८ ३७१-३८६ उपशमणि का वर्णन ३७१ अनन्तानुबंधी कषाय के उपशम की विधि રૂ૭૨ दर्शनधिक का उपशम ३७५ चारित्रमोहनीय का उपशम ३७६ उपश मणि से पसित होने पर गुणस्थानों में आने का क्रम उपशमणि से गिरकर क्षपकणि पर चढ़ने विषयक मतभिन्नता ३८२ उपशम और क्षयोपशम में अन्तर ३८५ गाथा ६९, १०० ३८७-३६७ क्षपकणि का स्वरूप अनन्तानुबंधी चतुष्क और दर्शनत्रिक का क्षपणक्रम चारित्रमोहनीय का क्षपणक्रम ३६१ ३८२ ३८६ ३८६ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) शेष घातिक कर्मों का क्षपणक्रम सयोगि और अयोगिकेवली स्थानों में होने वाले कार्य ग्रन्थ का उपसंहार परिशिष्ट १. पंचम कर्मग्रन्थ की मूलगाथायें २. कर्मों की बन्ध, उदय, सत्ता प्रकृतियों की संख्या में भिन्नता का कारण ३. मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों में भूयस्कार आदि बंध ४. कर्म प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध ५. आयुकर्म के अबाधाकाल का स्पष्टीकरण ६. योगस्थानों का विवेचन ७. ग्रहण किये गये, कर्मस्कन्धों को कर्म प्रकृतियों में विभाजित करने की रीति 5. उत्तर प्रकृतियों में पुद्गलद्रव्य के वितरण तथा हीनाधिकता का विवेचन ६. पल्थ को भरने में लिये जाने वाले बालायों के बारे में अनुयोगद्वार सूत्र आदि का कथन १०. दिगम्बर साहित्य में पत्योपम का वर्णन ११. दिगम्बर ग्रन्थों में पुद्गल परावर्तों का वर्णन १२. उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबन्ध के स्वामियों का गोम्मटसार कर्मकांड में आगत वर्णन १३. गुणश्रेणि की रचना का स्पष्टीकरण १४. क्षपकश्र णि के विधान का स्पष्टीकरण १५. पंचम कर्मग्रन्थ की गाथाओं की अकाराद्यनु क्रमणिका 0 ૨૨ ३६० ३६७ ३६६ ४०१ ४०६ ४११ ४१७ ૪ ૪૨ ४२५ ४२८ ४३८ ४३६ ४४९ ४४४ ४४६ ४५१ ४५.५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पाराय नमः श्रीमद् देवेन्द्रसूरि विरचित शतक पंचम कर्मग्रन्थ इष्टदेव के नमस्कार पूर्वक ग्रन्थकार ग्रन्थ के धण्ये विषय का निर्देश करते हैं नमिय जिणं अवबंधोक्यसत्ताधाइपुनपरियसा। सेयर बरहषिबागा बुच्छ बन्धविह सामी य॥१॥ शब्दार्थ-ममिय-नमस्कार करके, जिणं-जिनेन्द्र देव को, घुवबंध-प्र.वबंधी, उदय-घ्र व उध्यो, सत्ता- पुष सत्ता, चारघाति (सर्वघाती, देशघाती), पुन-पुण्य प्रकृति, परिपत्ता-परावर्तमान, सेयर- प्रतिपक्ष सहित, पचह-चार प्रकार से, निवागाविपाक निखाने वाली, दुई-कहूँगा, बंधविह-बंध के मेव, सामी- स्वामी (मंध के स्वामी) प--उपगम श्रेणि, क्षपक श्रेणि । गाथार्ष-जिनेश्वर भगवान का नमस्कार करके ध्रुवबन्धी, ध्रुव उदयी, ध्रुव सत्ता, घाती, पुण्य और परावर्तमान तथा इनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियों सहित तथा चार प्रकार से विपाक दिखाने वाली प्रकृतियों, बंधभेद, उनके स्वामी और उपशम श्रेणि, क्षपक श्रोणि का वर्णन करूगा । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतक विशेषार्य-गाथा के तीन भाग हैं-१. नमस्कारात्मक पद, २. ग्रन्थ के वर्ण्य विषयों का संकेत और ३. उनके कथन करने की प्रतिज्ञा । यानी गाथा में ग्रन्थकार ने मंगलाचरण के साथ इस कर्मग्रन्थ में निरूपण किये जाने वाले विषयों के नाम निर्देश पूर्वक अपने ग्रन्थ को सीमा का संकेत किया है। ___ 'नमिय जिर्ण' पद से जिनेश्वर देव को नमस्कार किया है । इसका कारण यह है कि जिनेश्वर देव ने उन समस्त कर्मों पर विजय प्राप्त कर ली है जिनका बंध, उदय और सत्ता मुक्ति प्राप्त करने के पूर्व तक संसारी जीवों में विद्यमान रहती है। साथ ही इस पद से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कर्म प्रकृतियाँ चाहे कैसी भी स्थिति वाली हों, चाहे उनके विपाकोदय का कैसा भी रूप हो लेकिन उनकी शक्ति जीव की शक्ति, अध्यादमा के समक्ष हीन है, और दे विकासोन्मुनी आत्मा के द्वारा अवश्य ही विजित होती हैं। ये प्रकृतियाँ तभी तक अपने प्रभाव को प्रदर्शित करती हैं जब तक जीव आत्मोपलब्धि के लक्ष्य की ओर अग्रसर नहीं होता है और अपनी शक्ति से अज्ञात रहता है। लेकिन जैसे ही अन्तर में उन्मेष, स्फूर्ति, उत्साह और स्वदर्शन की वृत्ति जाग्रत होती है वैसे ही बलवान माने जाने वाले कर्म निःशेष होने की धारा के अनुगामी बन जाते हैं। कर्मविजेता जिनेश्वर देव बंध, उदय और सत्ता स्थिति को प्राप्त हुए कर्मों को जीतते हैं । लेकिन जीव के परिणामों की विविधता से कर्म प्रकृतियों के बंध आदि के ध्रुव, अध्रुव, घाती, अघाती आदि अनेक रूप हो जाते हैं , जो उनकी अवस्थायें कहलाती हैं । इन होने वाली अवस्थाओं में से 'धुवबंधोदयसत्ताधाइपुन्नपरियत्ता' पद द्वारा ध्रुवबंध, ध्रुव उदय, ध्रुव सत्ता, घाति, पुण्य, परावर्तमान इन छह का नामोल्लेख करके प्रतिपक्षी छह नामों को समझने के लिये सेयर सेतर' Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ पद दिया है तथा 'चजह विवागा' पद से कर्मों को चार प्रकार से होने वाली विपाक अवस्थाओं का संकेत किया है । अर्थात् कर्म प्रकृतियों की निम्नलिखित सोलह अवस्थायें होती हैं, जिन्हें जिनेश्वर देव ने जीत कर जिन पद की प्राप्ति की है (१) ध्रुव बंधिनी, (२) अध्रुव बन्धिनी, (३) ध्रुवोदया, (४) अध्रु. वोदया, (५) ध्रुव सत्ताक, (६) अध्रुव सत्ताक, (७) घातिनी, (८) अधातिनी, (६) पुण्य, (१०) पाप, (११) परावर्तमाना, (१२) अपरावर्तमाना, (१३) क्षेत्र विपाकी, (१४) जीव विधाका, (१५) भव विपाकी, (१६) पुद्गल विपाकी। कों की उदय और सत्ता रूप अवस्था होने के लिये यह आवश्यक है कि उनका जीव के साथ बंध हो । जब तक जीव संसार में स्थित है, योग व कषाय परिणति का संबन्ध जुड़ा हुआ है तब तक कर्म का बंध होता है | योग के द्वारा कर्म वर्गणाओं का ग्रहण होता और आत्मगुणों के आच्छादन करने का उन कर्म पुद्गलों में स्वभाव पड़ता है तथा कषाय के द्वारा आत्मा के साथ कर्मों के संबद्ध रहने की समय मर्यादा एवं उनमें फलोदय के तीन, मंद आदि रूप अंगों का निर्माण होता है । इस प्रकार से कर्मबंध के चार रूप होते हैं-(१) प्रकृति बंध (२) स्थिति बंध, (३) अनुभाग बन्ध, (४) प्रदेश बन्ध । उक्त चार प्रकार के वैध भेदों का स्वामी जीव है । जीव अपने परिणामों द्वारा कर्म वर्गणाओं में प्रकृति, स्थिति आदि चार अंशों का निर्माण करता है। अतएव प्रकृति, स्थिति बंध आदि चार रूप जैसे कर्मबंष के हैं वैसे ही उनके स्वामियों के भी हो जाते हैं कि कौन जीव किस प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध का स्वामी है। इस प्रकार से 'नमिय जिणं' से लेकर 'सामी' तक के गायांश द्वारा कर्मविजेता जिनेश्वर देव के नमस्कार पूर्वक यह स्पष्ट कर दिया है कि Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक जब तक जीव सकर्मा है, संसार में परिभ्रमण कर रहा है तब तक वह ध्रुव बन्ध, अघुव बंध आदि अवस्था वाले कर्मों से सहित है। अपने मन, वचन, काय प्रवृत्ति एवं काषायिक परिणामों से उनका स्वामी कहलाता है-यानी कर्मग्रहण करने का अधिकारी बना रहता है । लेकिन जब कर्मों को निःशेष करने लिये सन्नद्ध होता है तब वह कर्म मल की सत्ता के उद्रेक को शामित करने या कर्मों की सत्ता को निःशेषतया क्षय करने रूप दोनों उपायों में से किसी एक को अपनाता है । कर्मों का उपशम करना उपशम श्रेणि और क्षय करना । क्षपक श्रेणि कहलाती है । इन दोनों श्रेणियों का संकेत गाथा में 'य' शब्द से किया है। उपशम या क्षपक श्रेणि पर आरोहण किये बिना जीव अपने आत्मस्वरूप का अवलोकन नहीं कर पाता है। यह बात दूसरी है कि उपशम अंणि में अवस्थित जीव सत्तागत कर्मों के उद्वेलित होने पर आत्मदर्शन के मार्ग से भ्रष्ट होकर अपनी पूर्व दशा को प्राप्त हो जाता है किन्तु क्षपक श्रेणि वाला सभी प्रकार की विघ्नबाधाओं का क्षय करके आत्मोपलब्धि द्वारा अनन्त संसार से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार से गाथा में कर्ममुक्त आत्मा, कर्ममुक्ति के उपाय-मार्ग । और संसारी जीव के होने वाली कर्मों की बंध, उदय आदि अवस्थाओं । का संकेत किया गया है कि जब तक जीव संसार में है तब तक कर्म प्रकृतियों की अनेक अवस्थाओं से संयुक्त रहेगा। इन कर्मों से मुक्ति के लिये जीव के उपशम या क्षय रूप आत्मपरिणाम ही कारण हैं और कर्ममुक्ति के बाद आत्मा परमात्मा पद प्राप्त कर लेती है । इसीलिये इन अवस्थाओं का संकेत करने के लिये गाथा में ग्रन्थ के वर्ण्य विषय निम्न प्रकार हैं (१) ध्रुवबंधिनी, (२) अब्रुवबन्धिनी, (३) ध्रुवोदया, (४) अध्रु Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ वोदया (५) ध्रुव सत्ताक, (६) अध्रुव सत्ताक, (७) धातिनी, (८) अघातिनी, (E) पुण्य, (१०) पाप,(११) परावर्तमाना, (१२) अपरावर्तमाना (१३) क्षेत्रविपाकी, (१४) जीवविपाकी, (१५) भवविपाकी, (१६) पुद्गलविपाकी', (१७) प्रकृतिबंध (१८) स्थितिबन्ध, (१) अनुभागबंध, (२०) प्रदेशबंध, (२१) प्रकृतिबंध स्वामी, (२२) स्थितिबन्ध स्वामी, (२३) अनुभागबंध स्वामी, (२४) प्रदेशबंध स्वामी, (२५) उपशम श्रेणि, (२६) क्षपक श्रोणि । गाथा में निर्दिष्ट छ विषयों की परिभाषायें नीचे लिखे अनुसार है (1) ष वग्विनी प्रकृति-अपने कारण के होने पर जिस कर्म प्रकृति का बंध अवश्य होता है, उसे ध्रुवबन्धिनी प्रकृति कहते हैं। ऐसी प्रकृति अपने बंधविश्छेद पर्यन्त प्रत्येक जीव को प्रतिसमय बंधती है।' (२) भभूष-वग्विनी प्रतिबंध के कारणों के होने पर भी जो प्रकृति बंधती भी है और नहीं भी बंधती है, उसे अघ्र व-बन्धिनी प्रकृति कहते हैं। ऐसी प्रकृति अपने बन्ध-विच्छेद पर्यन्त बंधती भी है और बंधती भी नहीं है। १ कर्मग्रन्थ से मिलता-जुलता निर्देश पंचमंग्रह में निम्न प्रकार है घुवधि ध्रुवोदय सम्बधाइ परियत्तमाण असुभाओं। पचवि सविस्खा पगई व विवागओ चहा ।। ३।१४ गाथा में ध्र वबन्धी, ध्र वोदया, सर्वघाति, परावर्तमान, मोर अशुम इन पांच के प्रतिपक्षी द्वारों तथा चार प्रकार के विपाकों का संकेत किया है। कुल मिलाकर चौदह नाम होते हैं। २ नियहेउसंभवेवि हु भयणिखो जाण होइ पयठीणं । बचो ता अधुवाओ धूषा अभणिबंधाओ । -पंचसंग्रह ३.३५ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ध्रुवबन्धिनी प्रकृति का बन्धविच्छेद काल पर्यन्त प्रत्येक समय हराएक जीव को बंध होता रहता है और अनुबन्धिनी प्रकृति का बंधविच्छेद काल तक में भी सर्वकालावस्थायी बंध नहीं होता है । यहां घवबन्धिनी और अबबन्धिनी रूपता में सामान्य बंधहेतु की विवक्षा है विशेष बंधहेतु की नहीं। क्योंकि जिस प्रकृति के जो खास बंधहेतु हैं वे हेतु जब जब मिलें तब तक उस प्रकृति का बंध अवश्य होता है, चाहे वह अध्रुवबन्धिनी भी क्यों न हो। इसलिये अपने सामान्य बन्धहेतु के होने पर भी जिस प्रकृति का बंध हो या न हो वह अधुवबन्धिनी है और अवश्य बंध हो वह ध्रुवबन्धिनी है । (३) कोषा प्रकृति - जिस प्रकृति का उदय अविच्छिन्न हो अर्थात अपने उदय काल पर्यन्त प्रत्येक समय जीव को जिस प्रकृति का उदय बराबर बिना रुके होता रहता है, उसे ध्रुवोदया कहते हैं । (४) अनुवोदा प्रकृति — अपने उदय काल के अंत तक जिस प्रकृति का उदय बराबर नहीं रहता है, कभी उदय होता है और कभी नहीं होता है, यानी उदयविच्छेद काल तक में भी जिसके उदय का नियम न हो उसे अनुवोदया प्रकृति कहते हैं । " सामान्य से संपूर्ण कर्म प्रकृतियों के पांच उदय हेतु हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव और पांचों के समूह द्वारा समस्त कर्म प्रकृतियों का उदय होता है । एक ही प्रकार के द्रव्यादि हेतु समस्त कर्म प्रकृतियों के उदय में कारण रूप नहीं होते हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न प्रकार के द्रव्यादि हेतु कारण रूप होते हैं। कोई द्रव्यादि सामग्री किसी प्रकृति के उदय १ अब्चोकिन्नो उदओ जाणं पगईण ता धुवोदश्या । वोनिवि संभव जाण अधूवोदया माओ ।। - पंचसंग्रह ३/३७ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ में कारण रूप होती है और कोई सामग्री किसी के उदय में हेतु रूप __ होती है । लेकिन यह निश्चित है कि जहां एक भी उदय हेतु है, वहां अन्य सभी हेतु समूह रूप में उपस्थित रहते हैं।' (५) प्रवसत्ताक प्रकृति-अनादि मिथ्यात्वी जीव को जो प्रकृति निरंतर सत्ता में होती है, सर्वदा विद्यमान रहती है, उसे ध्रुवसत्ताक कृति कहते हैं ! (६) अध्रुवसत्ताक प्रकृति--मिथ्यात्व दशा में जिस प्रकृति की सता का नियम नहीं यानी किसी समय सत्ता में हो और किसी समय सत्ता में न भी हो, उसे अध्रुवसत्ताक प्रकृति कहते हैं । ध्रुवसत्ताक प्रकृतियों को विच्छेद काल तक प्रत्येक समय प्रत्येक जीव को ससा होती है और अध्रुवसत्ताक प्रकृतियों के लिये यह नियम नहीं है कि विच्छेद काल तक प्रत्येक समय उनकी सत्ता हो । (७) धासिनी प्रकृति-जो कर्म प्रकृति आत्मिक गुणों-ज्ञानादि का घात करती है, उसे घातिनी प्रकृति कहते हैं। यह दो प्रकार की है सर्वघातिनी और देशघातिनी। जो कर्म प्रकृति ज्ञानादि रूप अपने विषय को सर्वथा प्रकार से घात करे उसे सर्वघातिनी और जो प्रकृति अपने विषय के एकदेश का घात करे उसे देशघातिनी प्रकृति कहते हैं । कर्मों की कुछ प्रकृतियां सर्वघाति प्रतिभाग रूप होती हैं अर्थात् अघाती होने से स्वयं में तो जानादि आत्मगुणों को दबाने की शक्ति नहीं है किन्तु सर्वघाती प्रकृतियों के संसर्ग से अपना अति दारुण विपाक बतलाती हैं। वे सर्वघाती प्रकृतियों के साथ वेदन किये जाने १ दब खेत कालो भवो य भावो य हेयवो पंच । हेउ समासेणुदओ जायइ सम्वाण पगईर्ण ।। --पंचसंपाद २३६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाले दारुण विपाक को बतलाने वाली होने से उनकी सदृशता को प्राप्त करती हैं, अतः उनको सर्वघाती प्रतिभाग प्रकृतियां कहते हैं । (८) अघातिनी प्रकृति--जो प्रकृति आत्मिक गुणों का धात नहीं करती है, उसे अघातिनी प्रकृति कहते हैं। __(6) पुष्प प्रकृति—जिस प्रकृति का विपाक-फल शुभ होता है उसे पुण्य प्रकृति कहते हैं। (१०) पाप प्रकृति—जिसका फल अशुभ होता है वह पाप प्रकृति है। (११) परावर्तमाना प्रकृति-किसी दूसरी प्रकृति के बन्ध, उदय अथवा दोनों को रोककर जिस प्रकृति का बंध, उदय अथवा दोनों होते हैं, उसे परावर्तमाना प्रकृति कहते हैं। (१२) अपरावर्तमाना प्रकृति-किसी दूसरी प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों को रोके बिना जिस प्रकृति के बंध, उदय अथवा दोनों होते हैं, उसे अपरावर्तमाना प्रकृति कहते हैं।' (१३) क्षेत्रविपाको प्रकृति–एक गति का शरीर छोड़कर अर्थात् पूर्व गति में मरण होने के कारण उसके शरीर को छोड़कर नई गति का शारीर धारण करने के लिये जब जीव गमन करता है, उस समय विग्रहगति में जो कर्म प्रकृति उदय में आती है, अपने फल का अनुभव कराती है उसे क्षेत्रविपाकी प्रकृति कहते हैं । इस प्रकृति का उदय पूर्व गति को त्यागकर अन्य गति में जाते समय अन्तरालवर्ती काल में ही होता है, अन्य समय में नहीं। इसीलिये इसको क्षेत्रविपाकी प्रकृति कहते हैं। (१४) जीवषिपाको प्रकृति-जो प्रकृति जीव में ही अपना फल देती है, उसे जीवविपाकी प्रकृति कहते हैं। इस प्रकृति का विपाक जीव १ विणिवारिय जा गरछा बंध उदयं व अन्म पगए । साहु परियसमाणी अणिवारेंति अपरियता ।। -पंचमह ४३ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम कमेन्य के नानादि स्वरूप का उपघातादि करते रूप होता है । अर्थात् चाहे शरीर हो या न हो तथा भव या क्षेत्र चाहे जो हो लेकिन जो प्रकृति अपने फल का अनुभव ज्ञानादि गुणों के उपधातादि करने के द्वारा साक्षात् जीव को ही कराती है, उसे जीवविपाकी प्रकृति कहते हैं। (१५) मक-विपाकी प्रकृति-जो प्रकृति नर नारकादि भव में ही फल देती है उसे भविपाको प्रकृति कहते हैं। इसका कारण है वि वर्तमान आयु के दो भाग व्यतीत होने के बाद तीसरे आदि भाग में आयु का बन्ध होने पर भी जब तक पूर्व भव का क्षय होने के द्वारा उत्तर स्वयोग्य भव प्राप्त नहीं होता है, तब तक यह प्रकृति उदय में नहीं आती है, इसीलिये इसको भवविपाकी प्रकृति कहते हैं । ___ (१६) पुद्गलनिपाको प्रकृति - जो कर्म प्रकृति पुद्गल में फल प्रदान करने के सन्मुख हो अर्थात् जिस प्रकृति का फल आत्मा पुद्गल द्वारा अनुभव करे, औदारिक आदि नामकर्म के उदय से ग्रहण किये गये पुद्गलों में जो कर्मप्रकृति अपनी शक्ति को दिखावे, उसे पुद्गलविपाकी प्रकृति कहते हैं। यानी जो प्रकृति शरीर रूप परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं में अपना विपाक-फल देती है, वह पुद्गल विषाकी प्रकृति है। इन सोलह प्रकृति द्वारों की परिभाषायें यहां बतलाई हैं। शेष प्रकृति, स्थिति आदि दस द्वारों की व्याख्या प्रथम, द्वितीय कर्मग्रन्थ में यथास्थान की गई है । अतः अब आगे की गाथाओं में ग्रन्थ के वर्ण्य विषयों का क्रमानुसार कथन प्रारम्भ करते हैं 1 प्रबन्धी प्रकृतियां सर्वप्रथम क्रमानुसार ध्रुबबन्धिनी प्रकृतियों की संख्या व नाम बतलाते हैं वन्नचाउतेयकम्मागुरुलहु निमणोषघाय मयकुच्छा । मिच्छकसायावरणा विग्धं षुवधि समवत्ता ॥२॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक शब्दार्थ-वापार-वणंचतुष्क, तेय--तैजस गरीर, कम्मा--कामंण शरीर, अगुरुलह-- अगुरुलघु नामकर्म, निमिगनिर्माण नामकर्म, उवधाय-- उपघात नामकर्म, भय · भय मोहनीय, कुच्छा-जुगुप्सा मोहनीय, मिसछ-मिथ्यात्व' मोहनीय, कसापा-- कषाय, आवरणा आवरण-मानावरण पाच व दर्शनावरण को कुल चौदह, विग्छ- पांच अन्त राय, धुवबंधि--ध्रुवबंधी प्रकृतियां, सपचत्ता-संतालीस। गाथार्थ-वर्णचतुष्क, तंजस कार्मण शरीर, अगुरुलघु नाम, निर्माण नाम, उपघात नाम, भय मोहनीय, जुगुप्सा मोहनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, और पांच अन्तराय थे संतालीस प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं। विशेषार्ष-गाथा में ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के नामों का निर्देश किया है । अपने योग्य सामान्य कारणों के होने पर जिन प्रकृत्तियों का | बंध होता है वे ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियां हैं। कर्म की मूल प्रकृतियां आठ हैं—(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय । इनकी बंघयोग्य उत्तर प्रकृतियाँ क्रमशः ५++२+ २६+४+६७+२+५=१२० होती हैं । इन एकसौ बीस प्रकृतियों में से सैंतालीस प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी हैं । जिनके नाम इसप्रकार हैं (१) पानाबरण-मति, श्रत, अवधि मनपर्याय और केवल ज्ञानावरण। (२) दर्शनावरण-चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानद्धि । (३) मोहनीय–मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, संज्वलन कषाय चतुष्क, भय, जुगुप्सा। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्रन्य (४) मामकर्म-वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात । ' (५) भन्सराय-दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य-अंतराय । ऊपर बतायी गई प्रतियों के न यह स्पष्ट होता है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म की सभी उत्तर प्रकृतियां जिनके क्रमशः पांच, नौ और पांच उत्तर भेद हैं, ध्र वबंधिनी हैं। मोहनीय कर्म के भेद दर्शतमोह की एक मिथ्याख तथा चारित्र मोह की अठारह प्रकृतियां और नामकर्म की नौ प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी है। इस प्रकार ज्ञानावरण की ५, दर्शनावरण की , मोहनीय को १६, नाम की और अंतराय की ५, कुल मिलाकर सैंतालीस प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी हैं। इन प्रकृतियों के ध्रुवबन्धिनी होने के कारण को गाथा में कहे गये क्रम के अनुसार स्पष्ट करते हैं। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तंजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण, उपघात, नामकर्म की इन नौ प्रकृतियों को ध्रुवबन्धिनी मानने का कारण यह है कि तेजस और कार्मण शरीर तो चारों गतियों के जीवों के अवश्य होते हैं, इनका अनादि से सम्बन्ध है ।' एक भव का स्थूल शरीर छोड़कर भवांतर का अन्य शरीर ग्रहण करने की अन्तराल गति (विग्रह गति) में भी तैजस और कार्मण शरीर सदैव बना रहता है। औदारिक या वैक्रिय शरीरों में से किसी एक का बंध होने पर वर्ण, गंध, रस, स्पर्श नामकर्मों का अवश्य बंध होता है तथा औदारिक, वैक्रिय पारीर का बंध होने पर उनके योग्य पुद्गलों से उनका निर्माण होता है । अतः निर्माण नामकर्म का बंध भी अवश्यंभावी है | इन औदारिक और वैत्रिय शरीर के स्थल होने से अन्य स्थूल पदार्थों से उपघात होता ही है । औदारिक या वैक्रिय पारीर अपनी योग्य वर्गणाओं को अधिक १ अनादि संबंधे प । सर्वस्य । -तत्वापसूत्र २।४२-४३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनक भी ग्रहण करें लेकिन ग्रहण करने वालों को न तो वह शरीर लोहे के समान भारी और न आक की रुई के समान हलके प्रतीत होते हैं । सदैब अगरुलघु रूप बने रहते हैं । इसलिए नामकर्म को नौ प्रकृतियाँ अपने कारणों के होने पर अवश्य ही बंधने से ध्रुवबंधिनी कहलातो हैं । इनका बंध अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान के चरम समय तक होता है। भय और जुगुप्सा यह चारित्न मोहनीय की प्रकृतियों हैं । इनके बंध की कोई विरोषनी नहीं है। इसीलिए इन दोनों को ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में माना है, ये दोनों प्रकृतियां आठवें मुणस्थान के अंत समय तक अपने बन्ध कारणों के रहने से बंधती ही रहती हैं । मिथ्यात्व, मिथ्यात्व मोहनीय के उदय में अवश्य बंधती है । मिथ्यात्व गुणस्थान तक मिथ्यात्व मोहनीय का निरंतर उदय होने से मिथ्यात्व का निरंतर बंध होता रहता है। मिथ्यात्व गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में बंध नहीं होता है । अनन्तानुबंधी नोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ इन सोलह कषायों का अपने-अपने उदय रूप कारण के होने तक अवश्य ही बंध होता है । इसीलिए इन सोलह कषायों को ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में गिना है । ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ और अंतराय की पांच ये उन्नीस प्रकृतियां अपने अपने बंधविच्छेद होने के स्थान तक अवश्य बंधती हैं तथा इनको विरोधिनी अन्य कोई प्रकृतियां न होने से इनको ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां माना है । अनंतानुबंधी क्रोध, मान आदि सोलह कषायों और शानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय कर्म की उन्नीस प्रकृतियों के ध्रुवबंधिनी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमः कर्मप्रन्य मानने का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि कर्म प्रकृतियों के बंध के लिए यह सामान्य नियम है कि जहां तक मिथ्यात्व, अधिरत, कषाय, योग इन चारों बंधहेतुओं में से जिस का सद्भाव होता है तथा 'जे बेएइ ते बंधई' जिस प्रकृति का जिस गुणस्थान तक उदय रहता है, यहां तक उस प्रकृति का बंध अवश्य होता है । इसलिए अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क और स्त्यानद्धिनिक इन सात प्रकृतियों के बंध में अनन्तानुबंधी कषाय के उदयजन्य आत्मपरिणाम कारण हैं और इनका उदय दूसरे सासादन गुणस्थान तक होता है, उससे आगे के गुणस्थानों में अनन्तानुबंधी कषाय के उदयजन्य आत्मपरिणामों का अभाव होने से बंध नहीं होता है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का चौथे अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्त बंध होता है, आगे के गुणस्थानों में तथाविध उदयजन्य आत्मपरिणाम नहीं होने से वंध नहीं होता है। प्रयापकानावर काय चतुष्क का देशविरति—पांचवें गुणस्थान पर्यन्त बंध होता है। निद्रा और प्रचला का आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय तक बंध होता है । आगे उनके बंधयोग्य परिणाम असंभव होने से बंध नहीं होता है। अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान तक संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ का बंध होता है । क्योंकि बादर कषाय का उदय उनके बंध का हेतु है । जिसका उदय नौवें गुणस्थान तक ही होता है, आगे के गुणस्थानों में नहीं । पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण तथा पांच अंतराय इन चौदह प्रकृतियों का बैध दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय तक होता है । इस गुणस्थान तक ही इनके बंध में हेतुभूत कषाय का उदय होता है, आगे के गुणस्थानों में नहीं होता है। इस प्रकार से मैंतालीस प्रकृतियां जिनमें ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की उन्नीस, नामकर्म की नौ और अंत Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सातक राय को पांच प्रकृतियां सम्मिलित है, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि कारणों के होने पर सभी जीवों को अवश्य बंधती हैं, इसीलिये इनको ध्रुवबन्धिनी प्रकृति मानते हैं। आर भागेपी को गमागम मडासियों के नाम और बन्ध व उदय की अपेक्षा से प्रकृतियों के भंग बतलाते हैं। अबबंधी प्रकृतियां और बंध व स्वयं को अपेक्षा से प्रतियों के भग तणवंगागिइसंघयण जाइगइखगइपुस्विजिणसास । उज्जोयायवपरचा तसवीसा गोय बणिय ॥ हासाइजुयलागवेग आउ तेवसरी अधुवबंधा। मंगा अणाइसाई अणंतसंस्तुतरा चउरो ॥४॥ शब्दार्थ-तगु–शरीर, (औदारिक, वैक्रिय, आहारक), जवंगा-तीन अंगोपांग, मागिह-छह संस्थान, संघयण छह संहनन, आइ-पांच जाति, गर-चार गसि, अगह-दो विहायोगति, पुग्वि–चार आनुपूर्वी, जिण -जिन नामकर्म, उसास - प्रवासोच्छवास नामकम, उम्सोय -उद्योत नामकर्म, आयष-आतप नामकर्म, परथा-पराधात नामकर्म, तसबोला-सादि बीस (त्रस दशक और स्यावर सगक), गोय-दो गोत्र, पणियं-दो वेदनीय । पंचसंग्रह और गो० कर्मकांड में प्रवदन्धिनी प्रकृतियों को इस प्रकार गिनाया हैनाणंतरायदसण धुवनंधि कसायमिछभयकुन्छा । अगुरुलधुनिमिणतेयं उबपायं वन चउकम्म । - पंचसंग्रह ३५ धाविति मि मछकसाया भयतेजगुरुद्धगणिमिण वण्णपओ । सत्तेताल वाणं............ -गो० कर्मकांस १२४ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मपत्य हाताइ- हास्यादिक, जुयलग-यो युगल, वेय---तीन वेद, आउचार आयुकर्म, तेषुत्तरी-तिहत्तर, अघुवबंधा-अध वबंधी, भंगा-मंग, अणाइसाई-अनादि और सादि, अणंतसंत तराअनन्त और सांत उसर पद से सहित, चउरो - चार भंग । मादार्थ-तीन पारीर, दीन अंगोपांग, मन्ह संस्थान, छह संहनन, पांच जाति, चार गति, दो विहायोगति, चार आनुपूर्वी, तीर्थंकर नामकर्म, श्वासोच्छ्वास नामकर्म, उद्योत, आतप, पराघात, नसादि बीस, दो गोन्न, दो वेदनीय, हास्यादि दो युगल, तीन वेद, चार आयु, ये तिहत्तर प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी हैं। इनके अनादि और सादि अनन्त और सान्त पद से सहित होने से चार भंग होते हैं। विशेषार्प-बन्धयोग्य १२२ प्रकृतियां हैं। उनमें से सैंतालीस प्रकृतियां ध्रुवबंधिनी हैं और शेष रहो तिहत्तर प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी हैं। इन दो गाथाओं में अध्रुवबन्धिनी तिहत्तर प्रकृतियों तथा इनके बनने वालों भंगों के नाम बताये हैं। ___ इन अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में अधिकतर नामकर्म की तथा वेदनीय, आयु, गोव कर्म की सभी उत्तर प्रकृतियों व कुछ मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के नाम हैं । जिनका अपने-अपने मूल कर्म के नाम सहित विवरण इस प्रकार है (१) देखनीय-साता वेदनीय, असाता वेदनीय । (२) मोहनीय हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद । {३) आयु-देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु, नरकायु । (४) नाम-तीन शरीर-औदारिक क्रिय, आहारक शरीर, तीन अंगोपांग--औदारिक, वैक्रिय, आहारक अंगोपांग, छह संस्थान Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक समचतुरस्त्र, न्यग्रोध, परिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुण्डक, छह संहनन-वन्नऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्भनाराच, कीलिका, सेवार्त, पांच जाति - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, लीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, चार गति-देव, मनुष्य, तिर्यच नारक, दो विहायोगति---शुभ विहायोगति. अाभ विहायोगति, चार आनुपूर्वीदेवानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी तिर्यंचानुपूर्वी, नरकानुपूर्वी, तीर्थकर, उच्छवास, उद्योत, आतप, परात्रात, प्रसवोशक (बसदपाक,स्थावरदशक) ।' (५) गोत्र - उच्च गोत्र, नीच गोत्र । उपर अध्रुवबन्धिनी' तिहत्तर प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। +1 तस वापर पज्जत पसेय पिरं सुमं व सुभगं च । सुसराइम जसं तसदसगं यावरणसं तु इमं ।। थावर मुहम अपज्ज साहारण अपिर असुभ दुभगाणि । दुस्सरणाइज्जाजसमिय .. -कर्मग्रन्थ प्रथम भाग, गा० २६, २७. ---प्रस दशक-प्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश कीर्ति । -स्पावरवशक- स्पावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्पिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशःकीर्ति । दिगम्बर साहित्य में अध वधिनी प्रकृतियों के दो मेंद किये है-सप्रतिपक्षी और अप्रतिपक्षी। इनमें ग्रहण की गई प्रकृतियों के नाम इस प्रकार है सेसे तिस्थाहारं परघादचउक्क सब आणि । अप्पतिदक्खा सेसा सप्पडिबक्या है वासट्ठी ।। -गोर कमेकार १२५ -- तीर्थकर, आहारकाद्विक, पराघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, चार आयु ये ग्यारह प्रकृतियां अप्रतिपक्षी हैं । अर्थात् इनकी कोई निरोधिनी प्रकृति नहीं है । फिर भी इनका बंध कुछ विशेष अवस्था में होता है, अत: अन वयंधिनी कहा जाता है और शेष बासठ प्रकृतियों को सप्रतिपक्षी होने के कारण मात्र मधिनी माना है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कम ग्रन्थ इनको अध्रुवबन्धिनी मानने का कारण यह है कि बंध के सामान्य कारणों के रहने पर भी इनका बन्ध नियमित रूप से नहीं होता है अर्थात् कभी बंध होता है और कभी नहीं होता है । इन प्रकृतियों के नियमित रूप से बन्ध न होने का कारण यह है कि इनमें से कुछ प्रकृतियों का बंध तो इसलिए नहीं होता है कि उनकी विरोधिनी प्रकृतियां उनका स्थान ले लेती हैं और कुछ प्रकृतियां अपनी स्वभावगत विशेषता के कारण कभी बंधती हैं और कभी नहीं बंधती हैं। ___ इन सिहरार प्रकृतियों का संवन्धिनों मानने को कारण सहित स्पष्ट करते हैं। शरीर नामकर्म के पाँच भेदों में से तंजस, कामण शरीर का संमारी जीवों के साथ अनादि संबन्ध होने से ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में गिना है । शेष औदारिक, बैंक्रिय और आहारक ये तीन शरीर और इन्हीं नाम वाले अंगोपांग नामकर्म के तीन भेदों में से एक जीव को एक समय में एक शरीर और एक अंगोपांग का ही बंध होता है; दूसरे का नहीं । क्योंकि परस्पर विरोधी होने से एक के बंध के समय दूसरे का बंध नहीं हो सकता है। इमीलिए इनको अध्रुवबंधिनी माना है। समचतुरस्र आदि छह संस्थान भी परम्पर में विरोधी हैं। समचतुरस्र संस्थान कर्म से यदि शरीर का संस्थान—आकार समचतुरस्र रूप है तो उसमें अन्य संस्थान का बंध, उदय नहीं हो सकता है, अतः वे भी अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में गर्भित किये गये हैं। ____ मनुष्य और तिर्यंच प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर ही वज्रऋषभनागच आदि छह संहननों में से एक समय में एक ही का बंध होता है तथा देव व नारक प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर एक भी संहनन का बंध नहीं होता है । अतएव संहनन नामकर्म अध्रुवबन्धी है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक एकेन्द्रियआदि पंचेन्द्रिय जाति पर्यन्त पाँच जातियों में से एक समय में एक ही जाति का, देवगति आदि चार गतियों में से एक ही गति का बंध होने से जाति ब गति नामकर्म के भेदों को अध्रुवबंधिनी कहा है। इसी प्रकार गुभ या अशुभ विहायोगति में से एक समय में एक का ही बन्ध होता है तथा देवानुपूर्वी आदि चार आनुपूर्वियों में से एक समय में एक का ही बन्ध होता है । अतः इनको अध्रुवबन्धिनी प्रकृति कहा है। औदारिक आदि शरीर से लेकर आनुपूर्वी नामकर्म के चार भेदों तक में गभित तेतीस प्रकृतियां अपनी-अपनी प्रतिपक्षिणी-विरोधिनी प्रकृतियों सहित होने के कारण अध्रुवबंधिनी हैं। तीर्थकर नामकर्म का वध सम्यक्त्व सापेक्ष है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि सम्यक्त्व के होने पर इसका बंध हो ही जाये । सम्यक्त्व के होने पर भी किसी के बंध होता है और किसी के नहीं बंधता है। इसीलिये अध्रुवबंधी है। पर्याप्तक-प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर उच्छ्वास नामकर्म का बंध होता है, अपर्याप्तकप्रायोग्य प्रकृतियों के बंध होने पर नहीं बंधता है। तिर्यंचप्रायोग्य प्रकृतियों के बंध होने पर भी उद्योत नामकर्म का बंध किसी को होता है और किसी को नहीं होता है, अतएव उच्छ्वास और उद्योत नामकर्म अध्रुवबंधी हैं। पृथ्वीकायिक प्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होते रहते किसी को . आतप नामकर्म का बंध होता है और किसी को नहीं होता है, अतः अध्रुवबन्धी है । पराघात नामकम पर्याप्तप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर किसी-किसी को बंधता है तथा अपर्याप्तप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर तो किसी को भी नहीं बंधता है, अतः वह अध्रुवबन्धी है। .--. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ बसदशक और स्थावरदशक को कुल बीस प्रकृतियां परस्पर विरोधिनी हैं तथा अपने-अपने प्रायोग्य प्रकृतियों के बंध होने पर बंधती हैं । इसलिये इनको अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में गिना है। उच्च गोत्र और नीच गोत्र परस्पर में विरोधिनी प्रकृतियां हैं। उच्च गोत्र का बंध होते हुए नीच गोत्र का और नीच गोत्र का बंध होते हुए उच्च गोत्र का बंध नहीं होता है। अतएव इन दोनों को अध्रुवबंधो कहा है। साता वेदनीय और असाता वेदनीय भी परस्पर में एक दूसरे की विरोधी हैं, जिसमें इनकी अध्रुवबन्धिनी प्रकृति माना जाता है। गोत्र कर्म और वेदनीय कर्म की प्रकृतियों को अध्रुवबन्धिनी मानने के साथ-साथ उनके बारे में यह विशेषता भी समझना चाहिये कि छठे गुणस्थान तक ही साता और असाता वेदनीय अध्रुवबंधी हैं, लेकिन छठे गुणस्थान में असाता वेदनीय का बंधविच्छेद हो जाने पर आगे सातवें आदि गुणस्थानों में साता वेदनीय कर्म ध्रुवबंधी हो जाता है। इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान तक उच्च गोत्र और नीच गोत्र अध्रुवबन्धी हैं, किंतु दूसरे गुणस्थान में नीच गोत्र का बंधविच्छेद' हो जाने से आगे के गुणस्थानों में उच्च गोत्र ध्रुवबन्धी हो जाता है । मोहनीय कर्म की हासाइ जुयलदुग' हास्यादि दो युमल अर्थात् हास्य-रति तथा शोक-अरति यह चार प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी हैं। क्योंकि ये दोनों घुगल परस्पर विरोधी हैं । जब हास्य-रति युगल का बंध होता है तब शोक अरति युगल का बंध नहीं होता है तथा शोक १ प्रत्येक गुणस्थान में बंधयोग्य और विच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों के लिये दूसरा कर्मग्रन्थ गाथा ४ से १२ देखिये । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अरति युगल के बंध के समय हास्य-रति घुगल का बंध संभव नहीं है। इन चार प्रकृतियों का सान्तर बंध होता है। लेकिन यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि हास्य, रति, अरति, शोक, यह चारों प्रकटियां पठे मृणस्थान नल ही अवबन्धिनी हैं। छठे गणस्थान में शोक और अरति का बन्धविच्छेद हो जाने पर आगे हास्य और रति का निरंतर बंध होता है, जिससे वे ध्रुवबंधिनी हो जाती हैं। स्त्री वेद, पुरुष बेद और नपुंसक वेद में से एक समय में किसी एक वेद का बंध होता है । गुणस्थान की अपेक्षा नपुसक वेद पहले गुणस्थान में, स्त्री वेद दूसरे गुणस्थान तक बंधता है । उसके बाद आगे के गुणस्थानों में पुरुषवेद का बंध होता है। आयुकर्म के देवायु, मनुष्यायु, तिथंचायु और नरकायु इन चार भेदों में से एक भव में एक ही आयु का बंध होता है । इसीलिये इनको अध्रुवबन्धी कहा है। इस प्रकार तिहत्तर प्रकृतियां अध्रुवबन्धिनी समझना चाहिये । जिनमें वेदनीय की दो, मोहनीय की सात, आमुकर्म की चार, नाम कर्म की अट्ठावन और गोलकर्म की दो प्रकृतियां शामिल हैं। बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से ४७ ध्रुववन्धिनी और ७३ अभूवबन्धिनी हैं । ४७७३ का कुल जोड़ १२० होता है। बंध, उचय प्रकृतियों के अनावि-अनन्त आदि भंग ग्रन्थलाघव की दृष्टि से क्रमप्राप्त ध्रुवोदया और अध्रुबोदया प्रकृतियों के नामों को न बताकर कर्मबंध और कर्मोदय की कितनी दशायें होती हैं, इस जिज्ञासा के समाधान के लिये पहले भंगों को बतलाते हैं। जो बंध के भंगों के नाम हैं, वही उदय के भंगों के भी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ पंचम कर्मग्रन्थ नाम होंगे । इसका कारण यह है कि कर्म प्रकृतियों के ध्रुवबंधिनी अधिनी होने के कारण जैसे बंध की दशायें बताना आवश्यक है वैसे ही आगे ध्रुवोदया और अनुवोदया प्रकृतियों की संख्या बतलाने के पश्चात उनकी उदय दशायें भी बतलाना होगी। अतएव मध्यमकारदीपक न्याय के अनुसार बंध और उदय अवस्था में बनने वाले भंगों के यहां नाम बतलाते हैं । अर्थात् यहां दिये जाने वाले भंगों को बंध में भी लगा लेना चाहिये और उदय में भी भंगों के नाम इस प्रकार हैं १ अनादि अनंत २ अनादि सान्त ३ सादि-अनंत, ४ सादि मान्न ।' यह चारों भंग बंध में भी होते हैं और उदय में भी ! न भंगों के लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं- (१) अनावि - अनन्त - जिस बंध या उदय की परम्परा का प्रवाह अनादि काल से निराबाध गति से चला आ रहा है. मध्य में न कभी विच्छिन्न हुआ है और न आगे भो होगा, ऐसे बंध या उदय को अनादि अनंत कहते हैं। ऐसा बन्ध या उदय अभव्य जीवों को होता है । (२) अनादि सान्त - जिस बंध या उदय की परम्परा का प्रवाह अनादि काल से बिना व्यवधान के चला आ रहा है, लेकिन आगे १ सादि-अनन्त भंग विकल्प संभव नहीं होने से पंचसंग्रह में तीन मंग माने होई अनाइअतो अणा-संतोंय साइती य । बंधो अभव्यभब्बो वसंतजी बेसु इह तिविहो || -बंध तीन प्रकार का होता है - अनादि-अनत, अनादि सान्त और सादिसान्त । अभव्यों में चनादि-अनन्त, भव्यों में अनादि- सान्त और उपशान्तमोह गुणस्थान से च्युत हुए जीवों में सादिन्सान्त बंध होता है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ व्युच्छिन्न हो जायेगा, उसे अनादि सान्त कहते हैं । यह भव्य को होता है । (३) साबित- जो आदि सहित होकर अनंत हो। लेकिन यह भंग किसी भी बंध या उदय प्रकृति में घटित नहीं होता है । क्योंकि जो बंध या उदय आदि सहित होगा वह कभी भी अनन्त नहीं हो सकता है । इसीलिये इस विकल्प को ग्राह्य नहीं माना जाता है । (४) सावि सन्त- जो बंध या उदय बीच में रुक कर पुनः प्रारम्भ होता है और सन्तर न हो जाता है, उस बंध या उदय को सादि सान्त कहते हैं । यह उपशांत मोह गुणस्थान से च्युत हुए जीवों में पाया जाता है । गतक इस प्रकार से चार भंगों का स्वरूप बतलाकर अब आगे की गाथा में बन्ध और उदय प्रकृतियों में उक्त भंगों को घटाते हैं । तइअयज्जभंगतिगं । पठमविया धुवजवइसु बुवबंधिसु मिष्ठम्मि तिम्मि भंगा दुहावि अघुया तुरिअभंगा ॥१५॥ शब्दार्थ – पदमविया पहला और दूसरा भंग, धुबउवहसुनवोदयी प्रकृतियों में धुवबंधि- ध्रुवबन्धिनां प्रकृतियों में, तहअवज्म- तीसरे मंग के सिवाय, संगतिगं- तीन भंग होते हैं, मिच्छमि - मिथ्यात्व में, तिम्नि–तीन, मंगा – मंग दुहावि—दोनों प्रकार की अध्वा अध्रुवबंधिनी और अनुषोदय में, तुरिरंगा — चौथा भंग | - - - गावार्थ - ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला और दूसरा भंग होता है । ध्रुव-बन्धिनी प्रकृतियों में तीसरे भंग के अलावा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ तीन भंग तथा मिथ्यात्व में भी तीन भंग होते हैं। दोनों प्रकार की अध्रुव प्रकृतियों में चौथा भंग होता है। विशेषार्थ- पूर्व में अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त और सादि-सान्त इन चार भंगों का सिर्फ नाम निर्देश किया है। यहां उन भंगों में से कौनसा भंग ध्रुवबंधिनी आदि प्रकृतियों में होता है, यह स्पष्ट करते हैं। ये भंग ध्रुव, अध्रुव बंध और उदय प्रकृतियों में होते हैं । ध्रुववन्धिनी और अध्रुवबन्धिनो प्रकृतियों के नामों का निर्देश किया जा चुका है और ध्रुवोदयी और अध्रुवोदयी प्रकृतियों के नाम आगे की गाथा में बतलाये जायेंगे । लेकिन यहां सामान्य से तथा पुनरावृत्ति न होने देने की दृष्टि से बंध प्रकृतियों के साथ उदय प्रकृतियो मे भाभी को होने के बारे में निर्देश कर दिया है । सर्वप्रथम 'पढ़मविया ध्रुवउदइमु पद से बतलाया है कि ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला अनादि-अनन्त और दूसरा अनादि-सान्त यह दो भंग होते हैं। इसका कारण यह है कि अभब्यों के ध्रुवोदयी प्रकृतियों का कभी भी अनुदय नहीं होता है । अतएव पहला अनादि-अनंत भंग माना गया है । 'भव्य को उदय तो अनादि से होता है, किन्तु बारहदें, तेरहवें गुणस्थान में उनका उदय नहीं हो पाता यानी उदयविच्छेद हो जाता है । इसी कारण ध्रुवोदयी प्रकृतियों में दूसरा अनादि-सांत भंग माना है। ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला और दूसरा भंग बतलाया है। लेकिन उनमें से मिथ्यात्व मोहनीय कर्म को अपनी विशेषता होने से 'मिच्छम्मि तिन्नि भंगा'-मिथ्यात्व में तीन भंग होते हैं अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त, मादि-मान्त । ये भंग इस प्रकार होते हैं कि अभब्य को मिथ्यात्व का उदय अनादि-अनंत है। उसके न तो कभी मिथ्यात्व का Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সঙ্গ अभाव हआ है और न होन वाला है। दूसरा अनादि-सान्त भंग अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव की अपेक्षा घटित होता है। क्योंकि पहले-पहले सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर उसके मिथ्यात्व के उदय का अभाव हो जाता है । लेकिन सम्यक्त्व के छूट जाने व पुनः मिथ्यात्व का उदय होने पर और उसके बाद पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के कारण मिथ्यात्व के उदय का अंत होता है। इस प्रकार सम्यक्त्व के छूटने के बाद पुन: मिथ्यात्व का उदय होना सादि है और पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के कारण उस मिथ्यात्व का उदयविच्छेद होना सान्त है। इस स्थिति में चौथा भंग सादिसान्त मिथ्यात्व में घटित होता है। __लेकिन ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में तीसरे भंग को छोड़ शेष तीन भंग होते हैं--"धुवबंधिसु तइअधज भंगतिगं ।" यानी ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में पहला - अनादि-अनन्त, दूसरा अनादि सान्त और चौथा सादि-सान्त यह तीन भंग होते हैं । ये तीन भंग इस प्रकार हैं--अभव्य को ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का बन्ध अनादि का है और किसी समय भी अबन्धक नहीं होता है, अतः पहला अनादि-अनन्त भंग होता है तथा भव्य को भी यद्यपि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का बन्ध अनादि का है, परन्तु गुणस्थान क्रमारोहण के साथ-साथ प्रकृतियों का विच्छेद होता जाता है जिससे दूसरा अनादि सान्त भंग होता है तथा उसी गुणस्थान से आगे के गुणस्थान में आरोहण करते समय अबन्धक होकर अवरोहण के समय पुनः बन्धक हो जाने से सादिबन्ध और पुनः कालान्तर में गुणस्थान क्रमारोहण के समय अबन्धक होगा, इसीलिये उसको चौथा सादि-सान्त भंग होता है। 'दुहावि अघुवा तुरिअभंगा' यानी दोनों प्रकार की अध्रुव प्रकृतियों- अध्रुवबन्धिनी और अध्रुवोदयी प्रकृतियों में चौथा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर्ग त्य सादि सान्त भंग होता है। क्योंकि उनका बन्ध, उदय अध्रुव है, कभी होता है और कभी नहीं होता है। अध्रुवता के कारण ही उनके बंध और उदय की आदि भी है और अन्त भी है । २५ गो० कर्मकांड में प्रकृतिबंध का निरूपण करते हुए बंध के चार प्रकार बतलाये हैं । सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । जिनके लक्षण इस प्रकार हैं सावी अबन्धबन्धे से अिणावगे अणादी हु । 1 अभय्वसिहि घुषो मर्वास अद्ध वो बंधो ॥ १२२ ॥ जिस कर्म के बंध का अभाव होकर पुनः वहीं कर्म बंधे, उसे सादि बंध कहते हैं । श्रणि' पर जिसने पैर नहीं रखा है, उस जीव के उस प्रकृति का अनादि बंध होता है । अभव्य जीवों को ध्रुव बंध और भव्य जीवों को अध्रुव बंध होता है । यहां ध्रुव और अध्रुव शब्द का अर्थ क्रमशः अनंत और सान्त ग्रहण किया है। क्योंकि अभव्य का बंध अनंत और भव्य का बंध सान्त होता है। ध्रुवबन्धिनी ४७ प्रकृतियों में उक्त नारों प्रकार के बंध होते हैं तथा शेष अध्रुवबंधिनी ७३ प्रकृतियों में सादि और अत्र यह दो बंध हैं | कर्मग्रन्थ में ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में तीन भंग और गो० कर्मकांड में उक्त चार भंग बतलाये हैं । लेकिन इनमें मतभिन्नता नहीं है । क्योंकि कर्मग्रन्थ में संयोगी भंगों को लेकर कथन किया गया है और गो० कर्मकांड में असंयोगी प्रत्येक भंग का, जैसे अनादि, धुत्र । इसीलिये 1 १ जिस गुणस्थान तक जिस कर्म का बन्ध होता है, उस गुणस्थान से आगे के गुणस्थान को यहाँ श्रेणि कहा गया है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतक कर्मग्रन्थ में सादि-अनन्त भंग न बन सकने के कारण संयोगी तीन भंग माने हैं और गो० कर्मकांड में प्रत्येक भंग बन सकते से चार । इसी प्रकार कर्म ग्रन्थ में अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में एक सादि-सान्त भंग बताया है और गो० कर्मकांड में सादि और अध्रुव-दो भंग कहे हैं। लेकिन इसमें भी अन्तर नहीं है। क्योंकि सादि और अध्रुव यानि सान्त को मिलाने से संयोगी मादिसान्त भंग बनता है और दोनों को अलग-अलग गिनने से वे दो हो जाते हैं। प्रकृतिबंध के भंगों के बारे में कार्मग्रन्थिकों में एकरूपता है, लेकिन कथनशैली की विविधता से भिन्नता-सी प्रतीत होती है। इस प्रकार से बंध और उदय प्रकृतियों में अनादि-अनन्त आदि भंगों का क्रम जानना चाहिये । यह सामान्य से कथन किया है । विशेष कथन ध्रुवोदयी और अध्रुवोदयी प्रकृतियों का नाम निर्देश करने के अनन्तर यथास्थान किया जा रहा है। अब आगे की गाथा में ध्रुवोदय प्रकृतियों के नामों को। बतलाते हैं। भ्रवोदय प्रकृतियाँ निमिण थिर अथिर अगुरुय सुहासुहं तेय कम्म चवन्ना। नाणंतराय देसण मिच्छ धुव उदय सगोसा ॥॥ शब्दार्थ - निमिण-निर्माण नामकर्म, थिर स्थिर नामकर्म, अथिर --मस्थिर नामकर्म; अगुरुय अगुरुलधु नामकर्म, सुह--शुभ नामकर्म, असुहं-~-अशुभ नामकर्म, तेय - तेजस शरीर, कम्म - फार्मण शरीर, च उवाना-वर्णचतुष्क, नाणंतराम-ज्ञानावरण अंतराय कर्म के मेद, दसण · चार दर्गनावरण, मिस्छ – मिथ्यात्व मोहनीय, धुवउदय-5 नोदनी, सगबीसा सत्ताईस । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ गायार्प-निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तंजस कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय, चार दर्शनावरण और मिथ्यात्व मोहनीय, ये ध्रुवोदयी सत्ताईस प्रकृतियां हैं।' विशेषार्थ- इस गाथा में ध्रुबोदयी मत्ताईस प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं । इनको ध्रुवोदयी कहने का कारण यह है कि अपने उदयविच्छेद काल तक इनका उदय बना रहता है। शानावरण आदि आठ कर्मों की उदययोग्य १२२ प्रकृतियां हैं - झानावरण ५, दर्शनावरण, वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नाम ६७, गोत्र २, अन्तराय ५ । इस प्रकार मे ५++२+२+४+६+२ +५=१२२ प्रकृतियां होती हैं । इनमें से २७ प्रकृतियां ध्रुवोदयी हैं। जिनका विवरण क्रमशः इस प्रकार है ---- (१) सामावरण-मति, श्रुत, अवधि, मनपर्याय, केवल शानावरण । (२) वनावरण-चक्ष, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शनाबरण । (३) मोहनीय-मिथ्यात्व | १ (क) निम्माणधिरापिरतेयकम्मरणार अगुरुमहममुहं । नाणंतरायदसगं सणचन मिच्छ निच्चदया । -पंखसंग्रह ३।१६ (ख) गो० कर्मकांड में स्त्रोदयश्बन्धिनी प्रकृतियों को गिनने के संदर्भ में प्र वोदयी प्रकुतियों का निर्देम म प्रकार किया है .... मिसळ सहमस्स घादीयो ।। नेजगं वणचॐ थिन्मृगजुगलगुरुणिमिण धुवउदया ।। - गो० कर्मकांड गा० ४०२, ४०३ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक (५) नामकर्म -- निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श । १५) अंतराय-दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य अन्तराय | इनका विवेचन गाथागत क्रम के अनुसार करते हैं। नामकर्म की निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्मण तथा वर्णचतुष्क यह बारह प्रतियां ध्रुवोदका, क्योंकि पाशे पति के जीवों में इनका उदय सर्वदा रहता है । जब तक शरीर है तब तक इनका उदय अवश्य बना रहेगा। तेरहवें मुणस्थान के अंत में इन वारह प्रकृतियों का उदयविच्छेद होता है किन्तु वहाँ तक सभी जीवों के इन बारह प्रकृतियों का उदय बना रहता है। ___ यद्यपि स्थिर, अस्थिर तथा शुभ, अशुभ ये चार प्रकृतियाँ परस्पर विरोधिनी कहलाती हैं । लेकिन इनका विरोधित्व बंध की अपेक्षा है, क्योंकि स्थिर नामकर्म के समय अस्थिर नामकर्म का और शुभ नाम के समय अशुभ नामकर्म का बंध नहीं हो सकता है, किन्तु उदयापेक्षा इनमें विरोध नहीं है । स्थिर और अस्थिर का उदय एक साथ हो सकता है। क्योंकि स्थिर नामकर्म के उदय से हाड़, दांत आदि स्थिर होते हैं और अस्थिर नामकर्म के उदय से रुधिर आदि अस्थिर होते हैं, इसी प्रकार शुभ नामकर्म के उदय से मस्तक आदि शुभ अंग होते हैं और अशुभ नामकर्म के उदय से पैर आदि अशुभ अंग । अतएव ये चारों प्रकृतियां बंध की अपेक्षा बिरोधिनी होने पर भी उदयापेक्षा अविरोधिनी मानी गई हैं। पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय और चार दर्शनावरण इन चौदह प्रकृतियों का उदय अपने क्षय होने वाले गुणस्थान तक बना रहता है । इनका क्षत्र वारहवे गुणस्थान के चरम समय में होता है । अतएव इन्हें १ नाणंतराप दसण चल ओ सजोगि वायाला । – द्वितीय कर्मग्रन्थ गा० २० Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ ध्रुवोदय कहा है। मोहनीय कर्म को मिथ्यात्व प्रकृति का उदयविच्छेद पहले मिथ्यात्व गुणस्थान के अंत में होता है। अतः पहले मिथ्यात्व गुणस्थान तक मिथ्यात्व का उदय ध्रुव होता है। इसीलिये यह ध्रुबोदय प्रकृति है। इस प्रकार गाथा क्रमानुसार नामकर्म की १२, ज्ञानावरण को ५. अन्तराय की ५, दर्शनावरण की ४ और मोहनीय की १, कुल सत्ताईस प्रकृतियां ध्रुवोदय हैं। अब आगे की गाथा में अध्रुवोदय प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं । अध्वोच्य प्रतियां थिर-सुप्रियर विण अधुवबंधी मिच्छ बिणु मोहधुवबंधो । निद्दोवघाय मीसं सम्म पणनवद अधुवुक्या ॥७॥ शब्दार्थ-घिर-मुभियर-स्थिर, शुभ तथा उनसे इतर नामकाम, षिण–विना, अधुबबंधी-अध वबंधी प्रकृति, मिकछ विणुमिथ्यात्व के अलावा, मोहधृवबंधो- मोहनीन फर्म की शेष ध्र वबंधिनी प्रकृतियां, निदा पात्र निद्रायें. उपघाय उपप्रात, मोसं - मिश्र मोहनीय, सम्म– सम्यक्त्व मोहनीय, पणनषद---पंचानवे, मधुवृदयाअभ्र वोदया। ____ गाया—स्थिर, शुभ और उनसे इतर अस्थिर और अशुभ के सिवाय शेष अध्रुवबन्धिनी (६६) प्रकृतियां, मिथ्यात्व के बिना मोहनीय कर्म की ध्रुवबन्धिनी १८ प्रकृतियां, पांच निद्रा, उपघात, मिश्र व सम्यक्त्व मोहनीय कुल ये ६५ प्रकृतियां अध्रुवोदया हैं। विशेषार्थ-पूर्व गाथा में २७ ध्रुवोदया प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं अतः उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से उक्त २७ प्रकृतियों को कम Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक कर देने पर शेष ६५ प्रकृतियां अध्रुवोदया हैं। जिनका संकेत इस गाथा में किया गया है । इन पंचानवें प्रकृतियों को अध्रुवोदया मानने का सामान्य कारण तो यह है कि बहुत सी प्रकृतियां परस्पर विरोधी हैं और तीर्थकर आदि कितनीक प्रकृतियों का सदैव उदय होता नहीं है तथा जिस गुणस्थान तक जितनी प्रकृतियों का गुणप्रत्यय से विच्छेद नहीं बतलाया है, वहां तक उन प्रकृतियों के रहने पर भी उसी गुणस्थान में वह प्रकृति द्रव्य आदि को अपेक्षा उदय में आये भी और न भी आये, इसीलिये उनको अनुवोदय, प्रकृतियों में माना है । इनका विशेष स्पष्टीकरण नीचें किया जा रहा है। पूर्व में अध्रुवबन्धिनी तिहत्तर प्रकृतियों के नाम बतलाये जा चुके हैं। उनमें से स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ इन चार प्रकृतियों के सिवाय शेष ६६ प्रकृतियां अध्रुवोदया हैं। इन उनहत्तर प्रकृतियों में से तीर्थकर, उच्छ्वास, उद्योत, आतप और पराघात इन पांच प्रकृतियों का उदय किसी जीव को होता है और किसी जीव को नहीं होता है तथा शेष ६४ प्रकृतियां जैसे बन्धावस्था में विरोधिनी हैं, वैसे ही उदय दशा में विरोधनी हैं। इसीलिये इनको अध्रुवोदया कहा है। ____मोहनीय कर्म की ध्रुवबंधिनी उन्नीस प्रकृतियों में से मिथ्यात्व को छोड़कर शेष सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा ये अठारह ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां अध्रुवोदया हैं | क्योंकि ये उदय में परस्पर विरोधी हैं । क्रोध का उदय होने पर मान आदि अन्य कषायों का उदय नहीं होता है, इसी प्रकार मान आदि के उदय के समय क्रोध आदि के बारे में भी जानना चाहिये । इसलिये बंध की अपेक्षा विरोधिनी नहीं होने पर भी उदय की अपेक्षा क्रोधादि कषायें विरोधिनी हैं। इसी विरोधरूपता के कारण कषायों को अध्रुवोदया कहा है। भव और जुगुप्सा का उदय भी कादाचित्क है । किसी के किसी समय इनका उदय होता है और Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ . किसी के किसी समय नहीं भी होता है । अतएव इन दोनों को अध्रुबोदया माना है। दर्शनावरण कर्म के भेद निद्रा आदि पांच निद्रायें अध्रवोदया इसलिये मानी जाती हैं कि इनका उदय कभी होता है और कभी नहीं होता है तथा ये निद्रायें परस्पर में विरोधी हैं। यानी एक समय में एक ही निद्रा का उदय होता है। उपघात नामकर्म का उदय किसी जीव को कभी-कभी होता है । अतः वह अध्रुवोदयी है 1 मिश्र प्रकृति को अध्रुवोदयी इसलिये माना जाता है कि इसकी उदयविरोधिनी सम्यक्त्व और मिथ्यात्व मोहनीय है, जिनके काल में इसका उदय नहीं होता है । सम्यक्त्व मोहनीय का उदय वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यग्दृष्टि को होता है और वेदक सम्यक्त्व का उदय काल जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट ६६ सागर अधिक चार पूर्व कोटि है । अतः यह अध्रुवोदया है । इस प्रकार है। प्रकृतियां अध्रुवोदया हैं । इनके उदय का विच्छेद होने पर भी पुनः उदय हो सकता है । मिथ्यात्व मोहनीय को अध्रुवोदया प्रकृति न मानने का कारण यह है कि मिथ्यात्व का उदय पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में सतत रहता है, एक क्षण के लिये भी नहीं रुकता है। जबकि अध्रुवोदया प्रकृतियों का उदयविच्छेद न होने तक दव्य, क्षेत्र, काल आदि के निमित्त से कभी उदय होता है और कभी नहीं होता है । इसीलिये उनकी अध्रुवोदया संज्ञा है। बंध एवं सवय प्रकृतियों में अनावि-अनन्त आदि मंगों का स्पष्टीकरण बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से ४७ ध्रुवबंधिनी और ७३ अध्रुवबंधिनी तथा उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से २७ ध्रुवोदया तथा ५५ अधुवोदया हैं। इस प्रकार से बंध एवं उदय प्रकृतियों के ध्रुव, अध्रुव दो Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 쿠쿠 शतक रूप होने से प्रश्न होता है कि ध्रुव प्रकृतियों का सदैव अनादि से अनन्त काल तक बंध, उदय होता रहेगा और अध्रुव प्रकृतियों का सादिसान्त बंध, उदय होता है। इसलिये अनादि अनंत और सादि सान्त यह दो अंग मानना चाहिये । इसका समाधान यह है कि संसारी जीव कर्मों का कर्ता और भोक्ता है । अनादि से अनन्तकाल तक यह क्रम चलता है । लेकिन जो जीव भव्य हैं- मुक्तिप्राप्ति की योग्यता वाले हैं तथा अभव्य -मुक्तिप्राप्ति की योग्यता वाले नहीं हैं, उनकी अपेक्षा से अनादि अनंत आदि चार भंग होते है। जिनका बंध और उदय प्रकृतियों में स्पष्टीकरण किया जा रहा है । कर्म प्रकृतियों में होने वाले चार भंगों के नाम पूर्व में बतलाये जा चुके हैं। उनमें से ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में तीसरे भंग के सिवाय शेष अनादि अनंत अनादि सान्त, सादि-सांत यह तीन भंग होते हैं-जो इस प्रकार हैं— पहला अनादि अनंत भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से होता है । क्योंकि अभव्य जीवों के ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का बंध अनादि अनंत होता है । अनादि- सान्त दूसरा भंग भव्य जीवों की अपेक्षा घटित होता है। क्योंकि पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय और चार दर्शनावरण इन चौदह प्रकृतियों के बंध की अनादि सन्तान जब दसवें गुणस्थान में विच्छिन्न हो जाती है तब अनादि सान्त भंग होता है तथा ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में उक्त चौदह प्रकृतियों का बंधन करके मरण हो जाने अथवा ग्यारहवें गुणस्थान का समय पूरा हो जाने के कारण कोई जीव ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर जब पुनः उक्त चौदह प्रकृतियों का बंध करता है और दसवें गुणस्थान में पुनः उनका बैधविच्छेद करता है तब सादि सान्त नामक चतुर्थ भंग घटित होता है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचय कर्म ग्रन्थ संचलन कषाय के बंध का निरोध जब कोई जीव नौवें गुणस्थान में करता है तब अनादि-सान्त भंग घनि होता है और जब वही जीव नौवें गुणस्थान से च्युत होकर पुनः संज्वलन कषाय का बंध करता है तथा पुनः नौवें गुणस्थान को प्राप्त करने पर उसका निरोध करता है तब सादि-सान्त चौथा भंग होता है। निद्रा, प्रचला, तेजम, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, भय और जुगुप्सा ये तेरह प्रकृतियां आठवें गुणस्थान में विच्छिन्न हो जाती हैं तब इनका अनादि-सान्त भंग होता है और आठवें गूणस्थान से पतन होने के बाद जब उनका बंध होता है तो वह सादि बंध है तथा पुनः आठचे गुणस्थान में पहुँचने पर जब उनका बंधविच्छेद हो जाता है तो वह बंध सान्त कहलाता है । इस प्रकार उनमें सादि सान्त यह चौथा भंग घटित होता है । प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बंध पांचवें गुणस्थान तक अनादि है किन्तु छठे गुणस्थान में उसका अभाव हो जाने से मान्त होता है। अतः अनादि-सान्त भंग होता है । छठे गुणस्थान से गिरने पर जब पुनः बंध होने लगता है और छठे गुणस्थान के प्राप्त करने पर उसका अभाव हो जाता है तब चौथा सादि-सान्त भंग घटित होता है । अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बंध चौथे गुणस्थान तक __ अनादि है, लेकिन पांचवें गुणस्थान में उसका अन्त हो जाता है अतः दूसरा अनादि-सान्त भंग वनता है तथा पांचवें गुणस्थान से गिरने पर पुनः बन्ध और जब पांचवें गणस्थान के प्राप्त होने पर अबंध करने लगता है नव सादि-सान्त चौथा भंग होता है । मिथ्यात्व, स्त्यानद्धित्रिक, अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क का अनादि बंधक मिथ्यादृष्टि जब सम्यक्त्व को प्राप्ति होने पर उनका बंध नहीं करता है तब दूसरा अनादि-सान्त भंग और पुनः मिथ्यात्व में गिर Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खतक कर उक्त प्रकृतियों का बंध करने और पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर बंध नहीं करने पर चौथा सादि-सान्त भंग होता है। इस प्रकार ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में तीसरे सादि-अनंत भंग के सिवाय शेष अनादिअनंत, अनादि सान्त और सादि-सान्त ये तीन भंग होते हैं। ___ अव ध्रुवोदया प्रकृतियों में भंगों को घटित करते हैं। ध्रुवोदया प्रकृतियों में पहला अनादि-अनंत और दूसरा अनादि-सान्त यह दो भंग होते हैं। ध्रुवोदया २७ प्रकृतियों के नाम यथास्थान बतलाये जा चुके हैं। उनमें से मिथ्यात्व प्रकृति में विशेषता है। इसलिए उसके बों के बारे में अलग में काट लिये जाने से शेष छब्बीस प्रकृतियों के बारे में स्पष्टीकरण करते हैं। निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय और चार दर्शनावरण इन छब्बीस ध्रुवोदयो प्रकृतियों में पहला अनादि-अनन्त भंग अभब्ध जीवों की अपेक्षा घटित होता है । क्योंकि अभव्य जीवों के ध्रुवोदया। प्रकृतियों के उदय का न तो आदि है और न अंत ही होता है। दूसरा अनादि-सान्त भंग भव्य जीवों की उपेक्षा घटित होता हैं। . पांच ज्ञानावरण, पांत्र अंतराय और चार दर्शनावरण इन चौदह । प्रकृतियों का उदय बारह गुणस्थान तक तो जीवों को अनादि काल से है, लेकिन बारहवें गुणस्थान के अंत में जब इनका विच्छेद हो जाता है तब वह उदय अनादि-सान्त कहा जाता है। इसी प्रकार निर्माण, स्थिर, अस्थिर आदि शेष बची हुई बारह प्रकृतियों का अनादि उदय तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान के अंत में विच्छिन्न हो जाता है तब उनका उदय अनादि-सांत कहलाता है। ___ इस प्रकार मिथ्यात्व के सिवाय शेष ध्रुवोदया प्रकृतियों में केवल दो ही भंग घटित होते हैं अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि-अनन्त Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्थ और भव्य जीवों को अपेक्षा अनादि-सान्त । शेष दो भंग-सादि-अनंन और सादि-सान्त घटित नहीं होते हैं। क्योंकि किसो प्रकृति के उदय का बिच्छेद होने के पश्चात पुनः उदय होने लगता हो तो वह उदय सादि कहलाता है । लेकिन उक्त ध्रुवोदयी प्रकृतियों का उदयविच्छेद बारहवें, तेरहवें गुणस्थान के अंत में हो जाने पर पुनः उनका उदय नहीं होता है और उन गुणस्थानों के प्राप्त हो जाने के बाद जीव नीचे के गुणस्थानों में नहीं आकर मुक्ति को ही प्राप्त करता है। अतः उक्त प्रकृतियों का सादि उदय नहीं होता है । इसलिए शेष दो भंग भी नहीं होते हैं। छब्बीस ध्रुवोदयी प्रकृतियों में आदि के दो भंग होते हैं, लेकिन मिथ्यात्व में अनादि-अनन्त, अनादि सान्त और सादि-सान्त यह तीन भंग होते हैं । अनादि-अनंत भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से, अनादिसान्त भंग अनादि मिथ्याइष्टि भव्य जीवों की अपेक्षा से घटित होता है । अनादि अनंत भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से मानने का कारण यह है कि उनके मिथ्यात्व के उदय का अभाव न तो कभी हुआ है और न होगा । भव्य जीवों की अपेक्षा अनादि-सांत भंग इसलिए माना जाता है कि पहले पहल सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने पर उनके अनादिकालीन मिथ्यात्व का अभाव हो जाता है । चौथा सादि-सान्त भंग भी उस भव्य जीव की अपेक्षा घटित होता है जो सम्यक्त्व के छुट जाने के पश्चात पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त करके भी पुनः सम्यक्त्व को पाकर उसका अभाव कर देता है । इस प्रकार ध्रुवोदया मिथ्यात्व प्रकृति में तीन भंग घटित होते हैं। अध्रुवबन्धिनी और अध्रुवोदयी प्रकृतियों में केवल सादि-सान्त भंग ही घटित होता है । क्योंकि उनका बंध और उदय अध्रुव है, कभी होता है और कभी नहीं होता है । इस प्रकार बंध और उदय प्रकृतियों में भंगों का क्रम समझना चाहिए । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक __बंध एवं उपक प्रजातियों के 35 छ, अब मेघों में गो को घटित करने का सारांश यह है कि मिथ्यात्व को छोड़कर शेष उदय प्रकृतियों में पहले दो-अनादि-अनंत, अनादि-सान्त भंग तथा मिथ्यात्व में तीन-अनादि-अनंत, अनादि-सान्त तथा मादि-सान्त भंग होते है। ध्रुबबन्धिनी प्रकृतियों में अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादिसान्त यह तीन भंग घटित होते हैं। अध्रुव बंध व उदय प्रकृतियों में सिर्फ सादि-सान्तु यह एक भंग होता है। यह भंग भव्य और अभव्य श्रीवों की पारिणामिक स्थिति के कारण बनते हैं। ग्रन्थकार ने सूत्र रुप में प्रकृतियों में घटित होने वाले मंगों का संकेत गाथा ५ में कर ही दिया है कि पदमबिया धूवजवसु धवजंधिसु तइअवज भंगलिगं । मिच्छम्मि तिग्नि भंगा दहावि अधुवा तुरिस भंगा ।। इस प्रकार से ध्रुव-अधूत्र बंध, उदय प्रकृतियों के नाम और उनमें घटित होने वाले भंगों की संख्या का कारण सहित स्पष्टीकरण करने के पश्चात अब दो गाथाओं में ध्र ब, अध्रुव सत्ता प्रकृतियों को गिनाते हैं। ध्रुव-अनुव सत्ता प्रकृतियां तमबन्नवीस सगतेय-कम्म घुयबंधि सेस वेतिगं । आमितिम वेणियं बुजुयल सगउरल सासचऊ ।।८।। खगइतिरिम नीयं धुवसंता सम्म मोस मणुयदुगं । विविककार अिणाऊ हारसगुच्चा अधुवसंता ॥६। शम्नार्थ-तसवामपीस- त्रस आदि बीस व वर्ण आदि बीस प्रकृतियां, सगसेयफम्म तजभ कामंण सप्तक, वधि-ध्र वबंधिनी, सेस-बाकी को, यतिगं–वेदत्रिक, आगिइतिग- आकृतित्रिक-छह Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कमग्रम संस्थान, छह संहनन और पांच जाति, वेणियं - वेदनीय, बुजुयलदो युगल, सगउरल-औदारिक-सप्तक, सासचक प्रवासचनुष्क । खगईतिरिग खतिहिक और तियंचद्विक, नीयं-नीच गोत्र, धृवसंता--भ्र वसत्ता सम्म - सम्यक्त्व मोहनीय, मोस – मिश्र मोहनीय, मणुयबुगं मनुष्य द्विक, विधिक्कार - वकिय एकादश. जिण – जिन नामकर्म, आऊ-चार आयु, हारसग-आहारकसप्तक, उचा उच्च गोत्र, अध्व संता-अभ्र व सत्ता। गाथायं-सवीशक और वर्णवीशक, तैजस कार्मण सप्तक, बाकी की ध्रुवन्धिनी प्रकृतियां, तीन वेद, आवृतित्रिक, वेदनीय, दो युगल, औदारिक सप्तक, उच्छ्वास चतुष्क तथा बिहायोगति द्विक, तिर्यंचद्विक, नीच गोत्र, ये सब ध्रुवसत्ता प्रकृतियां हैं । सम्यक्त्व, मिश्र, मनुष्यद्विक, वैक्रियएकादश, तीर्थकर नामकर्म, चार आयु, आहारक-सप्तक और उच्च गोल ये अध्रुव सत्ता प्रकृतियां जानना चाहिये । विशेषार्थ-बंध एवं उदय प्रकृतियों का ध्रुव व अध्रुव के भेद से वर्गीकरण करने के पश्चात् इन दोनों गाथाओं में ध्रुव सत्ता और अध्रुव सत्ता बाली प्रकृतियों की संख्या बतलाई है । कुछ प्रकृतियों के तो नाम बतलाये हैं और कुछ प्रकृतियों का संज्ञाओं द्वारा निर्देश किया है। बंध-योग्य प्रकृतियां १२० हैं और उदयोग्य १२२ प्रकृतियां हैं, लेकिन सत्ता प्रकृतियों की संख्या १५८ है ।' जिनके नाम प्रथम कर्म १. बध की अपेक्षा उदय, सत्ता प्रकृतियों के अन्तर का कारण परिशिष्ट में देखिये। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ 作 अन्थ में स्पष्ट किये गये है और संख्या इस प्रकार है— ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण, वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नामकर्म १०३, गोव २, अंतराय ५ । कुल मिलाकर (५+२+२८ + ४ + १०३ : २ + ५) १५८ भेद हो जाते हैं । इन १५८ प्रकृतियों का ध्रुव और अध्रुब सत्ता रूप में कथन करने के लिये निम्नलिखित संज्ञाओं का उपयोग किया गया है। संज्ञानों और उनमें गर्भित प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं सबक - लस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय यशः कीर्ति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति । " वर्णधोशक- पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध, आठ स्पर्श | संजस कार्मण सप्तक- तेजस शरीर, कार्मण शरीर, तैजसतैजस बंधन, तैजसकार्मण बंधन, कार्मण-कार्मण बन्धन, तेजस संघातन, कार्मण संघातन । आकृतित्रिक - छह संस्थान - समचतुरस्त्र न्यग्रोधपरिमंडल, सादि बुब्ज, वामन, हैंड | छह संहनन - वज्रऋषभनाराच ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच कीलिका, सेवार्त । पांच जाति - ( जाति नामकर्म के भेद ) एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय । युगल ट्रिक - हास्य और रति का युगल तथा शोक व अरति का युगल । औदारिकसप्तक-- औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, औदा : स से लेकर यशः कीर्ति तक की प्रकृतियां सदशक और स्थावर से अश: कीर्ति तक की प्रकृतियां स्थापदेशक कहलाती हैं । चतुष्क में गमित नामों को प्रथम कर्मग्रन्थ में देखिये । २. वर्ण , Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 पंचम कर्मग्रन्थ रिक संघात, औदारिक बंधन, ओदारिक- तेजस बंधन, औदारिककार्मण बंधन, औदारिक- तेजस - कार्मण बंधन । उच्छ्वास चतुष्क— उच्छ्वास, आतप, उद्योत, पराधात । खगतिद्विक- शुभ विहायोगति, अशुभ विहायोगति । तिचह्निक-तिर्यंचगति तिर्यचानुपूर्वी । मनुष्यश्चिक– मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी । वैक्रियएकादश – देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, क्रिय शरीर, क्रिय अंगोपांग, वैक्रिय संघात, वैक्रियवैक्रिय बंधन, वैक्रियतेजस बंधन, वैक्रियकार्मण बंधन, वैक्रिय तेजस - कार्मण बंधन । आहार कसप्तक---आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, आहारकसंघातन, आहारक आहारक बंधन, आहारक- तेजस बंधन, आहारककार्मण बंधन, आहारक - तंजस - कार्मण बंधन | इन संज्ञाओं में गृहीत प्रकृतियों तथा कुछ प्रकृतियों के नाम निर्देश पूर्वक ध्रुव अध्रुव सत्ता वाली प्रकृतियों की अलग अलग संख्या वतलाई है । तस्वलवीस से लेकर नीयं ध्रुवसंता पद तक भुन सत्ता वाली प्रकृतियों के नाम हैं तथा सम्ममीस मणुयदुगं से लेकर हारसगुच्चा पद तक अध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों के नाम हैं । कुल मिलाकर ये १५८ प्रकृतियां हो जाती हैं । बंध और उदय में ध्रुवबंधिनी और ध्रुवोदया प्रकृतियों की संख्या अनुबंधिनी और अनुवोदया की अपेक्षा कम है, लेकिन इसके विपरीत सत्ता में ध्रुवसत्ता प्रकृतियों की संख्या अधिक और अध्रुवसना प्रकृतियों की संख्या कम है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि बंध के समय ही किसी प्रकृति का उदय हो जाये और किसी प्रकृति के उदय के समय ही उस प्रकृति का बंध भी हो जाये यह आवश्यक नहीं Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक है। किन्तु जो बंधदशा में है और जिसका उदय हो रहा है, उसकी सत्ता अवश्य होती है। इसी कारण भुवादा वाली दर्शकों की संख्या अधिक और अध्रुब सत्ता वाली प्रकृतियों की संख्या कम है। बसादि बीस से लेकर मीच गोत्र पर्यन्त की प्रकृतियों को ध्रुवसत्ता वाली मानने के कारण को स्पष्ट करते हैं। वसादि बीस, वर्णादि बीस और तंजस-कार्मण सप्तक की सत्ता सभी संसारी जीवों के रहती है । समस्त ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां ध्रुव सत्ता वाली होती हैं। क्योंकि जिनका बंध सर्वदा हो रहा है उनकी अवश्य ही ध्रुव सत्ता होगी। लेकिन वर्णवीशक में वर्णचतुष्क और तैजसकार्मण सप्तक में तैजस, कार्मण शरीर का अलग से निर्देश कर दिये जाने से संतालीस ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों में से इन छह प्रकृतियों को कम करके शेष ४१ प्रकृतियों का संकेत किया है। तीनों वेदों का बंध और उदय अध्रुव बतलाया है किन्तु उनकी सत्ता ध्रुव है । क्योंकि वेदों का बंध क्रम-क्रम से होता है लेकिन उनके एक साथ रहने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। परस्पर दलों की संक्रांति होने की अपेक्षा वेदनीयद्विक को ध्रुवसत्ता माना है। हास्य-रति और शोकअरति इन दोनों युगलों की सत्ता नौवें गुणस्थान तक सदैव रहती है अतः इनकी सत्ता को ध्रुव माना है। औदारिक सप्तक की सना भी सदा रहती है। क्योंकि मनुष्य व तिर्यंच गति में इनका उदय रहता है तथा देव ब नरक गति में इनका बंध होता है। इसीलिये इनको ध्रुवसत्ता माना है। इसी प्रकार उच्छ्वास चतुष्क, विहायोगति युगल, तिर्यंचद्विक, नीच गोत्र की सत्ता भी सदैव रहती है । सम्यक्त्व की प्राप्ति होने से पहले सभी जीवों में ये प्रकृतियां सदा रहती हैं । इसीलिए इनको ध्रुवसत्ता कहा जाता है । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंषम कर्मग्रन्य ध्रुवसत्ता प्रकृतियों के ध्रुवसत्ता वाली मानने के कारण को स्पष्ट करने के बाद अब शेष प्रकृतियों को अध्रुवसत्ता वाली मानने के कारण को स्पष्ट करते हैं। सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय की सत्ता अभव्यों के तो होती ही नहीं है किन्तु भव्यों में भी बहुतों को नहीं होती है। तेजस्काय और वायुकाय के जीव जब मनुष्य द्विक की उद्वलना कर देते हैं तब मनुष्यद्विक की सत्ता नहीं होती है, इसीलिये मनुष्यद्विक को अध्रुवसत्ता माना है । बैंक्रिय एकादश प्रकृतियों की सत्ता अनादि निगोदिया जीव के नहीं होती है तथा जिसने त्रस पर्याय प्राप्त नहीं की दो, उसके बंध का अभाब होने से अथवा बंध करके स्थावर में जाने पर उनकी स्थिति का क्षय होने से तथा एकेन्द्रिय में जाकर उनकी उद्बलना करने वाले जीव के भी सत्ता नहीं रहने से वैक्रिय' एकादश की सत्ता अध्रुव मानी है। सम्यक्त्व के होते हुए भी तीर्थकर नामकर्म किसी को होता है। और किसी को नहीं होता है तथा स्थावरों के देवायु और नरकायु का, अहमिन्द्रों (नव वेयक और पांच अनुत्तर के देव) के तिर्थचायु का, तेजस्काय व वायुकाय और सप्तम नरक के नारकों के मनुष्यायु का सर्वथा बंध न होने के कारण उनकी सत्ता नहीं रहती है। इसीलिए इन प्रकृतियों की गणना अध्रुव सत्ता वाली प्रकृतियों में की जाती है । ____ आहारकसप्तक की सत्ता संयम के होने पर भी किसी के होती है और किसी के नहीं होती है। सभी संयमधारियों को आहारक शरीर होना ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं है। उच्च गोत्र भी अनादि निगोदिया जीवों के नहीं होता है, उद्वलन हो जाने पर तेजस्काय और वायुकाय के जीवों के उच्च गोत्र नहीं होता है । इसीलिये अट्ठाईस प्रकृतियां अध्रुवसत्ता हैं। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत इस प्रकार से सत्ता प्रकृतियों के १५८ भेदों में से कितनी और कौन कौन सी प्रकृतियां ध्रुवसत्ता और अध्रुवसत्ता हैं, इसका कथन करने के बाद अब आगे की तीन गाथाओं में कुछ प्रकृतियों की गुणस्थानों की अपेक्षा ध्रुवसत्ता और अध्रुवसत्ता का निरूपण करते हैं। पढमतिगुणेसु मिच्छं नियमा अजयाइअट्टगे भज्ज । सासाणे खलु सम्म संतं मिच्छाइदसगे वा ॥१०॥ साः गगीशे धर्म र सिमासु भयणाए। आइयुगे अण नियमा भइया मीसाइनवमम्मि ॥११॥ आहारसतगं वा सञ्चगुणे वितिगुणे विणा तित्यं । नोभयसते मिच्छो अंतमुहत्तं भवे तित्थे ॥१२॥ शब्दार्थ- पढमतिगुणेसु- पहले तीन गुणस्थानों में, मिच्छेमिथ्यात्व, नियमा–निश्चित रूप से. अजयाइ.-अविरति आदि, अठगे---आठ गुणस्थानों में, भों-भजना से (विकल्प से, सासाणे-सासादन गुणस्थान में, स्व-निश्चय से, सम्मं सम्यक्त्व मोदनीय, संतं . विद्यमान होती है, मिच्छाइवसगे-मिथ्यात्व आदि दस गुणस्थानों में, वा–विकल्प से । सासणमोसेसु–मासादन और मिश्र गुणस्थान में, धुवंनित्य, मीसं-~-मित्र मोहनीय, मिच्छाइनवसु-मिथ्यात्व आदि नो गणरथानों में, भयणाए--विकल्प से, आइदुगे-आदि के दो गुणस्थानों में, अग-अनंनानुबंधी. नियमा–निश्चय से, मया-चिवल्प से, मीसाइनवगम्मि -मिश्रादि नौ गुणस्थानों में । आहारसतगं—आहारक मतक, सम्वगुणे--सभी गुणस्थानों में, वा--विकल्प में, वितिगुणे- दूसरे तीसरे गुणस्थान में, विणा - बिना, तिस्थं - तीर्थकर नामकर्म, न-नहीं होता है, उमयसते Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम दोनों की सत्ता, मिठो-मिथ्यात्वी, अंतमुतं - अन्तर्मुहू पर्यन्त भवे― होती है, तिथे तीर्थंकर नामकर्म के होने पर भी । - गाथा - पहले तीन गुणस्थानों में मिध्यात्व मोहनीय की सत्ता अवश्य होती है और अविरति आदि आठ गुणस्थानों में भजनीय है, सासादन गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता निश्चित रूप से होती है। और मिथ्यात्व आदि दस गुणस्थानों में विकल्प से होती है । सासादन और मिश्र गुणस्थान में मिश्र प्रकृति की सत्ता निश्चित रूप से रहती है। मिध्यात्व आदि नौ गुणस्थानों में बिकल्प से है । पहले दो गुणस्थानों में अनन्तानुबंधी कषाय की सत्ता अवश्य होती है और मिश्र आदि नौ गुणस्थानों में भजनीय है । आहारक सप्तक सभी गुणस्थानों में विकल्प से है । दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय शेष गुणस्थानों में तीर्थंकर नामकर्म विकल्प से होता है और दोनों (आहारक सप्तक व तीर्थंकर नामकर्म) की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नहीं आता है। यदि तीर्थंकर नामकर्म की सत्तावाला कोई जीव मिथ्यात्व में आता है तो सिर्फ अन्तमुहूर्त तक के लिये आता है । Y विशेषार्थ — इन तीन गाथाओं द्वारा गुणस्थानों में कुछ प्रकृतियों की सत्ता विषयक स्थिति का स्पष्टीकरण किया गया है कि कौन-सी प्रकृति किस गुणस्थान तक निश्चित व विकल्प होती है । मिथ्यात्व व सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता का नियम . मिथ्यात्व प्रकृति की सत्ता के बारे में बतलाया है कि 'पठमतिगुणेसु मिच्छं नियमा' पहले तीन गुणस्थानों में मिध्यात्व मोहनीय Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति को सत्ता अवश्य होती है। साथ ही यह भी कहा है कि 'सासाणे खलु सम्मं संतं' सासादन गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय कृति निश्चित रूप से । भानो सिमात्य मोहाली और सम्यक्त्व मोहनीय के निश्चित अस्तित्व का कथन किया गया है । ___ इस प्रकार से मिथ्यात्व मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय की गुणस्थानों में निश्चित सत्ता बतलाने के साथ-साथ इन दोनों प्रकृतियों की विकल्पसत्ता वाले गुणस्थानों का संकेत क्रमशः 'अजयाइअट्ठगे भज्ज' व 'मिच्छाइदसगे या' पदों से किया है कि मिथ्यात्व प्रकृति की सत्ता चौथे अविरति सम्यग्दृष्टि आदि आठ गुणस्थानों में भजनीय है तथा सम्यक्त्व प्रकृति सासादन के सिवाय पहले मिथ्यात्व आदि दस गुणस्थानों में विकल्प से होती है । इसके कारण को स्पष्ट करते है। पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व प्रकृति की सत्ता इसलिये मानी जाती है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में तो मिथ्यात्व की सत्ता रहती ही है । उपशम सम्यक्त्व के काल में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवलिका काल शेष रहने पर कोई कोई जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त करते हैं, उस समय उन जीवों के मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता अवश्य रहती है। इसीलिये दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व की सत्ता बतलाने के साथ सम्यक्त्व की भी सत्ता बतलाई है। उवसमसम्मत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसम्मत्तं तयंतरालम्मि छावलिय ।। -विशे० भाय ५३४ उपशम सम्यक्त्व के काल में अधिक से अधिक ६ आवलिका शेष रहने पर अनंतानुबंधी कषाय के उदय से उपधाम सभ्यक्त्व से च्युत होकर जब तक जीव मिथ्यात्व में नहीं आता तब तक बह उस समयावधि के लिये सासादन' सम्यग्दृष्टि हो जाता है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ जब कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्त करने के अभिमुख होता है तब करणलब्धि के बल से प्रथमोपशम सम्यक्त्व के समय मिथ्यात्व मोहनीय के दालको के तीन रूप हो जाते हैं-शुद्ध, अर्धशुद्ध और अशुद्ध । शुद्ध दलिक सम्यक्त्व, अर्धशुद्ध मिश्र और अशुद्ध मिथ्यात्व मोहनीय कहलाते हैं। उपशम सम्यक्त्व के अंत में उक्त तीन पुंजों में से यदि मिथ्यात्व मोहनीय का उदय हो जाता है तो पहला गुणस्थान, यदि मिश्र (सम्यक्त्व-मिथ्यात्व) मोहनीय का उदय होता है तो तीसरा भिश्र गुणस्थान हो जाता है । इस प्रकार पहले और तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व की सत्ता रहती है। इसीलिये पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व की सत्ता मानी गई है। पहले, दुसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय चौथे अविरति आदि आठ गुणस्थानों में मिथ्यात्व की सत्ता होने और न होने का कारण यह है कि यदि उन गुणस्थानों में मिथ्यात्व का क्षय कर दिया जाता है यानी क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है तो मिथ्यात्व की सत्ता नहीं रहती है और यदि मिथ्यात्व का उपशम किया जाता है तो मिथ्यात्व की सत्ता अवश्य रहती है। मिथ्यात्व की सत्ता रहने के कारण ही उपशम श्रेणि वाला ग्यारहवें गुणस्थान से पतित होता है। दुसरे सासादन गुणस्थान के सिवाय मिथ्यात्व आदि दस गुणस्थानों में सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता विकल्प से मानने यानी होती भी है और नहीं भी होती है, का कारण यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में अनादि मिथ्याइष्टि जीव के जिसने कभी भी मिथ्यात्व के शुद्ध, अर्घशुद्ध, अशुद्ध यह नीन पुंज नहीं किये तथा जिस सादि मिथ्याइष्टि जीव ने सम्यक्त्व (शुद्ध पुंज) की उवलना कर दी है, उसके सम्यक्त्व प्रकृति की सत्ता नहीं होती है, शेष मिथ्यादृष्टि जीवों के उसकी सत्ता होती है। इसी तरह मिथ्याल्व गुणस्थान में सम्यक्त्व की उबलना करके Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ४६ मिश्र गुणस्थान में आने वाले जीव के सम्यक्त्व की सत्ता नहीं रहती है, शेष जीबों के रहती है। ___चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक क्षायिक सम्यमहष्टि के सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति को सत्ता नहीं होती है किन्तु क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दष्टि को उसकी सत्ता अवश्य रहती है। ___इस प्रकार मोहनीय कर्म की प्रकृति मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सत्ता का विचार आदि के ग्यारह गुणस्थानों में किया गया । अन्त के तीन गुणस्थानों में मोहनीय कर्म का क्षय हो जाता है अतः इनकी सत्ता नहीं रहती है । अब आगे मिथ मोहनीय और अनन्तानुबंधी कषाय की सत्ता का विचार करते हैं । मिश्र मोहनीय और अनन्तानुबंधो की सत्ता का नियम मिश्र मोहनीय की निश्चित रूप से किस गुणस्थान में सत्ता होती है, इसके लिये कहा है-'सासणमोसेसु धुर्व मीसं-सासादन और मिश्र गुणस्थान में मिध (सम्यमिथ्यात्व) मोहनीय की सत्ता नियम से होती है । इसका कारण यह है कि 'प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय जो मिथ्यात्व के तीन पुंज हो जाते हैं और उस सम्यक्त्व के काल में जब कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवलिका काल शेष रह जाता है तब सासादन गुणस्थान की प्राप्ति होती है। उस समय उस जीव के परिणाम निश्चित रूप से न तो सम्यक्त्व रूप होते हैं और न मिथ्यात्व रूप किंतु सम्यक्त्वांश भी होता है और मिथ्यात्वांश भी। इसीलिये मिश्र प्रकृति की सत्ता रहती है । इसीलिये दूसरे गुणस्थान में मिश्र प्रकृति की सत्ता मानने का विधान किया है। तीसरा मिश्र गुणस्थान मिश्र मोहनीय के उदय के बिना होता नहीं है। इसीलिये तीसरे गुणस्थान में मिश्न प्रकृति की ध्रुवसत्ता कहीं Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य है और विकल्प से पाये जाने वाले गुणस्थानों के बारे में कहा है कि 'मिच्छाइनवसु भयणाए' यानी दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय पहले गमारत. वौथे पांचो, सानोआठवें नौ. दमधे, ग्यारहवें, इन नौ गुणस्थानों में अध्रुवसत्ता है। क्योंकि जिस मिथ्या दृष्टि जीव ने मिश्र प्रकृति की उद्वलना की है, उसके व अनादि मिथ्यात्वी के मिश्र प्रकृति की सत्ता नहीं है। चौथे आदि आठ गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि के मिश्र प्रकृति की सत्ता नहीं होती है, शेष जीवों के इसकी सत्ता होती है। मिश्र मोहनीय प्रकृति की सत्ता का कथन करने के पश्चात' अब अनन्तानुबंधी की सत्ता के बारे में बतलाते हैं । अनन्तानुबंधी के निश्चित गुणस्थानों के बारे में कहा है-'आइदुगे अण नियमा' आदि के दो पहले, दूसरे गुणस्थानों में अनन्तानुबंधी की ध्रुवसत्ता है । क्योंकि दूसरे गुणस्थान तक अनन्तानुबंधी का बंध होता है, इसीलिये उसकी सत्ता अवश्य रहेगी। शेष तीसरे आदि नौ गुणस्थानों में उसकी सत्ता अध्रुव है-'भइया मीसाइनवगम्मि ।' क्योंकि अनन्तानुबंधी कषाय का विसंयोजन करने वाले के अनन्तानुबंधी को सत्ता नहीं होती है। अनंतानुबंधी की अध्रुवसत्ता के विषय में ऊपर कामग्रन्थिक,मत का उल्लेख किया गया है कि तीसरे आदि नौ गुणस्थानों में विकल्प से सत्ता है 1 लेकिन कर्मप्रकृति' और पंच १ संजोयण| उ निममा धुसु पंचसु होइ भइयध्वं ।। ---कर्मप्रकृति (सत्साधिकार) दो गुणस्थानों में अनन्तानुबंधी नियम से होती है और पांच गुणस्थानों में भजनीय है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक. संग्रह में तीसरे से लेकर सातवें तक पाँच गुणस्थानों में सत्ता मानी है। कर्मग्रन्थ में ग्यारहवें गुणस्थान तक और कमप्रकृति व पंचसंग्रह में सातवें गुणस्थान तक अनंतानुबंधो कषाय की सत्ता मानने के अन्तर का कारण यह है कि कर्मप्रकृति व पंचसंग्रहकार उपशमश्रोणि में अनंदानबंधी का सत्व नहीं पानते हैं और गमगार उसका सत्व स्वीकार करते हैं । कर्मप्रकृतिकार के मंतव्य का सारांश यह है कि चारित्र मोहनीय के उपशम का प्रयास करने वाला अनंतानुबंधी का अवश्य विसंयोजन करता है। आहारक सप्तक और तीर्थकर प्रकृति को सत्ता का नियम आहारक सप्तक की गुणस्थानों में सत्ता बतलाने के लिये कहा हैआहारसत्तगं वा सव्वगुणे । यानी आहारक सप्तक की सत्ता विकल्प से सभी गुणस्थानों में है । ऐसा कोई गुणस्थान नहीं कि जिसके बारे में आहारक सप्तक की सत्ता नियम से होने का कथन किया जा सके अर्थात् सभी गुणस्थानों में इसकी अध्रुव सत्ता है। इसका कारण यह है कि आहारक शरीर नामकर्म प्रशस्त प्रकृति है और इसका बंध किसी-किसी विशुद्ध चारित्रधारक अप्रमत्त संयमी को होता है। जब कोई अप्रमत्त संयमी आहारक शरीर का बंध १ सासायणंत नियमा पंचसू भज्जा अभी पढमः। -पंचसंग्रह ३४२ गो० कर्मकांड गाथा ३९१ में एक्न मतभेद का 'त्थि अणं उपसमगे' पद द्वारा उल्लेख किया है तथा दोनो मतों को स्थान दिया है । २ (क) शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारक चतुर्दशा बंध रस्यव । -तत्त्वार्थसूत्र २।४६ (छ) आहारक शरीर और तीर्घकर प्रकृति के बंध के कारण का संकेत पंचसंग्रह में किया है तिस्थय राहाराणं बंधे सम्मत्तसंजमा हेऊ। संग्रह २०४ तीर्थकर प्रकृति के बन्ध में सम्यक्त्व और आहारक के बंध में संयम कारण है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ T करके शुद्ध परिणामों के कारण ऊपर के गुणस्थानों में जाता है तब अयंत्रा अशुद्ध परिणामों के कारण ऊपर के गुणस्थानों से नीचे के गुणस्थानों में आता है तब उसके आहार सप्तक की सत्ता बनी रहती है। लेकिन जो अप्रमत्त संयमी मुनि आहारक सप्तक का बंध किये बिना ही ऊपर के गुणस्थानों में जाता है अथवा नीचे के गुणस्थानों में आता है, उसके उन गुणस्थानों में आहारक सप्तक की सत्ता नहीं पायी जाती है । उसी विभिन्नता के कारण आहारक सप्तक की सना सभी गुणस्थानों में विकल्प से मानी गई है। आहारक सप्तक के समान ही तीर्थंकर नामकर्म भी प्रशस्त प्रकृति है। क्योंकि उसका समय के सद्भाव में होता है और वह भी चौथे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक किसी-किसी विशुद्ध सम्यग्दृष्टि को होता है। लेकिन गुणस्थानों में इसकी सत्ता के सम्बन्ध में गाथा में संकेत किया है कि 'वितिगुणे विणा तित्थं' – दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय शेष गुणस्थानों में सत्ता विकल्प से होती है। इसका कारण यह है कि किसी जीव के चौथे से लेकर आठवं गुणस्थान के छठे भाग तक में तीर्थकर प्रकृति का बंध होने पर जब वह शुद्ध परिणामों के कारण ऊपर के गुणस्थानों में जाना है तो उनमें तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता पाई जाती है। लेकिन वह जीव जिसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है, अशुद्ध परिणामों के कारण ऊपर से नीचे के गुणस्थानों में भी आता है तो मिध्यात्व गुणस्थान में भी आता है, लेकिन दूसरे और तीसरे गुणस्थान में नहीं हो आता है, इसीलिये दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर शेष बारह गुणस्थानों में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता रह सकती है। किन्तु कोई जीव विशुद्ध सम्यक्त्व के होने पर भी तीर्थकर प्रकृति का बंध नहीं Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानक करता है तो उसके सभी गुणस्थानों में तीर्थकर प्रकृति की सत्ता नहीं पाई जाती है। उक्त कथन का फलितार्थ यह है कि दूसरे और तीसरे गुणस्थान में तो तीर्थकर प्रकृति को सत्ता नहीं पाई जाती है और शेष गुणस्थानों में उसका बंध करने वालों के संभव है लेकिन जिसने बंध ही नहीं किया उसके सत्ता होती ही नहीं । इसीलिये तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता अध्रुव मानी है। नीचे में मिथ्यात्व मृणस्थान में तीर्थकर प्रकृति के बंधक को आने का कारण यह है कि किसी जीव ने पूर्व में नरकाय बांधी हो और उसके बाद क्षायोपशामक सम्यक्त्व को प्राप्त कर तथाविध अध्यवः सायों के फलस्वरूप तीर्थंकर प्रकृति का बन्न कर लिया हो तो अंत समय में मम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त कर नरक में जन्म लेता है। इभी कारण तीर्थंकर प्रकृति के बंधक को मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति का कथन किया जाता है। तीर्थंकर प्रकृति वाल को मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति होने पर भी वह अन्तमुहुर्त समय तक ही वहां ठहरता है-अंतमुहुत्त भने तित्थे । इसका कारण यह है कि पहले जिस जीव ने नरकायु का वध किया हो और बाद में वेदक सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थकर प्रकृति का बंध कर ले तो वह जीव मरण काल आने पर सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यादृष्टि हो जाता है और मिश्यात्व दशा में नरक में जन्म लेकर अन्नमुहूर्त के बाद सम्यग्दृष्टि हो जाता है। यह कथन निकाचित तीर्थकर नामकर्म की अपेक्षा से है। क्योंकि निकाचित तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता वाला अन्त मुहर्त से अधिक मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं ठहरता है और पर्याप्त होकर तुरन्त सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मजन्य इस प्रकार सिर्फ आहारक सप्तक अथवा सिर्फ तीर्थकर प्रकृति को सत्ता वाला पहले मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त कर सकता है। लोकन जिसके आहारक सप्तक अंतर पालन का हिसार है, उसके मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होन को स्पष्ट करते हैं कि 'मोभयसंते मि उभय की मना वाला जीव मिथ्या दृष्टि नहीं होता है। अर्थात् जिस जीव के आहारक व तीर्थंकर दोनों प्रकृति की सत्ता है, उसका पतन नहीं होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं आता है। ___ इस प्रकार ध्रुवसत्ताक और अध्रुवसत्ताक प्रकृतियों का निरूपण करने के साथ मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय, अनन्तानुबंधी चतुष्क तथा तीर्थकर व आहारक सप्तक इन पन्द्रह प्रकृतियों की गुणस्थानों में सत्ता का विचार किया गया। इनमें से आदि की मात अप्रशस्त और शेष आठ प्रशस्त प्रकृतियों में प्रधान हैं। मिथ्यात्व आदि उक्त पन्द्रह प्रकृतियों की गुणस्थानों में सत्ता का कथन विशेष कारण से किया गया है। क्योंकि मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व मोहनीय, अनन्तानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों का जीव के उत्थान-पतन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । जब तक,इन प्रकृतियां को सत्ता रहती है तब तक जीव अपने लक्ष्य--मोक्ष के कारण सम्यक्त्व को प्राप्ति नहीं कर सकता है । इनके सद्भाव में जीव यथार्थ लक्ष्य को नहीं समझकर संसार में परिभ्रमण करता रहता है। लेकिन जब इन प्रकृतियों को निष्क्रिय, निस्सत्व बना डालता है तो संसार के बंधनों को तोड़कर अनन्त काल के लिये आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है । ___जैसे मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों अप्रशस्त प्रकृतियों में मुख्य हैं वैसे ही आहारक सप्तक और तीर्थकर नामकर्म ये आठ प्रकृतियों प्रशस्त प्रकृतियों में प्रधान हैं । क्योंकि आहारक सप्तक का बंध विरले ही तपस्वियों को होता है और तीर्थकर प्रकृति तो उनकी अपेक्षा भी Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक क्रिसो-किसी को बंधती है । इसीलिये अप्रशस्त और प्रशस्त प्रकृतियों में प्रधान प्रकृतियों के गुणस्थानों का विवेचन किया है। अब आगे घाति और अघाति प्रकृतियों की संख्या बतलाते हैं। घाति-अधाति प्रकृतियाँ केवलजुयलाबरणा पनिहा बारसाइमकसाया । मिच्छ ति सम्वघाइ. चउणाणतिवसंणावरणा ॥१३।। सजलण नोकसाया बिग्धं इय वेसघाइय अघाई। पत्तं यतणुढ़ाऊ ससयोसा गोयदुग बना ॥१४॥ शब्दार्थ-- केवलज्जुयल- केवल द्विक - फेवलज्ञान, केवलदर्शन, आवरणा - आवरण, पण - पांच, निहा - निद्राय बारस-बारह, आइमकसाया- आदि की कषायें, मिच्छ-मिथ्यात्व, ति—इस प्रकार, सम्बघा-सार्वघाति, चउ- चार, पाण-ज्ञान, तिवसणतीन दर्शन, आवरणा-आवरण ।। संजालण संज्वलन, नोकसाया-नो कषायें, विग्यं - पांच अंतराय, इय .. य, देसघाट्न देशवाति य—और, अघाइ अधाति पत्त यसणुछ- प्रत्येक आदि आठ व श गैर आदि आठ प्रकृति आऊ आयु, तसबीसा-जसपीशव, गोयदुग-- गो अद्विक, वेदनीयद्विक, बन्ना - वर्णचतुक 1 गाधार्थ केवलहिक आवरण, पांच निद्रायें, आदि की बारह कषाय और मिथ्यात्व ये सर्वघाति प्रकृतियां हैं। चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण तथा -- संज्वलन कषाय चतुष्क, नौ नो कषायें और पांच अंतराय ये देशघाती प्रकृतिमा जानना चाहिये । आठ प्रत्येक Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंषम कर्म ग्रम्प प्रकृतियां, शारीरादि अष्टक, चार आयु, लसवीशक, गोवद्धिक, वेदनीयद्विक और वर्णचतुष्क ये प्रकृतियाँ अघातिनी हैं। विशेषार्ष - इन दो गाथाओं में कर्म प्रकृतियों का धाति और अधाति की अपेक्षा वर्गीकरण किया गया है कि पानि पतियों को संख्या कितनी है और वे कौन-कौन हैं और अघाति प्रकृतियों की संख्या कितनी और उनमें कौन-कौन-सी प्रकृतियों को ग्रहण किया गया है। ___ यद्यपि सामान्य तौर पर तो सभी कर्म संसार के कारण हैं और जब तक कर्म का लेशमात्र है तब तक आत्मा स्व-स्वरूप में अवस्थित नहीं कहलाती है। आत्मविकास की पूर्णता में कुछ न्यूनता बनी रहती है । लेकिन उनमें से कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो आत्मगुणों की अभिव्यक्ति को रोकते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो अभिव्यक्ति में व्यवधान नहीं डालकर संसार में बनाये रखते हैं । इसी दृष्टि से कर्मों के प्रति और अघाति यह दो प्रकार माने जाते हैं । ज्ञानावरण आदि आठ मूल कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार घाती और वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र ये चार अधाती हैं। प्रातिकर्म की उत्तर प्रकृतियां घातिनी और अघातिकर्म की उत्तर प्रकृतियां अघातिनी कहलाती हैं। ____ जो प्रकृतियां आत्मा के मूलगुणों का घात करती हैं, वे घातिनी कहलाती हैं और जो उनका घात करने में असमर्थ हैं, वे अधातिनो हैं । घात्ति प्रकृतियों में भी दो प्रकार है-सर्वघातिनी, देशघातिनी । जो सर्वघानिनी हैं वे आत्मा के गुणों को पूरी तरह घातती हैं अर्थात् जिनके रहने पर यथार्थ रूप में आत्मिक गुण प्रकट नहीं हो पाते हैं और देशघातिनी प्रतियां यद्यपि आत्मगुणों की घातक अवश्य हैं लेकिन उनके अस्तित्व में भी अल्पाधिक रूप में आत्मगुणों का प्रकाशन Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता रहता है। गाथाओं में पानी और अघाती के रूप में प्रकृतियों के नाम बतलाने के साथ-साथ विशष रूप से घाति कर्म प्रकृतियों के देशघाती और सर्वघाती यह दो उपभेद और बतलाये हैं। जिससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि समस्त घाती कर्म प्रकृतियां कितनी और कौन-कौन सी हैं तथा उनमें से अमुक प्रकृतियां सर्वघातिनी और अमुक प्रकृतियां देशघातिनी हैं | उनके नाम इस प्रकार हैं_ 'केवलजुयलावरणा पण निदा बारसाइमकसाया मिच्छं ति सव्वघाई' इस गाथांश में सर्वघातिनी प्रकृतियों के नाम व संख्या का निर्देश किया गया है कि (१) ज्ञानावरण-केवलज्ञानाबरण । (२) रर्शनावरण केबलदर्शनावरण, पांच निद्रायें-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानद्धि । (३) मोहनीय–अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानाधरण क्रोध, मान, माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व ।' कुल मिलाकर ये २० हैं। इनमें ज्ञानाबरण की १, दर्शनावरण की ६ और मोहनीय की १३ प्रकृतियों का ग्रहण किया गया है जो जीब के मुल गुणों को सर्वाश में घात करने से सर्वघातिनी कहलाती हैं | जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-केवलज्ञानावरण आत्मा के केवल ज्ञान गृण को आवृत करता है । जब तक केवलज्ञानावरण दूर न हो तब तक केवलजान उत्पन्न नहीं होता है । इसीलिये केवलज्ञानावरण को सर्वघाती कहा जाता है । लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिये कि १. केवलिय नाण सण आवरण बारमाइमकसाया। मिछनं निहाओ इय बीमं सम्बधाईओ 11 -- पंचसंग्रह ३।१७ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ जैसे मेघपटल के द्वारा सूर्य के पूरी तरह आच्छादित होने पर भी उसकी प्रभा का उतना अंश अनावृप्त रहता है जिससे दिन-रात्रि का अंतर ज्ञात हो, वैसे ही सब जीवों के केवल ज्ञान का अनन्तवां भाग अनावृत ही रहता है। क्योंकि यदि केवलज्ञानाबरण उस अनंत भाग को भी आवृत कर ले तो जीव और अजीव में कोई अंतर ही नहीं रह सकेगा। इसका फलितार्थ यह हुआ कि केवलज्ञानावरण के रहने तक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, लेकिन उनके सरगा भी शान का अनंतवां भाग अनावृत रहता है। जिसको आचादित करने की शक्ति केवलज्ञानावरण तक में भी नहीं है । ज्ञान के अनंतवें भाग के अतिरिक्त केवलज्ञान का सर्वात्मना आवरक होने से केवलज्ञानावरण को सर्वघाती कहा जाता है। केवलदर्शनावरण केवलदर्शन को पूरी तरह आवृत करता है । फिर भी उसका अनन्तवां भाग अनावृत्त ही रहता है। केवलज्ञान और केवलदर्शन सहभावी हैं, अतः आत्मा के दर्शनगुण के अनंत 'भाग के अनावृत रहने के कारण को केवलज्ञानावरण की तरह समझ लेना चाहिए। निद्रा पंचक भी जीव को वस्तुओं के सामान्य प्रतिभास को नहीं होने देती हैं। इन्द्रियों के अवबोध में रुकावट डालती हैं। इसीलिये उनको सर्वघातिनी प्रकृतियों में ग्रहण किया है । बारह कषायों में से अनन्तानुबन्धी कषाय जीव के सम्यक् ज्ञान प्राप्ति के मुल कारण सम्यक्त्व का ही घात करती है और बिना सम्यक्त्व के जीव को सिद्धि प्राप्त होना असंभव है । अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायें जीव के स्वरूपलाभ के हेतु चारित्र गुण का घात करती हैं । अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशचारित्र का और प्रत्याख्याना. बरण कषाय सर्वविरति चारित्र का प्रान करती है। मिथ्यान्व के रहने Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक पर सम्यक्त्व की उत्पत्ति असंभव ही है, वह सम्यक्त्व गुण का सर्वास्माना धात करती है, इसीलिये उसे सर्वघाती में ग्रहण किया है। ___ सर्वधातिनी प्रकृतियों का कथन करने के बाद अब देशघातिनी प्रकृत्तियों के नाम बतलाते हैं—'चटणाणतिर्दसणाबरणा मंजलण नोकसाया विग्धं इय देसघाइयं'–चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, संजदलन कषाय चतुष्क, नो नो कषाय और पांच अन्तराय कर्म यह . देशवाति प्रकृतियां हैं । जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं (१। ज्ञानावरण - मति, श्रुत, अवधि, मनपर्याय ज्ञानावरण | (२) दर्शनावरण चक्षु, अचा, अवधि दर्शनावरण । (३ मोहनी - संचलन क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति. अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री-पुरुष नपुंसक वेद । (४) अंतराय—दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य अन्तराय ।। इनमें ज्ञानावरण की ४. दर्शनावरण की ३, मोहनीय की १३ और अन्तरायकर्म की ५ प्रकृतियां हैं। जो कुल मिलाकर २५ होती हैं। ये प्रकृतियां आत्मा के गुणों का एकदेश घात करने से देशघातिनी कहलाती हैं। इनको देशघाती मानने के कारण को स्पष्ट करते हैं कि मतिज्ञानावरण आदि चारों ज्ञानावरण केवल ज्ञानावरण द्वारा आच्छादित नहीं हुए ऐसे ज्ञानांश का आवरण करते हैं । यदि कोई छद्मस्थ जोब मत्यादि ज्ञानचतुष्क के विषयभूत अर्थ को न जाने तो वही मतिज्ञानादि के आवरण का उदय समझना चाहिए । किन्तु मति आदि चारों ज्ञान के अविषयभूत (केवलज्ञान के नाणावरण चक्क दसतिग नोकसाय विग्धपणं । संजालण देसघाइ, तइपविगप्पो इमो अन्नो ।। -पंचसंग्रह ३।१६ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्रन्य विषयभूत) अनन्त गणों को जानने में जो जसकी। असमर्थता है, उसे केवलज़ानावरण का उदय समझना चाहिये। __ चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण भी केवलदर्शनावरण से अनावृत केवलदर्शन के एकदेश को धातते हैं। इनके उदय में जीत्र चक्षुदर्शन आदि के विषयभूत विषयों को पूरी तरह नहीं देख सकता है, किन्तु उनके अविषयभूत अनंतगुणों को केवलदर्शनावरण के उदय होने के कारण ही देखने में असमर्थ होता है। संज्वलन कषाय चतुपक और हास्यादि नी नो कषायें चारित्र गुण का सर्वात्मना घात करने में तो सक्षम नहीं हैं किन्तु मूल गुणों और उत्तर गुणों में अतिचार लगाती है । इसीलिये इनको देशधातिनी माना है । जबकि अन्य कषायों का उदय अनाचार का जनक है।' अन्तराय कर्म की दानान्तराय आदि पांचों प्रकृतियां देशघातिनी इसलिये मानी जाती हैं कि दान, लाभ, भोग और उपभोग के योग्य जो पुद्गल हैं वे समस्त पुद्गल द्रव्य के अनंतवें भाग हैं। यानी सभी पुद्गल द्रव्य इस योग्य नहीं हैं कि उनका लेन-देन आदि किया जा सके, लेन-देन और भोगने में आने योग्य पुद्गल बहुत थोड़े हैं। साथ ही यह भी जानना चाहिये कि भोग्य पुद्गलों में भी एक जीव सभी पुद्गलों का दान, लाभ, भोग, उपभोग नहीं कर सकता है। सभी जीव अपने अपने योग्य पुदगल अंश का ग्रहण करते रहते हैं। अतः दानान्तराय, लाभान्त राय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय देशघाती हैं । वीर्यान्त राय सन्वेयि य अइयारा मजलणाणं तु जदयो होति । मूलन्छेज्ज पृण होइ बारमाहं कसायाणं । -पंगसक ४४ संज्वलन कषाय के उदय से समम्त अतिचार होते हैं, किन्तु शेष बारह कषाय के उदय से बत के मूल का ही छेदन हो जाता है । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ प्रति को भी देशघाती मानने का कारण यह है कि बीयन्तिराय का उदय होते हुए भी सूक्ष्म निगोदिया जीव के इतना क्षयोपशम अवश्य रहता है जिससे आहार परिणमन, कर्म नोकर्म वर्गणाओं का ग्रहण, गत्यन्तर गमन रूप बोर्यलब्धि होती है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम की तरतमता के कारण ही सूक्ष्म निगोदिया से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीवों के वीर्य (शक्ति, सामर्थ्य) की हीनाधिकता पाई जाती है । यह सब केवली के वीर्य का एकदेश है । यदि वीर्यान्तराय कर्म सर्वघाती होता तो जीव के समस्त वीर्य को आवृत करके उसे जड़वत् निश्चेष्ट कर देता। इसीलिये वीर्यान्तराय कर्म देशघाती है। यहाँ सर्वघाती को २० और देशघाती की २५ प्रकृतियाँ बतलाई हैं जो कुल मिलाकर ४५ हैं, सो बंध की अपेक्षा से समझना चाहिये । जब उदय की अपेक्षा विचार करते हैं तो सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय को मिलाने पर ४७ प्रकृतियां होती हैं। इन दोनों में सम्यक्त्व मोहनीय का देशघाती में और मिश्र मोहनीय का सर्वघाती प्रकृतियों में समावेश होता है। तब सर्वघाती २१ और देशघाती २६ प्रकृतियां हैं । १ गो" कर्मकांड में बंध व उदय की अपेक्षा सर्वघाती और देशघाती प्रकृतियों को गिनाया है- केवलाणावरणं दमणछत्रकं कमायया रस्यं । मिच्छन मवादी सम्मामिच्छे अबंधहि ॥३६॥ केवलज्ञानावरण छह दर्शनावरण (केवलदर्शनावरण, पांचनिद्रा) बारह कषाय (अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान, माया, लोभ) मिथ्यात्व मोहनीय ये २० प्रकृतियां मधाती हैं। सभ्य मिध्यात्व प्रति भी उदय व सत्ता अवस्था में सबंधाती है। परंतु यह धात्री जूदी ही जाति की है। णाणाचरणच उक्कं तिदंसणं सम्मर्ग में संजलणं । जव णोकसाय विग्धं छन्बीसा देसवादीओ ||४०|| ज्ञानावरण चतुष्क, दर्शनावरणत्रिक, सम्यक्ल, मंज्वलन कोषादि चार, नौ नो कवाय, पांच अंतराय छत्रीस भेद देशघाती हैं । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ सर्वघातो और देशघातो प्रकृतियों का विशेष स्पष्टीकरण सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और चारित्र का सर्वथा घात करने वाली हगो से केवल वा स्वाद बीस प्रकृतियां सर्वघाती और शेष पच्चीस प्रकृति या ज्ञानादि गुणों का देशधात करने वाली होने से देशघाती हैं। केवलज्ञानावरण आदि बीस प्रकृतियां अपने द्वारा ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और चारित्र गण का सर्वथा घात करती हैं। मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क सम्यक्त्व का सर्वथा घात करती हैं। क्योंकि उनके उदय होने से कोई भी सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता है। केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण अनुकम से केवलज्ञान और केवलदर्शन को पूर्ण रूप से आवृत करते हैं। निद्रा, निद्रा-निद्रा आदि पांच निद्रायें दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त दर्शनलब्धि को सर्वथा आच्छादित करती हैं तथा अप्रत्याख्यानाधरण एवं प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क अनुक्रम से देशचारित्र और सकलचारित्र का सर्वथा घात करती हैं। इस प्रकार उक्त सभी प्रकृतियां सम्यक्त्व आदि गुणों का सर्वथा घात करने वाली होने से सर्वधाती कहलाती हैं । उक्त सर्वधाती बीस प्रकृतियों के सिवाय चार धाति कर्मों की मतिज्ञानाबरण आदि पच्चीस प्रकृतियां ज्ञानादि मृणों के एकदेश का घात करने वाली होने से देशधाती हैं । जिसका स्पष्टीकरण यहां किया जाता है। केवलज्ञानावरण कर्म ज्ञानस्वरूप आत्मगृण को पूर्ण रूप से आवृत करने की प्रवृत्ति करें तो भी वह जीव के स्वभाव को सर्वथा ढकने में सम्मत्तताणदंभण चरितघाइत्तणा घाईओ। नस्लेम देमनाइनणार पूर्ण देसघाइयो ।। - पंचसंग्रह ३।१८ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक समर्थ नहीं होता है । यदि सर्वथा सम्पूर्ण रूप में ढक ले तो जीव अजीव हो जाये और उससे जड़ और चेतन के बीच रहने वाले भेद का अभाव हो जायेगा | यानी जीव का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। जिस प्रकार सघन बादलों के द्वारा सुर्य, चन्द्र का प्रकाश आच्छादित किये जाने पर भी उनके प्रकाश का सर्वथा अभाव नहीं हो जाता है। धे उनके प्रकाश को पूर्णरूप से आच्छादित नहीं कर पाते हैं। यदि सम्पूर्णतया आच्छादित कर ले तो रात्रि दिन के भेद का भी अभाव हो जाये । शास्त्रों में कहा भी है कि गाड़ मेघ का उदय होने पर भी चन्द्र, सूर्य का कुछ प्रकाश होता है, वैसे ही केवलज्ञानावरण कर्म के द्वारा पूर्णतया केवलज्ञान के आवृत होने पर भी जो कुछ भी तत्संबधी मंद, तीव्र या अति तीव्र प्रकाश रूप ज्ञान का एकदेश जिसको मति ज्ञानादि कहा जाता है, उस एकदेश को यथायोग्य रोति से मति, श्रु त, अवधि और मनपयांय ज्ञानावरण के द्वारा आच्छादित किय जाने से बे देशघाती कहलाते हैं। इसी प्रकार केबलदर्शनावरण कम द्वारा सम्पूर्ण रूप से केवलदर्शन के आच्छादित किये जाने पर भी तत्सम्बन्धी मंद, अति मंद या विशिष्ट आदि रूप जो प्रभा जिसकी चक्षुदर्शन आदि संज्ञा है, उस प्रभा को यथायोग्य रीति से चक्षु, अचक्षु या अवधि दर्शनावरण कर्म ढांक लेते हैं। अतएव वे भी दर्शन के एकदेश को आवृत करने वाले होने से देशघाती हैं तथा निद्रा आदि पांच प्रकृतियाँ यद्यपि केवल दर्शनावरण द्वारा अनावृत केबलदर्शन सम्बन्धी प्रभा रूप दर्शन के सिर्फ एकदेश का घान करती हैं तो भी दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली दर्शनलब्धि का सम्पूर्ण रूप से आच्छादन करने वाली होने से सर्वघाती कही जाती हैं। संज्वलन कषाय चतुष्क और हास्यादि नो नो कषायें आदि को बारह कषायों के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई चारित्रलब्धि को देश से आच्छादित करने वाली हैं। क्योंकि वे सिर्फ अतिचार लगाती हैं । जो Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कमग्रन्छ कषामें अनाचार स्थिति की जनक हैं यानी जिनके उदय से सम्यक्त्व आदि गुणों का विनाश होता है, वे सर्वघाती कहलाती हैं और जो कपायें मात्र अतिचार उत्पन्न करती है वे देशघाती कहलाती हैं। मंज्वलन कषाय के रदय से सिर्फ अतिचार लगते हैं और आदि की बारह कषायों के उदय से मूल का नाश होता है अर्थात् व्रती से पतन होना है । लेकिन संज्वलन कषायों के रहने से व्रतों में अतिचार तो अवश्य लग जाते हैं, किन्तु व्रतों का समूलोच्छेद नहीं होने से देशघाती हैं । ग्रहण, धारण योग्य जिस वस्तु को जीव दे नहीं सके, प्राप्त नही कर सके अथबा भोगोपभोग नहीं कर सके आदि यह सब दानान्तराय आदि कर्मों का विषय है और ग्रहण, धारण आदि करने योग्य वस्तुयें जगत में विद्यमान सब द्रव्यों के अनन्तवें भाग प्रमाण ही हैं। इसलिये तथारूप सर्वद्रव्यों के एकदेश के दानादि का विघात करने वालो होने से-दानान्तराय आदि देशघाती हैं । ज्ञान के एक देश को आवाणदिन करने वाली होने से जैसे मतिज्ञानावरण आदि देशघाती हैं, वैसे ही सर्व द्रव्यों के कदेश विषयक दानादि का विघात करने वाली होने में दानान्तराब आदि दशघाती हैं। घाती प्रकृतियों की संख्या, नाम आदि बतलाने के बाद अब अघाती प्रकृतियों का कथन करते हैं। अघाती प्रकृतियाँ ___ बंधयोग्य १२० और उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से क्रमशः ४५ और १७ घातो प्रकृतिमों को कम करने पर शेष ७५ प्रकृतियाँ अघाती हैं । जिनके नामों का संकेत गाथा में इस प्रकार किया है अघाइ पतं यतणुढाऊ तसवीसा गोयदुग वन्ना-आठ प्रत्येक प्रकृतियां, शरीर आदि आठ पिंड प्रकृतियों के भेद तथा त्रसवीशक और गोद्विक, वेदनीयविक, वर्णचतुष्क-ये सब अधाती प्रकृतियाँ हैं। ये सभी नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुकर्म को उत्तरप्रकृतियां हैं। ये अपने अस्तित्व तक जीब को संसार में टिकाये रखने के सिवाय Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ किसी गुण का घात करने वाली नहीं होने से अघातो कहलाती हैं । इनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं (१) वेदनीय कर्म - साता वेदनोय, आसाना वेदनीय | (२) आयु कर्म-नरक, तिर्यन, मनुष्य, देव आयु | (६) नाम कर्म - पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थंकर, निर्माण, उपघात, पाच शरीर औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण, तीन अंगोपांग - औदारिक अंगोपाग, वाक्रय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, छह संस्थान - समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, स्वाति, वामन, कुब्जक, हुण्डॠ, छह संहनन व ऋषभ नाराच, ऋषभनाराच, अर्धनारान, कीलिका, सेवा पांच वर्गएकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, चार गति नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव, विहायोगतिद्विक शुभ विहायोगति, अशुभ विहायोगति, आनुपूर्वी चतुष्क – नरकानुपूर्वी, तिर्यचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, लसवीशक ( स दशक व स्थावर दशक), वर्ण, गंध, रस, स्पर्श । शतक (४) गोत्र - उच्च गोल, नीच गोत्र । उक्त प्रकृतियों के नामोल्लेख में वेदनीय की २, आयु की ४, नाम की ६७ और गोत्र कर्म की २ प्रकृतियां हैं। कुल मिलाकर २+४+ ६७ +२=७५ होती हैं । इस प्रकार से घाति और अधाती की अपेक्षा प्रकृतियों का वर्गीकरण करने के पश्चात् अब पुण्य, पाप (शुभ, अशुभ, प्रशस्त, अप्रशस्त) के रूप में उनका विभाजन करते हैं । पुण्य-पाप प्रकृतियां 1 सवंगवरच उरंस | सुरनरविगुच्च साय तसदस परधान तिरिया बम्नचर पनिवि सुबह ॥१५॥ I 1 1 T Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ बायालपुन्नपाई अपहमसठाणखगइसंघपणा । तिरियदुग असायनीयोषधाय इगविगल निरयत्तिग ॥१६॥ थायरवस बन्नघउक्क घाइपण ालसहिय बासोई। पात्रपडित्ति दोसुवि. वन्नाइगहा सुहा असुहा ॥१७॥ शब्दार्थ–सुरनरतिग देवत्रिक, मनुष्यत्रिवा, उच्च--उच्च गोत्र, सायं साता वेदनीय, तसदस असण, तणु - पोर शरीर, उवंग--तीन अर्गपांग, पइर–वनऋषभनाराच सहनन, चउरसं-नम चतुरस्त्र संस्थान, परषासग--पराधांत सप्तक, प्तिरिाउ-तिर्यंचाय, जानव-वर्ण चतुक पणिन.-नेन्दिर जाशि, सुमखगह-शुभ विहामोगाते । बायाल–बयालीस, पुन्नपगई-पुण्य प्रकृति, अपम - पहल को छोड़कर. संकीण -संस्थान, खगह संघयणा-विहायोगात और सहनन, तिरियदुग - तिर्य चद्विकं, असाय असता वेदनीय, नीयनीच गोत्र, उबघायः - उपघात नाम, इगविगत - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय, निरपतिग-नरकनिक | चावरदस –स्थावर दशक, बलय उपक – वणं चतुष्क घाइधाती, पणयाल - पैंतालीस; साहिय - सहित, युक्त, बासीईबियासी, पावपति-पाप प्रकृतियां, सि - इस प्रकार, कोमुषिदोनों में, वन्नाइगहा-वर्णादि का ग्रहण करने से, सुहा- शुम, असुहा-अनुभ। गाचार्य- देवत्रिक, मनुष्यत्रिक, उच्च गोत्र, साता देदनीय, त्रसदशक, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, वन ऋषभनाराच संहनन, समचतुरस्त्र संस्थान, पराघात सप्तक, तियंचायु, वर्ण चतुष्क, पंचेन्द्रिय जाति, गुभ विहायोगति ये बयालीस पुण्य प्रकृतियां हैं । पहले छोड़कर शेष Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातक पाँच संस्थान, दूसरी विहायोगति और पांच मंहनन,तिर्यचद्विक, अमानावेदनीय, नीच गोत्र, उपधात, एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियन्त्रिक, नरकविक तथा स्थावर दशक, वर्ण चतुष्क, पैंतालीस घाति प्रकृतियां, कुल मिलाकर ये बवासी पाप प्रकृतियां हैं। वर्ण चतुष्क को पुण्य और पाप प्रकृतियों दोनों में ग्रहण किया है । अतः पुण्य प्रकृतियों में शुभ और पाप प्रकृतियों अशुभ समझना चाहिये । विशेषार्थ-इन नोन गाथाओं में पुण्य प्रकृतियों के बयालीस तथा पाप प्रकृतियों के बयासी नाम बतलाये हैं। पुण्य और पाप प्रकृतियों के रूप में किया गया यह वर्गीकरण १२० बंध प्रकृतियों का है । यद्यपि बयालीस और क्यासी का कुल जोड़ १२४ होता है और जबकि बंध प्रकृतियां १२० हैं तो इसका कारण स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि 'दोसुवि बन्नाइगहा सुहा असुहा' वर्ण चतुष्क वर्ण, गंध, ग्न, स्पर्श प्रकृतियां शुभ भी हैं और अशुभ रूप भी हैं, अतः ये चार प्रकृतियां शुभ रूप पुण्य और अशुभ रूप पाप प्रकृतियों में ग्रहण की जाती हैं, इसी कारण पुण्य और पाप प्रकृतियों की संख्या क्रमशः ४२ और ८२ बतलाई गई हैं। यदि वर्ण चतुष्क को दोनों वर्गों में न गिरें तब पुण्य और यार प्रकृतियों की संख्या क्रमशः ३८ और ७८ होगी और जब वर्ण चनुष्क प्रकृतियों को किसी .एक वर्ग में मिलाया जायेगा तब ४२ और ७८ अथवा ३८ और ८२ होगी । इस स्थिति में कुल जोड़ १२० होगा जो बंध प्रकृतियों का है। ____बंध प्रकृतियों के घाती और अघाती के भेद से गणना करने के पश्चात पुण्य और 'पाप के रूप में भेद गणना करने का कारण यह है कि जिस प्रकृति का रस- अनुभाग, विपाक आनन्ददायक होता है, उसे पुण्य और जिस प्रकृति का रस दुखदायक होता है वह पाप प्रकृति Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्य है ।' पुण्य प्रकृति को शुभ या प्रशस्त प्रकृति तथा पाप प्रकृति को अशुभ या अप्रशस्त प्रकृति भी कहते हैं। जिन-जिन कर्मों का बंध होता है, उन सभी का विपाक केवल शुभ या अशुभ ही नहीं होता है, लेकिन जीव के अध्यवसाय रूप कारण को शुभाशुभता के निमित्त से शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के विपाक निर्मित होते हैं। शुभ अध्यवसाय से निर्मित विपाक शुभ और अशुभ अध्यवसाय से निर्मित विपाक अशुभ होता है । अध्यवसायों की शुभाशुभता का कारण संक्लेश की न्यूनाधिकता है अर्थात् जिस परिणाम में संक्लेश जितना कम होगा वह परिणाम उतना अधिक शुभ और जिस परिणाम में संक्लेश जितना अधिक होगा वह परिणाम उतना अधिक अशुभ होगा। कोई भी एक परिणाम ऐसा नहीं जिसे निश्चित रूप से शुभ या अशुभ कहा जा सके । फिर भी जो शुभ और अशुभ का व्यवहार होता है, वह गौण और मुख्य भाव की अपेक्षा से समझना चाहिये । अतः जिस शुभ परिणाम से पुण्य प्रकृतियों में शुभ अनुभाग बंधता है, उसी परिणाम से पाप प्रकृतियों में अशुभ अनुभाग भी बंधता है। इसी प्रकार जिस परिणाम से पाप प्रकृतियों में अशुभ अनुभाग बंधता है, उसी परिणाम १ बौद्धदर्शन में भी कर्म के दो मेद किये हैं.–कुशल अथवा पुण्यकर्म और अकुशल अथवा अपुण्यकर्म । जिसका विपाक इष्ट होता है, वह कुशल कर्म और जिसका विपाक अनिष्ट होता है, वह अकुशल कर्म है । सुख का वेदन कराने वाला पुण्य कर्म और पाप का वेदन कराने वाला अपुण्य कर्म है-कुशल कर्म क्षेमम्, इष्ट विपाकत्वात्, अकुशल कर्म अक्षेमम्, अनिष्ट विपाकरबाप्त । पुण्यं कर्म मुखवेदनीयम्, अपुण्यं कर्म दुःखवेदनीयम् । -अभिषर्म कोष योगदर्शन में भी पुण्य और पाप भेद किया है.-कर्माशयः पुण्यापुष्यरूपा। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक से पुण्य प्रकृतियों में शुभ अनुभाग भी बंधता है। लेकिन इसमें अन्नर यह है कि शुभ परिणाम से होने वाला अनुभाग प्रकृष्ट होता है और अशुभ अनुभाग निकृष्ट तथा अशभ परिणाम से बँधने वाला अशा अनुभाग प्रकृष्ट और शुभ अनुभाग निकृष्ट होता है । कम प्रकृतियों के पुण्य और पाप रूप भेद करने का यही कारण है। पूण्य और पाप के रूप में वर्गीकृत प्रकृतियों में घाती और अघाती दोनों प्रकार की कम प्रकृतियां हैं। उनमें से ४५ घातो प्रकृतियां तो आत्मा के मूल गृणा को क्षति पहुंचाने के कारण पाप प्रकृतियों ही हैं लेकिन अघाती · प्रकृतियों में से भी तेतीस प्रकृतियां पाप रूप है तथा वर्णादि चार प्रकृतियां अच्छी होने पर पुण्य प्रकृतियों में और बुरी होने पर पाप प्रकृतियों में ग्रहण की जाती हैं। अतः पुण्य रूप से प्रसिद्ध ४२ और पाप रूप से प्रसिद्ध ८२ प्रकृतियां निम्न प्रकार हैं४२ पुण्य प्रकृतियाँ--. ___ सुरत्रिक (देवाति, देवानुपूर्वी, देवायु), मनुष्यन्त्रिक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, मनुप्यायु), उच्च गोत्र, त्रम दशक (नस, यादर, पर्याप्त प्रत्यक, स्थिर, शुभ, मुभग, सुस्बर, आदय, यश कीनि), औदारिक आदि पांच शरीर, अंगोपांगलिक (औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग), वनपभनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, पराघात सप्तक (पराघात,उच्छ्वास, आतप,उद्योत, अगुरुलघु, तीर्थंकर, निर्माण), तिर्यंचायु, वर्णचतुष्क, पंचेन्द्रिय जाति, शुभविहायोगति, साता वेदनीय । ८२ पाप प्रकृतियां-- ४५ घाजी प्रकृतियां (ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ६, मोहनीय २६, अन्तराय' ५), पहले को छोड़कर पांच संस्थानन था पांच संहनन, अशुभ विहायोगति, तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, असातावेदनीय, नीत्र गोत्र, उपधात, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नरकगति, नरकानु Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्रत्य पूर्वी, नरकालु, स्थावर दशक (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति) वर्ण चतुष्क । १ इस प्रकार से पुण्य पाप प्रकृतियों का कथन करने के बाद क्रम प्राप्त परावर्तमान और अपरावर्तमान प्रकृतियों को बतलाते हैं । लेकिन अपरावर्तमान प्रकृतियों की संख्या कम होने से पहले उनका विवेचन किया जा रहा है। अपरावर्तमान प्रकृतियाँ नमधुवबधिनवगं दंसण पणनाणदिग्ध परघायं । भयकुच्छ मिच्छासं जिण गुणसीसा अवरियता ||१८|| ६.७ १ पंचसंग्रह में गुभ्य और पाप प्रकृतियों के बजाय प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियों के रूप में गणना की हैमणुमतिगं देवलिगं तिरिया ऊसास अठतणुभगं । विहगद्द वण्णाइ सुभं तसाइ दस तित्य निमाण चउरंसउसभभावव पराषाय पणिदि अगुरुसा उच्च | उज्जीय ऋ पसस्था सेसा बासीइ अपसत्ता । पंचसंग्रह ३२१, २२ LA २ गरे० कर्मका गा० ४१, ४२ में पुण्य प्रकृतियां और प्रकृतियां गिनाई हैं। दोनों ग्रन्थों की गणना बराबर है। में इतनी विशेषता है भेद विवक्षा से ६८ और अभेद विवक्षा से ४२ पुण्य प्रकृतियों तथा पाप प्रकृतियाँ बन्ध दशा में भेद विवक्षा से ६८ और अभेद विवक्षा से ५२ बतलाई हैं । उदय दशा में सम्यक्त्व और सम्यगु मिध्यात्व को मिलाकर भेद विवक्षा से १०० और अभेद विवक्षा से ८४ बताई हैं. पाच बंधन, पांच संघात और वर्णादि २० में से १६ इस प्रकार २६ प्रकृतियों के भेद और अभेद से पुण्य प्रकृतियों में तथा वर्णादि २० में से १६ प्रकृतियों के भेद और अभेद से पाप प्रकृतियों में अंतर पड़ता है । ४३, ४४ में पाप लेकिन कर्मकांड Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक शब्दार्थ-नाम- नामकर्म की, ध्रुवबंधिमनगं- ध्रुवबंधिनी नो प्रकृतिमा, दमण-दर्शनावरण, पण–पाँच, माग–ज्ञानावरण, विग्ध-- अन्तराय, परयाय---पराघात, भयकुमछमिच्छ—भय. बुगुप्सा और मिथ्यात्व, साप्त-उच्छ्वास नामकर्म, जिण तीर्थकर नामकर्म, गुणतीसा उनतीस, अपरियता-अपरावर्तमान । ___गापाय - नामकर्म को भुवसंधिनी, कृतियां बार दर्शनावरण, पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय, पराघात, भय, जुगुप्सा, मिथ्यात्व, उच्छ्वास और तीर्थंकर ये उनतीस प्रकृतियां अपरावर्तमान प्रकृतियां हैं । विशेषार्थ- गाथा में उनतीस प्रकृतियों के नाम गिनाये हैं, जो अपरावर्तमान है । ये उनतीस प्रकृतियां किसी दूसरी प्रकृति के बंध, उदय अथवा बंध-उदय दोनों को रोक कर अपना बन्ध, उदय और बंध-उदय को नहीं करने के कारण अपरावर्तमान कहलाती हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं (१) मामारण-मति, श्रत, अवधि, मनपर्याय, केवलज्ञानावरण (२) कशंनावरग-चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शनावरण । (३) मोहनीय-भय, जुगुप्सा, मिथ्यात्व । (४) नामकर्म - वर्णं चतुष्क, तेजस, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, निर्माण, उपधात, पराघात, उच्छ्वास, तीर्थकर । (५) अन्तराय -- दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य अन्तराय । मिथ्यात्व को अपरावर्तमान प्रकृति मानने पर जिज्ञासु का प्रश्न है कि सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय के उदय में मिथ्यात्व का उदय नहीं होता है । ये दोनों ही मिथ्यात्व के उदय की विरोधिनी प्रकृतियां हैं । अतः मिथ्यात्व को अपरावर्तमान प्रकृति नहीं मानना चाहिये । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ इसका उत्तर यह है कि मिथ्यात्व का धंध और उदय पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में होता है, किन्तु वहां मिश्र मोहनीय व सभ्यक्त्व मोहनीय का उदय व बंध नहीं होता है। यदि ये दोनों प्रकृतियां मिथ्यात्व गुणस्थान में रहकर मिथ्यात्व के उदय को रोकतीं और स्वयं उदय में आती तो अवश्य ही विरोधिनी कही जा सकती थीं। लेकिन इनका उदयस्थान अलग-अलग है, यानी मिश्र मोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में और सम्यक्त्व मोहनीय का उदय चौथे गुणस्थान में और मिथ्यात्व का उदय पहले गुणस्थान में होता है । अतः एक ही गुणस्थान में रहकर परस्पर में एक दूसरे के बंध अथवा उदय का विरोध नहीं करती हैं | इसीलिये मिथ्यात्व को अपरावर्तमान माना है। इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों के बारे में समझना चाहिये कि उनका बंध, उदय स्थान या बंधोदयस्थान भिन्न-भिन्न है। अब आगे की गाथा में परावर्तमान और क्षेत्रविपाको प्रकृतियां बतलाते हैं। परावर्तमान व क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां तणुअटु बेय वुजुयल कसाय उज्जोयगोयदुग निद्दा । तसकोसाउ परिसा खितषिवागाऽणुपुष्चोओ ॥१६॥ शब्दार्थ-तणभट-शरीरावि अष्टक की तेतीस प्रकृतियां, वंग - तीन वेद, उपल-दो युगल, कप्ताप–सोलह कपाय, उज्जोयगोयदुग-उद्योततिक, गोत्रविक, वेदनीयद्विक, मिहा--पांच निद्रामे, तसबीस-तसवीशक, पाउ–चार आयु, परित्तापरावर्तमान, खितरिवागा-क्षेत्रविपाको माणुपुष्वीओ-चार आनुपर्छ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HD शतक गायार्थ - शरीरादि अष्टक, तीन वेद, दो युगल, सोलह कषाय, उद्योतद्विक, गोवद्विक, वेदनीयटिक, पाँच निद्रानें, उसवीशक और चार आयु ये परावर्तमान प्रकृतियां हैं। चार आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी है। विशेषार्थ- गाथा में परावर्तमान और क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों का कथन किया है। परावर्तमान प्रकृतियाँ दूसरी प्रकृतियों के बंध, उदय अथवा बंधोदय दोनों को रोक कर अपना बंध, उदय या बंधोदय करने के कारण परावर्तमान कहलाती हैं। इनमें अधाती–वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र कर्मों की अधिकांश प्रकृतियों के साथ घाती कर्म दर्शनावरण व मोहनीय की भी प्रकृतियाँ हैं । जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - (१) दर्शनावरण--निद्रा, निद्वा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्याद्धि । (२) वेदनीय-साता वेदनीय, असाता वेदनीय । (३) मोहनीय-अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण कपाय चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, संज्वलन कषाय चतुष्क, हास्य, रति,शोक, अरति, स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद । (४) आयुकर्म-नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आयु । (५) नामकर्म- शरीराष्टक की ३३ प्रकृतियां (औदारिक, व क्रिय, आहारक शरीर, औदारिक अंगोपांग आदि तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, एकेन्द्रिय आदि पांच जाति, नरकगति आदि चार गति, शुभ-अशुभ बिहायोगति, चार आनुपूर्वी), आतप, उद्योत, वस दशक, स्थावर दशक । (६) गोत्रकर्म-उच्च गोत्र, नीत्र गोत्र । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ___इस प्रकार ५+२+२३+४+५५+२-१ प्रकृतियां परावर्तमान हैं । इनमें से अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क आदि सोलह कषाय और पांच निद्रायें ध्रुवबंधिनी होने से तो बंधदशा में दूसरी प्रवृतियों का उपरोध नहीं करतो हैं लेकिन उदयकाल में सजातीय प्रकृति को रोक कर प्रवृत्त होती हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ में से एक जीब को एक समय में एक कषाय का उदय होता है । इसी प्रकार पांच निद्राओं में किसी एक का उदय होने पर शेष चार निद्राओं का उदय नहीं होता है । अतः परावर्तमान हैं। स्थिर, शुभ, अस्थिर, अशुभ ये चार प्रकृतियां उदयदशा में बिरोधिनी नहीं हैं किन्तु बन्धदशा में विरोधिनी हैं। क्योंकि स्थिर के साथ अस्थिर का और शुभ के साथ अशुभ का बंध नहीं होता है। इसलिए ये चारों प्रकृतियां परावर्तमान हैं। शेष ६६ प्रकृतियां बंध और उदय दोनों स्थितियों में परस्पर विरोधिनी होने से परावर्तमान हैं । इस प्रकार से परावर्तमान कम प्रकृतियों का वर्णन करने के माथ ग्रन्थकार द्वारा निर्दिष्ट ध्रुवबन्धि आदि अपरावर्तमान पर्यन्त बारह द्वारों का विवेचन किया जा चुका है। जिनका विवरण पृ० ७२ पर दिये गये कोष्टक में देखिये। अब कर्म प्रकृतियों का विपाक की अपेक्षा निरूपण करते हैं । विपाक मे आशय रमोदय का है । कर्मप्रकृति में विशिष्ट अथवा विविध प्रकार के फल देने की शक्ति को और फल देने के अभिमुख होने को दिपाक कहते हैं। जैसे आम आदि फल जब पक कर तैयार होते हैं, तब उनका विपाक होता है। वैसे ही कर्म प्रतानियां भी जत्र अपना फल देने के अभिमुख होती है तब उनका विपाककाल कहलाता है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म प्रकृतियों के प्रवबन्धी आविमेव कर्म प्रकृति ध य बंधी अध्र व बंधी ध्र वोदय अधयोदय छ व सत्ता अ० सत्तः सर्व प्राति देश घा. अघातिपरा व अपरा मोघ १५ । २० । २५ | पुण्य पाप साना०५ दर्शना वेद० २ । मोह० २८० आयु४ नाम १०३ गोत्र २ अंत०५ मोहनीय कर्म में सम्यक्त्व देशघानी और मिश्र मोहनीय सर्वघाती हैं तथा ये दोनों परावर्तमान और पाप प्रकृतियां हैं, इतना विशेष समझना चाहिये। SPh Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रम्य * यह विपाक दो प्रकार का है - हेतुविपाक और रसविपाक ।' पुद्गलादि रूप हेतु के आश्रय से जिस प्रकृति का विपाक --- फलानुभव होता है, वह प्रकृति हेतुविपाकी कहलाती है तथा रस के आश्रय अर्थात् रस की मुख्यता से निदिश्यमान विपाक जिस प्रकृति का होता है, वह प्रकृति रसविपाकी कहलाती है। इन दोनों प्रकार के विपाकों में से भी प्रत्येक के पुनः चार-चार भेद हैं । पुद्गल, क्षेत्र, भव और जीव रूप हेतु के भेद से हेतुविपाकी के चार भेद हैं यानी पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी और जीवविपाकी । इसी प्रकार से रसविपाक के भी एकस्थानक, द्विस्थानक, वीस्थानक और चारस्थानक ये चार भेद हैं। यहाँ कर्म प्रकृतियों के रसोदय के हेतुओं' - स्थानों के आधार से होने वाले पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी और जीवविपाकी भेदों का वर्णन करते हैं, यानी कौन-सी कर्म प्रकृतियां पुद्गलविपाकी आदि हैं। क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां उक्त चार प्रकार के विपाकों में से यहां पहले क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों को बतलाया है कि- 'खित्तविवागाऽणुपुवीओ' अनुपूर्वी नामकर्म क्षेत्रविपाकी है । यानी आनुपूर्वी नामकर्म की नरकानुपूर्वी, तिर्यचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी -- ये चारों प्रकृतियां क्षेत्रविपाकी हैं। १ दुविहा विवागओ पुण हे विवागाओ रसविवागाओ। एक्केक्कावि य चउहा जओ चसदो विगप्पेणं ॥ २ जा जं समेच्च हे विभाग उदयं उवेंति पगईओ | ता तब्बिबागसन्ना संसभिहाणाई मुगमाइ ॥ पंचसंग्रह ३/४४ — पंचसंग्रह ३२४५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ बतक आकाश को क्षेत्र कहते हैं । जिन प्रकृतियों का उदय क्षेत्र में ही होता है, वे क्षेत्रविपाकिनी कही जाती हैं । यों तो सभी प्रकृतियों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा को लेकर होता है। लेकिन जिसको मुख्यता होती है, वहां उसकी मुख्यता से उसका नामकरण किया जाता । आनुपूबियों को क्षेत्रविपाकी मानने का कारण है कि इन खेल में ही होता है। भो िजब जीव परभव •के लिये गमन करता है तब विग्रहगति के अन्तराल क्षेत्र में आनुपूर्वो अपना विपाक---उदय दिखाती हैं 11 उसे उत्पत्तिस्थान के __ अभिमुख रखती हैं। क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों को बतलाने के वाद अब जीव और भत्रविपाको प्रकृतियों का कथन करते हैं । जीवविपाको और मविपाको प्रकृतिया घणघाइ दुगोय जिणा तसियरसिंग सुभगदुभराउ सासं | जाइतिग जिविवागा आऊ चउरो भवविधागा ॥२०॥ ... .१ बेनाम्बर और विगाकर दोनों संप्रदायों में आनुपूर्वी को क्षेत्रविपाकी माना है । लेकिन स्वरूप को लेकर मतभेद है। एवेताम्बर संप्रदाय में एक शरीर को छोड़कर मग सारीर धारण करने के लिये जब जीव जाता है तब आनुपूर्वी कर्म श्रेणि के अनुसार गमन करते हार उस जीव को उसके विश्रेणि में स्थित उतपतिम्धान तक ले जाता है। आनुपूर्वी का उदय जल पनि ने माना है --'पुच्ची उदओ नरके ।' -प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा ४२ लेकिन दिगम्बर प्रदाय में आनपूर्वी कम एवं शरीर को छोड़ने के बाद और नया शरीर धारण करने के पहले अर्थात् विग्रहगति में जीव का आकार पूर्व नगर के समान बनाये रखता है और उसका पदय ऋजु घ या दोनों मनियों में होता है । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य ७५ शब्दार्थ-घणघाइ-घातिकर्मों की प्रकृतियां, दुगोय -- गोबतिक, वेदनीय ठिक, जिणा–तीर्थकर नामकर्म, ससियरतिग-- यमत्रिक और इतर-स्थावरत्रिक, सुभगभगवउ- सुभग चतुष्क, दुर्भग चतुष्क, सास- उच्चावास, जाइतिग - जातित्रिक, जियविवागा-जीविपावी, आऊ चउरो- चारः आयू, भवधियानाभवविपाकी। ___गाधाथ-सैतालीस घाति प्रतियां, गोत्र द्विवा, वेदनीयद्विक, तीर्थकर नामकर्म, वसत्रिक,स्थावरलिक, सुभग चतुष्क, दुभंग चतुष्क, उच्छवास, जातित्रिक, ये जीवविपाकी प्रकृतियां हैं और चार. आयु भवविपाकी हैं। विशेषार्थ-गाथा में जीवविपाकी और भवविपाको प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। जो प्रकृतियां जीव में ही साक्षात् फल दिखाती हैं अर्थात् जीव के ज्ञान आदि स्वरूप का घात आदि करती हैं वे जीवविपाको प्रकृ. तियां कहलाती हैं तथा भवविपाकी प्रकृतियां चे हैं जिनका बंध वर्तमान भव में हो जाने पर भी वर्तमान भव का त्याग करने के पश्चात् अपने उस योग्य भव की प्राप्ति होने पर विपाक दिखलाती हैं । गाथा में जीवविपाकी प्रकृतियों के नाम और संख्या इस प्रकार यतलाई है ४७ घाति प्रकृतियां (ज्ञानाचरण ५, दर्शनावरण , मोहनीय २८, अंतराय ५), दो गोन, दो वेदनीय, नीर्थकर नामकर्म, वमत्रिक (त्रस, बादर, पर्याप्त), स्थावरत्रिक (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त), सुभग चतुष्क (सुभग, मुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति), दुर्भग चतुष्क (दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति), उच्छ्वास नामकर्म, जातित्रिक (एकेन्द्रिय आदि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BE शतक पांच जाति, नरक आदि चार गति, शुभ-अशुभ विहायोगति), कुल मिलाकर ये ७८ प्रकृतियां जीवविपाकी हैं। इनको जीवविपाकी मानने का कारण यह है कि क्षेत्र आदि की अपेक्षा के बिना ही जीव को शान, दर्शन आदि आत्मगुणों तथा इन्द्रिय, उच्छ्वास आदि में अनुग्रह, उपघात रूप साक्षात फल देती हैं । जैसे कि ज्ञानावरण की प्रकृतियों के उदय से जीव अज्ञानी होता है, दर्शनावरण के उदय से जीव के दर्शनगुण का घात होता है, मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय से जीव के सम्यक्त्व और चारित्रगुण का घात होता है तथा पांच अन्तरायों के उदय से जीव दान आदि दे या ले नहीं सकता है । साता और असाता वेदनीय के उदय से जीव हो सुखी और ही होता है इत्यादि ! अ: मामा बलाई गई ७८ प्रकृतियां जीवविपाकी हैं। ___"आऊ चउरो भवविवागा' यानी नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु ये चारों आयु भवविपाकी हैं। क्योंकि परभव की आयु का बंध हो जाने पर भी जब तक जीव वर्तमान भव को त्याग कर अपने योग्य भव को प्राप्त नहीं करता है, तब तक आयु कर्म का उदय नहीं होता है। अतः परभव में उदय योग्य होने से आयुकर्म की प्रकृतियां भवविपाकी हैं। इस प्रकार से जीवविपाको और भवविपाकी प्रकृतियों का कथन करने के बाद अब आगे की गाथा में पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के नाम व बंधद्वार का वर्णन करने के लिये बंध के भेदों को बतलाते हैं । पुदगलदिपाको प्रकृलियो और बंध के भेव नामधुरोग्य चउतणु बघायसाहारणियर जोयतिगं । पुग्गल विवागि बंधो पहिरसपएससि ।।२।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ७ . मान्दा...मोदन--- मारकर्मी रोय वा प्रकृतियाँ, चउतण : तनुचतुष्क उपधाय-उपघात, साहारणसाधारण, इमर-इतर.. प्रत्येक, जोय सिगं- उद्योतत्रिक, पुगलविवागि---पुद्गल विपाकी, बंधो-धंध, पयावह - प्रकृति और स्थितिबंध, रसपएस -- रसबंध और प्रदेशमंत्र, सि- इस प्रकार । गाधार्थ-नामकर्म की ध्रुवोदयी बारह प्रकृतियां, शरीर चतुष्क, उपघात, साधारण, प्रत्येक, उद्योतविक ये छत्तीस प्रकृतियां पुद्गल विपाकी हैं। प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, रसबंध और प्रदेशबंध ये बंघ के चार भेद हैं। विशेषापं - गाथा में पुद्गल विपाकी प्रकृतियों को बताने के अलावा बंध के चार भेदों को बतलाया है । जिनमें आगे की गाथाओं में भूयस्कार बंध आदि विशेषताओं का वर्णन किया जाने वाला है। सर्वप्रथम पुद्गलविपाकी प्रकृतियों को गिनाया है कि 'नामधुवोदय "पुग्गल विवागि' नामकर्म की बारह ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां (निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क) तथा तनुचतुष्क (तंजस, कार्मण शरीर को छोड़ कर औदारिक आदि तीन शरीर, तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन), उपघात, साधारण, प्रत्येक, उद्योतनिक (उद्योत, आतप, पराघात) ये प्रकृतियां पुद्गलविपाकी हैं । जिनकी कुल संख्या छत्तीस है। उक्त प्रकृतियां शरीर रूप में परिणत हुए पुद्गल परमाणुओं में ही अपना फल देती हैं, अतः पुद्गलविपाकी हैं । जैसे कि निर्माण नामकर्म के उदय से शरीर रूप परिणत पुद्गल परमाणुओं में अंग-उपांग का नियमन होता है। स्थिर नामकर्म के उदय से दांत आदि स्थिर तथा अस्थिर नामकर्म के उदय से जीभ आदि अस्थिर होते हैं । शुभ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक नामकर्म के उदय स मस्तक आदि शुभ और अशुभ नामकर्म के उदय से पैर आदि अशुभ अवयव कहलाते है। शरीर नामकर्म के उदय स ग्रहीत पुद्गल शरीर रूप बनते हैं और अंगोपांग नाम-कर्म के द्वारा शरीर में अंग-उपांग का विभाग होता है। संस्थान नामकर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है और संहनन नामकर्म के उदय से हड्डियों का बन्धनविशेष होता है । इसी प्रकार उपघात, साधारण, प्रत्येक आदि प्रकृतियां भी शरीर रूप परिणत पुद्गलों में अपना फल देती हैं। इसीलिये निर्माण आदि पराघात पर्यन्त छत्तीस प्रकृतियां पुद्गल विपाकी हैं।' इस प्रकार से क्षेत्र, जीव, भव, पुद्गल विपाकी प्रकृतियों को बतलाने के बाद अब कुछ प्रकृतियों के विषाक भेदों के बारे में विशेष स्पष्टीकरण करते हैं। यद्यपि सभी कर्मप्रकृतियां जीव में कर्तृत्व और भोक्तृत्व शक्ति होने के कारण किसी न किसी रूप में जीव में ही अपना फल देती है । जैसे आयुकर्म का भवधारण रूप विपाक जीव में हो होता है, क्योंकि आयुकर्म का उदय होने पर जीव को ही भव धारण करना पड़ता है और क्षेत्रविपाकी आनुपूर्वी कर्म भी श्रेणि के अनुसार गमन ६ गो० कर्मका गा० ४७-४६ में भी विपाकी प्रकृतियों को गिनाया है । दोनों में इतना अंतर है कि कर्मकांड में पुद्गल विपाकी प्रकृतियों की संख्या ६२ बतलाई है और कर्मग्रन्थ में २६ । इस अंतर का कारण यह है कि कर्मग्रन्थ में बंधन और संघात प्रकृतियों को छोड़ दिया है और वर्णचतुष्क के सिर्फ मूल ४ मेद लिने हैं, उत्तर २० भेद नहीं लिये हैं। इस प्रकार १०+१६ -- २६ प्रकृतियों को कम करने से ६२--२६-३६ प्रकृतियां शेष रहती हैं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम क्रर्मग्रन्थ करने रूप जीव के स्वभाव को स्थिर रखता है। पुद्गलवियाको प्रकृ. तियां जीव में ऐसी शक्ति पैदा करती है कि जिससे जीव अमुक प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है । तथापि क्षविपाकी आदि प्रकृतियां क्षेन्न आदि की मुख्यता, विशेषता से अपना फल देने के कारण क्षेत्रविपाकी, जीवत्रिपाकी आदि कहलाती हैं। लेकिन कुछ प्रकृतियों के वर्गीकरण को लेकर जिज्ञासु के प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया जाता है। रति-अति मोहनीय संबधी स्पष्टीकरण रति और अरति मोहनीय कर्म जीवविपाकी है। लेकिन इस पर जिज्ञासु प्रश्न करता है कि उ दोनो प्रकृतियों का उदय पद्गलों के आश्रय से होने के कारण पुद्गलविपाकी है। कंटकादि अनिष्ट पुद्गला के संसर्ग से अरति का विपाकोदय और पुष्पमाला, चन्दन आदि इष्ट पदार्थों के संयोग स रति मोहनीय का उदय होता है। इस प्रकार पुद्गल के संबध से दोनों का उदय होने से उनको पुदगलविपाको मानना चाहिये । जीवविपाकी कहना योग्य नहीं है । इसका समाधान यह है कि पुद्गल के संबंध के बिना भी इनका उदय होता है। क्योंकि कंटकादि के संबंध के बिना भी प्रिय, अप्रिय वस्तु के दर्शन-स्मरण आदि के द्वारा रति-अरति के विपाकोदय का अनुभव होता है। पुद्गलविपाकी तो उसे कहते हैं जिसका उदय पुद्गल के संबंध के बिना होता ही नहीं है। लेकिन रति और अरति का उदय जैसे पुद्गलों के संसर्ग से होता है, वैसे ही उनके संसर्ग के बिना भी होता है । अतः रति और अति को पुद्गल के संयोग के बिना भी १ संपप्प जीयकाले उदय कानो न जंति पगईओ। एवमिणमोहहे भासज्ज विमेमवं नन्थि ।। -- पंचसंग्रह |४६ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० शतक उदय में आने के कारण जीवविपाकी माना गया है, न कि पुदगलविपाकी | इसी प्रकार क्रोध आदि कषायों को भी जीवविपाकी समझना चाहिये कि तिरस्कार करने वाले शब्दों जो कि पौद्गलिक हैं, को सुनकर जैसे क्रोध आदि का उदय होता है वैसे ही पुद्गलों का संबंध हुए बिना स्मरण आदि के द्वारा भी उनका उदय होता है । अतः क्रोध आदि कषायें पुद्गलविपाकी न होकर जीवविपाकी हैं। गति नामकर्म संबंधी स्पष्टोकरण गति नामकर्म जीव विपाकी है। इस पर जिजास प्रश्न करता है कि जैसे आयुकर्म जिस भव की आयु का बंध किया हो, उसी भव में उसका उदय होता है अन्यत्र नहीं। वैसे ही गति नामकर्म का भी अपने-अपने भय में उदय होता है। अपने भव के सिवाय अन्य भव में उसका उदय नहीं होता है। अतः आयुकर्म की तरह गति नामकर्म को भी भावविपाकी मानना युक्तिसंगत है । इसका उत्तर यह है कि आयुकर्म और गति नामकर्म के विपाक में अन्तर है। क्योंकि जिस भव की आयु का बंध किया हो, उसके सिवाय अन्य किसी भी भव में विपाकोदय द्वारा उसका उदय नहीं होता है। स्तिबुकसंक्रम द्वारा भी उदय नहीं होता है। जैसे कि मनुष्यायु का उदय मनुष्य भव में ही होता है, इतर भव में नहीं । अतः अपने उदय के लिये स्व-निश्चित भव के साथ अव्यभिचारी होने से आयुकर्म भवविपाकी माना जाता है यानी किसी भी भव के योग्य आयुकर्म का बंध हो जाने के पश्चात् जीव को उसी भव में अवश्य जन्म लेना पड़ता है । किन्तु गति नामकर्म के उदय के लिये यह बात नहीं है। क्योंकि अपने भव के बिना भी अन्य भव में स्तिबुकसंक्रम Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ द्वारा उदय होता है । अर्थात् विभिन्न परभवों के योग्य बांधी हुई गतियों का उस ही भव में संक्रमण आदि द्वारा उदय हो सकता है। जैसे कि चरम शरीरी जीव के परभव के योग्य बांधी हुई गतियां उसी भव में क्षय हो जाती हैं । अतः गति नामकर्म भव का नियामक नहीं होने से भवविपाकी नहीं है । तात्पर्य यह है कि स्वभब में ही उदय होने से आयुकर्म भवविपाकी है और गति नामकर्म अपने भव में विपाकोदय द्वारा और परभव में स्तिबुकसंक्रम द्वारा इस प्रकार, स्व और पर दोनों भवों में उदय मंभव होने से भवविपाकी नहीं है। आनुपूर्वो कर्मसम्बन्धो स्पष्टीकरण ___ आनुपूर्वी कर्म क्षेत्रविपाकी है । लेकिन यहां जिज्ञासु प्रश्न उपस्थित करता है कि विग्रहाति के विका को संप्रम के द्वारा जानुपूर्वी का उदय होता है अतः उसे क्षेत्रविपाकी न मानकर गति की तरह जीवविपाकी माना जाना चाहिये । इसका उत्तर यह है कि आनुपूर्थियों का स्वयोग्य क्षेत्र के सिवाय अन्यन्त्र भी संक्रमण द्वारा उदय होने पर भी जैसे उसका क्षेत्र की प्रधानता से बिपाक होता है, वैसा अन्य किसी भी प्रकृति का नहीं होता है । इसलिये आनुपुवियों के रसोदय में आकाश प्रदेश रूप क्षेत्र असाधारण हेतु है । जिससे उसको क्षेत्रविपाकी माना गया है। प्रकृतियों के क्षेत्रविपाकी आदि भेदों का प्रदर्शक यंत्र इस प्रकार Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R कर्म प्रकृति मोघ १२२ ज्ञाना० ५ दर्शना० ६ वेदनीय २ मोहनीय २८ आयु ४ नाम ६७ गोत्र २ अंतराय ५ कर्म प्रकृतियों के क्षेत्रविपाको आदि मेव क्षेत्रविपाकी भवविपाकी जीवविपाकी पुद्गल विपाकी ४ ० 0 * • O ० o Q ७८ ५ 2 ક્ २८ ܘܐ २ शतक ' ३६ ទេ 0 ३६ बंध के भेद और उनके लक्षण इस प्रकार से ध्रुवबंधी आदि पुद्गलविपाकी पर्यन्त सोलह वर्गी में प्रकृतियों का वर्गीकरण करने के पश्चात प्रकृतिबंध आदि का वर्णन करने के लिये सबसे पहले बंध के भेद बतलाते है कि 'बंधो पइयठिइरसपएस नि' प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश ये बंध के चार भेद हैं । जिनके लक्षण नीचे लिखे अनुसार हैं आत्मा और कर्म परमाणुओं के संबंधविशेष को अथवा आत्मा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ और कर्मप्रदेशों के एक क्षेत्रावगाह होने को बंध कहते हैं। आत्मा की राग पात्मक क्रिया से आकाश प्रदेशों में विद्यमान अनजानन्न कर्मपरमाणु चुम्बक की तरह आकर्षित होकर आत्मप्रदेशों से संश्लिष्ट हो जाते हैं । ये कर्म परमाणु रूप, रस, गंध और म्पर्श मुण वाले होने से पौद्गलिक हैं । जो पुद्गल कम रूप में परिणत होते हैं, वे अत्यन्त सूक्ष्म रज-धूलि के समान हैं, जिनको इन्द्रियां नहीं जान सकती हैं। किन्तु केवलज्ञानी अथवा परम अवधिज्ञानी अपने ज्ञान द्वारा उनको जान सकते हैं। ___जैसे कोई व्यक्ति शरीर में तेल लगाकर धुलि में लौटे तो बह धूलि उसके सर्वांग शरीर में चिपट जाती है, वैसे ही संसारावस्थापन जीत्र के आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दनन्हलनचलन होने से अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल परमाणुओं का आत्मप्रदेशा के साथ संबंध होने लगता है। जिस प्रकार अग्नि से संतप्त लोहे का गोला प्रति समय अपने सवांग से जल को खोंचता है, उसी प्रकार संसारी जीव अपनी योगप्रवृति द्वारा प्रतिक्षण कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता रहता है और दूधपानी ब अग्नि तथा गर्म लोहे के गोले का जैसा सम्बन्ध होता है, वैसा ही जीव और कम परमाणुओं का संबंध हो जाता है। इस प्रकार के संबंध को ही बंध कहते हैं। जीव द्वारा कर्मपुद्गलों के ग्रहण किये जाने पर यानी बंध होने पर उनमें चार अंशों का निर्माण होता है, जो बंध के प्रकार कहलाते हैं । जैसे कि गाय-भैस आदि द्वारा खाई गई घास आदि दूध रूप में परिणत होता है, तब उसमें मधुरता का स्वभाव निर्मित होता है, उस स्त्रभाव के अमुक समय तक उसी रूप में बने रहने की कालमर्यादा आती है, उस मधुरता में तीव्रता-मंदता आदि विशेषतायें भो होती है और उस दूध का कुछ परिमाण (वजन) भी होता है। इसी प्रकार Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव द्वारा ग्रहण किये गये और आत्मप्रदेशों के साथ संश्लिष्ट कर्मपुद्गलों में भी चार अंशों का निर्माण होता है, जिनको क्रमशः प्रकृतिबंध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध और प्रदेशबंध कहते हैं ।' उनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं (१) प्रकृतिमध-जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न शक्तियों स्वभावों के उत्पन्न होने को प्रकृतिबंध कहते हैं । यहां प्रकृति शब्द का अर्थ स्वभाव है । दूसरी परिभाषा के अनुसार स्थितिबंध, रसबंध और प्रदेशबंध के समुदाय को प्रकृतिबंध कहते हैं । अर्थात् प्रकृतिबंध कोई स्वतन्त्र बंध नहीं है किन्तु शेष तीन बंधों के समुदाय का ही नाम है। १ (क) चडबिहे बंधे पण्णते, तं जहा—पगबंधे, ठिइवघे, अणुभावबन्ने, पएसबंधे । -समवायर्याग, समवाय ४ (ख) प्रकृति स्थित्पनृभागप्रदेशास्तद्विधयः । -तत्वार्थमूत्रमा २. दिगम्बर साहित्य में प्रकृति शब्द का सिर्फ स्वभाव अर्थ माना हैप्रकृति स्वभावः, प्रकृति स्वभाव इत्यनर्थान्तरम् । -- तत्वार्थसूत्र ८१३ (सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक टीका) पयडी सील सहावो........ -गोकर्मकार ३ ३ ठिईबंधो दलम्स सिइ पएसबंधो पएसगहणं जं। नाम रसो अणुभागो तस्समुदाओ पगइबंधो । पंचसंपह ४३२ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि स्वभाव अर्थ में अनुभाग बंध का मतलब कर्म की फलजनक शस्ति को शुभाशुभता सपा तीव्रता-मदता से ही है, परन्तु मपुदाय अर्थ में अनुभाग बंध से कर्म को फलजनक शक्ति और उसकी शुभाशुभता तथा तीव्रता-मदता इतना अविवक्षित है। वेताम्बर साहित्य में प्रति पर के स्वपाव और समुदाय दोनों अर्थ ग्रहण किये गये हैं। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ११ स्थितिमान ... कीब के द्वारा महल लिये कर्म पुद्गलों में अपने स्वभाव को न त्यागकर जीव के साथ रहने के काल की मर्यादा को स्थितिबन्ध कहते है । (३) रसबंध- जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों में फल देने की न्यूनाधिक शक्ति के होने को रसबंध कहते हैं। रसबंध को अनुभागबंध' या अनुभावबंध भी कहते हैं। (४) प्रदेशसंघ-जीव के साथ न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्मस्कन्धों का संबन्ध होना प्रदेशबंध कहलाता है। सारांश यह है कि जीव के योग और कषाय रूप भावों का निमित्त पाकर जब कार्मण वर्गणायें कर्मरूप परिणत होती हैं तो उनमें चार बातें होती हैं, एक उनका स्वभाव, दूसरी स्थिति, तीसरी फल देने की शक्ति और चौथी अमुक परिमाण में उनका जीव के साथ सम्बन्ध होना | इन चार बातों को ही बंध के प्रकृति, स्थिति, रस, प्रदेश ये चार प्रकार कहते है। ___ इनमें से प्रकृतिबंध और प्रदेश बंध जीव की योगशक्ति पर तथा स्थिति और फल देने की शक्ति कषाय भावों पर निर्भर है।' अर्थात् योगशक्ति तीन या मन्द जैसी होगी, बंध को प्राप्त कर्म पुद्गलों का १ दिगम्बर साहित्य में अनुभाग बंध हो विशेषतया प्रचलित है। २ स्वभावः प्रकृति प्रोक्तः स्थितिः फासावधारणम् । अनुभागो रसो शेयः प्रदेशो दलसञ्चयः ।। -- स्वभाव को प्रकृति, काल की मर्यादा को स्थिति, अनुभाग को रस और दलों की संख्या को प्रदेश कहते हैं। ३ पडिपएसबंधा जोगेहि कमायओ इयरे । -पंचसंग्रह २०४ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ शतक स्वभाव और परिमाण भी वैसा ही तीव्र या मंत्र होगा। इसी प्रकार जीव के कषाय भाव जैसे तीव्र या मंद होंगे, बंध को प्राप्त परमाणुओं की स्थिति और फलदायक शक्ति भी वैसी ही तीव्र या मंद होगी । इसको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं जीव की योगशक्ति को हवा, कषाय को चिपकने वाली गोंद और कर्म परमाणुओं को धूलि मान लें। जैसे हवा के चलने पर धूलि के कण उड़-उड़ कर उन स्थानों पर जमा हो जाते हैं जहाँ कोई चिपकने वाली वस्तु गोंद आदि लगी होती है। इस प्रकार जीव के प्रत्येक शारीरिक, वाचक और क्रिया से कर्म पुद्गलों का आत्मा में आस्रव होता है जो जीव के संक्लेश परिणामों की सहायता पाकर आत्मा से बंध जाते हैं। हवा मंद या तीव्र जैसी होती है, धूलि उसी परिमाण में उड़ती है और गोंद वगैरह जितनी चिपकाने वाली होती है, धुलि भी उतनी ही स्थिरता के साथ वहाँ ठहर जाती है । इसी तरह योगशक्ति जितनी तीव्र होती है, आगत कर्म परमाणुओं की संख्या भी उतनी ही अधिक होती है तथा कषाय की तीव्रता के अनुरूप कर्म परमाणुओं में उतनी ही अधिक स्थिति और उतना ही अधिक अनुभाग का बंध होता है । प्रकृतिबंध आदि चारों बंधों के स्वरूप को समझाने के लिये प्रथम कर्मग्रन्थ में मोदक (लड्डुओं) का दृष्टांत दिया गया है ।" जिसका सारांश इस प्रकार है जैसे कि वातनाशक पदार्थों से बने हुए लड्डुओं का स्वभाव वायु को नाश करने का है, पित्तनाशक पदार्थों से बने हुए मोदक का स्वभाव पित्त को शान्त करने का और कफनाशक पदार्थों से बने मोदक का १ पटिइरस एसा तं चउहा मोयगस्थ दिता । - प्रथम कर्मग्रन्थ, गा० २ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ स्वभाव कफ को नष्ट करने का है । वैसे ही आत्मा के द्वारा ग्रहण किये गये कर्म पुद्गलों में से कुछ में आत्मा के ज्ञान गुण को घात करने की, कुछ में दर्शन गुण को आच्छादित करने की, कुछ में आत्मा के अनन्त सामर्थ्य को दबाने आदि की शक्तियां पैदा होती हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न कर्म पुद्गलों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रकृतियों के, शक्तियों के बंध को, स्वभावों के उत्पन्न होने को प्रकृतिबंध कहते हैं । उक्त लड्डुओं में से कुछ की एक सप्ताह, कुछ को पन्द्रह दिन आदि तक अपनी शक्ति स्वभाव रूप में बने रहने की कालमर्यादा होती है । इस कालमर्यादा को स्थिति कहते हैं। स्थिति के पूर्ण होने पर लड्डू अपने स्वभाव को छोड़ देते हैं, अर्थात् बिगड़ जाते हैं. नीरस हो जाते हैं । इसी प्रकार कोई कर्मदलिक आत्मा के साथ सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम तक, कोई बीस कोडाकोड़ी सागरोपम तक आदि रहते हैं । इस प्रकार भिन्न-भिन्न कर्म परमाणुओं में पृथक्-पृथक् स्थितियों का यानी अपने स्वभाव का त्याग न कर आत्मा के साथ बने रहने की काल मर्यादाओं का बन्ध होना स्थितिबंध कहलाता है । स्थिति के पूर्ण होने पर वे कर्म अपने स्वभाव का परित्याग कर देते हैं, यानी आत्मा से अलग हो जाते हैं। जैसे कुछ लड्डुओं में मधुर रस अधिक, कुछ में कम, कुछ में कटुक रस अधिक, कुछ में कम आदि इस प्रकार मधुर, कटुक रस आदि की न्यूनाधिकता देखी जाती है । इसी प्रकार कुछ कर्म परमाणुओं में शुभ या अशुभ रस अधिक, कुछ में कम, इस तरह विविध प्रकार के तीव्र, तीव्रतर, तीवतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम शुभ-अशुभ रसों का कर्मपुदगलों में उत्पन्न होना रसबंध है। कुछ लड्डुओं का वजन दो तोला, कुछ का छटांक आदि होता है । इसी प्रकार किन्ही कर्मस्कंधों के परमाणुओं की संख्या अधिक और Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ किन्ही की कम होती है। इस प्रकार के भिन्न-भिन्न कर्म परमाणुओं की संख्याओं से युक्त कर्मदलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध है । इस प्रकार से प्रकृतिबंध आदि चारों बंध प्रकारों का स्वरूप समझना चाहिए । अब आगे की गाथा में पहले एकतिबंध का वर्णन करते हुये मूल प्रकृतियों के बंध के स्थान और उनमें सूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य बंधों को बतलाते हैं । मूल प्रकृतियों के भूयस्कार आदि बंध I मूलपयडीण अट्टसस ंगबंधंसु तिथि भूगारा । अध्यतरा तिय चजशे अवट्टिया ण हू अवत्तब्बो ||२२|| शब्दार्थ - मूलपयढीण मूल प्रकृतियों के अट्टसराछेग बंधेसु माठ, सात, छह और एक के बंधस्थान में, तिनि-तीन, भूगाराभूयस्कार बंध अध्पतरा1- अल्पतर बंध, लिप- तीन, चउरो चार, अट्टिया - अवस्थित बघ, ण हु-नहीं, अवत्तव्यो - अवक्तव्य बध । शतक - गाथार्थ - मूल प्रकृतियों के आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और एक प्रकृतिक बंध स्थानों में तीन भूयस्कार बंध होते हैं । अल्पतर बंध तीन और अवस्थित बंध चार होते हैं । अवक्तव्य बंध नहीं होता है । विशेवार्थ - गाथा में मूल कर्म प्रकृतियों के बंधस्थानों को बतलाने के साथ-साथ उनके भूयस्कार आदि बंधों की संख्या का कथन किया है । कर्मों का बंध होता है, उनके बंघस्थान का विचार मूल किया जाता है। कर्म के ज्ञाना वरण, दर्शनावरण आदि आठ मूल भेद हैं और उनकी बंध प्रकृतियाँ एक समय में एक जीव के जितने समूह को एक बंघस्थान कहते हैं और उनकी उत्तर प्रकृतियों दोनों में । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचप कर्मग्रन्थ एक सौ बीस है। इस गाथा में सिर्फ मूल प्रकृतियों में बंधस्थान असलाये हैं। __ सामान्य तौर पर प्रत्येक जीव आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों का प्रत्येक समय बंध करते हैं। क्योंकि आयुकर्म का बंध प्रतिसमय न होकर नियत समय पर होता है । अतः आयु कर्म के बंध के नियत समय के अलावा सात कर्मों का बंध होता ही रहता है। जब कोई जीव आयुकर्म का भी बंध करता है तब उसके आठ कर्मों का बंध होता है । इस प्रकार से सात और आठ दो बंधस्थानों को समझना चाहिये। दसबै गुणस्थान में पहुँचने पर आयु और मोहनीय कर्मों के सिवाय शेष छह कमों का ही बंध होता है | क्योंकि अस्युकर्म का बंध सातवें गुणस्थान तक ही होता है और मोहनीय का बंध नौवे गुणस्थान तक ही। दसवें गुणस्थान से आगे ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में सिर्फ एक साता वेदनीय का बंध होता है । ' शेष कर्मों के बंध का निरोध दसवें गुणस्थान में हो जाता है। यह छह और एक कर्मबंध के स्थान के बारे में स्पष्टीकरण किया गया है। उक्त कथन का सारांश यह है कि मूल कर्म प्रकृतियों के चार बंधस्थान हैं- आठ प्रकृति का, सात प्रकृति का, छह प्रकृति का, एक प्रकृति जा अपमत्तो सत्तटबंधगा सुहम छाहमेगस्त । उवसंतखीणजोगी सत्तण्ह नियट्टी मोस अनियट्टी। .-पंच पंचह २०६ - अप्रमत्त गुणस्थान तक सात या आठ कर्मों का बन्ध होता है । सूमसंपराय गुणस्थान में छह कर्मों का और उपशान्तमोह, क्षीणमोह एवं सयोगि केवली गुणस्पान में एक वेदनीय कर्म का बंध होता है । लिसिकरण, मिश्र और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में आयु के बिना सात कर्मों का ही बंघ होता है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० का । अर्थात् कोई जीव एक समय में आठों कर्म का कोई सात कर्मों का, कोई छह कर्मों का और कोई जीव एक समय में एक प्रकृति का ही बंध करता है। इसके सिवाय ऐसी कोई स्थिति नहीं जहां एक साथ दो या तीन या चार या पांच कर्मों का बंध होता हो । शतक इन चार बंधस्थानों में 'तिन्नि भूगारा' तीन भूयस्कार, 'अप्पतरा तिय' तीन अल्पतर और 'चउरो अवट्टिया' चार अवस्थित बंध होते हैं किन्तु 'ण हु अवत्तन्वो' अवक्तव्य बंध नहीं होता है ।" इनका स्पष्टीकरण यहां किया जा रहा है। भूयस्कार अघ पहले समय में कम प्रकृतियों का बंध करके दूसरे समय में उससे अधिक कर्म प्रकृतियों के बन्ध को भूयस्कार बंध कहते हैं। मूल प्रकृतियों में इस प्रकार के बंध तीन हो होते है, जो इस प्रकार हैं कोई जीव ग्यारहवें — उपशान्तमोह गुणस्थान में एक साता वेदनीय का बंध' करके वहां से गिरकर जब दसवें गुणस्थान में आता है तब वहां छह कमों का बंध करता है। यह पहला भूयस्कार बंध है । वही जीव दसवें गुणस्थान से च्युत होकर जब नीचे के गुणस्थानों में आता है तब वहां सात कर्मों का बंध करता है । यह दूसरा भूयस्कार बन्ध १ गो० कर्मकांड में भी मूल प्रकृतियों के बंधस्थान और उनमें भूयस्कार जिसे वहा भुजाकार कहा है, आदि बन्ध इस प्रकार बतलाये हैं-चलारि निणितिय चड पर्याडिदुणाणि मूलपयडीणं । भृजगारपवराणि य अवद्विवाणिवि कसे होंति || -गो० कर्मकांड ४५३ स्थान चार है, इन स्थानों में भुजाकार, अल्पतर प्रकार के बन्ध होने हैं । 'य' शब्द से चौथा किन्तु यह चौथा बन्ध मूल प्रकृतियों में - मूल प्रकृतियों के और अवस्थित ये तीन अवक्तव्य बन्ध समझना चाहिये नहीं होता है 1 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ है। वही जीव आयुकर्म का बंध काल आने पर जब आठों कर्मों का बंध करता है तब तीसरा भूयस्कार बंध होता है। इस प्रकार एक से छह. छह से सात और सात से आठ कर्मों का बंध होने के कारण चार बंधस्थानों में भूयस्कार बंध तीन होते हैं। उक्त चार बंधस्थानों में इन तीन भूयस्कार बंधों के सिवाय विकल्प से अन्य तीन भूयस्कर बंधों की कल्पना की जाये सो वे संभव नहीं हैं । विकल्प से अन्य तीन भूयस्कार बन्धों की कल्पना इस प्रकार की जाती है- पहला एक को बांध कर सात कर्मों का बंध करना, दूसरा-एक को बांध कर आठ कमां का बंध करना, तीसरा-छह को बांधकर आठ कर्मों का बंध करना। इन तीन भूयस्कार बंधों के विकल्पों में से आदि के दो भूयस्कार बंध दो तरह से हो सकते हैं—१. गिरने की अपेक्षा से, २. मरण की अपेक्षा से। किन्तु गिरने की अपेक्षा से आदि के दो भूयस्कार बंध इसलिये नहीं हो सकते हैं कि ग्यारहवं गुणस्थान से पतन क्रमशः होता है, अक्रम से नहीं होता है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर जीव दसवें गुणस्थान में आता है और दसवें से नौवें में आता है आदि। यदि जीव म्यारहवें गुणस्थान से गिरकर सीधा नौर्वे में या सात गुणस्थान में आता है तो एक को बांध कर सात का या आठ कर्मों का बंध कर सकने से पहला, दूसरा भुयस्कार बंध बन सकता था । किन्तु पतनः क्रमशः होता है अतः ये दो भूयस्कार बंध पतन की अपेक्षा तो बन नहीं सकते हैं। इसी प्रकार छह को बांधकर आठ कर्मों का बन्ध रूप तीसरा भूयस्कार बंध भी नहीं बनता है क्योंकि छह कर्मों का बंध दसवें गुणस्थान में होता है और आठ कर्मों का बंध सातवें और उसके नीचे के गुणस्थान में होता है । यदि जीव दसवें गणस्थान से एकदम सात गुणस्थान में आ सकता तो वह छह को बांध कर आठ का बन्ध कर सकता था, किन्तु पतन क्रमशः होता है अर्थात् Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गानक दसवें गुणस्थान से गिरकर जीव नौवें गुणस्थान में ही आता है, जिससे तीसरा भूयस्कार बन्ध भी नहीं बन सकता है। उक्त कथन का सारांश यह है कि ऊपर के गुणस्थान से पतन एकदम न होकर क्रमशः ग्यारहवें, दसवें, नौवे आदि में होता है, अतः पतन की अपेक्षा एक को बांधकर सात का बन्ध करना, एक को बांध. कर आठ कर्मों का बन्ध करना, छह को बांधकर आठ कर्मों का बन्ध करना यह तीनों भूयस्कार बंध नहीं बनते हैं। अब रहा मरण की अपेक्षा आदि के दो भूयस्कार बंधों का हो सकना । सो ग्यारह स्थान में जा करके बीच गति में है जन्म लेता है। और वहां बह सात ही कर्मों का बंध करता है, क्योंकि देवगति में छह मास की आसु शेष रहने पर ही आयु का बन्ध होता है। अतः मरण की अपेक्षा से एक का बन्ध करके आठ का बन्ध कर सकना संभव नहीं है। इसलिये यह भूयस्कार बंध नहीं हो सकता है। किन्तु एक को बांधकर सात का बंध रूप भूयस्कार संभव है, लेकिन उसके बारे में यह ज्ञातव्य है कि जो एक को बांधकर सात कर्मी का बन्ध करता है तो बन्धस्थान सात का ही रहता है, इसलिये उसको जुदा नहीं गिना जाता है। यदि बंधस्थान का भेद होता तो १ बदाऊ पडिवानो सेटिंगओ व पसंतमोहो बा । जह कुणइ कोइ कालं वच्चइ तोऽणुत्तरसुरसु ।। -विशेषावश्यक भाष्य १३११ यदि कोई बद्धासु जीव उपशम श्रेणि बढ़ता है और श्रेणि के मध्य के किसी गुणस्थान में अथवा ग्यारहवें गुणस्थान में यदि मरण करता है तो नियम से अनुत्तरवासी देवों में उत्पन्न होता है। २ तेनो उत्तर कहे छ के जो पण एक बंध थ्री सातकर्म बंध करे तो पण बंधस्थानक सासनु एकज छे ते मणी जुदो न लेयो, बन्धस्थामकनो भेद होय तो जुको भूयस्कार मेखवाय । - पंचम कर्मप्रभ्य का टम्टा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्थ भूयस्कार भी अलग से माना जाता। इसका आशय यह है कि उक्त तीन भूयस्कारों में छह को बांधकर सात का बंघरूप एक भूयस्कार बतला आये हैं । एक को बंध कर सात के बन्ध रूप सात का ही स्थान होता है अतः उसे पृथक नहीं इस प्रकार उपशम श्रेणि से उतरने पर तीन ही भूयस्कार बन्ध होते हैं । भूयस्कार में भी गिनाया गया है । ६३ अल्पतर बन्ध भूयस्कार बन्ध से नितान्त उलटा अल्पतर बंध होता है। अधिक कर्मों का बंध करके कम कर्मों के बंध करने को अल्पतर बंध कहते हैं । अल्पतर बंध भी भूयस्कार बंध की तरह तीन ही होते हैं। वे इस प्रकार हैं आयु कर्म के बंध काल में आठ कर्मों का बंध करके जब जीव सात कर्मों का बंध करता है तब पहला अल्पतर बंध होता है। नौवें गुणस्थान में सात कर्मों का बंध करके दसवें गुणस्थान के प्रथम समय में जब जीव मोहनीय के बिना शेष छह कर्मों का बंध करता है तब दूसरा अल्पतर बंध होता है तथा दसर्वे गुणस्थान में छह कर्मों का बंध करके ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थान में एक कर्म का बंध करता है तब तीसरा अल्पतर बंध होता है । यहाँ भी आठ का बंध करके छह तथा एक का बंध रूप तथा सात का बंध करके एक का बंध रूप अल्पतर बंध नहीं हो सकते हैं। क्योंकि अप्रमत्त और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से जीव एकदम ग्यारहवें गुणस्थान में नहीं जा सकता है और न अप्रमत्त से एकदम दसवें गुणस्थान में जाता है। अतः अल्पतर बंध भी तीन ही जानना चाहिए । भूयस्कार और अल्पतर बंधों में इतना अन्तर है कि गुणस्थान में पतन के समय भूयस्कार बंध और आरोहण के समय अल्पतर बन्ध होते हैं । लेकिन गुणस्थानों में आरोहण और अवरोहण क्रम-क्रम से Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातम . होता है, एकदम नहीं, अतः दोनों बंधों के तीन-तीन भेद होते हैं । अन्य विकल्पों की हार नहीं है : मूल कर्मों में भूयस्कार और अल्पतर बंधों का कथन करने के पश्चात अब अवस्थित बंध को कहते हैं । अवस्थित बन्ध पहले समय में जितने कर्मों का बंध किया है, दूसरे समय में भी उतने ही कमों के बंध करने को अवस्थित बंध कहते हैं। अर्थात् आठ को बांध कर आठ का, सात को बांध कर सात का, छह को बांध कर छह का और एक को बांध कर एक का बंध करने को अवस्थित बंध कहते हैं | बंधस्थान चार हैं, अतः अवस्थित बंध भी चार होते हैं। अवक्तव्य बन्ध ___ एक भी कर्म को न बांधकर पुनः कर्म बंध को अवक्तव्य बंध कहते हैं । यह बंध मूल कर्मों के बंधस्थानों में नहीं होता है । क्योंकि तेरहवें गुणस्थान तक तो बराबर कर्मबंध होता रहता है लेकिन चौदहवें गुणस्थान में ही किसी कर्म का बंध नहीं होता है और चौदहवें मुणस्थान में पहुँचने के बाद जीव लौटकर नीचे के गुणस्थान में नहीं आता है जिससे एक भी कर्म का बन्ध नहीं करने से पुनः कर्मबंध करने का अबसर ही नहीं आता है । इसीलिये मूल कम प्रकृतियों में अवक्तव्य बंध भी नहीं होता है।' इस प्रकार से मूल कर्म प्रकृतियों में बंधस्थानों और उनके भयस्कार आदि बन्धों को बतलाने के बाद अब आगे की गाथा में भूयस्कार आदि बंधों के लक्षणों को कहते हैं । भूयस्कार आदि बंधों के लक्षण एगादहिगे भूओ एमाईगरि अप्पतरो: तम्मत्तोश्वद्विगओ अहमे समए अबतको ॥२६॥ १ अम्बंधगो न बंबई इइ अश्वत्तो अओ नदिध । --पंचसंग्रह २२० Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम क्रमप्रन्थ शब्दार्थ--एगावलिगे – एका दि अधिक प्रकृतियों का बंध होने से, मो-- भूपस्कार बंध, एगाईऊणम्मि --एकाटि प्रकृल के द्वारा हीन बध होन से, अप्पतरो- अल्पत ध, तम्मसो - उतनी प्रकृतियों का बंध होने से, अवटिपओ--अवस्थित बध, पढमेसमएअबन्धक होने के बाद पुनर्बन्ध के पहले समय में, अवत्तयोअवक्तव्य बन्ध। गाथार्थ-एकादि अधिक प्रकृतियां का बन्ध होने से भूयस्कार बन्ध होता है । एकादि प्रकृतियो के द्वारा हीन बंध होने पर अल्पतर बन्ध और उतनी ही प्रकृतियों का बन्ध होग से अवस्थित बन्ध होता है तथा नाक होने के या पुनः बंध के पहले समय में बन्ध हो, उसे अवक्तव्य बंध कहते हैं। विशेषार्ग-गाथा में भयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य बंध के लक्षण बतलाये हैं। भवस्कार बंध का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि--गादहिगे भूओ'–एक, दो आदि अधिक प्रकृतियों के बांधने पर भूवस्कार बंध होता है । अर्थात् जैसे एक को वाँधकर छह को बांधना, छह को बांध. कर सात को बाँधना और सात को बांधकर आठ को बांधना भूयस्कार बंध है। लेकिन अल्पतर बंध भूवस्कार बंध से उलटा है। यानी 'एगाईऊणगम्मि अप्पतरो'-एक, दो आदि हीन प्रकृतियों का बंध करने पर अल्पतर बंध होता है । अर्थात् जैसे आठ को बांधकर सात को बांधना, सात को बांधकर छह को बांधना और छह को बांधकर एक को बांधना अल्पतर वन्ध कहलाता है । अवस्थित बंध उस कहते है .. तम्मतो बांद्वयओ-- जिसम प्रतिसमय समान प्रकृतियों का बंध हो अधौत पहले समय में जिनने कमी का बन्ध किया हो, आगे के समयों में भी उतने ही कर्मों का बन्ध Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शवक ** करना अवस्थित बन्ध कहलाता है । जैसे आठ कर्म को बांधकर आठ का, सात को बांधकर सात का छह को बांधकर छह का, एक को बांधकर एक का बन्ध करना अवस्थित बन्ध है और किसी भी कर्म का बन्ध न करके पुनः कर्म बन्ध करने पर पहले समय में अवक्तव्य बन्ध होता है- 'पढमे समए अवत्तव्वो ।' भूमस्कार आणि बंधों विषयक विशेष स्पष्टीकरण भूयस्कार आदि उक्त चार प्रकार के बंधों के संबन्ध में यह विशेष जानना चाहिए कि भुयस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बन्ध केवल पहले समय में ही होते हैं और अवस्थित बंध द्वितीय आदि समयों में होता है । जैसे कोई छह कर्मों का बंध करके सात का बंध करता है तो यह भूयस्कार बंध है लेकिन दूसरे समय में यही भूमस्कार नहीं हो सकता है क्योंकि प्रथम समय में सात का बंध करके यदि दूसरे समय में आठ का बंध करता है तो भूयस्कार बदल जाता है और छह कर्म का बंध करता है तो अल्पतर हो जाता है तथा सात का करता है तो अवस्थित हो जाता है । - उक्त कथन का सारांश यह है कि प्रकृतिसंख्या में परिवर्तन हुए बिना अधिक बाँधकर कम बांधना, कम बांधकर अधिक बांधना और कुछ भी न बांधकर पुनः बांधना केवल एक बार ही संभव है, जबकि पहली बार बांधे हुए कर्मों के बराबर पुनः उतने ही कर्मों को बांधना पुनः संभव है । अतः एक ही अवस्थित बन्ध लगातार कई समय तक हो सकता है, किन्तु शेष तीन बंधों में यह संभव नहीं है । इस प्रकार के भूयस्कार आदि बंधों के लक्षण और मूल कर्मों में उनकी होने वाली संख्या बतलाकर उत्तर प्रकृतियों में विशेष रूप से कथन करने के पूर्व सामान्य से उत्तर प्रकृतियों में भूयस्कार आदि चारों बंधों को स्पष्ट करते हैं । सामान्य से उत्तर प्रकृतियों के उनतीस बंधस्थान होते हैं । जो Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य ६३ इस प्रकार हैं- एक, सुवह अठारह उन्नीस, बीस, इक्कीस, बाईन, छब्बीस, तिरेपन, चीन, पतपन छप्पन सुनावन अदावन, उनसठ. साठ, इकसठ, तिरेसठ, चौसठ, पंसठ, छियासठ सड़सठ, अड़सठ, उनहत्तर, सत्तर, इकहत्तर, बहत्तर, तिहत्तर और चौहत्तर । ये उनतीस बंधस्थान हैं, जिनमें भूस्कार बन्ध अट्ठाईस होते हैं। जो इस प्रकार हैं- उपशान्तमोह गुणस्थान में एक वेदनीय का बंध कर गिरते समय दसवें गुणस्थान में ज्ञानावरण पांच, दर्शनावरण चार, अंतराय यांच उच्च गोल और यशः कीर्ति के साथ वेदनीय का बन्ध करने से सतह प्रकृति के बंध से प्रथम समय में पहला भूयस्कार बंध होता है । दसवें गुणस्थान से पतित होने पर नौवें गुणस्थान में संञ्चालन लोभ के साथ अठारह प्रकृति का बंध करने पर दूसरा भूयस्कार बंध होता है। संज्वलन माया के साथ उन्नीस प्रकृतियों को बांधने से तीसरा भूयस्कार बन्ध और संज्वलन मान के साथ बीस को बांधने से चौथा भूयस्कार बन्ध, संज्वलन क्रोध के साथ इक्कीस का बंध करने से पांचवां भूयस्कार बंध तथा पुरुष वेद के साथ बाईल का बंध करने से छठा भूयम्कार और उसके साथ हाम्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों का अधिक बन्ध करने से अपूर्वकरण के सातवें भाग में छब्बीस का बंध करने से सातवां भूयस्कार बन्ध होता है। उसके मध्य आठवें गुणस्थान के छठे भाग में देवप्रायोग्य नामकर्म की सत्ताईस प्रकृतियों का बंध करने से तिरेपन का बंध, यह आठवां भूयस्कार, पुनः तीर्थंकर नामकर्म सहित देवप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर चौवन के वंध का नौवां भूयस्कार बन्ध तथा आहारकनिक सहित तीस का बंध करने से पचपन का बंध करने पर दसवां भूयस्कार और इन पचपन को तीर्थंकर नामकर्म सहित बांधने से छप्पन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक का बंध होने से ग्यारहवां भूयस्कार, अपूर्वकरण के प्रथम भाग में छप्पन को जिन नामकर्म रहित तथा निद्रा और प्रचला सहित बांधने से सत्तावन के बंध में बारहवां भूयस्कार तथा जिननाम सहित अट्ठावन का बंध होने पर तेरहवां भूयस्कार, अप्रमत्त गुणस्थान में उक्त अट्टावन को दवायु सहित उनसठ का बंध करने पर चौदहवां भूयस्कार, देशविरति गुणस्थान में देवप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करने के साथ ज्ञानावरण पांच, दर्शनावरण छह, वेदनीय एक, मोहनीय तेरह, देवायु एक, नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां, गोन्न की एक और अंतराय की पांच, इस प्रकार साठ प्रकृतियों के बांधने से पन्द्रहवां भूयस्कार, इन साठ के साथ तीर्थकर, नाम का भी बंध करने से इकसर के बंध का सोलहवां भूयस्कार, (यहां किसी भी तरह एक जोत्र को एक समय में बासठ प्रकृतियों का बंध संभव नहीं, अतः उसका भूयस्कार भी नहीं कहा है |) चौथे गुणस्थान में आयू के अबन्धकाल में देवप्रायोग्य नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर ज्ञानावरण की पांच, दर्शनाबरण की छह, वेदनीय की एक, मोहनीय की सत्रह, गोत्र की एक, नामकर्म की अट्ठाईस और अंतराय की पाँच हुन तिरेसठ प्रकृतियों का बंध करने से मत्रहवाँ भूयस्कार, देवायु के बंध के साथ चौसठ प्रकृतियों को बांधने से अठाहरवां भूयस्कार, जिन नामकर्म सहित पेंसठ को बांधने पर उन्नीसवाँ भूयस्कार, चौथे गृणस्थान में देव हो और उसके द्वारा मनुष्यप्रायोग्य तीस प्रकृतियों के बांधने पर घ्यिामठ के बंध में बीसवां भूयस्कार. मिथ्यात्व गुणस्थान में ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ, वेदनीय की एक, मोहनीय की बाईस, आयु की एक, नाम की तेईस, गोत्र की एक और अंतराव. की पांच, इन सड़सठ प्रकृतियों का वैध करने पर इक्कीसवां भयस्कार, इनमें नामकर्म की पच्चीस और आयु रहित अड़सठ के बांधने पर Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मपन्य बाईसवां भूयस्कार, आयु सहित उनहत्तर का बंध करने से तेईसवां भयस्कार तथा नामकर्म की छब्बीस प्रकृतियों के माथ सत्तर प्रकृतियों को बांघने से चौबीसवां भयस्कार तथा आयु रहित और नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों के साथ इकहत्तर को बांधने पर पच्चीसवां भूयस्कार, नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों के साथ बहत्तर के बंध में छब्बीसवां भूयस्कार, आयु सहित तिहत्तर का बंध करने पर सताईसवां भूयस्कार और नामकर्म की तीस बांधते ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ, बेदनीय की एक, मोहनीय की बाईस, आयु की एक, नाम को तीस, गोन की एक और अंतराय की पांच, इस प्रकार चौहत्तर का बंध करने से अट्ठाईसवां भूयस्कार होता है। यहां प्रकारान्तर से अनेक बंधस्थानक संभव हैं, जिनका स्वयं विचार कर लेना चाहिए। इसी प्रकार से अट्ठाईस अल्पतर बंध भी विपरीतपने (आरोहण) से होते हैं और अवस्थित बंध उनतीस समझना चाहिए । अवक्तव्य बंध संभव नहीं है। सर्व उत्तर प्रकृतियों का अबन्धक अयोगि गुणस्थान में जीव होता है, उस गुणस्थान से पतन नहीं होने के कारण अवक्तव्य बंध नहीं होता है । सामान्य से उत्तर प्रकृतियों में भूयस्कार आदि बंधों का कथन करने के बाद अब आगे की गाथाओं में प्रत्येक कर्म को उत्तर प्रकृतियों में बंधों को बतलाते हैं। उत्तर प्रकृतियों के भूयस्कार आदि बंध नव छचड़ दसे दुदु तिदु मोहे दु इगवीस सत्तरस । तेरस नव पण चउ ति दुइको नव अठ्ठ दस बुन्नि ॥२४॥ शब्दार्थ-नव-नौ प्रकृति का, छ–छह प्रकृति का, चउचार प्रकृति का बंधस्थान, वंसे -दर्शनावरण को उत्तर प्रकृतियों का, दु-दो भूमस्कार बंध, कु-दो अल्पतर बंध, ति-तीन Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातक अवस्थित बंध. दु-दो अवक्तव्य बंध, मोहे..-मोहनीय कर्म में, चुइगवीस-बाईस, इक्कीस प्रकृतियों का बधस्थान, सत्तरस - म वह प्रकृतियों का जन्मल्या, सेरस–नेरद प्रकृतियों का अब . नो का, पण - पांच का, च3 - बार का, ति–तीन का, दु-दो का, इको - एक प्रकृति का बंध्रस्थान, नव --नो भूयस्कार वध, अट्ठ-आठ अरन र बन्ध, वप्त - दस अवस्थित बंध, बुधि - दो अवक्तव्य बंन । गाथार्थ - दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के नौ, छह और चार प्रकृतियों के तीन बंधस्थान हैं और उनमें दो भूयस्कार, दो अल्पतर, तीन अवस्थित और दो अवक्तव्य बंध होते हैं । मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बाईस, इक्कीस, सत्रह, तरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति रूप दस बंधस्थान होते हैं तथा उनमें नो भूयस्कार, आठ अल्पतर, दस अवस्थित और दो अवक्तव्य बंध होते हैं। विशेषायं-मूल कर्मप्रकृतियों के बंधस्थान और उनमें भूयस्कार आदि बन्धों की संख्या बतलाने के बाद इस गाथा से प्रत्येक कर्म को उत्तर प्रकृतियों के बन्धस्थान और भूयस्कार आदि बन्धों का कथन प्रारम्भ किया गया है। सबसे पहले दर्शनावरण और मोहनीय कर्म के बंधस्थानों और उनमें 'भूयस्कार आदि बंधों को गिनाया है। मूल कर्मप्रकृतियों के पाठक्रम के अनुसार सबसे पहले ज्ञानावरण कर्म के बंधस्थानों और उनमें भूयस्कार आदि बंधों को न बतलाकर दर्शनावरण और मोहनीय कर्म से इस प्रकरण को प्रारम्भ करने का कारण यह है कि भूयस्कार आदि बंध दर्शनावरण, मोहनीय और नाम Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १०१ कम इन तोन कमों को उत्तर प्रकृतियों में होते है, शेष पांच माँ' में उनकी संभावना नहीं है। क्योंकि ज्ञानावरण और अंतराग कर्म की पांचों प्रकृतिबां एक साथ हो बंधती हैं और एक साथ रुकती है। जिससे दोनों कर्मों का पंच प्रकृति रूप एक ही बन्धस्थान होता है और जब एक ही बेधस्थान है तो उसमें भूयस्कार आदि बंध संभव नहीं हैं । इस दशा में तो सर्वदा अवस्थित बन्ध रहता है । इसी प्रकार वेदनीय, आयु और गोत्रकर्म की एक समय में एक ही प्रकृति बंधती है । अतः इनमें भी भूयस्कार आदि बंध नहीं होते हैं । दर्शनावरण और. मोहनीय कर्म के बंधस्थानों व उनमें भूयस्कार आदि बंधों की संख्या नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिये । वर्शनावरण कर्म के बंधस्थान आदि की संख्या दर्शनावरण कर्म की चक्षुदर्शनावरण आदि नौ प्रकृतियां हैं और १ जानावरण, घेदनीय, आय, गोत्र, अंतराय । २ (क) तिगिण दस अट्ठ ठाणाणि सणावरणमा हणामाणं । एस्थेव य मुजगारा सेसेसेय हवे ठाण 11 -गो० कर्मकार ४५८ - दर्शनावरण, मोहनीय और नाम कर्म में क्रमशः तीन, दस और आठ बन्धस्थान होते हैं और इन्हीं में भुजाकार बंध आदि भी होते हैं। शेष कर्मों में केवल एक ही बंधस्थान होता है। (ख) बन्धट्ठागा तिदसट्ठ सणावरणमोहनामाणं । सेसाणेगमयट्टियबन्धो सवत्य ठाण समो।। -पंचसंग्रह २२३ -दर्शनावरण के तीन बन्धस्थान हैं, मोहनीय के दस बन्धस्थान और नामकर्म के आठ बंधस्थान हैं तथा शेष कर्मों का एक-एक ही बन्धस्थान है । जिसने बन्धस्थान होते हैं, उतने ही अवस्थित बन्ध होते हैं । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक उनमें नौ, छह और चार प्रकृतियों के इस प्रकार से तीन बन्धस्थान होते हैं-नव छ चउ दंसे । दर्शनावरण कर्म के तीन बन्धस्थान मानने का कारण यह है कि दूसरे मासादन गुणस्थान तक तो सभी प्रकृतियों का बंध होने से नौ प्रकृतिक बंधस्थान होता है । सासादन मुगस्यान के अंत में स्त्यानांत्रिक के बंध की समाप्ति हो जाती है अतः तीसरे मिश्र गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के के प्रथम भाग तक शेष छह प्रकृतियों का ही वन्धस्थान है और अपूर्वकरण के प्रथम भाग के अन्त में निद्रा और प्रचला के बंध का निरोध हो जाने से आगे दसवें सूश्मसंपराय गुणस्थान तक शेष चार प्रकृतियों का ही बन्धस्थान होता है। इस प्रकार दर्शनावरण के नौ प्रकृति रूप, छह प्रकृति रूप और चार प्रकृति रूप ये तीन बंधस्थान हैं ।' इनमें भूयस्कर आदि बंध क्रमशः 'दुदु तिदु' दो, दो, तीन, दो हैं, यानी दो भूयस्कर, दो अल्पतर, तीन अवस्थित और दो अवक्तव्य बन्ध होते हैं । जो इस प्रकार हैं___ आठवें अपूर्वकरण गणस्थान के दूसरे भाग से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक में से किसी एक गुणस्थान में चार प्रकृतियों का बन्ध करके जब कोई जीव अपुर्वकरण गुणस्थान के द्वितीय भाग से नीचे आकर छह प्रकृतियों का बन्ध करता है तब पहला भूयस्कार बन्ध होता है और वहां से भी गिरकर जब नौ प्रकृतियों का बंध करता १ पंचसंग्रह के सप्ततिका अधिकार में भी दर्शनावरण के तीन बंधस्थान इमी प्रकार बतलाये हैं नवस्वहा बजाई गठ बसमेण सणावरणं ॥१० दर्शनावरण के तीन वन्यस्थान है। उनमें से पहले, दूसरे गुणस्थान में नौ का, उनमें आगे आठवें गुणस्थान लक छह प्रकृति का और आगे दसवें गुणस्थान तक चार प्रकृति का बन्धस्थान होता है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ है तब दूसरा भूयस्कार बंध होता है । इस प्रकार से दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों में दो भूयस्कार बन्ध समझना चाहिये । भूयस्कार बंध की तरह दर्शनावरण कर्म की उनर प्रकृतियों में अल्पतर बंध भी दो समझना चाहिये । क्यों अल्पतर बंध भूयस्कार बंध से विपरीत होते हैं । इसीलिये जब कोई जीव नोचे के गूणस्थानों में नौ प्रकृतियों का बंध करके तीसरे दिमास्थान में वह पागों का बन्ध करता है तब पहला अल्पतर बन्ध होता है और जब छह का बन्ध करके चार का बन्ध करता है तब दूसरा अल्पतर बंध होता है । लेकिन अवस्थित बन्ध तीन होते हैं। क्योंकि दर्शनावरण कर्म के बन्धस्थान तीन ही हैं और दो अवक्तध्य बन्ध इस प्रकार समझना चाहिये कि ग्यारहवें गुणस्थान में दर्शनावरण का बिल्कुल बन्धन करके जब कोई जीव वहाँ से गिरकर दसवें गुणस्थान में चार प्रकृतियों का बन्ध करता है तब पहला अवक्तव्य बन्च होता है और जब ग्यारहवें गुणस्थान में मरण करके अनुसार देवों में उत्पन्न होता है तब वहाँ प्रथम समय में दर्शनावरण कम की छह प्रकृतियों का बन्ध करता है, जो दूसरा अवक्तव्य बन्ध है। ___ इस प्रकार से दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थानों और उनमें दो भूयस्कार, दो अल्पतर, तीन अवस्थित और दो अवक्तव्य बंधों का कथन करने के बाद अब मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बन्धस्थानों और भूयस्करादि बंधों को बतलाते हैं । मोहनीय कर्म के बंधस्थान आदि की संख्या ___ मोहनीय कर्म की अट्ठाईस उत्तर प्रकृतियाँ हैं । लेकिन उनमें से सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्त्त मोहनीय का बंध न होने से बंधयोग्य छब्बीस प्रकृतियां हैं । इनमे बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नो, पाँच, चार, लोन, दो और एक प्रकृति का, इस प्रकार से कुल दस बंधस्थान होते हैं । वे इस प्रकार हैं Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ शतक स्त्री, पुरुष, नपुंसक इन तीन वेदों में से एक समय में एक ही वेद का तथा हास्य-रति व शोक अरति में से एक समय में एक ही युगल का बंध होता है। अतः मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व तथा तीन वेदों में से कोई दो वेद और हास्य- रति, अरति शोक, इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल को कम करने से कुल छह प्रकृतियों को कम कर देने पर शेष बाईस प्रकृतियां ही एक समय में बन्ध को प्राप्त होती हैं। यह पहला बंधस्थान है । इस बंधस्थान की बाईस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी कपाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कषाव चतुष्क, संज्बलन कषाय चतुष्क, एक वेद, एक युगल, भय और जुगुप्सा । इस बाईस प्रकृति रूप बंधस्थान का बन्ध केवल पहले गुणस्थान में होता है । " दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व के सिवाय शेष इक्कीस प्रकृतियों का, तीसरे, चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के सिवाय शेष सत्रह का पांचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बंध न होने से शेष तेरह प्रकृतियों का बंध होता है । ये क्रमशः दूसरे, तीसरे और चौथे बंधस्थान हैं। इसके अनन्तर छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का बन्ध न होने के कारण शेष नौ प्रकृतियों का ही बन्ध होता है। आठवें गुणस्थान के अन्त में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बन्धविच्छेद हो जाने से नौवें गुणस्थान के प्रथम भाग में पांच प्रकृतियों का ही बंधस्थान होता है। दूसरे भाग में वेद का अभाव हो जाने से चार का, तीसरे भाग में संचलन क्रोध के बंध का अभाव हो जाने के कारण तीन ही प्रकृतियों का बंध होता है। चौथे भाग में संज्वलन मान का बन्ध न होने से दो प्रकृतियों का बन्धस्थान है | पांचवें भाग में संज्वलन माया का भी बन्ध न होने से केवल एक संज्वलन लोभ का Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १०५ ही बन्ध होता है । इसके आगे बादर कषाय का अभाव हो जाने से संज्वलन लोभ प्रकृति का भी बंध नहीं होता है। इस प्रकार मोहनीय कर्म के दस बन्धस्थान जानना चाहिये । इन दस बंधस्थानों में नी भूयस्कार, बोर्ड अल्पतर, दस अवस्थित और दो अवकतव्य बंध होते हैं। जिनका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है । मोहनीय कर्म के भूयस्कार आदि बंध - एक को बांध कर दो का बंध करने पर पहला भूयस्कार बंध और दो को बांधकर तीन का बंध करने पर दूसरा भूयस्कार बंध होता है। इसी प्रकार तीन को बांध कर चार का बंध करने पर तीसरा, चार को बांधकर पांच का बन्ध करने पर चौथा, पांच का बंध करके नौ का बंध करने पर पांचवां, नी का बंध करके तेरह का बन्ध करने पर छठा, तेरह का बंध करके सन्नह का बंध करने पर सातवां सत्रह का बन्ध करके इक्कीस का बन्ध करने पर आठवां और इक्कीस का बन्ध करके बाईस का बन्ध करने पर नौवां भूयस्कार बन्ध होता है । आठ अल्पतर बंध इस प्रकार हैं- बाईस का बंध करके सतह १ गो० कर्मकांड में मोहनीय कर्म के भूजाकारादि वंधों में कुछ अन्तर है, उसमें अधिक माने गये हैं, जिनका विवरण परिशिष्ट में दिया गया है। २ मोहनीय कर्म के आठ अल्पतर बन्ध होते हैं। बाईम का बन्ध करके इक्कीस का बन्ध रूप अल्पतर बन्ध नहीं बताने का कारण यह है कि बाईस का बन्ध पहले गुणस्थान में होता है और इक्कीस का बन्ध दूसरे गुणस्थान में । लेकिन पहले गुणस्थान से जीव दूसरे गुणस्थान में नहीं जाता है। दूसरा गुणस्थान अक्रान्ति की अपेक्षा से है, उत्क्रान्ति की अपेक्षा से नहीं । यदि जीव पहले गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान में जा सकता तो इक्कीस का अल्पतर बन्ध बन सकता था। लेकिन मिथ्यादृष्टि सासा ( अगले पृष्ठ पर देखें) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ शतक का बंध करने पर बहला अल्पतर और सत्रह का बन्ध करके तेरह का बन्ध करने पर दुसरा अल्पतर होता है । इसी प्रकार तेरह का बन्ध करके नौ का इन्ध करने पर तीसरा, नौ का बन्ध करके पांच का बन्ध करने पर चौथा, पांच का बन्ध करके चार का बंध करने पर पांचवां, चार का बन्ध्र करके तीन का बन्ध करने पर फटा, तीन का बन्ध्र करके दो का बन्ध करने पर सातवां और दो का बन्ध करके एक का बन्ध करने पर आठवां अल्पतर बन्ध होता है।। बंधस्थान दम होने से अवस्थित बंश्च भी दस ही होते हैं । दो अबक्तव्य बन्ध निम्न प्रकार हैं-ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का बन्ध न करके जब कोई जीव वहां से च्युत होकर नौवें गुणस्थान में आता है और वहां संज्वलन लोभ का बन्ध करता है तब पहला अवक्तव्य बन्ध होता है और यदि ग्यारहवें गुणस्थान में आयु का क्षय हो जाने के कारण मरकर के कोई जीव अनुत्तरवासी देवों में जन्म लेता है और वहां सत्रह प्रकृतियों का बन्ध करता है तो दूसरा अवक्तव्य बन्न होता है। दन सम्यन्दष्टि नहीं हो सकता है, उपशम सम्यष्टि ही सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है छालिगमेसा पर आमाणं कोई गच्छज्जा ।२३॥ स्वसंमत्तद्धातो पडमाणो छावनिगमेसाए उवसमसंमत्तद्धाते परति उकोसाते, जहन्नण एकसमयसे साए उनसमसंमत्तद्धाए सासापणमम्मत्तं कोनि गच्छेज्जा, णो सम्ने गच्छेजा। -कर्मप्रकृति (उपशम का) चूणि - उपशम सम्यक्त्व के काल में कम-से-कम एक ममय और अधिक-सेअधिक छह आपली शेष रहने पर कोई-कोई उपशम सम्यग्दृष्टि सासादन मम्यक्ष को प्राप्त होता है। अतः बाईस का बन्ध करके इक्कीस का बन्ध रूप अल्पतर बन्ध संभव Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १०७ इस प्रकार से मोहनीय कर्म के दस बन्धस्थान और नौ भूयस्कार, आठ अल्पतर दस अवस्थित और दो अवक्तव्य बन्ध बतलाने के बाद अब नामकर्म तथा ज्ञानावरण आदि कर्मों के बन्धस्थान व भूयस्कार आदि बन्धों का निरूपण करते हैं । तिपणछअनवहिया वोसा तोसेगतीस इग नामे | अट्टतिबन्धा सेसेसु य शब्दार्थ –लिपणछअनवहिया तीन पांच छह आठ और नो अधिक, बीसा वीस तीस तीस, एक्तीस इकतीस, इग एक नामे - नामकर्म छ छह भूमस्कार बंध, स्सग - सात अल्पतर 7 बन्ध, अट्ठ-आठ अवस्थित बंध, तिबंधा- तीन अवक्तव्य बन्ध. सेसेसु - बाकी के ज्ञानावरण आदि पांच कर्मों में, ठाण-वन्प्रस्थान इक्विक एक-एक ठाणमिक्कवकं ॥२॥ गाथार्थनामकर्म में तीन, पांच छह, बाऊ और नौ अधिक बीस तथा तीस, इकतीस, एक प्रकृति रूप बंधस्थान होते हैं तथा इनमें छह भूयस्कार बंध, सात अल्पतर बन्ध, आठ अवस्थित बन्ध और तीन अवक्तव्य बन्ध हैं । दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्म के सिवाय शेष पांच कर्मो में एकएक बन्धस्थान है । विशेषार्थ - इस गाथा में नामकर्म के बन्धस्थानों और उनमें भूयस्कार आदि बन्धों की संख्या तथा शेष पांच कर्मों के बन्धस्थानों को बतलाया है । नामकर्म के आठ बन्धस्थान है, उनमें से कुछ की संख्या संकेत द्वारा बतलाई है । जैसे कि 'तिपणछअनवहिया वीसा' तीन अधिक बीस, पांच अधिक बीस, छह अधिक बीस, आठ अधिक बीस, नौ अधिक बीस, जिनसे क्रमश: तेईस प्रकृति रूप, पच्चीस प्रकृति रूप, छब्बीस प्रकृति Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ शतक रूप, अट्ठाईस प्रकृति रूप और उनतीस प्रकृति रूप ये पांच स्थान बन जाते हैं और तीन बंधस्थान क्रमशः तीस प्रकृति रूप, इकतीस प्रकृति रूप और एक प्रकृति रूप हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- नामकर्म की बन्धयोग्य ६७ प्रकृतियां हैं। एक ममय में एक जीत्र को सभी प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। किन्न उनमें से एक समय में एक जीव के तेईस, पच्चीस आदि प्रकृतियां ही बन्ध को प्राप्त होती हैं। इसीलिये नामकर्म के आठ बन्धस्थान माने गये हैं। पूर्व में जिन कर्मों के बन्धस्थानों को बतलाया गया है वे कर्म जीवविपाको हैं—जीव के आत्मिक गुणा पर ही उनका असर पड़ता है। किंतु नामकर्म का बहुभाग पुद्गलविपाकी है और उसका अधिकतर उपयोग जीवों की शारीरिक रचना में ही होता है। अतः भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा से एक ही बंधस्थान को अबान्तर प्रकृतियों में अन्तर पड़ जाता है। वर्ण चतुष्क, तंजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात, नामकर्म की ये नौ प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी है। चारों गति के सभी जीवों के आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक इनका बन्ध अवश्य होता है । इनके साथ तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुण्ड संस्थान, स्थावर, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, सूक्ष्म-बादर में से कोई एक, साधारण प्रत्येक में से कोई एक, इन चौदह प्रकृतियों को ध्रुवबन्धिनी नौ प्रकृतियों के साथ मिलाने पर (१४+६) तेईस प्रकृति का बन्धस्थान होता है । ये तेईस प्रकृतियां अपर्याप्त एकेन्द्रियप्रयोग्य हैं, जिनको एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय मिथ्यात्वी बांधता है । अर्थात् इस स्थान का बन्धक जीब मरकर एकेन्द्रिय अपर्याप्त में ही जन्म लेता है। इन तेईस प्रकृतियों में से अपर्याप्त प्रकृति को कम करके पर्याप्त, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ उच्छ्वास और पराघात प्रकृतियों को मिलाने से एकेन्द्रिय पर्याप्त सहित पच्चीस का बन्धस्थान होता है। उनमें से स्थावर, पर्याप्त एकेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास और पराघात को घटाकर बस, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जाति, सेवात संहनन और औदारिक अंगोपांग के मिलाने से द्वीन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान होता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय जाति के स्थान में त्रीन्द्रिय जाति के मिलाने से वीन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान, नीन्द्रिय जाति के स्थान में चतुरिन्द्रिय जाति के मिलाने से चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान और चतुरिन्द्रिय जाति के स्थान में पंचेन्द्रिय जाति के मिलाने से पंचेन्द्रिय अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान होता है । इसमें तिर्यन्त्रमति के स्थान में मनुष्यगति के मिलाने से मनुष्य अपर्याप्त सहित पच्चीस का स्थान होता है । इस प्रकार से पच्चीस प्रकृति वाला बंधस्थान छह प्रकार का होता है और उसको बांधने बाले जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में तथा द्वीन्द्रिय को आदि लेकर सभी अपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्यों में जन्म ले सकते मनुष्यगति सहित पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में से वस, अपर्याप्त, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, सेवातं संहनन और औदारिक अंगोपांग को घटाकर स्थावर, पर्याप्त, तिर्यन्चगति, एकेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, पराघात और आतप तथा उद्योत में से किसी एक को मिलाने पर एकेन्द्रिय पर्याप्त युक्त छच्चीस का बन्धस्थान होता है। इस स्थान का बन्धक जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तक में जन्म लेता है । ___ नामकर्म की नी ध्रुवबन्धिनी, वस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से एक, शुभ और अशुभ में से एक, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति और अयश कीति में से एक, देवगति, पंचेन्द्रिय Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जाति, वैक्रिय शरीर, पहला संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय अंगोपांग, सुस्वर, शुभ विहायोगति, उच्छ्वास और पराघात इन प्रकृति रूप देवगति सहित बट्टाईस का वन्धस्थान होता है । इस स्थान का बन्धक मरकर देव होता है । नरकगति की अपेक्षा लाई का स्थानी नस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति, नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर हुण्डसंस्थान, नरकानुपूर्वी, वैक्रिय अंगोपांग, दुःस्वर, अशुभ विहायोगति, उच्छ्वास और पराघात, इन प्रकृति रूप नरकगतियोग्य अट्ठाईस का बन्धस्थान होता है । 1 1 शतक नो ध्रुवबंधिनी तथा बस, बादर, पर्याप्त प्रत्येक, स्थिर' या अस्थिर, शुभ अथवा अशुभ, दुभंग, अनादेय, यशःकोर्ति या अवशः कोर्ति, तिर्यंचगति, द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुण्ड संस्थान, तिर्यचानुपूर्वी, सेवा संहनन, औदारिक अंगोपांग, दुःस्वर, अशुभ विहायोगति, उच्छ वास, पराघात, इन प्रकृति रूप द्वीन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीस प्रकृति का बंधस्थान होता है। इसमें द्वीन्द्रिय के स्थान में वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय के स्थान में चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय के स्थान में पंचेन्द्रिय को मिलाने से क्रमशः नीन्द्रिययुक्त, चतुरिन्द्रियत और पंचेन्द्रिययुत उनतीस प्रकृति का बन्धस्थान होता है । इस स्थान में यह विशेषता समझना चाहिये कि सुभग और दुभंग, आदेय और अनादेय, सुस्वर और दुःस्वर, प्रशस्त और अप्रशस्त बिहायोगति, इन युगलों में से एक-एक प्रकृति का तथा छह संस्थानों और छह संहननों में से किसी एक संस्थान का और किसी एक संहनन का बंध होता है । इसमें तिर्यंचगति और तिर्यचानुपूर्वी को घटाकर मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी के मिलाने से पर्याप्त मनुष्य सहित उनतीस का बंधस्थान होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १११ नौ ध्रुवबंधिनी, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर. या अस्थिर, __ शुभ या अशुम, आदेय. यश-कीर्ति या अयश कीति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय' शरीर, प्रथम संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्त बिहायोगति, उच्छ्वास, पराघात, तीर्थकर, इन प्रकृति रूप देवगति और तीर्थंकर सहित उनतीस का बंधस्थान होता है। इस प्रकार से उनतीस प्रकृतिका वधस्थान छह होते हैं । इन स्थानों का बन्धक द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तियंचों में तथा मनुष्यगति और देवगति में जन्म लेता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत उनतीस के चार बन्धस्थानों में उद्योत प्रकृति के मिलाने से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तयुत तीस के बार बंधस्थान होते हैं । पर्याप्त मनुष्य सहित उनतीस के बन्धस्थान में तीर्थंकर प्रजाति के मिलाने से मनुष्यगति सहित तीस का बंधस्थान होता है। देवगति सहित उनतीस के बन्धस्थान में से तीर्थंकर प्रकृति घटाकर आहारकद्विक को मिलाने से देवगतियुत तीस का वधस्थान होना है। इस प्रकार तीस प्रकृतिक बंधस्थान छह होते हैं। देवगति सहित उनतीस के बंधस्थान में आहारकद्धिक के मिलाने से देवगति सहित इकतीस का वन्धस्थान होता है। एक प्रकृतिक बंधस्थान में केवल एक यशःीति का ही बन्ध होता है। इस प्रकार नामकर्म के आठ बंधस्थानों को बतलाकर अब इनमें भूयस्कार बन्ध आदि की संख्या वतलाते हैं। भूयस्कारादि बध नामकर्म के बंधस्थान आठ हैं और उनमें सूचस्कार आदि बन्धों की संख्या बतलाने के लिये संकेत दिया है कि 'छल्सगअति बन्धा' थानी छह भूयस्कार, मात अल्पतर, आठ अवस्थित और तीन अबक्तव्य बन्ध होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ शतक तेईस का बन्ध करके पच्चीस का बन्ध करना पहला भूयस्कार बन्ध, पच्चीस का बन्ध करके छब्बीस का बन्ध करना दूसरा भूयस्कार, छन्दस का बन्ध करके अट्ठाईस का बंध करना तीसरा भूयस्कार, अट्ठाईस का बंध करके उनतीस का बंध करना चौथा भूयस्कार, उनतीस का बन्ध करके तीस का बन्ध करना पांचवा भूयस्कार, आहारकद्विक सहित तीस का बंध करके इकतीस का बन्ध करना छठा भूयस्कार बन्ध होता है । इस प्रकार छह भूयस्कार बन्ध हैं । नौवें गुणस्थान में एक का वध करके वहाँ से च्युत होकर आठवें गुणस्थान में जब कोई जीव तोम अथवा इकतीस का बन्ध करता है तो वह पृथक् श्रयस्कार नहीं गिना जाता है । क्योंकि उसमें भी तीस अथवा इकतीस का ही बन्ध करता है और यही बन्ध पांचवें और छठे भूयस्कार बन्धों में भी होता है, अतः उसे पृथक नहीं गिना है । यद्यपि कर्मप्रकृति के सत्वाधिकार गाथा ५२ की टीका में उपाध्याय यशोविजयजी ने कर्मों के बन्धस्थानों और उनमें भूयस्कार आदि बन्धों के वर्णन के प्रसंग में नामकर्म के वन्धस्थानों में छह भूयस्कार बन्धों को बतलाकर सातवें भूवस्कार के संबन्ध में एक मत का उल्लेख किया है कि एक प्रकृति का बन्ध करके इकतीस का बन्ध करने पर सातवां भूयम्कार बन्ध होता है। जैसा कि शतक चूर्णि में लिखा है एक्का व एकतीसं जाइ ति भुओगारा सत्त-एक को बांधकर इकतीस का बन्ध करता है, अतः नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों में सात वस्कार बन्ध होते हैं । इसका उत्तर यह है कि अट्ठाईस आदि बन्स्थानों के भूयस्कारों को बतलाते हुए इकतोस के वन्ध रूप भूयस्कार का पहले ही ग्रहण कर लिया है | अतः एक को अपेक्षा से उसे अलग नहीं गिना जा सकता 1 I Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ है । यहाँ भिन्न भिन्न बन्धस्थानों की अपेक्षा से भयस्कारो के भेदों की विवक्षा नहीं की है, यदि विभिन्न बन्धस्थानों की अपेक्षा विवक्षा की जाये तो बहुत से भूस्कार हो जायेंगे। जैसे कभी अट्ठाईस का बंध करके इकतीस का बन्ध करता है, कभी उनतीस का बन्ध करके इक तीस का बन्ध करता है और कभी एक का बन्ध करके इकतीस का बन्ध करता है तथा कभी तेईस का बन्ध करके अट्ठाईस का बन्ध करता है और कभी पच्चीस का बन्ध करके अट्ठाईस का बन्ध करता है । इस प्रकार सात से भी अधिक बहुत से भूयस्कार हो सकते हैं, जो यहाँ इष्ट नहीं हैं । अतः भिन्न-भिन्न अन्धस्थानों की अपेक्षा से भूयस्कार के भेद नहीं बताये हैं । इस प्रकार से भमस्कार बन्ध छह होते हैं। अब सात अल्पतर बंध बतलाते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में देव - गति योग्य २८, २, ३० अथवा ३१ का बन्ध करके १ प्रकृतिक बंधस्थान का बन्ध करने पर पहला अल्पतर बंध होता है । आहारकद्विक और तीर्थंकर सहित इकतीस का बंध करके जो जीव देवलोक में उत्पन्न होता है, वह प्रथम समय में ही मनुष्यगतियुत तीस प्रकृतियों का बन्ध करता है, यह दूसरा अल्पतर बन्ध है । वही जीव स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्यगति में जन्म लेकर देवगति योग्य तीर्थंकर सहित उनतीस प्रकृतियों का बन्ध करता है तब तीसरा अल्पवर बंध होता है । जब कोई तिथंच या मनुष्य, तियंचगति के योग्य पूर्वोक्त उनतीस प्रकृतियों का बन्ध करके विशुद्ध परिणामों के कारण देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करता है तब चौथा अल्पतर बंध, अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थान का बन्ध करके संक्लेश परिणामों के कारण जब कोई जीव एकेन्द्रिय के योग्य छब्बीस प्रकृतियों का बंध करता है तब पाँचवां अल्पतर बन्ध होता है । छब्बीस का बन्ध करके पच्चीस का बन्ध करने पर छठा अल्पतर बन्ध होता है तथा पच्चीस का बन्ध करके तेईस का बन्ध करने पर सातवां अल्पतर बघ होता है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ शतक आठ बन्धस्थानों की अपेक्षा से आठ ही अवस्थित बन्ध होते हैं । ग्यारहवें गुणस्थान में नामकर्म की एक भी प्रकृति को न बाँधकर वहाँ से च्युत होकर जब कोई जोन एक प्रकृति का बंध करता है तब पहला अवक्तव्य बन्ध होता है तथा ग्यारहवें गुणस्थान में मरण करके कोई जीव अनुत्तर देवों में जन्म लेकर यदि मनुष्यगति योग्य तीस प्रकृति का बन्ध करता है तब दूसरा अवक्तव्य बन्ध होता है और मनुष्यगति योग्य उनतीस प्रकृति का बन्ध करता है तो तीसरा अबक्तव्य बन्ध होता है । इस प्रकार तीन अवक्तव्य बन्ध होते हैं ।" इस प्रकार से गाया के तीन चरणों में नामकर्म के बंधस्थानों और उनमें भूयस्कर आदि बंधों का निर्देश करके शेष कर्मों के बंधस्थानों को बतलाने हेतु गाथा के चौथे चरण में संकेत दिया है कि 'सेसेसु य ठाणमिक्किं शेष पांच कर्मों - ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र, अन्तराय - में एक-एक ही बंधस्थान होता है। क्योंकि शानावरण और अंतराय की पांच-पांच प्रकृतियां एक साथ ही बंधती हैं और एक साथ ही रुकती हैं। वेदनीय, आयु, गोत्र कर्म की उत्तर प्रकृतियों में भी एक समय में एक-एक प्रकृति का ही बंध होता है । जिससे इन कर्मों में भूयस्कार आदि बंध नहीं होते हैं। क्योंकि जहां एक ही प्रकृति का बंध होता है, वहां थोड़ी प्रकृतियों को बांध कर अधिक प्रकृतियों को बांधना या अधिक प्रकृतियों को बांधकर थोड़ी प्रकृतियों को बांधना संभव नहीं होता है । ———. १ गो० कर्मकांड गा० १६५ से ५८२ तक नानकर्म के भूवस्कार आदि बन्धों की विस्तार से चर्चा की है। उसमें गुणस्थानों की अपेक्षा से भूसस्कार आदिबंध बतलाये हैं और जितने प्रकृतिक स्थान को रोधकर जितने प्रकृतिक स्थानों की अन्य संभव है और उन उन स्थानों में जितने भंग हो सकते हैं, उन सबको अपेक्षा से सूस्कार आदि को बतलाया है । " " Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मपन्य ११५ यह एक सामान्य नियम है किन्तु वेदनीय के सिवाय शेष चार कर्मों में अवक्तव्य और अवस्थित बंध होते हैं। क्योंकि ग्यारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, अंतराय और गोत्र कर्म का बंध न करके जब कोई जीव वहां से च्युत होता है और नीचे के मुणस्थान में आकर पुनः उन कर्मों का बंध करता है तब प्रथम समय में अवक्तव्य बंध होता है और द्वितीय आदि समयों में अवस्थित बंध होता है तथा विभाग में जब आयु कर्म का बंध होता है तब प्रथम समय में अवक्तव्य बंध होता है और द्वितीय आदि समयों में अवस्थित बंध होता है। किन्तु वेदनीय कर्म में केवल अवस्थित बंध ही होता है, अवक्तव्य बंध नहीं । क्योंकि वेदनीय कर्म का अबन्ध अयोगि केवली गुणस्थान में होता है, किन्तु वहां से गिरकर जीव के नीचे के गुणस्थान में नहीं आने के कारण पुनः वंध नहीं होता है। इस प्रकार से कर्मों की बंध-योग्य १२० उत्तर प्रकृतियों में बंधस्थानों और उनके भूयस्कर आदि बंधों को बतलाया गया है । जिनका कोष्टक पृष्ठ ११६ पर दिया गया है। प्रकृतिबंध का वर्णन करने के बाद अब आगे की गाथाओं में स्थितिबंध का वर्णन करते हैं। मूल कर्मों का उत्कृष्ट, जघन्य स्थितिबंध वोसयरकोडिकोडी नामे गोए य सत्तरी मोहे। सोसयर घउसु उदही निरयसुराउँमि तित्तीसा ॥२६॥ मुत्तुं अफसायठिई बार मुहत्ता जहा वेयणिए । अट्ट नामगोएसु सेसएसु मुहत्ततो ॥२७॥ शब्दार्थ-वीस-बीस, अयरको डिकोडी-कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, नामे-नामकर्म की, गोए-गोत्रकर्म की, य--और सत्तरी-सत्तर कोड़ा-बोड़ी सागरोपम, मोहे-मोहनीयकम की, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ कर्मों को उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थान तरा भूयस्कार आदि बन्धों का कोष्टक भाठ कर्म ज्ञानावरण | दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आपु. नाम गोत्र। अंतराय उत्तर प्रकृति किसने बंधस्थान . कितनी प्रकृतियों का । बंधस्थान २२,२१ | १७, १३, ६. २३, २५, २६, २८, २६, ३०, भूयस्कार बंध अल्पतर बंध अबस्थित बंध अवक्तव्य बंध शतक Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ तोस तीस कोड़ाफोड़ी सागरोपम परचउसु – शेष चार कर्मों की, उबही - सागरोपम निरपसुराजंमिनारक और देवों की आयु, तित्तोसा तेतीस सागर 17 मुत्तं छोड़कर, अकसाय - अकषायी को, डिइ स्थिति, बार मुहत्ता - बारह मुहूर्त, जहल – जघन्य, बेयणिए — वेदनीय कर्म की, अड्डट्ट - आठ-बाठ मुहूर्त, नामनोएसुनाम और गोत्र कर्म की, सेमएस – शेष पाच कर्मों की, मुहुत्ततो - अन्तर्मुहूर्त । - - गाथार्थ - नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोड़ी सागरोपम होती है। मोहनीय कर्म की सत्तर कोड़ाकोडी सागरोपम, बाकी के चार कर्मों की तीस कोड़ाकोडी सागरोपम तथा नारक और देवों की आयु तेतीस सागरोपम है । अकषायी को छोड़कर ( सकषायी की) वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है। नाम और गोत्र कर्म की आठआठ मुहूर्त तथा शेष पांच कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त प्रमाण होती है । ११७ विशेषार्थ – इन दोनों गाथाओं में आठ मूल कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति बतलाई है । नामक्रम से कर्मों की स्थिति न बतलाकर एक जैसी स्थिति वाले कर्मों को एक साथ लेकर उनकी स्थिति का प्रमाण कहा है। जैसे कि नाम और गोत्र कर्म की स्थिति बराबर है तो उनको एक साथ लेकर कहा है कि 'वीसयरकोडिकोडी नामे 'गोए' नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है | 'तीसयर चउसु उदही' चार कर्मों की स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। लेकिन इन चार कर्मों के नामों का गाया में संकेत नहीं है । क्योंकि नाम और गोत्र की स्थिति अलग से बतला दी Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक गई है और मोहनीय कर्म की स्थिति 'सत्तरी मोहे' पद से कि मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम की है तथा 'निरयसुराउँमि तित्तीसा पद द्वारा आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम बतला दी है। अतः इन नाम, गोत्र, मोहनीय और आयुकर्म से शेष रहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय, इन चार कर्मों की स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागरोपम समझना चाहिए । ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाने के बाद उनकी जघन्य स्थिति बतलाने के लिये कहा है 'बार मुहत्ता जहन्न वेयणिए' वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है, 'अट्ट नाम गोएसु' नाम और गोत्र कर्म की आस-भार. मुहर्त तथा इन वेतमीस । नाम और गोत्र कर्म से शेष रहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयु और अंतराय इन पांच कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त प्रमाण है--सेसएसुं मुहत्तंतो। उक्त कथन का सारांश यह है कि धातिकर्म ज्ञानावरण, दर्शना- . वरण, अंतराय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागरोपम, मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम तथा अघातीकर्म वेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागरोपम, आयु की तेतीस सागरोपम और नाम व गोत्र की स्थिति बोस कोडाकोड़ी । सागरोपम है ५ तथा जघन्य स्थिति क्रमश: इस प्रकार है कि १ (क) तीस कोटाकोडी तिघादितदियेसु वीस णामदुगे । सत्तरि मोहे सुद्ध' उवही आउस्स तेतीसं ।। –गो० कर्मकांड १२७ (ख) आदितस्तिसणामन्त रायस्य च त्रिंशत्सागरोपम को टिकोट्यः परा स्थितिः । सप्ततिर्मोहनीयस्य । नामगोत्रयोविंशतिः । त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुष्कस्य । –तत्वार्थतन्त्र ८ । १५, १६, १७, १८ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १११ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय की अंतमुहूर्त, वेदनीय की बारह मुहूर्त, आयु की अन्तर्मुहूर्त, नाम और गोत्र की आठ-आठ मुहूर्त है ।" स्थितिबन्ध का मुख्य कारण कषाय है । कषायोदयजन्य संक्लिष्ट परिणामों की तीव्रता होने पर उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होता है और कषाय परिणामों के मंद होने पर जघन्य स्थिति का बन्ध होता है तथा मध्यम परिणामों द्वारा अजघन्योत्कृष्ट ( मध्यम ) स्थिति का बन्ध होता है । यद्यपि प्रकृतिबन्ध के पश्चात उसके स्वामी का वर्णन करना चाहिये था लेकिन वंघस्वामित्व की टीका में उसका विस्तार से वर्णन किये जाने के कारण पुनरावृत्ति न करके यहां स्थितिबन्ध को बतलाया है । बन्ध हो जाने पर जो कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ ठहरा रहता है, वह उसका स्थितिबन्ध कहलाता है। कर्म बंधने के बाद ही तत्काल अपना फल देना प्रारम्भ नहीं कर देते हैं और न एक साथ ही एक समय में अपना पूरा फल दे देते हैं । किन्तु यथासमय फल देना प्रारम्भ करके अपनी शक्ति को क्रम से नष्ट करते हैं । इस बंधने के समय से लेकर निर्जीर्ण होने के समय तक कर्मों की आत्मा के साथ संबद्ध रहने की अधिकतम और न्यूनतम कालमर्यादा को बतलाने के लिए स्थितिबन्ध का कथन किया जाता है। अधिकतम १ (क) वारस य वेयणीये णामे गोदे य भट्ट य मुहुत्ता । भिण्णमुहत तु ठिदी जहण्णयं से पंचन्हं ॥ (ख) अपरा द्वादशमुहूर्त वेदनीयस्य महूर्तम् । - गो० कर्मकांड १३६ । नामगोत्रयोरष्टो 1 शेषाणातरवार्थसूत्र ८ । १६, २०, २१ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० शतक कालमर्यादा को उत्कृष्ट स्थिति और न्यूनतम कालमर्यादा को जघन्य स्थिति कहते हैं। ऊपर कही गई दोनों गाथाओं में ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों को उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति बतलाई है। इस उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति के बीच जीवों की अध्यवसाययोग्यता से मध्यम स्थितियों के अनेक प्रकार हो जाते हैं । ___ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की जो उत्कुष्ट स्थिति बतलाई है, वह इतनी अधिक है कि संख्या प्रमाण के द्वारा उसका बतलाना अशक्यसा है, अतः उसे उपमा प्रमाण के एक भेद सागरोपम द्वारा बतलाया गया है तथा एक करोड़ को एक करोड़ से गुणा करने पर जो राशि आती है उसे कोडाकोड़ी कहते हैं । आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की कोड़ाकोड़ी सागरोपमों के द्वारा उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है । ____ आयुकम ही एक ऐसा कर्म है जिसकी स्थिति कोड़ाकोड़ी सागरेपम में नहीं किन्तु मिफ सागरोपम में बताई है । साथ ही आधुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बतलाने के बारे में यह भी विशेषता रखी है कि उसके दो भेदों--नरकाय और देवायु की भी उत्कट स्थिति बतला दी गई है। इसका कारण यह है कि मूल आयुकर्म की जो उत्कृष्ट स्थिति है, वही उत्कृष्ट स्थिति नरकायु और देवायु की भी है । अतः ग्रन्थलाधव की दृष्टि से मूल आयुकर्म को उत्कृष्ट स्थिति को अलग से न बतलाकर दो उत्तर प्रकृतियों के द्वारा उसकी तथा उसको दो उत्तर प्रकृतियों की भी उत्कृष्ट स्थिति बतला दी है। ___ कषायों का उदय दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक ही होता है, अतः वहाँ तक कमो के स्थितिबन्ध की स्थिति है और दसवें गुणस्थान तक के जीव सकषाय और ग्यारहवें से चौदहवे-उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सघोमिकेवली, अयोगिकेवली गुणस्थान तक के जीव अकपाय कहे जाते हैं । आठ कर्मों में से एक वेदनीय कर्म ही ऐसा है जो Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १२१ अकषाय जीवों को भी बंधता है और शेष सात कर्म केवल सकषाय जीवों को बंधते हैं । अकपाय जीवों को जो वेदनीय कर्म का बन्ध होता है, उसकी केवल दो समय की स्थित होती है, पहले समय में उसका बन्ध होता है और दूसरे समय में उसका वेदन होकर निर्जरा हो जाती है । अतः कर्मों की जघन्य स्थिति बतलाने के प्रसंग में वेदनीय कर्म की जो बारह मुहूर्त की जघन्य स्थिति बतलाई वह 'मुत्त अफसायठिई' अकषाय जीवों को छोड़कर सकषाय जीवों को समझना चाहिये । अर्थात् सकषाय वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहर्त' है और अकषाय वेदनीय की दो मुंहत । आगे उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से कर्मों के अबाधाकाल (अनुदयकाल) का कथन किया जायेगा | अतः उसके अनुसार मूल प्रकृतियों का भी अबाधाकाल समझना चाहिये । वानी ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कामका तीन हजार वर्ष, मोहनीय का सात हजार वर्ष, नाम तथा गोत्र कर्म का दो हजार वर्ष एवं आयु कर्म का अन्तमुहर्त और पूर्व कोड़ी का तीसरा भाग । स्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर जो काल बाकी रहे उसे निषेकाकाल (भोग्यकाल) जानना चाहिये । अबाधाकाल यानी दलिकों की रचना से रहित काल । जिस समय जितनी स्थिति वाला जो कर्म आत्मा बांधता है और उसके भाग में जितनी कर्मवर्गणायें आती हैं, वे वर्गणायें उतने समय पर्यन्त नियत फल दे सकने के लिये अपनी रचना करती हैं। प्रारम्भ के कुछ स्थानों में वे रचना नहीं करती हैं | इसी को अबाधाकाल कहते हैं । अबाधाकाल के बाद के पहले स्थान में अधिक, दूसरे में उससे कम, तीसरे में दूसरे से कम, इस प्रकार स्थितिबन्ध के चरम समय तक भोगने के लिये की गई कर्मदलिकों की रचना को निषेक कहा जाता है। १ उत्तराध्ययन' में अन्तमुहूर्त प्रमाण भी कही है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ घातक अबाधाकाल का ऐसा नियम है कि जघन्य स्थिति बन्ध में अन्तमुहतं का अबाधाकाल, समयाधिक जघन्य स्थितिबन्ध से लेकर पल्योपम के असंख्य भागाधिक स्थिति बांधने के समय तक समयाधिक अन्तम हूर्त तथा उसकी अपेक्षा समयाधिक बन्ध से लेकर दूसरे पल्योपम का असंख्यातवां भाग पूर्ण होने तक दो समय अधिक अन्तमुहूर्त का अबाधाकाल होता है। इस प्रकार पल्योपम के असंख्यातवें भागाधिक बंध में समय-समय का अबाधाकाल बढ़ाते जाने पर पूर्ण कोड़ाकोड़ी सागरोपम के बंध में मौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। यानी उतने काल के जितने समय होते हैं, उतने स्थानों में दालकों की रचना नहीं होती है। इस प्रकार से मूल कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति बतलाने के पश्चात अब उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्पिति का कथन करते हैं। उत्तर प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध विग्यावरणप्रसाए तीसं अट्ठार सुहृमविगलतिगे। पठमागिइसंघयणे बस सुरिमेसु दुगवुढो ॥२८॥ शब्दार्थ-विग्धावरणअसाए-पांच अन्तराय, पांच ज्ञाना. वरण, नौ दर्शनावरण और असातावेदनीय कर्म की, तोर्स – तीस कोडाकोड़ी सागरोपम, अठार - अठारह कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुखमविगलतिगे-सूक्ष्मधिक और विकलत्रिक में, परमागिइसंघयणे--प्रथम संस्थान और प्रथम संहनन में, बस - दस कोडाकोड़ी सागरोपम, कुसु-दोनों में, उरिमेसु - उत्तर के संस्थान और संहननों में, बुगड्ढो -दो-दो कोडाकोड़ी सागरोपम की वृद्धि । गाथार्थ-पांच अन्तराय, पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शना वरण और असाता बेदनीय को उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम को है। नामकर्म के भेद सूक्ष्मत्रिक और Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्थ १२३ विकलत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । पहले संस्थान और पहले संहनन की दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम और आगे के प्रत्येक संस्थान और संहनन की स्थिति में दो-दो सागरोपम की वृद्धि जानना चाहिये । विशेषार्ष-गाथा में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म की सभी उत्तर प्रकृतियों की एवं असाता वेदनीय और नामकर्म की कुछ उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। कर्मों की उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के सम्बन्ध में यह जानना चाहिये कि उनकी स्थिति मूल प्रकृतियों की स्थिति से अलग नहीं है किन्तु उत्तर प्रकृतियों की स्थिति में से जो स्थिति सबसे अधिक होती है, वही मूल प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति मान ली गई है । इसीलिये उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को बतलाते हुए कहा है कि 'विग्धावरणअसाए तीस' ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय की क्रमशः पांच, नोग्और पांच तथा असाता वेदनीय, इन बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति मूल कर्म प्रकृतियों के बराबर तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । लेकिन नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थिति में अधिक विषमता है, अतः उसकी उत्तर प्रकृतियों की नामोल्लेख सहित अलग-अलग स्थिति बतलाई है। नामकर्म की सूक्ष्मत्रिक सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण तथा विकलत्रिकद्वीन्द्रिय, स्लीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म को उत्कृष्ट स्थिति अठारह सागर है-अट्ठार सुहमबिमल तिगे । संस्थान और संहनन नामकर्म के भेदों में से प्रथम संस्थान समचतुरस्र संस्थान और प्रथम संहनन-वनऋषभनाराच संहनन की उत्कृष्ट स्थिति दस कोड़ा १ दुस्खतिधादीणोघं । –गो० कर्मकांड १२८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ शतक कोड़ी सागरोपम है-'पढमागिइसंघयणे दस' तथा इनके सिवाय दूसरे से लेकर छठे संस्थान और दूसरे से लेकर छठे संहनन तक प्रत्येक की उत्कृष्ट स्थिति पहले से दूसरे, दूसरे से तीसरे इस प्रकार दो-दो सागरोपम को अधिक है-'दुसुवरिमेसु दुगवुड्ढी' अर्थात् दूसरे संस्थान और दूसरे संहनन की उत्कृष्ट स्थिति बारह कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, तीसरे संस्थान और तीसरे संहनन को उत्कृष्ट स्थिति चौदह कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, इसी प्रकार चौथे की मोलह, पांचवें की अठारह और छठे की बीस कोडाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट थिति है । जो नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति है । संस्थान और संहनन के भेदों को उत्कृष्ट स्थिति की इस प्रकार की क्रम वृद्धि होने का कारण कषाय की हीनाधिकता है। जब जीव के भाव अधिक संक्लिष्ट होते हैं तब स्थितिबंध भी अधिक होता है और जब कम मंक्लिष्ट होते हैं तब स्थितिबंध भी कम होता है इसीलिये प्रशस्त प्रकृतियों की स्थिति कम और अप्रशस्त प्रकृतियों की स्थिति अधिक होती है । क्योंकि उनका बंध प्रशस्त परिणाम वाले जीव के ही होता है। चालीस कसाएसु मिउलहुनिचाहसुरहिसियमहुरे । बस दोसद्धसहिया ते हालिबिलाईणं ॥२९।। शब्दार्थ-चालीस-चालोस कोडाकोड़ी सागरोपम, कसाएसु-कपायों को, मिजलहुनिख-मटु, लघ, स्निग्ध स्पर्श, उष्ट सुरहि – उष्ण स्पर्श, सुरभिगंध को, सियमहरे • वेन वर्ण और मधुर रस की, दस-दस कोसाकोड़ी सागरोपम, दोसहसहिया -- हाई कोड़ा-कोडी सागरोपम अधिक, ते--वे (दसै कोड़ाकोड़ी सागरोपम), हालिखिलाईणं--पीत वर्ण, अम्ल रस आदि । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १२५ गाथा-कषायों की उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। मृदु, लघु, स्निग्ध, उष्ण स्पर्श, सुरभि गंध, श्वेत वर्ण और मधुर रस की दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की होती है और इन दस जमादाड़ी हार नगर में कई कोड़कोड़ी सागरोपम साधिक स्थिति पीत वर्ण और अम्ल रस आदि को समझना चाहिये । विशेषार्थ-गाथा में चारित्र मोहनीय के भेद सोलह कषायों और नामकर्म की कुछ उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। जो इस प्रकार है कि 'चालीस कसाएK' यानी अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध,मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ इन सोलह कषायों को उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। ___ नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों में से मृदु स्पर्श, लघु स्पर्श. स्निन्ध स्पर्श, उष्ण स्पर्श, सुरभि गंध, श्वेत वर्ण और मधुर रस इन सात प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोड़ी सागरोपम है तथा शेष रहे वर्ण चतुष्क के मेंदों में से प्रत्येक वर्ण और प्रत्येक रस की स्थिति इस दस कोड़ीकोडा सागरोपम से ढाई कोड़ाकोड़ी सागरोपम अधिक अधिक है । अर्थात् पोत वर्ण और अम्ल रस नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति साढे वारह कोडाकोड़ी सागरोपम है। रक्त वर्ण और कषाय रस की। स्थिति पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम, नील वर्ण और कटुक रस की १ चरित्तमोहे य चत्ताल । -गो० कर्मकाउ १२८ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पातक साढे सत्रह कोडाकोड़ी सागरोपम तथा कृष्ण वर्ण और तिक्त रस की बीस कामाकोड़ी सागम है। दस सुहविहगई उच्चे सुरदुग थिर छक्क पुरिसरइहाले । मिच्छे सत्तरि मणुहुगइत्थोसाएसु पन्नरस ॥३०॥ शब्दार्थ-दस-दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुहविहगइउच्चे - शुभ विहायोगति और उच्चगो ग्र, सुरचुग-- - देवद्विक, थिरछक्क - स्थिरषट्क, पुरिस -पुरुपवेद, रहहासे --रनि और हास्य मोहनीय, मिच्छ --- मिथ्यात्व की, अत्तरि-- सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम, मणपुगइत्थीसाएसु--मनुष्यतिक, स्त्रीवेद और सातावदनीय की, परस--पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम । गाभार्थ-शुभ विहायोगति, उच्चगोत्र, देवद्विक, स्थिरषट्क, पुरुषवेद, रति और हास्य मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोड़ी सागरोपम की है। मिथ्यात्व मोहनीय की सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम तथा मनुष्यहिक, स्त्रीवेद, सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम की है। विशेषार्थ-गाथा में विशेषकर दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली तथा पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति १ यद्यपि वर्ण, गध, रस और स्पर्श इम वर्णचतुक हो उसके भेदों के बिना ही बन्ध में ग्रहण किया गया है, अतः कर्मप्रकृति आदि में वर्णचतुष्क की बीस कोडाकोडी सागरोपग उत्कृष्ट स्थिति कही है। इसीलिये कर्मप्रकृति में वर्णचतुष्क के अवान्तर भेदों की स्थिति नहीं बतलाई है किन्तु पंचसंग्रह में क्तलाई है-- सुपिकलसुरभीमराण दस उ तह सुभ चउण्ह फासाण । अड्डा इज्जपत्रुड्ढी अंबिलहालिहपुन्वाण. ॥२४०।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १२७ बाली कर्म प्रकृतियों के नाम बतलाने के साथ मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की भी उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। दस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली कर्म प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं- (१) मोहनीयकर्म - पुरुषवेद, रति मोहनीय, हास्य मोहनीय । (२) नामकर्म - शुभ विहायोगति, देवद्विक (देवगति, देवानुपूर्वी) स्थिरपट्क (स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेव, यशः कीर्ति । (३) गोत्रकर्म-उच्चगोत्र | पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली कर्म प्रकृतियों के नाम यह हैं (१) वेदनीय - साता वेदनीय । (२) मोहनीय-स्त्री वेद । (३) नामकर्म – मनुष्यद्विक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी ) । ' मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृति मिध्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोटी सागरोपम है । भयकुच्छ प्ररइसोए विउव्वितिरिउरल निरययुगनीए । तेयपण अथिरछक्के तसचथावरइगर्पाणवी ॥३१॥० नपुकुल गइ सास उगुरुकरुक्खसीय गांधे वीसं कोडाकोडो एवइयावाह वाससया ॥३२॥ शव्दार्थ - मयकुच्छअरइसोए-भय, जुगुप्सा, अरति भर शोक मोहनीच की, बिउव्यितिरिउरल निरय दुगनीए – क्रियद्विक, तिच द्विक, औदारिकद्विक, नरकविक और नोच गोत्र की, तेच पण - १ सादिच्छी मणुदुगे तदद्ध ं तु । - कर्मकांड १२८ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ शतक तंजस पंचक्र की, अथिरछक्के--अस्थिरपट्क की, तसचज-सचतुक क्री, थावरहगणिवी-- स्थावर, एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय की, नपु-नपुसक वेद की, फुखगह - अशुभ विहायोगति की, सासघाउ -उच्छवास चतुष्क को, गुरुकषखडक्खसीय-गुरु, कर्कश, रूक्ष और शीत स्पर्श की, दुर्गधे - दुरभिगंध की, बोसं-वीस, कोडाफोडी ...जोडाकोडी सागरोपम, एवइया -इतनी, अवाह-- अबाधा, वाससया-सो वर्ष । ___गाथार्य - भय, जुगुप्सा, अरति, शोक मोहनीय की, वैनियद्विक, तिर्यन्चद्विक, औदारिकद्विक, नरकद्विक और नीच गोत्र की तथा तजस पंचक, अस्थिरषद्क, बसचतुष्क, स्थावर, एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति की तथानपुंसक वेद, अशुभ बिहायोगति, उच्छ्वास चतुष्क, गुरु, कर्कश, रूक्ष और शीत स्पर्श की और दुरभिगध की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । जिस कर्म की जितनी-जितनी उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, उस कर्म की उतने ही सौ वर्ष प्रमाण अबाधा जानना चाहिये। विशेषार्थ--इन दो गाथाओं में बीम कोडाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली बयालीस कम प्रकृतियों की संख्या बतलाते हुए प्रकृतियों के अबाधाकाल का संकेत किया है । बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली अधिकतर नामकर्म की उत्तर प्रकृतियां हैं। मूल कर्म के नाम पूर्वक उन उत्तर प्रकृतियों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं ((१) मोहनीयकर्म-भय, जुगुप्सा, अरति, शोक, नपुंसक वेद । (२) मामकर्म-वैनिय शरीर, वैकिय अंगोपांग, तिथंचगति, Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ तिर्यचानुपूर्वी. औदारिक शरीर औदारिक अंगोपांग, नरकगति, नरकानुपूर्वी, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, निर्माण, उप धात, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति, नम. बादर, पर्याप्त, प्रत्येक स्थावर एकेन्द्रिय जाति पंचेन्द्रिय जाति, अशुभ विहायोगति, उच्छ्वास, उद्योत आनप, पराघात, गुरु, कठोर रू शीत स्पर्श दुर्गन्ध । (३) गोत्रकर्म-नीच गोत्र | · RE आहारक बंधन और आहारक संघातन को छोडकर शेष औदारिक बंधन और संघातन आदि की स्थिति भो अपने-अपने शरीर की स्थिति जितनी होती है। अतः उनकी भी स्थिति बीस कोडाफोडी सागरोपम की समझना चाहिए । इस प्रकार से बंधयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियों में से हाक द्विक, तीर्थंकर और आयु कर्म की चार प्रकृतियां, कुल सात प्रकृतियों को छोड़कर एक सौ तेरह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है । ग्रन्थलाघव की दृष्टि से गाया में एक सो तेरह प्रकृतियों के अबाकाल का भी संकेत किया है कि जिस कर्म की जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, उस प्रकृति का उतने सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। जैसे कि पाँच अंतराय, पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और असाता बेदनीय इन बीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध तीस कोडाकोड़ी सागरोपम है तो उनका उत्कृष्ट अवाधाकाल भी तीस सौ अर्थात् तीन हजार वर्ष समझना चाहिए । बंधने के बाद जब तक कर्म उदय में नहीं आता है तब तक के काल को अबाधाकाल कहते हैं । कर्मों की उपमा मादक द्रव्य से दी जाती है । मदिरा के समान आत्मा पर असर डालने वाले कर्म की जितनी अधिक स्थिति होती है, उतने ही अधिक समय तक वह कर्म बंधने के बाद बिना फल दिये ही आत्मा / साथ संबद्ध रहता है, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३० जो उसका अबानाकाल कहलाता है । इस अबाधाकाल में कर्म विपाक के उन्मुख होता है और अबाधाकाल बीतने पर अपना फल देना प्रारम्भ कर उस समय तक फल देता रहता है जब तक उसकी स्थिति का बन्ध है । इसीलिये पन्थकार ने अवधाकाल का अनुपात वतलाया है कि जिस कर्म की जितने कोडाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है. उस कर्म की उतने ही सौ वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अबाधाकाल समझना चाहिये । इसका सारांश यह है कि एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति में सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है । अर्थात् आज किसी जीव ने एक कोटाकोड़ी सागरोपम की स्थिति वाला कर्म बांधा है तो वह आज से सौ वर्ष बाद उदय में आयेगा और तब तक उदय में आता रहेगा जब तक एक कोड़ाफोड़ी सागरोपम काल समाप्त नहीं हो जाता है । अभी तक जिन कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है और शेष रही जिन प्रकृतियों की आगे स्थिति बतलाने वाले है, उसमें अकाल भी सम्मिलित है। इसलिये स्थिति के दो भेद हो जाते है— कर्मरूपतावस्थानलक्षणा और अनुभवयोग्या । बंधने के बाद जब तक कर्म आत्मा के साथ ठहरता है, उतने काल का परिमाण कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति है और अबाधाकाल रहित स्थिति का नाम अनुभवयोग्या स्थिति कहलाता है । यहाँ जो कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, वह कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति सहित है और अनुभवयोग्या स्थिति को जानने के लिये पहली कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति में से अबाधाकाल कम कर देना चाहिये, ' जो इस प्रकार है तत्र 1 ९ वह द्विधा स्थितिः - संरूपता व स्थान लक्षणा, अनुभवयोग्याचे कर्मरूपतावस्थानलक्षणामेव स्थितिमधिकृत्य जघन्योत्कृष्ट प्रमाणमिदम्राधाकाल होना । अगन्तव्यम् । अनुभवयोग्या - कर्मप्रकृति मलयगिरि टोका, पृ० १६३ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्थ १२१ ! पांच अन्तराय, पांच ज्ञानावरण और नो दर्शनावरण कर्मों में से प्रत्येक की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की तथा एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति में एक सौ वर्ष का अबाधाकाल होने का संकेत पहले कर आये हैं । अतः उनका अबाधाकाल ३०x१०० तीन हर वर्ष होता है इसका अनुपात से अन्य प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के अनुसार उन-उनका उत्कृष्ट अबाधाकाल समझना चाहिये कि सूक्ष्मत्रिक और विकलनिक का अबाधाकाल अठारह सो वर्ष, समचतुरस्र संस्थान और वज्रऋषभनाराच संहनन का अबाधाकाल एक हजार वर्ष न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान और ऋषभनाराच संहनन का अबाधाकाल बारह सौ वर्ष, स्वाति संस्थान और नाराच संहनन का अबाधाकाल चौदह सौ वर्ष, कुब्ज संस्थान और अर्धनाराच संहनन का अबाधाकाल सोलह सौ वर्ष, वामन संस्थान और कीलिक संहनन का अवाधाकाल अठारह सौ वर्ष, हुण्ड संस्थान और सेवार्त संहनन का अबाधाकाल दो हजार वर्ष, अनंतानुबन्धी क्रोध आदि सोलह कपायों का अबाधाकाल चार हजार वर्ष, मृदु, लघु, स्निग्ध, उष्ण स्पर्श, सुगन्ध, श्वेतवर्ण और मधुर रस का एक हजार वर्ष, पोत वर्ण और अम्ल रस का अबाधाकाल साढ़े बारह सौ वर्ष, रक्त वर्ण और कषाय रस का पन्द्रह सौ वर्ष, नील वर्ण और कटुक रस का साढ़े सतह सौ वर्ष कृष्ण वर्ण और तिक्त रस का दो हजार वर्ष, शुभ विहायोगतिउच्च गोत्र, देवद्विक, स्थिरषट्क, पुरुष वेद, हास्य और रति का एक हजार वर्ष, मिथ्यात्व का सात हजार वर्ष, मनुष्यद्विक, स्त्रीवेद, साता वेदनीय का अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष, भय, जुगुप्सा, अरति, शोक, वैक्रियद्विक, तियं द्विक, ओदारिकद्विक, नरकद्विक, नीच गोत्र, तैजसपंचक, अस्थिरपक, तसचतुष्क, स्थावर, एकेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नपुंसक वेद, अशुभ विहायोगति, उच्छ्वासचतुष्क, गुरु, कर्कश, रूक्ष, शीतस्पर्श और दुर्गन्ध का अवाधाकाल दो हजार वर्ष का जानना चाहिए । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतक ___ इस प्रकार से एक सौ तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध और उस स्थिति के अनुपात से उनका अवाधाकाल बतलाने के पश्चात अब आगे नामकर्म की आहारकद्विक, तीर्थकर इन तीन प्रकृतियों तथा आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध व अबाधाकाल का कथन करते हैं। गुव कोषिकोडिअंसो तिस्थाहाराण मित्रमुह बाहा । लहठिइ संखगुणणा नरसिरियाणाउ पल्लतिगं ॥३३॥ शब्दार्थ-गुथ–उत्कृष्ट स्थिति, कोडिकोडिअंतो—अंतः कोड'कोड़ी सागरोपम, तिस्थाहाराण-नीर्थकर और आहारक. द्विक नामकर्म की, मिन्नमुह–अन्त में हूतं, पाहा-अबाधाकाल, लहुदिन-मन्यम्मित. संथगता-- -बिगमुग होग. -रतिरियाण-मनुष्य और तिर्यम, भाज- आभु, पल्सतिगं-तीन पल्योपम । ___ गापार्थ-तीर्थकर और आहारकद्विक नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम और अबाधाकाल अन्तमुहूर्त है । जघन्य स्थिति संख्यात गुणहीन अंतःकोडाकोड़ी सागरोपम होती है। मनुष्य और तिर्यंच आयु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम है। विशेषार्थ-इस गाथा में तीर्थकर और आहारकद्विक आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति तथा अबाधाकाल बतलाने के साथ आयुकर्म के मनुष्य व तिर्यंच आयु इन दो भेदों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। तीर्थकर और आहारकद्धिक की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का कयन ग्रन्थलाघव की दृष्टि में एक साथ कर दिया है कि इन तीनों Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंषम कर्मग्रन्थ प्रकुतियों की दोनों स्थितियां सामान्य से अन्तःकोडाकोड़ी' मागरोपम हैं। लेकिन इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थिति से जघन्य स्थिति का परिमाण संख्यात गुणहीन यानी संख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार उनका उत्कृष्ट और जघन्य अबाधाकाल भी अन्त हुत ही है और स्थिति की तरह उत्कृष्ट अबाधा से जघन्य अबाधाकाल भी संख्यात गुणहीन है। इस प्रकार इन तीन कर्मों की स्थिति (उत्कृष्ट व जघन्य) अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम और अबाधाकाल अन्तमुहूर्त प्रमाण समझना चाहिए। यहां जो तीर्थकर और आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम बतलाई, वह स्थिति अनिकाचित तीर्थकर और आहारकद्विक की बतलाई है। निकाचित तीर्थकर नाम और आहारकद्विक की स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर के संख्यातवें भाग से लेकर तीर्थकर नामकर्म की स्थिति तो कुछ कम दो पूर्व कोटि अधिक तेतीस सागर है और आहारकद्विक की पल्य के असंख्यात भाग है। तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम बताये जाने पर जिज्ञासु प्रश्न प्रस्तुत करता है कि जब तीर्थकर नामकर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम १ कुछ कम कोडाकोड़ी को अन्तःकोड़ाकोड़ी कहते हैं। जिसका अर्थ यह हुआ कि तीनो कर्मों की उत्कृष्ट और बघन्य स्थिति कोडाकोडी सागरो पम से कुछ कम है। २. अंतो कोडाकोडी तित्थयराहार तीए सखाओ । तेतीस पलिय संखं निकाइयाणं सु उक्कोसा । -पंचसंग्रह ५।४२ 3. गो कर्मकांड गापा १५७ की भाषा टीका में अन्तःकोड़ाकोडी का प्रमाण इस प्रकार बताया है कि एक कोड़ाफोड़ी सागर की स्थिति की अबाधा सौ वर्ष बताई है। इस सौ वर्ष के स्यूल रूप से दस लाख अस्सी (शेष अगसे पृष्ठ पर) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জার है लब तीर्थंकर प्रकृति की सत्तावाला जीव तियंचगति में जाये बिना नहीं रह सकता है । तियंचगति में भ्रमण किये बिना इतनी लम्बी स्थिति पूर्ण नहीं होती है। क्योंकि पंचेन्द्रिय पर्याय का काल कुछ अधिक एक हजार सागर और वसकाय का काल कुछ अधिक दो हजार सागर बतलाया है ।' अतः इससे अधिक समय तक न कोई जीव लगातार पंचेन्द्रिय पर्याय में जन्म ले सकता है और न त्रसकाय में ही और अन्त कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थिति का बंध करके जीव इतने लम्बे काल को केवल नारक, मनुष्य और देव पर्याय में जन्म लेकर पूरा नहीं कर सकता है, इसलिये उसे तिर्यंचति में अवश्य जाना पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि तिर्यचगति में जीवों के तीर्थकर नामकर्म की सत्ता का निषेध किया है, अतः इतने काल को कहाँ पूर्ण करेगा और तीर्थंकर के भव से पूर्व के तीसरे भन्त्र में तीर्थंकर प्रकृति का बंध हजार मुहूर्त होते हैं। जब इसने मुहूर्त अवांधा एक कोडाफोड़ी लागर को है तब एक मुहूर्त अबाधा कितनी स्थिति की होगी? इस प्रकार राशिक करने पर एक कोडाकोड़ी में दस लाख अस्सी हजार मुहूर्त का भाग देने पर ६२५६२३६२४ लब्ध आता हे । इतने सागर प्रमाण स्थिति की एक महतं अबाधा होती है. यानी एक मुहूतं अबाधा इतने सागर प्रमाण स्थिति की है। इसी हिसाब से अन्तमुहर्त प्रमाण अबाधा दाले कर्म की स्थिति जानना चाहिये । १. एगिदियाण णता दोणि सहस्सा तसाण काय ठिई 1 अयराण इग पणिदिसू नरतिरियाणं सगठ्ठ भवा ।। -पंचसंग्रह २।४६ २. अंतो कोडाकोडी ठिईए वि कहं न होइ निस्थपरे । नने किलियकाल निरिभो आप होइ र विरोहो ।। -पंचसंग्रह ११४३ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचन कर्मप्रन्य १३५ होना बताया है। जिससे अन्तःकोड़ाकोड़ी सामरोपम की स्थिति में यह भी कैसे संभव है ? उक्त जिज्ञासा का समाधान यह है कि तिर्यंचगति में जो तीर्थकर नामकर्म का निषेध किया है, वह निकाचित तीर्थंकर नामकर्म की अपेक्षा से किया है अर्थात् जो तीर्थंकर नामकम अघश्य अनुभव में आता है, उसी का तियंत्रगति में अभाव बतलाया है, किंतु जिसमें उदवर्तन, अपवर्तन हो सकता है, उस तीर्थंकर प्रकृति के अस्तित्व का निषेध तियंत्रगति में नहीं किया है। इसी प्रकार तीर्थकर के भद से पूर्व के तीसरे भव में जो तीर्थकर प्रकृति के बन्ध का कथन है, वह भी निकाचित तीर्थंकर प्रकृति की अपेक्षा से किया गया है। जो तीर्थकर प्रकृति निकात्रित नहीं है यानी उद्वर्तन अपवर्तन हो सकता है, वह तीन भव से भी पहले बांधी जा सकती है। सिद्धान्त में जो तीर्थकर नामकर्म की सत्ता का तिर्यंचगति में निषेध किया है, वह तीसरे भव में होने वाली सुनिकाचित तीर्थकर १. जं, बज्मई त त भगवओ तइयभवोसक्कइत्ताणं ।। -आवायक नियुक्ति १८० २, अमिह निकाइयतित्थं तिरियभवे सं निसेहियं सते। इयरमि नत्यि दोसो उबट्टणुवटुणास । -पंचसंग्रह १४४ ३. जं वज्मइति मणिय तत्थ निकाइज इत्ति णियमोयं 1 नदबंझफनं निममा भयणा अणिका इमावत्यै ।। -जिनमदणि क्षमाश्रमण, विशेषणवती टीका ४. जिम कर्म की उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, ये चारों हो अवस्थायें न हो सकें, उसे निकाचित कहते हैं। ५. कर्मों की स्थिति और अनुभाग के वद जाने को उदतन कहते हैं। .. बड़ को की स्थिति नथा अनुभाग में अध्यनमाय विशेष में कमी का देना अपवर्तन है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पातक मामकर्म की सत्ता की अपेक्षा से कहा है, न कि सामान्य सत्ता की अपेक्षा से । इसलिए अनिकाचित तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता रहने पर भी जीव का चार मशिनों में जाने से किसी गाय का मिसेवकही है। उक्त कथन का सारांश यह है कि तीथंकर नामकर्म की स्थिति अंतःकोडाकोड़ी सागरोपम और तीर्थकर के भव स पहले के तीसरे भव में जो उसका बंध होना कहा है, वह इस प्रकार समझना चाहिए कि तीसरे भव में उद्वर्तन, अपवर्तन के द्वारा उस स्थिति को तीन भवों के योग्य कर लिया जाता है। यद्यपि तीन भवों में तो कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति पूर्ण नहीं हो सकती है अतः अपवर्तनकरण के द्वारा उस स्थिति का हास कर दिया जाता है । शास्त्रों में जो तीसरे भय में तीर्थकर प्रकृति के बंध का विधान किया है, वह निकाचित तीर्थकर प्रकृति के लिये समझना चाहिये यानी निकाचित प्रकृति अपना फल अवश्य दे देती है, किन्तु अनिकाचित तीर्थंकर प्रकृति के लिये कोई नियम नही है। वह तीसरे भव से पहले भी बंध सकती है। नरकायु और देवायु की उत्कृष्ट स्थिति पहले बतला आये हैं, अतः यहां मनुष्यायु और तिर्यंचायु को उत्कृष्ट स्थित बताई है कि 'नरतिरियाणाउ पल्लतिग' मनुष्य और तिर्यंचायु तीन पल्य की है।' आयुकर्म की स्थिति के बारे में यह विशेष जानना चाहिये कि भवः स्थिति की अपेक्षा से उत्कृष्ट और जघन्य आयु का प्रमाण बतलाया जाता है कि कोई भी जीव जन्म पाकर उसमें जघन्य अथवा उत्कृष्ट कितने काल तक जी सकता है । - १. नस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्त । तिर्यग्योनीनां च । -तरवार्षसूत्र ३।१७.१० Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १३७ अब आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति के बारे में कुछ विशेष स्पष्टीकरण करते हुए अबाधाकाल चलते हैं । इगविगलपुव्यकोडि पलियासंखस आउचउ अमना । freeकमाण हमासा अबाह सेसाण भवसो ||३४|| शब्दार्थ - विगल - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पुरुषको डिपूर्व कोडी वर्ष को आयु. पलियासखंस - पोप का असख्या माग, आउच चारों आयु, अमना असशी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, freeकमाण – निरुपक्रम आयु वाले के छमासा छह माह अबाह - अबाधाकाल, सेसाण बाकी के ( संख्यात वर्ष की तथा सोपक्रम आयु वाले के) अवतंसो भव का तीसरा भाग | · गाथा - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पूर्व कोटि वर्ष की आयु और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त चारों आयुयों को पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी आयु बांधते हैं । निरुपक्रम आयु वाले को छह माह का तथा शेष जीवों (संख्यात वर्ष की व सोपक्रम आयु वाले) के भव का तीसरा भाग जितना अबाधाकाल होता है । SLA - विशेषार्थ- -मनुष्य और तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु सामान्य से तीन पल्य की बतलाई है, लेकिन विशेष की अपेक्षा उनमें से कुछ तिर्यचगति के जीवों की उत्कृष्ट आयु तथा आयुकर्म की स्थिति का अबाधाकाल गाथा में स्पष्ट किया गया है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पर्याप्तक जीवों का अलग से उत्कृष्ट आयु स्थितिबंध बतलाने का कारण यह है कि पूर्वोक्त उत्कृष्ट स्थितिबंध केवल पर्याप्त संज्ञी जीव ही कर सकते हैं, अतः वह स्थिति पर्याप्त संज्ञी जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए । लेकिन एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंशी उक्त उत्कृष्ट स्थिति में से कितना Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक स्थिति में हैं भोर साधा:]; कालिया वक्षा : को यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है कि "इगधिगलपृथ्वकोडि' एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव आयुक्रम की उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्व' कोटि प्रमाण बांधते है तथा असंज्ञो पर्याप्तक जीव चारों ही आयु कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति पल्य के असंख्यात भागप्रमाण–पलियासंख्स आउचउ अमणा । __एकेन्द्रिय आदि जीवों के आयुकर्म के उक्त उत्कृष्ट स्थितिबंध होने का कारण यह कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीत्र मरण करके तिर्यंचगति या मनुष्यगति में ही जन्म लेते हैं। वे मर कर देव या नारक नहीं हो सकते हैं तथा तिर्यंच और मनुष्यों में भी कर्मभूमिजों में ही जन्म लेते हैं, भोगभूमिजों में नहीं । जिससे वे आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्व कोटि प्रमाण वाँधते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मरण करके चारों ही गतियों में उत्पन्न हो सकता है, जिससे वह चारों में से किसी भी आयु का बंध कर सकता है । लेकिन यह नियम है कि मनुष्यों में कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है, तिर्यंचों में कर्मभूमिज तिर्वच ही होता है. देवों में भवनवासी और व्यंतर हो होता है तथा नारकों में पहले नरक के तीन पाथड़ों तक ही जन्म लेता है। अतः उसके पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही आयुकर्म का बंध होता है । १ पूर्व का प्रमाण इस प्रकार बतलाया है पृथ्वस्म उ परिमाणं समरी खल होति सयमहस्साई । प्पणं च सहस्सा बौद्धधवा बासकोटीणं । - सर्वार्थसिद्धि से उद्धृत – मनर लाल, छप्पन हजार करोड़ वर्ष का एक पूर्व होता है । २ गो० कर्मकाण्ड मा० ५३८ से ५४३ तक में किस गति के जीव मरण करके {अगले पृष्ठ पर देने) । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ १३६ आमुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की अबाधा का संकेत पूर्व में किया जा चुका है कि एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति में सौ वर्ष अबाधाकाल होता है। लेकिन यह अनुपात आयुकर्म की अबाधा स्थिति पर लागू नहीं होता है । इसका कारण यह है कि अन्य कर्मों का बंधतो सदा होता रहता है। किन्तु आयुकर्म का बंध अमुकअमुक काल में ही होता है। इसलिए आयुकर्म के अबाधाकाल का अलग से संकेत किया गया है कि - निरुवकमाण छमासा - निरुपक्रम आयु वाले अर्थात् जिनकी आयु का अपवर्तन, घात नहीं होता ऐसे देव, नारक और भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंचों के आयुकर्म की अबाधा छह मास होती है तथा शेष मनुष्य और तिर्यंचों के आयुकर्म की अबाधा अपनी-अपनी आयु के तीसरे भाग प्रमाण है- अबाह सेसाण भवतंसो । | गति के अनुसार आयुबंध के अमुक-अमुक काल निम्न प्रकार हैंमनुष्यगति और तिर्यंचगति में जब भुज्यमान आयु के दो भाग बीत जाते हैं तब परभव की आयुबंध का काल उपस्थित होता है । किस-किस गति में जन्म लेते हैं, का स्पष्टीकरण किया गया है। तियंचों के सम्बन्ध में लिखा है तेजदुगं तेरिच्छे से अपुष्यवियलगायतहा । लिल्यूणगरीवि तहाऽसण्णी घम्मे य देवदुगे || ५४९ ।। तेजस्काधिक और वायुकाधिक जीव मरण करके नियंच गति में और मनुष्य गति में हो जन्म लेते हैं। किन्तु तीर्थकर वगैरह नहीं हो सकते हैं तथा असंजी पंचेन्द्रिय जीव पूर्वोक्न तिर्यष और मनुष्य गति में तथा धर्मा नाम के पहले नरक में और देवद्रिक यानी भवनवासी और व्यंतर देवों में उत्पन्न होते हैं । १ आउस य आवाहा ण डिपिडिमा | —गो० कर्मकांड १५८ जैसे अन्य कर्मों में स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार अबाधा का प्रमाण निकाला जाता है, वैसे आसुकर्म में नहीं निकाला जाता है । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक जैसे कि यदि किसी मनुष्य को आयु ६ वर्ष है तो उसमें से ६६ वर्ष बीतने पर वह मनुष्य परभव की आयु बाँध सकता है, उससे पहले उसके आयुकर्म का बंध नहीं हो सकता है। इसलिये मनुष्यों और तिर्यचों के बध्यमान आयुकर्म का अबाधाकाल एक पूर्व कोटि का तीसरा भाग बतलाया है, क्योंकि कर्मभूमिज मनुष्य और तियंत्र की उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि की होती है और उसके विभाग में परभव की आयु बंधती है। कर्मभूमिज मनुष्य और तिथंचों की अपेक्षा से आयुकर्म को अबाधा की उक्त व्यवस्था है, लेकिन भोगभूमिज मनुष्य और तिथंचों तथा देव और नारक अपनी-अपनी आयु के छह माम् शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं । क्योंकि ये अनपवर्त्य आयु वाले है. इनका अकाल मरण नहीं होता है।' इसी से निरुपक्रम आयु वालों के वध्य मान आयु का अबाधाकाल छह मास बतलाया है। आयुकर्म की अबाधा के संबंध में एक बान और ध्यान में रखने योग्य है कि पूर्व में जो सात कर्मों की स्थिति बतलाई है उसमें उनका अबाधाकाल भी संमिलित है। जैसे कि मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम को बतलाई है और उसका अबाधाकाल सात हजार वर्ष है, तो ये मात हजार वर्ष उस सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम की स्थिति में संमिलित हैं । अतः जब मिथ्यात्व मोहनीय की अबाधारहित स्थिति (अनुभवयोग्या) को जानना चाहें तो उसकी अबाधा के सात हजार वर्ष कम कर देना चाहिए । किन्तु १ ओपपातिकनरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः । - तस्वार्थसूत्र २०५२ -- औपपातिक (नारक और देव, नाम शरीरी, उत्तम पुरुष और असंख्यात वर्ष जीवी, ये अनपवर्तनीय आयु वाले होते हैं । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्रत्य १४१ आयुकर्म की स्थिति में यह बात नहीं है । आयुकर्म की तेतीस सागर, तीन पल्य, पल्य का असंख्यातवां भाग आदि जो स्थिति बतलाई है, वह शुद्ध स्थिति है, उसमें अदाधाकाल संमिलित नहीं है । इस अन्तर का कारण यह है कि अन्य कर्मों की अबाधा स्थिति के अनु पात पर अवलंबित है जिससे वह सुनिश्चित है किन्तु आयुकर्म की अबाधा सुनिश्चित नहीं है। क्योंकि आयु के विभाग में भी आयुकर्म का बंध अवश्यंभावी नहीं है। विभाग के भी विभाग करते करते आठ विभाग पड़ते हैं । उनमें भी यदि आयु का बंध न हो तो मरण मे अन्तर्मुहूर्त पहले अवश्य हो आयु को बंध हो जाता है। इसी अनिश्चितता के कारण आयुकर्म की स्थिति में उसका अबाधाकाल संमिलित नहीं किया गया है । परभव संबंधी आयुबंध के संबंध में संग्रहणी सूत्र में भी इसी बात को स्पष्ट किया है वर्धति देवनाराय असंखनरतिरि मास साऊ । परभवियांक सेसा निश्वरकम विभागमेसाऊ ॥ ३०१ ॥ सोखकमाया पुणे सेसतिमागे अव नवमभागे सतावीस इमेषा अंतमुत्ततिमेवादि ॥ ३०२ ॥१ देव, नारक और असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यच छह मास की आयु बाकी रहने पर और शेष निरुपक्रम आयु वाले जोव अपनी आयु का विभाग बाकी रहने पर परभव की आयु बांधते हैं । सोपक्रम आयु वाले जीव अपनी आयु के त्रिभाग में अथवा नौवें भाग में अथवा सत्ताईसवें भाग में परभव की आयु बांधते हैं। यदि इन त्रिभागों में भी आयु बंध नहीं कर पाते हैं तो अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ शतक परभव की आयु का बंध करते हैं।' १ गोल कर्मकांड में भी आयुबंध के संबंध में सामान्यतया यही विचार प्रगट किये हैं किन्तु देव नारक और भागभूमिजों की छह माह प्रमाण अबाधा को लेकर उसमें मतमंद है कि छह मास म आयु का बंध नही होता किन्तु उसके विभाग में आयुबंध होता है और नत विभाग में भी यदि आयु न बंधे तो छह मास के नौवें भाग में आय बंध होता है । इसका सारा यह है कि जैसे कमभूमिज मनुष्य और नियंत्रों में अपनीअपनी पूरी आयु के विभाग में परभव को आयु का बंध होता है, ये में ही देव. नारक और भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यचों के छह माह के त्रिभाग में आयुबंध होता है : दिगम्दार में नामाबर नहीं • त । भोगभूमिज्जों को लेकर मतभेद है । किन्हीं का मत है कि उनमें नो मास आयु शेष रहने पर उसके विभाग में परभव की आयु का बध होता है । इसके सिवाय एक मतभेद यह भी है कि यदि आठों विभागों में आयु बंध न हो तो अनुभूयमान आयु का एक अन्तर्मुहत काल बाकी रह जाने पर रभव की आमू नियम से बन जाती है । यह सर्वमान्य मन है किन्तु किन्ही-किन्ही बे. मन से अनुभयमान आयु का काला आवलिका के असंख्यात भाग प्रमाण वायी रहने पर परमव की आयु का ना नियम से होता है। गो. कर्मकांड में गा० १२८ से १३३ तक कर्मग्रन्थ के समान ही उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध चा कथन विधा है। लेकिन एक बात उल्लेखनीय है कि उसमें वर्णादि चतुष्क की स्थिति बीसकोडाकोड़ी सागरोपम' की बतलाई है और कर्मग्रंथ में उसके अवान्नर भेदों को लेकर दस कोडाकोड़ी सागरोपम से लेकर बीस कोड़ाको डी मामरोषम तक बताई है । इम अन्तर का कारण यह है कि कर्मग्रंथ में चसंग्रह के आधार से वर्ण, गंध, रस, रूपर्श के अवान्तर मेदों की उत्कृष्ट स्थिति का कथन किया है । वैसे तो बंध की अपेक्षा से वर्णादि चार ही हैं । स्नोपज्ञ टीका में ग्रंथकार ने स्वयं इसका स्पष्टीकरण किया है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कमग्नन्य इस प्रकार से उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति और अबाधाकाल को बतलाकर अब आगे उनकी जघन्य स्थिति बतलाते हैं । लहुठिबंध मजलणलोहपविग्घनाणदंसेसु । मिनमुहुत्त ते अट्ट असुच्ने बारम | साए ॥३५॥ शब्दार्थ – लहटिइबंधो-जघन्य स्थितिबन्ध, संजलणलोह – मंत्र - जन लोभ, पणविग्ध --पांच अन्न गय, नागसेसु-ज्ञानावरण और दर्शनावरण का, भिन्नमुहुसं–अन्तर्मुहूतं, ते ... वह, अट्ठ-आठ गुहूर्त, जमुम्चे-पश की ति और उच्च गोत्र का, पारस –बारह मुहूर्त, यऔर, साए–साता वेदनीय का। गाथार्य-संज्वलन लोभ, पांच अंतराय, पांच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण का जघन्य स्थितिबंध अन्तमुहर्त है । यशःकीर्ति नामकर्म और उच्च गोत्र का आठ मुहूर्त तथा साता वेदनीय का बारह मुहूर्न जघन्य स्थितिबंध है । विशेषार्थ- पूर्व में कर्म प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बतलाया जा चुका है । इस गाथा से उनके जघन्य स्थितिबंध का कथन प्रारंभ करते हैं । इस गाथा में जिन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के प्रमाण का निर्देश किया है, उनमें धाती कर्मों की पन्द्रह और अघाती कर्मों की तीन प्रकृतियां हैं । विभागानुसार उनके नाम इस प्रकार है____घाती—मतिज्ञानावरण आदि पांच ज्ञानाबरण, चक्षुदर्शनावरण आदि चार दर्शनावरण, संज्वलन लोभ, दानान्तराय आदि पांच अन्तराय । अघाप्ती-यशःौति नामकर्म, उच्चगोत्र, साता वेदनीय । जघन्यस्थितिबंध के सम्बन्ध में यह सामान्य नियम है कि यह स्थितिबंध अपने-अपने बंधविच्छेद के समय होता है । अर्थात् जब उन प्रकृ. तियों का अन्त आता है, तभी उक्त जघन्य स्थितिबंध होता है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ शतक संज्वलन लोभ का जघन्य स्थितिबंध नौवें गुणस्थान में और पांच अंतराय, पांच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण का बंधविच्छेद दसर्वे गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है तथा यशःकीर्ति नामकर्म व उन्लोन का भी दानितमोन हार्ने गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है। तभी उनका जघन्य स्थितिबंध समझना चाहिये । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तमुहर्त प्रमाण तथा नाम, गोत्र का जघन्यस्थिति आठ मुहर्न प्रमाण है | साता वेदनीय की जघन्य स्थिति जो बारह मुहूतं बताई है बह जघन्य स्थिति सकपाय जीवों की अपेक्षा में समझना चाहिए । क्योंकि यह पहले बतलाया जा चुका है कि अकपाय जीवों को अपेक्षा से तो उपशान्तमोह आदि गुणस्थानों में उसको जघन्य स्थिति दो ममय है। साता वेदनीय की बारह मुहूर्त की जघन्य स्थिति दस गुणस्थान के अंतिम समय में होती है। दो इगमासो पक्खो संजलणतिगे घुमटूवरिसाणि । सेसाणूनकोसाओ मिचछत्तठिईइ जं लद्धं ॥३६॥ शब्दार्थ--योगमासो - दो मास और एक माम. पक्खो-पक्ष (पखवाड़ा), संजलणतिगे --सज्वलनधिक की पु-पुरुपवेद, अट्ट-आठ, परिमाणि वर्ष, सेसाण-पोष प्रकृतिया की, उक्कोसाभी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति पं, मिच्छसलिईड- मिथ्यात्व की स्थिति का भाग देने से, जं - जो, सई-नन्ध प्राप्त हो । गायार्थ—संज्वलनत्रिक की जघन्य स्थिति क्रम से दो मास, एक मास और एक पक्ष है । पुरुष वेद की आठ बर्ष तथा शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थिति उनको उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति के द्वारा भाग देने पर प्राप्त लब्ध के बराबर है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ {t विशेष – इस गाया में चार प्रकृतियों की तो निश्चित जघन्य स्थिति व शेष की जघन्य स्थिति जानने के लिये सूत्र का संकेत किया है। गाथा में चार प्रकृतियों के नाम इस प्रकार बताये हैं-संज्वलन क्रोध, संञ्चालन मान, संज्वलन माया और पुरुष वेद, इनका जघन्य स्थितिबंध क्रमशः दो मास एक मास, एक पक्ष (पन्द्रह दिन) और आठ वर्ष है। यह जघन्य स्थितिबंध अपनी-अपनी बंधव्युच्छित्ति के काल में होता है और इनका बंधविच्छेद नीचे गुणस्थान में होता है । शेष प्रकृतियों को जघन्य स्थिति जानने के लिये ग्रन्थकार ने एक नियम बतलाया है कि उन उन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति जो सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपन है, का भाग देने पर प्राप्त लब्ध उनको जघन्य स्थिति है । जघन्य स्थिति को बतलाने वाला यह नियम ८५ प्रकृतियों पर लागू होता है । क्योंकि तीर्थंकर और आहारकद्विक तथा पूर्व गाथा में निर्दिष्ट अठारह प्रकृतियों व इस गाथा में बताई चार प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का कथन किया जा चुका है तथा चार आयु व क्रियषट्क की जघन्य स्थिति का कथन आगे किया जा रहा है । अतः बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में में ३, १८, ४, ४, ६ ३५ प्रकृतियों को कम करने पर ८५ प्रकृतियां शेष रहती हैं। जिनकी जधन्य स्थिति इस प्रकार है C निद्रापंचक और असातावेदनीय की जघन्य स्थिति सागर, मिथ्यात्व की एक सागर, अनंतानुबंधी क्रोध आदि बारह कषायों की सागर, स्वीवेद और मनुष्य द्विककी २४ सागर ( के ऊपर नीचे के अंकों को ५ से काटने से ), सूक्ष्मत्रिक, विकलनिकको २ के अंक से काटने से ), स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, हास्य, रति, शुभ विहायोगति, वज्रऋषभनाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान, सुगन्ध, शुक्लवर्ण, मधुररस, मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण स्पर्श की सागर तथा Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ शेष शुभ और अशुभ वर्णादि चतुष्क की डे सागर, दूसरे संस्थान और संहतन की सागर, तीसरे संस्थान और संहनन की सागर, ate संस्थान और संहनन की सागर, पांचवें संस्थान और संहनन की सागर और शेष प्रकृतियों की सागर जघन्य स्थिति समझना चाहिये | TY इन ८५ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव ही कर सकते हैं। इन जघन्य स्थितियों में पल्य का असंख्यातवां भाग बढ़ा देने पर एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा से इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण. जानना चाहिये ।" गाथा के उत्तरार्धं - मेमाक्कोसाओ मत लिई जं लद्धं का उक्त विवेचन पंचसंग्रह के अनुसार किया गया हैं । लेकिन कर्मप्रकृति ग्रन्थ के अनुसार इसका विवेचन निम्न प्रकार से होगा 'उक्कोसाओ' का अर्थ उस उस प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति न लेकर वर्ग' की उत्कृष्ट स्थिति ग्रहण करना चाहिये। जैसे मतिज्ञानावरण आदि प्रकृतियों का समुदाय ज्ञानावरण वर्ग कहा जाता है। चक्षुदर्शनावरण आदि प्रकृतियों का समुदाय दर्शनावरण वर्ग है। साता वेदनीय आदि प्रकृतियों का वर्ग बेदनीय वर्ग है। दर्शनमोहनीय की उत्तर प्रकृतियों का समुदाय दर्शनमोहनीय वर्ग है । कषाय मोहनीय की प्रकृतियों का समुदाय कषाय मोहनीय वर्ग, नोकषाय मोहनीय शतक १ वध अवस्था में वर्णादि बार लिये जाते हैं, उनके मेद नहीं, तथा उनकी उत्कृष्ट स्थिति जीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम होती है । मत: चारों की जघन्य स्थिति सामान्य से 3 सागर को समझना चाहिये । वर्णचतुष्क के अवान्तर भेदों की स्थिति पंचसंग्रह के अनुसार बताई है। जा एगिदि जहन्ना पहला संस संजुया सा उ । तेस जेट्ठा २ ------LLANTI--------- | पंचसंग्रह ५।५४ ३ सजातीय प्रकृतियों के समुदाय को वर्ग कहते हैं । 1 ¦ · Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य १४७ की प्रकृत्तियों का समुद्राय नोकषाय मोहनीय वर्ग, नामकर्म को प्रकृतियों का समुदाय नामकर्म का वर्ग, गोत्रकर्म को प्रकृतियों का समृद्राय गोत्रकर्म बर्ग और अन्तरायकर्म की प्रकृनियों का समुदाय अन्तरायकर्म वर्ग कहलायेगा ! इस प्रकार के प्रत्येक वर्ग को जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसे वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं और उस स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिान सनर कोड़ा ड़ी बारोमग रु भाग लेकर जो लब्ध आता है, उसमें से पल्य का असंख्यातवां भाग कम कर देने पर उस वर्ग के अंतर्गत आने वाली प्रकृतियों की जघन्य स्थिति ज्ञात हो जाती है । ऐसा करने का कारण यह है कि एक ही वर्ग की विभिन्न प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में बहुत अन्तर देखा जाता है । जैसे कि वेदनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है लेकिन उसके ही भेद सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति उससे आधी अर्थात् पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरोपम की बताई। पंचसंग्रह के विवेचनानुसार साता - वेदनीय की जघन्य स्थिति मालूम करने के लिये उसकी उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देना चाहिये और कर्मप्रकृति के अनुसार साता वेदनीय के वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर लब्ध में पल्य के असंख्यात भाग को कम करना चाहिये ।' १. बग्गुक्कोसठिईण मित्तकोसगंण मं लख । सेसाणं तु जहन्ना पल्लासखिज्जमागणा। -कर्मप्रकृति ७९ अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध आता है, उसमें पल्य के अमरूमाप्त भाग को कम कर देने पर शेष प्रातियों की जघन्य स्थिति ज्ञात होती है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ तक इसके अनुसार दर्शनावरण और वेदनीय वर्ग को उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़: कोड़ी सागर का भाग देने पर जो लब्ध आता है उसमें पत्य के असंख्यातवें भाग को कम कर देने पर निद्रापंचक और असाता वेदनीय की जघन्य स्थिति ज्ञात होती है। दर्शनमोहनीय वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर प्राप्त लब्ध एक सागर में पल्य का असंख्यातवां भाग कम करने पर मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति होती है। कषायमोहनीय वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोडाकोडी सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर लब्ध के सागर में से पल्य का असंख्यातवां भाग कम करने पर अनन्तानुबंधी क्रोधादि बारह कषायों की जघन्य स्थिति ज्ञात होती है। नोकषायमोहनीय वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर लब्ध सागर में से पल्य का असंख्यातवां भाग कम करने पर पुरुष वेद के सिवाय शेष आठ नोकपायों की जघन्य स्थिति आती है। नामवर्ग और गोववर्ग की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोड़ी सागर में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर लब्ध में से पल्य का असंख्यातवां भाग कम कर देने पर वैक्रियषट्क, आहारकद्विक, तीर्थंकर, यश:कीर्ति को छोड़कर नामकर्म की शेष सत्तावन प्रकृतियों और नीचगोत्र की जघन्य स्थिति ज्ञात होती है। यहां पर जो ८५ प्रकृतियों की जवन्य स्थिति बतलाई है, उसमें कर्मप्रकृति की विवेचना के अनुरूप पल्य के असंख्यातवें भाग को कम करने का संकेत इस गाथा में नहीं किया गया है, लेकिन आगे की गाथा में 'पलियासंखं सहीण लहुबंधों पद दिया है। जिसका अर्थ है पल्य के असंख्यातवें भाग को कम कर देने पर एकेन्द्रिय जीव को उनउन प्रकृतियों की अघन्य स्थिति होती है । अतः कर्मप्रकृति के अनुसार पंच क र का १ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ PFC कर्म प्रकृतियों की जघन्य स्थिति की विवेचना करने में आगे की गाथा के उक्त पद की अनुवृत्ति कर लेने पर किसी प्रकार की विभिन्नता नहीं रहती है। क्योंकि यह पहले संकेत कर आये हैं कि जघन्य स्थिति ' का बंध एकेन्द्रिय जीव करते हैं। कुछ एक प्रकृतियों को छोड़कर शेष प्रकृतियों की सामान्य से जघन्य स्थिति बतलाकर अब एकेन्द्रिय आदि जीवों के योग्य प्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति तथा आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बतलाते हैं । अयमुक्होसो गिदिसु पलियासंखसहोण लहुबंधो । कमसो पणवीसाए पन्नासप्रसहस्ससंगुणिओ ||३७|| विगलिसन्विसु जिट्ठो कमिज पल्लसंखभागूगो । सुरनरपाउ समावस सहस्स सेसाउ खुड्डभयं ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ - अयं यह (पूर्वोक्त रीति में बनाया गया), उनकोसो – उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, गिबिसु एकेन्द्रिय का, पलियासहीण - पल्योगम के असंख्यातवें भाग होन, लघुबंधो जघन्यस्थितिवध, कमसो - अनुक्रम से, पणवीसाए हजार से, संगुणिओ पस्चीस से पन्ना पचास गुणा करने पर --- से, सब मौ से, सहस विगलिसग्नि विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय का जिडो– उत्कृष्ट स्थितिबंध, कणिट्ठउ-जघन्य स्थितिबंध, पल्ल संभागो पल्योपम के संख्यातवें भाग को कम करने से, सुरनरपाच देवायु और नरकायु की, समा वर्ष, इससहस्स– दस हजार, सेसा बाकी की आयु की, खुट्टम - क्षुद्रभव | गाथायें एकेन्द्रिय जीवों के पूर्वोक्त स्थितिबंध उत्कृष्ट और जघन्य पत्योपम के असंख्यातवें भाग कम समझना १. जघन्य स्थितिबंध के संबंध में विशेष स्पष्टोकरण परिशिष्ट में देखिये । - - - " — Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए तथा अनुक्रम से पच्चीस, पचास, सो, हजार में गुणा करने पर - विकलेन्द्रियों और असंज्ञी पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होता है तथा जघन्य स्थितिबंध पल्योपम का संख्यातवां भाग न्यून है। देवाबु और नरकायु की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष तथा शे| आयुओं की क्षुद्रभव प्रमाण है। विशेषाध-चूर्व की गाथाओं में उत्तर प्रकृतियो को उत्कृष्ट और जधन्य स्थिति सामान्य से बतलाई है। लेकिन इन दो गाथाओं में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, नौन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय को अपेक्षा उत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति बतलाने के । साथ-साथ आयुकर्म के चारों भेदों की जघन्य स्थिति भी बतलाई है। । पूर्व गाथा में शेष ८५ प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध को बतलाने के लिये उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति या उनके वर्ग की उत्कृष्ट । स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने का जो विधान किया गया है, उसी को एकेन्द्रिय जीवों के उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध को निकालने के लिये भी काम में लाया जाता है। तदनुसार विवक्षित प्रकृतियों की पूर्व में बताई गई उत्कृष्टः स्थितियों में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जितना लब्ध आता है, उतना ही एकेन्द्रिय जीव के उस प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । जैसे कि पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, पाँच अंतराय और अमातावेदनीय, इन बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है तो इसको मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम का भाग देने पर प्राप्त लब्ध , सागर प्रमाण का उत्कृष्ट स्थितिबंध एकेन्द्रिय जीव का होगा। कर्मप्रकृति के मंतव्यानुसार इनके वर्गों की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यास्त्र मोहनीय Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने से प्राप्त लब्ध के बराबर समझना चाहिए ! जैसे कि पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो बेदनीय और पाँच अंतराय के वर्गों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । उसमें मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम का भाम देने पर प्राप्त लब्ध एकेन्द्रिय जीव के उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण होगा । इस प्रकार से दोनों की कथन शैली में भिन्नता होने पर भी मूल आशय समान है। __ इसी क्रम से अन्य प्रकृतियों की स्थिति निकालने पर मिथ्यात्व की एक सागर, सोलह कषायों को सागर, नौ नोकषायों की सागर, वक्रियषट्क', आहारकद्विक और तीर्थकर नाम को छोड़कर एकेन्द्रिय १ एकेन्द्रियादिक जीद के कामियपटक हों या . उस च उत्कृष्ट स्थिति नहीं बतलाई है किन्तु असंज्ञी पंचेन्द्रिय को उसका बध होता है । अतः उसकी अपेक्षा पचसग्रह में बैंक्रियषट्क की निम्न प्रकार से जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है वश्विक्कि तं सहसताहियं जं अग्निणो तेसि । पलियासखंसूणं ठिई अबाहूणियनिसेगो ॥ —पंचसंग्रह १४६ वैक्रियपदक की उत्कृष्ट स्थिति को मिध्यात्व की स्थिति द्वारा भाग देने पर. जो लब्ध आये उसको हजार से गुणा करने पर प्राप्त गुणनफल में से पल्पोपम का असंख्यातवां भाग न्यून पंक्रियषट्क की जघन्म स्थिति है। अत्राधाकाल न्यून निषेक काल है। वंक्रियषट्क की उत्कृष्ट स्थिति वीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। यहां सना विशेष जानना चाहिये कि नरकदिक, क्रियनिक की उत्कृष्ट स्थिति वीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की और देवद्धिक की उत्कृष्ट स्थिति दस कोड़ाकोडी सागरोपम बत्त लाई है, तथापि यह उसकी जघन्य स्थिति बतलाने के लिए बीस कोडाकोडी मागर प्रमाण लिया गया है । यह स्पष्टीकरण टीका में किया गया है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ घातक के बंध योग्य नामकर्म की ५८ प्रकृतियों और दोनों गोत्रों की सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति आती है। ___ एकेन्द्रिय के इस उत्कृष्ट स्थितिबंध में से पत्य का असंख्यातवां भाग कम कर देते. पर एकेन्द्रिय जोव के जघन्य स्थितिबंध का प्रमाण होगा पलियासंखसहीण लहुबंधो। अर्थात् जो विभिन्न प्रकृ. तियों की : सागर आदि उत्कृष्ट स्थितियां बतलाई हैं, उनमें से पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम कर देने पर एकेन्द्रिय जीव के लिए वही उस प्रकृति को जघन्य स्थिति हो जाती है। ___ इस प्रकार से एकेन्द्रिय की अपेक्षा से स्थितिबंध का परिमाण बतलाने के पश्चात अब विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के लिये उसका परिमाण बतलाते हैं। एकेन्द्रिय जीव के जो सागर आदि उत्कृष्ट स्थितिबंध बतलाया है, उसको पच्चीस से गुणा करने पर द्वीन्द्रिय का,पचास से गुणा करने पर त्रीन्द्रिय का, सौ से गुणा करने पर चतुरिन्द्रिय का और हजार से गुणा करने पर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का उत्कृष्ट स्थितिबंध का परिमाण होता है । इसका अर्थ यह है कि द्वीन्द्रिय आदि जीवों का स्थितिबंध एकेन्द्रिय जीव के स्थितिबंध की अपेक्षा पच्चीस, पचास गुणा आदि अधिक है । जैसे एकेन्द्रिय जीव के मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति एक सागर है तो हीन्द्रिय जीव के उसकी उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागर बंधती है । अन्य प्रकृतियों के लिये भी इसी अपेक्षा को समझ लेना चाहिये । इसी प्रकार श्रीन्द्रिय के लिए जानना चाहिये कि एकेन्द्रिय जीव की मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति एक सागर प्रमाण है तो उससे पचास गुणी यानी पचास सागर प्रमाण बंधती है । अन्य प्रकृतियों के स्थितिबंध के बारे में भी इसी नियय का उपयोग करना चाहिए। चतुरिन्द्रिय जीव के लिए एकेन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट स्थिति में सौ का Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फार्मग्रन्य १५३ गुणा तथा असंशी पंचेन्द्रिय के लिये हजार का गुणा करना चाहिए । इसका जो गुणनफल प्राप्त हो वह उन-उन जीवों की उस-उस प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति होगी। द्वीन्द्रिय से लेकर असंशी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जो उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध बतलाया है, उसमें से पल्य' का संख्यातवां भाग कम कर देने पर उनका अपना-अपना जघन्य स्थितिबंध होता है। इस प्रकार एकेन्द्रिय से लेकर असंञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों के स्थितिबंध का प्रमाण समझना चाहिये। १ कर्मग्रन्थ की तरह गो० कर्मकांड में भी एकेन्द्रिय आदि जीवों के स्थितिबंध का प्रमाण बतलाया है । उसकी कथन प्रणालो इस प्रकार है एवं पगदि पाणं सपं सहस्सं च मिमवरवंधो। इगविगलाणं अवरं पल्लासंग्णसंखण ॥१४४॥ एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिम चतुष्क (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, पतुरिन्द्रिय, असंगी पचेन्द्रिय) जीवों के मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबंध क्रमशः एक सागर, पच्चीस सामर, पचास सागर, सो मागर और एक हजार सागर प्रमाण है तथा उसका जघन्य स्थितिबंध एकेन्द्रिय के पस्य के असंख्यात भागहीन एक सागर प्रमाण है तथा विकनेन्द्रिय जीवों के पल्य के संख्यातवें भाग हीन अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है। आदि सप्तरिस्स एत्तिपमेतं कि होदि तीसियाबोगं । हरि संपाते सेसाणं इगिविगले उभयठिनी ॥१४॥ यदि सत्तर कोडाकोड़ी सागर की स्थिति वाला मिध्यात्म कर्म एकेन्द्रिय जीव एक सागर प्रमाण बांधता है तो सीस कोडाकोड़ी सागर आदि की स्थिति वाले बाकी कर्मों को एकेन्द्रिय जीव किसनी स्थिति प्रमाण बांध सकता है ? इस प्रकार राशिक विधि करने से केन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट स्थिति व सागर प्रमाण होती है, इस प्रकार दोनों स्थितियां राशिफ के द्वारा निकल आती हैं। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शमक आयुकम की उत्तर प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध इस प्रकार समझना चाहिये कि 'सूरनरयाउ समादससहस्स' देवायु और नरकायु की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है तथा देवायु व नरकायु के सिवाय शेष दो आयुओं -तिर्यंचायु, मनुष्यायु की जघन्य स्थिति क्षुद्रभव प्रमाण है । आगमों में जो मनुप्यायु और तिर्यंचायु की जघन्य स्थिति अन्तमु हुर्त प्रमाण बनलाई है, उसका यहां बतलाये गये भुद्रभव प्रमाण से कोई विरोध नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्तमुहूर्त के बहुत से भेद है, उनमें से यहां क्षुद्रभव प्रमाण अन्तमुहूर्त लेना चाहिये । अन्तमुह लिखकर उसके धोका औक परिमान का मूनक क्षुद्रभव लिखा है । क्षुदभव का निरूपण आगे किया जा रहा है। इन प्रकार से उनर प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध का कथन करके अब जघन्य अबाधा तथा तीर्थकर व आहारकद्विक के जघन्य स्थितिबंध संबंधी मतान्तर को बतलाते हैं । सवाणवि लहुबंधे भिन्नमुहू अवाह आउजिठे थि । के इ . सुराउसमं जिणमंतमूर दिति भाहारं ॥३६॥ शब्दार्थ-सन्माण- सब प्रकृतियों की.वि-तथा, समंधे --- जयन्य स्थितिबंध की, भिन्नमुत्र- अन्तर्मुहूर्त, अबाह अबाधाकाल, आउजिन्छे थि- आयु के उत्कृष्ट स्थितिबंध की भी, के-कुछ एक, मुराउमाम देवायु के समान, जिणं तीर्यवर नामकर्म की, अंतमुह .अन्त महतं, विति - कहते हैं, आहारं आहारद्धिक क्रो । ___ गाधार्य-समस्त प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध की अन्तम हुर्न की अबाधा होती है। आयुकर्म के उत्कृष्ट स्थितिबंध की जघन्य अबाधा अन्तमुहुर्त प्रमाण है। किन्ही Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १५५ आचार्यों के मत से तीर्थकर नामकर्म की जघन्य स्थिति देवायु की जघन्य स्थिति के ममान दस हजार वर्ष की है और आहारकद्विक की अन्तमुहर्त प्रमाण है । शिशेषार्थ- गाथा में दो बातों का कथन किया गया है । गाथा के पूर्वार्ध में सभी उत्तर प्रकृतियों का जघन्य अबाधाकाल और उत्तरार्ध में तीर्थंकर व आहारकाद्विक की जघन्य स्थिति का मतान्तर बतलाया जघन्य स्थितिबंध में जो अवाधाकाल होता है, उसे जघन्य अबाधा और उत्कृष्ट स्थितिबंध में जो अबाधाकाल होता है उसे उत्कृष्ट अबाधा कहते हैं। अतः जघन्य स्थितिबंध में सभी उत्तर प्रकृति के जघन्य स्थितिबंध का अबाधाकाल अन्तमुहूर्त प्रमाण बतलाया है-"सव्वाणवि लहुबंधे भिन्नमूह अबाह ।" लेकिन यह नियम आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के अवाधाकाल को बतलाने के लिए लागू होता है । क्योंकि उनकी अबाधा स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार होती है। लेकिन आयुकर्म के बारे में प्रतिभाग की निश्चित निर्णयात्मक स्थिति नहीं है। आयुकर्म की तो उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा हो सकती है और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है। इमीलिये आयुकर्म की अबाधा में चार विकल्प माने जाते हैं-(१) उत्कृष्ट स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा, (२) उत्कृष्ट स्थितिबंध में जघन्य अबाधा, (३) जघन्य स्थितिबंध में उत्कृष्ट अबाधा और (४) जघन्य स्थितिबंध में जघन्य अबाधा । इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है कि जब कोई मनुष्य अपनी पूर्व कोटि की आयु में तीसरा भाग शेष रहने पर तेतीस सागर की आयु बांधता है तब उत्कृष्ट स्थिति में उत्कृष्ट अवाधा होती है और यदि अन्तमुहूर्त प्रमाण आयु शेष रहने पर तेतीस सागर की आयु बांधता Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ सातक है तब उत्कृष्ट स्थिति में जघन्य अबाधा होती है। जब कोई मनुष्य एक पूर्व कोटि का तीसरा भाग शेष रहते परभव को जघन्य स्थिति बांधता है जो अन्तमुहूर्त प्रमाण हो सकती है, तब जघन्य स्थिति में उत्कृष्ट अबाधा होती है और जब कोई अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति शेष रहने पर परभव की अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति बांधता है तब जघन्य स्थिति में जघन्य अबाधा होती है। अत: आयुकर्भ की उत्कृष्ट स्थिति में भी जघन्य अबाधा हो सकती है और जघन्य स्थिति में भी उत्कृष्ट अबाधा हो सकती है। विशेष स्पष्टीकरण परिशिष्ट में किया गया है। इस प्रकार से कर्मों की स्थिति की अबाधा का स्पष्टीकरण समझना चाहिये । अब दूसरी बात तीर्थंकर नामकर्म व आहारकद्विक को जघन्य स्थितिबंध के मतान्तर पर विचार करते हैं। __ अन्धकार ने पूर्व में तीर्थकर और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियों को जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम बतलाई है। लेकिन कोई-कोई आचार्य इन तीनों की जघन्य स्थिति बतलाते हैं मुरनारयाउयाणं रसवाससहस्स लघु सतित्त्वाणं ।' तीर्थंकर नामकर्म सहित देवायु, नरकायु की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है । यानी तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रमाण है 1 तथा साए बारस हारगविग्यावरणाण किंवृण ।' साता वेदनीय की बारह मुहूर्त और आहारक, अंतराय, ज्ञानावरण व दर्शनावरण को कुछ कम मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति है। १. पंचसंग्रह ५।४६ २. पंचसग्रह ५१४७ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १५७ मतान्तर का उल्लेख करके इसका स्पष्टीकरण नहीं किया है । संभवतः तथाविध परंपरा का अभाव हो जाने से विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया जा सका है ।" पहले तिर्यचायु और मनुष्यायु की जघन्य स्थिति क्षुद्रभव के बराबर बतलाई है, अतः अब दो गाथाओं में क्षुद्रभव का निरूपण करते हैं । इगमुहुर्त्तामि ||४०|| सत्तरससमहिया फिर इगानुपामि ति खडङभवा । सगतीस सयतिहत्तर पाणू पुण पणसट्ठिस हस्तपणसय छत्तीसा आबलियाणं ढोसय छपन्ना इगमुत्तखु भवा । एगखुड्डभवे ॥ ४१ ॥ शब्दार्थ – सत्तरस – सत्रह समहिया कुछ अधिक, किर— प्रवासोच्छ्वास में हृति--होते निश्चय से इगाणुपाणु मि - एक हैं, खुभवा क्षुल्लक भव सगलीससयतिहत्तर - संतीस सौ F तिहत्तर, पाणु - प्राण, श्वासोच्छ्वास इगमुत्तमि एक मुहूर्त में । 1 - — पण सिहस्स पैंसठ हजार, पणसय- पांच सौ छत्तीस --- 1 खुडा - - छत्तीस इगमुहुत्त एक मुहूर्त में द्रव मावलियाणं – आवलिका, दोसय-दो सौ, छप्पन छप्पन, एमखुडवे एक क्षुद्रभव में । T Muda गाभार्य एक श्वासोच्छ्वास में निश्चित रूप से कुछ अधिक सत्रह क्षुद्रभव और एक मुहूर्त में संतीस सौ तिहत्तर श्वासोच्छ्वास होते हैं । तथा १. पंचसंग्रह में भी उक्त गाथाओं की टीका में मतान्तर का उल्लेख करके विशद विवेचन नहीं किया है। तीर्थकर नामकर्म का दस हजार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थितिबंध पहले नरक में दस हजार वर्ष की आयुबंध सहित जाने वाले जीव की अपेक्षा घटता है । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ शतक एक मुहूर्त में पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस क्षुद्रभव होते हैं और एक क्षुद्रभव में दो सौ छप्पन आवली होती हैं । विशेषार्थ - गाथा में क्षुद्र ( क्षुल्लक) भव का स्वरूप बतलाया है 1 सम्पूर्ण भवों में सब से छोटे भव को क्षुल्लक भव' कहते हैं । यह भव निगोदिया जीव के होता है। क्योंकि निगोदिया जीव की स्थिति सब भवों की अपेक्षा अल्प होती है और वह भव मनुष्य व तियंत्र पर्याय में ही होता है। जिससे मनुष्य और तिथेच आयु की जघन्य स्थिति क्षुल्लक भव प्रमाण बतलाई है। क्षुल्लक भव का परिमाण इस प्रकार समझना चाहिए कि जैन कालगणना के अनुसार असंख्यात समय की एक आवली होती है । संख्यात आवली का एक उच्छ्वास निश्वास होता है। एक निरोग, स्वस्थ, निश्चिन्त, तरुण पुरुष के एक बार श्वास लेने और त्यागने के काल को एक उच्छ्वास काल या श्वासोच्छ्वास काल कहते हैं । सात श्वासोच्छ्वास काल का एक स्तोक होता है। सात स्तोक का एक लब तथा साढ़े अड़तीस लव की एक नाली या घटिका होती है। दो घटिका का एक मुहूर्त होता है ।" तु 1 १ कालो परमनिरुद्धो अविभाज्जो लं तु जाण समयं समया व असंखेज्जा हवइ हु उस्सासनिस्लासो ॥ उस्सासो निस्सासो यदोऽवि पात्ति भन्नए एक्को । पाणा व सत्त योवा योवाविय मत्त जबमाहु || अद्भुत्तमं तु वा अलवो देव नालिया हो । ज्योतिष्करण्डक, ६, १० समय कहते है । असंगत काल के अत्यन्त सूक्ष्म अविभागी अश को समय का एक उच्छ्वास निवास होता है, उसे प्राण भी कहते हैं । सास प्राण का एक स्तोक, सात स्तोक का एक लय, साढ़े अड़तीस लव की एक नाली होती है। दो नाली का एक मुहूर्त होता है ये नालिया मुहुत्तो । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ १५६ इसीलिये एक मुहूर्त में श्वासोच्छ्वासों की संख्या मालूम करने के लिए १ मुहर्त x २ घटिका ४ ३७ लव ७ स्तोक ४७ उच्छ्वास, इस प्रकार सबको गुणा करने पर ३७७३ संख्या आती है तथा एक मुहूर्त में एक निगोदिया जीव ६५५३६ वार. जन्म लेता है, जिससे ६५५३६ में ३७७३ से भाग देने पर १७१लब्ध आता है, अतः एक श्वासोच्छ्वास काल में सत्रह से कुछ अधिक क्षुद्र भवां का प्रमाण जानना चाहिये ।' अर्थात् एक क्षुल्लक भव का काल एक उच्छ्वास-निश्वास काल के कुछ अधिक सत्रहवें भाग प्रमाण होता है और उतने ही समय में दो सौ छप्पन आवली होती हैं। आधुनिक कालगणना के अनुसार क्षुल्लक भव के समय का प्रमाण इस प्रकार निकाला जायेगा कि एक मुहूर्त में अड़तालीस मिनट होते हैं १ दिगम्बर साहित्य में एक श्वासोच्छवास काल में १८ क्षुल्लक मत्र माने हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है तिणिसया छत्तीसा छावटि सहस्सगाणि मरणाणि । अंतोमुहुसकाले तावदिया चव खुद्भवा । -गो० जीवकांड १२३ लमध्यपर्याप्तक जोव एक अन्त मुहूर्त में ६६३३६ वार मरण कर उसने ही भवों -- जन्मो को भी धारण करता है, अत: एक अन्त हूत में उतने ही अर्थात ६६३३६ क्षुद्रभाव होते हैं । इन भवों को क्षुद्रभव इसलिए कहते हैं कि इससे अल्पस्थिति वाला अन्य कोई भी भव नहीं पाया जाता हैं । इन भवों में से प्रत्येक का कालप्रमाण श्वास का अठारहवां भाग है। फलत: त्रैराणिक के अनुसार ६६३३६ भवों के प्रयासों का प्रमाण ३६८५६ होता है । इतने उच्छ्वासों के समूह प्रमाण अन्तर्मुहूर्त में पृथ्वी. कायिक में लेकर पंचेन्द्रिय तक लयपर्याप्तक जीवों के क्षुद्र भव ६६३३६ हो जाते हैं । ३७७३ उच्छ्वासों का एक मुहूर्त होता है तथा इन ६६३३६ भवों में से द्वीन्द्रिय के ८०, श्रीन्द्रिय के ६० चतुरिन्द्रिय के ४०, पंचेन्द्रिय के २४ और एकेन्द्रिय के ६६१३२ क्षुद्रभव होते है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० यानी एक मुहूर्त ४८ मिनट के बराबर होता है और एक मुहूर्त में ३७७३ श्वासोच्छ्वास होते हैं। अतः ३७७३ में ४८ से भाग देने पर एक मिनट में साढ़े अठहत्तर के लगभग श्वासोच्छ्वास आते हैं, अर्थात् एक श्वासोच्छ्वास का काल एक सेकिण्ड से भो कम होता है और उतने काल में निगोदिया जीव सत्रह से भी कुछ अधिक बार जन्म धारण करता है । इससे क्षुल्लक भब की क्षुद्रता का सरलता से अनुमान किया जा सकता है । क्षुल्लक भव की इस सूक्ष्मता को गाया में स्पष्ट किया गया है कि क्षुल्लक भव का समय एक श्वासोच्छ्वास के सत्रह से भी कुछ अधिक अंशों में से एक अंश है। इस प्रकार से के सिवाय शेष कृतियों के स्थितिबंध और सभी प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध का निरूपण करके अब आगे उनके उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियां को बतलाते हैं । अविरसम्म तिथं आहारयुगामराउ य पमत्तो । मिच्छद्दिट्ठी बंघइ जिट्ठठिई सेसपघडीणं ॥ ४२ ॥ शब्दार्थ — अरियसम्म अविरत - करें। - सम्यष्टि मनुष्य, आहारगं बाहारकद्विक, अमराउ – देवायु को, य— और पमत्तो - प्रमत्तविरति मिच्छदिड्डी - मिध्यादृष्टि, बधद्द बांधता है, निट्टकिई—उत्कृष्ट स्थिति, सेस पडणं-दोष प्रकृतियों की । तिथं तीर्थंकर नामकर्म शतक -- ' गाथार्थ – अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म के, प्रमत्तविरति आहारकद्विक और देवायु के और मिथ्यादृष्टि दोष प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध को करता है । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ re विशेषार्थ गाथा में उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों का कथन किया गया है कि बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से किस प्रकृति का कौन उत्कृष्ट स्थितिबंध करता है । सर्वप्रथम तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामी का संकेत करते हुए कहा है कि- 'अविरयसम्मो तित्थं' अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी है । इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी मनुष्य है । इसका कारण यह है, कि यद्यपि तीर्थंकर प्रकृति का बंध चौथे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान तक होता है किन्तु उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संक्लेश से ही बंधती है और वह उत्कृष्ट संक्लेश तीर्थंकर प्रकृति के बंधकों में से उस अविरत सम्बन्ह मनुष्य के होता है जो अविरत सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व ग्रहण करने से पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में नरकायु का बंध कर लेता है और बाद में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ग्रहण करके तीर्थकर प्रकृति का बंध करता है, वह मनुष्य जब नरक में जाने का समय आता है तो सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व को अंगीकार करता है । जिस समय में वह सम्यक्त्व को त्याग कर मिथ्यात्व को अंगीकार करता है, उससे पहले समय में उस अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य के तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । देवगति और नरकगति में तीर्थंकर प्रकृति का बंध तो होता है किन्तु वहां तीर्थंकर प्रकृति का बंधक चौथे गुणस्थान से च्युत होकर मिथ्यात्व के अभिमुख नहीं होता है और ऐसा हुए बिना तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध का कारण उत्कृष्ट संक्लेश नहीं सकता । इसीलिए तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ८ को टोका Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक भनुष्य का ग्रहण किया तथा तीर्थकर प्रकृति का बंध करने से पहले जो मनुष्य नरकायु का बंध नहीं करता है वह तीर्थकर प्रकृति का बंध करने के वाद नरक में उत्पन्न नहीं होता है । अतः वैसे मनुष्य का ग्रहण किया गया जो तीर्थकर प्रकृति का बंध करने से पहले नरकायु बांध लेता है। कोई-कोई समिक समाति, जीद राजाणित जैसे) सम्यक्त्व दशा में मरकर नरक में जा सकते हैं किन्तु विशुद्ध परिणामों के कारण वे जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं कर सकते हैं। अतः तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रकरण में मिथ्यात्व के अभिमुख अविरत सम्याइष्टि मनुष्य का ही ग्रहण किया है। तीर्थकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के संबन्ध में उक्त कथन का सारांश यह है कि यद्यपि चौथे से लेकर आठवें गुणस्थान तक तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है किन्तु उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिए उत्कृष्ट संक्लेश की आवश्यकता है और तीर्थकर प्रकृति के बंधक मनुष्य को उत्कृष्ट संक्लेश उसी दशा में हो सकता है जब वह मिथ्यात्व के अभिमुख हो और ऐसा मनुष्य मिथ्यात्व के अभिमुख तभी होता है जब उसने तीर्थकर प्रकृति का वंध करने के पहले नरकायु का बंध कर लिया है। बद्धनरकायु अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य जब मिथ्यात्व के अभिमुख होता है, उसी समय में उसके तीर्थकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । क्षायिक सम्यक्त्व सहित जो नरक में जाता है वह उससे विशुद्धतर है अतः उसका यहां ग्रहण नहीं किया गया है। १ तथा चोक्तं तकचूर्णी - 'तित्ययरनामस्स उपकोसठिई मणुको अरराज भो वेयगसम्मद्दिठी पुच्चं नरगबहानगो नरगाभिमुहो मिच्छत्तं पश्धिज्जिही इति अंतिमे ठिई बन्धे वट्टमाणो बधइ, तबंधगेसु अइसकिलिट्ठो त्ति काउं । .. जो सम्मत्तेणं खाइगेणं नरगं बच्चई सो तओ विसुद्धपरोत्ति का उ' तम्मि प्राणकोसो न हबइ ति ।' -पंचसंग्रह प्र. माग, मसथगिरि टीका एक ना Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १६३ तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामी का कथन करने के बाद अब आहारकद्विक और देवायु के बंधस्वामी के बारे में कहते हैं कि- 'आहारदुगामराउ य पमत्तो' - आहारकद्विक और देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी प्रमत्तसंयत मुनि है। यहां प्रमत्तसंयत शब्द द्व्यर्थक है । आहारकद्विक आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग के उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रसंग में इसका अर्थ यह है कि अप्रमत्त गुणस्थान से च्युत हुआ प्रमत्तसंयत मुनि । क्योंकि इन दोनों प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिए उत्कृष्ट संक्लेश होना आवश्यक हैं और उनके बंधक प्रमत्त मुनि के उसी समय उत्कृष्ट संक्लेश होता है जब वह अप्रमत्त गुणस्थान से च्युत होकर छठे गुणस्थान में आता है । अतः उसके ही इन दो प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध जानना चाहिये । " देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिये आहारकद्विक के उत्कृष्ट स्थितिबंध से विपरीत स्थिति है । आहारकद्विक के उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिये उत्कृष्ट संक्लेश की आवश्यकता है। यह उत्कृष्ट संक्लेश प्रमत्त मुनि के उसी समय होता है जब वह अप्रमत्त गुणस्थान से च्युत १ (क) तयार आहारकद्विक' आहारकशरीर आहारकाङ, गोपा गलक्षणं 'पमुत्तु' त्ति प्रमत्तसंयतो अप्रमत्तभावान्निवर्तमान इति विशेषो दृश्यः, उत्कृष्टस्थितिकं बध्नाति । अशुभा हीयं स्थितिरित्युत्कृष्टसं क्लेशेनं वात्कुष्टा बध्यते तद्बन्धकाच प्रमत्तयतिरप्रमत्तभावान्निवर्तमान एवोत्कृष्टसंक्लेयुक्त लभ्यते इतीत्थं विशिष्यते । · - कर्मग्रन्थ टीका - (ख) आहारकद्विकस्याप्रमत्तयतिः प्रमत्तताभिमुखः । - कर्मप्रकृति यशोविजयजी कृत टीका (ग) आहारकहिकस्यापि योऽप्रमत्तसंयतः प्रमत्तभावाभिमुखः स तबंधकेषु सर्व संलिप्टः इत्युत्कृष्टं स्थितिबंधं करोति । -पंचसंग्रह ५/६४ को टीका Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक होकर छठे प्रमत्त गुणस्थान में आता है,लेकिन देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के अभिमुख प्रमत्तसंयत मुनि के ही होता है । क्योंकि यह स्थिति शुभ है । अतः इसका बंध विशुद्ध दशा में ही होता है और यह विशुद्ध दशा अप्रमत्त भाव के आभभु प्रमससंपत मुनि के ही होती है। आहारकद्विक और देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध होने के उक्त कथनों का सारांश यह है कि आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन दो प्रकुतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध प्रमत्त गुणस्थान के अभिमुख हुए अप्रमत्तसंयत को होता है। इसके बंधयोग्य अति संक्लिष्ट परिणाम उसी समय होते हैं तथा देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी भी अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती है किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रमत्त गुणस्थान में आयुबंध को प्रारंभ करके अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का आरोहण कर रहा हो । यानी आहारकद्विक का बंध सातवें गुणस्थान से छठे गुणस्थान की ओर अवरोहण करने वाले अप्रमत्तसंयत मुनि को और देवायु का बंघ छठे गुणस्थान में प्रारम्भ करके सातवें गुणस्थान की ओर आरोहण करने वाले मुनि को होता है। सव्वाण सिइ असुभा उम्कोसुक्कोससंफिसेसेण । इयरा उ विसोहीए सुरनरतिरिआउए मोत्तु। .. पंचसंग्रह ५५ ५ २ (क) आहारकशरीर तथा आहारकरंगोपांग, ए वे प्रकृतिनो उत्कृष्ट स्थितिबंध प्रमसगुणठाणाने सन्मुख थयेलो एवो अप्रमत्त यति ते अप्रमन गुणठाणाने चरमबंधे बांधे । एना बंधक माहे पहिज अति मक्लिष्ट छ । तथा देवताना आयुनो उत्कृष्ट स्थितिबंधस्वामी अप्रमत्त गुणस्थानकवर्ती माधु जाणवो । पण एटलु विशेष जे प्रमत्त गुणस्थानके आयुबंध आरंभीने अप्रमत्ते बहतो साधु बोधे । -पंचम कर्मप्राय रखा (मगले पृष्ठ पर देखें) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १६५ देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध विशुद्ध भावों से होने पर जिज्ञासु प्रश्न करता है कि प्रमत्त गुणस्थान की बजाय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ने ही उसका उत्कृष्ट स्थिति बतलाए था। क्योंकि प्रमत्तसंयत मुनि से, भले ही वह अप्रमत्त भाव के अभिमुख हो, अप्रमत्त मुनि के भाव विशुद्ध होते हैं । इसका समाधान यह है कि अप्रमत्तस्यत गुणस्थान में देवायु के बंध का प्रारम्भ नहीं होता है किन्तु प्रमत्त गुणस्थान में प्रारम्भ हुआ देवायु का बंध कभी-कभी अप्रमत्त गुणस्थान में पूर्ण होता है । इसीलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती किन्तु अप्रमत्त संयत गुणस्थान की ओर अभिमुख मुनि को देवायु का बंधक कहा है। द्वितीय कर्मग्रन्थ में छठे, सातवें गुणस्थान में जो बंध प्रकृतियों की संख्या बतलाई है, उससे भी यही आशय निकलता है। छठे, सातवें गुणस्थान की बंध प्रकृतियों की संख्या बतलाने वाली द्वितीय कर्मग्रन्थ की गाथायें इस प्रकार हैं ⋅ तेषट्ठि पमतं सोग अरह अपिरयुग अजस मस्सायं । बुच्छिन छम्च सराव ने राजपा निट् ॥७॥ गुणसट्ठि अध्यमत्ते सुराउबंध सु जद इहान । अट्ठावण्णः जं आहारगडुंग अन्नह बंध ||5|| (ख) देवागं पमतो आहारथमपमत्तविरदो दु । तित्यरं च मणुस्सो अविरदसम्म समज्जे || न० कर्मकांड १३६ देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध अप्रमत भाव के अभिमुख प्रमत्त यति करता है और आहारकद्विकका उत्कृष्ट स्थितिबंध प्रमत्त भाव के अभिमुख अप्रमत्त पति करता है । (ग) कर्मप्रकृति स्थितिबंधाधिकार गा० १०२, उपाध्याय यशोविजयजी कृत टीका में भी इसी प्रकार का संकेत है । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासक –शेष ६३ प्रकृतियों का बंध प्रमत्तसंयत्त गुणस्थान में होता है । शोक, अरति, अस्थिरद्विक, अयशःकीर्ति और असातादनीय -इन छह प्रकृतियों का बंधविच्छेद छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाने से और आहारकद्विक का बंध होने से अप्रमत्त संयत गुणस्थान में ५ प्रकृतियों का और यदि कोई जीव छठे गुणस्थान में देवायु के बन्ध का प्रारम्भ करके उसे उसी गुणस्थान में पूरा कर लेता है तो उसकी अपेक्षा अरति आदि छह प्रकृतियों का तथा देवायु कुल सात प्रकृतियों का बंधविच्छेद कर देने से ५८ प्रकृतियों का बंध माना जाता है। प्रमत्त मुनि जो देवायु के बंध का प्रारम्भ करते हैं, उनकी दो अवस्थायें होती हैं १- उसी गुणस्थान में देवायु के बंध का प्रारम्भ करके उसी गुणस्थान में उसकी समाप्ति कर देते हैं, २- छठे गुणस्थान में देवायु के बंध का प्रारम्भ करके सातवें मुणस्थान में उसकी पूर्ति करते हैं। इसका. फलितार्थ यह निकलता है कि अप्रमत्त अवस्था में देवायु के बंध की समाप्ति तो हो सकती है, किन्तु उसका प्रारम्भ नहीं होती है। इसलिये देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी अप्रमत्त मुनि न होकर अप्रमत्त भाव के अभिमुख प्रमस संयमी को बतलाया है।' __आहारकद्विक, तीर्थंकर और देवायु के सिवाय शेष ११६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध मिथ्या दृष्टि ही करता है।-मिच्छट्ठिी ६ सर्वार्थसिद्धि में भी देवायु के श्रध का प्रारंभ छठे गुणस्थान में बतलाया देवा बंधारम्भस्य प्रमाद एव हेतुरप्रमादोऽपि तत्पत्यामन्त्रः । २ मुम्बु कम्मटिदीणं मिच्छाइट्टी दु बंधयो भणिदो । आहारं नित्थयरं देवा वा विमोत्तण ।। -- गो० कर्मकांड १३५ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्राथ बंधइ जिठिई सेसपयडीणं । इन शेष ११६ प्रकृतियों का बंधक मिथ्यादृष्टि को मानने का कारण यह है कि उत्कृष्ट स्थितिबंध प्रायः संक्लेश परिणामों से ही होता है तथा जघन्य स्थितिबंध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से' और सब बंधकों में मिथ्यावृष्टि के हो विशेष संक्लेश पाया जाता है। किन्तु यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि इन ११६ प्रकृतियों में से मनुष्यायु और तियंचायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध विशुद्धि से होता है अतः इन दोनों का बंधक संक्लिष्ट परिणामी मिथ्या दृष्टि न होकर विशुद्ध परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव होता है । प्रश्न--मनुष्यायु का बंध चौथे गुणस्थान तक और तिथंचायु का बंध दूसरे गुणस्थान तक होता है । अतः मनुष्यायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध अविरत सम्यग्दृष्टि को और तिथंचायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध सासादन सम्यग्दृष्टि को होना चाहिए, क्योंकि मिथ्या दृष्टि की अपेक्षा अविरत सम्यग्दृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि के परिणाम विशेष शुद्ध होते हैं और तिर्यंचायु ब मनुष्यायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिये विशुद्ध परिणामों की आवश्यकता है । उत्तर-अविरत सम्या दृष्टि के परिणाम मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा विशुद्ध होते हैं, किन्तु उनसे मनुष्यायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं हो सकता है । क्योंकि मनुष्यायु और तिर्यंचायु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है। यह उत्कृष्ट स्थिति भोगभूमिज मनुष्यों और तिर्यंचों की होती है। लेकिन चौथे गुणस्थानवर्ती देव और नारक मनुष्यायु का बंध करके भी कर्मभूमि में ही जन्म लेते हैं और मनुष्य १ सच्चट्ठिीणमुक्कस्मओ दु उम्पसक्लेिसेण । बिवरी देण जहष्णो आउंगनियब्जियाणं तु ।।। —गो कर्मकांड १३४ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ तथा तिर्यच यदि अविरत सम्यग्दृष्टि हों तो देवायु का बंध करते हैं । जिससे चौथे गुणस्थान की विशुद्धि उत्कृष्ट मनुष्यायु के बंध का कारण नहीं हो सकती है । शतक अब दूसरे सासादन गुणस्थान में तिर्यंचायु के उत्कृट स्थितिबंध के बारे में विचार करते हैं। दूसरा सासादन गुणस्थान उसी समय होता है जब जीव सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व के अभिमुख होता है । अतः सम्यक्त्व गुण के अभिमुख मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यक्त्व गुण से विमुख सासादन सम्यग्दृष्टि के अधिक विशुद्धि नहीं होती हैं, जिससे तिर्यंचायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध सासादन सम्यग्दृष्टि को नहीं हो सकता है । इस प्रकार से तीर्थंकर आहारकद्विक, देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का तथा मिध्यादृष्टि को शेष ११६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होने का सामान्य से स्पष्टीकरण करने के बाद अब आगे की गाथा में चार गतियों के मिथ्यादृष्टि जीव किन-किन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध करते हैं, यह विस्तार से बतलाते हैं । बिगलसुकुमाउगतिगं तिरिमणुया सुरविजम्बिमिरयदुग । एगिदिभाव रायव आईसाणा सुरुको ||४३|| शब्दार्थ - बिगलसमाचपतिगं - विकलनिक, सूक्ष्मत्रिक और आमुत्रिक तिरिमणुपातिर्यच और मनुष्य सुरक्षिउब्विनिरयदुर्ग - देवद्विक, क्रियद्विक, नरकटिक को, एवियावराभव एकेन्द्रिय स्थावर और आतप नामकर्म, आईसाणा - ईशान तक के, सुर-देव, उनकोसं उत्कृष्ट स्थितिबंध गाथार्थ मिध्यात्वी तिर्यंच और मनुष्य विकलेन्द्रियत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, आयुनिक तथा देवद्विक, वैक्रियद्विक और नरकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हैं । ईशान देवलोक Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । पंचम कर्मप्राय १६६ तक के देव एकालिय जाति, पावर और अमान नाम का उत्कृष्ट स्थितिबंध करते हैं। विशेषार्थ-इस गाथा में पन्द्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध मिथ्यात्धी तिर्यचों और मनुष्यों को तथा तीन प्रकृत्तियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान स्वर्ग के देवों को बतलाया है। तिर्यंच और मनुष्यों द्वारा उत्कृष्ट स्थिति का बंध की जाने वाली पन्द्रह प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं___ विकलनिक (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति), सूक्ष्मत्रिक (सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त), आयुत्रिक (नरकायु, तिथंचायु, मनुष्याघु), देवद्धिक (देवगति, देवानुपूर्वी), वैक्रियटिक (वं क्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग), नरकद्विक (नरकगति, नरकानुपूर्वी)। उक्त पन्द्रह प्रकृतियों में से तिर्यंचायु और मनुष्यायु के सिवाय शेष तेरह प्रकृतियों का बंध देवगति और नरकगति में जन्म से ही नहीं होता है तथा मनुष्यायु और तिर्यंचायु को उत्कृष्ट स्थिति जो तीन पल्य की है, वह भोगभूमिजों की होती है और नारक, देव मरकर भोगभूमिजों में जन्म ले नहीं सकते हैं । इसीलिये इन पन्द्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध मनुष्य और तियचों को बतलाया है । ईशान स्वर्ग तक के देवों द्वारा निम्नलिखित तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है-एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप नामकर्म । क्योंकि ईशान स्वर्ग से ऊपर के देव तो एकेन्दिय जाति में जन्म ही नहीं लेते हैं। जिससे एकेन्द्रिय के योग्य उक्त तीन प्रकृतियों का बंध उनके नहीं होता है। मनुष्यों और तिर्यंचों के यदि इस प्रकार के संक्लिष्ट परिणाम हों तो वे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं, जिससे उनके एकेन्द्रिय जाति आदि तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० स्थितिबंध नहीं हो सकता है। किन्तु भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देवों के यदि इस प्रकार के संक्लिष्ट परिणाम होते हैं तो वे एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । क्योंकि देव मरकर नरक में जन्स नहीं लेते हैं । इसीलिये विकलत्रिक आदि कृतियों का कृष् dr मनुष्य और नियंत्र गति में तथा एकेन्द्रिय आदि तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देवों के बतलाया है। इन अठारह प्रकृतियों के सिवाय शेष ६८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों तथा सभी बंधयोग्य १२० प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों का कथन आगे किया जा रहा है । तिरिउरलदुगुज्जोय छिट्ठ सुरनिरय सेस चजगइया । आहारजिणमपुरुषोऽनिट्ठि संजलण पुरिस लहं ॥४५॥ सायज सुरुचाधरणा विग्ध सुमो विउचिछ असन्नी । सन्नावि आउ बायरपज्जेगिदिउ साणं ॥ ४५ ॥ शब्दार्थ - तिरिउरलयुग तिर्यवद्विक और औदारिकद्विक, उम्शोघं उद्योत नामकर्म, लिट-सेवार्त संहनन सुरनिरय- देव और नारक, सेस-वाको की चगइया -जारों गति के मिथ्यादृष्टि, आहारजिणं आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म को, अपुथ्वी - अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती, अनि अनिवृत्ति बादर संपेराय चाला संजलण पुरिस सज्वलन कषाय और पुरुष → — वेद का लहं— जघन्य स्थितिबंध | - शतक सायनसुख - माता वेदनीय, यशःकीति नामकर्म, उच्च गोत्र, घावरणा विश्यं ज्ञाताबरण पांच दर्शनावरण चार और अंतराय पांच सुमो सुत्रमपराय गुणस्थान नाला, विधिकियषक, असन्नी असंझी पंचेन्द्रिय पर्याप्त सभी-संशी, वि 7 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ भी, आउ-चार आयु को, पापरपजेगिदि-बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय, .-और, मेसाणं—शेष प्रवृतियों को। गाथार्थ-तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, उद्योत नाम, संवात संहनन का उत्कृष्ट स्थितिबंध मिथ्यात्वी देव और नारक और बाकी की ६२ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध चारों गति वाले मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म का जघन्य स्थितिबंध अपूर्वकरण नामक आठवें गणस्थान में तथा संचलन कषाय और पुरुषवेद का जघन्य स्थितिबंध अनिवृत्ति बादर नामक नौवें गुणस्थान में होता है। साता वेदनीय, यशःकीर्ति, उच्च गोत्र, पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अंतराय इन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत में होता है। वैक्रियषट्क का जघन्य स्थितिबंध असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच करता है , चार आयुओं का जघन्य स्थितिबंध संझी और असंझी दोनों ही करते हैं तथा शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव करता है। विशेषार्थाथा ४४ के पूर्वार्ध में प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों का तथा उत्तरार्ध व गाथा १५ मैं जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों का कथन किया गया है । पूर्व गाथा में १८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाया था और अब शेष रही ८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाते हुए कहते हैं कि तिर्यंचद्धिक (तियंचगति, तिर्यंचानुपूवी), औदारिकद्विक (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग), उद्योत नाम और सेवा संहनन, इन छह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध देव और नारक करते हैं । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ शतक देव और नारकों के उक्त छह प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध होने का कारण यह है कि उक्त प्रकृतियों के बंधयोग्य संक्लिष्ट परि णाम होने पर मनुष्य और तिच इन छह प्रकृतियों को अधिक-सेअधिक अठारह सागर प्रमाण ही स्थिति का बंध करते हैं। यदि उससे अधिक संक्लेश परिणाम होते हैं तो इन प्रकृतियों के बंध का अतिक्रमण करके वे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । किन्तु देव और नारक तो उत्कृष्ट से उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों के होने पर भी तियंचगति के योग्य ही प्रकृतियों का बंध करते हैं, नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं कर सकते हैं। क्योंकि देव और नारक भरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं । इसीलिए उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से युक्त देव और नारक ही इन छह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण का बंध करते हैं । उक्त छह प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रसंग में इतना विशेष समझना चाहिये कि ईशान स्वर्ग से ऊपर के सनत्कुमार आदि स्वर्गो के देव ही सेवार्त संहनन और औदारिक अंगोपांग का उत्कृष्ट स्थितिबंध करते हैं, ईशान स्वर्ग के देव नहीं करते हैं। क्योंकि ईशान स्वर्ग तक के देव उनके योग्य संक्लेश परिणामों के होने पर भी दोनों प्रकृतियों की अधिक से अधिक अठारह सागर प्रमाण मध्यम स्थिति का बंध करते हैं और यदि उनके उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम होते हैं तो एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । सनत्कुमार आदि के देव' उत्कृष्ट संक्लेश होने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं, एकेन्द्रिय में उनका जन्म नहीं होने से एकेन्द्रिय योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । अतः सेवार्त संहनन और ओदारिक अंगोपांग इन दो प्रकृतियों की बोस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति का बंध उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाले सनत्कुमार आदि स्वर्गों Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्य के देव ही कर सकते हैं, नीचे के देव नहीं करते हैं। क्योंकि एकेन्द्रिय के संहनन और अंगोपांग नहीं होने से ये दो प्रकृतियां एकेन्द्रिय योग्य नहीं हैं। सारांश यह है कि एक सरीखे परिणाम होने पर भी गति आदि के भेद से उनमें भेद हो जाता है। जैसे कि ईशान स्वर्ग तक के देव जिन परिणामों से एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं, वैसे ही परिणाम होने पर मनुष्य और तिर्यंच नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं। इस प्रकार से मिथ्या दृष्टि के बंधने योग्य ११६ प्रकृतियों में से पूर्वोक्त विकलत्रिक आदि सेयात संहनन पर्यन्त २४ प्रकृति के सिवाय शेष ६२ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं—सेस चउगइया ।' १ गो० कर्मकांड में भी ११६ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाते हुए लिखा है णरतिरिया मेसाउ' वेगुब्बियछक्कवियलसुट्समतियं । सुरणिरया ओरलियतिरियदुगुज्जोवसंपत्तं ।।१३७।। देवा पुण इंदिमादाय थापरं च समाणं । उपकस्ससंकि लिट्ठा चदुर्गादया ईसिमझिमया ।।१३८|| देवायु के विना शेष तीन आयु, यक्रियषट्क, विकलत्रिक, मूक्ष्मत्रिक का उत्कृष्ट स्थितिबंध मि पाटि मनुष्य, तिर्यच करते हैं । औदारिकद्विक, तिर्यंचद्विक, उद्य:, असंप्राप्तामृपा टका (सेवात) संहनन का उत्कृष्ट स्थितिबध मिथ्याष्टि, देव और नारक करते हैं। एकेन्द्रिय, आतप और स्थावर का उत्कृष्ट स्थितिबंध मिध्याहृष्टि देव करते हैं । शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति मंध उत्कृष्ट संपलेश वाले मिथ्याष्टष्टि जीव अपदा ईषत् मध्यम परिणाम वाले मिथ्या ष्टि जीव करते हैं। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अघन्य स्थितिबंध का स्वामित्व उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाकर अब जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाते हैं। जघन्य स्थितिबंध के स्वामित्व के बारे में विचार करने से पूर्व दो बातों का जानना जरूरी है । एक तो जैसे उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिए उत्कृष्ट संक्लेश होना आवश्यक है, वैसे ही जघन्य स्थितिबंध के लिए उत्कृष्ट विशुद्धि होना चाहिये । दूसरी यह है कि जिस गुणस्थान तक यथायोग्य कषायों का सद्भाव रहने से जिन-जिन प्रकृतियों का बन्ध होता है और उसके आगे के गुणस्थान में बंधविच्छेद हो जाने से बंध की संभावना ही नहीं है, उस गुणस्थान में उन कर्म प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध होता है । अतएव जघन्य स्थितिबंध का कथन प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम तीर्थकर नाम और आहारद्विक के जघन्य स्थितिबंध के लिये कहते हैं कि 'आहारजिणमपुब्यो' आहारकटिक और तीर्थंकर नामकर्म इन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध अपूर्वकरण नामक आठवें गणस्थान में होता है। क्योंकि इनके बंधकों में उक्त गुणस्थान वाले जीव ही अति विशुद्ध परिणाम वाले होते हैं और 'अनियदि संजलण पुरिस लहु' अनिवृत्तिबादर नामक नौवें गुणस्थान तक संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ और पुरुष वेद इन पांच प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध होता है।' आहारकद्विक आदि पुरुष वेद पर्यन्त आठ प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के स्वामी के संबंध में इतना विशेष जानना चाहिये कि आठवां और नौवां यह दोनों गुणस्थान क्षपक श्रोणि के ही लेना चाहिए, क्योंकि उपशम श्रेणि से क्षपक श्रोणि में विशेष विशुद्धि होती है । १ आठवें, नौवें, दसवें गुणस्थान में बधविच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों के नाम द्वितीय कर्मग्रन्थ गा.६,१०,११ में देखिये । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ साता वेदनीय, यश कीति, उच्चगोत्र, मतिज्ञानावरण आदि ज्ञानावरण कर्म की पांच प्रकृतियां, चक्षुदर्शनावरण आदि चार दर्शनावरण कर्म की प्रकृतियां तथा दानान्तराय आदि पांच अन्तराय कर्म की प्रकृतियां, कुल सत्रह प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध का स्वामी सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थानवर्ती क्षपक है-सायजसुच्चावरणा विग्धं सुहुमो । क्योंकि सातावेदनीय के सिवाय सोलह प्रकृतियां इसी गुणस्थान तक बंधती हैं, अतः उनके बंधकों में यही गुणस्थान विशेष विशुद्ध है । यद्यपि साता वेदनीय का बंध तेरहवें गुणस्थान तक होता है, तथापि स्थितिबंध दसवें गुणस्थान तक ही होता है, क्योंकि स्थिति बंध का कारण कषाय है। संज्वलन लोभ कषाय का उदय दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक रहता है, जिससे साता वेदनीय का जघन्य स्थितिबंध भी दसवें गुणस्थान में ही बतलाया है। ___ आयुकर्म की चारों प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध असंज्ञी जीव भी करते हैं और संज्ञी जीव भी करते हैं-सन्नी वि आउ । उनमें से देवायु और नरकायु का जघन्य स्थितिबंध पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य करते हैं तथा मनुष्यायु और तिर्थ चायु का जघन्य स्थितिबंध एकेन्द्रिय आदि । इस प्रकार से आहारकद्विक आदि आयुचतुष्क तक में अन्तर्भूत ३५ प्रकृतियों को बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से कम कर देने पर शेष रही ८५ प्रकृतियों का जंघन्य स्थितिबंध-बायरपज्जेगिदिउ सेसाणं -- बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव करते हैं। क्योंकि प्रकृतियों के स्थितिबंध को बतलाने के प्रसंग में यह संकेत कर आये हैं कि इन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव को ही होता है। इन प्रकृतियों के बंधकों में वही विशेष विशुद्धि वाला होता है और अन्य एकेन्द्रिय जीव उतनी विशुद्धि न होने के कारण उक्त प्रकृतियों Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक को अधिक स्थिति बांधते है । यचाप एकान्द्रय से विकासन्द्रियों में अधिकं विशुद्धि होती है किन्तु वे स्वभाव से ही इन प्रकृतियों की अधिक स्थिति बांधते हैं, जिससे शेष प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध का स्वामी बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों को ही बतलाया है। प्रकृतियों के उत्कुष्ट और जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों का कथन करने के पश्चात् अब स्थितिबंध में मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुस्कृष्ट आदि भेदों को बतलाते हैं। उक्कोसमहत्नेगरभंगा साई अणाइ धुष अधुवा । चउहा सग अजहनो सेसतिगे आउचाउसु दुहा ॥४६॥ शब्दार्थ - उक्कोसजहन्न – उस्कृष्ट और जन्य बंध, इयर - प्रतिपक्षी (अनुस्कृष्ट, अनन्छ बंध), मगा - भंग, साइसादि, मणाई-अनादि, धुव - ध्रुव, मधुवा - अध्रुव, घउहा - पार प्रकार, मग –सात मूल प्रकृतियों के, अजहन्नो अजधन्य बंध, सेस सिगे - बाकी के तीन, आउनजसु - चार आयु में, बुहा..हो प्रकार । गापार्य-उत्कृष्ट, जघन्य, अनुत्कृष्ट, अजधन्य, यह बंध के चार भेद हैं अथवा दूसरी प्रकार से सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये बंध के चार भेद हैं | सात कर्मों का अजघन्य बंध १ (क) सत्तरसपंचतित्थाहाराणं सुहुमबादरापुञ्वो।। छध्वे गुरुवमसणी अहण्णमाण सरणी वा ।। -गो० कर्मकांड १५१ (ब) कर्मप्रकृति बंधनकरण तथा पंत्रसंग्रह मा. २७० में जघन्य स्थिति बंध के स्वामियों को बतलाया है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कमेन्य १७७ चार प्रकार का होता है। बाकी के तीन बंध और आयुकर्म के चारों बंध सादि और अध्रुव, इस तरह दो ही प्रकार के होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में मुल प्रकृतियों के स्थितिबंध के उत्कृष्ट, अनुस्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य भेद बतलाकर यथासंभव उनमें सादि, अनादि आदि भेद बतलाये हैं। अधिकतम स्थितिबंध होने को उत्कृष्ट बंध कहते हैं अर्थात् उससे अधिक स्थिति वाला बंध हो ही नहीं सकता, वह उत्कृष्ट बंध है। सबसे कम स्थिति बाले बंध को जघन्य बंध कहते हैं । एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर जघन्य स्थितिबंध तक के सभी बंध अनुत्कृष्ट बंध कहलाते हैं। यानी सशस्त्र संघ के अमाला से पूर्व तक के शेष बंध अनुत्कृष्ट बंध कहलाते हैं। एक समय अधिक जधन्य बंध से लेकर उत्कृष्ट बंध से पूर्व तक के सभी बंध अजघन्य बंध कहे जाते हैं । इस प्रकार से उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेद में स्थिति के सभी भेदों का ग्रहण हो जाता है और जघन्य व अजघन्य बंधभेद में भी स्थिति के सभी भेद गर्भित हो जाते हैं । ___ इन चारों ही बंध में सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव भंग यथायोग्य होते हैं । जो बंध रुक कर पुनः होने लगता है, वह सादिबंध कहलाता है और जो बंध अनादिकाल से सतत हो रहा है, वह अनादिबंध है | यह बंध बीच में एक समय को भी नहीं रुकता है। जो बंध न कभी विच्छिन्न हुआ और न होगा, वह ध्रुवबंध है और जो बंध आगे जाकर विच्छिन्न हो जाता है, उसे अध्रुवबंध कहते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय, कर्मों की ये आठ मूल प्रकृतियां हैं । इनमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, यह चारों ही बंध होते हैं । इनमें से आयु Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ शतक कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का अजघन्य बंध सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव इन चारों प्रकार का होता है, क्योंकि मोहनीय कर्म का जघन्य बंध क्षपकनणि के अनिवृत्तिबादर संपराय नामक नौवें गुणस्थान के अन्त में होता है और शेष छह कर्मों का जघन्य स्थितिबंध क्षपकश्रोणि वाले दसवें सूक्ष्मसंपराय' गुणस्थान के अन्त में होता है। ___ अन्य गुणस्थानों व उपशमणि में भी इन सातों कर्मों का अजघन्य बंध होता है । अतः ग्यारहवें गुणस्थान में अजघन्य बंध न करके वहाँ से ना होकर जव जीव सात वर्षों का अगलादेश करता है तब वह बंध सादि कहा जाता है । नौवें, दसर्वे आदि गुणस्थानों में आने से पहले उक्त सात कर्मों का जो अजधन्य बंध होता है, वह अनादिकाल से निरंतर होते रहने के कारण अनादि कहलाता है । अभव्य के बंध का अंत नहीं होता है, अतः उसको होने वाला अजघन्य बंध ध्रुव और भव्य के बंध का अंत होने से उसको होने वाला अजघन्य बंध अध्रुव कहलाता है । इस प्रकार सात कर्मों के अजघन्य बंध में चारों भंग होते हैं। ___ अजघन्य बंध के सिबाय शेष तीन बंधभेदों में सादि और अध्रुव, यह दो प्रकार होते हैं । क्योंकि मोहनीय कर्म का नौवें गुणस्थान के अंत में और शेष छह कर्मों का दसवें गुणस्थान के अंत में जघन्य स्थितिबंध होता है, उससे पूर्व नहीं, अतः वह बंध सादि है और बारहवें आदि गुणस्थानों में उसका सर्वथा अभाव हो जाता है अतः वह अध्रुव है। इस प्रकार जघन्य बंध में सादि और अध्रुव यह दो ही विकल्प होते हैं। उत्कृष्ट स्थितिबंध संक्लिष्ट परिणामी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्या दृष्टि को होता है । वह बंध कभी-कभी होता है, सर्वदा नहीं, जिससे वह सादि है तथा अन्नमुहूर्त के बाद नियम से उसका स्थान बदल जाने से अनुत्कृष्टबंध स्थान ले लेता है, अतः वह अध्रुव Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्प १७६ है। जिससे उत्कृष्ट स्थितिबंध में भी सादि और अध्रुव यह दो विकल्प होते हैं। उत्कृष्ट बंध के बाद अनुत्कृष्ट बंध होता है । इसीलिये वह सादि है और कम से कम अन्तमुहूर्त के बाद और अधिक से अधिक अनन्त उत्सर्पिणी ब अवसर्पिणी काल के बाद उत्कृष्ट बंध होने से अनुत्कृष्ट बंध रुक जाता है, जिससे उसे अध्रुव कहा जाता है। यानी उत्कृष्ट बंध यदि हो तो लगातार अधिक-से-अधिक अन्तमुहर्त तक होता है और अनुत्कृष्ट बंध लगातार अधिक-से-अधिक अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल तक होता है और उसके बाद दोनों एक दूसरे का स्थान ले लेते हैं, अतः दोनों सादि और अध्रुव हैं । इस प्रकार सात कर्मों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य इन तीनों बंधों में सादि और अध्रुव यह दो ही भंग होते हैं । ____ आयुकर्म के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य मे चारों बंध होते हैं। लेकिन इन चारों में सादि और अध्रुव यही दो विकल्प हैंआउचउसु दुहा । क्योंकि आयुकर्म का बंध अन्य सात कर्मों की तरह निरन्तर नहीं होता रहता है किन्तु नियत समय पर होता है । जिससे वह सादि है और उसका बंधकाल भी अन्तमुहूर्त प्रमाण है, अन्तमुहूर्त के बाद वह नियम से रुक जाता है, जिससे वह अध्रुव है । इस प्रकार से आठों कर्मों के उत्कृष्ट आदि चारों बंधों में सादि आदि विकल्प जानना चाहिए।' १ (क) सतण्हं अजहन्नो चउहा ठिबंध मूलपगईणं । सेसा उ साइअध्रुवा चसारि वि आउए एवं ॥ -पंचसंग्रह ५।५९ (ख) अजहण्ण ट्ठिदिबंधो चम्विहो सत्तमुलपयडीणं । सेसतिये दुबियप्पो भाउच उषके वि दुवियप्पो । -गो० कर्मकांड १५२ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $50 इस प्रकार से आयुकर्म के सिवाय शेष ज्ञानावरण आदि सात कमी के उत्कृष्ट आदि चारों बंधत्रकारों के सादि, अनादि आदि चार बंधभेदों की अपेक्षा से प्रत्येक के दस-दस और आयुकर्म के आठ भंग होने से कुल ७८ भंग होते हैं, जो इस प्रकार हैं ज्ञानावरण के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य बंध में से प्रत्येक के सादि और अध्रुव यह दो विकल्प होते हैं, अतः तीनों के कुल मिलाकर छह भंग हुए तथा अजघन्य बंध के सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये चारों विकल्प होने से पूर्व के छह भेदों को इन चार के साथ मिलाने से कुल दस भंग हो जाते हैं। इसी प्रकार से दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अंतराय के बंधभेदों में प्रत्येक के दस-दस भंग जानना चाहिये। कामुकर्म के नी उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों प्रकार के बंध होते हैं, लेकिन ये चारों प्रत्येक सादि और अध्रुब विकल्प वाले होने से प्रत्येक के दो-दो भंग हैं और कुल मिलाकर आठ भंग होते हैं। इस प्रकार १०+१०+१०+१०+१० +१०+१०+८=७८ भंग ज्ञानावरण आदि आठ मूल कर्मों के होते हैं । शतक मुल कर्मों के अजघन्य आदि बंधों में सादि आदि भंगों का निरूपण करने के बाद अब उत्तर प्रकृतियों में उनका कथन करते हैं । लभेओ अजहतो संजलणावरण नवगविधाणं । सेसतिगि साइअधुवो तह चउहा सेसपयडीर्ण ॥४७॥ शब्दार्थ - चउभेभो चार भेद, अजस्रो- अजघन्य बंध में. संजणावरण नवग विग्धाणं संज्वलन कपाय, नो वावरण और अन्तराय के सेसतिमि शेष तीन बंधों में, साइअमृषो सादि और अघुम, तह- से ही कहा— चारों बंध प्रकारों में, सेसपयजीणं बाकी की प्रकृतियों के । P Al - Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ गाथार्थ संज्वलन कषाय चतुष्क, नौ आवरण (पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण) और पांच अंतराय के अजघन्य बंध में चारों भेद होते हैं। शेष तोन बंधों के सादि और अध्रुव यह दो विकल्प तथा शेष प्रकृतियों के चारों बंबों के भी सादि और अध्रुव ये दो ही विकल्प होते हैं। *** विशेषार्य - इस गाथा में उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि बंधों के सादि आदि भेद बतलाये हैं । जैसा मूल प्रकृतियों में सबसे पहले अजघन्य बंध के विकल्पों का कथन किया गया है, वैसे ही उत्तर प्रक्रतियों भी अजघन्य बंध के विकल्पों का यहां विवेचन किया जा रहा है । १२० प्रकृतियों में से अजधन्य बंध वाली प्रतियां सिफ है । जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं— संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनपर्यायज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण तथा दान, लोभ, भोग, उपयोग, वीर्य अन्तराय — संजलणावरणनवगविन्धाणं । इन अठारह प्रकृतियों की अजघन्य स्थिति की शुरूआत उपशम श्रोणि से पतित होने वाले के होती है । इन अठारह प्रकृतियों के अजघन्य बंध के सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये चारों ही विकल्प होते हैं, जो मूल कर्मों के अजयम्य बंध की तरह ही जानना चाहिये। उपशम श्रेणि में इन अठारह प्रकृतियों का बंधविच्छेद करके जब वहां से च्युत होकर पुनः उनका अजघन्य बंध करते हैं तो वह बंध सादि और उपशम श्र ेणि में आरोहण करने से पहले वह बंध अनादि होता है। अभव्य की अपेक्षा वही बंध ध्रुव और भव्य की अपेक्षा अध्रुव है। इसीलिये इन प्रकृतियों के अजघन्य Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १=२ बंध के सादि आदि चार विकल्प माने हैं।' उक्त अठारह प्रकृतियों के अजघन्य बंध के सिवाय शेष तीन बंधों में प्रत्येक के सादि और अध्रुव यह दो विकल्प होते हैं। क्योंकि नोर्वे गुणस्थान में अपनी-अपनी बंधव्युच्छित्ति के समय संज्वलन - चतुष्यः कामय होता है और शेष कानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों का जघन्य बंध दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती क्षपक को होता है । वह बंध इन गुणस्थानों में आने से पूर्व नहीं होता है, अतः सादि है और आगे के गुणस्थानों में बिल्कुल रुक जाने से अध्रुव है । इसी प्रकार से उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट बंध में भी समझना चाहिए । क्योंकि ये दोनों बंध परिवर्तित होते रहते हैं। जीव कभी उत्कृष्ट और कभी अनुत्कृष्ट बंध करता है । शतक शेष एक दो सौ प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चारों ही प्रकार के बंधों में सादि और अध्रुव यह दो भंग होते हैं। क्योंकि पांच निद्रा, मिथ्यात्व आदि की बारह कषस्य, भय, जुगुप्सा, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण इन उनतीस प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध विशुद्धियुक्त बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक करता है। > तमुहूर्त के बाद वही जीव संक्लिष्ट परिणामी होने पर उनका अजघन्य बंध करता है। उसके बाद उसी भव में अथवा दूसरे भव में विशुद्ध परिणामी होने पर वही जीव पुनः उनका जघन्य बंध करता है । इस प्रकार से जघन्य और अजघन्य बंध के बदलते रहने से दोनों सादि और अध्रुव होते हैं । १ अट्ठाराणजत्रो उवसममेठीए परिवतस | माई से सविगप्पा सुगमा अधुवा वाणं पि ॥ संग्रह ५/६३ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १८३ इसी प्रकार इन उनतीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट बंध संक्लिष्ट परिणामी पंचेन्द्रिय जीव करता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद अनुत्कृष्ट बंध करता है और बाद में पुनः उत्कृष्ट बंध करता है । इस प्रकार बदलते रहने से ये दोनों बंध भी सादि और अव होते हैं। शेष ७३ प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी हैं और उनके अनुवबंधिनी होने के कारण ही उनके जघन्य, अजधन्य, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट ये चारों ही स्थितिबंध सादि और अध्रुव होते हैं।' संज्वलन चतुष्क आदि अठारह प्रकृतियों में से प्रत्येक के अजघन्य बंध के सादि आदि चार विकल्प तथा शेष उत्कृष्ट बंध आदि तीन स्थितिबंधों में से प्रत्येक के शाति और अधा गिला होने रोक प्रकृति के दस-दस भंग होने से १८० तथा एक सौ दो प्रकृतियों में से प्रत्येक के उत्कृष्ट आदि चार-चार स्थितिबंध और इन चारों के भी सादि व अध्रुव दो-दो विकल्प होने से आठ-आठ भंग होते हैं। कुल मिलाकर ये भंग १०२४४८४०८४२८१६ होते हैं । उत्तर प्रकृतियों के कूल मिलाकर १०+-१६ =६ भंग होते हैं और इनमें मूल प्रकृतियों के ७८ भंगों को मिलाने से सब मिलाकर १०७४ स्थितिबंध के भंग होते हैं । नाणंत रायदसण चक्कसंजसण ठिई अजहन्ना । चउहा माई अध्रुषा सेसा इयराण सम्वाओ ।। -पंचसंग्रह श६० इस गाथा की टीका में उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबंध के भंगों का विवेचन किया गया है । इसी प्रकार से मो० कर्मकांड मा. १५३ में भी भंगों का कथन किया है मंजलणसूहुमघोस घाीणं बदुविधो दु अजहणो। सेमतिया पुण दुविहा सेसाणं घविधावि दुधा ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ शतक इस प्रकार से मुल एवं उतर प्रकृतियों के स्थितिबंध में मादि आदि भंगों का निरूपण करने के बाद अब गुणस्थानों में स्थितिबंध का निरूपण करते हैं। गुणस्थानों में स्थितिबंध साणाइअपुरवते अपरतो कोडिकोडिनो न हिगो । बंधो न हुहोणो न य मिच्छे भवियरसन्निमि ॥४॥ शब्दार्थ-सापाइअपुर्वते-सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक, अपरंतो कोडिकोलिओ-अंत:कोडाकोड़ी सामरोपम से, न हिंगो-अधिक (बंध) नहीं होता है, बंधो - बंध, न हूनहीं होता है, हीको-हीन, न य–तथा नहीं होता है, मिन्छमिथ्याष्टि, भश्वियरसनिमि-भव्य संशी व इतर अमन्य संजी में । गाथाथ-सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम से अधिक स्थितिबंध नहीं होता है और न हीन बंध होता है। मिथ्यादृष्टि भव्य संज्ञी और अभव्य संज्ञी के भी हीन बंध नहीं होता है। विशेषार्थ-पहले सामान्य से और एकेन्द्रिय आदि जीवों की अपेक्षा से स्थितिबंध का प्रमाण बतलाया गया है। अब इस गाथा में गुणस्थानों की अपेक्षा से उसका प्रमाण का कथन किया जा रहा है कि किस गुणस्थान में कितना स्थितिबंध होता है। पूर्व में कर्मों की सत्तर, तीस, बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। उसमें से साणाइअपुलंतो-यानी दूसरे सासादन गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान तक अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर से अधिक स्थितिबंध नहीं होता है । यानी दूसरे से लेकर आठवें गुणस्थान तक होने वाला बंध अन्तःकोड़ा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १८५ कोड़ी सागर प्रमाण होता है और जो सत्तर आदि कोडाकोड़ो सागरोपम उस्कृष्ट स्थितिबंध बतलाया है, वह मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है । सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबंध होन का कारण यह है कि इन गुणस्थानों वाले जीव मिथ्यात्वग्रन्थि का भेदन कर देते हैं, जिससे उनके अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण से अधिक स्थितिबंध नहीं होता है। प्रश्न- उक्त कथन पर जिज्ञासु प्रश्न करता है कि कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में मिथ्यात्वग्रन्थि का भेदन करने वालों को भी मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबंध सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम बतलाया है । अतः यह कैसे माना जाय कि सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक जीव मिथ्यात्वग्रन्थि का भेदन कर देते हैं, अतः अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण से अधिक स्थिति का बंध नहीं करते हैं। उत्तर यह ठीक है कि ग्रन्थि का भेदन करने वालों को भी उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, किन्तु सम्यक्त्व का दमन करके जो पुनः मिथ्यात्व मुणस्थान में आते हैं, उनके ही यह उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । यहां तो ग्रन्थि का भेदन कर देने वाले सासादन आदि गुणस्थान वालों के ही उत्कृष्ट स्थितिबंध का निषेध किया है। आवश्यक आदि में तो सैद्धान्तिक मत का संकेत करके प्रन्थि का भेदन कर देने वाले मिथ्याइष्टि को भी उत्कृष्ट बंध का प्रतिषेध किया है ।' कार्मप्रन्थिक मत से सादि मिथ्याइष्टि को भी मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति बंधती है लेकिन उसमें तीव्र अनुभाग शक्ति नहीं होती है 1 अतः सासादन से ५ यतोऽयाप्तसम्यक्त्वस्त परित्यागेऽपि न भूमो ग्रन्थिमुल्लङ्घमोत्कृष्ट स्थिती: कर्मप्रकृतीबंध्नाति, 'बघेण न बोलइ कयाइ' इति वचनात् । एष: सिद्धान्तिकाभिप्रायः । कार्मग्रंथिकास्तु भिन्नग्रन्थैरप्युस्कृष्टस्थितिबंधों भवतीति प्रतिपत्राः । -बाप. नि. दीका पृ० १११ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अपूर्वकरण गुणस्थान तक अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर से अधिक स्थिति का बंध नहीं होता है और न उससे कम भी होता है। यानी दूसरे से आठवें गुणस्थान तक अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति बंधती है, न कम और न अधिक । शासक इस पर पुनः प्रश्न होता है कि जब एकेन्द्रिय आदि जीच सासादन गुणस्थान में होते हैं, उस समय उनको है सागर आदि की स्थिति बंधती है | अतः सासादन आदि गुणस्थानों में अन्तः कोड़ाकोड़ो सागर से कम स्थितिबंध नहीं होता, यह कथन उचित प्रतीत नहीं होता है । १ यह आशंका उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इस प्रकार की घटनायें कादाचित्क हैं, जिनकी यहां विवक्षा नहीं की गई है तथा यहां एकेन्द्रिय आदि की विवक्षा नहीं, संज्ञी पंचेन्द्रिय की विवक्षा है। इसलिए संज्ञी पंचेन्द्रिय सासादन से अपूर्वकरण पर्यन्त अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम से न्यून स्थिति का बंध नहीं करता है । सासादन से अपूर्वकरण गुणस्थान तक अन्तः कोडाकोड़ी सागर से कम स्थितिबंध का भी निषेध किया है। इस पर जिज्ञासा होती है कि क्या कोई ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव भी होता है जिसे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर से भी कम स्थितिबंध नहीं होता है। इसका समाधान करते हुए गाथा में कहा है भव्य संज्ञी मिथ्यादृष्टि के और अभव्य संज्ञी मिध्यादृष्टि के भी अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर से कम स्थितिबंध नहीं होता है । भव्य संज्ञी के साथ मिथ्यादृष्टि विशेषण लगाने से यह आशय निकलता है कि भव्य संज्ञी को अनिवृत्तिबादर आदि गुणस्थानों में हीन बंध भी होता है और संज्ञी विशेषण से यह अर्थ निकलता है कि भव्य असंज्ञी के होन स्थितिबंध होता है। अमव्य संशी के तो १ सत्यमेतत् केबल, कादाचित्कोज्यौ न सार्वेदिक इति न तस्य विवक्षा कृता, इति सम्भावयामि । - पंचम कर्मप्रश्थ स्वोपज्ञ टीका Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ पंचम कर्मग्रन्थ अन्तःकोडाकोड़ी सागर से हीन स्थितिबंध होता ही नहीं है, क्योंकि प्रन्थिभेदन करने पर ही हीन बंध होना संभव है लेकिन अभव्य संजी ग्रन्थिदेश तक पहुँचता है परन्तु उसका भेदन करने में असमर्थ होने से पुनः नीचे आ जाता है। ___ सासादन से अपूर्वकरण गृणस्थान तक के स्थितिबंध में जन्म.कोडाकोड़ो सागर प्रमाण से न्यूनाधिकता नहीं होने पर जिज्ञासु प्रश्न पूछता है कि यदि न्यूनाधिकता नहीं है तो आगे स्थितिबंध के अल्पबहुत्व में जो यह कहा गया कि विरति के उत्कृष्ट स्थितिबंध से देशविरति का जघन्य स्थितिबंध संख्यात गुणा, उससे अविरत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त का जघन्य, उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात गुणा होता है, कैसे माना जायेगा ?. इसका उत्तर यह है कि जैसे नौ समय से लेकर समयन्यून मुहूर्त तक अन्तमुहूर्त के असंख्यात भेद होते हैं वैसे ही साधु के उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर समयाधिक पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के उत्कृष्ट स्थितिबंध तक असंख्यात के स्थितिबंध भेद होते हैं जो अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण हैं । अतः संख्यातगुणे मानने पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है। ___ इस प्रकार से गुणस्थानों में स्थितिबंध का निरूपण करके अब आगे की गाथाओं में एकेन्द्रिय आदि जीवों की अपेक्षा से स्थितिबन्ध का अल्पबहुत्व बतलाते हैं। जइलहबंधो बायर पज्ज असंखगुण सुटुमपहिगो । एसिं अपजाण ला सुहमेअरअपलपज्ज गुरू ॥४॥ लहू बिय पज्जअपने अपजेयर बिय गुरू हिमो एवं । ति घज असन्निसु नवरं संखगुणो बियप्रमणपण्जे ॥५०॥ तो जइजिट्ठो बंधो संखगुणो देसविरय हस्सियरो। सम्मबउ सनिचउरो लिइषाणुकम संसगुणा ॥४॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ यादर शब्दार्थ ---जहबंधी - साधु का जघन्य स्थितिबंध, वायर पर्याप्त एकेन्द्रिय असंखगुण - असंख्यात गुणा, सुमपज्ज– सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रिय का, हिंगो - विशेषाधिक, एसि - इनके (बादर सूक्ष्म एकेन्द्रिय के), अजाण --- अपर्याप्त का लहू - जघन्य स्थितिबंध, सुहूमे अश्मपजपज गुरू — सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थिति अंध । बियबीन्द्रिय पज्ञ्जअपज्जेअपर्याप्त और इतर पर्याप्त, बियगुरू — द्वीन्द्रिय का उत्कृष्ट, हिंगो अधिक, एवं इस प्रकार से, तिच असन्मित्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंजी पंचेन्द्रिय में, नवरं -- इतना विशेष, संतगुणो- सख्यात गुणा, वियक्रमणपज्जेडीद्रिय पर्याप्त और असंजी पर्याप्त में । लहू - जधन्य स्थितिबन्ध, पर्याप्त अपर्याप्त में अपजेयर 1 P 1 - तो - उसको अपेक्षा, जद्रजिद्वोघो साधू का उत्कृष्ट स्थिति 1 देश विरति का जघन्य, सम्यग्दृष्टि के चार प्रकार बंध संखगुण - संख्यात गुणा बेसबिरमहल इयरो उत्कृष्ट स्थितिबंध, सम्पच के स्थितिबंध, सम्निचउरो सभी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि के चार, बंधा स्थितिबन्ध, अणुकम अनुक्रम से संजगुणा संख्यात गुणा । शतक — गाभार्थ - साधु का जघन्य स्थितिबंध सबसे अल्प होता है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध उससे असंख्यात गुणा और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त का उससे विशेषाधिक होता है । इनके (बादर, सूक्ष्म एकेन्द्रिय के ) अपर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध उससे अधिक होता है । उसकी अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध अनुक्रम से विशेषाधिक होता है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ ११ हीन्द्रिय यो और अपति का जाय स्थिति उनको अपेक्षा संख्यात गुणा और विशेषाधिक और उसकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध विशेषाधिक, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में भी इसी प्रकार (द्वीन्द्रिय में कहे गये अनुसार) जानना चाहिये, किन्तु इतना विशेष है कि द्वीन्द्रिय पर्याप्त और असंत्री अपर्याप्त में संख्यात गुणा समझना चाहिए। उसकी अपेक्षा साधु. का उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात गुणा और उसकी अपेक्षा देशविरति का जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध, सम्यग्दृष्टि के चारों स्थितिबंध और संज्ञी पंचे. न्द्रिय मिथ्याइष्टि के चारों स्थितिबन्ध अनुक्रम से संख्यात गुण होते हैं। विशेषार्थ-- इन तीन गाथाओं में स्थितिबंध का अल्पबहुत्व बतलाया गया है कि किस जीव को अधिक स्थितिबंध होता है और किस जीव को कम स्थितिबंध । बंध की इस हीनाधिकता को स्थितिबंध का अल्पबहुत्व कहते हैं। स्थितिबंध के इस अल्पबहुत्व के प्रमाण का कथन प्रारंभ करते हुए कहा है कि 'जइलहुबंधो' यानी साघु को सबसे कम स्थितिबंध होता है और वह भी सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में। इसका कारण यह है कि दसवें गुणस्थान तक सूक्ष्म कषाय का सद्भाव पाया जाता है और कषाय के द्वारा स्थितिबंध होता है। दसवे गुणस्थान से हीन स्थितिबंध किसी भी जीव को नहीं होता है । यद्यपि ग्यारहवें आदि आगे के गुणस्थानों में एक समय का स्थितिबंध होता है, किन्तु वे गुणस्थान कषायरहित हैं, अतः वहां स्थितिबंध की विवक्षा नहीं है। इसलिये दसवें गुणस्थान से ही स्थितिबंध के अल्प Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० बहुत्व का कथन प्रारंभ होता है और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि को सबसे उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। जिससे अल्पबहुत्व का वर्णन वहां आकर समाप्त हो जाता है । अर्थात् स्थितिबंध का अस्पबहुत्व बतलाने के प्रसंग में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान एक छोर है और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि दूसरा छोर । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान जघन्य स्थितिबंध का चरमबिन्दु है और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट स्थितिबंध का चरमबिन्दु और इन दोनों के बीच अल्पबहुत्व का कथन किया जाता है । चरम जघन्य स्थितिबंध से प्रारंभ होकर चरम उत्कृष्ट स्थितिबंध तक के अल्पबहुत्व का क्रम इस प्रकार है १. सबसे जघन्य स्थितिबंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती साधुविरति को होता है । २. उससे यानी सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती साधु से बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध असंख्यात गुणा है । ३. बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त से सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त के होने वाला जघन्य स्थितिबंध कुछ अधिक है । ४. सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त के होनेवाला जघन्य स्थितिबंध कुछ अधिक है । ५. बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त से सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त के होने वाला जघन्य स्थितिबंध कुछ अधिक है । ६. उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है । ७. उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है । ८. उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है । अक Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ #. उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है। १०. उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध संख्यात गुणा है। ११. उससे द्वीन्द्रिय' अपर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध कुछ अधिक १२. उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है। १३. उससे तीन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है। १४. उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्त का जायन्स स्थितिबंध का अधिक है। १५. उससे वीन्द्रिय अपर्याप्त का जवन्य स्थितिबंध कुछ अधिक है। १६. उससे त्रोन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है। १७. उससे लीन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है। १८. उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध कुछ अधिक है। १६. उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध कुछ अधिक है। २०. उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है। २१. उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है। २२. उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध संख्यात गणा है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ प्रशासक २३. उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध कुछ अधिक है। २४. उससे असंही पंचेन्द्रिय अपर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है। २५. उससे असंजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध कुछ अधिक है। २६. उससे मयत का उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात गुणा है। २७. उससे देशसंयत का जघन्य स्थितिबंध संख्यात गुणा है। २८. उससे देशसंयत का उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात गुणा है । २६. उससे पर्याप्त सम्पषि मन्य सिमग संख्यात गृणा है। ३०. उससे अपर्याप्त सम्यग्दृष्टि का जघन्य स्थितिबंध संख्यात गुणा है। ३१. उससे अपर्याप्त सम्यादृष्टि का उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात गुणा है। __३२, उससे पर्याप्त सम्यग्दृष्टि का उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात गुणा है। ३३. उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त मिथ्याइष्टि का उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात गुणा है । ३४. उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि का जघन्य स्थितिबंध संख्यात गुणा है। ३५. उससे संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात गुणा है। ३६. उससे संभी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट स्थितिबंध संख्यात गुणा है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ १६३ स्थिनिबंध के अल्पबहुत्व दर्शक इन स्थानों की संख्या ३६ है। यद्यपि जीवममास के १४ भेद हैं और लोक जीवसमाम की जयन्टर और उत्कृष्ट के भेद से दो-दो स्थितियां होती हैं। जिससे जोवसमासों की अपेक्षा २८ स्थान होते हैं, किन्तु स्थितिबंध के अल्पबहुत्व के निरूपण में अविरत सम्यग्दृष्टि के चार स्थान, देशबिरति के दो स्थान, संयत का एक स्थान और सूक्ष्मसंपराय का एक स्थान और मिलाने से कुल छत्तीस स्थान हो जाते हैं । इन छत्तीस स्थानों में आगे आगे का प्रत्येक स्थान पूर्ववर्ती स्थान से या तो गुणित है या अधिक है।' उक्त स्थितिस्थानों को यदि ऊपर से नीचे की ओर देखा जाये तो स्थिति अधिकाधिक होती जाती है, और नीचे से ऊपर की ओर देखने पर स्थिति घटती जाती है। इससे यह सरलता से समझ में आ जाता है कि कौन-सा जीव अधिक स्थिति बांधता है और कौन-सा कम । एकेन्द्रिय से होन्द्रिय, द्वीन्द्रिय सत्रीन्द्रिय, वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय से असंझी पंचेन्द्रिय बेः अधिक स्थितिबंध होता है और असंजी पंचेन्द्रिय से संयमी के, संयमो से देशविरति के, देशविति से अविरत सम्यग्दृष्टि के और अविरत सम्बग्दृष्टि से संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्याइष्टि के स्थितिबंध अधिक होता है। उनमें भी पर्याप्त के जघन्य स्थितिबंध से अपर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध अधिक होता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय से किसी राशि में गुणा करने से उत्पन्न होने वाली राशि गुणित राशि कहलाती है, जैसे ४ से २ का गुणा करने पर आठ लब्ध आता है, यह आठ अपने पूर्ववर्ती ४ से दो गुणित है। किन्तु ४ में २ का भाग देकर लब्ध २ को ४ में जोड़ा जाये तो ६ संख्या होगी । उसे विशेषाधिक या कुछ अधिक कहा जायेगा । क्योंकि यह राशि गुणाधिक नहीं है किन्तु भागाधिक है । मुणित और विशेषाधिक में यही अन्तर है। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ re लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त और असंज्ञी पंचेन्द्रिय से संयमी के होने वाले उत्तरोत्तर अधिक स्थितिबंध से यही स्पष्ट होता है कि चैतन्यशक्ति के विकास के साथ मंक्लेश की संभावना भी अधिक अधिक होती है । एकेन्द्रिय से लेकर अमंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीव प्रायः हिताहित के विवेक से रहित मिध्यादृष्टि होते हैं और उनमें इतनी शक्ति नहीं होती कि वे अपनी विकसित चैतन्य शक्ति का उपयोग संक्लेश परिणामों के रोकने में करें । इसलिए उनको उत्तरोत्तर अधिक ही स्थितिबंध होता है, किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय होने के कारण संयमी मनुष्य की शक्ति विकसित होती है। जिससे संयमी होने के कारण संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा उनका स्थितिबंध बहुत कम होता है किन्तु असंजी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से वह अधिक ही है ।" शतक १ गो० कर्मकाड में स्थितिबंध का अपबहुत्व तो नहीं बताया है किन्तु एकेद्रिय आदि जीवों के अवान्तर भेदों में स्थितिबंध का निरूपण किया है । जिससे अल्पबहुत्व का ज्ञान हो जाता है, एकेन्द्रिय आदि जीवों के अवान्तर भेदों के स्थितिबंध का निरूपण निम्न क्रम से किया है वासूप बासू वरट्ठिदीओ सुबाअ सूबाप जहणकालो । वीवधी विजष्णकालो सेसाणमेव वचणीयमदं ॥ १४८ ॥ बाप - वादर सूक्ष्म पर्याप्त और वासूत्र - वादर सूक्ष्म अपर्याप्त दोनों मिलाकर कार तरह के जीवों के कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तथा मुबा -- सूक्ष्म बादर अपर्याप्त सुबा - सूक्ष्म बादर पर्याप्त जीवों के कर्मों की जघन्य स्थिति, इस तरह एकेन्द्रिय जीव की कर्मस्थिति के आठ भेद हैं। बीबीबर: हीन्द्रिय पर्याप्त और द्वीन्द्रिय अपर्याप्त इन दोनों की उत्कृष्ट कर्मस्थिति तथा हीन्द्रिय अपर्याप्त और द्वीन्द्रिय पर्याप्त धन दोनों का जघन्य काल, इस तरह दीन्द्रिय की स्थिति के चार भेद हैं । (शेष पृष्ठ ११५ पर) Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ यहां यह विशेष समझना चाहिये कि संयत के उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिबंध तक के बताये पो स्थितिबंन स्थानों का प्रमाण अतःकोडाकोड़ी सागर ही है। अर्थात् सभी स्थितिबंधों का प्रमाण अन्त कोडाकोड़ी सागर प्रमाण ही होगा 1' संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण सामान्य से बताये गये उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रमाण के समान समझना चाहिये । इसी तरस आदिम से लेकर सजी पंचेन्द्रिय तक को स्थिति के भी चारचार भेद जानना चाहिए । अर्थात् बादर पर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति, मुक्ष्म पर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति, बादर अपर्याप्न की उत्कृष्ट स्थिति, सूक्ष्म अपर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति, सूक्ष्म अपर्याप्त की जघन्य स्थिति, बादर अपर्याप्त की जघन्य स्थिति, मुक्ष्म पर्याप्त की जघन्य स्थिति, बादर पर्याप्त की जघन्य स्थिति, ये एकेन्द्रिय के भेदों का क्रम है । हीन्द्रिय पर्याप्त और दोन्द्रिय अपर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति, हीन्द्रिय अपर्याप्त और द्वीन्द्रिय पर्याप्त की जघन्य स्थिति, इसी प्रकार श्रीन्द्रिय आदि में जानना चाहिये । एकेन्द्रिय वीन्द्रिय आदि के इन अबान्तर मेंदों में जो स्थिति बतलाई है, वह अत्तरोतर कम है । उनके इस क्रम को नीचे से ऊपर की ओर पहने पर कर्म ग्रन्थ के प्रतिपादन के अनुकूल हो जाता है । 'ओकोसो सनिस्म होई पज्जनगरसेव ।।सा' । 'अभितारतो ३ कोडाकोडी ए' ति एवं मंजसम्म नकोसातो आढत्तं कोडाकोडीए अमितरतो भवति ।' .....कर्मप्रकृति वर्णि संयत के उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर अपर्याप्त सुंजी पचेन्द्रिय के उत्कृष्ट पियतिबध तक जितना भी धिनियंध है, वह कोडाकोड़ी सागर के अन्दर ही आनना चाहिये । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ इस प्रकार के स्थितिबंध के अल्पबहुत्व को अपेक्षा से उत्कृष्ट, जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाकर अब स्थिति को शुभाशुभता और उसके कारण को बतलाते हैं। स्थितिबंध को शुभाशुभता सव्वाण विजिट्ठठिई असुत्रा जं साइकिले से णं । मुतं नरअमरतिरिय उं ॥ ५२ ॥ इयरा विसोहिओ पुण शब्दार्थ सव्वाण वि उत्कृष्ट स्थिति असुभा - अशुभ, स्थिति), अइसफिले सेण इयरा जघन्यस्थिति, विसोहि · तीव्र - तर क - सभी कर्म प्रकृतियों की जिट्ठठिद्द · अं- इनलिये, सा- वह (उत्कृष्ट संक्लेण (कथाय) के उदय होने से, विशुद्धि द्वारा, पुण-तथा, · — सुतुं -- छोड़कर नरअमरतिरिया - मनुष्य, देव और तिच आयु को । गाथार्थ मनुष्य, देव और निर्यंच आयु के सिवाय मभी प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थिति अति मंत्रले परिणामों से बंधने के कारण अशुभ कही जाती है । जघन्य स्थिति का बंध विद्युद्धि द्वारा होता है। विशेषार्थ गाथा में देवावु मनुष्यायु और निर्यत्रायु को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को अशुभ और जघन्य स्थिति को शुभ बतलाया है । इसका कारण जन साधारण की उस भ्रांति का निराकरण करता है कि वह शुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को अधिक समय तक शुभ फल देने के कारण अच्छा और अशुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को अधिक समय तक अशुभ फल देने के कारण बुरा मानता है। लेकिन शास्त्रकारों का कहना है कि अधिक स्थिति का बंधना अच्छा नहीं है । क्योंकि स्थितिबंध का मूल कारण कपाय है और कषाय की श्र ेणी के अनुसार स्थितिबंध भी उसी श्र ेणी Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम क्रमग्रन्य १६७ का होता है । उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट कषाय से होता है इसीलिये उसे अच्छा नहीं कहा जाता है । उत्कृष्ट अनुभागबंध शुभ क्यों ? उत्कृष्ट स्थितिबंध को जो अशुभ माना गया है, उसका कारण उत्कृष्ट कषाय है । इस पर जिज्ञासू का प्रश्न है कि स्थितिबंध की तरह अनुभागबंध भी कषाय से होता है—ठिइ अणुभागं कसायओ' इति बचनात् । अतः उत्कृष्ट स्थितिबंध की तरह उत्कृष्ट अनुभाग को भी अशुभ मानना चाहिये । क्योंकि दोनों का कारण कपाय है । किन्तु शास्त्रों में शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को शुभ और अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को अशुभ बतलाया है। __इसका समाधान यह है कि स्थिति और अनुभाग बंध का कारण कपाय अवश्य है । किन्तु दोनों में बड़ा अन्तर है। क्योंकि कषाय की तीनता होने पर अशुभ प्रकृतियों में अनुभाग बंध अधिक होता है और शुभ प्रकृतियों में कम तथा कषाय को मंदता होने पर शुभ प्रकृतियों के अनुभाग में अधिकता और अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग में हीनता होती है । इस प्रकार प्रत्येक प्रकृति के अनुभाग बंध की होनाधिकता कपाय की होनाधिकता पर निर्भर नहीं है। किन्तु शुभ प्रकृतियों के अनुभाग बंध की हीनाधिकता कषाय की तीव्रता और मंदता पर अवनंबित है और अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग बंध की हीनता और अधिकता कापाय की मंदता और तीव्रता पर। किन्तु स्थितिबंध में यह बात नहीं है। क्योंकि कषाय की तीनता के समय शुभ अथवा अशभ जो भी प्रकृतियां बंधती हैं, उन मब में स्थितिबंध अधिक होता है । अनः स्थितिबंध की अपेक्षा से कपाय की नीव्रता और मंदता का प्रभाव सभी प्रकृतियों पर एक-सा पड़ता है किन्तु अनुभाग बंध में यह बात नहीं है । अनुभाग में शुभ और अशुभ प्रकृतियों पर पाय का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गत દ इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि जब-जब शुभ प्रकृतियों में उत्कृष्ट अनुभाग होता है तब-तब जघन्य स्थितिबंध होता है और जब-जब उनमें जधन्य अनुभागबंध होता है तब-तब उनमें उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। क्योंकि शुभ प्रकृतियों में उत्कृष्ट अनुभागबंध का कारण कषाय की मंदता और जघन्य अनुभागबंध का कारण कषाय की तीव्र है! लेकिन स्थितिबंध में कष्टाय की मंदता जघन्य स्थितिबंध का कारण और कषाय की तीव्रता उत्कृष्ट स्थितिबंध का कारण है। यह तो हुई शुभ प्रकृतियों की बात । अशुभ प्रकृतियों में तो अनुभाग अधिक होने पर स्थिति भी अधिक होती है और अनुभाग कम होने पर स्थितिबंध कम होता है। क्योंकि दोनों का कारण कपाय की तीव्रता है । अतः उत्कृष्ट स्थितिबंध हो अशुभ है क्योंकि उसका कारण कषायों की तीव्रता है और शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध शुभ है, क्योंकि उसका कारण कषायों की मंदता है । इसीलिये उत्कृष्ट स्थितिबंध की तरह उत्कृष्ट अनुभाग बंध को सर्वथा अशुभ नहीं माना जा मकता है । इस प्रकार उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट स्थितिबंध और विशुद्धि से जघन्य स्थितिबंध होता है, किन्तु देवायु, मनुष्यायु और तिर्यंचायु इन तीन प्रकृतियों के बारे में यह नियम लागू नहीं होता है । क्योंकि इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति शुभ मानी जाती है और उसका बंध विशुद्धि से होता है और जघन्य स्थिति अशुभ, क्योंकि उसका बंध संक्लेश से होता है । सारांश यह है कि इन प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति तीव्र कषाय से बंधती है और जघन्य स्थिति मंद कषाय से । किन्तु इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति मंद कषाय से और जघन्य स्थिति तीव्र कषाय से बंधती है । इसीलिये इन तीन प्रकृतियों को ग्रहण नहीं किया गया है । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ १९६ ___ यद्यपि उत्कृष्ट स्थितिबंध तीव्र कषाय से होता है, लेकिन कषाय की अभिव्यग्नि योग द्वारा होती है । अनः केवल कवाय से ही स्थितिबंध नहीं होता है, किन्तु उसके साथ योग भी रहता है। इसलिये अत्र सब जीवों में योग के अल्पबहुत्व और उसकी स्थिति पर यहां विचार किया जा रहा है। योग का अस्पबहुत्व सुहमनिमोबाइखणपजोग बायरविाल प्रमणमगा। अपज्ज लह पढमदुगुरु पजहस्पिरो असंखगुणो ॥५३॥ अपजत्त'ससुधकोसी पज्जाहन्नियर एव ठिठाणा । अपजेवर संखगुणा परमपजाबिए असंच गुणा ॥५४॥ शब्दार्थ-सुहमनिगोय--सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक, आइपण ... प्रथम समय में (उत्पत्ति के), अप्पजोग - अल्पयोग, बायर -वादर एकेन्द्रिय, य-और, सिंगलअमणमणा विकत्रिक, असजी पंचेन्द्रिय, संज्ञी पंचन्द्रिय, अपन-अपर्याप्त के, लहजघन्य योग, पढमकु-प्रयटिक (अपयात मुश्म, बादर) का, मुगउत्कृष्ट योग, पजस्सियरो–पर्याप्त का जघन्य और उत्कृष्ट योग, असंखगुणो - असंख्यात गुणा । अपजस्त- अपर्याप्त, तस -प्रस का, उक्कोसो -. उत्कृष्ट योग, परजजहान - पर्याप्त स वा जघन्य योग, पर और इतर (उत्कृष्ट योग), एव .. इस प्रकार, ठिठाणा -स्थिति के धान, अपजेयर - अपर्याप्त की अपेक्षा पर्याप्त के, संखगुणा=सख्यात गुणा, परं-. परन्तु. अपजबिए -अपर्याप्त द्वौन्दिय में. असंखगगा असंध्यान गुणा । १ असमस्त' इति पाठान्तरे । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० पातक गाथायं-सूक्ष्म निगोदिया लक्ष्यपर्याप्त जीव को पहले ममय में अल्प योग होता है, उसकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय, विकलत्रिक, असंज्ञी और संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपप्तिक के पहले समय में क्रम से असंख्यात गुणा होता है। उसके अनन्तर प्रारंभ के दो लब्ध्यपर्याप्त अर्थात् मूक्ष्म और वादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। उससे दोनों ही पर्याप्त का जघन्य व उत्कृष्ट योग अनुक्रम से असंख्यात गुणा है। उसकी अपेक्षा अपर्याप्त अस का उत्कृष्ट योग, पर्याप्त त्रस का जघन्य और लत्कृष्ट योग अनुक्रम से असंख्यात गुणा है। इसी प्रकार स्थितिस्थान भी अपर्याप्त और पर्याप्त के संख्यात गुणे होते हैं किन्तु अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के स्थितिस्थान असंख्यात गुणे हैं। विशेषाय-- इन दो गाथाओं में योग के अल्पबहुत्व का कथन किया गया है । योग का अर्थ है सकर्मा जीव की शक्तिविशेष जो कर्मों के ग्रहण करने में कारण है | योग के द्वारा कर्म रज को आत्मा तक लाया जाता है। कर्मप्रकृति (बंधनकरण) में योग की परिभाषा इस प्रकार दी गई है परिणामा लंबण गहण साहणं सेण लवनामसिगं ।। अर्थात् पुद्गलों का परिणमन, आलम्बन और ग्रहण के साधन यानी कारण को योग कहते हैं।' आत्मा में वीर्य-शक्ति है और १ गो. जीवकांड गा. २१५ में योग का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है... पुग्गलविनाइदेहोदयेण मणमणकायजुत्तस्म । जीवरम जा हु मनि कम्मागमकारणं जोगी ।। पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय में युक्त जीव को जो गति कर्मों के ग्रहण करने में कारण है, उमे योग कहते हैं। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ संसारी जीव में वह शक्ति धीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से प्रगट होती है । उस वीर्य के द्वारा जीव पहले औदारिक आदि शरीरों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और ग्रहण करके उन्हें औदारिक आदि शरीर २५ :रिणमा : सबा बावा, या मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें श्वासोच्छ्दास आदि रूप परिणमाता है और परिणमा कर उनका अवलंबन यानी सहायता लेता है । यह क्रम सतत चलता रहता है । पद्गलों को ग्रहण करने के तीन निमित्त है—मन, वचन और काय | इसीलिये योग के भी तीन नाम हो जाते हैं—मनोयोग, वचनयोग, काययोग ।' मन के अवलंबन से होने वाले योग-व्यापार को मनोयोग, वचन के अवलंबन से होने वाले योग व्यापार को बचनयोग और श्वासोच्छ्वास आदि के अवलम्बन से होने वाले योग व्यापार को काययोग कहते हैं । सारांश यह है कि जीव में विद्यमान योग नामक शक्ति से वह मन, वचन, काय आदि का निर्माण करता है और ये मन, वचन और काय उसकी योग नामक शक्ति के अवलंबन होते हैं। इस प्रकार से योग पुद्गलों को ग्रहण करने का, ग्रहण किये हए पुद्गलों को शरीगानि रूप परिणमाने का और उनका अवलंबन लेने का साधन है। योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, मामर्थ्य, ये योग के नामान्तर हैं। १ कायवाङ्मन: कर्मयोगः । -सत्वायत्र ६१ २ योगों की विशद व्याख्या और भेदों के नाम प्राधि के लिये चतर्थ कर्मग्रन्थ में योगमार्गणा को देखिये । ३ जोगवे विग्यिं ग्रामों का पाकमो तहा बिट्टा । मनी सामत्थं दिय जोगरम हवन्ति पजाया ।। - पंचसंग्रह ३६६ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.२ शतक यह योग एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों में यथायोग्य नाया जाता है । इसकी दो अवस्थायें है जघन्य और उत्कृष्ट । यानों सबसे कम योगशक्ति का धारक कौन-सा जीव है और अधिक तम योगशक्ति का धारक कोटमा जोद । इमीत को उपहार इन दो गाथाओं में स्पष्ट किया है। जो इस प्रकार है१. सबसे जघन्य योग सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव को प्रथम समय में होता है-मुहुम निगोयाइखण। इसके बाद अन्य जीवों की योगशक्ति में क्रमशः वृद्धि होती जाती है। २. बादर निगोदिया एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव के प्रथम समय में जो योग होता है, वह उससे असंख्यात गुणा है । ३. उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गृणा है । ४. उससे श्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुणा है। ५. उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गृणा है । ६. उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुणा है। ७. उससे संशी पंचेन्द्रिय लब्ध्य का जघन्य योग असंख्यात गुणा है। ८. उससे सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गणा है। ६. उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। १०. उससे सूक्ष्म निगोदिया पर्याप्त का जघन्ययोग असंख्यात गुणा है। ११, उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गृणा है । १२. उससे सूक्ष्म निगोदिया पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है । १३. उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है | १४. उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है । १५. उससे श्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ १६. उससे चतुरिन्द्रिय लक्ष्य का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। १७. उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय लभ्यपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। १८. उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। १६, उससे द्वीन्द्रिय' पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुणा है । २०. उससे श्रीन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुणा है । २१. उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुणा है। २२. उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गणा है। २३. उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य योग असंख्यात गुण है । २४. उससे Tोन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गृणा है । २५. उससे श्रीन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। २६. उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है । २७. उससे असंज्ञी पंचे० पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। २८. उससे संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। इस प्रकार से चौदह जीधसमासों में जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से योगों के २८ स्थान होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में कुछ और स्थान दूसरे ग्रन्थों में कहे हैं। जो इस प्रकार हैं-- २६. संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट योग से अनुत्तरवासी देवों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है । ३०. उससे अंवेयकवासी देवों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। ३१. उससे भोगभूमिज तियंच और मनुष्यों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। ३२. उससे आहारक शरीर वालों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ शतक ३३. शेष देव, नारक, तिर्यंच और मनुष्यों का उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा है । इस प्रकार में सब जीवों के योग का अल्यबहुत्व जानना चाहिये ।२ मबत्र गुणाकार का प्रमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग जानना अर्थात् पहले-पहले योगस्थान में पल्य के असंख्यातवें भाग का गुणा करने पर आगे के योगस्थान का प्रमाण आता है। इसका यह अर्थ हुआ कि ज्यों-ज्यों उत्तरोत्तर जीव को शक्ति का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों योगस्थान में भी वृद्धि होती जाती है । जघन्य योग से जीव जघन्य प्रदेशबंध और उत्कृष्ट योग से उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है। इस प्रकार म बोगस्थानों के अल्पबद्भुत्व का कथन करने के पश्चात् अब स्थितिस्थानों में कथन करने में - शिकाणा अपजेयर संखगुणा- अपर्याप्त से पर्याप्त के स्थितिस्यान संख्यात गुणे हैं किन्तु __ कपंप्रकृति (बंधनकरण) में अमजी पंचेन्द्रिय परिप्त के उत्कृष्ट योग से अनुतरवामी देवों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा बतलाया है ... अमणाणुत्तरगेविन भोगभूमिगयतइयतणुगेसु । फमसो असंखगुणिो सेसेमु म जोग उक्कोसो ।। १६ ॥ जब अमंज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उस्कृष्ट योग को कहने के बाद अनुत्तरवासी देवों आदि के उत्कृष्ट प्रोग का कथन करेंगे तो २८ वा स्थान २७ धा होगा और कुल मिलाकर मब स्थान ३२ होंगे । कर्मप्रकृति में इसी प्रकार है। सब जीवों के योग का अल्पयत्व भगवती २५।१ में बतलाया है । उसमें पर्याप्ल के जघन्य योग से अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग अधिक कहा है । बोल भी आगे पीछे है। इसका कारण तो बहुभुतगम्य है। ३ गो. कर्मकांड ना० २१८ में २४२ नक योगस्यानों का विस्तृत वर्णन किया है । इसका उपयोगी अंधा परिशिष्ट में देखिये । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्म ग्रन्थ २०५ इतनी विशेषता है कि 'अपजविए असंखगणा' द्वोन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान अनंख्यात गृणं है। इसका पाटीकरण नीचे किया जा रहा है। ___ किसी कर्मप्रकृति को जवन्य स्थिति से लेकर एक-एक समय बढ़तेबढ़ते उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त स्थिति के जो भेद होते हैं, वे स्थितिस्थान' कहलाते हैं। जैसे किसी कर्मप्रकृति की जघन्यस्थिा 1 समय और उत्कृष्ट स्थिति १८ समय है तो दस से लेकर अठारह तक स्थिति के नौ भेद होते हैं, जिन्हें स्थितिस्थान कहते हैं । ये स्थितिस्थान भी उत्तरोत्तर संख्यात गुणे हैं किन्तु द्वीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान असंख्यात गुणे होते हैं । उनका क्रम इस प्रकार है१ सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के स्थितिस्थान सबसे कम हैं। २ उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यातगुणे हैं । ३ उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे है । ४ उसस बादर एकेन्द्रिय पर्यास्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। ५ उसस द्वीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान असंख्यात गुणे हैं । ६ उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे है । ७ उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। - उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात पुणे है। में उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। १० उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। ११ उससे असंजी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गृणे हैं । १२ उससे अमंत्री पंचेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गणे हैं। १ तत्र जन्य स्थिते रारभ्य एकसमयवृद्ध,गा गर्नोत्कृष्ट निम्थितिपर्यवसाना ये स्थितिभेदास्ते स्थितिस्थानान्युच्यन्ते । -पंचम कर्मप्रत्य टीका, पृ० ५५ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक १३ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपयांप्त के स्थातस्थान संख्यात गुणे हैं। १४ उससे संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। इस प्रकार स्थिति के प्रमाण में वृद्धि के साथ स्थितिस्थानी की भी संख्या बढ़ती जाती है । योग के प्रसंग में योगों के अल्पाबहुत्व, स्थितिस्थानों का निरूपण करने के बाद अब अपमान जोवों के प्रति समय जितने योग की वृद्धि होती है, उसका कथन करते हैं। पड़ावण पसंख गणचिरिय अपज पठिहमसंखलोगसमा । अजनसाया अहिया सत्तसु आउसु असंखगुणा ॥५५॥ शब्दार्य - पइखणं- प्रत्येक समय में, असंखपुणविरिय - असंन्यात गुणा वीर्य वाले, अपज–अपर्याप्त जीव, पइठिईप्रत्येक स्थितिबंध में, असंखलोगसमा -असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण, अमवसाया –अध्यत्र साय, अहिया अधिक, सत्तसु -- सात कर्मों में, आजसु -आघुकर्म में, असंलगुणा - असंख्यात गुणा । ___गाथार्य-अपर्याप्त जीव प्रत्येक समय असंख्यात गुणे वीर्य वाले होते हैं और प्रत्येक स्थितिबंध में असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय होते हैं । सात कर्मों में तो स्थितिबंध के अध्यवसाय विशेषाधिक और आयुकर्म में असंख्यात गुण होते हैं। विशेषार्थ - पूर्व गाथा में स्थितिस्थानों का प्रमाण बतलाया है । अब यहां बतलाते हैं कि अपर्याप्त जोवों के योगम्थानों में प्रति समय असंख्यात गुणी वृद्धि होती है किन्तु पर्याप्त जीवों में ऐसा नहीं होता है । यह असंख्यात गुणी वृद्धि उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त समझना चाहिए Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ सब्वोदि अपज्जत्तो पsखणं असंखगुणाए जोगवुड्कीए बड्ढईति । एक-एक स्थितिस्थान के कारण असंख्यात अध्यवसायस्थान होते हैं । २०७ स्थितिबंध के कारण कषायजन्य आत्मपरिणामों को अध्यबस स्थान कहते हैं। कषायों के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम मंद, मंदतर, मंदतम रूप में उदय होने से अध्यवसायस्थानों के अनेक भेद हो जाते है । एक स्थितिबंध का कारण एक ही अध्यवसायस्थान नहीं है किन्तु अनेक अध्यवसायस्थान हैं । अर्थात् एक ही स्थिति नाना जीवों को नाना अध्यवसायस्थानों से बंधती है। जैसे कुछ व्यक्तियों ने दो सागर प्रमाण की देवायु का बंध किया हो, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि उन सबके सर्वथा एक जैसे परिणाम हों । इसीलिए एक-एक स्थितिस्थान के कारण अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण कहे जाते हैं । आयुकर्म के सिवाय ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के अध्यवसायस्थान विशेषाधिक हैं। जैसे ज्ञानावरण कर्म की जघन्य स्थिति के कारण अध्यवसायस्थान सबसे कम हैं, उससे द्वितीय स्थितिस्थान के कारण अध्यवसाय अधिक हैं, उससे तृतीय स्थितिस्थान के कारण अध्यवसायस्थान अधिक हैं । इसी प्रकार चौथे, पांचवें यावत् उत्कृष्ट स्थितिस्थान तक समझना चाहिए। लेकिन इन सबका सामान्य से प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण ही है । ज्ञानावरण की तरह दर्शनावरण, बेदनीय, मोहनीय नाम, गोत्र और अंतराय कर्म की द्वितीय आदि स्थिति से लेकर अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबंध पर्यन्त अध्यवसायस्थानों की संख्या अधिक अधिक जानना चाहिए। लेकिन आयुकर्म के अध्यवसायस्थान उत्तरोत्तर असंख्यात गुणे हैं । अर्थात् चारों हो आयुकमों के जघन्य स्थितिबंध के कारण अध्यवसायस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं और उसके बाद उनके दूसरे स्थितिबंध के कारण अध्यवसायस्थान उससे असंख्यात गुणे हैं, Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ शतक तृतीय स्थितिबंध के कारण श्यवसायस्थान उससे भी असंख्यात गृणे है । इस प्रकार उत्कृष्ट मितिबंध पर्यन्त अध्यवसायस्थानों की संख्या असंख्यात गृणी, असंख्यात गृणो समझना चाहिये । इस प्रकार से स्थितिबंध की अपेक्षा सब कर्मों के अध्यवसाय स्थानों को बतलाकर अब उन प्रकृतियों के नाम और उनका अबन्धकाल बतलाते हैं, जिनको पंचेन्द्रिय जीव अधिक-से-अधिक कितने काल तक नहीं बांधते हैं। तिरिनरतिजोयाणं नरभवजुय सच : पल्ल तेसढ़ । यावरघउहविगलायवेसु पणसीइसयमयरा ।।५६॥ अपढमसंघयणागिदखगई अमिच्छदुभगथीतिगं । निय नषु इथि दुतोस पणिविसु अबधांठ परमा ॥५॥ ___ शब्दार्थ-- तिरिनरयति तिर्यर्कत्रक और नरकनिक, जोयाणं यात नामकम का, नरभवजुय । मनुष्य भव सहित, सघउपल्ल- कार यापम महित तेस-- सठ (अधिक नौ सागमन, थावरचउ - स्थावर चतुष्क. इविगलायचे-एकान्द्रय, विकनेन्द्रिय और आतप नामकर्म में, पणसीइसये- एक नौ पचासी, अयर। ---सागरोपम । ___ अपदमसंघयणागिइखगव—पहले के सिवाय शेष संइनन और संस्थान और विहायोगति, अण--अनंतानुबंधी कषाय, मिच्छमिथ्यात्व मोहनीच, भगयोण तिर्ग-दुभंगणिक स्त्यानदित्रिक, निय-नीच गोत्र, नपुत्थि = नसकवेद, स्त्रीवेद, बुती-बसीम (नरभवसहित एकसौ बत्तीस सागरोपम), पणिविसु-पंचेन्द्रिय में, अबन्धन्धि-अवन्ध स्थिति, परमा--उत्कृष्ट । ___ गायार्थ -तियंत्रत्रिक, नरकत्रिक और उद्योत नामकर्म का मनुष्य भव सहित चार पल्योपम अधिक एकसौ नेसठ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २०१ सागरोपम उत्कृष्ट अबन्धकाल है । स्थावरचतुष्क, एकेन्द्रिय जाति, विकलेन्द्रिय और आतप नामकर्म का मनुष्य भत्र सहित चार पल्योपम अधिक एकसौ पचासी सागरोपम उत्कृष्ट अवन्धकाल जानना चाहिए। पहले संहनन और संस्थान व बिहायोगति के सिवाय शेष पांच संहनन, पांच संस्थान, विहायोगति, अनंतानुबंधी कषाय, मिथ्यात्व मोहनीय, दुर्भगत्रिक, नीच गोत्र, नपुंसक वेद और स्त्री वेद की अबंधस्थिति मनुष्य भव सहित एकसो बत्तीस सागरोपम है। इन प्रकृतियों की अबंधस्थिति पंचे. न्द्रिय में जानना चाहिये। विशेषार्थ-इन दो गामाओं में उन उतार कृतियों के नाम - लाये हैं जिनका उत्कृष्ट अबन्धकाल पंचेन्द्रियों में है। इन प्रकृतियों की कुल संख्या ४१ है जो पहले और दूसरे गुणस्थान में बंधयोग्य है । पहले गुणस्थान में बंधयोग्य सोलह और दूसरे गुणस्थान में बंधयोग्य पच्चीस प्रकृतियां हैं । सारांश यह है कि इन इकतालीस प्रकृतियों का बंध उन्हीं जीवों को होता है जो पहले अथवा दूसरे गुणस्थान में होते हैं । जो जीव इन गुणस्थानों को छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं, उनके उक्त इकतालीस प्रकृतियों का बंध तब तक नहीं होता है जब तक वे पुनः उन गुणस्थानों में नहीं आते हैं। दूसरे गुणस्थान से आगे पंचेन्द्रिय जीव ही बढ़ते हैं । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के पहले, दूसरे के सिवाय आगे के गुणस्थान नहीं होते हैं। इसीलिए गाथा में बताई गई इकतालीस प्रकृतियों के अबन्धकाल को पंचेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा बतलाया है। लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिये कि जो पंचेन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं, उनके तो उक्त इकतालीस प्रकृतियों का बंध Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक तब नक नहीं हो सकता जब तक वे सम्यक्त्व से च्युत होकर पहले अथवा दूसरे गुणस्थान में नहीं आते. किन्तु पहले अथवा दूसरे गुणस्थान मे आने पर भी कभी-कभी उक्त प्रकृतियां नहीं बंधती हैं । इन सब बातों को ध्यान में रखकर उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अबन्धकाल को इन दो गाथाओं में बतलाया है। इन इकतालीस प्रकृतियों को तीन भागों में विभाजित कर अबंधकाल बतलाया है । पहले भाग में सात, दूसरे भाग में नौ और तीसरे भाग में पच्चीस प्रकृतियों का ग्रहण किया है । पहले भाग में ग्रहण की गई नात प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-तिर्यंचन्त्रिक (तिर्यंचति, तिर्यंचानुपूर्वी नियंत्रायु), नरकनिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु) और उद्योतु । टनका उत्कृष्ट अबन्धकाल-नरभवजुयं सचउपरल तेसझेंमनुष्य भव महित चार पल्य अधिक एक सौ बेसठ सागरोपम बतलाया है । जिमका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है - कोई जीव तीन पल्य की आयु बांधकर देवकुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुआ। वहां उसके उक्त सात प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि ये सात प्रकृतियां नरक, तिर्यंच गति बोच्च , अतः इन प्रकृतियों का बंध वही करता है जो नरकगति या तियंचगति में जन्म ले सकता है । किन्तु भोगभूमिज जीव मरकर नियम म देव ही होते हैं। अतः इन नरक, तिर्यत्र गति योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। इसके बाद भोगभूमि में सम्यक्त्व को प्राप्त करके वह एक. पल्य की स्थिति वाले देवों में उत्पन हुआ, अतः मम्यक्त्व होने के कारण वहां भी उसने उक्त सात प्रकृतियों का बंध नहीं किया। इसके बाद देवगति में सम्यक्त्व महित मरण करके मनुप्यति में जन्म लेकर और दीक्षा धारण कर नौवें ग्न वेयक में ३१ सागरापम को जियोत बाला देव हुआ । उत्पन्न होने के अन्तमुहूर्त के याद सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्या दृष्टि हो गया । मिथ्याइष्टि हो जाने पर भी मवेयक देवों के उक्त सात प्रकृतियां जन्म से हो न बंधने Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनम कर्मग्रन्थ के कारण उनका बंध नहीं हुआ । वहां मरते समय क्षयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनायगति में जन्म लेकर महावन धारण करके दो बार विजयादिक में जन्म लेकर पुनः मनुष्य हुआ। वहां अन्तमुहूर्त के लिये सम्यकत्व से च्युत होकर तीसरे मिश्र गुणस्थान' में चला गया । पुनः क्षयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके तीन बार अच्युत स्वर्ग में जन्म लिया। इस प्रकार वेयक के ३१ सागर, बिजयादिक में दो बार जन्म लेने के ६६ मागर और तीन बार अच्युत स्वर्ग में जन्म लेने से वहां के ६६ सागर मिलाने से १६३ सागर होते हैं। इसमें देवकुरु भोगभुमिज की आयु तीन पल्ल, देवगति को आयु एक पल्य इस प्रकार चार पल्य और मिला देना चाहिए । बीच में जो मनुष्यभव धारण किये उन्हें भी उसमें जोड़कर मनुष्यभव सहित चार पल्प अधिक एक सौ सठ सागरोपम उक्त सात प्रकृतियों का अबंधकाल होता है । १ का प्रथिक मत से चौथ गुणस्थान से धुत होकर जीव तीसरे गुणस्थान में पा सकता है । लेकिन मैद्धांतिक मल इसके विरुद्ध हैमिच्छता मंकती अविरुद्धा होई सम्ममी से मु । मीसाइ वा दो सम्मा मिन्छन उण मीस || -हत्क- भाष्य ११४ - जीव मिथ्यात्व गुणस्थान मे वीग और चोये गुणस्थान में जा सकता है, इसमें कोई विरोध नहीं हैं तथा मिश्र गृणस्थान से भी पहले और चौथे गुणस्थान में जा सकता है, किंतु सम्यमान ने च्युस होकर मिथ्यात्व में जा सकता है. मिश्र गुणस्थान में नहीं जा सकता है। पलियाई तिनि भोगाणिम्मि ममपच्चयं पलिय मेगं । सोहम्मे मम्मण नरभवे सब विरईण ॥ मिच्छी भवपच्चपनो नेविउजे सागराइं इगतोस । अंशमुख्नुणाई सम्मत्तं तम्मि लिहिणं ॥ विरयनरपवनरिमो अगुत्तग्मगे 7 अयर छात्रट्टी । मिस महत्तमेगं कामिय मणुलो पुणो विग्ओं ॥ छाउटुी अयाणं अच्चुयए विरयन रभवंतरितो । तिरिनरवतिगुज्जोयाण एस कालो अबंधमि ।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ मतक इस अबन्धकाल को बतलाने में जो वेयक में सम्यक्त्व से पतन बतलाया है, वह क्षायोपमिक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल ६६ सागर पूरा हो जाने के कारण बतलाया, है । इसी प्रकार विजयादिक में ६६ सागर पूर्ण कर लेने के बाद मनुष्य भव में जो अन्तमुहूर्त के लिए तीसरे गुणस्थान में गमन बतलाया है, वह भी सम्यक्त्व के ६६ सागर पूरे हो जाने के कारण ही बतलाया है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर है। दूसरे भाग में स्थावरचतुष्क (स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण), एकेन्द्रिय, विकलत्रिक मनोनिमा मातुरिन्गि) और आतप इन नौ प्रकृतियों को ग्रहण किया है। ये नौ प्रकृतियां एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय प्रायोग्य हैं। इनका उत्कृष्ट अबन्धकाल मनुष्य भव सहित चार पल्य अधिक एक सौ पचासी सागर बतलाया है | जो इस प्रकार है-कोई जीव २२ सागर की स्थिति को लेकर छठे नरक में उत्पन्न हुआ । वहाँ इन प्रकृत्तियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि नरक से निकलकर जीव संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक होता है, एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय नहीं। वहां मरते समय सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनुष्यगति में जन्म हुआ और अणुव्रती होकर मरण करके चार पल्य की आयु वाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर मनुष्य पर्याय में जन्म लेकर महावत धारण करके नौवें मवेयक में इकतीस सागर की स्थिति वाला देव हुआ। वहां अन्तमुहूर्त के बाद मिथ्याइष्टि हो गया। अन्त समय में सम्यादृष्टि होकर मनुष्य पर्याय में जन्म लेकर महाबत पालन करके दो बार विजयादिक में उत्पन्न हुआ और इस प्रकार ६६ सागर पूरे किये | पहले की तरह मनुष्य पर्याय में अन्तमुहूर्त के लिये सम्बग्मिथ्याइष्टि होकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करके तीन बार अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और इस प्रकार दूसरी बार ६६ सागर पूर्ण Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ किये। इन सब कालों को जोड़ने से मनुष्य भव सहित चार पल्य अधिक २२ + ३१ +६६÷६६= १८५ सागर उत्कृष्ट अबन्धकाल होता है ।" तीसरे भाग में ग्रहण की गई २५ प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं - ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच कीलिका, सेवार्त संहनन, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्ज, हुण्ड संस्थान, अशुभ विहायोगति, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, निद्रानिद्रा, प्रचल रहयानकि, नीच, नपुं स्त्रीवेद | इन पच्चीस प्रकृतियों का अबन्धकाल मनुष्यभव सहित १३२ सागर है । जो इस प्रकार जानना चाहिए कि कोई जीव महाव्रत धारण कर मरकर दो बार विजयादिक में उत्पन्न हुआ और इस प्रकार सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ सागर पूर्ण किया । पुनः मनुष्यभव में अन्तर्मुहूर्त के लिये मिश्र गुणस्थान में आकर और पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करके तीन बार अच्युत स्वर्ग में जन्म लेकर दूसरी बार सम्यक्त्व का काल ६६ सागर पूर्ण किया | इस प्रकार ६६ + ६६ - १३२ हुए । इसीलिये उक्त पच्चीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अबन्धकाल मनुष्यभव सहित १३२ सागर होता है । इस प्रकार से उक्त इकतालीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अबन्धकाल बतलाकर अब आगे यह बतलाते हैं कि उक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट बावीस | १ छट्टीए नेरइओ भवपच्चयओ उ अपर defaओ य भविडं पलियचक्कं पढमकप्पे | पुब्वतकालजोगो पंचातीय सयं सचउपल्क्षं । आयदथावरचउविगलतिय गए गिंदिय अबंधो २ पणवीसाए अबंधो उक्कोसो होइ सम्मसीसजुए । बसी सयमयरा, दो विजए अबुए तिभवा ।। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अबन्धकाल १९३ सागर आदि क्यों है ? और अनुबंधिनी प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल का जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण क्या है ? विजयाइ विज्जे तमाइ दहिसय बुतोस तेसरं । पणसी सययबंधी पल्लतिगं सुरविद्विदुगे ॥ ५८ ॥ शब्दार्थ बिलम में में, नमाई तमःप्रभा नरक में दहिसय एक सौ सागरोपम दुतीस पणसी - पचामी सामनेम, तीन पल्प, सुरविवि P बत्तीस तेस त्रेसठ सागरोपम, समयबंधी निरन्तर बंध पल्लतिगं सुरद्विक और वैक्रियद्विक में | शतक्र - 115 गाथार्थ - विजयादिक में बेवक और विजयादिक में तथा तमः प्रभा और ग्रैवेयक में गये जीव की उत्कृष्ट अबन्धस्थिति अनुक्रम से एक सो बत्तीस, एक सौ व सठ और एक सौ पचासी सागरोपम मनुष्यभव सहित होती है। देवद्विक और वैक्रिर्यादक का निरन्तर बंधकाल तीन पल्य है । विशेषार्थ - इससे पूर्व की दो गाथाओं में जो ४१ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अबन्धकाल बतलाया वह किस प्रकार घटित होता है, इसका.. संकेत यहां किया गया है तथा अध्रुवबंधिनी तिहत्तर प्रकृतियों में से कुछ प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल को बतलाया है । यद्यपि अकाल का स्पष्टीकरण पूर्व को दो गाथाओं के भावार्थ में कर दिया गया है, तथापि प्रसंगवशात् पुनः यहां भी करते हैं । एक सौ बत्तीस सागर इस प्रकार होते हैं कि विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में से किसी एक विमान में दो बार जन्म लेने पर एक बार के ६६ सागर पूर्ण होते हैं । फिर अन्तर्मुहूर्त के लिये तीसरे गुणस्थान में आकर पुनः अच्युत स्वर्ग में तीन बार Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ २१५ जन्म लेने में दूसरी बार के ६६ सागर पूर्ण होते हैं। हम प्रकार विजयादिक में जन्म लेने से १३२ सागर पूर्ण होते हैं। एक सौ सठ सागर इस प्रकार होते हैं कि नौवें ग्रं वेबक में इकतीस सागर की आयु भोगकर वहां से च्युत होकर मनुष्यगति में जन्म लेकर पूर्व की तरह बिजयादिक में दो बार जाने से दो बार छियासठ मागर पूर्ण करने पर एक सौ वेसठ सागर पूर्ण होते हैं। एक सौ पचासी सागर होने के लिये इस प्रकार समझना चाहिए कि तमःप्रभा नामक छठे नरक में बाईस सागर की स्थिति पूर्ण कर उसके बाद नौबें प्रवेयक में इकतीस सागर की आयु भोगकर उसके बाद विजयादिक में दो बार छियासठ सागर पूरे करने से एक मौ पचासी सागर का अन्तराल होता है ।। इस प्रकार इकतालीस प्रकृतियां अधिक-से-अधिक इतने काल तक पंचेन्द्रिय जीव के बंध को प्राप्त नहीं होती हैं। अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल के जघन्य व उत्कृष्ट प्रमाण का विवेचन प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम उत्कृष्ट बंधकाल बतलाते कि :-पल्लतिगं सुरविउन्धिदुगे यानी देवद्विक (देवगति और देवानुपूर्वी) तथा वैक्रियाद्रिक (वैक्रिय' शरीर, वैक्रिय अंगोपांग) इन चार प्रकृतियों का बंध यदि बराबर होता रहे तो अधिक-से-अधिक तीन पल्य' तक हो सकता है। __इसका कारण यह है कि भोगभूमिज जीव जन्म से ही देवति के योग्य इन चार प्रकृतियों को तीन पल्योपम काल तक बराबर बांधते हैं। क्योंकि भोगभुमिज जीवों के नरका, तियंत्र और मनवगति के योग्य नामकर्म की प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। इसलिए परिणामों में अन्तर पड़ने पर भी इन चार प्रकृतियों की किसी विरोधिनी प्रकृति का बंध नहीं होता है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अब आगे की चार गाथाओं में शेष प्रकृतियों के नाम गिनाकर उनके निरन्तर बंध के समय को बतलाते हैं । समयादसंखकाल तिरिदुगनीएसु आउ अंतमुह । उरलि असंखपरट्टा सार्याठई पुरुष कोणा ॥५६३ जलहिलयं पणसीय परघुस्सा से पणिवितसच उगे । बत्तोस सुविहगमसुभगांत गुच्चचरसे ॥६०॥ असुखगइजा आणि संघयणाहारनश्यओयगं । थिर सुभजस्थावर दसर पुहत्थोयलमसायं ॥ ६१॥ समयादतमुहुसं मणुदुर्ग जिणवहर उरलवंगेसु । तित्तोसयरा परमा अंतमूह लहू वि आउजिणे ॥ ६६ ॥ शब्दार्थ - समयादसंखकालं – एक समय से लेकर असंख्य काल तक, तिरियुगनोएस तियंत्रद्विक और नीचगोत्र का आज आयुकर्म का अंतमुह-मन्तर्मुहूर्त तक, उलि – औदारिक शरीर का असंख परट्टा – असंख्यात पुद्गल परावर्त, सायठिई — सातावेदनीय का बंध, पुरुषकोगा- पूर्व कोटि वर्ष से न्यून | — r जलहिलयं - एक सौ सागरोयम, पणसीयं पचासी परघुस्सा से पराघात और उच्छवास नामकर्म का पणिदि पंचेन्द्रिय जाति का, तसच चमचतुष्क का बत्तीसं - बत्तीस, मुँहविहगढ शुभ विहायोगति, पुम–पुरुष वेद, सुभगलिंग – सुभगत्रिक, उच्च – उच्चगोत्र, चउरंसे समचतुरस्रसंस्थान का । → असुखगद्द - अशुभ विहायोगति, जाइ एकेद्रिय आदि चतुरिन्द्रिय तक जाति, आगि संघयण - पहले के सिवाय पांच संस्थान और पांच मंहनन, आहारनरयजयदुर्ग- आहारकद्विक, नरककि, उद्योतठिक थिरसुभगस स्थिर, शुभ, यशः कौर्ति नाम, शतक — Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ थायरस -- स्थावर वणक, नपुत्थी - नपुंसक वेद, स्त्री वेद, बुजुयल - दो युगल, असाप -- असाता वेदनीय का। ___ समयादतमुहसं-एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त, मणुकुग- मनुष्यतिफ, जिण-तीर्थंकर नामकर्म. बदर-इनऋषभनाराच संहनन, उरलुवंगे --औदारिक अंगोपांग का, तित्तीसयरा-तेतीस सागरोपम, परमो-उत्कृष्ट बंध, अंतमुह -- अन्तमुंहतं, लहुःवि .. जघन्य बंध भी, माजिणे-आयुकर्म और तीर्थकर नाम का। गापार्थ—तियंचद्विक और नीच गोत्र का एक समय से लेकर असंख्यात काल तक निरंतर बंध होता है । आयुकर्म का अन्तमुहूर्त, औदारिक शरीर का असंख्यात पुद्गल परावर्त और साता वेदनीय का कुछ कम पूर्व कोड़ी तक निरंतर बंध होता है। पराघात, उच्छ्वास, पंचेन्द्रिय जाति और असचतुष्क का एकसौ पचासी सागरोपम निरंतर बंध होता है । शुभ विहायोगति, पुरुष वेद, सुभगत्रिक, उच्च गोत्र और समचतुरस्र संस्थान का उत्कृष्ट निरंतर बंध एक सौ बत्तीस सागरोपम होता है। अशुभ विहायोगति, एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक अशुभ जातिचतुष्क, पहले के सिवाय पांच संस्थान, पांच संहनन, आहारकद्विक, नरकद्विक, उद्योतद्विक, स्थिर, शुभ, यश:कीर्ति नामकर्म, स्थाबर दशक, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, दो युगल और असाता वेदनीय का एक समय से लेकर अन्तमुहृतं पर्यन्त निरंतर बंध होता है । मनुष्यद्विक, तीर्थकर नामकर्म, वच्चऋषभनाराच Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ शतक संहनन और औदारिक अंगोपांग नामकर्म का तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट सतत बंध होता है । चार आयु और तीर्थकर नामकर्म का जघन्य निरंतर बंध भी अन्तमुहूर्त होता है । विशेषाध- - इन चार गाथाओं में अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के नाम तथा उनके निरंतर बन्ध होने के उत्कृष्ट समय को बतलाया है । इन प्रकृतियों के निरंतर बन्ध होने के जघन्य समय का संकेत इसलिये नहीं किया है क्योंकि अध्रुवबन्धिनी होने से एक समय के बाद भी इनका बना ल मकता। सभी प्रकृतियों का निरंतर बन्धकाल समान नहीं होने से समान समय बाली प्रकृतियों के वर्ग बनाकर उन-उन के बन्ध का समय बतलाया है । जिनका स्पष्टीकरण नीचे किये जा रहा है । तिर्यंचद्रिक (तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी) और नीच गोन का बन्धकाल एक समय से लेकर असंख्यात काल हो सकता है - समयादसंखकालं तिरिदुगनीएस । इसका कारण यह है कि उक्त तीन प्रकृत तियां जघन्य से एक समय तक बंधती हैं, क्योंकि दूसरे समय में इनकी विपक्षी प्रकुतियों का बन्ध हो सकता है । किन्तु जब कोई जीव तेजस्काय और वायुकाव में जन्म लेता है तो उसके तियंचद्विक व नीच गोत्र का निरंतर बन्ध होता रहता है,जब तक वह उस कार्य में बना रहता है । तेजस्काय और वायुकाय के जीवों में तिर्यचद्विक के सिवाय अन्य किसी गति और आनुपूर्वी का बन्ध नहीं होता और न उच्च गोत्र का ही । तेजस्काय ब वायुकाय में जन्म लेने वाला जीव लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश होते हैं, अधिक-से-अधिक उलने समय तक बराबर तेजस्वाय व बायुकाय में जन्म लेता रहता है | इसीलिए इन तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट निरन्तर बन्धकाल असंख्यात समय अर्थात् Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कमग्रन्थ २१६ अर्सख्यात उत्सर्पिणी, अवसपिणी वतलाया है। सातवें नरक में भी इन तीन प्रकृतियों का निरन्तर बन्ध होता रहता है। आयुकर्म की चारों प्रकृतियों- नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवायु का जघन्य और सट बाल तन है... उनान्हू । क्योंकि आयुकर्म का एक भव में एक ही बार बंध होता है और वह भी अधिक-से-अधिक अन्तर्मुहूर्त तक होता रहता है । औदारिक शरीर नामकर्म का एक समत्र से लेकर उत्कृष्ट बन्ध काल असंख्यात पुद्गल परावर्त है । क्योंकि जीव एक समय तक औदा. रिक शरीर का बन्ध करके दुसरे समय में उसके विपक्षी बैक्रिय शरीर आदि का भी बन्ध कर सकता है तथा असंख्यात पुदगल परावर्त का समय इसलिए माना जाता है कि स्थावरकाय में जन्म लेने वाला जीव असंख्यात पुद्गल परावर्त काल तक स्थावरकाय में पड़ा रह सकता है । तब उसके औदारिक के सिवाय अन्य किसी भी शरीर का बन्ध नहीं होता है। 'सायठिई पुब्बकोडूणा' साता वेदनीय का उत्कृष्ट बन्धकाल कुछ कम एक पूर्व कोदि है। जब कोई जीव एक समय तक साता बेदनीय का बन्ध करके दूसरे समय में उसकी प्रतिपक्षी असाता बेदनीय का बन्ध करता है तब तो उसका काल एक समय ठहरता है और जब कोई कर्मभूमिज मनुष्य आठ वर्ष की उम्र के पश्चात जिन दीक्षा धारण करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है तब उसके कुछ अधिक आठ वर्ष कम एक पूर्व कोटि काल तक निरन्तर साता बेदनीय का बंध होता रहता है। क्योंकि छठे गुणस्थान के बाद साता वेदनीय की विरोधिनी असाता वेदनीय प्रकृति का बन्ध नहीं होता है तथा कर्मभूमिज मनुष्य की उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि को होती है, अतः Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० शतक साता वेदनीय का निरन्तर उत्कृष्ट बन्धकाल कुछ अधिक आठ वर्ष कम एक पूर्व कोटि बतलाया है।' एक सौ पचासी सागर तक निरन्तर बन्धने वाली प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं - 'परघुस्सासे पणिदि तसचउगे-पराघात, उच्छ्वास, पंचेन्द्रिय जाति और त्रसचतुष्क, कुल ये सात प्रकृतियां हैं । इन प्रकृतियों के अध्रुवबन्धिनी होने से कम-से-कम इनका निरन्तर बन्धकाल एक समय है । क्योंकि एक समय के बाद इनको विपक्षी प्रकृतियां इनका स्थान ले लेती हैं तथा उत्कृष्ट निरन्तर बन्धकाल एकसौ पचासी सागर है। यद्यपि गाथा में उक्त सात प्रकृतियों के निरन्तर बन्ध के उत्कृष्ट समय को एक सौ पचासी सागर बताया है और पंचसंग्रह में भी इसी प्रकार कहा है । लेकिन इसके साथ चार पल्य अधिक और जोड़ना चाहिये । क्योंकि इनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियों का जितना अबन्यकाल होता है उतना ही इनका बन्धकाल है। गाथा ५६ में इनकी प्रतिपक्षी स्थावरचतुष्क आदि प्रकृतियों का उत्कृष्ट अबन्धकाल चार पल्य अधिक एकसौ पचासी सागरोपम बतलाया है, अतः इनका बन्ध १ देशोतपूर्वकोटिभावनात्वेषा इह किल कोऽपि पूर्वकोट्यायुको गर्भस्थो । न व मामान सातिरेकान् गमयति, जातोऽप्यष्टी वर्षाणि पावत् देशविरति पर्वविनि वा न प्रतिपद्यते, वर्षाष्टकादधो वर्तमानस्य सर्वस्यापि तथास्वा. भाव्यात् देशतः मर्वतो वा विरतिप्रतिपत्तरभावात् । -पंचसंग्रह मलयगिरिधीका, पृ. ७६ २ इन च पचनु.पत्यम्' इति अनिदेशेऽपि 'सचतुल्यम्' इति ब्याख्यानं कार्यम् । यतो यावानतेहिपक्षस्याबन्धकालस्तावाने यासां बन्धकाल इति । पत्रसंग्रहादी च उपलनणादिना केनचित् कारणेन यन्नोप्तं तदभिप्राय न विम इति । -पंचम कम्पप स्पीपा टीका, पृ०६० Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कमग्रन्थ २२१ काल उतना ही समझना चाहिये । क्योंकि उनके अवन्धकाल में ही इनका बन्ध हो सकता है। इस समयप्रमाण को इस प्रकार समझना चाहिए कि कोई जीव बाईस सागर प्रमाण स्थितिबंध करके छठे नरक में उत्पन्न हुआ. वहां पराधात आदि इन सात प्रकृतियों की प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बन्ध न होने से इन सा प्रकृतियों का निरन्तर बच किया और अंतिम समय में सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनुष्यगति में जन्म लिया । यहाँ अणुव्रतों का पालन करके चार पल्य की स्थिति वाले देवों में जन्म लिया और सम्यक्त्व सहित मरण करके पुनः मनुष्य हुआ और महावत धारण करके मरकर नौवें वेयक में इकतीस सागर की आयु वाला देव हुआ। वहां मिथ्याइष्टि होकर मरते समय पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करके मनुष्य हुआ । वहां से तीन बार मरमरकर अच्युत स्वर्ग में जन्म लिया और इस प्रकार छियासठ सागर पूर्ण किय । अन्तमुहूर्त के लिए तीसरे मिन गुणस्थान में आया और उसके बाद पुनः सम्यक्त्व प्राप्त किया और दो बार विजयादिक में जन्म लेकर छियासठ सागर पूर्ण किये । इस प्रकार छठे नरक वगैरह में भ्रमण करते हुए जीव को कहीं 'भवस्वभाव से और कहीं सम्यक्त्व के कारण पराधात आदि प्रकृतियों का बन्ध होता रहता है। शुभ विहायोगति, पुरुषवेद, सुभगत्रिक, उच्चगोत्र और समचतुरस्त्र संस्थान इन सात प्रकृतियों का उत्कृष्ट निरंतर बन्धकाल एकसौ बलीस' १ पंचसंग्रह को टीका में इन प्रकृतियों का निरन्तर बन्धकाल तीन पल्य अधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है । यहां कहा है कि तीन पत्य की आयु बाला निर्यच अशया मनुष्य भव के अंत में सम्यक्त्व' को प्राप्त करके पहले वतार ने ऋम से १३२ सागर तक संसार में भ्रमण करता है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕܕܝܪ शनक मागर है। अनुबन्धिनो प्रकृतियां होने से उनका जघन्य बन्धकाल एक समय है लेकिन उत्कृष्ट बन्धकाल एकसौ बत्तीस सागर होने का कारण यह है कि गाथा ५७ में इनकी विपक्षी प्रकृतियों का उत्कृष्ट अकाल एकस बत्तीस सागर बालाया है, अतः इनका बन्धकाल उसी क्रम से उतना ही समझना चाहिये 1 एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक बन्धने वाली इकतालीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं अशुभ विहायोगति, अशुभ जातिचतुष्क (एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, बीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) वज्रऋषभनाराच संहनन को छोड़कर शेष ऋषभनाराव आदि पांच अशुभ संहनन, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि पांच अशुभ संस्थान, आहारकलिक, नरकद्रिक, उद्योतविक, स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति, स्थावर दशक, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, युगलद्विक, (हास्य रति और शोक - अरति) और असाता वेदनीय | उक्त इकतालीस प्रकृतियों का निरन्तर वन्धकाल कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तमुहूर्त बतलाया है। ये प्रकृतियाँ अध्ध्रुवबन्धिनी हैं अतः अपनी-अपनी विरोधी प्रकृतियों की बन्धयोग्य सामग्री के होने पर इनका अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् बन्ध रुक जाता है । इन इकतालीस प्रकृतियों के निरन्तर बन्ध होने के उत्कृष्ट काल को अन्तर्मुहूर्त मानने का कारण यह है कि साता वेदनीय, रति, हास्य, स्थिर, शुभ और यश कीर्ति की विरोधिनी प्रकृतियां असाता वेदनीय, अरति शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति का बन्ध छठे गुणस्थान तक होता है, अतः वहाँ तक तो इनका निरन्तर बन्ध अन्तमुहूर्त तक होता है किन्तु उसके बाद के गुणस्थानों में भी इनका बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उन गुणस्थाना का काल भी अन्तमुहूर्त प्रमाण है । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ___ मनुष्यद्धिक (मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी), तीर्थकर नाम, वनऋषभनाराज संहनन, आँतारित गोगांक मा निरन्तर काल उत्कृष्ट से तेतीस सागर है। क्योंकि अनुत्तरवासी देवों के मनुष्यगति के योग्य प्रकृतियों का हो बंध होता है। जिससे वे अपने जन्म-समय से लेकर तेतीस सागर की आयु तक उक्त प्रकृत्तियों की बिरोधिनी नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, देव द्विक, वैक्रियद्विक, पांच अशुभ संहनन ऋषभनाराच आदि का बंध नहीं करते हैं। तीर्थंकर प्रकृति की कोई विरोधिनी प्रकृति नहीं है, अतः उसका भी तेतीस सागर तक बराबर बंध होता है। मनुष्यद्रिक आदि उक्त पांच प्रकृतियों में से तीर्थकर प्रकृति के सिबाय चार प्रकृतियों का जघन्य बंधकाल एक समय है, क्योंकि उनकी विरोधिनी प्रकृतियाँ हैं। सामान्यतः यह बताया गया है कि अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का जधन्य बंधकाल एक समय है । लेकिन कुछ प्रकृतियों के जघन्य बंधकाल में विशेषता होने से ग्रन्थकार ने संकेत किया है कि 'लहू वि आउ. जिणे' चार आयुकर्मों और तीर्थकर नामकर्म का जघन्य बंधकाल भी अन्तमुहूर्त है । अर्थात् तीर्थकर नामकम और नरकायु आदि चार आयू, कुल पांच प्रकृतियों का उत्कृष्ट और जघन्य बंधकाल अन्नमुहूर्त ही है। न कि जघन्य बंधकाल एक समय और उत्कृष्ट बंधकाल अन्तमुहूत है। आयुकर्म के बंधकान के बारे में पहले बता चुके हैं कि एक भव में एक बार ही आयु का बंध होता है और वह भो अन्तमुहर्न के लिये ही होता है । तीर्थकर प्रकृति का जघन्य बंध अन्तमुहर्त प्रमाण इस प्रकार समझना चाहिए कि कोई जीव तीर्थ कर प्रकृति का बंध करके उपशम श्रेणि चढ़ा, बहां नीचे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक तीर्थकर प्रकृति का बंध नहीं किया क्योंकि तीर्थकर प्रकृति के बंध का निरोध Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक आठवें गुणस्थान के छठे भाग में ही हो जाता है। पुनः उपशम श्रोणि से गिरकर अन्तमुहूर्त तक तीर्थकर प्रकृति का बंन करके बह जीव उपशम श्रीणि चढ़ा और वहां उसका अबन्धक हुआ। उस समय तीर्थ कर प्रकृति का जघन्य अंधकाल अन्तमुहूर्त घटित होता है । ___ इस प्रकार से अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के निरन्तर' बैश्वकाल के कथन के साथ स्थितिबंध का विवेचन पूर्ण होता है। अब आगे रसबंध (अनुभाग बंध) का विवेचन करते हैं। रसबंध ___बंध के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और रस इन चार भेदों में से प्रकृतिबंध और स्थितिबंध का वर्णन करने के बाद अब रसबंध अथवा अनुभाग बंध का वर्णन करते हैं । सबसे पहले ग्रन्थकार शुभ और अशुभ प्रकृतियों के तीब्र और मंद अनुभाग बंध के कारणों को बतलाते हैं। तिम्रो असुहसुहाणं संकेसविलोहिओ विवज्जयउ । मबरसो गिरिमहिरयजलरेहासरिसकसाएहि ॥६॥ चउठाणाई असुहा सुनहा विग्घदेसघाइआवरणा । पुमसंजलणिगबुतिचउठाणरसा सेस दुगमाई ॥४॥ शब्दार्थ-सिम्बो-तीवरस, भसुहसुहाणं - अशुभ और शुभ प्रकृत्तियों का, संकेसविसोहिओ-संक्लेश और विशुद्धि द्वारा, विबज्म मो० कर्मकांड में अध्रुवयंनिनी प्रकृतियों का सिर्फ जघन्य बन्धकाल ही बतलाया है अवरो भिषण मुहत्तो तित्याहाराण सटनआऊणं । समओ छावट्ठीणं बंधो तम्हा दृधा सेसा ।। १२६ तीर्थकर, अाहारकनिक और चार आयुओं के निरन्तर बध होने का जघन्य काल अन्त मुहूर्त है और शेष छियासह प्रकृतियों के निरन्तर बन्ध का जघन्य काल एक समय है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ यज विपरीतता से, मंदरसो-मंदरस गिरिमहिरपजलरेहा - पर्वत, पृथ्वी, रेती और जल की रेखा के सरि-ममान कसाहि- कषाय द्वारा - चउठाणाई — चतुः स्थानादि, असुहा— अशुभ प्रकृतियों में, सुह महा- शुभ प्रकृतियों में विपरीतता से, विन्धवेसधाइआवरणाअन्तराय और देशवाती आवरण प्रकतिया पुमसंजलन - पुरुषवेद और संज्वलन कषाय, इगदुसिचउठाणरसा एक, दो, तीन, चार स्थानिक रसयुक्त सेसा - बाकी की प्रकृतिया, सुगमाई-दो आदि I स्थानिक रसयुक्त | - २२५ गावार्थ - अशुभ और शुभ प्रकृतियों का तीव्र रस अनुक्रम से संक्लेश और विशुद्धि के द्वारा बंधता है । पर्वत, पृथ्वी, रेती और पानी में की गई रेखा के समान कषाय द्वारा अशुभ प्रकृतियों में चतुःस्थानिक आदि रस होता है और शुभ प्रकृतियों में विपरीतता द्वारा चतुःस्थानिक आदि रस होता है। पांच अन्तराय, देशघाती आवरण करने वाली प्रकृतियां, पुरुषवेद और संज्वलन कषाय चतुष्क, ये प्रकृतियां एकस्थानिक, द्विस्थानिक, निस्थानक और चारस्थानिक रसयुक्त और बाकी की प्रकृतियां द्विस्थानिक आदि तीन प्रकार के रसयुक्त बंधती हैं । विशेषार्थ - लोक में कार्मण वर्गणायें व्याप्त हैं। इन कर्म परमाणुओं में जीव के साथ बंधने से पहले किसी प्रकार का रस - फलजनन शक्ति नहीं रहती हैं । किन्तु जब वे जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं तब ग्रहण करने के समय में ही जीव के कषाय रूप परिणामों का निमित्त पाकर उनमें अनंतगुणा रस पड़ जाता है जो अपने विपाकोदय में उसउस रूप में अपना-अपना फल देकर जीव के गुणों का घात करते हैं । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२६ इसीलिए बंध को प्राप्त कर्म पुद्गलों में फल देने की जो शक्ति होती हैं, उसे रसबंध अथवा अनुभाग बंध कहते हैं। इसको अब उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं— जैसे सुखा घाम नीरस होता है, लेकिन ऊंटनी, भैंस, गाय और बकरी के पेट में पहुँचकर वह दूध के रूप में परिणत होता है तथा उसके रस में चिकनाई की हीनाधिकता देखी जाती है। अर्थात् उसी सूखे घास को खाकर ऊंटनी खूब गाढ़ा दूध देती है और उसमे चिकनाई भी बहुत अधिक होती है। भैंस के दूध में उससे कम गाढ़ापन और चिकनाई रहती है। गाय के दूध में उससे भी कम गाढ़ापन और निकताई है तथा बकरी के दूध में गाय के दूध से भी कम गाढापन व चिकनाई होती है। जैसे ही कार भिन्न-भिन्न पशुओं के पेट में जाकर भिन्न-भिन्न रस रूप परिणत होता है, उसी प्रकार एक ही प्रकार के कर्म परमाणु मित्र- भिन्न जीवों के भिन्न-भिन्न कपाय रूप परिणामों का निमित पाकर भिन्न-भिन्न रस वाले हो जाते हैं । जो यथासमय अपना फल देते हैं । !.. जैसे ऊंटनी के दूध में अधिक शक्ति होती है और बकरी के दुध में कम 1 जैसे ही शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार की प्रकृतियों का अनुभाग तीव्र भी होता है और मंद भी । अर्थात् अनुभाग बंध के दो प्रकार हैं—तीय अनुभाग बंध और मंद अनुभाग बंध | ये दोनों प्रकार के अनुभाग बंध शुभ प्रकृतियों में भी होते हैं और अशुभ प्रकृतियों में भी । इसीलिये ग्रन्थकार ते अनुभाग बंध का वर्णन शुभ और अशुभ प्रकृतियों के तीव्र और मंद अनुभाग बंध के कारणों को बतलाते हुए प्रारंभ किया है । अशुभ और शुभ प्रकृतियों के तीव्र और मंद अनुभाग बंध होने के कारणों को बतलाते हुए कहा है कि संक्लेश परिणामों से अशुभ प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग बंध होता है और विशुद्ध भावों से शुभ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्थ प्रकृतियों में तीन अनुभाग बंध होता है तथा इससे विपरीत भावों से मंद अनुभाग बंन होता है अर्थात् विशुद्ध भावों से अशुभ प्रकृतियों में मंद अनुभाग बंध तथा संक्लेश भावों से शुभ प्रकृतियों में मंद अनुभाग अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को नीम वगैरह के कङ वे रस को उपमा और शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को ईख के रस को उपमा दी जाती है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि जैसे नीम का रस कटुक होता है, वैसे ही अशुभ प्रकृतियों को अशुभ फल देने के कारण उनका रस बुरा समझा जाता है । ईख का रस मोठा और स्वादिष्ट होता है, वैसे ही शुभ प्रकृतियों का रस सुखदायक होता है । अशुभ और शुभ दोनों ही प्रकार की प्रकृतियों के तीव और मंद रस को चार-चार अवस्थायें होती हैं। जिनका प्रथम कर्मग्रन्थ की गाथा २ की व्याख्या में संकेत मात्र किया गया है। यहां कुछ विशेष रूप में कथन करते हैं। तीन और संद रस की अवस्थाओं के चारचार प्रकार इस तरह हैं-१-तोत्र, २ तीव्रतर, ३ तीव्रतम, ४ अत्यन्त तीव्र और १ मंद, २ मंदतर, ३ मंदतम और अत्यन्त मंद । यद्यपि इसके असंख्य प्रकार हैं वानी एक-एक के असंख्य प्रकार जानना चाहिये लेकिन उन सबका समावेश इन चार स्थानों में हो जाता है । इन चार प्रकारों को क्रमशः एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक कहा जाता है । अर्थात् एकस्थानिक से तीन या मंद, द्विस्थानिक से तीव्रतर या मंदतर, त्रिस्थानिक से तीवतम या मंदतम और चतुःस्थानिक से अत्यन्त तीव्र या अत्यन्त मंद का ग्रहण करना चाहिये। इनको इस तरह समझना चाहिये कि जैसे नीम का तुरन्त निकला हुआ रस स्वभाव से ही काटुक्र होता है जो उसकी तीन अवस्था है । जब उस तसा Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२८ को अग्नि पर पकाने से सर का आधा सेर रह जाता है तो वह कटुकतर हो जाता है, यह अवस्था तीव्रतर है। सेंर का तिहाई रहने पर कटुकतम हो जाता है। यह तीव्रतम अवस्था है और जब सर का पाव भर रह जाता है जो अत्यन्त कटुक है, यह अत्यन्त तीव्र अवस्था होती है । यह अशुभ प्रकृतियों के तीव्र रस (अनुभाग ) को चार अवस्थाओं का दृष्टान्त है । शुभ प्रकृतियों के तीव्र रत की चार अवस्थाओं का हृष्टान्त इस प्रकार है-जैसे ईख के पेरने पर जो स्वाभाविक रस निकलता है, वह स्वभाव से मधुर होता है । उस रस को आग पर पका कर सेर का आधा सेर कर लिया जाता है तो वह मधुरतर हो जाता है और सेर का एक तिहाई रहने पर मधुरतम और सेर का पाव भर रहने पर अत्यन्त मधुर हो जाता है । इस प्रकार तोत्र रस को चार अवस्थाओं को समझना चाहिये । अब मंद रस की चार अवस्थाओं को स्पष्ट करते हैं। जैसे नोम के कटुक रस या ईख के मधुर रस में एक चुल्लू पानी डाल देने पर बह मंद हो जाता है । एक गिलास पानी डालने पर मंदतर, एक लोटा पानी डालने पर मन्दतम तथा एक घड़ा पानी डालने पर अत्यन्त मंद हो जाता है। इसी प्रकार अशुभ और शुभ प्रकृतियों के मंद रस की मंद, मंदतर, मन्दतम और अत्यन्त मंद अवस्थायें समझना चाहिये । इस तीव्रता और मंदता का कारण कषाय की तीव्रता और मंदता है । तीव्र कषाय से अशुभ प्रकृतियों में तोत्र और शुभ प्रकृतियों में मंत्र अनुभाग बंध होता है और मंद कषाय से अशुभ प्रकृतियों में मंद और शुभ प्रकृतियों में तीव्र अनुभाग बंध होता है। अर्थात् संदेश परि णामों की वृद्धि और विशुद्ध परिणामों की हानि से अशुभ प्रकृतियों का तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम और अत्यन्त तीन तथा शुभ प्रकृतियों का मंद, मंदतर, मंदतम और अत्यन्त मंद अनुभाग बंध होता है और विशुद्ध परिणामों की वृद्धि तथा सक्लेश परिणामों की हानि से शुभ प्रकृतियों Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २२६ का तीव्र, तीतर, तीवतम और अत्यन्त तीन अनुभाग बंध होता है तथा अशुभ प्रकृतियों का मंद, मंदतर. मंदतम और अत्यन्त-मंद अनुभाग बंध होता है। अब तीन और मंद अनुभाग वंध के उक्त चार-चार भेदों के कारणों का निर्देश करते हैं कि 'गिरिमहिरयंजलरेहासरिसकसाहिं'-पर्वत की रेखा के समान, पृथ्वी का रेखा के समान, फुले की रेखा के समान और जल की रेखा के समान कपाय परिणामों से क्रमशः अत्यन्त तीव (चतुःस्थानिक), तीवतम (विस्थानिक), तीव्रतर (द्विस्थानिक) और तीव्र (एकस्यानिक) अनुभाग बंध होता है । यह संकेत अशुभ प्रकृतियों की अपेक्षा से किया गया है और शुभ प्रकृतियों में इसके विपरीत समझना चाहिये । अर्थात् जल व धूलि रेखा के समान परिणामों से अत्यन्त तीन (चतुःस्थानिक), पृथ्वी को रेखा के समान परिणामों से तीव्रतम (त्रिस्थानिक) और पर्वत की रेखा के समान परिणामों से तीव्रतर (विस्थानिक) अनुभाग बंध होता है । शुभ प्रकृतियों में तीन (एकस्थानिक) रम बंध नहीं होता है, जिसका विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है। पूर्व में यह बताया गया है कि अनुभाग बंध का कारण कषाय है और तीव्र, तीव्रतर आदि व मंद, मंदतर आदि चार-चार भेद अनुभाग वंध के ही हैं। इनका कारण हेतु काषायिक परिणामों की अवस्थायें हैं। कपाय के चार भेद हैं क्रोध, मान, माया और लोभ और इनमें से प्रत्येक की चार-चार अवस्थायें होती है । अर्थात् क्रोध कपाय की चार अवस्थायें होती हैं । इसी प्रकार मान की, माया को और लोभ की चार-चार अवस्थायें होती हैं । जिनके नाम क्रमशः अनन्तानुबंधी कषाय, अप्रत्याख्यानावरण कपाय, प्रत्याख्यानावरण कषाय और संज्वलन कषाय हैं । शास्त्रकारों ने इन चारों कषायों के लिये चार उपमायें दी हैं। जिनका संकेत गापा में किया गया है। अनन्तानुबंधी रुषाय Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० मतक की उपमा पर्वत की रेखा से दी जाती है। जैसे पर्वत में पड़ी दरार सैकड़ों वर्ष बीतने पर भी नहीं मिटती है, वैसे ही अनन्तानुबंधी कषाय को वासना भी असंख्य भागो तक बनी रहती है । इनाय ने सपा से जीव के परिणाम अत्यन्त संक्लिष्ट होते हैं और पाप प्रकृतियों का अत्यन्त तीन रूप चतुःस्थानिक अनुभाग बंध करता है । किन्तु शुभ प्रकृतियों में केवल मधुरतर रूप द्विस्थानिक ही रसबंध करता है, क्योंकि शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है । अप्रत्याख्यानावरण कपाय को पृथ्वी की रेखा की उपमा दी जाती है । अर्थात् जैसे तालाब में पानी सूख जाने पर जमीन में दरारें पड़ जाती हैं और वे दरारें समय पाकर पुर जाती हैं । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण कषाय होती है कि इस कषाय को वासना भी अपने समय पर शांत हो जाती है। इस कषाय का उदय होने पर अशुभ प्रकृतियों में भी विस्थानिक रसबंध होता है और शुभ प्रकृतियां में भी विस्थानिक रसबंध होता है । अर्थात् कटुक्कतम और मधुरतम अनुभाग बंध होता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय को बालू या धूलि की रेखा की उपमा दी जाती है | जैसे बालू में खींची गई रेखा स्थायी नहीं होती है, जल्दी ही पुर जाती है। उसी तरह प्रत्यास्थानावरण कषाय की वासना को समझना चाहिए कि वह भी अधिक समय तक नहीं रहती है। उस कषाय का उदय होने पर पाप प्रकृतियों में द्विस्थानिक अर्थात् कटुकतर तथा पुण्य प्रऋतियों से चतुःस्थानिक रसबंध होता है। संज्वलन कषाय की उपमा जल रेखा से दी जाती है । जैसे जल में खींची गई रेखा खींचने के साथ ही तत्काल मिटती जाती है, वैसे ही संज्वलन कपाय की वासना भी अन्तमुहूर्त में ही नष्ट हो जाती है । इस कषाय का उदय होने पर पुण्य प्रकृतियों में चतुःस्थानिक रसबंध Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मपत्य २१ होता है और पाप प्रकृतियों में केवल एकस्थानिक अर्थात् कटुक रूप ही रसबंध होता है। ___ इस प्रकार अनंतानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कपाय से अशुभ प्रकृतियों में क्रमशः चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक रसबंध होता है तथा शुभ प्रकृतियों में द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक रसबन्ध होता है। अनुभाग बंध के चारों प्रकारों के कारण चारों कपायों को बतलाकर अब किस प्रकृति में कितने प्रकार का रसबन्ध होता है, यह स्पष्ट करते हैं। ___ बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में ८२ अशुभ प्रकृतियां और ४२ शुभ प्रकृतियां हैं।' इन १२ पाप प्रकृतियों में से अन्तराय कर्म को ५. ज्ञानावरण को केवलज्ञानावरण को छोड़कर शेष ४, दर्शनावरण की केवलदर्शनावरण को छोड़कर चक्षु दर्शनावरण आदि ३, संज्वलन कपाय चतुष्क और पुरुषवेद इन सत्रह प्रकृतियों में एकस्थानिक, द्विस्थानिक, विस्थानिक और चतुःस्थानिक, इस प्रकार चारों हो प्रकार का रसबंध होता है। क्योंकि ये सत्रह प्रकृतियां देशघातिनी हैं। घाति कौ को जो सर्वघातिनी प्रकृतियां हैं उनके तो सभी स्पर्धक सर्वघाती ही है किन्तु देशघाति प्रकृतियों के कुछ स्पर्धक सर्वघाती होते हैं और कुछ स्पर्धक देशघाती । जो स्पर्धक त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक रस वाले होते हैं १ वणचतुष्क को पुष्य और पाप दोनो रूप होन से दोनों में ब्रहण किया जाता है । जब उन्हें पुग्न प्रकृतियों में ग्रहण कर तब पर प्रकृति यो में और पाग प्रकृतियों में ग्रहण करें तब पुण्य प्रकृतियों में ग्रहण नहीं करना चाहिये । आवरणदेसवादतरायसज लणपुरिस सत्तरमं ।। चदुविधभावपरिणदा तिबिधा भावा तु से साणं । -गो० कर्मकांड १८२ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ > वे तो नियम से सर्वघाती ही होते हैं और जो स्पर्धक द्विस्थानिक रस वाले होते हैं, वे देशघाती भी होते हैं और सर्वघाती भी, किन्तु एकस्थानिक रस वाले स्पर्धक देशघाती ही होते हैं । इसीलिये इन सबह प्रकृतियों का एक, डि वि और चतुःस्थानिक, चारों प्रकार का रसबंध माना जाता है। इनका एकस्थानिक रसबन्ध तो नौवें गुणस्थान के संख्यात भाग बीत जाने पर बंधता है और नौवें अनिवृत्तिवादर गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में द्विस्थानिक, तिस्थानिक और चतुःस्पनिक रसबंध होता है किन्तु एकस्थानिक रसबन्ध नहीं होता है। क्योंकि शेष प्रकृतियों में ६५ पाप प्रकृतियाँ हैं और नौवें गुणस्थान के संख्यात भाग बीत जाने पर उनका बन्ध नहीं होता है । अर्थात् अशुभ प्रकृतियों का एकस्थानिक रसबन्ध नौवें अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के संख्यात भाग के बीत जाने के बाद ही होता है और वहां अन्तराय आदि की उक्त १७ प्रकृतियों को छोड़कर शेष अशुभ प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं होता है । इसीलिये शेप ६५ प्रकृतियों का एकस्थानिक रसबन्ध नहीं होता है । इन ६५ प्रकृतियों में केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण का भी समावेश है । लेकिन इन दोनों प्रकृतियों के बारे में यह समझना चाहिये कि इनका बन्ध दसवे गुणस्थान तक होता है, किन्तु इनके सर्वघातिनी होने से इनमें एकस्थानिक रसबन्ध नहीं होता है । शेप ४२ पुण्य प्रकृतियों में भी एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है । इसका कारण यह है कि जैसे ऊपर चढ़ने के लिये जितनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं, उतारने के लिये उतनी ही सीढियां उतरनी होती हैं। वैसे ही संक्लिष्ट परिणामी जीव जितने संक्लेश के स्थानों पर चढ़ता १ ल इतिद्वारा सवित्राणि होति फड्डाई दृट्ठाणियाणिमीसाणि देसधाईणि साणि || -संग्रह १४६ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ है, विशुद्ध भावों के होने पर उत्तने हो स्थाना से उत्तरता है तथा उपशम श्रेणि बढ़ते समय जितने विशुद्धिस्थानों पर चढ़ता है, गिरते समय उतने ही संक्लेशस्थानों पर उतरता है। इस प्रकार से तो जितने मक्लेश के स्थान, उतने ही विशुद्धि के स्थान हैं। किन्तु जब क्षपक श्रेणि की दृष्टि से विचार करते हैं तो विशुद्धि के स्थान प्रवेश के स्थानों से अधिक है | क्योंकि क्षपक धणि त्रने बाला जीव जिन विशुद्धिस्थानों पर चढ़ता है, उन से नीचे नहीं उतरता है, यदि उन विशुद्धि के स्थानों के बराबर संक्लेशस्थान भी होते तो उपशम श्रेणि के समान क्षपक थणि में जीव का पतन अवश्य होता, किंतु ऐसा होता नहीं है, क्षपक श्रोणि पर आरोहण करने के बाद जीव नीचे नहीं आता है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि क्षपक श्रीणि में विशुद्धि के स्थानों की संख्या अधिक है और संक्लेशस्थानों की संख्या विशुद्धि के स्थानों की अपेक्षा कम । विशुद्धिस्थानों के रहते हुए शुभ प्रकृतियों का केवल चतुःस्थानिक ही रसबंध होता है तथा अत्यन्त मंक्लेश स्थानों के रहने पर शुभ प्रऋतियों का बंध ही नहीं होता है। कोई जीव अत्यन्त संक्लेशा के समय नरकगति योग्य वैक्रिय शरीर आदि शुभ प्रकृतियों का बंध करते हैं, किंतु उनके भी भवस्वभाव के कारण उस समय द्विस्थानिक ही रमबंध होता है तथा मध्यम परिणामों से बंधने वाली शुभ प्रकृतियों में भी विस्थानिक रमबंध होता है । अतएव शुभ प्रकृतियों में कहीं भी एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है। इम प्रकार से अनुभाग बंध के स्थानों और उनके कारण कपायस्थानों को तथा कितनी प्रकृतियों का चारों स्थानिक वाला बंध होता है, आदि को बतलाकर पुनः शुभ और अशुभ रस का विशेष स्वरूप कहते हैं। निबुच्छरसो सहजो तिचउभाग फक्किमागतो। गठाणा अनुहो असुहाग मुहो सुहाणं तु ॥१५॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ-मिट्टरसो-नीम और ईख का रस, सहजोस्वाभाविक तिवा '-दो, तीन और चार भाग में उवाल जाने पर, इक्कमागंतो-एक भाग शेष रहे बल, इगठाणाई -- एफस्थानिक आदि, अनुहो-अशुम रस, असुहाणं-अशुभ प्रकृतियों का, मुहो-शुभ रस, सुहाग-शुम प्रकृतियों का, सु--और ! गाथार्थ-नीम और ईख का स्वाभाविक रस तथा उसको दो. तीन, चार भाग में उबाले जाने पर एक भाग शेप रहे, उसे अशुभ प्रकृतियों का एकस्थानिक आदि अशुभ रस और शुभ प्रकृतियों का शुभ रस जानना चाहिये ।। विशेषार्थ-पूर्व गाथा में अनुभाग बंध के एकस्थानिक, विस्थानिक आदि चार भेद बतलाये हैं। उनका विशेष स्पष्टीकरण करने के साथसाथ शुभ और अशुभ प्रकृतियों के स्वभाव का भी संकेत यहां किया गया है। अशुभ प्रकृतियों को नीम और उनके रस को नोम के रस की तथा शुभ प्रकृतियों को ईख तथा उनके रस को ईख के रस की उपमा दो है । जैसे नीम का रस स्वभाव से ही कड आ होने से पीने वाले के मुख को कड़वाहट से भर देता है, वैसे ही अशुभ प्रकृतियों का रस भी अनिष्टकारक और दुःखदायक है तथा जैसे ईख स्वभावतः मोठा और उसका रस मधुर, आनन्ददायक होता है, वैसे ही शुभ प्रकृतियों का रस भी जीवों को आनन्ददायक होता है। ___ यह तो सामान्यतया बतलाया गया है कि नीम और ईख के पेरने पर उनमें से निकलने वाला स्वाभाविक रस स्वभावतः कड़बा और मीठा होता है। इस कड बेपन और मीठेपन को एकस्थानिक रस जानना चाहिए । इस स्वाभाविक एकस्थानिक रस के द्विस्थानिक, निस्थानिक और चतुःस्थानिक प्रकारों को क्रमशः इस प्रकार समझना Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचय कर्मग्रन्थ चाहिये कि नीम और ईख का एक-एक सेर रस लेकर उन्हें भाग पर उबाला जाये और जलकर आधा सेर रह जाये तो वह द्विस्थानिक रस कहा जायेगा, क्योंकि पहले के स्वाभाविक रस से उस पके हुए रस में दूनी कड़वाहट और दुनी मधुरता आ गई। वही रस उबलने पर सेर का निहाई रह जाता है तो विस्थानिक रस समझना चाहिए, क्योंकि उसमें पहले के स्वाभाविक रस से तिगुनी कड बाहट या तिगनी मधुरता आ गई है । वही रस जब उबलने पर एक सेर का पाव भर रह जाता है तो वह चतुःस्थानिक रस है, क्योंकि पहले के स्वाभाविक रस से उसमें चौगुनी कड़वाहट और चौगुना मीठापन पाया जाता है। अब उक्त उदाहरण के आधार से अशुभ और शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक आदि को घटाते हैं । जैसे नीम के एकस्थानिक रस से विस्थानिक रस में दुगनी कड़वाहट होती है, विस्थानिक में तिगुनी कड़वाहट और चतुःस्थानिक में चौगुनी कड़वाहट होती है, वैसे ही अशुभ प्रकृतियों के जो स्पर्धक सबसे जयन्य रस वाले होते हैं, वे एकस्थानिक रस बाले कहे जाते हैं, उनसे विस्थानिक स्पर्धकों में अनंतगुणा रस होता है, उनसे विस्थानिक स्पर्धका में अनन्तगुणा रस और उनसे चतुःस्थानिक स्पर्धकों में अनन्तगुणा रस होता है । इसी प्रकार शुभ प्रकृतियों में भी समझ लेना चाहिये कि एकस्थानिक से द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ स्थानों में अनन्तगुणा शुभ रस होता है। उक्त चारों स्थान अशुभ प्रकृतियों में कषायों की तीव्रता बढ़ने से और शुभ प्रकृतियों में कपायों की गंदता बढ़ने से होते हैं । कपायों की तीव्रता के बढ़ने से अशुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक से लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त रस पाया जाता है और कषायों की मंदता के बढ़ने से शुभ प्रकृतियों में द्विस्थानिक से लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त रस पाया Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनक जाता है । शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है।' इस प्रकार ने अनुभाग बंध का स्वरूप, उसके कारण और भेदों का वर्णन करके अब अनुभाग बन्ध के स्वामियों को बतलाते हैं। पहले उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन करते हैं। तिम्वभिगवावरायव सुमिच्छा विगलसुहमनिरयतिगं। तिरिमणुयाउ तिरिनरा तिरिदुगवट्ठ सुरनिरमा ॥६६।। सामार्थ-ति-- मी मर जा, गागा स्त्र - एकेन्द्रिय जाति, स्थावर और आतप नामकर्म का, सुरमिच्छामिथ्यारष्टि देव, विगलसुसमनिरपतिगं -विकलत्रिक, सूक्ष्मश्रिम और नरकत्रिक का, तिरिमणुयाउ–तियं चायु और मनुष्यायु का, तिरिनरातिर्मच और मनुष्य, तिरिनुगछेषछ –तिर्यपातिक और सेवातं संहनन का, मुरनिरिया .. देव और नारक | --.- ..- - १ गो० कर्मकांड में भी अनुभाष बंध का वर्णन कर्मग्रन्थ के वर्णन से मिलना जुलता है, लेकिन कयन पाली भिन्न है । उममें घातिकर्मों की शक्ति के चार विभाग किये हैं-लाना, दाह, अस्थि और पत्थर (गा०-१८०) । जैसे ये चारों पदार्थ उत्तरोतर अधिक कठोर होते हैं, उसी प्रकार कर्मों की शक्ति समझना चाहिए। इन चारों विभागों के क्रमशः एक, द्वि, त्रि और चतुः स्थानिक नाम दिये जा सकते हैं। इनमें लता भाग देशघाती हैं और बारु भाग का अनंतवां भाग देशघाती और शेष बहभाग सर्वघाती है । अस्थि और प्रस्थर भाग तो सर्पघाती ही हैं । अपातीकों के पुण्य और पाप रूप दो विभाग करके पुण्य प्रकृतियों के गुड़. खांड, शकर और अमृत रूप चार विभाग किये हैं और पाप प्रकृतियों में नीम, कंजीर, विष और हलाहल इस तरह चार विभाग किये हैं (गा० १८४)। इन विभागों को भी क्रमशः एक, डि, त्रि और चतुःस्थानिक नाम दिया जा सकता है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ गाथार्थ – एकेन्द्रिय जाति, स्थावर और आतप नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बंध मिध्यादृष्टि देव करते हैं। विकलेन्द्रियत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, नरकत्रिक, तिर्यचायु और मनुष्यायु का उत्कृष्ट अनुभाग बंध मिथ्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्य करते हैं और तियंचद्विक और सेवार्त संहनन का उत्कृष्ट अनुभाग बंध मिथ्यादृष्टि देव और नारक करते हैं। २३७ - विशेवार्थ अनुभाग बंध के दो प्रकार हैं- उत्कृष्ट और जघन्य ! अनुभाग बंध का स्वरूप समझाकर इस गाथा से उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन प्रारम्भ किया गया है। चारों गति के जीव कर्मबंध के साथ ही अपनी-अपनी कापायिक परिणति के अनुसार कर्मों में यथायोग्य फलदान शक्ति का निर्माण करते हैं। बंधयोग्य १२० प्रकृतियों में से किस गति और गुणस्थान वाले जीव उत्कृष्ट अनुभाग बंध करते हैं को बतलाते हुए सर्वप्रथम कहा है कि 'तिब्वमिगथावरायव सुरमिच्छा केन्द्रिय जाति, स्थावर नाम और आप नाम इन तीन प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि देव' उत्कृष्ट अनुभाग बंध करते हैं। मिथ्यादृष्टि देवों को उक्त तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होने का कारण यह है कि नारक तो मरकर एकेन्द्रिय पर्याय में जन्म नही लेते हैं, अतः उक्त प्रकृति का बंध ही नहीं होता तथा आतप प्रकृति के उत्कृष्ट अनुभाग बंध के लिये जितनी विशुद्धि की आवश्यकता है, उतनी विशुद्धि के होने पर मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय तिर्यंच में जन्म लेने के योग्य अन्य शुभ प्रकृतियों का बंध - १ ईशान स्वर्ग तक के देवों का यहां ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि ईशान स्वर्ग तक के देव ही मरकर एकेन्द्रिय पर्याय में जन्म ले सकते हैं उससे ऊपर के देव एकेन्द्रिय पर्याय धारण नहीं करते हैं । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मप्रस्थ करते हैं और एकेन्द्रिय तथा स्थावर प्रकृति के उत्कृष्ट अनुभाग बंध के लिये जितने संक्लेश भावों की आवश्यकता है, उतना संक्लेश होने पर वे नरकगति के योग्य अशुभ प्रकृतियों का वध करते हैं । किन्तु देवगति में उत्कृष्ट संक्लेश के होने पर भी नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध भवस्वभाव से ही नहीं होता है । अतः नारक. मनाम और नियन उक्त तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध नहीं करते हैं, लेकिन ईशान स्वर्ग तक के देव ही उनका उत्कृष्ट अनुभाग बंध करते हैं । विकलनिक (हीन्द्रिय, बीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय), सुक्ष्मत्रिक (सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त), नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु), तिथंचायु और मनुष्यायु इन ग्यारह प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध मिथ्या दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य करते हैं-बिगलसहमनिरयतिगं तिरिमणुयाउ तिरिनरा । इसका कारण यह है कि तिर्यंचायु और मनुप्यायु के सिवाय शेष नौ प्रकृतियों को नारक और देव जन्म से ही नहीं बांधते हैं तथा तिर्यच और मनुज्य आयु का उत्कृष्ट अनुभाग बंध वे ही जीव करते हैं जो मरकर भोगभूमि में जन्म लेते हैं, जिससे देव और नारक इन दो प्रकृतियों का भी उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध नहीं कर सकते हैं। किन्तु उनका उत्कृष्ट अनुभाग बंध मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिथंच ही करते हैं । इसी प्रकार शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग भी अपने-अपने योग्य संक्लेश परिणामों के धारक मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यंन ही करते हैं। अतः उक्त ग्यारह प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध मिथ्याइष्टि मनुष्य और तियंत्रों को होता है । ___'तिरिदुगछेवट सुरनिरिया-तियंचद्विक और सेवात नहनन इन तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध मिथ्या दृष्टि देव और नारक करते हैं। क्योंकि यदि तिर्यंच और मनुष्यों में उतने संक्लिष्ट परिणाम हो तो उनको नरकति के योग्य प्रकृतियों का बंध होता है किन्तु देव Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य २३६ और नारक अति संक्लिष्ट परिणाम होने पर तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियों का ही बंध करते हैं । इसीलिये उक्त तीन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध का स्वामी देवों और नारकों को बतलाया है । उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध होने के बारे में इतना विशेष जानना चाहिये कि देवगति में सेवार्त संहनन का उत्कृष्ट अनुभाग बंध ईशान स्वर्ग से ऊपर के सानत्कुमार आदि की करते हैं। एक के देदि संक्लिष्ट परिणामों के होने पर एकेन्द्रिय भोग्य प्रकृतियों का ही बंध करते हैं, किन्तु सेवा संहनन एकेन्द्रिय योग्य नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रियों के संहनन नहीं होता है । बिउविसुराहारदुगं सुखगड बन्नचउतेय जिणसायं । समच उपरघातस स पणिविसासुच्च बबगाउ ॥६७॥ तमतमगा उज्जोयं सम्मसुरा मणुयउरलदुगधइरं । अपमतो अमराजं चउगइमिछा उ सेमाणं ॥ ६८ ॥ शब्दार्थ - विउब्विसुराहानुगं - वैक्रियद्विक देवनिक और आहारकवि का सुखगई- शुभ विहायोगति बन्नचडतेय - वर्णचतुष्क और लेजसचतुष्क, जिण - तीर्थंकर नामकर्म, सायं— साता वेदनीय का समाज - समचतुरस्र संस्थान, परधा—पराधात, तसबस - सदशक, पणिविसासुच -- पंचेन्द्रिय जाति, उच्छवास नामकर्म और उन यां का, खत्रगाउ -पक श्रेणि वाले को । तमतमगा - - तमतममा के नारक, उज्जोयं— उद्योत नामकर्म का सम्मसुरा - सम्यग्दृष्टि देव, ममूय उरलडुग - मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक, वरं वज्रऋषभनाराच संहनन का अपमतोअप्रमत्त संयत, अमराउं देवायु का, चजगइमिच्छा - चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव, ज - और, वेलानं शेष प्रकृतियों का - - ― Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र४० तक गाथार्थ-वैक्रियद्विक, देवद्विक, आहारकद्विक, शुभ विहायोगति, वर्णचतुष्क, तैजसचतुष्क, तीर्थंकर नामकर्म, साता वेदनीय, समचतुरस्र संस्थान, पराघात, सदगक, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास और उच्च गोत्र का उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक श्रीणि चड़ने वाले करते हैं । तमातमप्रभा के नारक जीव उद्योत नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बांधते हैं तथा सम्बग्दृष्टि देव मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और वज्रपभनाराच संहनन का उत्कृष्ट अनुभाग बांधते हैं। दोष प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं । विशेषार्थ-- इन दो गाथाओं में पूर्व गाथा में बताई गई सत्रह प्रकृातियों के अलावा शेष रही प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन किया है। जिनमें कुछ प्रकृतियों का नामोल्लेख करके शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध का स्वामी चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीवों को बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है। ___'विउव्विसुरा“सासुच्च' पद में वैक्रियद्धिक से लेकर उच्छ्वास, उच्चगोल तक बत्तीस प्रकृतियों को ग्रहण किया गया है। जिनका उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक श्रोणि आरोहण करने वाले मनुष्यों को बतलाया है । उनमें से साता वेदनीय, उच्च गोत्र और सदशक में गभित यशःकीर्ति नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बंध दसवें सुक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्त में होता है। क्योंकि इन तीन प्रकृतियों के बंधकों में बही सबसे विशुद्ध है और पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध विशुद्ध परिणामों से होता है। उक्त तीन प्रकृतियों के सिवाय शेष उनतीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग में देवगति के Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २४१ योग्य प्रकृतियों की बंधन्युछित्ति के समय होता है। इन उमतीस प्रकृतियों के बंधकों में अपूर्वकरण क्षपक ही अति विशुद्ध होता है। उक्त वतीस प्रकृतियों के नाम गुणस्थानों के क्रम से इस प्रकार हैं बैक्रियद्विक, देवद्विक, आहारकद्विक, शुभ विहायोगति, वर्णचतुष्क, तेजमचतुष्क (तंजस, कार्मणअगृहलघु, निर्माण), तीर्थंकर, समचतुरस्र संस्थान, पराघात, यश कीर्ति नामकर्म को छोड़कर सदशक में गभित प्रस, बादर, पर्याप्त आदि नौ प्रकृतियां, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, इन उनतीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग का बंध आठवें अपूर्वकरण गणस्थान के छठे भाग में देवगति योग्य प्रकृतियों के बंधविच्छेद के समय होता है। साता वेदनीय, यशःकीर्ति नामकर्म और उच्च गोत्र इन तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध दसवें मूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत में होता है। इस प्रकार से अभी तक १७ और ३२ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनु. भाग बंध के स्वामियों का कथन करने के बाद अब शेष प्रकृतियों के बारे में विचार करते हैं____ 'तमतमगा उज्जोयं' यानी तमतमप्रभा नामक सातवें नरक के नारक उद्योत नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बंध करते हैं। इसका कारण यह है कि सातवें नरक का नारक सम्यक्त्वप्राप्ति के लिये यथाप्रवृत्त आदि तीन करण करते समय अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व का अंतरकरण करता है । उसके करने पर मिथ्यात्व की स्थिति के दो भाग हो जाते हैं-एक अन्तरकरण से नीचे की स्थिति का, जिसे प्रथम स्थिति कहते हैं और इसका काल अन्नमुहूर्त मात्र है तथा दूसरा उससे ऊपर की स्थिति का, जिसे द्वितीय स्थिति कहते हैं । मिथ्यात्व की अन्तमुहर्त प्रमाण नीचे की स्थिति के अंतिम समय में यानी जिससे Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २४२ आगे के समय में सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, उस समय में उस जीव के उद्योत प्रकृति का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है । क्योंकि यह उद्योत प्रकृति शुभ है और विशुद्ध परिणामों से ही उसका उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है तथा उसके बांधने वालों में सातवें नरक का उका नारक ही अति विशुद्ध परिणाम वाला है । क्योंकि अन्य गतियों में इतनी विशुद्धि होने पर मनुष्यगति अथवा देवगति के योग्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है | उद्योत प्रकृति तिर्यंचगति के योग्य प्रकृतियों में से है और सातवें नरक का नारक मरकर नियम से तियंच में जन्म लेता है, जिससे सातवें नरक का नारक मिथ्यात्व में प्रतिसमय तिर्यंचगति योग्य कर्मों का बंध करता है। मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और वजऋषभनाराच संहनन, इन पांच प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध का स्वामी सम्यग्दृष्टि देवों को बतलाया है—सम्मसुरा मगु उरलदुगधाइर। यद्यपि इन पांच प्रकतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध विशुद्ध परिणाम वाले नारक भी कर सकते हैं, लेकिन वे नरक के दुःखों से पीड़ित रहने के कारण उतनी विशुद्धि प्राप्त नहीं कर पाते हैं तथा उनको देवों की तरह तीर्थंकरों की विभूति के दर्शन, उपदेशश्रवण, वंदन आदि परिणामों को विशुद्ध करने वाली सामग्री भी नहीं मिलती है, जिससे नारकों का ग्रहण नहीं किया गया है । तिर्यंच और मनुष्य तो अति विशुद्धि परिणाम वाले होने पर देवगति के योग्य प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं । इसीलिये इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध का स्वामी सम्यग्दृष्टि देवों को बतलाया है। देवायु के उत्कृष्ट अनुभाग वंध का स्वामी अप्रमत्त मुनि को बतलाया है । क्योंकि यहां उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों को बतलाया जा रहा है, अतः देवायु का बन्ध करने वाले मिथ्या दृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरति आदि से वही अति विशुद्ध होते हैं । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २४३ इस प्रकार से ४२ पुण्य प्रकृतियों और १४ पाप प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों को तो अलग-अलग बत्तला दिया है । इनसे शेष रही ६८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध का स्वामी चारों गति के संश्लिष्ट परिणामी मिथ्याष्टि जीवों को बतलाया है-चउगइमिच्छा उ सेसाणं ।' समस्त बंधयोग्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंश्व के स्वामियों को बतलाकर अब उनके जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों को बतलाते हैं। थीति अमिच्छ मदरसं संजमुम्मुहो मिनछो। वितियकसाय अविरय वेस पमलो अरइसोए ॥६६॥ शब्दार्थ-थोतिर्ग-स्त्यानद्धित्रिक, अमिल्छ -अनंतानुत्रंधी कषाय और मिथ्यात्व मोदनीय का, पसर-नघन्य अनुभाग बंध संजभुम्मुहो- सम्यक्त्व चरित्र के अभिमुख, मिच्योमिथ्यादृष्टि, विपतियकताय-दूसरी और तीसरी कपाय का, अविरय - अविरत सम्यग्दृष्टि, देस–देशविरति, पमतो-प्रमत्तविरत, अरइसोए-अरति और शोक मोहनीय का। १ यहाँ सामान्य से ६८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक यारों गति के तीन कषायवंत मिथ्याइष्टि जीव बतलाये हैं। इसमें उतना विशेष समझना चाहिए कि हास्य, रलि, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पहले और अन्तिम को छोड़कर शेष संहनन और संस्थान के सिवाय ५६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध तीन कषायी चारों गति के मिथ्या दृष्टि करते हैं और उक्त बारह प्रकृतियों का उस-उस प्रकृति के बन्ध योग्य संवलेश में वर्तमान जीव उत्कृष्ट अनुभागनन्ध्र करते हैं। जैसे कि नपुसकवेद के रसबंध में तीव्र संक्लेश चाहिए, उसकी अपेक्षा स्त्रीवेद को रसबंध में कम और उसकी अपेक्षा भी पुरुषवेद के उत्कृष्ट रसबंध में हीन संक्लेग चाहिये । सो प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ शतक गाथार्थ - स्त्यानद्धित्रिक, अनंतानुबंधी कषाय और मिथ्यात्व समय का सम्यक्त्व सहित चारित्र प्राप्त करने के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जघन्य अनुभाग बंध करते हैं। देशविरति चारित्र के सम्मुख हुआ अविरत सम्यग्दृष्टि दूसरी कषाय का और सर्वविरति चारित्र के सन्मुख होने वाला देश - विरति तीसरी कषाय का और प्रमत्तसंयत अरति व शोक मोहनीय का जघन्य अनुभाग बंध करता है । विशेषार्थ - उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों को बतलाकर इस गाथा से जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन प्रारम्भ करते हैं । पूर्व में यह बतलाया गया है कि विशुद्ध परिणामों से अशुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध और संक्लेश परिणामों से शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है। इस गाथा में जिन प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध लाया है, वे सब अशुभ प्रकृतियां है। अतः उनका अनुभाग बंध करने वाले स्वामियों के लिये विशेषण दिया है'हो' संयम के अभिमुख मनुष्य, जो गाया में बताई गई अशुभ प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध का स्वामी है । गाथा में आये इस 'संजमुम्मुह' पद को प्रत्येक के साथ लगाया जाता है अर्थात् जो संयम धारण करने के अभिमुख है - जो जीव तत्काल दूसरे समय में ही संयम धारण कर लेगा, उसके अपने-अपने उस गुणस्थान के अंतिम समय में उस प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध होता है। यहां संयम के अभिमुख पद को प्रत्येक गुणस्थान के साथ जोड़कर आशय समझना चाहिये। जो इस प्रकार है - स्त्यानद्धित्रिक, अनुबंधी कपाचक और मिथ्यात्व मोहनीय इन आठ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध सम्यक्त्व संयम के अभिमुख मिध्यादृष्टि जीव अपने गुणस्थान के अंतिम समय में करता है। अप्रत्याख्यानावरण Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ २४५ कपायचतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध संयम-देशसंयम के अभिमुख अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अपने गुणस्थान के अन्त समय में करता है। प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध संयम अर्थात् सर्वविरति-महावतों को धारण करने के सन्मुख देशविरति गुणस्थान वाला जोब अपने गुणस्थान के अंत समय में करता है तथा अरति व शोक का जघन्य अनुभाग बंध संयम अर्थात् अप्रमत्त संयम के अभिभुख प्रमत्त मुनि अपने गुणस्थान के अन्त में करता है । ' सारांश यह है कि स्त्यानद्धित्रिक आदि आठ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध पहले गुणस्थान वाला जब सम्यक्त्व के अभिमुख होकर चौथे गुणस्थान में जाता है तब पहले गुणस्थान के अन्तिम समय में करता है । अप्रत्याख्यानाधरण कषायचतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध पांचवें गणस्थान-देविति 'सजमुम्मुहति सम्म कस्वसंकमामिमुखः सम्यक्त्वसामायिक प्रतिपित्सः" । अप्रत्यास्थानावरण लक्षणस्त्र " अविरत सभ्यम्हष्टि संपगामिमुख:-देशविरतिसामायिक प्रतिपित्लुमन्दरसं वघ्नाति । तथा तृतीयकषायचतुष्टयस्य देश विरति: " संयमोन्मुखः""सर्वविरतिसामायिक प्रनिन्सुिमन्दरसं बघ्नाति । तथा प्रमत्तमतिः संयमोन्पुन:-अप्रमत्तसंयम प्रति पित्यः-। -पंचम कर्मग्रम्य टीका, पृ०७१ लेकिन कर्ममकृति पृ० १६० तथा पंचसंग्रह प्रथम भाग में मयम का अर्थ संयम ही किया गया है। यथा - अष्टानां कर्मणा सम्यक्त्वं संयमं च युगपत्तिपसुकामो मिथ्याष्ट्रिपचरमसमय जघन्यानुभागबंधयामी, अप्रत्याख्यानावरणकषायाणामविरतसम्पष्टिः संयमं प्रतिपत्तकाम: प्रत्याख्यानावरणानां देश विरतः सर्वविरतिप्रतिपिश्सृजघन्यानुभागबन्धं करोति । गो० कर्मकांड गाथा १७१ में 'संजमुम्मुहो' पद का आपाय बतलाने के लिये 'संजमगुणपच्छिदे' पर आया है। टीकाकार ने संयम का अर्थ - संयम ही किया है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक की ओर उन्मुख चौथा गुणस्थानवी जीव चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय में करता है । प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध पांचवें गुणस्थान से छठे गुणस्थान में जाता है तब पांचवें गुणस्थान के अन्तिम समय में तथा अरति और शोक इन दो प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध छठे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में जाने दाला छठे गुणस्थान के अंतिम समय में करता है। यानी आगे-आगे का गुणस्थान प्राप्त करने से पहले समय में स्त्यानद्धिविक आदि प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है। उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध होने के प्रसंग में इतना और समझ लेना चाहिये कि यदि पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान में न जाकर पांचवें या छठे या सात गुणस्थान में जाये, इसी तरह चौथे गुणस्थान से पांचवें में न जाकर छठे या सातवें गुणस्थान में जाये तो भी उनका जघन्य अनुभाग बंध होगा। क्योंकि उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध के लिये विशुद्ध परिणामों की आवश्यकता है और उस दशा में तो पहले से भी अधिक विशुद्ध परिणाम होते हैं। इसी से गाथा में 'संजमुम्मुहो' पद दिया गया है। जिसका यह अर्थ है कि अमुकअमुक गुणस्थान वाले संयम के मेदों में से किसी भी संयम की ओर अभिमुख होते हैं तो उनको उक्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है। अब आगे अन्य प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों को बतलाते हैं। अपमाइ हारगदुगं दुनिअसुवमहासरहकुच्छा । भयमुवधायमपुस्खो अनियट्टी पुरिससंजलणे ॥७॥ शब्दार्थ-अपमाइ---अप्रमत्त मुनि, हारगबुगं--आहारकद्विक, दुनिए-दो निद्रा, असुघल-अप्रशस्त वर्णचसुष्क, हासरइ. कुच्छा-हास्य, रति और जुगुप्सा, पय--भय, उबघाय-उपधात Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम कर्म ग्रन्थ २४७ नामकर्म का, अपुष्यो--अपूर्वकरण गुणस्थान वाला, अनियट्टीअनिवृत्तिवादर गुणस्थान बाला, पुरिस .. पुरुष वेद, संजलणेसंज्वलन कषाय का। गाया -आहारकद्धिक का जघन्य अनुभाग बंध अप्रमत्त मुनि करते हैं। दो निद्रा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, हास्य, रति, जुगुप्सा, भय और उपघात नामकर्म का अपूर्वकरण गुणस्थान वाले जघन्य अनुभाग बंध करते हैं और अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती पुरुष वेद, संज्वलन कषाय का जघन्य अनुभाग बंध करते हैं। विशेषार्थ - इस गाथा में आहारकद्विक आदि प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों को बतलाते हैं। सर्वप्रथम आहारकद्विक के बारे में कहते हैं कि 'अपमाइ हारगदुर्ग' आहारकद्विक (आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग) का जघन्य अनुभाग बंध अप्रमत्त मुनि-सात अप्रमत्त संयंत गुणस्थानवर्ती मुनि करते हैं । लेकिन कब करते हैं, इसका स्पष्टीकरण यह है कि आहारकद्विक यह प्रशस्त प्रकृतियां हैं अतः इनका जघन्य अनुभाग बंध अप्रमत्तमुनि उस समय करते हैं जब वे छठे प्रमत्त संयत गुणस्थान के अभिमुख होते हैं । यानि सातवें गुणस्थान में छठे गुणस्थान की ओर अवरोहण करने की स्थिति में होते हैं तब उनके परिणाम संक्लिष्ट होते हैं और उस स्थिति में आहारकद्विक का जघन्य अनुभाग बंध करते हैं। निद्राद्विक (निद्रा और प्रचला), अशुभ वर्णचतुष्क, (अशुभ वर्ण, अशुभ गंध, अशुभ रस, अशुभ स्पर्स) तथा हास्य, रति, जुगुप्सा, भय और उपघात, इन ग्यारह प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध अपूर्वकरण गुणस्थानवाले तथा पुरुष वेद और संज्वलन कषाय का जघन्य अनुभाग बंध अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान वाले करते हैं। यहाँ ये दोनों Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ गुणस्थान क्षपक श्रोणि के लेना चाहिये। क्योंकि निद्रा आदि अशुभ प्रकृतियां हैं और अशुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध विशुद्ध परिणामों से होता है और उनके बंधकों में क्षपक अपूर्वकरण तथा क्षपक अनिवृत्तिबादरसं पराय गुणस्थान वाले जीव ही विशेष विशुद्ध होते हैं। इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध अपनी-अपनी व्युच्छित्ति के समय होता है । विग्धावरणे सुमो मणुतिरिया सुडुमविगलतिगआऊ । वेक्किममरा तिश्या उज्जोय उरलदुगं ॥ ७१ ॥ शब्दार्थ - विग्घावरण पांच अंतराय और नौ आवरण ( ज्ञान दर्शन के) का सुमो सूक्ष्मसंपराय वाला, मणुतिरिया मनुष्य और तिथेच सुहमविगलतिगसूक्ष्मत्रिक, विफलत्रिक, आळ चार आयु का, बेगुस्विछक्कं क्रियट्क का अमरा - देव, निरय - नारक, उज्जीय उद्योत नामकर्म का उरलदुर्ग - औदारिकद्विकका । - — शक्षक — गाथायें - पांच अंतराय तथा पांच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरण का जघन्य अनुभाग बंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान वाला करता है। मनुष्य और तिथंच सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, चार आयु और वैक्रियषट्क का जधन्य अनुभाग बंध तथा उद्योत नामकर्म एवं औदारिकद्विक का जघन्य अनुभाग बंध देव तथा नारक करते हैं । विशेषार्थविग्वावरणे सुहमो' अंतराय कर्म की पांच प्रकृतियों (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य अन्तराय), मतिज्ञानावरण आदि ज्ञानावरण की पांच प्रकृतियों तथा चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरण को चार प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध सूक्ष्मसंपराय नामक Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ २४९ दसवें गुणस्थानवर्ती क्षपक उस गुणस्थान के चरमसमय में करता है। क्योंकि इनके बंधकों में वही सबसे विशुद्ध है। मूक्ष्मत्रिक (सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त नामकम), विकलत्रिक, चार आयु और वैक्रियषटक (बक्रिय शरीर, त्रैकिय अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी), इन सोलह प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग के स्वामी मनुष्य और तिर्यंच हैं । इन सोलह प्रकृतियों में ते मनुष्यायु और तिर्यंचायु के सिवाय चौदह प्रकृतियों को तो देव व नारक जन्म से ही नहीं बांधते हैं तथा मनुष्य और तिर्यंच आयु का जघन्य अनुभाग बंध जघन्य स्थितिबंध के साथ ही होता है। क्योंकि ये दोनों प्रशस्त प्रकृतियां हैं अतः इनका जघन्य अनुभाग बंध तो संक्लेश परिणामों से होता ही है किन्तु जघन्य स्थितिबंध भी संक्लेश परिणामों से होता है । देव और नारक जघन्य स्थिति वाले मनुष्य और तिर्यचों में उत्पन्न नहीं होते हैं, अतः वे इनका जघन्य बंध नहीं करते हैं । अर्थात् इन दो प्रकृतियों का जो जघन्य स्थितिबंध करता है वही उनका जघन्य अनुभाग बंध भी करता है। इसलिये सूक्ष्मत्रिक आदि सोलह प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध का स्वामी मनुष्य और तिर्यंच को बतलाया है। उद्योत और औदारिकट्टिक इन तीन प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध देव और नारक करते हैं। इसमें इतना विशेष समझना चाहिये कि औदारिक अंगोपांग का जघन्य अनुभाग बंध ईशान स्वर्ग से ऊपर के वैमानिक देव करते हैं | क्योंकि ईशान स्वर्ग तक के देव उत्कृष्ट संक्लेश के होने पर एकेन्द्रिययोग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं और एकेन्द्रियों को अंगोपांग नहीं होते हैं । अतः ईशान स्वर्ग तक के देवों के औदारिक अंगोपांग नामकर्म का जघन्य अनुभाग बंध नहीं होता है। मनुष्य और तियंचों के उक्त तीन प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० शक्षक वन्ध न होने का कारण यह है कि जो जीव तिर्यंचति के योग्य प्रकतियों का बन्ध करता है, वही इनका भी जघन्य अनुभाग बन्ध करता है । किन्तु मनुष्य और तिर्यंचों के उतने संक्लिष्ट परिणाम हों जितने कि इन तीन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के लिये आवश्यक हैं तो बे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का हो बन्ध करते हैं । इसीलिये मनुष्य और तिर्यंचों को इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध नहीं बताया है । तिरिदुगनिअं तमतमा जिमविरय निरयविणिगथावरयं । आसुहमायब सम्मो व साथिरसुभजसा सिअरा ॥७२॥ शब्दार्थ तिरिदुग–तियंचद्विक, निरं--नीचगोत्र का, तमतमा - तमःतमप्रभा के चारक जिणं-तीर्थकर नामकर्म का, अनिरय-अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य, निरविण - नरक के सिवाय तीन गति वाले जीव, इगावरयं-एकेन्द्रिय आति और स्थावर नामकर्म का, आमुहमा सौधर्म ईशान स्वर्ग तक के देव, आयव आतप नामकर्म का, सम्मो व- सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्याष्टि, सायधिरसुभजसामानावेदनीय, स्थिर नाम, शुभ नाम और शकीप्ति नामकों का, सिअरा-इनको प्रतिपक्षी प्रकृतियों सहित । गाथार्थ – तियंचद्विक और नोचगोत्र का जघन्य अनुभाग बंध तमःतमप्रभा नामक सातवें नरक के नारक करते हैं । तीर्थकर नामकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध अविरत सम्यग्दृष्टि जीव करता है। नरकगति के सिवाय शेष तीन गति वाले जीव एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं । सौधर्म और ईशान स्वर्ग तक के देव आतप नामकर्म का जघन्य अनुभागबंध करते हैं । सातावेदनीय, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और इन चारों को प्रतिपक्षी प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २५१ विशेषार्थ-'तिरिदुगनि तमतमा' तिर्यंचगति, तियंचानपूर्वी और नीचगोत्र इन तीन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध सात नरक में बतलाया है । जिसका स्पष्टीकरण यह है कि सातवें नरक का कोई नारक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये जब यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता हुआ अन्त के अनिवृतिकरण को करता हैं तब वहां अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में इन तीन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध होता है। ये तीनों प्रकृतियां अशुभ हैं और सर्वविशुद्ध जीव ही उनका जघन्य अनुभागबंध करता है । अतः इनके बंधकों में सातवे नरक का उक्त नारक ही विशेष विशुद्ध है । क्योंकि इस सरीखी विशुद्धि होने पर तो दूसरे जीव मनुष्यद्विक और उच्च गोत्र का बन्ध करते हैं । जिससे तियंचद्विक और नीच गोत्र इन तीन प्रकृतियों के लिये सातवें नरक के नारक का ग्रहण किया है। तीर्थकर प्रकृति का जघन्य अनुभागबंध सामान्य से अविरत सम्यगदृष्टि जीव को बतलाया है-जिणमविरय । लेकिन यह विशेष समझना चाहिये कि यह शुभ प्रकृति है और शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बन्ध संक्लेश से होता है अतः बद्धनरकायु अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य नरक में उत्पन्न होने के लिये जब मिथ्यात्व के अभिमुख होता है तब वह तीर्थकर नामकर्म का जघन्य अनुभाग बंध करता है । यद्यपि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध चौथे से लेकर आठवें गुणस्थान तक होता है लेकिन शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध संक्लेश से होता है और वह संक्लेश तीर्थकर प्रकृति के बंधकों में मिथ्यात्व के अभिमुख अविरत सम्यग्दृष्टि के ही होता है | इसीलिए तीर्थंकर प्रकृति के जघन्य अनुभाग बंध के लिये अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य का ग्रहण किया है । तिर्यंचगति में तीर्थकर प्रकृति का बंध नहीं होता है जिससे यहां मनुष्य को बतलाया है और जिस मनुष्य ने तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करने से पहले Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शनक २५.२ नरकायु नहीं बांधी है वह नरक में नहीं जाता है, अतः बद्धनरकायु का ग्रहण किया है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व सहित मर कर नरक में उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु उनके विशुद्ध होने से वे तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध नहीं कर सकते हैं । इसीलिये उनका यहां ग्रहण नहीं किया है। एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म का जघन्य अनुभाग बन्ध नरकगति के सिवाय शेष तिर्यच, मनुष्य और देव इन तोन गतियों के जीव करते हैं। लेकिन इन तीन गतियों वाले जीवों के संबन्ध में यह विशेष जानना कि परावर्तमान मध्यम परिणाम वाले जीव करते हैं । क्योंकि ये दोनों प्रकृतियां अशुभ हैं, अतः अति संक्लिष्ट परिणाम वाले जीव उनका उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करते हैं और अति विशुद्ध जीव पंचेन्द्रिय जाति और तस नामकर्म का बन्ध करते हैं। इसीलिये मध्यम परिणाम का ग्रहण किया है। सारांश यह है कि जब कोई जीव एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म का बन्ध करके पंचेन्द्रिय जाति और अस नामकर्म का बंध करता है और उनका बंध करके पुनः एकेन्द्रिय व स्थावर नामकर्म का बंध करता है तब इस प्रकार का परिवर्तन करके बंध करने वाला परावर्तमान मध्यम परिणाम वाला अपने योग्य विशुद्धि के होने पर उक्त दो प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करता है। आतप प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध ईशान कल्प तक के देत्रों को बतलाया है । यद्यपि गाथा में 'आसुम' पद हैं, जिसका अर्थ 'सौधर्म स्वर्ग तक' होता है । लेकिन सौधर्म और ईशान स्वर्ग एक ही श्रंणी में विद्यमान होने से दोनों को ग्रहण कर लेना चाहिये । इसका अर्थ यह हुआ कि भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और सोधर्म, ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देव आप प्रकृति का जघन्य अनुभांग बंध करते हैं । उक्त देवों के ही आतप प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध करने का Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ २५३ कारण यह है कि आतप शुभ प्रकृति है और शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध विशेष मक्लिष्ट परिणामों से होता है । अतः उन देवों के एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों के बंध के समय आतप प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध होता है । यदि आतप प्रकृति के जघन्य अनुभाग बंध करने योग्य संक्लिप्ट परिणाम मनुष्य और तिर्यंचों के हों तो वे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं तथा नारक और सानत्कुमार आदि कल्पों के देव जन्म से ही इस प्रकृति का बन्ध नहीं करते हैं। इसीलिये ईशान स्वर्ग तक जो देवों को ही इसका वन्धक बतलाया है । लातावेदनीय, स्थिर, शुभ, यशःकोति और इनकी प्रतिपक्षी असातावेदनीय, अस्थिर, अभ और अयशी इन आराशियों के छ अनुभाग बन्ध के स्वामी सम्बाढष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि हैं । इन बंधकों के लिये यह विशेष समझना चाहिये कि वे परावर्तमान मध्यम परिणाम वाले हों । इसका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है । प्रमत्त मुनि अन्तमुहर्त पर्यन्त असातावेदनीय की अन्तःकोटाकोटि सागर प्रमाण जघन्य स्थिति बांधता है और अन्तमुहत के बाद सातावेदनीय का बन्ध करता है, पुनः असातावेदनीय का बन्ध करता है । इसी तरह देशविरत, अविरत सम्यग्दृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और मिथ्याइष्टि जीव साता के बाद असाता का और असाता के बाद साता वेदनीय का बन्ध करते हैं। इनमें से मिथ्यादृष्टि जीव साता के बाद असाता का और अमाता के बाद साता का बंध तब तक करता है जब तक साता वेदनीय की स्थिति पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपमादी है । उसके बाद और संक्लिष्ट परिणाम होने पर केबल अमाता का ही तब तक बन्ध करता है जब तक उसकी तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति होती है । प्रमत्त संवत से आगे अप्रमन नंयत आदि गुणस्थानों में जीव केवल सातावेदनीय का ही बन्ध करता है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका सारांश यह है कि साता वेदनीय के जघन्य अनुभाग बन्ध के योग्य परावर्तमान मध्यम परिणाम साता वेदनीय की पन्द्रह कोडाकोड़ी सागर स्थितिबंध से लेकर छठे गुणस्थान में असातावेदनीय के अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण जघन्य स्थिनिबंध तक पाये जाते हैं । परावर्तमान परिणाम लभी तक हो सकते हैं जब तक प्रतिपक्षी प्रकृति का बंध होता है । यानी तब तक साता के साथ असाता वेदनीय का भी बंध संभव है जब तक परावर्तमान परिणाम होते हैं । लेकिन साता वेदनीय के उत्कृष्ट स्थितिबंध से लेकर आगे जो परिणाम होते हैं वे इतने संक्लिष्ट होते हैं कि उनसे असाता वेदनीय का ही बंध हो सकता है । इसीलिये साता और असाता वेदनीय के जघन्य अनुभागवत का स्वामी परावर्तमान मध्यम परिणाम वाले सम्यग्दृष्टि और मिथ्याइष्टि जीवों को बतलाया है । ___ अस्थिर, अशुभ, अयशःकीति की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोड़ी सागर और स्थिर, शुभ, यशःकोर्ति की उत्कृष्ट स्थिति दस कोड़ाकोड़ी सागर बतलाई है । प्रमत्त मुनि अस्थिर, अशुभ, अयशःकीति की अन्ताकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण जघन्य स्थिति बांधता है और विशुद्धि के कारण फिर इनकी प्रतिपक्षी स्थिर, शुभ, यशकीर्ति का बंध करता है, उसके बाद पुनः अस्थिर आदिक का बंध करता है। इसी प्रकार देशविरति, अविरत सम्यग्दृष्टि, मिनदृष्टि, सासादन, मिथ्यादृष्टि स्थिरादिक के बाद अस्थिरादिक का और अस्थिरादिक के बाद स्थिरादिक का बंध करते हैं। उनमें से मिथ्यादृष्टि इन प्रकृतियों का उक्त प्रकार से तब तक बंध करता है जब तक स्थिरादिक का उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्याइष्टि के योग्य इन' स्थितिबंधों में ही उक्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है । स्पोंकि मिथ्यादृष्ट गुणस्थान में स्थिराविक के उत्कृष्ट स्थितिबंध के Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २५५ पश्चात तो अस्थिरादिक का ही बंध होता है और अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में स्थिरादिक का ही । मिथ्या दृष्टि में संक्लेश परिणामों की अधिकता है और अप्रमत्त में विशुद्ध परिणामों को अधिकता, अतः दोनों में ही अनुभाग बंध अधिक मात्रा में होता है । इसीलिए इन दोनों के सिवाय शेष बताये गये स्थानों में ही अस्थिर आदि छह प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है। तसबन्न लेयचउमणुखगइदुग पणिविसासपरघुच्चं । संघयणागिइनपुत्थीसभागारति मिच्छा उगइगा ।।५।। शब्दार्थ-तसवन्नतेयघउ- सवतुष्क, वर्णचतुष्क, तंजसचतुष्क, मणुखगइदुग—मनुष्य निक, विहायोगति द्विक, पणिवि-पंचेन्द्रिय जाति, सास-उच्छ्वास नामकमं, परघुच्च-पराघात नाम और उच्च गोत्र का, संघयणागिह-छह संहनन और छह एस्थान, मपुत्थी-नपुसकवेद, स्त्रीवेव, सुमगियरति-सुभगत्रिक और इतर दुर्मगत्रिक का, मिन्ट - मिथ्या दृष्टि, घजगइया-चारों गति वाले । गाचार्य-वसचतुष्क, वर्णचतुष्क, तंजसत्रतुष्क, मनुष्यद्विक, विहायोगतिद्विक, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, पराघात, उन्नगोत्र, छह संहनन, छह संस्थान, नपुंसक वेद, स्त्री वेद, सुभगत्रिक, दुर्भगत्रिक का चारों गति वाले मिथ्या दृष्टि जीव जघन्य अनुभाग बंध करते हैं। विशेषार्थ- गाथा में चालीस प्रकृतियों का नामोल्लेख कर उनके जघन्य अनुभाग बंध का स्वामी चारों गतियों के मिथ्या दृष्टि जीव को बतलाया है। इनमें से कुछ प्रशस्त और कुछ अप्रशस्त प्रकृतियां हैं। सचतुष्क (बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक), वर्णचतुष्क (शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श), तेजसचतुष्क (तंजस,कार्मण, अगुरुलधु, निर्माण), पंचे. न्द्रिय जाति, उच्छ्वास और पराघात ये पन्द्रह प्रकृतियां प्रशस्त हैं अतः Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ श्तक इनका जघन्य अनुभाग संच महाष्ट संकगाोता है। पिध्यापिट मनुष्य और तियंत्र अपने उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से जब नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं उस समय इन पन्द्रह प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध करते हैं तथा नारक और ईशान स्वर्ग में ऊपर के देव संक्लेश के होने पर पंचेन्द्रिय निर्गत्र पर्याय के योग्य प्रकृतियों का बंध करने के समय में और इशान स्वर्ग तक के देव पंचेन्द्रिय जाति और बस को छोड़कर शेप तेरह प्रकृतियों को एकेन्द्रिय जीव के योग्य प्रकृतियों को बांधने समय इनका जघन्य अनुभाग बंध करते हैं । उक्त कथन का सारांश यह है कि मिथ्याष्टि मनुष्य और तिर्चच तो असचतुष्क आदि पन्द्रह प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करने के माथ करते हैं । ईशान स्वर्ग से ऊपर के देव तथा नारक पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में जन्म लेने योग्य प्रकृ. तियों का बंध करते हुए तथा ईशान स्वर्ग तक के देव एकेन्द्रिय पर्याय में जन्म लेने योग्य प्रकृतियों का बंध करते हुए पंचेन्द्रिय जाति और वस को छोड़ उसके योग्य उक्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बन्ध करते हैं। ईशान स्वर्ग तक के देवों में पंचेन्द्रिय जाति और अस नामकर्म को छोड़ने का कारण यह है कि इन दोनों का बंध ईशान स्वर्ग तक के देवों को विशुद्ध दशा में ही होता है। अतः इनके उक्त दोनों प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध नहीं होता है । स्त्री वेद और नपुंसक वेद ये दोनों प्रकृतियां अप्रशस्त हैं, इनका जघन्य अनुभांग बंध विशुद्ध परिणाम बाले मिथ्याडष्टि जीन करते हैं । मनुष्यद्धिक, बज्र ऋषभनाराज संहनन आदि छह संहनन और समचतुरस्र संस्थान आदि छह संस्थान, शुभ और अशुभ विहायोगति, सुभगत्रिक (सुभग, मुस्वर, आदेय) और दुर्भगत्रिक (दुर्भग, दुःस्वर, Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ मनम कर्मग्रभ्य अनादेय) और उच्च गोत्र का जधन्य अनुभाग बंध चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं, लेकिन वे मध्यम परिणाम वाले होते हैं। इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और सम्यग्दृष्टि मनुष्य देवहिक का न्ध करते हैं, मनुष्यद्विक का नहीं । संस्थानों में से समचतुरस्र संस्थान का बंध करते हैं। संहनन का बंध नहीं करते हैं । शुभ विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आय और उच्च गोत्र का ही बन्ध करते हैं और मिथ्यादृष्टि दुभंग आदि का बंध करते हैं । सम्यग्दृष्टि देव और सम्यग्दृष्टि नारक मनुष्यद्विक का ही बंध करते हैं - तिर्यचद्विक का नहीं। संस्थानों में समचतुरस्र संस्थान का और मंडलों में बज्रऋषभनाराच संहनन का बंध करते हैं। शुभ विहायोगति, सुभग आदि हो बांधते हैं और उनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं। जिससे उनके प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध नहीं होता है और उनका बंध न होने से परिणामों में परिवर्तन नहीं होता है तथा परिवर्तन न होने से परिणाम विशुद्ध बने रहते हैं जिससे प्रमस्त प्रकृतियों का जधन्य अनुभाग बंध नहीं होता है। इसी कारण से सम्यग्दृष्टि का ग्रहण न करके मिथ्यादृष्टि का ग्रहण किया है । मनुष्यद्विक को उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है और शुभ विहायोगति सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्च गोत्र, प्रथम संहनन और प्रथम संस्थान की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोड़ी सागरीयम की है 1 इन शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति से प्रारंभ होकर प्रतिपक्षी प्रकृतियों के साथ उनकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम के स्थितिबंध के अध्यवसाय तक परावर्तमान मध्यम परिणामों से होता है । वह अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त के परावर्त से बंधता है । हुण्ड संस्थान और सेवार्त संहनन की अनुक्रम से वामन संस्थान और कोलिका संहनन के साथ अपनी-अपनी जघन्य 7 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ शतक स्थिति तक परावृत्ति होने पर । इसी प्रकार शेष संहनन, संस्थान की सम्भवित शेष संहनन और संस्थान के साथ अपनी-अपनी जघन्य स्थिति तक परावृत्ति के होने पर जानना चाहिये । इन स्थितिस्थानों में मिथ्यादृष्टि परावर्तमान मध्यम परिणाम से जघन्य अनुभाग बंध को करता है । इसी तरह अन्य प्रकृतियों के लिए भी समझना चाहिये। ____ इस प्रकार से बंधयोग्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग बंघ के स्वामियों का कथन करने के पश्चात् अब आगे मूल और उत्तर प्रकृतियों में अनुभाग बंध के भंगों का विचार करते हैं । चउतेयवन्नवेयणिय नामणुक्कोस सेसघुवबंधी । घाईणं अजहन्नो गोए दुविहो इमो चजहा ॥७४।। सेसंमि बुहा'"" शब्दार्थ-चउतेक्वान--संजसचतुष्क और वर्णचतुष्क, यणिय - वेदनीय कर्म, नाम-नाम कर्म का, अणुक्कोस-अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध, सेसनबंधी- बाकी की घ्र धबंधिनी प्रकृतियों का, घाइगं-धाति प्रकृतियों का, अजहन्नो-अजघन्य अनुभाग बंध, गोए-गोत्र कर्म का, दुविहो-दो प्रकार के अनुभाग बन्ध (अनुत्कृष्ट और अजघन्य बन्ध) इमो-ये, चहा--चार प्रकार के, (सादि, अनादि, धव, अध्रुव)। सेसमि--बाकी के तीन प्रकार के अनुभाग धंध के, दुहादो प्रकार। १. गो० कर्नयाई गा० १६५-१६६ तक में उत्कृष्ट अनुभाग बंध के और गाथा १७०-१७७ तक में जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन किया गया है। दोनों को भामग्रन्य से समानता है । तुलना के लिये उक्त अंश परिशिष्ट में दिया है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य २५६ गाथा-तंजस चतुजा, चतुष्क, देदी: काई और. नामकर्म का अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध तथा बाकी की ध्रुवबंधिनी और घाती प्रकृतियों का अजघन्य अनुभाग बंध और गोत्रकर्म के दोनों बन्ध (अनुस्कृष्ट और अजघन्य) चारों प्रकार के हैं। उक्त प्रकृतियों के शेष अनुभाग बन्ध और बाको की अन्य शेष प्रकृतियों के सभी बंध दो ही प्रकार के हैं। विशेषार्य-इस गाथा में मूल और उत्तर प्रकृतियों में अनुभाग बंध के भंगों का विचार किया गया है । ___बंध के चार प्रकार हैं-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य । इनमें से कर्मों की सबसे कम अनुभाग शक्ति को जघन्य और जघन्य अनुभाग शक्ति से ऊपर के एक अविभागी अंश को आदि लेकर सबसे उत्कृष्ट अनुभाग तक के भेदों को अजघन्य कहते हैं। इन जघन्य और अजघन्य भेदों में अनुभाग के अनन्त भेद गभित हो जाते हैं । सबसे अधिक अनुभाग शक्ति को उत्कृष्ट और उसमें से एक अविभागी अंश कम शक्ति से लेकर सर्वजघन्य अनुभाग तक के भेदों को अनुस्कृष्ट कहते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेद में भी अनुभाग शक्ति के समस्त भेद गर्भित हो जाते हैं । इसको उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते हैं कि कल्पना से सर्वजघन्य का प्रमाण है और उत्कृष्ट का प्रमाण १६ | तो इसमें ८ को जघन्य कहेंगे और आठ से ऊपर नौ से लेकर सोलह तक के भेदों को अजघन्य तथा सोलह को उत्कृष्ट और सोलह से एक कम पन्द्रह से लेकर आठ तक के मेदों को अनुत्कृष्ट कहेंगे । मूल और उत्तर प्रकृतियों में इन मेदों का विचार सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव भंगों के साथ किया गया है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतक गाथा में बताये गये खेदों का विवरण इस प्रकार है कि तेजसचतुष्क (तंजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण) तथा वर्णचतुष्क-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श (यहां शुभ वर्णचतुष्क समझना चाहिये), बेदनीय कर्म और नामकर्म का अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव इस प्रकार बार नरह का होता है । जो इस प्रकार है - __ तेजसचतुष्क और शुभ वर्णचतुष्क इन आठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक अपूर्वकरण गुणस्यान में अवगति योग्य तीस प्रकृ. तियों के बन्धविच्छेद के समय होता है । इसके सिवाय उपशम अंणि आदि अन्य स्थानों में उक्त प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट बध हो होता है । किन्तु ग्यारह गृणस्थान में बिल्कुल बंध नहीं होता है कोर ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर कोई जांच उक्त प्रकृतियों का पुनः अनुत्कृष्ट अनु. भाग बन्ध करता है तब वह सादि कहलाता है और इस अवस्था को प्राप्त होने से पहले उनका बंध अनादि कहलाता है, क्योंकि उसके वह बैध अनादि से होता चला आ रहा है । भव्य जीव का बंध अध्रुव और अभव्य जीव का बंध ध्रुव होता है। इस प्रकार उक्त आठ प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध सादि आदि चार प्रकार का होता है। किन्तु इनके शेष उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभाग बंध के सादि और अध्रुव यह दो ही भंग होते हैं। क्योंकि पूर्व में बताया है कि तेजसचतुष्क और वर्णचतुष्क का उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक अपूर्वकरण गृणस्थान वाला करता है जो इससे पहले नहीं होता है । इसीलिये सादि है और एक समय तक होकर आगे नहीं होता है, अतः अध्रुव है । ये प्रकृतियां शुभ हैं जिससे इनका जघन्य अनुभाग बंध उत्कृष्ट संक्लेशबाला पर्याप्त संशी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीद करता है और कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक दो समय के बाद वही जीव सनका अजधन्य बंध करता है । कालान्तर में उत्कृष्ट संक्लेश होने पर Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २६१ वह पुनः उनका जघन्य अनुभाग बंध करता है । इस प्रकार जघन्य और अजघन्य अनुभाग बंध साथ और अध्रुव है वेदनीय और नामकर्म का भी अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध सादि आदि चार प्रकार का है। क्योंकि साता वेदनीय और यशःकोति नामकर्म की अपेक्षा बेदनीय और नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में ही होता है और शेष स्थानों में अनुत्कृष्ट बंध होता है। ग्यारहवें गुणस्थान में उनका बंध नहीं होता है । जिससे ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर जो अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है वह सादि और उससे पहले अनादि । भव्य जीव का बंध ध्रुव और अभव्य का अध्रुव है। इस प्रकार वेदनीय और नामकर्म के अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध के सादि आदि चार भंग होते हैं। वेदनीय और नामकर्म के अनुत्कृष्ट बंध के सिवाय शेष उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य बंध के सादि और अध्रुव भंग हो होते हैं । उत्कृष्ट बंध तो क्षपक सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में ही होता है, अन्य गुणस्थान में नहीं, अतः सादि है और बारहवें आदि गुणस्थानों में नहीं होने से अत्र है । जघन्य अनुभाग बंध मध्यम परिणाम वाला सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करता है। यह जधन्य अनुभाग बंध अजघन्य अनुभाग बंध के बाद होने से सादि है और कम से कम एक समय और अधिक से अधिक चार समय तक जघन्य बंध होने के पश्चात पुनः अजघन्य बंध होता है, जिससे जघन्य बंध अध्रुव और अजघन्य बंध | सादि है । उसके बाद उसी भव में या दूसरे किसी भव में पुनः जघन्य बंध के होने पर अजघन्य बंध अध्रुव होता है। इस प्रकार शेष उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य बंधू सादि और अघुव होते हैं । अब धवबंधिनी और अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के बंधों के बारे में Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ शतक विचार करते हैं । तेजस चतुष्क के सिवाय शेष ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का अजघन्य अनुभाग बंध चार प्रकार का होता है। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अंतराय, ये चौदह प्रकृतियां अशुभ हैं और इनका जघन्य अनुभाग बंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत में होता है और ग्यारहवें में इनका बंध नहीं होता है। अतः ग्यारहवें गुणस्थान से च्युत होकर जो अनुभाग बंध होता है वह सादि है और उससे पहले का बंध अनादि है। भव्य का बंध अध्रुव और अभव्य का बंध ध्रुव है। __संज्वलन चतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध क्षपक अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में अपने बंधविच्छेद के समय में होता है। इसके सिवाय अन्य सब जगह अजधन्य बन्ध होता है। ग्यारहवें गुणस्थान में बंध नहीं होता है, अतः वहां से च्युत होकर जो बंध होता है वह सादि है, उससे पहले का अनादि, भव्य का बंध अध्रुव और अभव्य का बन्ध ध्रुव है। ___ निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णचतुष्क, उपधात, भय और जुगुप्सा का क्षपक अपूर्वकरण में अपने-अपने बंधविच्छेद के समय में एक समय तक जघन्य अनुभाग बंध और अन्य सब स्थानों पर अजघन्य अनुभाग बंध होता है | उपशम श्रेणि में गिरने पर पुनः उनका अजघन्यबंध होता है जो सादि है । बंधविच्छेद से पहले उनका बंध अनादि, अभव्य का बंध ध्रुव और भव्य का बंध अध्रुव है। प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध देशविरति गुणस्थान के अंत में संयमाभिमुख करता है और उससे पहले होने वाला बंध अजघन्य बंध है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध क्षायिक सम्यक्त्व और संयम प्राप्त करने का इच्छुक अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अपने गुणस्थान के अंत में करता है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य २६३ इसके सिवाय सर्वत्र उसका अजघन्य अनुभाग बंध होता है। स्त्यानद्धि, निद्रा-निद्रा और प्रत्रला-प्रचला, मिथ्यात्व और अनन्तानबंधी कषाय का जघन्य अनुभाग बंध विशुद्ध परिणामी मिथ्यादष्टि अपने गुणस्थान के अंतिम समय में करता है और शेष सर्वत्र उनका अजघन्य अनुभाग बंध होता है। उसके बाद संयम वगैरह को प्राप्त करके वहां से गिरकर पुनः उनका अजघन्य अनुभाग बंध करता है तो वह सादि और उसके पहले का अनादि, अभव्य का बंध ध्रुव और भव्य का बंध अध्रुव होता है। इस प्रकार ४३ ध्रुवप्रकृतियों का अजघन्य अनुभाग बंध चार प्रकार का होता है। ____ अब उनके जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध के दो-दो प्रकारों को स्पष्ट करते हैं । उक्त ४३ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थानों में होता है जो उन-उन गुणस्थानों में पहली बार होने से सादि है। बारहवें आदि ऊपर के गुणस्थानों में नहीं होने से अध्रुव है। उत्कृष्ट अनुभाग बंध उत्कृष्ट संक्लेश वाला पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्या दृष्टि जीव करता है जो एक या दो समय तक होता है । उसके बाद अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध करता है। कालान्तर में उत्कृष्ट संक्लेश के होने पर पुनः उनका उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध में सादि और अध्रुव दो ही बिकल्प होते हैं। ____ अब अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि चारों अनुभाग बंधों को बतलाते हैं । अध्रुवबंधिनी होने से इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनु स्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभाग बंध के सादि और अध्रुव यह दो प्रकार होते हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चारों घाति कर्म अशुभ हैं । इनका अजघन्य अनुभाग बंध चार प्रकार का होता Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ शतक है । अशुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध और शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध विशुद परिणामी बंधक करना है । जानावरण. दर्शनावरण और अंतराय अशुभ हैं अतः इनका जघन्य अनुभाग वंत्र अपक सूक्ष्मसंपराय' मृणस्थान के अंत समय में होता है और मोहनीय का बंध नौवें गणस्थान तक होता है । जिससे नौवें गुणस्थान के अंत में उसका जघन्य अनुभाग बंध होता है । इन गुणस्थानों के सिवाय शेष सभी स्थानों में उक्त चारों कर्मों का अजघन्य अनुभाग बंध होता है । ग्यारहवें और दसवें गुणस्थान में उक्त चारों कर्मों का बंध न करके वहां से गिरने के बाद जब पुनः उनका अजघन्य अनुभाग बंध होता है तब वह सादि है और जो जीव नौवें, दसवें आदि गुणस्थानों में कभी नहीं आये, उनको अपेक्षा वह अजघन्य बंध अनादि है । अभव्य का बंध ध्रुव है और भव्य का बंध अध्रुव है । अब घातिकर्मों के शेष तोन-जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग बंधों में होने वाले सादि और अध्रुव प्रकारों को स्पष्ट करते हैं। मोहनीय कर्म का जघन्य अनुभाग बंध क्षपक अनिवृत्तिबादर के अंतिम समय में और शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का क्षपक सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्त में । यह बंध पहली बार ही होता है अतः सादि है और बारहवें गुणस्थान में जाने पर होता ही नहीं अतः अध्रुव है। यह अनादि नहीं है । क्योंकि उक्त गुणस्थानों में आने से पहले कभी नहीं होता है और अभव्य के नहीं होने से ध्रुव भी नहीं है । अनुत्कृष्ट के बाद उत्कृष्ट बंध होता है अतः सादि है और उसके एक या दो समय बाद पुनः अनुत्कुष्ट बंध होता है अतः उत्कृष्ट बंध अध्रुव है और अनुत्कृष्ट बंध सादि है । कम-से-कम अन्तमुहूर्त और अधिक-से-अधिक अनन्तानन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के बाद उत्कृष्ट संक्लेश होने पर पुनः उत्कृष्ट बंध होता है Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २६५ जिससे अनुत्कृष्ट बंध अध्रुव है । इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट बंध बदलते रहने के कारण मादि और अध्रुव हैं। गोत्र कर्म में अजघन्य और अनुत्कृष्ट बंध चार प्रकार का और जघन्य और उत्कृष्ट बंध दो प्रकार का होता है । सल्का और अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध के प्रकार वेदनीय और नाम कम के समान समझना चाहिये । अब जवन्य और अजघन्य बंध के बारे में विचार करते हैं कि सातवें नरक का नारक सम्यक्त्व के अभिमुख होता हुआ यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है तब अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व का अन्तरकरण करता है, जिससे मिथ्यात्व की स्थिति के हो भा हो भाले । एक नोजे की अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति और दूसरो शेष पर की स्थिति । नीचे की स्थिति का अनुभव करते हए अन्तुमुहर्त प्रमाण स्थिति के अन्तिम समय में नीच गोत्र की अपेक्षा से गोत्र कर्म का जघन्य अनुभाग बंध होता है। अन्य स्थान में यदि इतनो विशुद्धि हो तो उससे उच्च गोत्र का अजघन्य अनुभाग बंध होता है । सातवें नरक में मिथ्यात्व दशा में नीच गोत्र का ही बंध होने से उसका ग्रहण किया है तथा जो नारक मिथ्या दृष्टि सम्यक्त्व के अभिमुख नही, उसके नोच गोत्र का अजघन्य अनुभाग बंध और सम्यक्त्व प्राप्ति होने पर उच्च गोत्र का अजघन्य अनुभाग बंध होता है। नीच गोत्र का यह जघन्य अनुभाग बंध अन्यत्र सम्भव नहीं है और उसी अवस्था में पहली बार होने से सादि है । सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर बही जोव उच्च गोत्र की अपेक्षा से नीच गोत्र का अजघन्य अनुभाग बंध करता है अतः जघन्य अनुभाग बंध अध्रुव है और अजघन्य अनुभाग बंध सादि है । इससे पहले होनेवाला अजघन्य अनुभाग बंध अनादि है । अभव्य का अजघन्य बंध ध्रुव और भव्य का अध्रुव है। इस प्रकार गोत्र कर्म के जघन्य अनुभाग बंध के दो और अजघन्य अनुभाग बंध के चार विकल्प जानना चाहिए। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ घातक ___ आयुकर्म के जघन्य, उल्कष्ट और अनुहट अनुभाग में शादि और अध्रुव ये दो ही विकल्प होते हैं । क्योंकि भुपयमान आयु के विभाग में ही आयु कर्म का बंध होता है जिससे उसका जघन्यादि रूप अनुभाग बंध सादि है और अन्तमुहर्त के बाद उस बंध के अवश्य रुक जाने से अध्रुव है । इस प्रकार आयुकर्म के जघन्य आदि अनुभाग बंधों के सादि और अध्रुव प्रकार समझना चाहिये। इस प्रकार से मूल एवं उत्तर प्रकृतियों में उत्कृष्ट आदि अनुभाग बंधों के सादि आदि भंगों को जानना चाहिये ।' अब अनुभाग बंध का वर्णन करने के पश्चात आगे प्रदेशबंध का विवेचन प्रारम्भ करते हैं। प्रदेशबंध के प्रारम्भ में सर्वप्रथम वर्गणाओं का निरूपण करते हैं । प्रवेशबंध ...इगदुगणुगाई जा अभवणंतगुणियानू । खंघा उरलोधियवग्गणा उ तह अगहणतरिया ॥७५॥ शब्दार्थ--इगडुगणुगाह-एकाणुक, हमणुक नादि, जा--यावत्, गक अनवणताणिया – अभध्य में अनंत गुणे परमाणु वाला खंधा-फ, उरसानियवग्गणा---औदारिक के योग्य वर्गणा, तह...-तथा, अगहणंतरिया-प्रणयोग्य वर्गणा के बीच अग्रहणयोग्य वर्गणा । गाथार्ष- एकाणुक, यणक आदि से लेकर अभव्य जीवों से भी अनन्तगुणे परमाणु वाले स्कंधों तक ही औदारिक की गो० कर्मकांड में अनुभाग बंध्न के जघन्य, अजघन्य आवि प्रकारों में सादि आदि का विवार दो गाथाओं में किया गया है। एक में मूल प्रकृतियों की अपेक्षा, दूसरी में उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा । उक्त विचार कर्मग्रंथ के समान है। गाथायें परिशिष्ट में देखिये । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्म ग्रन्थ ग्रहणयोग्य वर्गणा होती है तथा एफ-एक परमाणु की वृद्धि से ग्रहणयोग्य वर्गणा से अन्तरित अग्रहणयोग्य वर्गणा होती है। विशेषार्य-यह लोक परमाणु और स्कंध रूप पुद्गलों से ठसाठस भरा हुआ है और पुद्गलकाय अनेक वर्गणाओं में विभाजित है, जिनमें एक कर्मवर्ग भी है। ये नर्ममा जीम के योग और कषाय का निमित्त पाकर कर्म रूप परिणत हो जाती हैं । पुद्गल के एक परमाणु के अवगाहस्थान को प्रदेश कहते हैं। अतः कर्म रूप परिणत हुए पुद्गल स्कंधों का परिमाण परमाणु द्वारा आंका जाता है कि अमुक समय में इतने परमाणु वाले पुद्गलस्कन्ध अमुक जीव को कर्म रूप में परिणत हुए हैं, इसी को प्रदेशबंध कहते है । अतः प्रदेशबंध का स्वरूप समझने के पूर्व कर्मवर्गणा का ज्ञान होना जरूरी है। कर्मवर्गणा का स्वरूप समझने के लिए भी उसके पूर्व की औदारिक आदि वर्गणाओं का स्वरूप जान लिया जाये। इसीलिये उन-उन वर्गणाओं का भी स्वरूप समझना चाहिये । इस कारण औदारिक आदि वर्गणाओं का यहां स्वरूप कहते हैं। ये औदारिक आदि वर्गणायें दो प्रकार की होती हैं-ग्रहणयोग्य, अग्रहणयोग्य । अग्रहणवर्गणा को आदि लेकर कर्मवर्गणा तक वर्गणाओं का स्वरूप गाथा में स्पष्ट किया जा रहा है। समान जातीय पुद्गलों के समूह को वर्गणा' कहते हैं । ये वर्गणार्य १ कर्मग्रन्थ की दीका में स्वजातीय स्कंधों के समूह का नाम वर्गणा कहा है। जबकि कर्मप्रकृति की टोका में स्कंध और वर्गणा को एकार्थक कहा है। क्योंकि स्कंध - वर्गणा की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग फही है । यदि जातीय स्कंधों के समूह को वर्गणा कही जाये तो उसके लोक (शेष अगले पृष्ठ पर) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ शतकं अनंत होती है। जैसे समसलोक कामो कुछ कापी परमाणु पाये जाते हैं, उन्हें पहली वर्गणा कहते हैं। दो प्रदेशों के मेल से बनने वाले स्कंधों को दूसरी वर्गणा, नीन प्रदेशों के मेल से बनने वाले स्कंधों की तीसरी वर्गणा कहलाती है। इसी प्रकार एक-एक परमाणु बढ़ते. बढ़ते संख्यात प्रदेशी स्कंधों को संख्याताणु वर्गणा, असंख्यात प्रदेशी स्कंधों को असंख्याताणु वर्गणा, अनंत प्रदेशो स्कंधों को अनन्ताणु वर्गणा और अनंतानन्त प्रदेशी स्रधा की अनन्तानन्ताणु वर्गणा समझना चाहिये। ये वर्गणायें अग्रहणयोग्य और ग्रहणयोग्य, दो प्रकार की है । जो वर्गणायें अल्प परमाणु बालो होने के कारण जीव द्वारा ग्रहण नहीं को जाती, उन्हें अग्रहणवर्गणा कहते हैं । अभब्य जीवों को राशि से अनंतगुणे और सिद्ध जीवों की राशि के अनन्तवें भाग प्रमाण परमाणुओं से बने स्कंध यानी इतने परमाणु वाले स्कंध जोब के द्वारा ग्रहण करने योग्य होते हैं और जीव उन्हें ग्रहण करके औदारिक शरीर रूप परिणमाता है । इसलिये उन्हें औदारिक वर्गणा कहते हैं । किन्तु औदारिक शरीर की ग्रहणयोग्य वर्गणाओं में यह वगंणा सबसे जघन्य होतो है, उसके ऊपर एक-एक परमाणु बढ़ते स्कंधों को पहली, दूसरी, तीसरी आदि अनन्त वर्गणायें औदारिक शरीर के ग्रहण योग्य होती हैं । जिससे औदारिक शरीर की ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा से अनन्त। ध्यापी होने से उसकी अवगाहना लोकप्रमाण होगी । वर्गणा और स्कंध को जहाँ एकार्थक कहा गया हो वहाँ तो अवगहना मंबधी आपत्ति नहीं । किन्तु जहां स्वजातीय स्कंधों के समूह का नाम वर्गणा कहा जाये वहां अवगाइना स्कन्ध की ली जाये तो बराबर एकरूपला वनती है । अतः कर्मग्रन्थ की टीका के अनुसार रकंघ की अवमाहना लेना चाहिये किन्तु वर्गणा को नहीं। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २६६ भाग अधिक परमाणु बाली औदारिक शरीर की ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है । इस अनन्तवें भाग में अनन्त परमाणु होते हैं । अतः जघन्य वर्गणा से लेकर उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त अनन्त वर्गणायें औदारिक शरीर की ग्रहणयोग्य जानना चाहिये । औदारिक शरीर की उत्कृष्ट वर्गणा से ऊपर एक-एक परमाणु बरते स्कन्धों से बनने वाली वर्गणार्ये औदारिक की अपेक्षा से अधिक प्रदेश वाली और सूक्ष्म होती हैं, जिससे औदारिक के ग्रहण-योग्य नहीं होती हैं और जिन स्कन्धों से वैक्रिय शरीर बनता है. उनकी अपेक्षा से अल्प प्रदेश बाली और स्थूल होती हैं जिससे वे वैक्रिय शरीर के ग्रहणयोग्य नहीं होती हैं । इस प्रकार औदारिक शरीर की उत्कृष्ट वर्गणा के ऊपर एक-एक परमाणु बढ़ते स्कंधों की अनन्त अग्रहणयोग्य बर्गणा होती हैं । जैसे औदारिक शरीर की ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा से उसी की उत्कृष्ट वर्गणा अनंत भाग अधिक है, वैसे ही अग्रहणयोग्य जत्रन्य वर्गणा से उसको उत्कृष्ट वर्गणा अनंतगृणी है । इस गुणाकार का प्रमाण अभत्र्य राशि से अनंतगणा और सिद्धराशि का अनंतवां भाग है। इस अग्रहणयोग्य वर्गणा के ऊपर पुनः ग्रहणयोग्य वर्गणा आती है और ग्रहणयोग्य वर्गणा के ऊपर अग्रहणयोग्य वर्गणा ! इस प्रकार ये दोनों एक दूसरे से अन्तरित हैं। इस प्रकार से औदारिक शरीर की प्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य वर्गणाओं का कथन करने के बाद बैंक्रिय आदि की महणयोग्य, अग्रहणयोग्य वर्गणाओं का स्पष्टीकरण करते हैं। एमेष विवाहारतेयभासाणुपाणमणकम्मे । सुहमा कमावगाहो ऊणूणंगुलअसंखेसो ।। ७६ ॥ शब्दार्थ-एमेव-पूर्वोक्त के सरान, विउव्याहारतेयभासाणपाणमणहम्मे-क्रिय, आहारक, तेजस, माषा, स्वासोच्छ्वास, मन Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সারদ पायाचं - शरीरादि अष्टक, नीन वेद, दो युगल, सोलह कराय, उद्योतद्धिक, गोवतिक, वेदनीयद्विक, पाँच निद्रा, वमवीशक और चार आम ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं। चार आनुपूर्वी क्षेत्रविपाकी हैं। विशेषार्थ-गाथा में परावतमान और क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों का कथन किया है। ___परावर्तमान प्रकृतियां दूमरी प्रकृतियों के बंध, उदय अथवा बंधोदय दोनों को रोक कर अपना बंघ, उदय या बंधोदय करने के कारण परावर्तमान कहलाती हैं। इनमें अघाती- वेदनीय, आयु, नाम, गोन कमों की अधिकांश प्रकृतियों के साथ घाती कर्म दर्शनावरण व मोहनीय को भी प्रकृतियों हैं । जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - (१) दर्शनावरण-निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्न्यानद्धि । (२) वरनोय-साता वेदनीय, असाता वेदनीय । (३) मोहनीय-अनन्तानुबंधी कपाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण कपाय चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण कपाय चतुष्क, मंग्वलन कपाय चतुष्क, हास्य, रति, शोक, अरति, स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद । (४) आयकम-नरक, तिथंच, मनुष्य, देव आधु । (५) नामकर्म–शरीगष्टक की ३३ प्रकृतियां (औदारिक, वैक्रिय, आहारक शरीर, औदारिक अंगोपांग आदि नीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह महनन, एकेन्द्रिय आदि रच जाति, नरकगनि आदि चार गनि, शुभ-अशुभ बिहायोगति, चार आनुपूर्वी), आतप, उद्योन, नम दशक, स्थावर दशक । ' (E) गोत्रकर्म-उच्न गोत्र, नीच गोत्र । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ इस प्रकार ५+२+२३+४+५+२-१ प्रकृतियां परावर्तमान हैं । इनमें से अनंतानुबंधी कपाय चतुष्क आदि सोलह कपाय और पांच निद्रायें ध्रुवबंधिनी होने से नो बंधदशा में दुमरी प्रकृनियों का उपरोध नहीं करती हैं लेकिन उदयकाल में मजानीय प्रकृति को रोक कर प्रवृत्त होती हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ में म एक जीव को एक ममय में एक पाय का उदय होना है। इसी प्रकार पांच निद्राओं में किसी एक का उदय होने पर दोष चार निद्राओं का उदय नहीं होता है. 1 अनः परावर्नमान हैं। स्थिर, शुभ, अग्थिर, अशुभ ये चार प्रकृतियां उदयदशा में विरोधिनी नहीं हैं किन्तु बननदशा में विरोधिनी हैं। क्योंकि स्थिर के साथ अस्थिर का और शुभ के साथ अशुभ का बंध नहीं होता है। इसलिए ये चारों प्रकृतियां परावतमान हैं। शेष ६६ प्रकृतियां वंघ और उदय दोनों स्थिनियों में परम्पर विरोधिनी होने में परावर्तमान हैं ।। उम प्रकार में परावर्नमान कर्म प्रकृतियों का वर्णन करने के माथ ग्रन्थकार द्वारा निर्दिष्ट धुत्रवन्ध्रि आदि अपरावर्तमान पर्यन्त बारह हारों का विवेचन किया जा चुका है। जिनका विवरण पृ०७२ पर दिये गय कोष्टक में देखिये । अब कर्म प्रकृतियों का विपाक की अपेक्षा निरूपण करते हैं। विपाक में आशय रमोदय का है। कर्मप्रकृति में विशिष्ट अथवा विविध प्रकार के फान देने की शक्ति को और फल देने के अभिमुख होने को विपाक कहते हैं | जैसे आम आदि फन जब पक कर तैयार होने हैं, नत्र उनका विपाक होता है। बैमे ही कम प्रकृतियां भी जब अपना फल देने के अभिमुख होनी हैं नत्र उनका विपाकाकाल कहालाना है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक २२ माणुओं का संजात होता है त्यों-त्यों उनका सूक्ष्म, सूक्ष्मतर रूप परि माण होता है। औदारिक आदि बर्गणाओं को अवगाहना जो उत्तरोत्तर होन-होन अंगुल के असंख्यात भाग पाहो है वह पुर्व को अपेक्षा क्रम से एक के बाद दुमरी उत्तरोनर असंख्यातवां भाग होन समझना चाहिये । इस न्युलतर की वजह से ही अल्प परमाणु वाले औदारिक शरीर के दिखने पर भी उसके मात्र विद्यमान रहने वाले तैजस और कामण शरीर उससे कई गने परमाणु वाले होने पर भी दिखाई नहीं देते हैं। तेजस बर्गणा के बाद भाषा, श्वासोश्वास और मनोवर्गणा का उल्लेख करके मनसे अंत में कार्मण वर्गणा को रखा है, इसका कारण यह है कि त जम्म वर्गणा से भी भाषा आदि वर्गणायें अधिक सुक्ष्म हैं । अथात् तैजस शरीर को ग्रहणयोग्य वर्गणाआ से वे बर्मणायें अधिक सूक्ष्म हैं जो बातचीत करते समय शब्द रूप परिणत होती हैं, उनसे भी ये वर्गणायें सूक्ष्म हैं जो श्वासोच्छ्वास रूप परिणत होती है । श्वासोच्छबास वर्गणा से भी मानसिक चिन्तन का आधार बनने वाला मनोवर्गणायें और अधिक सूक्ष्म हैं। कर्मवर्गणा मनोवर्गणा से भी सूक्ष्म हैं। इससे यह अनुमान हो जाए कि वे कितनी अधिक सूक्ष्म है किन्तु उनमें परमाणुओं की संख्या कितनी अधिक होती है। ___ औदारिक शरीर की ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य वर्गणाओं का विववेचन पूर्व गाथा में किया जा चुका है । शेष रही वैक्रिय आदि की ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य वर्गणाओं को यहां स्पष्ट करते हैं। ___औदारिक शरीर की अग्रहणयोग्य' उत्कृष्ट बर्गणा के स्कंधों के परमाणुओं से एक अधिक परमाणु जिन स्कंधों में पाये जाते हैं उन स्कंधों की समूह रूप वर्गणा वैनिय शरीर को ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा होती है । इस जघन्य वर्गणा के स्कंध के प्रदेशों से एक अधिक प्रदेश जिस-जिस स्कंध में पाया जाता है उनका समूह रूप दूसरी Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पामग्रन्य वर्गणा वैक्रिय शरीर की ग्रहणयोग्य वर्गणा होती है। इसी प्रकार एक-एक प्रदेश अधिक स्कंधों की अनन्त वर्गणायें वैक्रिय शरीर की ग्रहणयोग्य होती हैं । बैंक्रिय शरीर की ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा से उसके अनन्तवें भाग अधिक वैक्रिय शरीर को ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है। वक्रिय शरीर को ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा से एक प्रदेश अधिक स्कंधों को जो वर्गणा है वह वैक्रिय शरीर की अपेक्षा स बहुत प्रदेश बाली और सूक्ष्म होती है तथा आहारक शरीर की अपेक्षा से कम प्रदेश बाली और न्थूल होती है । अतः बंक्रिय और आहारक शरीर के लायक न होने से उसे अग्रहणवर्गणा कहते हैं। यह जघन्य अग्रहण वगणा है । उसके ऊपर एक-एक प्रदेश बड़ते स्कन्धों की अनन्त वर्गणायें अग्रहणयोग्य हैं। अग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की जो वर्गणा होती है वह आहारक शरीर की ग्रहणयोग्य जघन्य बगणा होती है और इस जघन्य वर्गणा से अनन्तवें भाग अधिक प्रदेश वाले स्मान्धों की आहारक शरीर को ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है। आहारक शरीर की इस ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों को अग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा होती है और उसके ऊपर 7क-एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते जघन्य वर्गणा से अनन्तगृणे प्रदेशों की वृद्धि होने पर अग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है। ये वर्गणायें आहारक शरीर की अपेक्षा बहुप्रदेश वाली और सूक्ष्म हैं और तंजस शरीर को अपेक्षा से अल्प प्रदेश वाली और स्थूल हैं, अतः ग्रहणयोग्य नहीं हैं। उक्त उत्कृष्ट अग्रहणयोग्य वर्गणा से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की वर्गणा तेजस शरीर को ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा होती है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ शक्षक उसके ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते तेजसशरीरप्रायोग्य जघन्य वर्गणा के अनन्तवें भाग अधिक प्रदेश वाले स्कन्धों को उत्कृष्ट वर्गणा होती हैं । जम शरीर की ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा के स्कन्ध से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों को जघन्य अग्रहणयोग्य वर्गणा होती है और उसके ऊपर एक एक प्रदेश वढ़ते-बनते जघन्य अग्रहण योग्य वर्गणा में अनन्तगृणे अधिक प्रदेश वाल स्कन्धों को उत्कृष्ट अग्रहणयोग्य वर्गणा होती है। यं अनन्त अग्रहणयोग्य बर्गणायें तेजस शरीर को अपेक्षा से बहुत प्रदेश वालो और सूक्ष्म होने नधा भाषा की अपेक्षा स्थूल और अल्प प्रदेश वाली होने से अग्रहणयोग्य हैं। __उक्त उत्कृष्ट अग्रहणयोग्य वगंणा से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की जो वर्गणा होती है वह भाषाप्रायोग्य जघन्य वर्गणा है और उसके ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ते बढ़ते जघन्य वर्गणा के अनन्तवें भाग अधिक प्रदेश वाले स्कन्धों की भाषाप्रायोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है । इस प्रकार अनन्न वर्गणायें भाषा की ग्रहणयोग्य होती हैं । भाषा की ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वगणा के स्कन्धों से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की अग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा होती है और उसके ऊपर एक एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ने जघन्य वगणा से अनन्तगणे प्रदेश वाले स्कन्धों की अग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वगणा होती है। इस वर्गणा के स्कन्ध्रों में एक प्रदेश अधिक स्कन्धों को वर्गणा श्वासोच्छ्वाम को ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा होती है और उसके ऊपर एक एक प्रदेश बढ़ते बढ़त जघन्य वर्गणा के स्कन्ध्र प्रदेशों के अनन्नवें भाग अधिक प्रदेश बाले स्कन्धों की श्वासोच्छ्वास को ब्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है। श्वासोच्छ्वाग को ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा के स्कन्धों से एक प्रदेश अधिक कंधों की अग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा होती है और Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कमग्रन्थ २३५ उसके ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ते बढ़ते अनन्तगुणे प्रदेश वाले कंधों को उत्कृष्ट अग्रहणयोग्य वर्गमा होती है । इस बगणा के स्कंधों से एक प्रदेश अधिक स्कंधों की मनोदय को ग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा होतो है । जघन्य वर्गणा के ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते जघन्य वर्गणा के स्कंधों के प्रमो.हे. अनन् गगनशिबाले की नोद्रव्य की ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट बर्गणा होती है। __मनोद्रव्य की ग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा से एक प्रदेश अधिक स्कंधों की अग्नाशयोग्य जघन्य वर्गणा होती है। उसके ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ते-बड़ते जघन्य वर्गणा के स्कंध प्रदेशों से अनन्तगुणे प्रदेश वाले स्कंधों की अग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है । इस उत्कृष्ट बर्गणा के स्कन्ध के प्रदेशों से एक प्रदेश अधिक स्कन्धों की वर्गणा कर्म को ग्रहण योग्य जघन्य वर्गणा होती है और उसके ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़तेबढ़ते जघन्य वर्गणा के अनन्त भाग अधिक प्रदेश बाले स्कन्धों की कर्म की योग्य उत्कृष्ट वर्गणा होतो है। इस प्रकार से आठ बर्गणा ग्रहणयोग्य और आठ वर्गणा अग्रहणयोग्य होती हैं । अग्रहण वर्गणार्य ग्रहण वर्गणाओं के मध्य में होती हैं। अर्थात् अग्रहण बर्गणा, औदारिक वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, वकिय वर्गणा इत्यादि । जघन्य अग्रहणयोग्य धर्गणा के एक स्कन्ध में जितने परमाणु होते हैं, उनसे अनन्तगुणे परमाणु उत्कृष्ट अग्रहणयोग्य वर्गणा के एका-एक स्कन्ध्र में होते हैं और जघन्य ग्रहणयोग्य वर्गणा के एक स्कन्ध में जितने परमाणु होते हैं उसके अनन्तवें भाग अधिक परमाणु उत्कृष्ट ग्रहणयोग्य वर्गणा के स्कन्धों में होते हैं। इस समस्त कथन का सारांश यह है कि पूर्व-पूर्व को उत्कृष्ट वर्मणा के स्कन्धों में एक-एक प्रदेश बढ़ने पर आगे-आगे की जघन्य वर्गणा का प्रमाण आता है । अग्राह्य वर्गणा की उत्कृष्ट वर्गणा अपनी Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जघन्य वर्गणा से सिद्ध राशि के अनन्तवें भाग गुणित है और ग्राह्य aणा की उत्कृष्ट वर्गणा अपनी जघन्य वर्गणा से अनन्तवें भाग अधिक है । यहां पर वर्गणाओं के सोलह भेद' बताने और उनके कथन करने का उद्देश्य यही है कि जो चीज कर्म रूप परिणत होती है, उसके स्वरूप की रूपरेखा दृष्टि में आ जाये । ग्रहणयोग्य वर्गणाओं का स्वरूप और उनकी अवगाहना का प्रमाण बतलाकर अब आगे की गाथा में अग्रहण वर्मणाओं के परमाण का कथन करते हैं । इक्किककहिया सिद्धाणंतसा अंतरेसु अहणा । सत्य जहन्नुचिया नियतं पहिया जिट्टा ॥७७॥ शतक .. शब्दार्थ इषिकपकहिया एक एक परमाणु द्वारा अधिक सिद्धाणंसा मित्रों के अनंत भाग अंतरेतु - अन्तराल में अग्गहणाग्रहणयोग्य वर्गणा सत्वत्थ सर्व वर्गणाओं में, जहानचिया जघन्य ग्रहण चर्मणा से नियणसं साहिया अपने अनन्तमें भाग अधिक, जिड़ा उत्कृष्ट वर्गणा । -- - · — १ पंचसंग्रह में भी कर्मग्रन्थ के समान ही वर्गणाओं का निरूपण किया है । १६ वर्गणाओं से आगे की गंणाओं को इस प्रकार बताया हैकम्मर धुवेरसुण्ण पत्तंवसृष्णवामरिया | सुणा सहमा सुष्णा महबंधी सगुणनाभाओ । — -करण १६ कर्मणा हे कपर वर्गणा अभूतत्रणा शुन्यवर्गणा प्रत्येकअरीश्वर्गंणा, शुन्यत्रर्गणा, बादर निगोदवर्गणा शून्यवगंणा सूक्ष्मनियोदवर्ग शून्यणा और महास्वध वगंणा होती हैं । F कर्म प्रकृति और गो० जीवकांड में भी कुछ सामान्य से नामभेद के साथ यही गंणायें कही हैं। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ २७७ गाथार्थ -औदारिक आदि वर्गणाओं के मध्य में एक-एक परमाणु द्वारा अधिक सिद्धों के अनंत भाग परिमाण वाली अग्रहणयोग्य वर्गणा होती हैं। औदारिक आदि मभी वर्ग: णाओं का उत्कृष्ट अपने-अपने योग्य जघन्य से अनंतवें भाग अधिक होता है। विशेषार्थ पूर्व की दो गाथाओं में ग्रणहयोग्य वर्गणाओं के नाम और उनकी अवगाहना का प्रमाण बतलाया है और यह भी कहा है विमरणयोगए नारीणाअमहायोम्य बर्गणाओं में अन्तरित होती हैं । इस गाथा में अग्रहणयोग्य वर्गणाओं का प्रमाण और ग्रहणयोग्य वर्गणाओं के जघन्य और उत्कृष्ट भेदों का अन्नर बतलाया है। यद्यपि पूर्व में ग्रहणयोग्य वर्गणाओं का विचार करते समय अग्रहणयोग्य वर्गणाओं के प्रमाण का भी संकेत कर आये हैं, तथापि संक्षेप में पुनः यहां स्पष्ट कर देते हैं कि उत्कृष्ट ग्रहणयोग्य वर्गणा के प्रत्येक स्कन्ध में जितने परमाणु होते हैं, उनमें एक अधिक परमाणु वाले स्कन्धों के समूह की अग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा होती है । इसके बाद दो अधिक परमाण वाले स्कन्धों के समूह की दूसरी अग्रहणयोग्य वर्गणा जानना चाहिए । इसी प्रकार तीन अधिक, चार अधिक, आदि नोसरी, चौथी आदि अग्रहणयोग्य वर्गणायें समझ नेना चाहिए । ____ अग्रहणयोग्य जघन्य वर्गणा के एक स्कन्ध में जितने परमाणु हो उनको सिद्धराशि के अनन्तवें भाग से गुणा करने पर जो प्रमाण आता है, उतने परमाणु वाले स्कन्धों के समूह को अग्रहणयोग्य उत्कृष्ट वर्गणा होती है । इसीलिये प्रत्येक अग्रहणयोग्य वर्गणा को संख्या सिद्ध राशि के अनन्तवें भाग बतलाई है। क्योंकि जघन्य अग्रहण वर्गणा के एक स्कन्ध में जितने परमाणु होते हैं वे सिद्धराशि के अनन्तवें भाग से गुणा करने पर आते हैं। इसीलिये जघन्य से लेकर उत्कृष्ट तक Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rogo शतक वर्गणा के उतने ही विकल्प होते हैं यानी अग्रहणा वर्गणा के जो अनन्त भेद होते हैं, वे भेद प्रत्येक अग्रहण वर्गणा के जानना चाहिये । न कि कुल अग्रहण वर्गणायें सिमी के अनन्तनाः प्रम: । __अग्रहण वर्गणाओं के बारे में दूसरी बात यह भी जानना चाहिये कि ये ग्रहण वर्गणाओं के अन्तराल में ग्रहण वर्गगा के बाद अग्रहण वर्गणा और अग्रहण वर्गणा के बाद ग्रहण वर्गणा, इस क्रम से होती हैं। ऐसा नहीं है कि उनमें से कुछ वर्गणायें औदारिक वर्गणा से पहले होती हैं और कुछ बाद में । इसी प्रकार वैक्रिय आदि की ग्रहणयोग्य वर्गणाओं के बारे में समझना चाहिये । अग्रहण वर्गणाओं का उत्कृष्ट अपने-अपने जघन्य से सिद्ध राशि के अनन्तबै भाग गुणित है और ग्रहणयोग्य बर्गणाओं का उत्कृष्ट अपनेअपने जघन्य से अनन्तवें भाग अधिक है। यानी जघन्य ग्रहणयोग्य स्कन्ध से अनन्त भाग अधिक परमाणु उत्कृष्ट ग्रहणयोग्य स्कन्ध में होते हैं। इस प्रकार से वर्गणाओं का ग्राह्य-अग्राह्य, उत्कृष्ट-जघन्य आदि सभी प्रकारों से विवेचन किये जाने के पश्चात् अब आगे की गाथा में जीब जिस प्रकार के कर्मस्कन्ध को ग्रहण करता है, उसे बतलाते हैं । अंतिमच उफासबुगंधपंचवन्नरसम्मबंधवलं । सम्वजियणंतगुणरसमजुत्तमणतयपएस ॥७॥ एगपएसोगावं नियसम्बपएसज गहेड जिऊ । शब्दार्थ अन्तिमघउफास – अन्त में चार स्पर्ण, दुर्गध -- दो गध, पंचकलरस -- पांच वर्ण और पांच ग्म पाने, कम्मर्णधवलंकर्मस्कन्ध बलिकों को. सम्वजियणतगुणरसं– मय जीवों में भी अनन्त गुणे रम वाले. अणुयुक्त-अणुओं से युक्त. अमंतपपएसंअनन्त प्रदेश बाने, एगपएसोगावं-एक क्षेत्र में अबमाद रूप मे विद्य Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २५९ पान, नियसवपएसउ - अपने समस्त प्रदेशों द्वारा, गहेछ - ग्रहण करता है, जिउ-जीव । गाथार्थ – अन्त के चार स्पर्श, दो गंध, पांच वर्ण और पनि रस दाले मानीको हेभी अनन्त पुणे रस वाले अणुओं से युक्त अनन्त प्रदेश वाले और एक क्षेत्र में अवगाड़ रूप से विद्यमान कर्मस्कन्धों को जीव अपने सर्व प्रदेशों द्वारा ग्रहण करता है। विशेषार्थ - गाथा में जीव द्वारा ग्रहण किये जाने वाले कर्मस्कन्धों का स्वरूप वतलाते हुए यह स्पष्ट किया है कि जीव क्रिस क्षेत्र में रहने वाले कर्मस्कन्धों को ग्रहण करता है और उनके ग्रहण की क्या प्रक्रिया है। जीव द्वारा जो कर्मस्कन्ध ग्रहण किये जाते हैं वे पौद्गलिक है अर्थात् पुद्गल परमाणुओं का समूहविगेष हैं। इसीलिए उनमें भो पुदगल के गुण - स्पर्श. रस, गन्ध और वर्ण पाये जाते हैं । अर्थात् जैसे पूद्गल रूप, रस, गंध, स्पर्श वाला है वैसे ही कर्मस्कन्ध भी रूप आदि वाले होने से पुदगल जातीय हैं। एक परमाणु में पांच प्रकार के रसों में से कोई एक रस, पांच प्रकार के रूपों में स कोई एक रूप, दो प्रकार की गंधों में से कोई एक गंध और आठ प्रकार के स्पो . गुरु-लघु, कोमल-कठोर, शीत-उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष में से दो अविरुद्ध स्पर्श होते हैं।' १ कारणमेव तदनन्य सुक्ष्मी नित्यपन्न भयति परमाणः । एकरसगश्वर्णी द्विस्पर्शः कार्यनिङ्गश्च ।। -नत्त्वार्थभाष्य में उद्धृत परमाणु किसी से उत्पन्न नहीं होता है किन्तु दूसरी वस्तुओं को (शेष अगले पृष्ठ पर देखें) Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० शतक इस प्रकार से एक परमाणु में एक रूप, एक रस, एक गंध और अंत के चार स्पर्शो में से दो स्पर्श होते हैं किन्तु इन परमाणुओं के समूह से जो स्कन्ध तैयार होते हैं, पांचों गंग और चार स्पर्श हो सकते हैं। क्योंकि उस स्कन्ध में बहुत से परमाणु होते हैं और उन परमाणुओं में से कोई किसी रूप वाला, कोई किसो रस वाला कोई किसी गंध वाला होता है तथा किसी परमाणु में अंत के चार स्पर्शो शीत-उष्ण और स्निग्ध-रूक्ष में से स्निग्ध और उष्ण स्पर्श पाया जाता है और किसी में रूक्ष और शीत स्पर्श पाया जाता है । इसीलिये कर्मस्कन्धों को पंच वर्ण, पंच रस, दो गंध और चार स्पर्शं वाला कहा जाता है। इसी कारण ग्रन्थकार ने कर्मस्कन्ध को अंत के चार स्पर्श' दो गंध, पांच वर्ण और पांच रस वाला बतलाया है। 1 कर्मस्कन्धों को चतुःस्पर्शी कहने का कारण यह है कि स्पर्श के जो आठ भेद बतलाये गये हैं उनमें से आहारक शरीर के योग्य ग्रहण वर्गणा तक के स्कन्धों में तो आठों स्पर्श पाये जाते हैं किन्तु उससे उत्पन्न करने वाला होने से कारण है। उससे छोटी कुमरी कोई वस्तु नहीं है, अत: वह अन्त्य है। सूक्ष्म है. नित्य है तथा एक रस, एक गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श वाला है। उसके कार्य को देखकर उसका अनुमान ही किया जा सकता है किन्तु प्रत्यक्ष नहीं होता है । परमाणु में शीत और उष्ण में से एक तथा स्निग्ध और रूक्ष में से एक, इस प्रकार दो स्पर्श होते हैं । १ कर्मग्रन्थ को स्वोपज टीका में लिखा है कि बृहत्शतक की टीका में बतलाया है कि कर्म स्कन्ध में मृदु और लघु स्पर्श तो अवश्य रहते हैं । इनके सिवाय स्निग्ध, उष्ण अथवा स्निग्ध, शीत अथचा रूक्ष, उष्ण अथवा क्ष, शीव में से दो स्वर्ण और रहते हैं। इसीलिये एक कर्मस्कन्ध में चार स्पर्श बतलाये जाते हैं । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्रस्थ २८१ ऊपर तैजसशरीर आदि प्रायोग्य वर्गणाओं के स्कन्धों में केवल चार ही स्पर्श होते हैं पञ्चरसपञ्चवणहि परिणमा अट्ठफास वो गंधा । जीयाहारगनोग्गा चउफासथिलेसिया जरि ।। अर्थात् जीव के ग्रहण योग्य औदारिक आदि वर्गणायें पांच रस, पांच वर्ण. आठ स्पर्श और दो गंध वाली होती हैं, किन्तु ऊपर की तंजस शरीर आदि के योग्य ग्रहण वर्गणायें चार स्पश वालो होती हैं । द्रव्यों के दो भेद हैं - गुरुलधुं और अगुरुलघु। इन दो भेदों में वर्गणाओं का बटवारा करते हा आवश्यक नियुक्ति में लिखा है ओरालयदम्वियाहारयतेम गुरुलहूवरना । कम्मगपणभासाई एयाई अगुरुलाई ॥४१॥ औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तेजस द्रव्य गृहलघु हैं और कार्मण, भाषा और मनोगव्य अग्रुलघु हैं। इन गुरुलघु और अगुरुलघु की पहिचान के लिये द्रध्यलोकप्रकाश सर्ग ११ श्लोक चौबीस' में लिखा है कि आठ स्पर्शवाला बादर रूपी द्रव्य गृहलघु होता है और चार स्पर्श वाले सूक्ष्म रूपी द्रव्य तथा अमुर्त आकाशादिक भी अगुरुलघु होते हैं। इसके अनुसार तंजस वगंणा के गुरुलघु होने से उसमें तो आठ स्पर्श सिद्ध होते हैं और उसके बाद की भापा, कर्म आदि वर्गओं के अगुरुलघु होने से उनमें चार स्पर्श माने जाते हैं । इस प्रकार से अभी तक जीव द्वारा ग्रहण किये जाने वाले कर्मस्कन्धों के स्वरूप की एक विशेषता बतलाई है कि 'अन्तिम चउफास --- - - १ पंचसंग्रह ४१० २ धादरमष्ठस्पर्श द्रव्यं प्यब भवति गुरुलघुकन् । अगुरुलघु चतुःस्पर्श सूक्ष्म वियदायमूर्तमपि ।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ मतक दुगंधपलबन्नरमझम्मनधदलं' वे कर्मस्कन्ध अन्तिम चार स्पर्श, दो गंध, पांच वर्ण और पांच रस वाले होते है। अब आगे उनकी दूसरी विगपना का वर्णन करते हैं कि वे कर्मस्कन्ध · मजियणंतगुणरनं मत्र जोबराशि से अनन्तगृणे रस के धारक होते हैं। यहां ग्स का अर्थ खट्टे, मीठे आदि पांच प्रकार के रम नहीं किन्तु उन कर्मस्कन्धों में शुभाशुभ फल देने को शक्ति है | यह रस प्रत्येक पुदगल में पाया जाता है । जिस तरह पुद्गल द्रव्य के सबसे छोटे अंश को परमाणु कहते हैं, उसी तरह शक्ति के सबसे छोटे अंश को रसाण कहते हैं । ये रमाण बुद्धि के द्वारा खण्ड किंत्र जाने से बनते हैं। क्योंकि जैसे पुद्गल द्वन्ध के स्कन्या के टुकड़े किये जा सकते है वैसे उसके अन्दर रहने वाले गुणों के टुकड़े नहीं किये जा सकते है। फिर भी हम दृश्यमान बस्तुओं में गणो को होनाधिकता को युद्ध के द्वारा महज में ही जान लेते हैं | जस कि मैंस, गाय और बकरी का दुध हमारे सामने रस्त्रा जाये तो उसकी परीक्षा कर कह देते हैं कि भैस के दूध में चिक्रालाई अधिक है और गाय के दूध में उसमे कम तथा बकरी के दूध में नो चिकनाई नही-जैसो है। इस प्रकार से बद्यपि चिकनाई गुण होने से उसके अलग-अलग खण्ड तो नहीं किये जा सकते हैं किन्तु उसकी तरतमता का ज्ञान किया जाता है | यह तरतमता ही इस बात को सिद्ध करती १ रमाणु को गुणाण या भावाणु भी कहते हैं और ये बुद्धि के द्वारा वण्ड किये जाने पर बनते हैं। जमा कि पचमग्रह में लिखा है..... पश्चण्ड सरीराणं परमाणण मईए अनिमागो। करिष्यमाणं गसो गुणाण भावाणु या हानि ।।४१७॥ पांच शरीरों के योग्य परमाणुओं की इस. शक्ति का बुद्धि के हाग खण्ड करने पर जो अविभागी एक अंश होता है, उसे गुणाणु या भावाणु कहते हैं। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २८३ है कि बुद्धि द्वारा गुणा के भी अंग हो सकने और उनके तरतम भाव का ज्ञान किया जाता है। इन गुणों के अंशों को रलाण कहते है। ये रसाणु भी सबसे जघन्य रम वाले पुद्गल द्रव्य में मर्व जोवराशि से अनन्तगणं होत है।' इसीलिए कर्मस्कन्ध को मर्व जोत्रराशि से अनन्तगृणं रसाणुओं से युक्त कहा है-अणुजुत्त' । घे रसाणु ही जीव के 'भात्रों का निमित्त पाकर कटुक या मधुर (अशुभ या शुभ) रूप फल देते हैं। ___ कर्मस्कन्धों की तीसरी विशेषता है कि अर्णतयपास एक-एक क्रमस्कन्ध अनन्त प्रदेशी होता है। ऐसा नहीं है कि कर्मस्कन्धों के प्रदेशों की संख्या निश्चित हो । किन्तु प्रत्येक कर्मस्कन्ध अनन्नानन्त प्रदेश वाला है. यानी वह अनन्न परमाणु वाला होता है । पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है कि जीव द्वारा ग्रहण किये जाने वाले कमस्कन्ध पौद्गलिक हैं और पौदगलिक होने से उनमें प, रस आदि पोद्गलिक गुण पाये जाते हैं। उनमें सर्व जीवराशि से भी अनन्तगणी फलदान शक्ति होती है तथा अनन्त प्रदेशी है । इस प्रकार जीव द्वारा ग्रहण करके योग्य कर्मस्कन्धों का स्वरूप जानना चाहिए। इस प्रकार कर्मस्कन्धों के स्वरूप का स्पष्टीकरण करने के बाद जीवम्मज्वमाया मुभामुमास लोयारिमाणा । सल्वजियाणतगुणा एकत्रको होति मावाण ।।- वचसाह १३६ अनुभाग के कारण जीव के कषायोदय रूप परिणाम दो तरह के होते हैं - शुभ और अगृभ । शुभ परिणाम अमन्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर होते हैं और अशुभ परिणाम भी उतने ही होते हैं। एक एक परिणाम द्वारा गहीत कर्म पुद्गलों मे सर्व जीवों में अनन्त गुणे भावाणु { रसाण) होते हैं। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अब यह बतलाते हैं कि जीवों द्वारा किस क्षेत्र में रहने वाले कर्मस्कन्धों को ग्रहण किया जाता है और ग्रहण करने की प्रक्रिया क्या है। प्रारम्भ में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि समस्त लोक पुद्गल. द्रव्य से ठसाठस भरा हुआ है और वह पुद्गल द्रव्य औदारिक आदि अनेक वर्गणाओं में विभाजित है और पुद्गलात्मक होने से ये समस्त लोक में पाई जाती है। उक्त वर्गणाओं में ही कर्मवर्गणा भी एक है, अतः कर्मवर्गणा भी लोकव्यापी है । इन लोकव्यापी कमवर्गणाओं में से प्रत्येक जोन उन्हों कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है जो उसके अत्यन्त निकट होती हैं . एगपएसोगाढं-यानी जीव के अत्यन्त निकटतम प्रदेश में व्याप्त कर्मबर्गणायें जीव द्वारा ग्रहण की जाती हैं। जैसे आग में तपाये लोहे के गोले को पानी में डाल देने पर वह अपने निकटस्थ जल को ग्रहण करता है किन्तु दूर के जल को ग्रहण नहीं करता है, वैसे ही जीव भी जिन आकाश प्रदेशों में स्थित होता हैं, उन्हीं आकाश प्रदेशों में रहने वाली कमंत्रगंणाओं को ग्रहण करता है तथा जीव द्वारा कर्मों के ग्रहण करने की प्रक्रिया यह है कि जैसे तपाया हुआ लोहे का गोला जल में गिरने पर चारों ओर से पानी को खींचता है वैसे ही जीव भी सर्व आत्मप्रदेशों से कर्मों को ग्रहण करता है। १ (क) एयखेत्तोगाढ सब्य पदेसेहि कम्मणी जोग्ग । बंधाम मगहेहि य अणादियं शादिय उभय 11 गो० कर्मकांड १८५ एक अभिन्न क्षेत्र में स्थिन कर्मरूप होने के योग्य अनादि, मादि और उभम रूप द्रव्य को यह जीव सब प्रदेशो में कारण मिलने पर बांधता है। (ख) रागपएसोगावे सबपए मेहि मणो जोगे। जीवो पोमालदचे गिपहई माई अणाई दा -पंचमग्रह २८४ एक क्षेत्र में स्थित कमरूप होने के योग्य मादि अथवा अनादि पुद्गल द्रश्य को गोव अपने समस्त प्रदेशों से ग्रहण करता है । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २८५ ऐसा नहीं होता है कि आत्मा के अमुक हिस्से से ही कर्मों का ग्रहण किया जाता हो। इसी बात को बतलाने के लिए गाथा में कहा हैनियस एस गइ जिउ-बानी जीव अपने अमुक हिस्से द्वारा ही किसी निश्चित क्षेत्र में स्थिति कर्मस्कन्धों का ग्रहण नहीं करके समस्त आत्म-प्रदेशों द्वारा कर्मों का ग्रहण करता है । इस प्रकार से जीव के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले कर्मस्कन्धों का स्वरूप और उनके ग्रहण करने की प्रक्रिया आदि का कथन करने के पश्चात अब आगे यह स्पष्ट करते हैं कि जीव द्वारा ग्रहण किये गये atra का किस क्रम से विभाग होता है । थेवो आज तदसो नामे गोए समो अहिउ ॥ ७६ ॥ विग्धावरणं मोहे सध्वोवरि वेवशोध जेणप्पे तस्स फुडनं न हबब टिईबिसेसेण सेसाणं ||८०|| शब्दार्थ... बेबी - सबसे आज आयुकर्म का अल्प, 1 तदसो - उसका अंश नामे नामकर्म का गोए- गोत्रकर्म का सो समान अहिउ विशेषाधिक, बिग्यावरण अन्तरायें और का मोहे मोह का सहयोवरि सबसे अधिक, वेय गौय वेदनीय कर्म का, जेण जिस कारण मे अप्पे अल्पदलिक लस्स होने पर अनुभत्र लब नं. साणं 회 --- — - उसका ( वेदनीय का) फुडत नहीं होता है, सिविसेसेण कर्मों का । -- - - - स्पष्ट रीति से स्थिति की अपेक्षा थोड़ा है। नाम किन्तु आयुकर्म आयुकर्म का हिस्सा सबसे और गांव कर्म का भाग आपस में समान है के भाग से अधिक है, अन्तराय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण का हिस्सा आपस में समान है किन्तु नाम और गोत्र के हिस्से से अधिक है। मोहनीय का हिस्सा उससे अधिक है और Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सबसे अधिक वेदनीय कर्म का भाग है। क्योंकि थोड़े द्रव्य के होने पर वेदनीय कर्म का अनुभव स्पष्ट रीति स नहीं हो सकता है । वेदीय की अलावा प माता कमां को अपनीअपनी स्थिति के अनुसार भाग मिलता है। विशेषार्य इस नाया में जीव द्वारा ग्रहण किये गमे कमस्कन्धों का ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों में विभाजित होने को बतलाया है । जिम प्रकार भोजन के पेट में जाने के बाद कालक्रम से बह रस, रुधिर आदि रूप हो जाता है, उसी प्रकार जीव द्वारा प्रति समय ग्रहण की जा रही कर्मवर्गणायें भी उसी समय उतने हिस्सों में बंट जाती हैं जितने कर्मो का बंध उम ममय उस जोव ने किया है । पूर्व में यह बतलाया जा चुका है कि प्रति समय जीव द्वारा कर्मस्कन्धों का ग्रहण होता रहता है, लेकिन यह भी स्पष्ट किया है कि आवृकम का बंध सर्वदा न होकर भुन्यमान आयु के विभाग में होता है तथा वह भी अन्तमुहुर्त तक होता है । इन विभागों में भी वैध न हो तो अन्तमुहूर्त आयु मेष रहने पर अवश्य भी पर भव की आयु का बंध हो जाता है । अतः जिस समय जीव आयुकर्म का बंध करता है उस समय तो ग्रहण किये जाने वाले कर्मस्कन्ध आयुकर्म सहित ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों में विभाजित हो जाते हैं यानी उनके आठ भाग हो जाते है और जिस समय आयु का वैध नहीं होता है, उस समय ग्रहण किये गये कमर कन्ध आयुकर्म को छोड़कर शेष झानावरण आदि सात कर्मों में विभाजित होने है । यह तो हुआ एक सामान्य नियम । लेकिन गुणस्थानकमारोहण के समय जब जीव दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है तब आयु और मोहनीय कर्म के सिवाय शेष छह कर्मों का बंध करता है । अतः उस समय गृहीत कर्मम्कन्ध सिर्फ छह कर्मों में ही विभाजित Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम बर्मग्रन्स २८७ होते हैं और ग्यारहवें आदि गुणस्थानों से एक सातावेदनोय कर्म का बंध होता है । अतः उस समय ग्रहण किये हए कर्मस्कन्ध उस एक कर्म रूप ही हो जाते हैं। इस प्रकार ग्रहण किये हुए कर्मस्कन्धों का आठों कर्मों में विभाजित होने का क्रम समझना चाहिये। अब प्रत्येक कर्म को मिलने वाले हिस्से का स्पष्टोकरण करते हैं कि अपनी-अपनी कालस्थिति के अनुसार प्रत्येक कर्म को ग्रहण किये हाए कर्मस्कन्धा का हिस्सा मिनता है। यानी जिस कर्म की स्थिति कम है तो उसे कम और अधिक स्थिति है तो उसे अधिक हिम्सा मिलेगा । लकिन यह मामान्य नियम वेदनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों पर लागू होता है। वेदनीय कर्म को अधिक हिस्सा मिलने के कारण को आगे स्पष्ट किया जा रहा है। सबसे कम स्थिति आयुकर्म की होने से सर्वप्रथम आयुकम से कर्मम्कन्धों के विभाजन को स्पष्ट किया जा रहा है कि 'थेवो आउ' आयुकर्म का भाग सबस थोड़ा है। इसका कारण यह है कि आयुकर्म की स्थिति सिर्फ तेतीस सागर है जबकि नाम, गोत्र आदि शेष सात कर्मों में से किसी की बीस कोड़ाकोड़ी सागर, किसी को नीम कोड़ाकोड़ी सागर और किसी की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की उत्कृष्ट स्थिति है । अतः अन्य कर्मों की स्थिति की अपेक्षा आयुकम की स्थिति सबसे कम होने से आयुकर्म को ग्रहण किये गये कर्मस्कन्धों का सबस कम भाग मिलता है। आयुक्रम से नाम और गोत्र कर्म का हिस्सा अधिक है। क्योंकि आयुकर्न की स्थिति तो सिर्फ तेतीस सागर हो है, जबकि नाम और गोत्र कर्म की स्थिति बोस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण है । नाम और गोत्र कर्म की स्थिति समान है अतः उन्हें हिस्सा भी बराबर-बराबर मिलना है-नामे गोए समो। अन्तराय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मों को नाम Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वय छाल के और गोत्र कर्म से अधिक हिस्सा मिलता है | क्योंकि नाम और गोत्र कर्म की स्थिति तो बीस-बीस कोड़ाकोड़ी सागर है जबकि अन्तराय आदि तीन कर्मों में से प्रत्येक की स्थिति तीस-तीस कोड़ाकोड़ी सागर है । लेकिन इन तीनों कर्मों की स्थिति समान होने से उनका भाग आपस में बराबर-बराबर है । इन तीनों कर्मों से मोहनीय कर्म का भाग अधिक है, क्योंकि उसकी स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की हैं । . इस प्रकार वेदनीय कर्म के सिवाय शेष सात कर्मों को उनकी स्थिति के अनुसार क्रमशः अधिक पुद्गलस्कन्धों के प्राप्त होने को बतलाया | अब वेदनीय कर्म को अधिक द्रव्य मिलने के कारण को स्पष्ट करते हैं मन्वोवर वेयणीय । क्योंकि बहुत द्रव्य के बिना वेदनीय कर्म के सुख-दुःख आदि का अनुभव स्पष्ट नहीं होता है । अल्प द्रव्य मिलने पर बेदनीय कर्म अपने सुख-दुःख का वेदन कराने रूप कार्य करने में समर्थ नहीं होता है— जेणप्पे तस्स फुडत्त न हवई । किन्तु अधिक द्रव्य मिलने पर ही वह अपना कार्य करने में समर्थ है।' बेदनीय कर्म को अधिक द्रव्य मिलने का कारण यह है कि सुख-दुःख के निमित्त से वेदनीय कर्म की निर्जरा अधिक होती है । अर्थात् प्रत्येक जीव प्रतिसमय सुख-दुःख का वेदन करता है, जिससे वेदनीय कर्म का उदय प्रतिक्षण होने से उसकी निर्जरा भी अधिक होती है । इसी १ क्रममो बुड्ढठिणं भागो दलिगस्स होड सर्विसो । तइयम्य मच्चजट्टो लस्म फुडतं ॥ - पंचसंग्रह २०५ अधिक स्थिति वाले कर्मो का भाग कम से अधिक होता है किन्तु वेदनीय का भाग सबसे ज्येष्ठ होता है क्योंकि अल्प दस होने पर उसका व्यक्त अनुभव नहीं हो सकता है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्भग। २८६ लिए उसका द्रव्य सबसे अधिक होता है। इसी से वेदनीय कर्म की स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर होने पर भी उसे सबसे अधिक भाग मिलता है। इस प्रकार से मूल प्रकृतियों में कर्मस्कन्धों के विभाग को बतला. कर अब आगे की गाथा में उत्तर प्रकृतियों में उसका क्रम बतलाते हैं । नियजाइलद्धवलियागंतसो होइ सम्वघाईण । बज्मतीण विमज्जई सेसं सेसाण पइसमयं ॥१॥ शब्दार्थ --नियजाइलबदलिय --अपनी मूल प्रकृति रूप जाति द्वारा प्राप्त किये गये कम दलिकों का, अशंसंसो-अनन्तवा भाग, होई—होना है, सव्वघाई-सर्वघाती प्रकृतियो का, बज्झतीणबंधने वाला, विमान-विभाजित होता है. सेस शेष भाग, सेसाण- बाकी की प्रकृतियों में, पइसमयं-प्रत्येक समय में । __ गाथार्य--अपनी-अपनी मूल प्रकृति द्वारा प्राप्त किये गये कर्मदलिकों का अनन्तवां भाग सर्वघाति प्रकृतियों को प्राप्त होता है और शेष बना हुआ हिस्सा प्रतिसमय बंधने वाली प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है। विशेषार्थ-गाथा में यह बताया गया है कि मूल कर्मप्रकृतियों को प्राप्त होने वाला पुद्गल द्रव्य ही उन-उन कर्मों की उत्तर प्रकृतियों में विभाजित होकर उन्हें प्राप्त होता है। क्योंकि उत्तर प्रकृतियों के १ सहकणिमित्तादो बहुणिज्जर गोत्ति धेरणीयम्म । नवेदितो वहग दल होदित्ति णिष्टुिं ।। गो० कर्मकांड १६३ ३ स्थिति के अनुमार कनों को अल्प व अधिक भाग मिलने की रीति को गोर कर्मकार में स्पष्ट किया गया है। उमको जानकारी परिशिष्ट में दो गई है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवाय मूल प्रकृति नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिये कि जिस प्रकार गृहीत पुद्गल द्रव्य उन्हीं कर्मों में विभाजित होता है जिन कर्मों का उस समय बंध होता है, उसी प्रकार प्रत्येक मूल प्रकृति को जो भाग मिलता है, वह भाग भी उसको उन्हीं उत्तर प्रकृतियों में विभाजित होता है, जिनका उस समय बंध होता है और जो प्रकृतियां उस समय नहीं बंधतो हैं, उनको उस समय भाग भी नहीं मिलता है। सानावरण आदि आठ मूल कर्मों में से पानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार धातिकर्म है और वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र यह चार अघातिकर्म हैं । घातिकमों को कुछ उत्तर प्रकृतियां सर्वघातिनी होती हैं और कुछ देशघातिनी । गाथा में सर्वघातिनी और देशधातिनी प्रकृतियों को लक्ष्य में रखकर प्राप्त द्रव्य के दिमाग को बतलाया है कि-अणंतसो होई सव्वघाईणं-घातिकों को जो भाग प्राप्त होता है, उसका अनन्तवां भाग सर्वघातिनी प्रकृतियों में और शेष बहुभाव बंधने वाली देशवाति प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है'-बझंतीण विभज्जइ सेसं सेसाण पइसमयं । ज समय मावश्याई कंधए ताण एरिस बिहीए। पत्तय पत्तेयं भागे निम्बसए जीवो ।। -पंचसंग्रह २८६ २ (क) जं सचघातिपत्त सगकम्मपएसणंतमो भागो । आवरणाण चउछ। तिहा य अह पंचहा विग्धे ।। -कर्मप्रकृति, बंधनकरण, पा० २५ जो कर्मदलिक सर्वघाति प्रकृतियों को मिलता है, वह अपनीअपनी मूल प्रकृति को मिलने वाले भाग का अनन्तना भाग होता है और शेष इन्य का बटवारा देशघातिनी प्रकृतियों में हो जाता है । अतः ज्ञानाव रण का शेष दध्य चार भागो में विभाजित होकर उसकी बार देश (मेष अगले पृष्ठ पर देखें) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ २६५ इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि ज्ञानावरण को उत्तर प्रकृतियां पांच हैं । उनमें से केवलज्ञानावरण प्रकृति सर्वघातिनी है और शेष चार देशघातिनी हैं । अतः जो पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरण रूप परिणत होता है। उसका अनन्तवा भाग सर्वघाती है अतः वह केवलज्ञानावरण को मिलता है और शेष देशघाती द्रव्य चार देशघाती प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है । दर्शनावरण की उत्तर प्रकृतियां नौ हैं। उनमें केवलदर्शनावरण और निद्रा आदि स्त्याद्धि पर्यन्त पांच निद्रायें सर्वघातिनी हैं और शेष तीन प्रकृतियां देशघातिनी हैं। अतः जो द्रव्य दर्शनावरण रूप परिणत होता है उसका अनन्तवां भाग सर्वधाति होने से वह छह सर्वघातिनी प्रकृतियों में बंट जाता है और शेष द्रव्य तीन देशघातिनी प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है । ___मोहनीय कर्म को जो भाग मिलता है, उसमें अनन्तवा भाग सर्वघाती है और शेष देशघाती द्रव्य है। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं--दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय, अतः प्राप्त सर्वनाती द्रव्य के भी दो भाग हो जाते हैं । उसमें से एक भाग दर्शनमोहनीय को मिल जाता घातिनी प्रकृतियों को और दर्शनावरण का शेष द्रव्य तीन भागों में विभाजित होकर उसकी तीन देशथतिनी प्रकृतियों को मिल जाता है किन्तु अन्तराय फर्म को मिलने वाला भाग पूरा का पूरा पांच भागों में विभाजित होकर उसकी पांचों देशघातिनी प्रकृतियों को मिलता है, क्योंकि अन्तराय की कोई भी प्रकृति सर्वघानिनी नहीं है । (ख) सबुक्कोसरतो जो मुलविभागस्सणं तिमो भागो । सम्बधाईण दिजा मो इयरो देसघाणं ।। -पंचसंग्रह ४३४ म्ल प्रकृति को मिले हुए भाग का अनन्तवा भाग प्रमाण जो उत्कृष्ट रस वासा दम्य है, वह सर्वशासिनी प्रकृतियों को मिलता है और शेष मयुरकष्ट रसबासा समातिनी महतियों को दिया जाता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ शतक और दूसरा भाग चारित्रमोहनीय को । दर्शनमोहनीय को प्राप्त पूरा भाग उसकी उत्तर प्रकृति मिथ्यात्व को हो मिलता है, क्योंकि वह सर्वघातिनी है। किन्तु चारित्रमोहनीय के प्राप्त भाग के बारह भेद होकर अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानाधरण कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुप्क, इन बारह भागों में बंट जाता है । मोहनीय कर्म के देशघाती द्रव्य के दो भाग होते हैं। उनमें से एक भाग कषायमोहनीय का और दूसरा नोकषाय मोहनीय का होता है । कषायमोहनीय के द्रव्य के चार भाग होकर संचलन क्रोध, मान, माया और लोभ को मिल जाते हैं और नोकषाय मोहनीय के पांच भाग होकर क्रमशः तीन वेदों में से किसी एक बध्यमान वेद को, हास्य और रति के युगल तथा शोक और अरति के युगल में से किसी एक युगल को (युगल में से प्रत्येक को एक भाग) तथा भय और जुगुप्सा को मिलते हैं।' १ (क) उक्कोस रसस्सद मिन्छ अद्ध तु इयरघाईगं । संजलण नोकसाया सेसं अदद्धयं लेति ।। –पत्रसंग्रह ४३५ मोहनीय कर्म के सर्वघाति द्रव्य का आधा भाग मिसात्य को मिलता है और आधा भाग बारह कषायों को। शेष देशघाति द्रष्य का आधा भाग संज्वलन कषाय को और माधा भाग नोकषाय को मिलता है। (ख) मोहे दुहा चउद्धा य पंचहा वावि बज्ममाणीणं ।। -कर्मप्रकृति, बंधनकरण २६ स्थिति के प्रतिभाग के अनुसार मोहनीय को जो भाग मिलता है उसके अनन्तवें भाग सर्वधाति द्रव्य के दो भाग क्रिये आते हैं। आधा भाग दर्शन मोहनीय को और आधा भाग चारित्रमोहनीय को मिलता है। शेष मूल भाग के भी दो माग किये जाते हैं, उसमें से भाषा भाग कषाय (ोष मगले पृष्ठ पर देखें) Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्य अन्तराय कर्म को प्राप्त भाग पांच विभागों में विभाजित होकर उसकी दान-अन्तराय आदि पांचों उत्तर प्रकृतियों को मिलता है। क्योंकि अन्तराय कर्म देशघाती है और ध्रुवबंधी होने के कारण दानान्तराय आदि पांचों प्रकृतियां सदा बंधती हैं। धातिकर्मों की उत्तर प्रकृतियों में प्राप्त द्रव्य के विभाजन को बतलाने के पश्चात अब वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्मों को प्राप्त भाग के विभाग को स्पष्ट करते हैं। वेदनीय कर्म की दो उत्तर प्रकृतियां हैं, किन्तु उनमें से प्रति समय एक ही गादि मा बंध होता है, अतः वेदगेय कर्म को जो दव्य मिलता है वह उस समय बंधने वाली एक प्रकृति को मिलता है। इसी प्रकार आयुकर्म के बारे में भी समझना चाहिए कि आयुकर्म की एक समय में एक ही उत्तर प्रकृति बंधती है तथा आयुकर्म को जो भाग मिलता है वह उस समय बंधने वाली एक प्रकृति को ही मिल जाता है। नामकर्म को जो मूल भाग मिलता है वह उसकी बंधने वाली उत्तर प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है । अर्थात् गति, जाति, शरीर, उपांग, बंधन, संघात, संहनन, संस्थान आनुपूर्वी, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उद्योत, उपघात, उच्छ्वास, निर्माण, तीर्थकर, आतप, विहायोगति और सदशक अथवा स्थावरदशक में से जितनी प्रकृ मोहनीय को और आधा भाग नोकपाय मोहनीय को मिलता है। कषायमोहनीय को मिलने वाले भाग के पुनः चार भाग होते है और वे चारों भाग संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ को दिये जाते हैं । नोकषाय मोहनीय के पांच भाग होते हैं । जो तीन वेदों में से किसी एक वेद को, हास्य-रनि और शोक-अरति के युगलों में से किसी एक युगल को, प्रय और जुगुप्सा को दिये जाते हैं। क्योंकि एक समय में पांचों ही नोकषाय कां बध होता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · २२४ तियों का एक समय में बंध होता है, उतने भागों में वह प्राप्त द्रव्य बंट जाता है । शत उक्त प्रकृतियों में से कुछ एक के बारे में विशेषता यह है कि वर्णचतुष्क को जिग्ना जितना भाग मिलता है वह उनके अवान्तर भेदों में बंट जाता है । जैसे वर्ण नाम को मिलने वाला भाग उसके पांच भागों में विभाजित होकर शुक्ल आदि भेदों में बंट जाता है। इसी तरह गंध, रस और स्पर्श के अवान्तर भेदों के बारे में भी समझना चाहिए कि उन उनको प्राप्त भाग उनके अवान्तर भेदों में विभाजित होता है । संघात और शरीर नामकर्म को जो भाम मिलता है वह तीन या चार भागों में विभाजित होकर संघात और शरीर नाम की तीन या चार प्रकृतियों को मिलता है । संघात और शरीर नाम के तीन या चार भागों में विभाजित होने का कारण यह है कि यदि सौदारिक, तैजस और कार्मण अथवा वैक्रिय, तेजस और कार्मण इन तीन शरीरों और संघातों का एक साथ बंध होता है तो तीन भाग होते हैं और यदि वैकिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर तथा संघात का बंध होता है तो चार विभाग हो जाते हैं । बंधन नाम को प्राप्त होने वाले भाग के यदि तीन शरीरों का बंध हो तो सात भाग होते हैं और यदि चार शरीरों का बंध हो तो ग्यारह भाग होते हैं। सात और ग्यारह भाग इस प्रकार जानना चाहिए कि ओदारिक औदारिक, औदारिक-तैजस, औदारिकं कार्मण, औदारिकतैजस- कार्मण, तेजस तेजस, तैजस- कार्मण और कार्मण-कार्मण इन सात बंधनों का बंध होने पर सात भाग अथवा वैक्रिय- वैक्रिय, वैक्रियतेजस, वैक्रिय - कार्मण, वैक्रिय तैजस- कार्मण, तेजस तेजस, तेजस - कार्मण और कार्मण कार्मण, इन सात बंधनों का बंध होने पर सात भाग होते हैं और वैक्रियचतुष्क, आहारकचतुष्क तथा तेजस और कार्मण के तीन इस प्रकार ग्यारह बंधनों का बंध होने पर व्यारह भाग होते हैं । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ २१५ इसके सिवाय नामकर्म की अन्य प्रकृतियों में कोई अवान्तर विभाग नहीं होने से जो भाग मिलता है वह पूरा बंधने वाली उस एक प्रकृति को ही मिल जाता है। क्योंकि अन्य प्रकृतियां आपस में विरोधिनी हैं अतः एक का बंध होने पर दूसरी का बंध नहीं होता है । जैसे कि एक गति का बंध होने पर दूसरी गति का बंध नहीं होता है । इसी तरह जाति, संस्थान और संह की एक में एक सी और सदशक का बंघ होने पर स्थावरदशक का बंध नहीं होता है। गोत्रकर्म को जो भाग मिलता है, वह सबका सब उसकी बंधने बाली एक ही प्रकृति को मिलता है, क्योंकि गोत्रकर्म की एक समय में एक ही प्रकृति बंधती है । " इन बंधने वाली प्रकृतियों के विभाग क्रम में से जब अपने-अपने गुणस्थानों में किसी प्रकृति का बंधविच्छेद हो जाता है तो उसका भाग सजातीय प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है और यदि सजातीय 1 १ वेदनीय, आयु, गोत्र और नाम फर्म के द्रव्य का बटवारा उनकी उतर प्रकृतियों में करने का क्रम कर्मप्रकृति में इस प्रकार बतलाया हैवेणिमगोत्सु बज्झमाणीण भागो सि || पिपगतीसु बज्झतिगाण वनरसगंधफासाणं | सम्वासि संघात तशुम्मि य तिगे चउक्के वा ॥ बंधनकरण ग० २६, २७ वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म को जो मूल भाग मिलता है, वह उनकी बंधने वाली एक-एक प्रकृति को ही मिल जाता है, क्योंकि इन कम की एक समय में एक ही प्रकृति बंधती है। नामकर्म को जो भाग मिलता है, वह उसकी बनते बालो प्रकृतियों का होता है। वर्ण, गंध, रस और स्पर्धा को जो भाग मिलता है, वह उनको सब अवान्तर प्रकृतियों को मिलता है | संघास और शरीर को जो भाग मिलता है, वह तीन मा चार बानों में बंट जाता है। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ शतक प्रकृति का भी बंधविच्छेद हो जाये तो उनके हिस्से का द्रव्य उनकी सूल प्रकृति के अन्तर्गत विजातीय प्रकृतियों को मिलता है । यदि उन विजातीय प्रकृतियों का भी बंध रुक जाता है तो उस मूल प्रकृति को द्रव्य न मिलकर अन्य मूल प्रकृतियों को द्रव्य मिल जाता है । जैसे कि स्त्यानद्धित्रिक का बंधविच्छेद होने पर उनके हिस्से का द्रव्य उनकी सजातीय प्रकृति निद्रा और प्रत्रला को मिलता है और निद्रा व प्रचला का भी बंधविच्छेद होने पर उनका द्रश्य अपनी ही मूल प्रकृति के अन्तर्गत चक्षुदर्शनावरण आदि विजातीय प्रकृतियों को मिलता है। उनका भी बंधविच्छेद होने पर ग्यारहवें आदि गृणस्थानों में सब द्रव्य सातावेदनीय को ही मिलता है । इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों के बारे में भी समझना चाहिए । सारांश यह है कि किसी प्रकृति का बंध. विच्छेद होने पर उसका भाग समान जातीय प्रकृति को मिल जाता है और उस समान जातीय प्रकृति का भी बंधविच्छेद होने पर मूल प्रकृति के अन्तर्गत सनकी विजातीय प्रकृतियों का मिलता है। यदि उस मूल प्रकृति का ही विच्छेद हो जाये तो विद्यमान अन्य मूल प्रकृतियों को यह द्रव्य प्राप्त होने लगता है। इस प्रकार बताई गई रीति के अनुसार मूल और उत्तर प्रकतियों को कर्मलिक मिलते हैं' और गुणोणि रचना के द्वारा ही जीव उन कर्मदलिकों के बहुभाग का क्षपण करता है । अतः अब आगे गुणश्रेणि का स्वरूप, उसकी संख्या और नाम बतलाते हैं । सर्वप्रथम गुणश्रोणि की संख्या और नामों को कहते हैं कि-- १ गो. कर्मकांड गा. १९६ से २०६ तक उत्तर प्रकृतियों में पुद्गल द्रव्य के बटवारे का वर्णन किया है तथा कर्मप्रकृति (प्रदेशबन गा २८) में दलिकों के विभाग का पूरा-पूरा विवरण तो नही दिया है। किन्तु उत्तर प्रकृतियों में कमलिकों के विभाग की होनाधिकता बतलाई है। उक्त दोनों बन्धों का मंतव्य परिशिष्ट में दिया गया है । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ सम्मदरसम्वविरई अविसंजोयसखवगे हैं। मोहसमसंतखबगे खीणसजोगियर गुणसेढो 11 शब्दार्थ -सम्मदरसम्वविरई - सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविति, अविसजोय --अनन्तानुबन्धी का विसयोजन, दसखयो.... दर्शनमोहनीय का क्षपण, मोहसम-मोहनीय का उपशमन, संतउपशाम्तमोह, खरगे मरण, खीण - क्षीणमोह सजोगियर-- सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, गुणसेठी-- गुणश्रेणि । गाथार्थ - सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति, अनन्तानुबंधी का विसंयोजन, दर्शनमोहनीय का क्षपण, चारित्रमोहनीय का उपशमन, उपशान्तमोह, क्षपण, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये गुणनेणियां हैं। विशेषार्थ -- यद्यपि बद्ध कर्मों की स्थिति और रस का घात तो बिना वेदन किये ही शुभ परिणामों के द्वारा किया जा सकता है किन्तु निर्जरा के लिये उनका बेदन होना जरूरी है यानी कर्मों के दलिकों का वेदन किये बिना उनकी निर्जरा नहीं हो सकती है। यों तो जीव प्रतिसमय कर्मदलिकों का अनुभवन करता रहता है और उससे निर्जरा होती है । कर्मों की इस भोगजन्य निर्जरा को औपक्रमिक निर्जरा अथवा सविपाक निर्जरा कहते हैं । किन्तु इस तरह से एक तो परिमित कर्मदलिकों को ही निर्जरा होती है और दूसरे इस भोगजन्य निर्जरा के साथ नवीन कर्मों के बंध का क्रम भी चलता रहता है । अर्थात् इस भोगजन्य निर्जरा के द्वारा नवीन कर्मों का बंध होता रहता है, जिसके कर्मनिर्जरा का वास्तविक रूप में फल नहीं निकलता है, जोव कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाता है। अतः कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक कर्मपरमाणुओं का क्षय होना आवश्यक है और उत्तरोत्तर उनकी संख्या बढ़ती ही Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पातक जानी चाहिये । अल्पसमय में उत्तरोत्तर कर्मपरमाणुओं की अधिकसे-अधिक संख्या में निर्जरा होने को गुणधोणि निर्जरा कहते हैं । इस प्रकार की निर्जरा तभी हो सकती है जब आत्मा के भावों में उत्तरोत्तर विशुद्धि की वृद्धि होती है। उत्तरोत्तर विशुद्धि स्थानों पर आरोहण करने से ही अधिक-से-अधिक संख्या में निर्जरा होती है। ___ गाथा में विशुद्धिस्थानों के क्रम से नाम कहे हैं। जिनमें उत्तरोत्तर अधिक अधिक निर्जरा होती है। ये स्थान गुणणि निर्जरा अथवा गुणणि रचना का कारण होने से गुणधोणि कहे जाते हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं १ सम्यक्त्व (सम्यक्त्व की प्राप्ति होना), २ देशविरति, ३ सर्वविरति, ४ अनंतानुबंधी कषाय का विसंयोजन, ५ दर्शनमोहनीय का क्षपण, ६ चारित्रमोह का उपशमन, ७ उपशांतमोह, ८ क्षपण, क्षीणमोह, १० सयोगिकेवली और ११ अयोगिकेवली।' इनका संक्षेप में अर्थ इस प्रकार है कि जीव प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये अपूर्वकरण आदि करण करते समय असंख्यातगुणो. संमत्तदेस उन्नझिरपतिमण घिसंजोगे । दंपणखवणे मोहस्म समणे उपमंत खबगे य॥ खीणाइनिगे असंखगुणियगुणसे द्विदलिय जहमसो। ममताहणेक्कारसह कालो उ संबंसे ।। -पंजसपाह १४,११५ मम्यस देशविरति और संम्पूर्ण विरति की उत्पत्ति में, अनन्तानुबन्धो के विसंयोजन में, वर्शनमोहनीय के क्षपण में, मोहनीय के उपगमन में, उपशान्तभोह में, आपक श्रेणि में और मीणकषाय आदि तीन गुणस्थानो में असंच्यात गुणे. असंख्यातगुणे दलिकों की गुणश्रेणि रचना होती है तथा माया आदि म्यारह गुणश्रेणियों का कालक्रमण: प्रख्यात माग,सल्याचे Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकर्मपथ REE असंख्यातगुणी निर्जरा करता है तथा सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद भी उसका क्रम चालू रहता है। यह पहली सम्यक्त्व नाम की गुणश्रेणि है। आगे की अन्य गुणश्र ेणियों की अपेक्षा इस श्र ेणि में सम्यक्त्वप्राप्ति के समय में - मंद विशुद्धि रहती हैं अतः उनकी अपेक्षा से इसमें कम कर्मदलिकों की गुणश्र ेणि रचना होती है किन्तु उनके वेदन करने का काल अधिक होता है । परन्तु सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व की स्थिति की अपेक्षा कर्मदलिकों की संख्या अधिक और समय कम समझना चाहिये । इस सभ्यक्त्व नाम की प्रथम गुणश्रोणि को कर्मनिर्जरा का बीज कह सकते हैं । सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् जीव जब विरति का एकदेश पालन करता है तब देशवित नाम की दूसरी गुण णि होती है। इसमें प्रथम श्र ेणि की अपेक्षा असंख्यात गुणे अधिक कर्मदलिकों की गुणणि रचना होती है और वेदन करने का समय उससे संख्यात गुणा कम होता है । सम्पूर्ण विरति का पालन करने पर तीसरी गुणश्र ेणि होती है । देशविरति से इसमें अनन्त गुणी विशुद्ध होती है जिससे । इसमें पूर्व की अपेक्षा असंख्यात गुणे अधिक कर्मदशिकों की गुणश्र ेणि रचना होती है किन्तु उसके वेदन करने का समय उससे संख्यात गुणा हीन होता है। जब जीव अनन्तानुबंधी कषाय का विसंयोजन करता है अर्थात् अनन्तानुबंधी कषाय के समस्त कर्मदलिकों को अन्य कषाय रूप परिणमाता है तब चौथी गुणश्रेणि होती है। दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों - सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व – का विनाश करते समय पांचवी दर्शनमोहनीय का क्षपण गुणश्रेणि होती है। आठवें नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय का उपशमन करते समय चारित्रमोहनीय का उपशमन नामक छठी गुणश्र णि Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० होती है। उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में सातवीं गुणश्र ेणि और क्षपकश्रेणि में चारित्रमोहनीय का क्षपण करते हुए आठवीं गुण षि होती है। क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में नौवीं गुण णि, सयोगिकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में दसवीं गुणश्रेणि और अयोगिकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में ग्यारहवीं गुणश्र ेणि होती है ।" शतक इन सभी गुणधणियों में क्रम से उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे, असं ख्यातगुणे कर्म दलिकों की गुणश्र ेणि निर्जरा होती है किन्तु उसके बेदन करने का काल उत्तरोतर मंत्र्यावरुणा संग लगता है अर्थात् कम समय में अधिक-अधिक कर्मदलिकों का क्षय होता है । इसीलिये इन ग्यारह स्थानों की गुण णिस्थान कहते हैं । 1 · + १ गो० जीवकांड में भी गुणश्रेणियों की गणना इस प्रकार की है— सम्मत्तुष्वतीय सावयविर दे अनंत कसे ! दंसणमोहक्खवगे कषायजवसामागे म उयते ॥ ६६ ॥ खवगे य खीणमोहे जिणेसु दच्चा असंखगुणिदक्रमा । तविवरीया काला सखेज्जगुणक्कमा होति ||६७ || सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने पर श्रावक के मुनि के अनन्तानुबन्धी कषाय का विसयोजन करने की अवस्था में दर्शनमोह का अपण करने वाले के कषाय का उपशम करने वाले के, उपशान्त मोह के, अपक श्रेणि के तीन गुणस्थानों मे, श्रीणमोह गुणस्थान में तथा स्वस्थान केवलों के और समुद्घात करने वाले केवली के गुणश्रेणि निर्जरा का द्रव्य उत्तरोत्तर असख्यातगुणा, असख्यातगुणा है और काल उसके विपरीत है अर्थात् उतरोतर संख्यातगुणा, संख्यातगुणा काल लगता है - काल उत्तरोत्तर सख्यात गुणहीन है । . कर्मग्रंथ से इसमें केवल इतना ही अन्तर है कि अयोगिकेवली के स्थान पर समुदात के वली को गिनाया है। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम कर्मरन्य इन गुणश्रेणियों' का यदि गुणस्थान के क्रम से विभाग किया __ जाये तो उनमें चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के सभी गृणस्थान तथा सम्यक्त्वप्राप्ति के अभिभुख मिथ्यादृष्टि भी संमिलित हो जाते हैं । विशुद्धि की वृद्धि होने पर ही चौथे, पांचवें आदि गुणस्थान होते हैं । अतः आगे-आगे के गुणस्थानों में जो उक्त गुणश्रेणियां होती हैं, उनमें अधिक-अधिक विशद्धि होना स्वाभाविक है । ___इस प्रकार गुणश्रेणियों के ग्यारह स्थानों को बतलाकर अब आगे की माथा में गुणश्रेणी का स्वरूप तथा गुणश्रणियों में होने वाली निर्जरा का कथन करते हैं। गुणसेही बलरयणाऽणुसमयमुश्यारसंखगुणणाए। एयगृणा पुण कमसो असंखगुणनिजरा जीवा ।।३।। शब्दार्थ-गुणसेती-गुणाकारप्रदेशों की रचना, बलरपणाऊपर की स्थिति से उतरते हुए प्रदेशाग्र की रचना, अगसमय.... प्रत्येक समय की, उदयाद-उदम क्षण से, असंखगुणणाए---असख्य गुणना से, एमगुणा—ये पूर्वोक्त गुण बाले, पुण–पुनः, समसो १ (क) तत्वार्थसूत्र ६।४५ में गुणणियों के नाम इस प्रकार बतलाये हैं -- सम्बाहष्टिनावकविरतानन्तवियोजकदर्शन मोहनपकोपशमकोपशान्तमोदृक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येय गुणनिराः । इसमें मयोगि. अयोगि केवली के स्थान पर सिर्फ 'जिन' को रखा और टीकाकागं ने उसे एक ही स्थान गिना है। (ख) स्वामी कातिकेयानृप्रेक्षा में सयोगि और अोगिको गिनाया अवगो य खीणमोहो सोइणाहो तहा अजोईया | एदे उरि उमरि असंखगुणकम्मणिज्जरया ।।१०।। किन्तु इसको संस्कृत टीका में केवली और समृद्घात केवलो को गिनामा है और 'अषोईमा' को उन्होंने छोड़ दिया है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम से, असंखगुणनिजमरा असंख्यात गुण निरा वाले, जीपा-जीव । गापार्ष-ऊपर की स्थिति से उदय क्षण से लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे कर्मदलिकों की रचना को गुणश्रोणि कहते हैं तथा पूर्वोक्त सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति आदि गुण वाले जीव अनुकम से असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा करते है । विशेषार्थ--गाथा के पहले चरण में गुणश्रीणि का स्वरूप और दूसरे चरण में पूर्व गाथा में बतलाये गये गुणधीणि वाले जीवों के कर्मनिर्जरा का प्रमाण बतलाया है। पूर्व में जो सम्यक्त्व, देशविरति आदि ग्यारह नाम बतलाये हैं वे । तो स्वयं गुणणि नहीं हैं किन्तु उन उनमें क्रम से असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा होने से गुणश्रोणि के कारण हैं । अतः करण में कार्य का उपचार करके उन्हें गुणणि कहा जाता है। गुणश्रोणि तो एक क्रियाविशेष है जो इस गाथा में बतलाई गई है-गुणसेढी दलरयणा .."। ___ इस क्रिया का प्रारम्भ सम्यक्त्व प्राप्ति से होता है। अतः सर्वप्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बारे में विचार करते हैं। पहले यह बताया जा चुका है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए जोव यथाप्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन करणों को करता है। अपूर्वकरण में प्रवेश करते ही निम्नलिखित चार काम प्रारम्भ हो जाते हैं एक स्थितिघात, दूसरा रसघात, तीसरा नवीन स्थितिबंध और चौथा गुणणि । स्थितिघात के द्वारा पहले बांधे हुए कर्मों की स्थिति को कम कर दिया जाता है। अर्थात् स्थितिघात के द्वारा उन्हीं दलिकों की स्थिति कामात किया जाता है जिनकी स्थिति एक अन्त Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकर्मग्रन्थ बै०३ मुहूर्त से अधिक होती है। अतः स्थिति का घात कर देने से जो कर्मदलिक बहुत समय बाद उदय में आते हैं वे तुरन्त ही उदय में आने योग्य हो जाते हैं। जिन कर्मदलिकों की स्थिति कम हो जाती है उनमें से प्रति समय असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे दलिक ग्रहण करके उदय समय से लेकर ऊपर की ओर स्थापित कर दिये जाते हैं। कर्मदलिकों के निक्षेप करने का क्रम इस प्रकार होता है कि ऊपर की स्थिति से कर्मदलिकों को ग्रहण करके उनमें से उदय समय में थोड़े दलिकों का निक्षेप होता है, दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे दलिकों का दलिकों का निक्षेपण होता है। इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल के अन्तिम समय तक प्रतिसमय असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेपण किया जाता है।' अर्थात् पहले समय में जो दलिक ग्रहण किये जाते . १ कर्मप्रकृति ( उपशमनाकरण) की १५वीं गाथा, उसकी प्राचीन चूर्ण तथा पंचसंग्रह में भी इसी प्रकार गुणश्रेणि का स्वरूप आदि बतलाया है। जो इस प्रकार है - गुणसेठी निवखेव समये ममये असंखगुणणाए । असादुगाईरिसी सेस सेसे य निक्लेवो ॥ - कर्मप्रकृति उपशमनाकरण, गा० १५ प्रतिसमय असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे दलिकों के निक्षेपण करने को गुणश्रेणि कहते हैं। उसका काल बपूर्वकरण और अनिवलिकरण के काल से कुछ अधिक है । इस काल में से ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों ऊपर के शेष समयों में ही दलिकों का निक्षेपण किया जाता है । उवरिल्लाओ द्वितिउ पोग्गले घेसूण उदयसमये चोवा पचिति मितिसमये असंखेज्जगुणा एवं जाव अन्तोमुहृत्त । - कर्मप्रकृति चूर्णि थाइ दलिये घेत्तु घेत्तु असंखणगुणाए । साहियदुकरणका उपमा स्य गुणसेठ | पंचसंग्रह ७४६ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ हैं, उनमें से थोड़े दलिक उदय समय में दाखिल कर दिये जाते है, उससे असंख्यातगुणे दलिक उदय समय से ऊपर के द्वितीय समय में दाखिल कर दिये जाते हैं, उससे असंख्यातगुणे दलिक तीसरे समय में, उससे असंख्यातगुणे दलिक क्रमशः चौथे, पांचवें आदि समयों में दाखिल कर दिये जाते हैं । इसी क्रम से अन्तर्मुहूर्त काल के अंतिम समय तक असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे दलिकों की स्थापना की जाती है। यह तो हुई प्रथम समय में गृहीत दलिकों के स्थापन करने की विधि । इसी प्रकार शेष दूसरे, तीसरे, चौथे आदि समयों में गृहीत दलिकों के निक्षेपण की विधि जानना चाहिये । यह क्रिया अन्तर्मुहूर्त काल के समयों तक ही होती रहती है। शतक सारांश यह है कि गुणश्र ेणि का काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः अन्तर्मुहूर्त तक ऊपर की स्थिति में से कर्मदलिकों का प्रति समय ग्रहण किया जाता है और प्रति समय जो कर्मदलिक ग्रहण किये जाते है, उनका स्थापन असंख्यात गुणित क्रम से उदय क्षण से लेकर अन्तमुहूर्त काल के अन्तिम समय तक में कर दिया जाता है। जैसे कल्पना से अन्तर्मुहूर्त का प्रमाण १६ समय मान लिया जाये तो गुणश्रेणि के प्रथम समय में जो कर्मदलिक ग्रहण किये गये उनका स्थापन पूर्वोक्त प्रकार से १६ समयों में किया जायेगा। दूसरे समय में जो कर्मदलिक ग्रहण किये गये, उनका स्थापन बाकी के १५ समयों में ही होगा, क्योंकि पहले क्षण का वेदन हो चुका है। तीसरे समय में जो कर्मदलिक ग्रहण किये गये उनका स्थापन शेष चौदह समयों में ही होगा | इसी प्रकार से चौथे, पाँचवें आदि समयों के क्रम के बारे में समझना चाहिये, किन्तु ऐसा नहीं समझना चाहिये कि प्रत्येक समय में ग्रहीत दलिकों का स्थापन सोलह ही समयों में होता है और इस तरह गुणश्र ेणि का काल ऊपर की ओर बढ़ता जाता है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ पंचम कर्मग्रन्य काल तक असंख्यात गुणित क्रम से जो दलिकों को स्थापना की जाती है, उसे गुणश्रोणि कहते हैं । सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय जीव इस प्रकार की गुणणि रचना करता है । गुणणि उदय समय से होती है और ऊपर-ऊपर असंख्यात गुणं दलिकस्थापित किये जाते हैं । अतः गुणणि करने वाला जीव ज्यों-ज्यों ऊपर की ओर चढ़ता है त्यों-त्यों प्रति समय असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निजरा करता जाता है । इसका कारण यह है कि जिस काम से दलिक स्थापित होते हैं उसी क्रम से वे प्रतिसमय उदय में आते हैं, वे असंख्यात गुणित क्रम से स्थापित किये जाते हैं और उसी क्रम से उदय में आते हैं, जिससे सम्यक्त्व में असंख्यातगुणो निर्जरा होती है । ___ सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद देशपिरति और सर्वविरति की प्राप्ति के लिये जीव यथाप्रवृत्त और अपूर्वकरण ही करता है, तीसरा अनि वृत्तिकरण नहीं करता और अपूर्वकरण में यहां गुणश्रेणि रचना भी नहीं होती है और अपूर्वकरण का काल समाप्त होने पर निश्चित ही देशविरति या सर्वविरति की प्राप्ति हो जाती है । जिससे अनिवृत्तिकरण की आवश्यकता नहीं रहती है। उक्त दोनों करण- यथाप्रवृत्त, अपूर्वकरण यदि अविरत दशा में किये जाते हैं तब तो देशविरति या सर्वविरति की प्राप्ति होती है और यदि देशविरति दशा में किये जाते हैं तो सर्वविरति ही प्राप्त होती है । देशविरति अथवा सर्वविरति की प्राप्ति होने पर जीव उदयावलि के ऊपर गुणश्वणि की रचना करता है । जो प्रकृतियाँ उदयवती होती हैं, उनमें तो उदय क्षण से लेकर ही गुणश्रेणि होती है किन्तु अनुदयवती प्रकृतियों में उदयावलिका के ऊपर के समय से लेकर गुणश्रोणि होती है । पाँचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यामाररण और छठे गुण Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ३०६ स्थान में प्रत्याख्यानावरण कवाय अनुदयवती हैं अतः उनमें उदयावलिका को छोड़कर ऊपर के समय से गुणश्र ेणि होती है । देशविरति और सर्वविरति को प्राप्ति के पश्चात एक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव के परिणाम वर्धमान ही रहते हैं, लेकिन उसके बाद कोई नियम नहीं है। किसी के परिणाम वर्धमान भी रहते हैं, किसी के तदवस्थ रहते हैं और किसी के हीयमान हो जाते हैं तथा जब तक देशविरति या सर्वविरति रहती है तब तक प्रतिसमय गुणश्रेणि भी होती है । हां यहां इतनी विशेषता जरूर है कि देशचारित्र अथवा सकलचारिन के साथ उदयावलि के ऊपर एक अन्तर्मुहूर्त काल तक परिणामों की नियत वृद्धि का काल उतना ही होने से असंख्यात गुणित क्रम से गुणश्रोणि की रचना करता है। उसके बाद यदि परिणाम वर्धमान रहते हैं तो परिणामों के अनुसार कभी असंख्यातवें भाग अधिक कभी संख्यातवें भाग अधिक और कभी संख्यात गुणी और कभी असंख्यात गुणी गुणश्र ेणि करता है। यदि हीयमान परिणाम हुए तो उस समय उक्त प्रकार से ही हीयमान गुण णि करता है और अवस्थित दशा में अवस्थित गुणश्रेणि को करता है । इसका तात्पर्य यह है कि वर्धमान परिणामों की दशा में दलिकों की संख्या बढ़ती हुई होती है। हीयमान दशा में घटती हुई होती है और अवस्थित दशा में अवस्थित रहती है । इस प्रकार देश विरति और सर्वविरति में प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। 3 चौथी गुणश्रेणि का नाम है अनन्तानुबंधी की बिसंयोजना | अनन्तानुवन्धी कषाय का विसंयोजन अविरतं सम्यग्दृष्टि, देशविशेत उद्यावलिए उपिं गुणसेढि कुण सह चरितेण 1 संतो असंखगुणणाए तसियं वड्डए कालं ॥ -- पंचसंग्रह ७९३ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य ३०७ और सर्वविरति जीव करते हैं।' अविरत सम्यग्दृष्टि जोब लो चारों गति के लेना चाहिये और देशविरति मनुण्य व तिर्यच होते हैं तथा सर्वविरति मनुष्य ही होते हैं। जो जीव अनन्तानुबन्धी कषाय का विसयोजन करने के लिये उद्यत होता है वह यथाप्रवृत्त आदि तीनों करणों को करता है । यहां इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरण के प्रथम समय से ही गुणसंक्रमण भी होने लगता है यानी अपूर्वकरण के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी कषाय के थोड़े दलिकों का शेष कषायों में संक्रमण करता है, दुसरे समय में उससे असंख्यातगुणे, तीसरे समय में उससे असंख्यातरणे दलिकों का पर कषाय रूप संक्रमण करता है। यह क्रिया अपूर्वकरण के अंतिम समय तक होती है और उसके बाद अनिवृत्तिकरण में गुणसंक्रमण और उबलन संक्रमण के द्वारा दलिकों का विनाश कर देता है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धी के विसंयोजन में प्रति समय असंख्यात. गुणी निर्जरा जाननी चाहिये । दर्शनमोहनीय का क्षपण जिन काल में (केवलज्ञानी के विद्यमान रहने के समय में) उत्पन्न होने वाला बचषभनाराच संहनन का धारक मनुष्य आठ वर्ष की उम्र के बाद करता है। अर्थात् दर्शनमोहनीय की क्षपणा के लिये समय तो केवलज्ञान प्राप्त आत्मा की विद्यमानता का है और क्षपणा करने वाला मनुष्य वन ऋषभनाराच संहनन का धारक हो तथा कम-से-कम अवस्था आठ वर्ष से ऊपर चउगइमा पज्जता तिन्निवि संयोयणा विजोयति । करणेहिं तीहि सहिया नंतरकरणं उसमो वा ।। कर्मप्रति उपशमनाकरण ३१ दंस णमोहे दि तहा क्रयकरणद्धा य पच्छिम होइ । जिणकालगो मस्सो पटुवगो अट्ठवासुपि ॥ -कर्मप्रकृति उपनमनाकरण, ३२ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातक हो। दर्शनमोहनीय की क्षपणा का क्रम भी अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना जैसा है । यहां भी पूर्ववत् तीन करण होते हैं और अपूर्व करण में गुणौणि आदि कार्य होते हैं । उपशम धेणि का आरोहण करने वाला जीव भी यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है, लेकिन इतना अंतर है कि यथाप्रवृत्तकरण सातवें गुणस्थान में करता है, अपूर्वकरण-अपूर्वकरण नामक गुणस्थान में और अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरण नामक गुणस्थान में करता है। यहां भी पूर्ववत् स्थितिघात गुणश्रेणि आदि कार्य होते हैं । अतः उपशमक भी क्रम से असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा करता है। चारित्रमोहनीय का उपशम करने के बाद उपशांतमोह नामक ग्यारहवे गुणस्थान में पहुँचकर भी जीव गुणश्रेणि रचना करता है। उपशान्तमोह का काल अन्त मुहूर्त है, और उसके संख्यातवें भाग काल में गुणश्रेणि की रचना होती है, जिससे यहां पर भी जीव प्रतिसमय असंख्यातगुणी, असंख्यातगृणी निर्जरा करता है । __ग्यारहवें गणस्थान से च्युत "होकर जब जीव छठे गुणस्थान तक आकर क्षपक श्रेणि चढ़ता है अथवा उपशमणि पर आरूढ़ हुए बिना ही सीधा क्षपक श्रेणि पर चढ़ना है तो वहां भी यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृतिकरण, इन तीनों करणों को करता है और उनमें उपशमक और उपशान्तमोह गुणस्थान से भी असंख्याप्तगुणी निर्जरा करता है । इसी प्रकार क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली नामक गुणश्रेणियों भी उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी, असंख्यातगणी निर्जरा समझना चाहिए। ___ इन ग्यारह गुणश्रेणियों में से प्रत्येक का काल अन्तमुहत-अन्तमुहूर्त होने पर भी प्रत्येक के अन्तमुहूर्त का काल उत्तरोत्तर हीन होता है तथा निर्जरा द्रष्य का परिमाण सामान्य से असंख्यातगुणा, असंख्यात Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ गुणा होने पर भी उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ होता है । यानी परिणामों के उत्तरोत्तर विशुद्ध होने से उत्तरोत्तर कम-कम समय में अधिकअधिक द्रव्य की निर्जरा होती है। इस प्रकार गुणोणि का विधान जानना चाहिये | गुणश्रोणि के उक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जीव ज्यों-ज्यों आगे के गुणस्थानों में बढ़ता जाता है, त्यो त्यों उसके असंख्यातगुणी निर्जरा होती है और क्रमशः :संक्लेश की हानि तथा विशुद्धि का प्रकर्ष होने पर आगे-आगे के गुणस्थान कहलाते हैं । अतः अब आगे की गाथा में गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तराल बतलाते हैं । पलियासंबंसमुहू सासणइयरगुण अंतरं हस्त । गुरु मिचछो मे छसट्टी इयरगुणे पुग्गलद्धंतो॥४॥ शब्दार्थ--पलियासंखसमूह-पल्य का असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त, सासणइयरगुण–सासादन और दूसरे गुणस्थानों का, अंतरं अन्तर. हसं -जधन्य, गुरु -उत्कृष्ट, मिन्छीमिथ्यात्व में, छसट्ठी-दो छियासठ सागरोपम, इपरगुणे-दूसरे गुणस्थानों में, पुग्गलबंतो - कुछ न्यून अर्धपुद्गल परावर्त ।। गाचार्ष-सासादन और दूसरे गुणस्थानों का जघन्य अन्तर अनुक्रम से पल्योपम का असंख्यातवा भाग और अन्तमुहूर्त है । मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तर दो बार के छियासठ सागर अर्थात् १३२ सागर है और अन्य गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल पराक्र्त है। विशेषार्थ-पूर्व कथन से यह स्पष्ट हो चुका है कि गुणश्रेणियों के जो सम्यक्त्व, देश विरति आदि नाम हैं, वे प्रायः गुणस्थान ही हैं। जैसे कि सम्यक्त्व गुण का जिस स्थान में प्रादुर्भाव होता है वह सम्यक्त्व गुणस्थान, जिस स्थान में देशविरति गुण प्रखर होता है वह देशविरति Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० शतक गुणस्थान कहा जाता है आदि। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये | अतः उक्त गुणश्र णियों का संबंध गुणस्थानों के साथ होने के कारण गाथा में गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तराल बतलाया है । कोई जीव किसी गुणस्थान से च्युत होकर पुनः जितने समय के बाद उस गुणस्थान को प्राप्त करता है, वह समय उस गुणस्थान का अन्तरकाल कहलाता है | सर्वप्रथम गुणस्थानों का जघन्य अन्तराल बतलाते हुए कहा हैपलियासंखसमुह सासणइयरगुण अंतरं हस्सं सासादनं नामक दूसरे सुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल पल्य के असंख्यातवें भाग और शेष गुणस्थानों का अन्तर अन्तमुहूर्त हैं । जिसको यहां स्पष्ट करते हैं । सासादन गुणस्थान के जघन्य अन्तरकाल को पल्य के असंख्यात भाग इस प्रकार समझना चाहिए कि कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अथवा सम्यक्त्व मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय की उदवलना कर देने वाला सादि मिथ्यादृष्टि जीव औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करके अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सासादन सम्यग्दृष्टि होकर मिध्यात्व गुणस्थान में आता है। यदि वही जीव उसी क्रम से पुनः सासादन गुणस्थान को प्राप्त करे तो कम-से-कम पल्य के असंख्यातवें भाग काल के बाद ही प्राप्त करता है। इसका कारण यह है कि सासादन गुणस्थान से मिथ्यात्व गुणस्थान में आने पर सम्यक्त्व मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय की सत्ता अवश्य रहती है। इन दोनों प्रकृतियों की सत्ता होते हुए पुनः औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो सकता है और औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना सासादन गुणस्थान नहीं हो सकता । अतः मिथ्यात्व में जाने के बाद जीव सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनों मोहनीय कर्म की प्रकृतियों की प्रतिसमय .. १ यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों के बिना ही किसी प्रकृति को अन्य प्रकृति रूप परिणमाने को उवलन कहते हैं। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ उबलना करता है यानी दोनों प्रकृतियों के दलिकों को मिथ्यात्व मोहनीय रूप परिणमाता रहता है । इस प्रकार उद्घलन करते-करते पल्य के असंख्यातवें भाग काल में उक्त दोनों प्रकृतियों का अभाव हो जाता है और अभाव होने पर वही जीव पुनः औपशमिया सम्पयत्व को प्राश कर समापन गुणस्थान में आ जाता है। इसीलिए सासादन गुणस्थान का अंतराल काल पल्य के असंख्यातवें भाग माना गया है । ___ सासादन गुणस्थान का जघन्य अन्तर पत्य के असंख्यातवें भाम प्रमाण बतलाने का कारण यह है कि कोई जीव उपशम श्रेणि से गिरकर सासादन गुणस्थान में आते हैं और अन्तमुहूर्त के बाद पुनः उपशम श्रेणि पर चढ़कर और वहां से गिरकर पुनः सासादन गुणस्थान में आते हैं । इस दृष्टि से तो सासादन का जघन्य अंतर बहुत थोड़ा रहता है, किन्तु उपशम श्रेणि से च्युत होकर जो सासादन सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, वह केवल मनुष्यगति में ही संभव है और वहां पर भी इस प्रकार की घटना बहुत कम होती है, जिससे यहां उसकी विवक्षा नहीं की है किन्तु उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर जो सासादन की प्राप्ति बतलाई है, वह चारों मतियों में संभव है । अतः उसकी अपेक्षा से ही सासादन का जघन्य अन्तर पल्य के असंख्यातवें भाग बतलाया है 1 यानी श्रोणि की अपेक्षा नहीं किन्तु उपशम सम्यक्त्व से च्युत होने की अपेक्षा से सासादन गुणस्थान का जघन्य अन्तर पल्य के अमख्यातवें भाग बतलाया है । सासादन के सिवाय बाकी के गुणस्थानों में से क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, इन तीन गुणस्थानों का तो अंतर काल नहीं होता, क्योंकि ये गुणस्थान एक बार प्राप्त होकर पुनः प्राप्त नहीं होते हैं । शेष रहे गुणस्थानों में से मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि, अविरत सभ्यग् Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ मातक दृष्टि देशविरति, प्रमत्त अप्रमत्त तथा उपशम श्रेणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय तथा उपशान्तमोह गुणस्थान से च्युत होकर जीव अन्तान के बाद ही पुन: उन मरणादों को पान कर लेता है । अतः उनका जघन्य अन्तरकाल एक अन्तमुहुर्त ही होता है । क्योंकि जब कोई जीव उपशम श्रेणि पर चढ़कर ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचता है और वहां से गिरकर क्रमशः उतरते-उतरते पहले मिथ्यात्व' गुणस्थान में आ जाता है और उसके बाद पुनः एक अन्तमु हूर्त में ग्यारहवें गुणस्थान तक जा पहुँचता है । क्योंकि एक भव में दो बार उपशम श्रीणि पर चढ़ने का विधान है ।' उस समय मिश्र गुणस्थान के सिवाय बाकी के गुणस्थानों में से प्रत्येक का जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त होता है। मिश्र गुणस्थान को छोड़ने का कारण यह है कि श्रेणि से गिरकर जीव मिश्र गुणस्थान में नहीं जाता है । अतः जब जीव औणि पर नहीं बढ़ता तब मिश्र गुणस्थान तथा सासादन के सिवाय मिथ्या दृष्टि से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त होता है। क्योंकि ये गुणस्थान अन्तमुहूर्त के बाद पुनः प्राप्त हो सकते हैं । इस प्रकार से गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल समझना चाहिये । अब उत्कृष्ट की अपेक्षा गुणस्थानों का अन्तरकाल बतलाते हुए सर्वप्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तरकाल कहते हैं कि -- गुरु मिन्डी बे छसठी-यानी मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल दो छियासठ सागर अर्थात् ६६+६६-१३२ सागर है । वह इस प्रकार है कोई जीव विशुद्ध परिणामों के कारण मिथ्यात्व गुणस्थान को छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व को उत्कृष्ट काल ६६ सागर समाप्त करके वह जीव अन्तमुहूर्त के लिये सम्यमिथ्यात्व में १ एमभने दुस्पत्तो रित्तमोहं उवसमेना । ...-कर्मकसि गा०६४ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य चला जाता है । वहाँ से पुनः क्षयोपशम सम्यक्य को प्राप्त करके ६६ सागर की समाप्ति तक यदि उसने मुक्ति प्राप्त नहीं की तो वह जीव अवश्य मिथ्यात्व में चला जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अंतर दो छियासठ सागर-एकसौ बत्तीस सागर से कुछ अधिक होता है। सासादन से लेकर उपशांतमोह गुणस्थान तक के शेष गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुदाल परावर्त है - इयरगुणे पुग्गल तो । क्योंकि इन गुणस्थानों से पतित होकर जीव अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता रहता है और उसके बाद पुनः उसे उक्त गुणस्थानों की प्राप्ति होती है । इसीलिये इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्त माना गया है । क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानों में अन्तर नहीं होने के कारण को पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि ये एक बार प्राप्त होकर पुनः प्राप्त नहीं होते हैं । यानी इन गुणस्थानों की प्राप्ति होने के बाद उनका क्षय नहीं होता है । जिससे जघन्य या उत्कृष्ट अलरकाल का विचार करने की आवश्यकता नहीं रहती है। ___इस प्रकार से गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अंतरकाल बत्तलाने के बाद अब आगे की गाथाओं में अंतरकाल के वर्णन में आगे पल्योपम, अर्धपुद्गल परावतं का स्वरूप विस्तार से बतलाते हैं । पहले पल्योपम का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। उद्धारमशखितं पलिय तिहा समयवाससयसमए । फेसवहारो वीवोहिआउनसाहपरिमाण ।।८।। १ पंचसंग्रह में भी गुणस्थानों का अन्त र इसी प्रकार का बतलाया है पलियासंखो सासायणतरं सेसयाण मंतमुह । मिस्स बे छसट्टी इपराणं पोग्गसवतो।।५ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নারদ शब्दार्थ-उमारअखितं--उद्धार,अदा और क्षेत्र, पलिपपल्योपम, तिहा-तीन प्रकार का. समयवाससयसमए–समय, सौ वर्ष और ममम में, केसवहारो- बालान का उद्धरण करें, बीचोपहि-द्वीप और समुद्र, आजतसाइ–आयु और प्रसादि जोवों का. परिमाणं - परिमाण, गणना। __गाया- उद्धार, अद्धा और क्षेत्र, इस प्रकार पल्योपम के तीन भेद हैं। उनमें अनुक्रम से एक समय में, सौ वर्ष में और एक समय में बालाग्र का उद्धरण किया जाता है। जिससे उनके द्वारा क्रम से द्वीप समुद्रों, आयु और प्रसादि जीवों की गणना की जाती है। विशेषार्थ-इस गाथा में पल्योपम के भेद, उनका स्वरूप और उनके उपयोग करने का संक्षेप में निर्देश किया है। ___ लोक में जो वस्तुयें सरलता से गिनी जा सकती हैं और जहाँ तक गणित विधि का क्षेत्र है, वहां तक तो गणना करना सरल होता लेकिन उसके आगे उपमा प्रमाण को प्रवृत्ति होती है। जैसे कि तिल, सरसों, गेहूँ आदि धान्य गिने नहीं जा सकते, अतः उन्हें तोल या माप वगैरह से आंक लेते हैं। इसी प्रकार समय की जो अवधि वर्षों के रूप में गिनी जा सकती है, उसकी तो गणना की जाती है और उसके लिये शास्त्रों में पूर्वांग, पूर्व आदि की संज्ञार्य मानी हैं, किन्तु इसके बाद भी समय की अवधि इतनी लम्बी है कि उसकी गणना वर्षों में नहीं की जा सकती है । अतः उसके लिये उपमाप्रमाण का सहारा लिया जाता है। उस उपमाप्रमाण के दो भेद हैंपल्योपम' और सामरोपम । समय की जिम लम्बी अवधि को पल्य की उपमा दी जाती है, उसे १ अनाप वगैरह भरने के गोलाकार स्थान को पल्प कहते हैं । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्रन्य पल्योपम काल कहते हैं । पल्योपम के तीन भेद हैं- उद्धारअद्धखित्तं पलिय-उद्धार पल्योपम, अद्धा पल्योपम और क्षेत्र पल्योपम । इसी प्रकार सागरोपम काल के भो तीन भेद हैं-उद्धार सागरोपम, अद्धा सागरोपम और क्षेत्र सागरोपम । इनमें से प्रत्येक पल्योपम और सपोपम दो-दो प्रकार का होता है- बादर और दूसरा सूक्ष्म ।' इनका स्वरूप क्रमशः आगे स्पष्ट किया जा रहा है। गाथा ४०, ४१ में क्षुद्रभव का प्रमाण बतलाने के प्रसंग में प्राचीन कालगणना का संक्षेप में निर्देश करते हुए समय, आवलिका, सच्चबास, प्राण, स्तोक, लव और मुहूर्त का प्रमाण बतलाया है । उसके बाद ३० मुहूर्त का एक दिन-रात, पन्द्रह दिन का एक पक्ष, दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक अयन, दो अयन का एक वर्ष प्रसिद्ध हैं और वर्षों की अमुक-अमुक संख्या को लेकर युग, शताब्द आदि संज्ञायें प्रसिद्ध हैं। उनके ऊपर प्राचीन काल में जो संज्ञायें निर्धारित की गई हैं, वे अनुयोगद्वार सूत्र के अनुसार इस प्रकार है--- ___८४ लाख वर्ष का एक पूर्वांग, ८४ लाख पूर्वांग का एक पूर्व, २४ लाख पूर्व का त्रुटितांग, ८४ लाख त्रुटितांग का एक त्रुटित, ८४ लाख त्रुटित का एक अडडांग, ८४ लाख अडडांग का एक अडड । इसी प्रकार क्रमशः अवांग, अवक, हुह अंग, हुहु, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पत्र, नलिनांग, नलिन, अर्थनिमूरांग, अर्थनिपूर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रमुत, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चुलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहे. लिका, ये उनरोत्तर ८४ लाख गुणे होते हैं । इन संज्ञाओं को बतलाकर १ अनुयोगद्वार सूत्र में सूक्ष्म और व्यवहारिक भेद किये हैं। २ ये संज्ञायें अनुयोगद्वार सूत्र (गा० १२७, मूत्र १३८) के अनुसार ही गई हैं । ज्योतिष्क रण्ड के अनुसार उनका कम इस प्रकार है-- ८४ लाख (शेष अगने पृष्ठ पर देखें) Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतक ३१६ आगे लिखा है-'एयावयाचेव गणिए एयावया चेव गणिअस्स विसए, एत्तोऽवरं ओवमिए पत्तइ।'' अर्थात् शोषप्रहेलिका तक गुणा करने से १९४ अंक प्रमाण जो राशि उत्पन्न होती है, गणित की अवधि वहीं तक है, उतनी ही राशि गणित का विषय है। उसके आगे उपमा प्रमाण की प्रवृत्ति होती है। उपमा प्रमाण का स्पष्टीकरण करने के लिये बालागों के उद्धरण को आधार बनाया है | पहला नाम है उद्धारपल्य, जिसका स्वरूप यह पूर्व का एक लताग, ८४ लाख लसांग का एक लता, ८४ लाख लसा का एक महालतांग, ८४ लाख महालतांग का एक महासता, इसी प्रकार आगे मलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन, पपांग,पप, महापांग, महापम, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुमुदांग, कुमुद, महाकुमुदांग, महाकुमुव, त्रुटितांग, टित, महात्र टितोग, महात्रु रित, अडडांग, अड, महाअडडांग, महासरड, अहांग, कह, महामहाग, महाऊह, पोर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका । (गाथा १४-७१) अनुयोगबारसूत्र और ज्योतिष्करण्ड में आगत नामों की भिन्नता का कारण काललोकप्रकाश में इस प्रकार स्पष्ट किया है-'अनुयोगद्वार, जम्बूद्वीपप्राप्ति आदि माथुर वाचना के अनुगत है और ज्योतिष्करंज आदि वल्मी वाचना के अनुगत, इसी से दोनों में अंतर है। दिगम्बर ग्रन्थ तत्त्वार्थराजवार्तिक में पूर्वाग, पूर्व, नयुतांग, नयुत, कुमुदांग, कुमुद, पांग, पन, नलिनांग, नलिन, कमलांग, कमल, तुट्यांग तुट्म, अटटांग, अटट, अममांग अमम, हूहू अंग, हूहू, लतांग, लता, महालता आदि सज्ञा दी है। ये सब संज्ञा ८४ लाख को ८४ लाख से गुणा करने पर बनती हैं। इस गुणन विधि में श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थ एक मत हैं। १ अनुयोगवार सूत्र १३७ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कर्मग्रन्थ ३१७ है कि-उत्सेधांगुल' के द्वार, विष्णन एक गोला माण नया, एक योजन प्रमाण चौड़ा और एक योजन प्रमाण गहरा एक गोल पल्यगढ़ा बनाना चाहिए, जिसकी परिधि कुछ कम ३१ योजन होती है । एक दिन से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालायों से उस पल्य को इतना ठसाठस भर देना चाहिये कि न आग उन्हें जला सके, न वायु उड़ा सके और न जल का ही उसमें प्रवेश हो सके । इस पल्य से प्रति समय एक-एक बालान निकाला जाये । इस तरह करते-करते जितने समय में वह पल्यखाली हो जाये, उस काल को बादर उद्धारपल्य' कहते हैं। ____दस कोटाकोटी बादर उद्धारपल्योपम का एक बादर उद्धारसागरोपम होता है । इन बादर उद्धारपल्योपम और बादर उद्धारसागरोपम का इतना ही प्रयोजन है कि इनके द्वारा सूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सूक्ष्म उद्धारसागरोपम सरलता से समझ में आ जाये अस्मिम्मिरूपिते सूक्ष्मं सुबोधमयुधरपि । असो निरूपितं नान्यरिकञ्चिदस्य प्रयोजनम् ।।- द्रव्यलोकप्रकाश १।८६ अंगुल के तीन भेद हैं—आस्मांगुल, उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुण । इनकी व्याख्या आगे की गई है। २ पल्म को बालारों से भरने संबन्धी अनुयोगद्वार सूत्र आदि का विवेचन परिशिष्ट में दिया गया है। ३ पल्य को ठसाठस भरने के संबन्ध में द्रव्यलोकप्रकाश सग १५८२ में स्पष्ट किया है तथा च चक्रिसन्येन तमाक्रम्य प्रसप्ता। न मनाक क्रियते नीचरेवं निबिड़तागताम् ॥ वे केशान इतने बने भरे हुए हों कि यदि चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाये तो वे जरा भी नीचे न हो सके। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० शतक अब सूक्ष्म उद्धार पल्योपम व सागरोपम का स्वरूप समझाते हैं। बादर उद्धारंपल्य के एक-एक केशाग्र के अपनी बुद्धि के द्वारा असंख्यात-असंख्यात टुकड़े करना । रुय की अपेक्षा ये टुकड़े इतने सूक्ष्म होते हैं कि अत्यन्त विशुद्ध आख्ने बाला पुरुष अपनी आंख से जितने सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य को देख सकता है, उसके भी असंख्यातवें भाग होते हैं तथा क्षेत्र की अपेक्षा सूक्ष्म पनक' जीव का शरीर जितने क्षेत्र को रोकता है, उससे असंख्यात गुणी अवगाहना वाले होते हैं, इन केशाग्नों को भी पहले की तरह पल्य में ठसाठस भर देना चाहिये । पहले की तरह ही प्रति समय केशाग्र के एक-एक खण्ड को निकालने पर संख्यात करोड़ वर्ष में वह पल्य खाली होता है । अतः उस काल को सूक्ष्म उद्धारपल्यापम कहते हैं । दस काटाकाटी सूक्ष्म उद्धारपल्योपम का एक सूक्ष्म उद्धारसागरोपम होता है। इन सूक्ष्म उद्धारपत्योपम और सूक्ष्म उद्घारसागरोपम से द्वीप और समुद्रों की गणना की जाती है। अढाई सूक्ष्म उद्धारसागरोपम के अथवा पच्चीस कोटाकोटि सूक्ष्म उद्धारपल्योपम के जितने समय होते हैं, उतने ही द्वीप और समुद्र हैं---- एएहि सुहमउद्धारपलिओवमसागरोवमेहि कि पओअणं ? एएहि सुहुमउद्धारपलिओबमसागरोवमेहि दीवसमुद्दाणं उद्धारो घेप्पई। केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा..... ....."" " जावइआणं अड्ढाइजाणं उद्धारसागरोवमाणं उद्धारसमया एवइया णं दीवसमुद्दा । -अनुयोगदार सूब १३८ १ विशेषावश्यक भाष्य की कोट्याचार्य प्रणीत टीका (पृ. २१०) में परफ का अर्थ 'बनस्पति विशेष' किया है । प्रवचनसारोद्धार की टीका (पृ. ३.३) में उसकी अवगाहना बादर पर्याप्तक पृथ्वीकाय के शरीर के बराबर बतलाई है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "पंचम कर्मग्रन्थ ३१६ अद्धापल्योपम --- पूर्वोक्त बादर उद्घारपल्य से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक केशाय निकालने पर जितने समय में वह खाली होता है, उतने समय को बादर अद्धापल्योपम काल कहते हैं। दस कोटाकोटी बादर अद्धापल्योपम काल की एक बाद काल होता है । · सूक्ष्म उद्घारपल्य में से सौ-सौ वर्ष के बाद केशाग्र का एक-एक खण्ड निकालने पर जितने समय में वह पत्य खाली होता है, उतने समय को सूक्ष्म अद्धापल्योपम काल कहते हैं । दस कोटाकोटि सूक्ष्म अद्धापल्योपम का एक सूक्ष्म अद्धासागरोपम काल होता है। दस कोटाकोटी सूक्ष्म अद्धासागरोपम की एक अवसर्पिणी और उतने की ही एक उत्सर्पिणी होती है । इन सूक्ष्म अापल्योपम और सूक्ष्म अद्धासागरोपम के द्वारा देव, मनुष्य तिर्यच, नारक, नारों गति के जीवों की आयु कर्मों की स्थिति आदि जानी जाती है । 0 एएहि सुहुमेहि अाप सागरोवमेहि किं पओअणं ? एएहि सुहमेहि अद्धाप० सागरो०] नेरइअतिरिक्ख जोणिअमणुस्सदेवाणं आउअं मवि - - अनुयोगद्वार सूत्र १३६ ज्जइ । पोप- पहले की तरह एक योजन लंबे-चौड़े और गहरे गड्डे में एक दिन से लेकर सात दिन तक उगे हुए बालों के अग्रभाग को पूर्व की तरह ठसाठस भर दो। वे अग्रभाग आकाश के जिन प्रदेशों को स्पर्श करें उनमें से प्रति समय एक-एक प्रदेश का अपहरण करतेकरते जितने समय में समस्त प्रदेशों का अपहरण किया जा सके उतने समय को बादर क्षेत्रपल्योपम काल कहते हैं । यह काल असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी काल के बराबर होता है। दस कोटाकोटी बादर क्षेत्रपल्योपम का एक बादर क्षेत्रसागरोपम काल होता है । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बादर क्षेत्रपल्य के बालानों में से प्रत्येक के असंख्यात खंड करके उन्हें इसी पल्प में पहले की तरह भरो। उस पल्य में वे खंड आकाश के जिन प्रदेशों करें और जि प्रो मोर्श गवारे, जन्में से प्रति समय एक-एक प्रदेश का अपहरण करते-करते जितने समय में स्पृष्ट और अस्पृष्ट सभी प्रदेशों का अपहरण किया जा सके, उतने समय को एक सूक्ष्म क्षेन्नपल्मोपम काल कहते हैं । दस कोटाकोटी सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम का एक सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम होता है । इन सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम और सूक्ष्म क्षेत्रसागरोपम के द्वारा दृष्टिवाद में द्रव्यों के प्रमाण का विचार तथा दृष्टिवाद में पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक वनस्पति और त्रस इन छह काय के जोवों के प्रमाण का विचार किया जाता है एएहिं सुहुमेहि खेतप सागरोषमेहि किं पओअणं ? एएहि सहमपलि० माग० दिट्ठिवाए दव्वा मविज्जति । ... अनुयोगद्वार मूत्र १४. सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम काल के स्वरूप को ब्याख्या के प्रसंग में जिज्ञासु का प्रश्न है कि यदि बालानों से आकाश के स्पृष्ट और अस्पृष्ट सभी प्रदेश ग्रहण किये जाते हैं तो फिर बालानों का कोई प्रयोजन नहीं रहता है, क्योंकि उस दशा में पूर्वोक्त पल्य के अन्दर जितने प्रदेश हों उनके अपहरण करने से ही प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। इसका समाधान यह है कि क्षेत्रपल्योपम के द्वारा दृष्टिबाद में द्रव्यों के प्रमाण का विचार किया जाता है। उनमें से कुछ द्रव्यों का प्रमाण तो उक्त बालानों से स्पृष्ट आकाश के प्रदेशों द्वारा मापा जाता है और कुछ का प्रमाण आकाश के अस्पृष्ट प्रदेशों से मापा जाता है । अतः दृष्टिवाद में वर्णित द्रव्यों के मान में उपयोगी होने के कारण बालापों का निर्देश करना सप्रयोजन ही है, निष्प्रयोजन नहीं है Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रम्प 'दृष्टिवादोक्तद्रव्यमानोपयोगित्वाद् बालाग्रप्ररूपणाऽत्रप्रयोजनवतीति ।' -- अनुयोगनार टीका पृ० १६३ __ अंगुल के भेदों की व्याख्या उद्धारपल्योपम का स्वरूप बतलाने के प्रसंग में उत्सेघांगुल के द्वारा निष्पन्न एक योजन लम्बे, चौड़े, गहरे गड्ढे-पल्य को बनाने का संकेत किया था और उसी के अनुसन्धान में आत्मांगुल, उल्सेधांगुल और प्रमाणांगुल यह तीन अंगुल के भेद बतलाये हैं। यहाँ उनका स्वरूप समझाते हैं। आस्गांगुल- ...पने अंगुरा बने या अपने शरीर की ऊंचाई १०८ अंगुल प्रमाण होती है। वह अंगुल उसका आत्मांगुल कहलाता है। इस अंगुल का प्रमाण सर्वदा एकसा नहीं रहता है, क्योंकि काल भेद से मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई घटती-बढ़ती रहती है । उत्सेधागुल-परमाणु दो प्रकार का होता है-एक निश्चय परमाणु और दूसरा व्यवहार परमाणु । अनन्त निश्चय परमाणुओं का एक ध्यबहार परमाणु होता है। यद्यपि वह व्यवहार परमाणु वास्तव में स्कन्ध है किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उसे परमाणु कह दिया जाता है, क्योंकि वह इतना मूक्ष्म होता है कि तीक्ष्ण-से-तीक्ष्ण शस्त्र के द्वारा भी इसका छेदन-भेदन नहीं हो सकता है, फिर भी माप के लिए इसको मूल कारण माना गया है । जो इस प्रकार है - अनन्त व्यवहार परमाणुओं की एक उन्श्लक्ष्ण-श्लक्षिणका और आठ उतश्लक्षण-श्लक्षिणका की एक श्लक्ष्ण-श्लक्ष्णिका होती है।' आठ श्लक्ष्ण-लविणका का एक १ जीवसमास मूत्र में अनन्त जनशलान-पलक्षिणका को एक श्लक्ष्ण-श्लक्षिणका बन लाई है, लेकिन आगमों में अनेक स्थानों पर अठगुनी ही बतलाई है। अत: यहां भी आगम के अनृमार कपन किया है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ शतक ऊर्ध्वरेणु, आठ ऊर्ध्वरेणु का एक नसरेणु, आठ त्रसरेणु का एक रथरेणु, आठ रथरेणु का देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्य का एक केशाग्र, उन आठ केशाग्रों का एक हरिवर्ष और रम्यक क्षेत्र के मनुष्य का केशान, उन आठ केशाम्रों का एक पूर्वापर विदेह के मनुष्य का केशाग्र, उन आठ केशाग्रों का एक भरत और ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों का केशाय उन आठ केनायों की एक लीख हटी की एक चूका (ज), आठ यूका का एक यव का मध्य भाग और आठ यवमध्य का एक उत्सेधांगुल होता है। छह उत्सेधांगुल का एक पाद, दो पाद की एक वितस्ति, दो वितस्ति का एक हाथ, चार हाथ का एक धनुष, दो हजार धनुष का एक गव्युत और चार गव्यूत का एक योजन होता है । प्रमाणांगुल -- उत्सेधांगुल से अढ़ाई गुणा विस्तार वाला और चार सौ गुणा लम्बा प्रमाणांगुल होता है । युग के आदि में भरत चक्रवर्ती का जो आत्मांगुल था उसको प्रमाणांगुल जानना चाहिये ।" दिगम्बर साहित्य में अंगुलों का प्रमाण इस प्रकार बतलाया हैअनन्तानंत सूक्ष्म परमाणुओं की उत्संज्ञासंज्ञा, आठ उत्संज्ञासंज्ञा की एक संज्ञासंज्ञा, आठ संज्ञासंज्ञा का एक लुटिरेणु, आठ त्रुटिरेणु का एक त्रसरेणु, आठ वसरेणु का एक रथरेणु, आठ रथरेणु का उत्तरकुरु देवकुरु के मनुष्य का एक बालाग्र, उन मठ बालाबों का रम्यक और हरिवर्ष के मनुष्य का एक बालाग्र, उन आठ बालानों का हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्य का एक वालाग्र उन आठ बालानों का भरत, ऐरावत व विदेह के मनुष्यों का एक बालाग्र तथा लीख, यूका आदि १ अनुयोगद्वार सूत्र पृ० १५६- १७२, प्रवचनसारोद्वार पृ० ४०५-८, द्रव्यलोकप्रकाश पृ० १ २ । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकर्मग्रन्थ ३२५ का प्रमाण पूर्ववत् समझना चाहिये । उत्सेधांगुल से पांच सौ गुणा प्रमाणांगुल होता है । यही भरत चक्रवर्ती का आत्मांगुल है । ' इस प्रकार से पल्योपम के भेद और उनका स्वरूप जानना चाहिये। पूर्व में सासादन आदि गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्त बतलाया गया है । अतः अब आगे तीन गाथाओं में पुद्गल परावर्त का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । बच्चे खिले काले भावे चजह वह बायरो सुहुषो । होइ अणंशुरसप्पिणिपरिमानो पुग्गलवरट्ठो || ६ || उरलाइ सत्तगेणं एमजिउ मुयइ फुंसिय सम्धयन् । जत्तियकालि स धूलो दबे सुमो सगम्नयरा ॥८७॥ लोग एसोसप्पिणिसमया अणुभागबंषठाणा य । जह तह कममरणेणं पुट्ठा खित्ताइ यूलियरा ॥८८॥ 1 शब्दार्थ - दब्बे द्रव्यविषयक खिते - क्षेत्र विषयक, काले -काल विषयक, भावे-भाव विषयक, वजह बार प्रकार का ह - दो प्रकार का बायरो - बादर, सुमो – सूक्ष्म, होइ― होता है, अनंतुस्सप्पिणिपरिमाणो अनभ्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण, पुग्गलपरट्ठो - पुद्गल परावर्त । उरलाइसत्तगेणं — ओदारिक आदि सात वर्गणा रूप से, एगजिज – एक जीव, मुयइ – छोड़ दे, फुसिय—स्पर्श करके, परिण मित करके, सम्ब अणू- सभी परमाणुओं को, जतियकालि - जितने समय में, स - उतना फाल, यूलो-स्थूल, बादर, बध्ये द्रव्यपुद्गल परावर्त, सुमो - सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त समन्नयरा - सात में से किसी एक एक वर्गणा के द्वारा । 7 १ तत्त्वार्थं राजयातिक पृ० १४७-१४८ २ दिगम्बर साहित्य में किये गये पत्यों के वर्णन के लिये परिशिष्ट देखिये । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ और जह तह - जिस किसी मरगंगं-मरण के द्वारा, पुट्ठा यूलियरा -- स्थूल (बादर) और लोगपएसा-लोक के प्रदेश, उसपिणिमा उत्सर्पिणीअवसर्पिणी के समय, अनुभागबंधठाणा - अनुभाग बंध के स्थान भी प्रकार से कम - अनुक्रम से, स्पर्श किये हुए, खिसाइ - क्षेत्रादिक, सूक्ष्म पुद्गल परावर्त । -D गाथार्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार वाले पुद्गल परावर्त के बादर और सूक्ष्म, ये दो-दो भेद होते हैं । यह पुद्गल परावर्त अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल के बराबर होता है । जितने काल में एक जीव समस्त लोक में रहने वाले समस्त परमाणुओं को औदारिक शरीर आदि सात वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने काल को बादर द्रव्यपुद्गल परावर्त कहते हैं और जितने काल में समस्त परमाणुओं को औदारिक शरीर आदि सात वर्मणाओं में से किसी एक वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने काल को सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त कहते हैं । शतक — एक जीव अपने मरण के द्वारा लोकाकाश के समस्त प्रदेशों, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समय तथा अनुभाग बंध के स्थानों को जिस किसी भी प्रकार ( बिना क्रम के ) से और अनुक्रम से स्पर्श कर लेता है तब क्रमशः बादर और सूक्ष्म क्षेत्रादि पुद्गल परावर्त होते हैं । विशेषार्थ जैन साहित्य में प्रत्येक विषय की चर्चा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से की जाती है । इन्हीं चार अपेक्षाओं को लेकर यहां पुद्गल परावर्त का कथन किया जा रहा है । परावर्त का अर्थ है परिवर्तन, फेरबदल, उलटफेर इत्यादि । द्रव्य से यहां Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३२५ पुद्गल द्रव्य का ग्रहण किया गया है । क्योंकि एक तो प्रत्येक परिवर्तन के साथ पुद्गल शब्द लगा हुआ है और उसके ही द्रव्यपुद्गल परावर्त आदि चार भेद बतलाये हैं। दूसरे जीव के संसार भ्रमण का कारण पुद्गल द्रव्य ही है, संसार अवस्था में जीव उसके बिना रह ही नहीं सकता है । इसीलिये पुद्गल के सबसे छोटे अणु-परमाणु को यहां द्रव्य पद से माना है। आकाश के जितने भाग में वह परमाणु समाता है, उसे प्रदेश कहते हैं और वह प्रदेश लोकाकाश का ही एक अंश है, क्योंकि जीव लोकाकाश में ही रहता है । पुद्गल का एक परमाणु एक प्रदेश से उसी के समीपवर्ती दूसरे प्रदेश में जितने समय में पहुँचता है, उसे समय कहते हैं । यह काल का सबसे छोटा हिस्सा है । भाव से यहां अनुभाग बंध के कारणभूत कषाय रूप भाव लिये गये हैं। इन्हीं द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के परिवर्तन को लेकर चार परिवर्तन माने गये हैं। यद्यपि द्रव्यपुद्गल परावर्त के सिवाय अन्य किसी भी परावर्त में पुद्गल का परावर्तन नहीं होता है, क्योंकि क्षेत्रपदगल परावर्त में क्षेत्र का, कालपुद्गल परावर्त में काल का और भावपुद्गल परावर्त में भाव का परावर्तन होता है, किन्तु पुद्गल परावर्त का काल अनन्त उर्पिणी और अवसर्पिणी काल के बराबर बतलाया है और क्षेत्र, काल और भाव परावर्त का काल भी अनन्त उत्सपिणी और अनन्त अवसर्पिणी होता है, अतः इन परावों की पुद्गल परावर्त संज्ञा रखी पुद्गलानाम्-परमाणूनाम् ओसारिकाविरूपतया विवक्षितकशरीररूपतया वा सामस्स्येन परावतः परिणमनं यावति काले स तावान् काल: पुदगलपरावर्तः । इदं च शम्बस्य व्युत्पत्तिनिमित, अनेन च व्युत्पत्तिनिमित्तेन (शेष अगले पृष्ठ पर दे) Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ शतक जब जीव मरण कर-करके पुद्गल के एक-एक परमाणु के द्वारा समस्त परमाणुओं को भोग लेता है तो वह द्रव्यपुद्गल परावर्त और आकाश के एक-एक प्रदेश में मरण करके समस्त लोगकाश के प्रदेशों को स्पर्श कर चुकता है तब वह क्षेत्रपुद्गल परावर्त कहलाता है । इसी प्रकार काल और भाव पुद्गल परावर्तों के बारे में जानना चाहिये । यह तो स्पष्ट है कि जब जीव अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण कर रहा है तब अभी तक एक भी ऐसा परमाणु नहीं बचा है कि जिसका उसने भोग न किया हो, आकाश का एक भी प्रदेश ऐसा नहीं बचा जहाँ वह न मरा हो और उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल का एक भी समय शेष नहीं रहा जिसमें वह मरा न हो और ऐसा एक भी कषायस्थान बाकी नहीं रहा, जिसमें वह न मरा हो । उसने उन सभी परमाणु, प्रदेश, समय और कषायस्थानों का अनेक बार अपने मरण के द्वारा भोग कर लिया है । इसी को दृष्टि में रखकर द्रव्यपुद्गल परावर्त आदि नामों से काल का विभाग कर दिया है और जो पुदगल परावर्त जितने काल में होता है, उतने काल के प्रमाण को उस पुद्गल परावत के नाम से कहा जाता है। इसीलिए ग्रन्थकार ने पुद्गल परावर्त के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चार भेदों का यहां वर्णन किया है। पुद्गल परावर्त के काल का ज्ञान कराने के लिये गाथा में संकेत किया है कि वह अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल के स्वकार्थसमवायिप्रवृत्तिनिमित्तमनन्तोत्सपिण्यवसपिणीमानस्वरूप लक्ष्यते । तेन क्षेत्रपुद्गलपरावदिौ पुद्गलपरावर्तनाभावेऽपि प्रतिनिमित्तस्थानन्तोत्सपिण्यवपिणीमानस्वरूपस्य विद्यमानत्वात् पुद्गलपरावर्तशरदः प्रवर्तमानो न विरुद्ध यते । प्रवचन टी पृ० ३०० उ० Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३२७ बराबर होता है । अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल का एक पुद्गल परावर्त होता है । पुद्गल परावर्त के है' ने भाने तरह यानी द्रव्यपुद्गल परावर्त, क्षेत्रपुद्गल परावर्त, कालपुद्गल परावर्त और भावपुद्गल परावर्त । इन चारों भेदों में से प्रत्येक के बादर और सूक्ष्म यह दो भेद होते हैं दुह बायरो सुमो । अर्थात् पुद्गलपरावर्त का सामान्य से काल अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी प्रमाण है और द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव ये चार मूल भेद हैं। ये मूल भेद भी प्रत्येक सूक्ष्म, बादर के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। जिनके लक्षण नीचे स्पष्ट करते हैं । सर्वप्रथम बादर और सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त का स्वरूप बतलाते हैं । द्रव्यपुद्गल परावर्त - पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि अनेक प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं से लोक भरा हुआ है और उन वर्गणाओं में से आठ प्रकार की वर्गणायें ग्रहणयोग्य हैं यानी जीव द्वारा ग्रहण की जाती हैं और जीव उन्हें ग्रहण कर उनसे अपने शरीर, मन, वचन आदि की रचना करता है। ये वर्गणायें हैं १ ओदारिक ग्रहणयोग्य वर्गणा, २ वैक्रिय ग्रहणयोग्य वर्गणा, ३ आहारक ग्रहणयोग्य वर्गणा, ४ तेजस ग्रहणयोग्य वर्गणा, ५ भाषा ग्रहणयोग्य वर्गणा, ६ श्वासोच्छ्वास ग्रहणयोग्य वर्गणा, ७ मनो ग्रहणयोग्य वर्गणा, कार्मण ग्रहणयोग्य वर्गणा । इन वर्गणाओं में से जितने समय में एक जीव समस्त परमाणुओं को आहारक ग्रहणयोग्य वर्गणा को छोडकर शेष औदारिक, वैक्रिय, तेजस, भाषा, आनप्राण, मन और कार्मण शरीर रूप परिणमाकर उन्हें भोगकर छोड़ देता Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक है, उसे बादर द्रव्ययुगल परावर्त कहते हैं। और जितने समय में समस्त परमाणुओं को औदारिक आदि सात वर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा का परिणामा कर रहे महा ना छोड़ देता है, उतने समय को सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त कहते हैं। उक्त कथन का सारांश यह है कि बादर द्रव्यपुद्गल परावर्त में तो समस्त परमाणुओं को आहारक को छोड़कर सात रूप से भोगकर छोड़ा जाता है और सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त में उन्हें केवल किसी एक रूप से ग्रहण करके छोड़ा जाता है । यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यदि समस्त परमाणुओं को एक औदारिक शरीर रूप परिणमाते समय मध्य में कुछ परमाणुओं को वैक्रिय शरीर आदि रूप ग्रहण करके छोड़ दिया या समस्त परमाणुओं को वैक्रिय आदि शरीर रूप ग्रहण करके छोड़ दिया अथवा समस्त परमाणुओं को वैक्रिय शरीर रूप परिणमाते समय बीच-बीच में कुछ परमाणुओं को औदा. रिक आदि रूप से ग्रहण करके छोड़ दिया तो वे गणना में नहीं लिये जाते हैं । किन्तु जिस शरीर रूप परिवर्तन चालू है, उसी शरीर रूप जो पुद्गल परमाणु ग्रहण करके छोड़े जाते हैं, उन्हें ही सूक्ष्म द्रव्यपुद् गल परावर्त में ग्रहण किया जाता है। आहारक शरीर को छोड़ने का कारण यह है कि आहारक शरीर एक जीव को अधिक-से-अधिक चार बार ही हो सकता है । अत: वह पुद्गल परावर्त में उपयोगी नहीं हैआहारकशरीरं बोत्कृष्टतोऽप्येकजीवस्य वारपतुष्टयमेव सम्भवति, ततस्तस्य पुद्गलपरावर्त प्रत्यनुपयोमान्न ग्रहणं कृतमिति । -प्रवचन दीका, पृ. ३०८ स० २ एतस्मिन् सूक्ष्मे द्रव्यपुद्गलपरावर्ते विवक्षितकशरीरव्यतिरेकेणान्य शरीरतया ये परिमुज्य परिभुज्य परित्यज-ते ते न गण्यन्ते, किन्तु प्रभूतेऽपि काले गते सति ये च विवक्षितकशारीररूपतया परिणम्यन्ते त एष गण्यन्ते । --प्रवचन टोका पृ० ३०० उ. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ ३२३ द्रव्यपुद्गल परावर्त के बारे में किन्हीं - किन्हीं आचार्यों का मत है कि अव इमो दध्याई ओराल विजयते कम्मे हि । नीसेसदव्य गहणंमि बायरो होइ परियो ॥" एके तु आचार्या एवं व्यपुद्गलपरावर्त स्वरूप प्रतिपादयन्ति तथाहि यको जीवोऽनेकर्मवग्रहरौदारिकशरोरवं क्रियशरीर ते असणरीरकार्मणशरीरचतुष्टयरूपतया यथास्वं सकललोकयतिन सर्शम् पुद्गलान् परिणमय्य मुञ्चति तदा वाद द्रश्यपुदगलपरावर्ती भवति । यथा पुत्ररौदारिकावितुष्टयमध्यादेकेन केन चिच्छरीरेण सर्वपुद्गलान् परिणमस्य मुश्चति शेषशरीरपरिमितास्तु पुवगला न गृह्यन्ते एव तदा सूक्ष्मो द्रव्यपुद्गलपरावर्ती भवति ।" - समस्त पुद्गल परमाणुओं को औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण इन चार शरीर रूप ग्रहण करके छोड़ देने में जितना काल लगता है, उसे बादर द्रव्यपुद्गल परावर्त कहते हैं और समस्त पुद्गल परमाणुओं को उक्त चारों शरीरों में से किसी एक शरीर रूप परिणमा कर छोड़ देने में जितना काल लगता है, उतने काल को सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त कहते हैं । इस प्रकार से बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकार के द्रव्यपुद्गल परावर्त के स्वरूप को बतलाने के बाद अब क्षेत्र, काल और भावपुद्गल परावर्ती का स्वरूप बतलाते हैं । द्रव्यपुद्गल परावर्त के समान ही क्षेत्र, काल और भाव पुद्गल परावर्ती में से प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर यह दो-दो प्रकार हैं । सामान्य तौर पर जीव द्वारा लोकाकाश के समस्त प्रदेशों का १ प्रवचन० गा० ४१ १ पंचम कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका, पृ० १०३ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० अपने मरण के द्वारा स्पर्श करना क्षेत्रपुद्गल परावर्त का अर्थ है और उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के सभी समयों का अपने मरण द्वारा स्पर्श करना तथा अनुभाग बंध के कारणभुत समस्त कषायस्थानों का अपने मरण द्वारा स्पर्श कर लेना क्रम से काल और भाव पुद्गल परावर्त कहलाते हैं । जिनका विशद स्पष्टीकरण नीचे लिखे अनुसार है । मतक क्षेत्रपुद्गल परावर्त - कोई एक जीव भ्रमण करता हुआ आकाश के किसी एक प्रदेश में मरा और वही जीव पुनः आकाश के किसी दूसरे प्रदेश में मरा, तीसरे, चौथे आदि प्रदेशों में मरा। इस प्रकार जब वह लोकाकाश के समस्त प्रदेशों में मर चुकता है तो उतने काल को बादर, क्षेत्र पुद्गल परावर्त कहते है । वादर क्षेत्रपुद्गल परावर्त में क्रमअक्रम आदि किसी भी प्रकार से समस्त आकाश प्रदेशों को स्पर्श कर लेना ही पर्याप्त माना जाता है । - सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त में भी आकाश प्रदेशों को स्पर्श किया जाता है, लेकिन उसकी विशेषता इस प्रकार है कि कोई जीव भ्रमण करता-करता आकाश के किसी एक प्रदेश में मरण करके पुनः उस प्रदेश के समीपवर्ती दूसरे प्रदेश में मरण करता है, पुनः उसके निकटवर्ती तीसरे प्रदेश में मरण करता है। इस प्रकार अनन्तर -अनन्तर क्रम से प्रदेश में मरण करते-करते जब समस्त लोकाकाश के प्रदेशों में सरण कर लेता है, तब वह सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त कहलाता है । उक्त कथन का सारांश और बादर व सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त में अन्तर यह है कि बादर में तो क्रम का विचार नहीं किया जाता है, उसमें व्यवहित प्रदेश में मरण करने पर यदि वह प्रदेश पूर्व स्पृष्ट नहीं है तो उसका ग्रहण होता है, यानी वहां क्रम से या बिना क्रम से समस्त प्रदेशों में मरण कर लेना हो पर्याप्त समझा जाता है किन्तु सूक्ष्म में समस्त प्रदेशों में क्रम से ही भरण करना चाहिये और अक्रम • Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्रन्ध से जिन प्रदेशों में मरण किया जाता है अथवा पूर्व मरणस्थान में पुनः जन्म लेकर मरण किया जाता है तो उनकी गणना नहीं की जाती है । इससे यह स्पस्ट है कि बादर की अपेक्षा सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त में समय अधिक लगता है ! बादर का समय कम और सूक्ष्म का समय अधिक है। सूक्ष्म क्षेत्रपुद्गल परावर्त के संबन्ध में एक बात और जानना चाहिए कि एक जीव की जघन्य अवगाहना लोक के असंख्यातवें भाग बतलाई है, जिससे एक जीव यद्यपि लोकाकार के एक प्रदेश में नहीं रह सकता तथापि पिता एक दश में भरग करने पर उस देश का कोई एक प्रदेश आधार मान लिया जाता है। जिससे यदि उस विवक्षित प्रदेश से दूरवर्ती किन्हीं प्रदेशों में मरण होता है तो वे गणना में नहीं लिये जाते हैं किन्तु अनन्तकाल बीत जाने पर जब कभी विवक्षित प्रदेश के अनन्तर का जो प्रदेश है, उसमें मरण करता है तो वह गणना में लिया जाता है। प्रदेशों को ग्रहण करने के बारे में किन्ही-किन्ही आचार्यों का मत है कि लोकाकाश के जिन प्रदेशों में मरण करता है वे सभी प्रदेश ग्रहण किये जाते हैं, उनका मध्यवर्ती कोई विवक्षित प्रदेश ग्रहण नहीं किया जाता है अन्ये तु व्याचक्षते—येष्वाकाशप्रदेशेष्वगाढो जीवो मृतस्ते सर्वेऽपि आकाशप्रदेशाः गण्यन्ते, न पुनस्तन्मध्यवर्ती विवक्षितः कश्चिदेक एवाकाशप्रदेश इति । -प्रवचन टीका पृ० ३० उ. कासपुरगल परावर्त-जितने समय में एक जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सब समयों में कम से या अक्रम से मरण कर चुकता है, उतने काल को बादर कालपुद्गल परावर्त कहते हैं और कोई एक जीव किसी विवक्षित अवसर्पिणी काल के पहले समय में मरा, पुनः उसके निकटवर्ती दूसरे समय में मरा, पुनः तीसरे समय में मरा, इस Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातक प्रकार क्रमवार अवपिणी और उत्सर्पिणी काल के मव समय में जब मरण कर चुकता है तो उसे सूक्ष्म कालपुद्गल परावर्त कहते हैं। क्षेत्र की तरहही यहां भी समयों की गणना क्रमबार करना चाहिये, अक्रमवारकी गणना नहीं करना चाहिये । इसका अर्थ यह हुआ कि कोई जीव अवसर्पिणी के प्रथम समय में मरा, उसके बाद एक समय कम बोस कोड़ाकोड़ी सागरोपम के बीत जाने के बाद पुनः अवसर्पिणी काल के प्रारम्भ होने पर उसके दुसरे समय में मरे तो वह द्वितीय समय गणना में लिया जाता है । मध्य के शेष समयों में उसकी मृत्यु होने पर भी वे गणना में नहीं लिये जाते हैं । यदि वह जीव उक्त अवसर्पिणी के द्वितीय समय में मरण को प्राप्त न हो किन्तु अन्य समयों में मरण करे तो उनका भी ग्रहण नहीं किया जाता है किन्तु अनन्त उत्सपिणी और अवसर्पिणी के बीत जाने पर जब भी अवसर्पिणी के दूसरे समय में ही मरता है तब वह काल ग्रहण किया जाता है । इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पांचवें आदि समयों के बारे में भी समझना चाहिये कि जितने समयों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में क्रम से मरण कर चुकता है, उस काल को सूक्ष्म कालपुद्गल परावर्त कहते हैं । मावपुद्गल परावर्त-अनुभागबंधस्थान- कषायस्थान तरतम भेद को लिये असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर हैं अर्थात् उनकी संख्या असंख्यात है। उन अनुभागबंधस्थानों में से एक-एक अनुभागबंधस्थान में कम से या अक्रम से मरण करते-करते जीव जितने समय में समस्त अनुभागबंधस्थानों में मरण कर चुकता है, उतने समय को बादर भावपुद्गल परावर्त कहते हैं और सबसे जघन्य अनुभागबंधस्थान में वर्तमान कोई जीव मरा, उसके बाद उस स्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभागबंधस्थान में मरा, उसके बाद उसके अनन्तरवर्ती तीसरे आदि अनुभागबंधस्थानों में मरा आदि । इस प्रकार क्रम से जब समस्त अनुभागबंधस्थानों में मरण कर लेता है तो वह सूक्ष्मभावपुद्गल परावर्त कहलाता है । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माग्रज ___ बादर और सूक्ष्म भावपुद्गल परावों में भी अन्य परावतों की तरह यह अन्तर समझना चाहिये कि कोई जीव सबसे जघन्य अनुभागबंधस्थान में मरण करके उसके बाद अनन्तकाल बीत जाने पर भी जब प्रथम अनुभागस्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभागबंधस्थान में मरण करता है तो सूक्ष्म भावपुद्गल परावर्त में वह मरण गणना में लिया जाता है किन्तु अक्रम से होने वाले अनन्त अनन्त मरण गणना में नहीं लिये जाते हैं | इसी तरह कालान्तर में द्वितीय अनुभागबंधस्थान के अनन्तरवर्ती तीसरे अनुभागबंधस्थान में जब मरण करता है तो वह मरण गणना में लिया जाता है। चौथे, पांचवें आदि स्थानों के लिये भी यही क्रम समझना चाहिये । अर्थात् वादर में तो क्रम-अक्रम किसी भी प्रकारसे होने वाले मरणों की और सूक्ष्म में सिर्फ क्रम से होने वाले मरणों की गणना की जाती है। इस प्रकार से बादर और सूक्ष्म पुदगल परावतों' का स्वरूप बत(क) पंचसंग्रह २१३७-४१ तक में भी इसी प्रकार द्रव्य आदि चारों पुद्गल परा. वों का स्वरूप, भेद आदिका वर्णन किया है। वे गाथायें इस प्रकार हैं पोग्गल परिथट्टो इह दवाइ चविहो मुणेयचो । एक्केको पुण दुविहो बायरमुहमत्तभेएणं ॥ संसारमि अडतो जाव य कालेण फुसिय सच्वाण । इगु जो मुयइ बायर अग्नय रतणुष्टिो सुहुमो । लोगस्स पएसेसु अणंतरपरंपराविभत्तीहि । खेत्तमि बायगे सो सहमो 3 अणंतरमयस्स ॥ उम्सप्पिणिरामगम अणंन रपरंगराविभत्तीहि । कालम्मि वायरो मो मुहुमो उ अणंज्ञरमयस्स ।। अणुभागठाणेमु अणंतरपरंपराविभत्तीहि । भावमि बायरी सो मुहमो मध्येमनुक्रमसो ॥ (j दिगम्बर साहित्य में परावर्ती का वर्णन भिन्न रूप से किया गया है । उक्त वर्णन परिशिष्ट में देखिये ।। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतक लागे ताद अब सामन्यले उत्तुर और जना प्रदेशबंध के स्वामी बतलाते हैं। अप्पयरपडियंघो उक्फ बोगो य सनिपज्जत्तो। कुणइ पएसुक्कोसं महलयं तस्स बचासे ॥६॥ शब्दार्थ-अप्पयरपश्बिंधी-अल्पतर प्रकृतियों का बंध करने वाला, उपकरणोगी-उत्कृष्ट योग का धारक, 4-और, सनिपश्यसो- संझी पर्याप्त, कुणह--करता है, पएसुक्कोसं--प्रदेशों का उत्कृष्ट बंध, जहन यं --जघन्य प्रदेशबंध, सस्स-उसका, बच्चाले–विपरीतता से । गापार्ष-अल्पतर प्रकृतियों का बंध करने वाला उत्कृष्ट योग का धारक और पर्याप्त संजी जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है तथा इसके विपरीत अर्थात् बहुत प्रकृतियों का बंध करने वाला अधन्य योग का धारक अपर्याप्त असंशी जीव जघन्य प्रदेशबंध करता है। विशेषार्थ--इस गाथा में उत्कृष्ट प्रदेशबंध और जघन्य प्रदेशबंध करने वाले का कथन किया गया है। जो मूल और उत्तर प्रकृतियां अल्प बांधे वह उत्कृष्ट प्रदेशबंश्च करता है । क्योंकि कर्मप्रकृतियों के अल्प होने से प्रत्येक प्रकृति को अधिक प्रदेश मिलते हैं । इसीलिये अल्पतर प्रकृति का बंधक और उत्कृष्ट योग का धारक ऐसा संज्ञी पर्याप्त जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है और इससे विपरीत स्थिति में यानी अधिक प्रकृतियों को बांधने वालों के कर्मदलिकों को अधिक भागों में (प्रकृतियों में) विभाजित हो जाने से प्रत्येक को अल्प प्रदेश मिलते हैं । इसीलिये अधिक प्रकृतियों का बंधक और मंद योग वाला असंही अपर्याप्त जीव जघन्य प्रदेशबंध करता है। इसका स्पष्टीकरण नीचे लिखे अनुसार है । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ * उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों का कथन करने के प्रसंग में निम्नलिखित बातों पर प्रकाश डाला गया है। १ - जैसे अधिक द्रव्य की प्राप्ति के लिये भागीदारों का कम होना आवश्यक है, वैसे ही उत्कृष्ट प्रदेशबंध का कर्ता थोड़ी प्रकृतियों का बाँधने वाला होना चाहिये। क्योंकि पहले कर्मों के बटवारे में यह बतलाया जा चुका है कि एक रामण में जिका होता है, वे सब उन उन प्रकृतियों में विभाजित हो जाते हैं जिनका उस समय बंध होता है । इसीलिये यदि बंधने वाली प्रकृतियों की संख्या अधिक होगी तो बटवारे के समय उनको थोड़े-थोड़े प्रदेश मिलेंगे और यदि प्रकृतियों की संख्या कम होती है तो बटवारे में अधिक अधिक दलिक मिलते हैं। २- अधिक प्राप्ति के लिये जैसे अधिक आय होना आवश्यक है, वैसे ही उत्कृष्ट प्रदेशबंध करने वाला उत्कृष्ट योग वाला होना चाहिये। क्योंकि प्रदेशबंध का कारण योग है और यदि योग तीव्र होता है तो अधिक संख्या में कर्मदलिकों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होगा तथा योग मंद है तो कर्मदलिकों की संख्या में भी कमी रहती है । इसीलिये उत्कृष्ट प्रदेशबंध के लिये उत्कृष्ट योग का होना बत लाया है - उक्कड जोगी । - ३-४ – उत्कृष्ट प्रदेशब॑ध के स्वामी के लिये तीसरी बात यह आवश्यक है कि - सन्निपज्जतो वह संज्ञी पर्याप्तक होना चाहिये। क्योंकि अपर्याप्तक जीव अल्प आयु और शक्ति वाला होता है, जिससे वह उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं कर सकता। पर्याप्तक होने के साथ-साथ संज्ञी होना चाहिये। क्योंकि पर्याप्तक होकर यदि वह संज्ञी नहीं हुआ तो भी उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं कर सकता है। असंज्ञी जीव की शक्ति भी अपरिपूर्ण रहती है । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ पतक इसीलिये उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व के कथन के प्रसंग में--- उत्कृष्ट योग होने पर उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है तथा संझी पर्याप्त को ही उत्कृष्ट योग होता है, यह बतलाने के लिये गाथा में 'उक्कड़जोगी व सनिपज्जत्तो' यह तीन सार्थक विशेषण दिये गये हैं । यद्यपि गाथा ५३-५४ में योगों का अल्पबहुत्व बतलाते हुए सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक को सबसे जघन्य और संज्ञी पर्याप्त को सबसे उत्कृष्ट योग बतलाया है । अतः 'उक्कइजोगी' कह देने से संज्ञी पर्याप्तक का बोध हो ही जाता है तथापि अधिक स्पष्टता के लिये 'सन्निपज्जत्तो' यह दो पद रखे गये हैं । उत्कृष्ट योग होने पर बहुत से जीव अधिक प्रकृतियों का संभ करते हैं. किन्त उत्कृष्ट योग के साथ थोड़ी प्रकृतियों का अंध होना आवश्यक है। इससे विपरीत दशा में अर्थात् यदि बहुत प्रकृतियों का बंध करने वाला हो, योग भी मंद हो तथा अपर्याप्त असंशी हो तो जघन्य प्रदेशबंध करता है । इस प्रकार सामान्य से उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामित्व के बारे में जानना चाहिये । ___अब मूल और उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा से उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामी बतलाते हैं। मिच्छ अजयचउ आऊ बितिगुण विणु मोहि सत्त मिच्छाई छण्हं सतरस सुहमो अजया देसा बिलिकसाए ॥६॥ पंचसंयह और गो० कर्मकांड में भी उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामी की यही योग्यतायें बतलाई हैं। यथा अप्पसरपगइबंधे उस्कडजोगी उ सन्निपज्जत्तो।। कुणाई पएसुक्कोसं जहन्नयं तस्स वच्चासे । -पंचसंग्रह २६८ उक्कड़जोगो सण्णी पज्जत्तो पयडिब धमप्पदरो। कुणदि पये सुक्कसं जपणए जाण दिवरीयं ।। गो० कर्मकांर २१० Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३७ शब्दार्थ-मिछ- मियादृष्टि, अजयचउ –अविरत सम्यम् हदि आदि चार गुणस्थान वाले, आम-आयु कर्म का, वितिगुणविणु - दूसरे और तीसरे गुणस्थान के बिना, मोहि-मोहनीय कर्म का, सत्त-सात गुणस्थान वाले, मिलाई मिथ्यात्वादि, छह-छह मूल प्रकृतियों का, सतरस सत्रह प्रकृतियों का सहमी - सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान बाला, अममा विरत सम्मास्टरित सा-गविरति, रितिकसाय—दूसरी और नीरो कषाय का। गाथार्थ-मिथ्या दृष्टि और अविरत आदि चार गुणस्थान बाले आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध करते हैं । दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय मिथ्यात्व आदि सात गुणस्थान वाले मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा शेष छह कमों और उनकी सत्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सूक्ष्म मंपराय गुणस्थान नामक दसवें गुणस्थान में रहने वाले करते हैं। द्वितीय कपाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तथा तीसरी कषाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध देशविरति वारते हैं। विशेषार्थ-..इस गाथा में मूल नवा कुछ उपर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के ग्वामियों को बतलाया है। __ मर्व प्रथम मूल कर्मों में से आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध बतलाते हुए कहा है - मिच्छ अजयत्रउ आऊ'- पहले मिथ्यात्व मुगुणस्थान वाले और अविरत चतुष्क अर्थात् चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि, पांचवें देशविरति, छठे प्रमत्तविरत और सातवं अप्रमत्नाविरत, यह पांच गुणस्थान वाले जीव करते हैं। शेष गुणस्थानों में आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध न बतलाने का कारण यह है कि तीसरे और आठवें आदि गुणस्थानों में तो आयुकर्म का बंध होता ही नहीं है। यद्यपि दूसरे गुणस्थान में आयुकर्म का बंध होता है, किन्तु यहाँ उत्कृष्ट Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक प्रदेशबंध का कारण उत्कृष्ट योग नहीं होता है। इसीलिये पहले और चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान के सिवाय शेष गुणस्थानों में आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नहीं बतलाया है । दुसरे सासादन गुणस्थान में उत्कृष्ट योग न होने का कारण स्पष्ट कारते हुए गाथा की स्वोपज्ञ टीका में बताया है कि आगे मिथ्याष्टि गुणस्थान में अनंतानुबंधी कषाय के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के सादि और अध्रुव दो ही प्रकार बतलायेंगे तथा सासादन में अनन्तानुबंधी का बंध तो होता ही है अतः वहां यदि उत्कृष्ट योग होता तो जैसे अविरत आदि गुणस्थानों में अप्रत्याख्यानावरण आदि प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशवंध होने के कारण वहां उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के भी मादि आदि चारों विकल्प बतलायेंगे वैसे ही सासादन में अनन्तानुबंधी का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होने के कारण उसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के सादि आदि चारों विकल्प भी बतलाने चाहिये थे, किन्तु वे नहीं बतलाये हैं। अतः उससे ज्ञात होता है कि या तो सासादन का काल थोड़ा होने के कारण वहाँ इस प्रकार का प्रयत्न नहीं हो सकता या अन्य किसी कारण से सासादन में उत्कृष्ट योग नहीं होता है तथा आगे मतिज्ञानावरण आदि प्रकृतियों का सुक्ष्मसंपराय गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशबंध बतला कर शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में बतलायेंगे । जिससे यह ज्ञात होता है कि सासादन में उत्कृष्ट योग नहीं होता है। इस प्रकार सासादन गुणस्थान में उत्कृष्ट योग का अभाव बतलाकर लिखा है कि जो सासादन को भी आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी कहते हैं, उनका मत उपेक्षणीय है । 'अतो ये सास्वादन मप्यायुष उत्कृष्ट प्रदेश स्वामिनमिनन्ति जन्मनमुपक्षणीयमिति स्थितम् ।' इस काथन से यह ज्ञात होता है कि कोई-कोई आचार्य सासादन में आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध को मानते हैं । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचप कर्मग्रन्थ 9ኛ मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध होने के बारे में गाथा में संकेत दिया है कि-बितिगुण बिणु मोहि सन्न मिच्छाई-दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर मिथ्यात्व आदि सात गुणस्थानों में मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। अर्थात् मिथ्यात्व, अविरत, देशविपति, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन सात गुणस्थानों में मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध बतलाया है। सासा. दन और मिश्र गुणस्थान में उत्कृष्ट योग नहीं होता है, जिससे वहां उत्कृष्ट प्रदेशबंध भी नहीं होता है। सासादन में उत्कृष्ट योग न होने के संबंध में ऊपर संकेत किया जा चुका है और मिश्र गुणस्थान में भी उत्कृष्ट योग न होने का कारण यह बतलाया गया है कि दूसरी कषाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध अविरत गुणस्थान में बतलाया गया है । यदि मिश्र में भी उत्कृष्ट योग होता तो उसमें भी दुसरी कषाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध बतलाया जाता । यदि यह कहा जाये कि अविरत गुणस्थान में मिश्र गुणस्थान से कम प्रकृतियां बंधती हैं अतः अविरत को ही उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी बतलाया है, लेकिन यह युक्ति ठीक नहीं है, क्योंकि साधारण अवस्था में अविरत में भी सात ही कर्मों का बंध होता है और मिश्र में तो सात कर्मों का बंध होता ही है तथा अविरत में भी मोहनीय की सत्रह प्रकृतियों का बंध होता है और मिश्र में भी उसकी सत्रह प्रकृतियों का बंध होता है । अतः मिश्र में उत्कृष्ट प्रदेशबंध को न बतलाने में उत्कृष्ट योग का अभाव कारण है । ___ आयु और मोहनीय के सिवाय शेप छह कर्मों --ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अंतराय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में होता है। सूक्ष्मसंपराय में उत्कृष्ट योग तो होता ही है तथा थोड़े कर्मों का बंध होने के कारण उसका ही ग्रहण किया है। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० छह मूल कर्म प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का कथन करते हुए इसी के साथ उनकी सत्रह उत्तर प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध भी सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में बतलाया है-हं सतरस सुहुमो । उक्त सत्रह प्रकृतियां इस प्रकार हैं-मतिज्ञानावरण आदि पांच ज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण आदि चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यश कीर्ति, उच्चगोत्र और दानात राय आदि पांच अंतराय कर्म के भेद । मोहनीय और आयु के सिवाय शेष छह मूल कर्म तथा उनकी भतिज्ञानावरण आदि सत्रह उत्तर प्रकृत्तियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध दसवें गृणस्थान में मानने का कारण यह है कि मोहनीय और आयुकर्म का बंध न होने के कारण उनका भाग शानावरण आदि शेष छह कर्मों को मिल जाता है। द्वितीय कपाय अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध चौथे अविरत सम्यग्हाष्ट स्थान में और तीसरी कषाय प्रत्याख्यानावरण का उत्कृष्ट प्रदेशबंध पांचवें देशविरति गुणस्थान में होता हैअजया देसा वित्तिकसाए । इसका कारण यह है कि अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मिश्यान्त्र और अनन्तानुबंधन का बंध नहीं होने से उनका भाग अप्रत्याख्यानावरण कपात्र को मिल जाता है तथा देशविरति भुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कपाय का भी बंध नहीं होने से उसका भाग प्रत्याख्यानावरण कयाय को मिलता है। इसीलिए चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण झपाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा पांचवें देशविरति गृणास्थान में प्रत्याग्यानावरण कपाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध माना है। __ इस प्रकार में मूल कर्म प्रकृतियों और कुछ उन्नर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का निर्देश करने के बाद आगे की गाथाओं में अन्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का कथन करते हैं। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ पण अनियट्टी सुखाइ नराउसुरसुभगतिविवियुग । समच उरसमसाय बदरं मिनछो छ सम्मो बा || निद्दापयलादुजुयलभय कुच्छातित्य सामगो सुजई। आहारदुगं सेसा उस्कोसपएसगा मिच्छो ॥२॥ शब्दार्थ - पण - पांच {पुरुपवेद और संज्वलन चतुष्प.) भनियट्टी-अनिवृत्तिबादर गुणस्थान वाला, सुषगा--शुभ विहायोगनि, नराउ -मनुष्यायु, सुरसुमगतिग –देवत्रिक और सुभगत्रिक, विधि. सुगं ..क्रिय द्विक, समचउरसं-समचतुरस संस्थान, असायं-. असातावेदनीय, वारं - दन ऋपभनाराच संहनन, मिच्यो-मिथ्यादृष्टि व- अथवा, सम्मो-सम्यग्दृष्टि, या अथवा । निद्दापयला -निद्रा और प्रचला, दुमुयल-दो युगल, भयकुन्छातित्य-भय, जुगुप्सा और तीर्थकर नामकर्म, सम्मगोसम्यग्दृष्टि, सुजाई -- अप्रमत्त यनि और अपूर्वकरण गुणस्थान वाला, आहारसुगं--आहारकदिक का, सेसा–बाकी की प्रकृतियों का, उकोसपएसगा -उत्कृष्ट प्रदेशबंध, मिच्यो-मिथ्याष्टि (करता है)। ___ गाथार्थ-अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में पांच (पुरुषवेद, संञ्चलन चतुष्क) प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । शुभ विहायोगति, मनुष्यायु, देवत्रिक, सुभगत्रिक, वैक्रियहिक, समचतुरस्रसंस्थान, असातावेदनीय, वजऋषभनाराच संहनन, इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्या दृष्टि जीव करते हैं । निद्रा, प्रचला, दो युगल (हास्य-रति और शोक-अरति), भय, जुगुप्सा, तीर्थकर, इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं | आहारकद्विक का उत्कृष्ट Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ पात प्रदेशबंध अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनि और शेष प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिध्यादृष्टि जीव करते हैं । विशेषार्थ — बंधयोग्य एकसौ बीस प्रकृतियों में से पच्चीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का कथन पूर्व गाथा में किया जा चुका है। उनके सिवाय शेष बची हुई ८५ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों को इन दो गाथाओं में बतलाया है । इन ६५ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामित्व को पांच खंडों में विभाजित किया है। पहले खंड में पांच, दूसरे में तेरह, तीसरे में नौ, चौथे में दो और पांचवें में उक्त प्रकृतियों के अलावा शेष रही ६६ प्रकृतियों को ग्रहण किया है। पहले खंड में पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ, इन पाँच प्रकृतियों का समावेश करते हुए कहा है- पण अनियट्टी --यानि अनिवृत्तिबादर नामक नौवें गुणस्थानवर्ती जीव पुरुषवेद और संज्वलन चतुष्क, इन पांच प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध करते हैं। क्योंकि पुरुषवेद नोकषाय मोहनीय का भेद है और नौवें गुणस्थान में छह नोकषायों का बंध न होने के कारण उनका भाग पुरुषवेद को मिल जाता है तथा पुरुषवेद के बंध का विच्छेद होने के बाद संज्वलन कषाय चतुष्क का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । क्योंकि मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण इन बारह कषायों व नोकषायों का सब द्रव्य संज्वलन कषाय चतुष्क को मिलता है। दूसरे खंड में गर्भित तेरह प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं- शुभ विहायोगति, मनुष्यायु, देवत्रिक (देवगति, देवानुपूर्वी और देवायु), सुभगत्रिक (सुभग, सुस्वर और आदेय), वैक्रियद्विक (वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग), समचतुरस्र संस्थान, असातावेदनीय, वज्रऋषभनाराच Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३४३ संहनन । इन तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध-'मिच्छचे व सम्मो घा'-मिथ्या दृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं। क्योंकि उनके यथायोग्य उत्कृष्ट प्रदेशबंध के कारण पाये जाते हैं। तीसरा खंड निद्रा, प्रचला, हास्य, रति, शोक, अरति, भय, जुगुप्सा और तीर्थकर इन नौ प्रकृतियों का है। जिनका बंध सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं। इसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है-निद्रा और प्रचला का उत्कृष्ट प्रदेशबंध चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर आठ अनूप करण गुणस्थान तक के उत्कृष्ट योग वाले सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि के स्त्याद्धित्रिक का बंध न होने के कारण उनका भाग भी निद्रा और प्रचला को मिल जाता है। इसीलिये निद्रा और प्रचला के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामी में सम्यग्दृष्टि का ग्रहण किया है । मिन गुणस्थान में भी स्त्यानद्धित्रिक का बंध नहीं होता है, किन्तु वहां उत्कृष्ट योग नहीं होने से उसका ग्रहण नहीं किया है । हास्य, रति, शोक, अरति, भय और जुगुप्सा का चौथे से लेकर आठवें गणस्थान तक जिन-जिन मुणस्थानों में बंध होता है, उन गुणस्थानों के उत्कृष्ट योग वाले सम्यग्दृष्टि जीव उनका प्रदेशबन्ध करते हैं और तीर्थकर प्रकृति का बन्ध तो सम्यग्दृष्टि जीव ही करते हैं। इसीलिये सम्यग्दृष्टि जीव को निद्रा आदि नौ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध करने वाला बतलाया है । त्रीया खंड आहारक शारीर और आहारक अंगोपांग, इन दो प्रक. तियों का है । इनका उत्कृष्ट प्रदेशबंधक सुति यानी सात अप्रमत्त संयत और आठवें अपूर्वकरण इन दो गुणस्थानवर्ती मुनि को बतलाया है । ये दोनों गुणस्थान सम्यग्दृष्टि के ही होते हैं और प्रमाद रहित होने से 'मुजई' शब्द से इन दोनों गुणस्थानों का ग्रहण किया गया है। इस प्रकार ५५ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ शतक कथन तो प्रकृतियों के नाम और उनके योग्य पात्र को बतलाते हुए कर दिया है। इनके अतिरिक्त शेष रही ६६ प्रकृतियों के लिये गाथा में बताया है कि - सेमा उक्कोसपएसगा मिच्छो-शेष रही प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिथ्यादृष्टि जीव करता है । जिसका विवरण इस प्रकार है__मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकटिक, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराधात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिरद्विक, पुनितअयशाकानि और निर्माण इन पच्चीस प्रकृतियों के सिवाय शेष ४१ प्रकृतियां सम्यग्दृष्टि को बंधती ही नहीं है । उनमें से कुछ प्रकृतियां सासादन गुणस्थान में बंधती हैं किन्तु वहां उत्कृष्ट योग नहीं होता है, अतः ४१ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मिथ्याष्टि ही करता है। उक्त पच्चीस प्रकृतियों में से औदारिक, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, बादर, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीति, निर्माण, इन पन्द्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध मामकर्म के तेईस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक जीवों के होता है और शेष दस प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नामकर्म के पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक जीवों को ही होता है, अन्य को नहीं और तेईस व पच्चीस का बंध मिथ्यादृष्टि को ही होता है । इसीलिये शेष पच्चीस अकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट योग वाले मिथ्या दृष्टि जीव ही करते हैं। इस प्रकार से समस्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के स्वामियों का निर्देश करने के बाद अब आगे की गाथा में जघन्य प्रदेशबन्ध के स्वामियों को बतलाते हैं। सुमुणो कुन्नि असन्नी निरयलिगसुराउसुरविधिबुगं । सम्मो जिणं जहन्नं सुहमनिगोयाइखणि सेसा ॥३॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्ध :४१ शब्दार्थ-सुमुणी-अप्रमत्त यति, चुम्नि-दो प्रकृतियों (आहारकटिक) का, असली--असंज्ञी, निरयतिग-नरकश्रिक, सुराडदेवायु, सुरविउविदुर्ग--देवद्विक और वैक्रियतिक, सम्मोसम्पष्टि , जिर्ण--तीर्थकर नामकर्म का, जहन्नं- जघन्य, सुहमनिगोय-सूक्ष्म नि गोदिया जीव, आइखणि-उत्पत्ति के पहले समय में, सेसा–शेष रही हुई प्रकृतियों का। गाथार्थ - अप्रमत्त मुनि आहारकद्विक का जघन्य प्रदेशबंध करते हैं । असंज्ञी जीव नरकत्रिक और देवायु का तथा सम्यग्दृष्टि जीव देव द्विक, वैक्रियद्विक और तीर्थकर प्रकृति का जघन्य प्रदेशबन्ध करते हैं। इनके सिवाय शेष रही हुई प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध सूक्ष्म निमोदिया जीव उत्पत्ति के प्रथम समय में करते हैं। विशेषार्थ - इस गाथा में जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों को बतलाया है । ग्यारह प्रकृतियों का तो नामोल्लेख करके उनके स्वामियों का कथन किया है और शेष रही १०१ प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी सूक्ष्म निगोदिया जीव को बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है। 'सुमुणी दुन्नि' यानी आहारकहिक का जघन्य प्रदेशबन्ध सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि करते हैं । यह सामान्य की अपेक्षा समझना चाहिये किन्तु विशेष से जिस समय परावर्तमान योग वाले अप्रमत्त यति (मुनि) आठ कर्मों का बंध करते हुए नामकर्म के इकतीस प्रकृति वाले बंधस्थान का बंध करते हैं और योग भी जघन्य है, उस समय ही वे आहारकदिक का जघन्य प्रदेशबंध करते हैं। यद्यपि तोस प्रकृतिक बंधस्थान में भी आहारकद्विक का समावेश है, लेकिन इकतीस में एक प्रकृति अधिक होने के कारण बटवारे के समय उनको कम द्रव्य Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासक मिलता है। इसीलिये इकतीस प्रकृतिक बंधस्थान का निर्देश किया गया है। इसी तरह परावर्तमान योग वाला असंज्ञो जीव नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी और नरकायु) और देवायु का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है - असन्नी निरयतिमसुराउ । इन चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंधक असंज्ञी पर्याप्त जीव को मानने का कारण यह है कि पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तो नरकगति और देवगति में उत्पन्न ही नहीं होते हैं, जिससे उनके उक्त प्रकृतियों का वन्ध ही नही होता है और असंज्ञो अपर्याप्त के भी इतने विशुद्ध परिणाम नहीं होते हैं जिससे देवर्गात योग्य प्रकृतियों का बंध कर सके और न इतने संक्लेश रूप परिणाम कि नरकगति योग्य प्रकृतियों का बंध हो सके। उक्त चार प्रकृतियों के बंधक असंज्ञी पर्याप्तक के परावर्तमान योग बाला मानने का कारण यह है कि यदि एक ही योग में चिरकाल तक रहने वाला लिया जायेगा तो वह तीव्र योग वाला हो जायेगा । इसीलिये परावर्तमान योग को ग्रहण किया है । क्योंकि योग में परिवर्तन होते रहते तीन योग नहीं हो सकता है । अतः परावर्तमान योग वाला, आठ कर्मों का बन्धक पर्याप्त असंज्ञी जीव अपने योग्य जघन्य योग के रहते हुए नरकत्रिक और देवायु इन चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबंध करता है। देवद्विक (देवगति, देवानुपूर्वी), वैक्रियद्विक (वं क्रिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग) और तीर्थकर इन पांच प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि जीव करता है। इसका कारण नीचे स्पष्ट किया जाता है___ कोई मनुष्य तीर्थकर प्रकृति का बंध करके देवों में उत्पन्न हुआ । वहां वह उत्पत्ति के प्रथम समय में हो मनुष्यगति के योग्य तीर्थकर Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्थ ३४७ प्रकृति सहित नामकर्म के तीस प्रकृतिक स्थान का बंध करता हुआ तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य प्रदेशबंध करता है। नरकगति में भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है किन्तु देवगति में जघन्य योग बाले अनुत्तरवासी देवों का ग्रहण किया जाता है, क्योंकि नरकगति में इतना जघन्य योग नहीं होता है। अतः नरकगति के सम्यग्दृष्टि जीव के तीर्थकर प्रकृति का जघन्य प्रदेशबन्ध नहीं बतलाया है । तिर्यचति में तीर्थकर प्रकृति का बंध ही नहीं होता है और मनुष्यगति में जन्म के प्रथम समा' में दो तीर्थकर मानि माहित नामकर्म के नतीस प्रकृ. तिक बन्धस्थान का बंध होता है, अतः प्रकृति कम होने से वहां अधिक भाग मिलता है तथा तीर्थकर सहित इकतीम प्रकृतिक बंधस्थान का बंध संयमी के ही होता है और वहां योग भी अधिक होता है । अतः तीस प्रकृतिक स्थान के बन्धक देवों के ही तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य प्रदेशबंध बतलाया है। देवद्धिक और वैक्रियहिक का जघन्य प्रदेशबंध देवगति या नरकगति से आकर उत्पन्न होने वाले मनुष्य के उस समय होता है जब बह देवगति के योग्य नामकर्म के उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध करता है। क्योंकि देव और नारक तो इन प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं करते हैं और भोगभूमिया तिर्यंच जन्म लेने के प्रथम समय में इनका बंध करते भी हैं किन्तु वे देवति योग्य अट्ठाईस प्रकृतिक बन्धस्थान का ही बंध करते हैं। जिससे उनको बटवारे के समय अधिक द्रव्य मिलता है। यही वात अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक मनुष्य के लिये भी समझना चाहिये । अतः उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक मनुष्य के हो देदिक और वैक्रियद्विक इन चार प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध बतलाया है। उक्त ११ प्रकृतियों के सिवाय शेष रही १०६ प्रकृतियों का जघन्य Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ शतक प्रदेशबंध सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने भव के पहले समय में करता है। क्योंकि उसके प्रायः सभी प्रकृतियों का बंध होता है और सबसे जघन्य योग भी उसी के होता है । इस प्रकार से उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों को जानना चाहिये ।' अब आगे की माथा में प्रदेशबंध के सादि आदि भंगों को बतलाते हैं । धंसणछगभयकुमछावितितुरियकसाय विग्घनाणा । मूलछगेऽणुरुकोसो घउह बुहा सेसि सम्वत्थ ।।६४॥ ___ शब्दार्थ-दसंणग-दर्शनावरणषटक, मयकुन्छा - भय औ. सुनु, दिति स्तिमासी , जीती और गधी कषाय, विग्घनाणाणं-पांच अंतराय, पांच ज्ञानावरण, मूलछगे-मूल छह प्रकृतियों का, अणुक्कोसो- अनुस्कृष्ट प्रदेशवध, चउह -. चार प्रकार का, दुहा- दो प्रकार का, सेसि-शेष तीन प्रकार के बंघों में, सव्वथ-सर्वत्र होते हैं। गापार्थ-दर्शनावरण कर्म को छह प्रकृतियों का, दूसरी तीसरी और चौथी कषाय का, पांच अन्तराय और पांच ज्ञानावरण का, छह मूल कर्मों का अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध चारों प्रकार का होता है। उक्त प्रकृतियों के तथा उनके सिवाय शेष प्रकृतियों के तीन बंध दो प्रकार के होते हैं । विशेषार्थ-गाथा में प्रदेशबंध के सादि आदि भंगों का विवेचन किया गया है। १ गोल कामकांड गा० २११ से २१७ में उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेणबंध के स्वामियों को बतलाया है। जो प्राय: फर्मग्रन्थ के समान है और पोष १०९ प्रकृतियों के जघन्य बंधक के बारे में कुछ विशेषता भी बतलाई है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ૨૪૨ उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य बंध तथा उनके सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव भंगों का स्वरूप पहले बतला चुके हैं तथा प्रत्येक बंध के अंत में मूल और उत्तर प्रकृतियों में उनका विचार किया गया है । अब प्रदेशबन्ध में भी उनका विचार करते हैं । सबसे अधिक कर्मस्कंधों के ग्रहण करने को उत्कृष्ट प्रदेशबंध और उत्कृष्ट प्रदेशबंध में एक दो वगैरह स्कन्धों की हानि से लेकर सबसे कम कर्मस्कंधों के ग्रहण करने को अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध कहते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेदों में प्रदेशबंध के सब भेदों का ग्रहण हो जाता है । सबसे कमों के प्राप्य करते हो प्रदेश करते हैं और उसमें एक दो आदि स्कंधों की वृद्धि से लेकर अधिक-से-अधिक कर्मस्कंधों के ग्रहण करने को अजघन्य प्रदेशबन्ध कहते हैं । इस प्रकार जघन्य और अजघन्य भेदों में भी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेदों की तरह प्रदेशबंध के सब भेद गर्भित हो जाते हैं । गाथा में जो दर्शनषट्क आदि प्रकृतियों में अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के सादि आदि चारों भेद बतलाये हैं, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैदर्शन में चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा और प्रचला इन छह प्रकृतियों का ग्रहण किया गया है। उनमें से निद्रा और प्रचला इन दो को छोड़ कर शेष चार दर्शनावरणों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में होता है। क्योंकि यहां मोहनीय और आयु कर्म का बंध नहीं होता है तथा निद्रापंचक का भी बंध नहीं होता है। जिससे उन्हें बहुत द्रव्य मिलता है । इस उत्कृष्ट प्रदेशबंध को करके जब कोई जीव ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान में गया और वहां से गिरकर दसवें गुणस्थान में आकर जब वह जीव उक्त प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० शतक बंध करता है तो वह बंध सादि होता है । अथवा दसधै गुणस्थान में ही उत्कृष्ट प्रदेशबंध करने के बाद वह जीव पुनः अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है तब वह बंध सादि होता है। क्योंकि उत्कृष्ट योग एक दो समय से अधिक देर तक नहीं होता है । उत्कृष्ट प्रदेशबंध होने के पहले जो अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है, वह अनादि है । अभव्य जीव का वही बंध ध्रुव है और भव्य जीव का बंध अध्रुव है। ___सम्यग्दृष्टि जीव के स्त्यानद्धित्रिक का बंध नहीं होता है और निद्रा व प्रचला का उत्कृष्ट प्रदेशबंध चौथे से लेकर आठवें गणस्थान । तक होता है, अतः सपालाद्धाला का माग भी उनको मिलता है । उक्त गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में निद्रा और प्रचला का उत्कृष्ट प्रदेशबंध करके जब जीव पुनः अनुत्कृष्ट बंध करता है तो वह सादि कहा जाता है । उत्कृष्ट बंध से पहले का अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अनादि है । अभव्य का बन्ध ध्रुव है और भव्य का बन्ध अध्रुव है। भय और जुगुप्सा का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भो चौथे से लेकर आठवें । गुणस्थान तक होता है । उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के भी पहले की तरह ही चार भंग जानना चाहिये । यानी ये अविरतादिक जब उत्कृष्ट योग से गिरकर अथवा बंधच्छेद से अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं तब वह सादि और उससे पूर्व का अनादि तथा अभय्य के ध्रुव व भव्य के अध्रुव होता है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण कषाय, प्रत्याख्यानावरण कषाय और संज्वलन कषाय, पांच ज्ञानावरण, पांच अंतराय के अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध के भी चार-चार भंग जानना चाहिये । अर्थात् उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के पहले जो अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है, वह अनादि है और उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के बाद जो अनुत्कृष्ट बन्ध होता है वह सादि है। भव्य जीव को वही बन्ध अध्रुव होता है और अभव्य का बंध ध्रुव होता है। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्थ ३५१ इस प्रकार से उक्त तीस प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के सादि आदि चार भंग होते हैं । किन्तु बाकी के उत्कृष्ट, जघन्य और अजधन्य प्रदेशबन्ध के सादि और अध्रुब यह दो ही विकल्प होते हैं । वे इस प्रकार हैं अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के भंगों को बतलाते समय यह स्पष्ट किया गया है कि अमुक गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । यह उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अपने-अपने गुणस्थानों में पहली बार होता है, अतः वह सादि है और एक, दो समय होने के बाद या तो उस बन्ध का बिल्कुल अभाव हो जाता है या पुनः अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होने लगता है, जिससे वह अध्रुव है तथा उक्त तीस प्रक्रांतयों का जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के भव के प्रथम समय में होता है और उसके बाद योगशक्ति में वृद्धि होने के कारण उनका अजघन्य प्रदेशबन्ध होता है । संख्यात या असंख्यात काल के बाद जब उस जीव को पुनः उस भव की प्राप्ति होती है तो पुनः जघन्य प्रदेशबन्ध होता है और उसके बाद पुनः अजघन्य प्रदेशबन्ध होता है । इस प्रकार जघन्य के बाद अजघन्य और अजघन्य के बाद जघन्य प्रदेशबन्ध होने के कारण दोनों ही बन्ध सादि और अध्रुव होते हैं । तीस प्रकृतियों के भंगों का विचार कर लेने के बाद अब शेष रही ६० प्रकृतियों के भंगों का विचार करते हैं। इनके चारों बन्ध सादि और अव होते हैं । ६० प्रकृतियों में से ७३ प्रकृतियां अध्रुवबन्धिनी हैं अतः उनके तो चारों ही बन्ध सादि और अध्रुव होंगे ही और शेष रही सत्रह ध्रुववन्धिनी प्रकृतियों में से स्त्यानद्धिविक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धो का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिथ्यादृष्टि करता है । उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का कारण उत्कृष्ट योग हैं जो एक दो समय तक ठहरता है । जिससे उत्कृष्ट बन्ध एक दो समय तक ही होता है और उसके Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ भातक बाद अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । उत्कृष्ट योग होने पर पुनः उत्कृष्ट बन्ध होता है। __ इस प्रकार उत्कृष्ट के बाद अनुत्कुष्ट और अनुत्कृष्ट के बाद उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होने का क्रम चलता रहता है । इसी कारण यह दोनों बन्ध सादि और अध्रुव होते हैं तथा इन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म निगोदिया लध्यपर्याप्तक जीव भव के प्रथम समय में करता है । दूसरे, तीसरे आदि समयों में वही जीव उनका अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है और कालान्तर में बही जीव पुनः उनका अघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इस प्रकार ये दोनों बन्ध भी सादि और अध्रुव होते हैं। वर्णचतुष्क, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण प्रकृति के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशवन्ध भी इसी प्रकार सादि और अघुव समझना चाहिये । इन नौ प्रकृतियों का उत्कृष्ट बंद मिथ्यात्वी उत्कृष्ट योग बाला नामकर्म के तेईस प्रकृतिक बन्धस्थान का बन्ध करने वाला करता है । इस प्रकार उत्तर प्रकृनियों के उत्कृष्ट आदि चार बंधों में सादि वगैरह भंगों का स्वरूप जानना चाहिये। अब मूल प्रकृतियों के भंगों का विचार करते हैं। मुल प्रकृतियों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अंतराय के अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध के मादि वगैरह चारों विकल्प होते हैं । जो इस प्रकार हैं कि इन छह का उत्कृष्ट प्रदेशबंध क्षपक अथवा उपशमक सूक्ष्म पराय नामक दसवें गुणस्थान में करता है। अनन्तर जव पुनः उनका अनुराष्ट प्रदेशबंध करता है तो वह बंध सादि है । उत्कृष्ट प्रदेशबंध से पहले वह बंध अनादि है, भव्य का बंघ अध्रुव है तथा अभव्य का बंध ध्रुव है । शेष जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट प्रदेश Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ 拳就要 बंध के सादि और अत्र विकल्प होते हैं। क्योंकि पूर्व में अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध को बतलाते हुए सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशबंध होने का संकेत कर आये हैं। वह उत्कृष्ट प्रदेशबंध पहले पहल होता है, अतः सादि है और पुनः अनुत्कृष्ट बंध के होने पर पुनः नहीं होता है, अतः अध्रुव है । उक्त छह कर्मों का जघन्य प्रदेशबंध सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तक जीव भग के प्रथम समय में करता है और उसके बाद योग की वृद्धि हो जाने पर अजघन्य प्रदेशबंध करता है, कालान्तर में पुनः जघन्य बंध करता है । इस प्रकार ये दोनों भी सादि और अद्भुत्र होते हैं । ज्ञानावरण आदि छह मूल प्रकृतियों से शेष रहे मोहनीय और आयु कर्म के चारों बंधों के सादि और अध्रुव, दो ही विकल्प होते हैं । आयु कर्म तो बंधी है अतः उसके चारों प्रदेशबंध सादि और अत्र ही होते हैं। मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नौवें गुणस्थान तक के उत्कृष्ट योग वाले जीव करते हैं और उत्कृष्ट के बाद अनुत्कृष्ट तथा अनुत्कृष्ट के बाद उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है। इसीलिये ये दोनों बंध सादि और अव हैं। इसी प्रकार मोहनीय का जघन्य बंध सूक्ष्म निगोदिया जीव करता है। उसके भी जघन्य के बाद अजघन्य तथा अजघन्य के बाद जघन्य बंध करने के कारण दोनों बंध सादि और अध्रुव होते हैं। इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट आदि प्रदेशबंधों के सादि वगैरह का क्रम जानना चाहिए ।" १ पंचसंग्रह और गो० कर्मकांड में प्रदेशबंध के सादि वगैरह मंगों का कर्मग्रन्थ के अनुरूप वर्णन किया गया है । तुलना के लिये उक्त अंगों को यहाँ उद्धृत करते हैं (शेषले पृष्ठ पर ) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशबंध का विवेचन पूर्ण करने के पहले यह भी स्पष्ट करते हैं कि पूर्वोक्त प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध में से अनेक प्रकार के प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध के कारण योगस्थान हैं । अनेक प्रकार के स्थितिबंध के कारण स्थितिबंध-अध्यवसायस्थान हैं तथा अनेक प्रकार के अनुभागंध के कारण मनुभाग अन्त्यदासास स्थान हैं। अतः अब योगस्थान और उनके कार्यों का परस्पर में अल्पबहुत्व बतलाते हैं। सेडिअसंखिजंसे जोगट्टाणाणि पर्याडभिया। ठिबंधज्यवसायाणभागठाणा असंखगणा ॥६॥ तत्तो कम्मपएसा अणंतगुणिया तओ रसच्छेया । शब्दार्थ सेडिअसंणिज्यसे-श्रेणि के असंख्यातवें भाग, जोगडाणागि-योगस्थान, पर्याडदिइभेया-प्रकृतिभेद, स्थितिभेद, शिबंधावसाया--स्थितिबंध के अध्यवसायस्थान; अगुभागठाणा –अनुभाग बंध के अध्यबसायस्थान, असंखगुणाः असंख्यात गुणे, . सत्तो--उनसे भी, कम्मपएसा-कर्मप्रदेश, कर्म के स्कंध, अणंतगु मोहाउयवज्जाणं णुक्कोसो साझ्याइओ होइ । साई अधुवा सेसा आउगमोहाण सवेषि ।। नाणतरायनिद्दा अणवज्जकसाय भयदुगुकाण । दसणचउपयलाणं चउब्बिगप्पो अणुक्कोसो ॥ सेसा साई अधुवा सम्वे सम्वाण सेसपयईणं । -पंचसंग्रह २६०, २६५, २६६ छण्हपि अणुक्कस्सो पदेसचंधो दु चदुवियप्पो दु । सेसतिये दुवियप्पो मोहाऊणं च दुविधप्पो । तीसराहमणक्कस्सो उत्तरपयडीसु चउविहो । बंधो। सेसतिये दुवियप्पो सेसचउक्केवि दुवियप्पो | -~ो कर्मकार २०७, २०६ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मेग्रन्थ णिपा - अनन्तगुणे, तक्ष उनसे भी रसच्छेया—रसच्छेद – रस अविभाग प्रतिच्छेद । गाथार्थ योगस्थान श्रोणि के असंख्यातवें भाग हैं। उनसे प्रकृतियों के भेद, स्थितिभेद, स्थितिबंध के अध्यवसायस्थान और अनुभाग बंध के अध्यवसायस्थान अनुक्रम से असंख्यात - गुणे, असंख्यातगुणे हैं। उनसे भी कर्म के स्कंध अनंतगुणे हैं और कर्म स्कंधों से भी रसच्छेद अनंतगुणे हैं । ५५ - विशेषार्थ — गाथा में बंध के भेदों और उनके कारणों का अल्पबहुत्व बतलाया है । इस निरूपण में निम्नलिखित सात चीजों का ग्रहण किया गया है (१) प्रकृतिभेद, (२) स्थितिभेद, (३) प्रदेशभेद, (४) रसच्छेद अर्थात् अनुभागभेद, (५) योगस्थान, (६) स्थितिबंध -अध्यवसायस्थान और (७) अनुभागबंध- अध्यवसायस्थान । इन सात भेदों में बंध के चार भेद और तीन उनके कारण भेद हैं। बंध के तो चार मेद माते हैं किन्तु कारण के तीन भेद मानने का कारण यह है कि प्रकृति और प्रदेश बंध का कारण एक हो है। इसीलिये कारण के भेद चार के बजाय तीन ही किये गये हैं। यहां इन सातों का अल्पबहुत्व बतलाया. है कि कौन किससे कम और कौन अधिक है। यानी सातों में से किसकी संख्या अधिक है और किसकी संख्या कम है । इस अल्पबहुत्व का कथन प्रारंभ करते हुए सर्व प्रथम बताया है कि योगस्थानों की संख्या श्रोणि के असंख्यातवें भाग है - सेठि असंखिज्जं से जोगट्ठाणाणि – अर्थात् श्रेणि के असंख्यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही योगस्थान जानना चाहिये। यह पहले बतला आये हैं, कि वीर्य या शक्तिविशेष को योग कहते हैं और सबसे योग सूक्ष्म निग़ोदिया सन्ध्यपर्याप्तक औव को भव के प्रथम Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६५ समय में होता है । अर्थात् अन्य जीवों की अपेक्षा उसकी वीर्यशक्ति सबसे कम है । किन्तु सबसे कम शक्ति के धारक उस जीव के कुछ प्रदेश बहुत कम वीर्य वाले हैं और कुछ उनसे भी अधिक बीर्य वाले हैं । यदि सबसे कम वीर्य वाले प्रदेशों में से एक प्रदेश को केवलज्ञानी के ज्ञान द्वारा देखा जाय तो उसमें असंख्यात लोककाशों के प्रदेश के बराबर भाग पाये जाते हैं । यह बात तो हुई कम वीर्य वाले प्रदेशों की, लेकिन इसी प्रकार अत्यधिक वीर्य वाले प्रदेश का भी अवलोकन किया जाये जो उसमें उन जघन्य वीर्य वाले प्रदेश के भागों से भी असंख्यातगुणे भाग पाये जाते हैं । पासक वीर्यशक्ति के इरिनामीको वीर्यमा भाव - परमाणु या अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं। जीव के जिन प्रदेशों में ये अविभाग प्रतिच्छेद सबसे कम लेकिन समान संख्या में पाये जाते हैं, उनकी एक वर्गणा होती है। उनसे एक अधिक अविभागी प्रतिच्छेदों के धारक प्रदेशों की दूसरी वर्गणा होती है। इसी प्रकार एक-एक अधिक अविभागी प्रतिच्छेदों के धारक प्रदेशों की एक-एक अलग वर्गणा होती है। जहां तक एक-एक अधिक अविभागी प्रतिच्छेदों के धारक प्रदेश पाये जाते हैं, वहां तक की वर्गणाओं के समूह को प्रथम स्पर्धक कहते हैं। उसके आगे जो प्रदेश मिलते हैं, उनमें प्रथम स्पर्धक की अंतिम वर्गणा के प्रदेशों में जितने अविभागी प्रतिच्छेद होते हैं, उनसे असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के जितने अविभागी प्रतिच्छेद अधिक होते हैं, उतने अविभागी प्रतिच्छेद जिन-जिन प्रदेशों में पाये जाते हैं, उनके समूह को दूसरे स्पर्धक की प्रथम वर्गण‍ जानना चाहिये । इस प्रथम वर्गणा के ऊपर एक अधिक अविभागी : प्रतिच्छेदों वाले प्रदेशों का समूह रूपं दूसरी वर्गणा होती है। इस प्रकार एक-एक अविभागी प्रतिच्छेद को वृद्धि करते-करते में वर्गेणायें Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३५० अंणि के असंख्यातवें भाग के बराबर होती हैं, इनके समह को दूसरा स्पर्धक कहते हैं । इसके बाद एक अधिक अविभागी प्रतिच्छेदों के धारक प्रदेश नहीं मिलते किंतु असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के जितने अधिक अविभागी-अविभागो प्रतिच्छेदों के धारक प्रदेश ही मिलते हैं। उनसे पहले कहे हुए क्रम के अनुसार तीसरा स्पर्धक प्रारम्भ होता है। इसी तरह चौथा, पांचवाँ आदि स्पर्धक जानना चाहिये । इन स्पर्धकों का प्रमाण भी श्रेणि के असंख्यातवें भाग है और उनके समह को एक योगस्थान कहते हैं। . यह योगस्थान सबसे जघन्य शक्ति वाले सूक्ष्म नियोदिया जीव के भव के पहले समय में होता है | उससे कुछ अधिक शक्ति वाले जीच का इसी क्रम से दूसरा योगस्थान होता है । इसी प्रकार अधिकअधिक शक्ति की वृद्धि के साथ तीसरा, चौथा, पांचवां आदि योगस्थान होते हैं। इस तरह इसी क्रम से नाना जीवों के अथवा कालभेद से एक ही जीव के ये योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भाग आकाश के जितने प्रदेश होते हैं, उतने होते हैं। ___जीवों के अनंत होने पर भी योगस्थानों को असंख्यात मानने का कारण यह है कि सत्र जीवों का योगस्थान अलग-अलग ही नहीं होता है किन्तु अनन्त स्थावर जीवों के समान योगस्थान होता है तथा असंख्यात त्रसों के भी समान योगस्थान होता है। जिससे संख्या में कोई परिवर्तन नहीं आता किन्तु विसदृश योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भाग ही होते हैं । इसीलिए असंख्यात योगस्थान माने हैं। ___ इन योगस्थानों से भी ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों के भेद असं. ख्यातगुणे हैं। यद्यपि कर्मों की ज्ञानावरण आदि आठ मूल प्रकृतियां हैं और उत्तर प्रकृतियां १५८ बतलाई है। किन्तु बंध की विचित्रता Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. शतक से एक-एक प्रकृति के असंख्यात भेद हो जाते हैं। जैसे कि शास्त्रों में भवधिज्ञान के बहुत भेद बतलाये हैं, जिससे अवधिज्ञानावरण के बंध के भी उतने ही भेद होते हैं, क्योंकि बंध की विचित्रता से ही क्षयोपश्रम में अन्तर पड़ता है और क्षयोपशम में अन्तर पड़ने से ही ज्ञान के अनेक भेद होते हैं । इसका स्पष्टीकरण यह है कि जैसे सुक्ष्म पनक जीव के तीसरे समय में जितनी जघन्य अवगाहना होती है, उतना ही जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र होता है और असंख्यात लोक प्रमाण उत्कृष्ट क्षेत्र है । अतः जघन्य क्षेत्र से लेकर एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र तक क्षेत्र की हीनाधिकता के कारण अवधिज्ञान के असंख्यात भेद हो जाते हैं। इसीलिये अवधिज्ञान के आवारक अवधिज्ञानावरण कर्म के भी बंध और उदय की विचिन्नता से असंख्यात भेद हो जाते हैं। इसी तरह नाना जीवों की अपेक्षा से कर्मों की अन्य उत्तर प्रकृतियों व मूल प्रकृतियों के भी बंध व उदय की विचित्रता से असंख्यात भेद समझना चाहिये । जीवों के अनन्त होने के कारण उनके बंधों और उदयों की विचित्रता से प्रकृतियों के अनन्त भेद मानने की आशंका नहीं करना चाहिये । क्योंकि नाना जीवों के भी एक-सा बंध व उदय होने से वह एक ही माना जाता है किन्तु प्रकृतियों के विसदृश भेद असंख्यात ही होते हैं । अतः योमस्थानों से प्रकृतियां असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि एकएक योगस्थान में वर्तमान नाना जीव या कालक्रम से एक ही जीव इन सब प्रकृतियों का बंध करता है। प्रकृतिभेदों से असंख्यातगुणे स्थिति के भेद हैं, क्योंकि एक-एक प्रकृति असंख्यात प्रकारों की स्थिति को लेकर बंधती है । जैसे कि एक जीव एक ही प्रकृति को कभी अन्तमुहूर्त की स्थिति के साथ बांधता है, : कभी एक समय अधिक अन्तमुहूर्त की स्थिति के साथ बांधता है, Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ २४९ कभी दो समय अधिक, कभी तीन समय अधिक यावत अन्तर्मुहूर्त के समयों के जितने भेद है, उन-उन समयों को लेकर आंधता है। इस प्रकार जब एक प्रकृति और एक जीव की अपेक्षा से ही स्थिति के असंख्यात भेद हो जाते हैं तब सब प्रकृतियों और सब जीवों की अपेक्षा से प्रकृति के भेदों से स्थिति के भेदों का असंख्यातमा होना सम्भव है। इसी कारण प्रकृति के भेदों से स्थिति के भेद असंख्यातगुणे होते हैं। स्थिति के मेदों से स्थितिबंध-अध्यवसायस्थान' असंख्यातगुणे हैं । एक-एक स्थितिबंध के कारणभूत अध्यवसाय परिणाम अनेक होते हैं, क्योंकि सबसे जघन्य स्थिति का बंध भी असंख्यात लोकप्रमाण अध्यवसायों से होता है अर्थात् एक ही स्थितिबंध किसी जीव के किसी तरह के परिणाम से होता है और किसी जीव के किसी तरह के परिणाम से होता है । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये । अतः स्थिति के भेदों से स्थितिबन्ध-अध्यवसायस्थान असंख्यातगुणे माने गये हैं। स्थितिबंध-अध्यवसायस्थान से अनुभागबंध-अध्यवसायस्थान असंख्यातगुणे हैं। अर्थात् स्थितिबंध के कारणभूत परिणामों से अनुभागबंध के कारणभूत परिणाम असंख्यातगृणे हैं। इसका कारण यह है कि एक-एक स्थितिबंध-अध्यवसायस्थान तो अन्तमुहूर्त तक रहता है, किन्तु एक-एक अनुभागबंध-अध्यवसायस्थान कम से कम एक समय और अधिक-से-अधिक आहे समय तक ही रहता है । अतः एक-एक स्थितिबंध-अध्यवसायस्थान में असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर अनुभागबंध-अध्यवसायस्थान होते हैं । १ कषाय में उदय से होने वाले जीव के जिन परिणामविशेषों से स्थिति बंध होता है, उन परिणामों को स्थितिबन्ध-अध्यवसाय कहते हैं । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक इस प्रकार योगस्थान, प्रकृतिभेद, स्थितिभेद, स्थितिबंध के अध्यवसायस्थान, अनुभागबंध के अध्यवसायस्थान तो क्रमशः असंख्यात हैं और अनुभागबंध के अध्यवसायस्थान से भी- कम्मपएसा अणतगुणिया, कर्मस्कंध अनंतगुणे हैं। क्योंकि एक जीव एक समय में अभव्य राशि से अनंतगुणे और सिद्ध राशि के अनंत भाग कर्मस्कंधों को ग्रहण करता है। अतः अनुभागबंध-अध्यवसायस्थान से अनंतगुणे कर्मस्कन्ध माने हैं। कर्मस्कंधों से भी अनंतमुणे रस के अधिभागी प्रतिच्छेद हैं, क्योंकि अनुभागबंध-अध्यवसायस्थानों के द्वारा कर्मपुद्गलों में रस-- फलदान शक्ति पैदा होती है, यदि एक परमाणु में विद्यमान रस या अनुभागशक्ति को केवलज्ञान के द्वारा विभाजित किया जाये-खंड-खड किया जाये तो उसमें समस्त जीवराशि से अनंतगुणे अधिभागी प्रतिच्छेद पाये जारी है अर्थात् समस्त कमाधों के प्रत्येक परमाणु में समस्त जीवराशि से अनंतगुणे रसच्छेद होते हैं, किन्तु एक-एक कर्मस्कन्ध में कर्मपरमाणु सिद्धराशि के अनंतवें भाग ही होते हैं। इसीलिये कर्मस्कंधों से रसच्छेद अनन्तगुणे माने जाते हैं। ___ इस प्रकार से बन्ध और उनके कारणों का अल्पबहुत्व जानना चाहिये कि योगस्थान से लेकर अनुभागबन्ध-अध्यवसायस्थान तक तो प्रत्येक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे हैं और उसके अनन्तर कर्मस्कन्ध और रसच्छेद क्रमशः अनंतमुणे हैं । १ पंचसंग्रह में भी योगम्थान आदि का अल्पमहत्व इसी प्रकार बतलाया है रोळिअसंखेजसो जोगट्ठाणा तओ असंखेज्जा । पयडीभा सत्तो ठिभेया होंति तत्तोवि ॥२६२ टिइबंधज्मनसाया तत्तो अणभागबंधळाणाणि । तत्तो कम्मपाएसाप्तगुणा तो रसच्छया ॥२८३ गो० कर्मकांड गा० २५८-२६० में रस छेद को नहीं लेफर सिर्फ छह का ही परस्पर में अल्पबहुस्न बसलाया है। यह वर्णन कर्मग्रन्थ से मिलता है। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · पंचम कर्मग्रन्थ प्रदेशबन्ध के समप्र वर्णन में अभी तक उसका कारण नहीं बताया है । अतः अब प्रदेशबन्ध और उसके साथ ही पूर्वोक्त प्रकृति, स्थिति और अनुभाग बन्ध के कारणों का भी निर्देश करते हैं। जोगा पडिपएसं ठिइअणुमागं कसायाउ HEEn शब्दार्थ-जोगा-योग से, पयपिएसं-प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध, ठिहअगुमागं—स्थितिबंध और अनुभागबंध, कसायाजकषाय द्वारा। गाचार्य-प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग से होते हैं और स्थितिबन्ध व अनुभागवन्ध कषाय से होते हैं। विशेषार्थ --पूर्व में बंध के प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध, यह चार भेद बतला आये हैं । यहां उनके कारणों को बतलाते हैं कि प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का कारण योग है और स्थितिबंध व अनुभागबंध का कारण कषाय है। योग और कषाय का स्वरूप भी पहले बतलाया जा चुका है कि योग एक शक्ति का नाम है जो निमित्त कारणों के मिलने पर कर्म वर्गणाओं को कर्म रूप परिणमाती है। योग के द्वारा कर्म पुद्गलों का अमुक परिमाण में कर्म रूप होना और उनमें ज्ञानादि गुणों को आवरित करने का स्वभाव पड़ना, यह योग का कार्य है । ____ आगत कर्म पुद्गलों का अमुक काल तक आत्मा के साथ सम्बन्ध रहना और उनमें तीव्र, मंद आदि फल देने की शक्ति का पड़ना कषाय द्वारा किया जाता है । इसीलिये प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का कारण योग और स्थितिबंध व अनुभागबंध का कारण कषाय को माना है । जब तक कषाय रहती है तब तक तो चारों बंध होते हैं और कषाय का उपशम या क्षाय हो जाने पर सिर्फ प्रकृति व प्रदेश बंध, यह दो बंध होते हैं। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ कषाय का उपशम व क्षय ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक में हैं, जिससे उन गुणस्थानों में प्रकृति व प्रदेश बंध होता है' और चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में योग का भी अभाव हो जाने से सदा के लिये कर्मोच्छेद हो जाता है। ग्यारहवें गुणस्थान से आगे होने वाला प्रकृति और प्रदेश बंध पहले समय में होकर दूसरे समय में निर्जीर्ण हो जाता है। योगशक्ति होने से यह जाता है, लेकिन गाय परिवाम नहीं होने से अपना फल नहीं देते हैं । पहले योगस्थानों का प्रमाण श्रोणि के असंख्यातवें भाग बताया है, अतः बंध के कारणों का कथन करने से बाद अब श्रोणि के स्वरूप को बतलाते हैं । चउस रज्जू लोगो बुद्धिकओ सतरज्जुमरणघणो । तहोगपएसा सेढी पयरो य तथ्यगो ॥६७॥ शब्दार्थ - चउवसरज्जू - चौदह राजू प्रमाण, लोगो - लोक, बुद्धिकओ-मति कल्पना के द्वारा किया गया, सत्तरज्जुमाणषणोसात राजू प्रमाण का तद् – उसकी (घनीकृत लोक की दोहेग पएसा - लंबी एक प्रदेश की सेठी श्रेणि, पयरो - प्रतर, य-और तो उसका वर्ग I शतक -- गाथार्थ - लोक चौदह राजू प्रमाण है, उसका मतिकल्पना के द्वारा समीकरण किये जाने पर वह सात राजू के घनप्रमाण होता है । उस घनीकृत लोक की लोक प्रमाण लंबी प्रदेशों की पंक्ति को श्र ेणि कहते हैं और उसके वर्ग को प्रतर समझना चाहिये । विशेषार्थ - इस गाथा में लोक, श्रण और प्रतर का स्वरूप बतलाया है । गाथा में लोक के स्वरूप का संकेत देते हुए सिर्फ यही लिखा है 'चउदसरज्जू लोगो', जिसका आशय है कि लोक चौदह राजूं Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्प है, किन्तु यह तो केवल उसकी ऊंचाई का ही प्रमाण बतलाया है। अतः यहाँ लोक का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । सभी प्रकार के पदार्थ-जड़ या चेतन, दृश्यमान या अदृश्यमान, सूक्ष्म या स्थूल, स्थावर या जंगम आदि -जहां देखे जाते हैं अथवा जीव जहां अपने सुख-दुःख रूप पुण्य-पाप के फल का वेदन करते हैं, उसे लोक कहते हैं। इन पदार्थों में होने वाली प्रत्येक क्रिया अथवा इन पदार्थों द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया का आधार यह लोक ही है । ये सभी पदार्थ अवस्था से अवस्थान्तर होते हुए भी अपने मूल गुण, धर्म, स्वभाव का परित्याग नहीं करते हैं । ऐसा कभी नहीं होता कि जड़ चेतन हो गया हो अथवा चेतन जड़, मूर्त अमुर्त हो गया हो अथवा अमुर्त मूर्त । सभी पदार्थ अपने अस्तित्व और अभिव्यक्ति के स्वयं कारण हैं और उनका अपना-अपना कार्य है । इसीलिये इन सब दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए - शास्त्रों में लोक का स्वरूप बतलाया है कि धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव, यह द्रव्य जहाँ पाये जाते हैं उसे लोक कहते हैं । अर्थात् धर्म आदि षड् द्रव्यों का समूह लोक है। लोक का ऐसा कोई हिस्सा नहीं, जहां ये छह द्रव्य न पाये जाते हों। धर्म आदि उक्त न्ह द्रव्यों में से आकाश सर्वत्र व्यापक है, जबकि अन्य द्रव्य उसके व्याप्य हैं । अर्थात् आकाश धर्म आदि शेष पांच द्रव्यों के साथ भी रहता है और उनके सिवाय उनसे बाहर भी रहता है । वह अनन्त है अर्थात् उसका अन्त नहीं है । अतः आकाश के जितने भाग में धर्मादि छह द्रव्य रहते हैं, उसे लोक कहते हैं और उसके अतिरिक्त शेष अनन्त आकाश अलोक कहलाता है । यह लोक ध्रुव है, नित्य है, अक्षय, अव्यय एवं अवस्थित है, न तो इसका कभी नाश होता है और न कभी नया उत्पन्न होता है। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ शतक लोक का स्वरूप समझने के पश्चात यह जिज्ञासा होती है कि इस लोक की स्थिति का आधार क्या है ? वर्तमान के वैज्ञानिकों ने भी लोक के आधार को जानने के लिये प्रयास किया है, लेकिन ससीम ज्ञान के द्वारा इस असीम लोक की स्थिति का सम्यग् बोध होना सम्भव नहीं है । यन्त्रों के द्वारा होने वाले ज्ञान की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि अत्यन्त विश्वसनीय एवं प्रमाणिक होती है । अतः यहां सर्वज्ञ भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित लोकस्थिति के आधार को बतलाते हैं। उन्होंने लोक की स्थिति आठ प्रकार से प्रतिपादित की है (१) वात- तनुवात आकाश प्रतिष्ठित है, (२) उदधि-घनोदधि वात प्रतिष्ठित है, (३) पृथ्वी-उदधि प्रतिष्ठित है, (४) वस और स्थावर प्राणी पृथ्वी प्रतिष्ठित हैं, (५) अजीव जीव प्रतिष्ठित है, (६) जोव कर्म प्रतिष्ठित है, (७) अजाव जीव से संगृहीत है, (८) जीव कर्म से संगृहीत है ।' उक्त कथन का सारांश यह है कि बस, स्थावर आदि प्राणियों का आधार पृथ्वी है, पृथ्वी का आधार उदधि है, उदधि का आधार वायु है और वायु का आधार आकाश है । यानी जीव, अजीव आदि सभी पदार्थ पृथ्वी पर रहते हैं और पृथ्वी वायु के आधार पर तथा वायु आकाश के आधार पर टिकी हुई है । पृथ्वी को वाताधारित कहने का स्पष्टीकरण यह है कि पृथ्वो का पाया अनोंदधि पर आधारित है। धनोदधि जलजातीय है और जमे हुए घी के समान इसका रूप है। इसकी मोटाई नीचे मध्य में बीस हजार योजन की है । घनोदधि के नीचे धनवार का आवरण है, यानी १ भगवती श६ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रथ ३६५ घनोदधिं घनवात से आवृत है और इसका रूप कुछ पतले पिघले हुए घी के समान है । लम्बाई-चौढाई और परिधि असंख्यात योजन की है। यह घनवात भी तनुवात से आवृत है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई परिधि तथा मध्य की मोटाई असंख्यात योजन की है। इसका रूप तपे हुए घी के समान समझना चाहिए । + . तनुवात के नीचे असंख्यात योजन प्रमाण आकाश है। इन घनोदधि, घनवात और तनुवात को उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझा जा सकता है कि एक दूसरे के अन्दर रखे हुए लकड़ी के पात्र हों, उसी प्रकार ये तीनों वातवलय भी एक दूसरे में अवस्थित हैं। यानी धनोदधि छोटे पात्र जैसा, घनवात मध्यम पात्र जैसा और तनुवात बड़े पात्र जैसा है और उसके बाद आकाश है। इन तीन पात्रों में से जैसे सबसे छोटे पात्र में कोई पदार्थ रखा जाये, वैसे ही घनोदधिवलय के भीतर यह पृथ्वी अवस्थित है । शास्त्र में लोक का आकार 'सुप्रतिष्ठ संस्थान' वाला कहा है । सुप्रतिष्ठ संस्थान के आकार का रूप इस प्रकार होता है कि जमीन पर एक सकोरा उलटा, उस पर दूसरा सकोरा सोधा और उस पर तीसरा सकोरा उलटा रखने से जो आकार बनता है, बहु सुप्रतिष्ठ संस्थान कहलाता है और यही आकार लोक का है । अनेक आचार्यों ने लोक का आकार विभिन्न रूपकों द्वारा भी समझाया है। जैसे कि लोक का आकार कटिप्रदेश पर हाथ रखकर तथा पैरों को पसार कर नृत्य करने वाले पुरुप के समान है । इसीलिये लोक को पुरुषाकार की उपमा दी है। कहीं-कहीं बेनासन पर रखे हुए मृदंग के समान लोक का आकार बतलाया है, इसी प्रकार की और दूसरी वस्तुयें जो जमीन में चौड़ी, मध्य में सकरी तथा ऊपर में चौड़ी और फिर सकरी हों और एक दूसरे पर रखा जान पर जसा उनका आकार बने, वह लोक का आकार बनेगा । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक __ लोक के अधः, मध्य और ऊर्ध्व यह तीन विभाग हैं और इन विभागों के होने का मध्यबिंदु मेरु पर्वत ये मूल में है । इस मध्य लोक के दीदोलीत्र मेरु पर्वत है. जिमना पाया लगीन में एक हजार योजन और ऊपर जमीन पर ६६००० योजन है। जमीन के समतल भाग पर इसकी लम्बाई-चौड़ाई चारों दिशाओं में दस हजार योजन की है । मेरु पर्वत के पाये के एक हजार में से नौ सौ योजन के नीचे जाने पर अधोलोक प्रारम्भ होता है और अधोलोक के ऊपर १८०० योजन तक मध्यलोक है। अर्थात् नौ सौ योजन नीचे और नौ सौ योजन ऊपर, कुल मिलाकर १८०० योजन मध्यलोक की सीमा है और मध्यलोक के बाद ऊपर का सभी क्षेत्र ऊर्ध्वलोक कहलाता है। इन तीनों लोकों में अधोलोक और ऊर्ध्वलोक की ऊंचाई, चौड़ाई से ज्यादा और मध्यलोक में ऊंचाई की अपेक्षा लम्बाई. चौड़ाई अधिक है, क्योंकि मध्यलोक की ऊंचाई तो सिर्फ १८०० योजन प्रमाण है और लम्बाई चौड़ाई एक राजू प्रमाण । अधोलोक और ऊर्ध्वलोक की लंबाईचौड़ाई भी एक-सी नहीं है । अधोलोक की लंबाई-चौड़ाई सातवें नरक में सात राजू से कुछ कम है और पहला नरक एक राजू लंबा-चौड़ा है जो मध्यलोक की लंबाई. चौड़ाई के बराबर है । ऊर्बलोक की लंबाई-चौड़ाई पांचवें देवलोक में पांच राजु और उसके बाद एक-एक प्रदेश की कमी करने पर लोक के चरम ऊपरी भाग पर एक राजू लंबाई-चौड़ाई रहती है । - यानी ऊर्ध्वलोक का अन्तिम भाग मध्यलोक के बराबर लंबा-चौड़ा है। लोक के आकार की जानकारी संलग्न चित्र में दी गई है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३६७ लोक की उक्त लंबाई-चौड़ाई आदि का सारांश यह है कि नीचे जहां सातवां नरक है वहां सात राज चौड़ा है और वहां से घटता-घटता सात राजू ऊपर आने पर जहां पहला नरक है, वहां एक राजू चौड़ाई है। उसके बाद क्रमशः बढ़ते-बढ़ते पांचवें देवलोक के पास चौड़ाई पाँच राजू और उसके बाद क्रमशः घटते-घटते अंतिम भाग में एक राजू चौड़ाई है। संपूर्ण लोक की लंबाई चौदह राजू और अधिकतम चौडाई गाल राजु नशा जय चौहाई एल है। यह लोक बस और स्थावर जीवों से खचाखच भरा हुआ है । बस जीव तो असनाड़ी में ही रहते हैं लेकिन स्थावर जीव अस और स्थावर दोनों ही नाड़ियों में रहते हैं । लोक के ऊपर से नीचे तक चौदह राजू लंबे और एक राजू चौड़े ठीक बीच के आकाश प्रदेशों को प्रसनाड़ी कहते हैं और शेष लोक स्थावरनाड़ी कहलाता है । ____ इस चौदह राजू ऊँचे तथा अधिकतम सात राजू और न्यूनतम एक राजु लंबे-चौड़े लोक की धनाकार कल्पना की जाय तो सात राज़ ऊँचाई, सात राजू लंबाई और सात राजू चौड़ाई होगी। क्योंकि समस्त लोक के एक-एक राजू प्रमाण टुकड़े किये जायें तो ३४३ टुकड़े होते हैं। उनमें से अधोलोक के १६६ और ऊर्वलोक के १४७ धनराजू हैं और इनका घनमूल ७ होता है। अतः पनीकृत लोक का प्रमाण सात राजू है और घनराजु ३४३ होते हैं। इसके समीकरण करने की रीति इस प्रकार है-अधोलोक के नीचे का विस्तार सात राजू है और दोनों ओर से घटते-घटते सात राज की ऊँचाई पर मध्य लोक के पास वह एक राजु शेष रहता है। इस अधोलोक के बीच में से दो 'समान भाग करके यदि दोनों भागों को उलटकर बराबर-बराबर रखा जाये तो उसका विस्तार नीचे की ओर Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ तथा ऊपर की ओर चार-चार राजू होता है किंतु ऊँचाई सर्वत्र सात राजू ही रहती है । जैसे--- 2/2 뻘 पार्टीक ७/२ 1/2 इस अधोलोक के बीच से दो खण्ड यह आकार होता है करके दोनों भागों को उलट कर खने पर अधोलोक का समीकरण करने के बाद अब ऊर्ध्वलोक का समीकरण करते हैं । ऊर्ध्वलोक मध्यभाग में पूर्व पश्चिम ५ राजू चौड़ा है । उसमें से मध्य के तीन राजू क्षेत्र को ज्यों का त्यों छोड़कर दोनों ओर से एक-एक राजू के चौड़े और साढ़े तीन साढ़े तीनराज के ऊंचे दो त्रिकोण खंड लें । उन दोनों खंडों को मध्य से विभक्त करने पर चार त्रिकोण खंड हो जाते हैं । जिनमें से प्रत्येक खंड की भुजा एक राजू और कोटि पौने दो राज होती है। इन चारों खंडों को उलटा सीधा करके उनमें से दो खंड ऊर्ध्वलोक के अधोभाग में दोनों ओर और दो खंड उसके ऊर्ध्वभाग के दोनों ओर मिला देना चाहिये । ऐसा करने पर ऊर्ध्व लोक की ऊँचाई में तो अन्तर नहीं पड़ता किन्तु उसका विस्तार सर्वत्र तीन राज हो जाता है । उक्त कथन का रूप इस प्रकार होगा Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ७/ نا इस उर्ध्वलोक के मध्य के दोनों कोनों को अलग क ऊपर और नीचे की ओर 100 सतरह मिलानो यद्यपि लोक वृत्त है और यह घन समचतुरस्र होता है । अतः इसका वृत्त करने के लिये उसे १६ से गुणा करके २२ से भाग देना चाहिये । तब वह कुछ कम सात राजू लम्बा, चौड़ा, गोल सिद्ध होता है । लेकिन व्यवहार ३६६ ऊर्ध्वलोक के उक्त नये आकार को अधोलोक के नये आकार के साथ मिला देने पर सात राजू चौड़ा, सात राजू ऊंचा और सात राजु मोटा चौकोर क्षेत्र हो जाता है। अतः ऊँचाई, चौड़ाई और मोटाई तीनों सात-सात राजू होने के कारण लोक सात राजू का घनरूप सिद्ध होता है। जो इस प्रकार है में सात राजू का समचतुरस्रघन लोक समझना चाहिये | इस प्रकार से लोक का स्वरूप बतलाने के बाद अब श्रेणि और Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक प्रतर का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । सात राजू लम्बी आकाश के एक-एक प्रदेश की पंक्ति को श्रेणि' कहते हैं। जहां कहीं भी श्रेणि के असंपातवें भाग का कथन किया जाये, वहां इसी श्रेणि को लेना चाहिये । श्रेणि के वर्ग को प्रतर कहते हैं अर्थात् अणि में जितने प्रदेश हैं, उनको उतने ही प्रदेशों से गुणा करने पर प्रतर का प्रमाण आता है । समान दो संख्याओं का आपस में गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न होती है, वह उस संख्या का वर्ग कहलाता है । जैसे ७ का ७ से गुणा करने पर उसका वर्ग ४६ होता है । अथवा सात राजू लम्बी और सात राजु चौड़ी एक-एक प्रदेश की पंक्ति को प्रतर कहते हैं | प्रतर (वर्ग) और श्रेणि को परस्पर में गुणा करने पर घन का प्रमाण होता है । अर्थात् समान तीन संख्याओं का परस्पर गुणा करने पर घन होता है। जैसे ७४७४.. . यह क' घन होता है। इस प्रकार श्रेणि, प्रतर और धन लोक का प्रमाण समझना चाहिये। प्रदेशबंध का सविस्तार वर्णन करने के साथ प्रथकार द्वारा 'नमिय जिणं धुवबंधा' आदि पहली गाथा में उल्लिखित विषयों का वर्णन किया जा चुका है । अब उसी गाथा में 'य' (च) शब्द से जिन उपशमश्रोणि, क्षपकणि का ग्रहण किया गया है, अब उनका वर्णन करते हैं । सर्व प्रथम उपशमणि का कथन किया जा रहा है। १ त्रिलोकसार गाया ७ में राजू का प्रमाण श्रेणि के सातवें भाग बतलाया है 'नगसेढिसत्तभागो रज्जु ।' तथा द्रव्यलोकप्रकाश में प्रमाणांगुल से निष्पन्न असत्यात कोटि-कोटि योजन का एक राज़ बतलाया है-प्रमाणांगुलनिष्पन्नयोजनानां प्रमाणत: । असंख्यकोटीकोटीभिरेकारमुः प्रकीर्तिता ।। सर्ग श६४1 २ लोकमज्यादारभ्य ऊरमधस्तियंक च आकाशदेशानां क्रमसनिविष्टाना पमितः श्रेणिः । –सपिसिक Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३७१ उपशमणि अणवंसनपुसित्थीवेयछक्कं च पुरिसवेयं च । दो वो एगंतरिए सरिसे सरिसं उसमे ॥६॥ शब्दार्थ-अणवसनपुसिस्थोवेय- अनंतानुबंधी कषाय, दर्शनमोहनीय, नपुसक वेद, स्त्रीवेद, छया--हास्पादि पटक, च-तषा, पुरिसदेयं -- पुरुष वेद, और, दो दो-दो दो, एगरिए -एक एक के अन्तर से, सरिसे सरिसं-सदृश एक जैसी, उसमेह-उपशमित करता है। गायार्य-(उपशमश्रोणि करने वाला) पहले अनंतानुबंधो कषाय का उपशम करता है, अनन्तर दर्शन मोहनीय का और उसके पश्चात् क्रमशः नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्यादि षट्क व पुरुषवेद और उससे बाद एक-एक (संज्वलन) कषाय का अन्तर देकर दो-दो सदृश कषायों का एक साथ उपशम करता है। विशेषायं-आठवें गुणस्थान से दो श्रेणियां प्रारंभ होती हैउपशमणि और क्षपकोणि । नथकार ने गाथा में उपशमणि का स्वरूप स्पष्ट किया है कि उपशमणि के आरोहक द्वारा किस प्रकार प्रकृतियों का उपनम किया जाता है। संक्षेप में उपशमणि का स्वरूप इस प्रकार है कि जिन परिणामों के द्वारा आत्मा मोहनीय कर्म का सर्वश्रा उपशमन करता है, ऐसे उत्तरोत्तर वृद्धिगत परिणामों की धारा को उपशमणि कहते हैं। इस उपशमणि का प्रारम्भक अप्रमत्त संयत ही होता है और उपशमणि से गिरने वाला अप्रमत्त संयत, प्रमत्त संयत, देशविरति या अविरति में से भी कोई हो सकता है। अर्थात् गिरने वाला अनुक्रम से चौथे गुणस्थान तक आता है और Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ शतक वहां से गिरे तो इसरे और उससे पहले गुणस्थान को भी प्राप्त करता है। उपशमणि के दो भाग हैं-(१) उपशम भाव का सम्यक्त्व और (२) उपशम भाव का नारित्र ! इनमें से मारित्र मोहनीय का उपशमन करने के पहले उपशम भाव का सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान में ही प्राप्त होता है। क्योंकि दर्शन मोहनीय की सातों प्रकुतियों को सात में ही उपशमित किया जाता है, जिससे उपशमश्रोणि का प्रस्थापक अप्रमान संयत ही है। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों का मंतव्य है कि अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त या अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती कोई भी अनंतानुबंधी कषाय का उपशमन करता है और दर्शनविक आदि को तो संयम में वर्तने वाला अप्रमत्त ही उपशमित करता है । उसमें सबसे पहले अनंतानुबंधी कपाय को उपशान्त किया जाता है और दर्शनत्रिक का उपशमन तो मंचमी ही करता है । इस अभिप्राय के अनुसार चौथे गुणस्थान से उपशम अंणि का प्रारम्भ माना जा सकता है। ____ अनंतानुबंधी कपाय के उपशमन का वर्णन इस प्रकार है कि चौथे से लेकर मात राणम्थान तक में से किसी एक गुणस्थानवी जीव अनंतानुबंधी कपाय का उपशमन करने के लिये यथाप्रवृत्तकरण, अपुर्वकरण और अनियुक्तिकरण नामक तीन करण करता है | यथाप्रवृत्तकरण में प्रतिम मय उत्तरोत्तर अनंतगुणी विशुद्धि होती है। जिसके कारण शुभ प्रकृतियों में अनुभाग को वृद्धि और अशुभ प्रकृतियों में अनुभाग की हानि होती है। किन्तु स्थितिघात, रसधात, - गुणश्रेणि या गुणसंक्रम नहीं होता है, क्योंकि यहां उनके योग्य विशुद्ध परिणाम नहीं होते हैं। यथाप्रवृत्तकरण का काल अन्तमुहूर्त है । उक्त अन्तमुहूर्त काल समाप्त होने पर दूसरा अपूर्वकरण होता है। इस करण में स्थितिघात, रसघात, गुणाणि, गुणसंक्रम और Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कमेंप्रन्थ अपूर्व स्थितिबंध, ये पांचों कार्य होते हैं । अपूर्वकरण के प्रथम समय में कों की जो स्थिति होती है, स्थितिघात के द्वारा उसके अंतिम समय में वह संख्यातगुणी कम कर दी जाती है। रसघात के द्वारा अशुभ प्रकृतियों का रस क्रमशः क्षोण कर दिया जाता है। गुणणि रचना में प्रकृतियों की अन्तमुहर्त प्रमाण स्थिति को छोड़कर ऊपर की स्थिति वाले दलिकों में से प्रति समय कुछ दलिक ले-लेकर उदयावली के ऊपर की स्थिति वाले दलिकों में उनका निक्षेप कर दिया जाता है । दलिकों का निक्षेप इस प्रकार किया जाता है कि पहले समय में जो दलिक लिये जाते हैं, उनमें से सबसे कम दलिक प्रथम समय में स्थापित किये जाते हैं, उससे असंख्यातगुणे दलिक दूसरे समय में, उससे असंख्यातगुणे दलिक तीसरे समय में स्थापित किये जाते हैं। इस प्रकार अन्तमुहूर्त के अंतिम समय पर्यन्त असंख्यातगुण, असंख्यातगुणे दलिकों का निक्षेप किया जाता है । दूसरे आदि समयों में भी जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं, उनका निक्षेप भो इसी प्रकार किया जाता है । ___ गुणणि की रचना का क्रम पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि पहले समय में ग्रहण किये जाने वाले दलिक थोड़े होते हैं और उसके बाद प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणं दलिकों का ग्रहण किया जाता है तथा दलिकों का निक्षेप अविशिष्ट समयों में . हा होता है, अन्तमुहूर्त काल से ऊपर समयों में निक्षेप नहीं किया जाता है। इसी दृष्टि और क्रम को यहां भी समझना चाहिये कि पहले समय में ग्रहीत बलिक अल्प हैं, अनन्नर दूसरे आदि समयों में वे असंख्याप्तगुणे हैं और उन सबकी रचना अन्तमुहूर्त काल प्रमाण समयों में होती है। काल का प्रमाण अन्तमुहूर्त से आगे नहीं बढ़ता है । गुणसंक्रम के द्वारा अपूर्वकरण के प्रथम समय में अनंतानुबंधी आदि अशुभ प्रकृतियों के थोड़े दलिकों का अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ शतक और उसके बाद प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे दलिकों का अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में ही स्थितिबंध भी अपूर्व अर्थात् बहुत थोड़ा होता है। ___ अपूर्वकरण का काल समाप्त होने पर तीसरा अनिवृत्तिकरण होता है। इसमें भी प्रथम समय से ही स्थितिघात आदि अपूर्व स्थितिबंध पर्यन्त पूर्वोक्त पांचों कार्य एक साथ होने लगते हैं । इसका काल भी अन्तमुहुर्त प्रमाण है। उसमें से संख्यात भाग बीत जाने पर जब एक भाग शेष रहता है तब अनंतानुबंधी कषाय के एक आवली प्रमाण नीचे के निषकों को छोड़कर शेष निकों का भी पूर्व में बताये मिथ्यात्व के अन्तरकरण की तरह इनका भी अन्तरकरण किया जाता है । जिन अन्तमुहूर्त प्रमाण दलिकों का अन्तरकरण किया जाता है, उन्हें वहां से उठाकर बंधने वाली अन्य प्रकृतियों में स्थापित कर दिया जाता है । अन्तरकरण के प्रारंभ होने पर दूसरे समय में अनन्तानुबन्धी कषाय के ऊपर की स्थिति बाले बलिकों का उपशम किया जाता है । यह उपशम पहले समय में थोड़े दलिकों का होता है, दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे, तीसरे समय में उससे असंख्यातगुणे दलिकों का उपशम किया जाता है । इसी प्रकार अन्तमुहूर्त काल तक क्रमशः असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे दलिकों का प्रतिसमय उपशम किया जाता है । इसका परिणाम यह होता है कि इतने समयों में संपूर्ण अनंतानुबंधी कषाय का उपशम हो जाता है और यह उपशम इतना सुदृढ़ होता है कि उदय, उदीरणा, निधति आदि करणों के अयोग्य हो जाता है । यही अनंतानुबंधी कषाय का उपशम है। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों का मानना है कि अनंतानुबंधी कषाय का उपशम नहीं होता है किंतु विसंयोजन होता है । इस मत का उल्लेख कर्मप्रकृति (उपशमकरण) गा० ३१ में किया गया है Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ । चउपइया पज़ला तिमिव सयायणा करणेह तीहि सहिया नंतरकरणं उवसमो वा । ३७५ चौथे, पांचवें तथा छठे गुणस्थानवर्ती यथायोग्य चारों गति के पर्याप्त जीव तीन करणों के द्वारा अनंतानुबंधी कषाय का विसंयोजन करते हैं । किन्तु यहां न तो अन्तरकरण होता और न अनन्तानुबंधी का उपशम ही होता है । अनंतानुबंधी का उपशम करने के बाद दर्शनमोहनीयत्रिकमिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का उपशम करता है। इनमें से मिथ्यात्व को उपराम तो मिथ्यादृष्टि और वेदक सभ्यदृष्टि ( क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि) करते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का उपशम वेदक सम्यग्दृष्टि ही करता है। मिथ्यादृष्टि जीव जब प्रथमोपशम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है तब मिथ्यात्व का उपशम करता है। किन्तु उपशम श्रेणि में यह प्रथमोशम सम्यक्त्व उपयोगी नहीं होता लेकिन द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उपयोगी होता है। क्योंकि इसमें दर्शनन्त्रिक का संपूर्णतया उपशम होता है । इसीलिये यहां दर्शनत्रिक का उपशमक वेदक सम्यग्दृष्टि को माना है ।" १ दर्शन मोह के उपशम के संबंध में कर्मप्रकृति का मंतव्य इस प्रकार हैअह्वा दंसणमोहं पुब्वं उवसामद्दतु सामन्ने । महिमावलि करेइ दोन्हं अणुदियाणं ||३३ अद्धापरिवित्ताऊ पमत्त मरे सहम्ससो किव्वा । करणाणि तिन्नि कुणए तइयनसेसे इमे सुणसु ॥ ३४ यदि वेदक सम्यरमष्टि उपशम श्रेणि चढता है तो पहले नियम से दर्शन- मोहनीयनिक का उपशम करता है और इतनी विशेषता है कि अन्तरकरण करते हुए अनुदित मिथ्यात्व और सम्य मिध्यात्व की प्रथम स्थिति को आवलिका प्रमाण और सम्यक्त्व को प्रथम स्थिति को अन्त(शेष अगले पृष्ठ पर देखें) Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ घातक इस प्रकार से अनन्तानुबंधी कषाय और दर्शनत्रिक का उपशमन करने के बाद वारितमोहनीय के उपशम का क्रम प्रारंभ होता है । चारित्रमोहनीय का उपशम करने के लिये पुनः वावृत्त आदि तीन करण करता है। लेकिन इतना अंतर है कि सातवें गुणस्थान में यथाप्रवृत्तकरण होता है, अपूर्वकरण अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में तथा अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान में होता है । यहां भी स्थितिघात आदि कार्य होते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि चौथे से सातवें गुणस्थान तक जो अनुकरण और निवृतिकरण होते हैं, उनमें उसी प्रकृति का गुणसंक्रमण होता है जिसके संबन्ध में वे परि णाम होते हैं । किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थान में संपूर्ण अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है । · अपूर्वकरण के काल में से संख्यातवां भाग बीत जाने पर निद्राद्विक – निद्रा और प्रचला का वैधविच्छेद होता है। उसके बाद और काल बीतने पर सुरद्विक, पंचेन्द्रियजाति आदि तीस प्रकृतियों का तथा अंतिम समय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बंधविच्छेद होता है ।" मुहूर्त प्रमाण करता है । उपशमन करके प्रमत्त तथा अप्रयत्त गुणस्थान में हजारों बार आवागमन करके चारित्रमोहनीय की उपशामना के लिये यथाप्रवृत्त व्यादि तीन करण करता है। तीसरे अनिवृत्तिकरण को विशेषता का कथन आगे की गाथाओं में किया गया १ अपूर्वकरण गुणस्थान में बंध विच्छिन्न होने वाली प्रकृतियां इस प्रकार हैंअडवन अपुच्वाइमिनिदुगंतो छपन्न पण भागे सुरदुग पणिदि सुखगइ तसनव उरलविणु तवंगा || समचउर निमिण जिण वण्ण अगुरुलहुबउ फलंसि तीसतो | चरमे छवीसबंध हासर कुच्छ भयमेओ । - द्वितीय कर्मग्रन्थ गा० ६० १० T Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ ३७५ इसके बाद अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है । उसमें भी पूर्ववत् स्थितिघात आदि बार्य होते हैं। अनिवृत्तिकरण के असंख्यात भाग बीत जाने पर चारित्रमोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों का अन्तरकरण करता है । जिन कर्मप्रकृतियों का उस समय बंध और उदय होता है उसके अन्तरकरण संबन्धी दलिकों को प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति में क्षेपण करता है। जैसे कि पुरुषवेद के उदय से अणि चढ़ने वाला पुरुषवेद का । जिन कर्मों का उस समय केवल उदय ही होता है और बंध नहीं होता है, उनके अन्तरकरण संबन्धी दलिकों को प्रथम स्थिति में ही क्षेपण करता है, द्वितीय स्थिति में नहीं । जैसे कि स्त्रीवेद के उदय से श्रेणि चड़ने वाला स्त्रीवेद का । जिन कर्मों का उदय नहीं होता किन्तु उस समय केवल बंध ही होता है, उनके अन्तरकरण सम्बंधी दलिकों का द्वितीय स्थिति में क्षेपण करता है, प्रथम स्थिति में नहीं | जैसे कि संज्वलन क्रोध के उदय से श्रोणि चढ़ने वाला शेष संज्वलन कषायों का, किन्तु जिन कमों का न तो बंध ही होता है और न उदय हो, उनके अन्तरकरण मंचन्धी दलिकों का अन्य प्रकृतियों में क्षेपण करता है। जैसे कि द्वितीय और तृतीय कषाय का। उक्त चतुभंगी का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- १. जिन कर्मों का उस समय बंध और उदय होता है, उनके दलिकों को प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति में क्षेपण किया जाता है। २. जिन कर्मों का उस समय उदय ही होता है, उनको प्रथम स्थिति में ही क्षेपण किया जाता है। ३. जिन कर्मों का उस समय बंध ही होता है, उनके दलिकों को द्वितीय स्थिति में क्षेपण किया जाता है। ४. जिन कर्मों का न तो उदय और न बंध ही होता है, उनके दलिकों को अन्य प्रकृतियों में क्षेपण किया जाता है । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक अन्तरकरण करके एक अन्तमुहूर्त में मपुंसक वेद का उपशेम करता है, उसके बाद एक अन्तमुहूर्त में स्त्रीवेद का उपशम और उसके बाद हास्यादि षट्क का उपशम होते ही पुरुषवेद के बंध,उदय और उदीरणा का विच्छेद है। हास्यादि षट्क की उपशमना के अनन्तर समय कम दो आवलिका मात्र में सकल पुरुषवेद का उपशम करता है । जिस समय में हास्यादि षट्क उपशान्त हो जाते हैं और पुरुषवेद की प्रथम स्थिति क्षीण हो जाती है, उसके अनन्तर समय में अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानाबरण और संज्वलन क्रोध का एक साथ उपशम करना प्रारंभ करता है और जब संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थिति में एक आवालका काल शेष रह जाता है तब संज्वलन क्रोध के बन्ध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है तथा अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कोष का उपशम । उस समय संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थितिगत एक आवलिका को और ऊपर की स्थितिगत एक समय कम दो आवलिका में बद्ध दलिकों को छोड़कर शेष दलिक उपशान्त हो जाते हैं। उसके बाद समय कम दो आवलिका काल में संज्वलन कोष का उपशम हो जाता है। जिस समय में संज्वलन क्रोध के बन्ध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन मान की द्वितीय स्थिति से दलिकों को लेकर प्रथम स्थिति करता है। प्रथम स्थिति करने के समय से लेकर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन मान का एक साथ उपशम करना प्रारंभ करता है । संज्वलन मान की प्रथमस्थिति में समय कम तीन आवलिका शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानाधरण मान के दलिकों का संज्वलन मान में प्रक्षेप नहीं किया जाता किन्तु संज्वलन माया आदि में किया जाता है । एक आवलिका शेष रहने पर संज्वलन मान के बंध, Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्प उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है और अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण मान का उपशम हो जाता है । उस समय में संज्वलन मान की प्रथम स्थितिगत एक आवलिका और एक समय कम दो आवलिका में बांधे गये ऊपर की स्थितिगत कर्मदलिकों को छोड़कर शेष दलिकों का उपशम हो जाता है। उसके बाद समय कम दो आवलिका में संज्वलन मान का उपशम करता है। जिस समय में संज्वलन मान के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संञ्चलन माया की द्वितीय स्थिति से दलिकों को लेकर पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम स्थिति करता है और उसी समय से लेकर तीनों माया का एक साथ उपशम करना प्रारम्भ करता है । संज्वलन माया की प्रथम स्थिति में समय कम तीन आवलिका शेष रहने पर अप्रत्याख्या. नावरण और प्रत्याख्यानावरण माया के दलिकों का संज्वलन माया में प्रक्षेप नहीं करता किन्तु संज्वलन लोभ में प्रक्षेप करता है और एक आवलिका शेष रहने पर संज्वलन माया के बन्ध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है तथा अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण माया का उपशम हो जाता है । उस समय में संज्वलन माया की प्रथम स्थितिगत एक आवलिका और समय कम दो आवलिका में बांधे गये ऊपर की स्थितिगत दलिकों को छोड़कर शेष का उपशम हो जाता है। उसके बाद समय कम दो आवलिका में संज्वलन माया का उपशम करता है। जब संज्वलन माया के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है, उसके अनन्तर समय से लेकर संज्वलन लोभ की द्वित्तीय स्थिति से दलिकों को लेकर पूर्वोक्त प्रकार से प्रथम स्थिति करता है । लोभ का जितना वेदन काल होता है, उसके तीन भाग करके उनमें से दो भाग Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० अतिक प्रमाण प्रथम स्थिति का काल रहता है। प्रथम विभाग में पूर्व स्पर्धकों में से बलिकों को लेकर पूर्वस्पर्धक करता है अर्थात पहले के स्पर्धकों में से दलिकों को ले लेकर उन्हें अत्यन्त रसहीन कर देता है । द्वितीय विभाग में पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकों से दलिकों को लेकर अनन्त कृष्टि करता है अर्थात् उनमें अनन्तगुणा हीन रस करके उन्हें अंतराल से स्थापित कर देता है । कृष्टिकरण के काल के अन्त समय में अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशम करता है । उसी समय में संज्वलन लोभ के बंध का विच्छेद होता है। इसके साथ ही नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का अंत हो जाता है । इसके बाद दसवां सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान होता है । इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है । उसमें आने पर ऊपर की स्थिति से कुछ कृष्टियों को लेकर सूक्ष्मसंपराय के काल के बराबर प्रथम स्थिति को करता है और एक समय कम दो आवलिका में बंधे हुए शेष दलिकों का उपशम करता है । सूक्ष्मसंसराय के अंतिम समय में संज्वलन लोभ का उपशम हो जाता है। उसी समय में ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की बार, अंतराय की पांच, यशःकीर्ति और उच्च गोत्र, इन प्रकृतियों के बन्ध का विच्छेद होता है । अनन्तर समय में ग्यारहवां गुणस्थान उपशान्तकषाय हो जाता हैं और इस गुणस्थान में मोहनीय की २० प्रकृतियों का उपशम रहता है।" १ लब्धिसार ( दिगम्बर साहित्य) गा० २०५ ३६१ में उक्त वर्णन से मिलता जुलता उपशम का विधान किया गया है। किन्तु उसमें अनन्तानुबधी के उपशम का विधान न करके विसंयोजन को माना है बरियाहिमुहा वेदसम्मी अणं वियोजिता ॥ २०५ अर्थात् उपशम चारित्र के अभिमुख वेदक सम्यदृष्टि अनन्तानुबंधी का विसंयोजन करके " उक्त कथन से स्पष्ट है कि ग्रंथकार बिसयोजन कर ही पक्षपाती है। ११.----. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रम्य વ यद्यपि उपशम श्र ेणि में मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का पूरी तरह उपशम किया जाता है, परन्तु उपशम कर देने पर भी उस कर्म का अस्तित्व तो बना ही रहता है। जैसे कि गंदले पानी में फिटकरो यादि डालने से उसने में बैठ जाती है और पानी निर्मल हो जाता है, किन्तु उसके नीचे गन्दगी ज्यों की त्यों बनी रहती हूँ | वैसे ही उपशम श्र ेणि में जीव के भावों को कलुषित करने वाला प्रधान कर्म मोहनीय शांत कर दिया जाता है। अपूर्वकरण आदि परिणाम जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे मोहनीय कर्म की धूलि रूपी उत्तर प्रकृतियों के कण एक के बाद एक उत्तरोत्तर शांत हो जाते हैं । इस प्रकार से उपशम को गई प्रकृतियों में न तो स्थिति और अनुभागको कम किया जा सकता है और न बढ़ाया जा सकता है । न उनका उदय या उदीरणा हो सकती हैं और न उन्हें अन्य प्रकृति रूप ही किया जा सकता है । किन्तु यह उपशम तो अन्तमुहूर्त काल के लिये किया जाता है | अतः दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का उपशम करके जब जीव ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचता है तो कम-से-कम एक समय और अधिक-सेअधिक अन्तमुहूर्त के बाद उपशम हुई कषायें अपत्ता उद्र ेक कर बैठती हैं। जिसका फल यह होता है कि उपशम श्र ेणि का आरोहक जीव जिस क्रम से ऊपर चढ़ा था, उसी क्रम से नीचे उतरना शुरू कर देता है और उसका पतन प्रारम्भ हो जाता है । उपशांत कषाय वाले जीव का पतन अवश्यंभावी है। इसी बात को आवश्यक नियुक्ति गाथा ११८ में स्पष्ट किया है कि - १ अन्यत्राप्युक्तं – 'उवसतं कम्मं ज न तओ कडेइ न देइ उदए नि । नय गमबइ परपगइ न चेव ढए तं तु ।। - पंचम कर्मग्रथ स्वोपश टोका पृ० १३१ - Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ शतक उपसाम उवणीया गुगमहया विणचरिससरिसंपि । पशिवायंति कसाया कि पुण सेसे सागस्य ॥ गुणवान पुरुष के द्वारा उपशांत की गई कषायें जिन भमवान सरीखे चारित्र वाले व्यक्ति का भी पतन करा देती हैं, फिर अन्य सरागी पुरुषों का तो कहना ही क्या है ? ___ अतः ज्यों-ज्यों नीचे उतरता जाता है, वैसे-वैसे पढ़ते समय जिसजिस गुणस्थान में जिन-जिन प्रकृतियों का बंधविच्छेद किया था, उसउस गुणस्थान में आने पर वे प्रकृतियां पुनः बंधने लगती हैं। उतरते-उतरते वह सातवें या ण्ठे गुणस्थान में ठहरता है और यदि वहां भी अपने को संभाल नहीं पाता है तो पांचवे और चौथे गुणस्थान में पहुंचता है। यदि अनंतानुबंधी का उदय आ जाता है तो सासादन सम्यग्दृष्टि होकर पुनः मिथ्यात्व में पहुँच जाता है। और इस तरह सब किया कराया चौपट हो जाता है । लेकिन यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि यदि पतनोन्मुखी उपशम श्रेणि का आरोहक छठे गुणस्थान में आकर संभल जाता है तो पुनः उपशम श्रोणि चढ़ सकता है । क्योंकि एक भव में दो बार उपशम श्रेणि चढ़ने का उल्लेख पाया जाता है। परन्तु जो जीव दो बार अद्धाखये पस्तो अधापवत्तोत्ति पदि हु कमेण । सुज्झतो आरोहदि पडदि सो संकिलिस्मतो ।। -सम्धिसार गा० ३१० जीव उपशम श्रेगि में अधःकरण पर्यन्त तो कम से गिरता है । यदि उसके बाद विशुद्ध परिणाम होते हैं तो पुन: ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है और संक्लेश परिणामों के होने पर नीचे के गुणस्थानों में आता है। २ एकमचे दुक्खुत्तो चरित्तमोहं उवसमेज्जा । –कर्मप्रकृति गा०६४ -पंचसंग्रह गा० ६३ (पाम) Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ उपशमन णि चढ़ता है, वह जीव उसी भव में क्षपक णि वा आरोहण नहीं कर सकता । जो एक बार उपशम धणि चढ़ता है वह कार्म. ग्रन्थिक मतानुसार दूसरी बार क्षपक थणि भी बढ़ सकता है ।' सद्धांतिक मतानुसार तो एक भव में एक जीव एक ही श्रोणि चढ़ता है । इस प्रकार सामान्य रूप से उपशम श्रोणि का स्वरूप बतलाया गया है। अब तत्संबंधी कुछ विशेष स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है । गाथा में उपशमणि के आरोहण क्रम पुरुषवेद के उदय से श्रेणि चढ़ने वाले जीव की अपेक्षा से बतलाया गया है । यदि स्त्रीवेद के उदय से कोई जीव श्रेणि चढ़ता है तो वह पहले नपुंसक वेद का उपशम करता है और फिर क्रम से पुरुषवेद, हास्यादि षट्क और स्त्रीवेद का उपशम करता है। यदि नपुंसक वेद के उदय से कोई जीव श्रेणि चढ़ता है तो वह पहले स्त्रोवेद का उपशम करता है, उसके बाद क्रममा पहेद, हापालिक का और नपुंसका भेद का उपशम करता है । सारांश यह है कि जिस बेद के उदय से श्रोणि चढ़ता है उस वेद का उपशम सबसे पीछे करता है। इसी बात को विशेषावश्यक भाष्य गा० १२८५ में बताया है कि -- .... उक्तं च सप्सतिकाचो-जो दुवे वारे उवसमसेति पष्टियस्जद, तस्स नियमा तम्मि भवे खवगसेती नत्यि | जो इक्कसि उबसमसे हिं पडिवज्जा तस्स नवगसेठी हुज ति -पंचम कर्मग्रन्थ स्वोपन टी०, पृ० १३२ तम्मि मवे निवाणं न लभइ उक्कोसो व संसार । पोग्गलपरिपट्टद्ध देसूणं कोइ हिडेज्जा ।। -विशेषावश्यक भाष्य १३१५ उपशम श्रेणि से गिरकर मनुष्य उस भव से मोक्ष नहीं जा सकता और कोई-कोई तो अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुदगल परावर्त काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ तक तत्तो व दंसणत्तिगं सरेऽणुष्णं जहन्नरवेयं । ततो बीयं धक्कं तओ य वेयं समुषिन्नं ॥ अर्थात् अनन्तानुबधा को उपशमना के पश्चात् दर्शनांतक का उपशम करता है, उसके बाद अनुदीर्णं दो वेदों में से जो वेद हीन होता है, उसका उपशम करता है। उसके बाद दूसरे वेद का उपशम करता है । उसके बाद हास्यादि पट्क का उपशम करता है और तत्पश्चात जिस वेद का उदय होता है, उसका उपशम करता है । कर्मप्रकृति उपशमनाकरण गा० ६५ में इस क्रम को इस प्रकार बतलाया है कि- उदयं परिजय इस्मी इरिथं समद्ध अर्थया प्त । तह वरिषरो बरिसवरिस्थिं समगं कमार ॥ यदि स्त्रो उपशमणि पर बढती है तो पहले नपुंसकवेद का उपराम करती है, उसके बाद चरम समय मात्र उदय स्थिति को छोड़कर स्त्रीवेद के शेष सभी दलिकों का उपशम करती है। उसके बाद अबे - कफ होने पर पुरुषवेद आदि सात प्रकृतियों का उपशम करती है। यदि नपुंसक उपश्रम आणि पर चढ़ता है तो एक उदय स्थिति को छोड़कर शेष नपुंसक वेद का तथा स्त्रोवेद का एक साथ उपशम करता है । उसके बाद अवेदक होने पर पुरुषवेद आदि सात प्रकृतियों का उपशम करता है । ' उपशमणि का आरंभक सप्तम गुणस्थानवर्ती जीब है और अनंतानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, मिथ्यात्व और सभ्यमिध्यात्व का उपशम करने पर सातवां गुणस्थान होता है । क्योंकि इनके उदय होते हुए सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती है। १ लब्धिसार में भी फर्म प्रकृति के अनुरूप ही विधान किया गया है। देखो गाथा ३६१, ३६२ । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मयन्थ ५ उपशम श्रीणि में भी अनन्तानुबन्धी आदि का उपशम किया जाता है । अतः ऐसी दशा में पुनः उपशम श्रणि में उनका उपशम बतलाने का कारण यह है कि वेदक सम्यक्त्व, देशचारित्र और सकलचारित्र की प्राप्ति उक्त प्रकृतियों के क्षयोपशम से होती है । अतः उपशम श्रेणि का प्रारंभ करने से पहले उन्म तहतियों का योगगन माता है कि उपशम । इसीलिये उपशम श्रेणि में अनन्तानुबन्धी आदि के उपशम को बतलाया है। उपशम और क्षयोपशम में अन्तर । इसी प्रसंग में उपशम और क्षयोपशम का स्वरूप भी समझ लेना चाहिये। क्योंकि क्षयोपशम उक्ष्य में आये हुए कर्मदलिकों के भय और सत्ता में विद्यमान कमाँ के उपशम से होता है । परन्तु क्षयोपशम की इतनी विशेषता है कि उसमें घातक क्रमों का प्रदेषोदय रहता है और उपशम में किसी भी तरह का उदय नहीं होता है अर्थात् न तो प्रदेशोदय और न रसोदय । क्षयोपशम में प्रदेशोदय होने पर भी सम्यक्त्व आदि का घात न होने का कारण यह है कि उदय दो प्रकार का है—फलोदय और प्रदेशोदय । लेकिन फलोदय होने से गुण का धात होता है और प्रदेशोदय के अत्यन्त मंद होने से गुण का धात नहीं होता है । इसीलिये उपशम श्रोणि में अनन्तानुबन्धी आदि का फलोदय और प्रदेशोदय रूप दोनों प्रकार का उपशम माना जाता है । उपशम श्रेणि का प्रारम्भक माने जाने के सम्बन्ध में मतान्तर भी है । कई आचार्यों का कहना है कि अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत में से कोई एक उपशम श्रेणि चढ़ता है और कोई सप्तम गुणस्थानवी जीव को आरम्भक मानते हैं । इस मतभिन्नता का कारण यह है कि जो आचार्य दर्शनमोहनीय ___ के उपशम से अर्थात् द्वितीय उपशमसम्यक्त्व के प्रारम्भ से ही उपशम Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ गतक श्र ेणि का प्रारम्भ मानते हैं वे चौथे आदि गुणस्थानवर्ती जीवों को उपशमश्रण का प्रारम्भक मानते हैं। क्योंकि उपशम सम्यक्त्व चौथे आदि चार गुणस्थानों में ही प्राप्त किया जाता है। लेकिन जो आचार्य चारित्रमोहनीय के उपशम से यानी उपराम चारित्र की प्राप्ति के लिये किये गये प्रयत्नी से उपर मानते हैं, वे सप्तमगुणस्थानवर्ती जीव को ही उपशम श्रेणि का प्रारम्भक मानते हैं, क्योंकि सातवें गुणस्थान में ही यथाप्रवृत्तकरण होता है ।" उपशम श्रोणि के आरोहण का क्रम अगले पृष्ठ ३८७ पर देखिये । इस प्रकार से उपशम श्र ेणि का स्वरूप जानना चाहिये । अनन्तर अब क्रमप्राप्त क्षपक श्र ेणि का वर्णन करते हैं । अपक श्रेणि अणमिच्छमीससम्मं तिआउ इगविगलयोपतिगुज्जोवं तिरिनधरपावरगं छगपु संजल या दोनिद्दविग्धव रणक्लए साहाराय अडनपुरीए ॥६६॥ नाणी । कषाय, मिन्छ – मिथ्यात्व - सम्मं सम्यक्त्व मोहनीय, शब्दार्थ - अण - अनंत नुबंधी मोहनीय, मीस - मिश्र मोहनीय, तिभाज- तीन आयु, इगविगल - एकेन्द्रिय, विकेलेन्द्रिय, श्रीमतिग-स्त्यानद्धित्रिक उज्जीवं— उद्योत नाम, तिचद्विक, नरकद्विक, स्थावरद्विक आतप नाम, अड - आठ कपाय नपुस्थीए वेद । तिरिनरथथावर युगं - - साहारायव-- साधारण नाम, नपुंसक वेद और स्त्री छग — हास्यादि षट्क, पुं पुरुष वेद, संजला ---संज्वलन कषाय, योनिद दो निद्रा ( निद्रा और प्रचला), विग्धवरणवखए- १ दिगम्बर संप्रदाय में दूसरे मत को ही स्वीकार किया है । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ उपशमन संज्वलन लोभ २८ अप्रत्याख्यातावरण लोभ प्रत्याख्यानावरण लोभ २६ २७ संज्वलन माया २५ अप्रत्याख्याना० माया २३ संज्वलन मान २२ -- प्रत्याख्याना० माया २४ अप्रत्याख्याना० मान प्रत्याख्याना० मान २० २१ संज्वलन क्रोध १६ अप्रत्याख्याना० क्रोध १७ प्रत्याख्याना० क्रोध १८ पुरुष वेद १६ हास्यादि षट्क १५ स्त्रीवेद नपुंसक वेद मिश्र ६, सम्यक्त्व मो० ७ मिथ्यात्व ५. अनन्तानुबंधी क्रोध १, मान २, माया ३ लोभ ४ ཟང་ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पातक पांच अंतराय, पांव ज्ञानावरण और चार वर्णनावरण के क्षय होने पर, नाणी- केवलज्ञानी । गाथार्थ-- (क्षपक श्रेणि बाला) अनंतानुबंधी कषाय, मिथ्यात्व मोहनीय, मिध मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, तीन आयु, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, स्त्यानद्धित्रिक, उद्योत नाम, तिर्यचद्विक, नरकद्विक, स्थावद्विक, साधारण नाम, आतप नाम, आठ (दूसरी और तीसरी) कषाय, नपुसक वेद, स्त्रीवेद तथा--- हास्यादि षट्क, पुरुष वेद, संज्वलन कषाय, दो निद्रायें, पांच अंतराय,पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, इन प्रकृतियों का क्षय करके जीव केवलज्ञानी होता है। विशेषार्थ---क्षपक श्रेणि का आरोहक जिन प्रकृतियों को क्षय करता है, उनके नाम गाथा में बतलाये हैं । उपशम श्रोणि और क्षपक श्रेणि में यह अन्तर है कि इन दोनों श्रेणियों के आरोहक मोहनीय कर्म के उपशम और क्षय करने के लिए अग्रसर होते हैं लेकिन उपशम अणि में तो प्रकृतियों के उदय को शांत किया जाता है, प्रकृतियों की मत्ता बनी रहती है और अन्तमुहूर्त के लिये अपना फल नहीं दे सकती हैं, किन्तु क्षपक श्रेणि में उनकी सत्ता ही नष्ट कर दी जाती है, जिससे उनके पुनः उदय होने का भय नहीं रहता है । इसी कारण क्षपक श्रोणि में पतन नहीं होता है। उक्त कथन का सारांश यह है कि उपशम श्रेणि और रुपक श्रेणि दोनों का केन्द्रबिन्दु मोहनीय कर्म है और उपशम श्रोणि में मोहनीय कर्म का उपशम होने से पुनः उदय हो जाता है । जिससे पतन होने पर की गई पारिणामिक शुद्धि व्यर्थ हो जाती है। किन्तु क्षपक श्रीणि में मोहनीय कर्म का समूल क्षय होने से पुनः उदय नहीं होता है और उदय न होने से पारिणामिक शुद्धि पूर्ण Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३६ होकर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेती है और केवल - ज्ञानी हो जाती है । उपशम श्रत्रि और क्षपक श्रपि में दूसरा अह है कि शमश्रण में सिर्फ मोहनीय कर्म को प्रकृतियों का ही उपशम होता है लेकिन क्षपक श्रोणि में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के साथ नामकर्म की कुछ प्रकृतियों व ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय कर्म की प्रकृतियों का भी क्षय होता है । क्षपक श्रेणि में प्रकृतियों के क्षय का क्रम इस प्रकार है 1 आठ वर्ष से अधिक आयु वाला उत्तम संहनन का धारक, चौथे, पांचवें, छठे अथवा सातवें गुणस्थानवर्ती मनुष्य क्षपक श्र ेणि प्रारंभ करता है ।" सबसे पहले वह अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का एक साथ क्षय करता है और उसके शेष अनंतवें भाग को मिथ्यात्व में स्थापन करके मिथ्यात्व और उस अंश का एक साथ नाश करता है । उसके बाद इस प्रकार क्रमशः सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय करता है । * जब सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति एक आवलिका मात्र बाकी रह जाती है तब सम्यक्त्व मोहनीय की स्थिति आठ वर्ष प्रमाण बाकी अबिरयदेमपमत्तापमत्तविरयाणं । पबिती ए अन्नयरो पडिवज्जइ सुद्धज्माणोवगयचित्तो || १ - विशेषावश्यक भाष्य १३२१ दिगम्बर संप्रदाय में उपथम श्रेणि के आरोहक की तरह क्षपक श्रेणि के आरोहक को सप्तम गुणस्थानवतीं माना हैं। क्योंकि चारित्रमाहीम के क्षपण से ही पकणि मानी है । पढमसाए समय खवे अंतोमुत्तमेत्तणं । तत्तो विर्य मिच्छतं तख य मी तओ सभ्य || -- विशेषावश्यक भाष्य १३२२ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. रहती है । उसके अन्तमुहूर्त प्रमाण खण्ड कर-करके खपाता है | जब उसके अंतिम स्थितिखण्ड को खपाता है तब उस क्षपक को कृतकरण कहते हैं । इस कृतकरण के काल में यदि कोई जीव मरता है तो वह चारों गतियों में से किसी भी गाते में उत्पन्न हो साता है।' यदि क्षपक श्रोणि का प्रारंभ बद्धायु जीव करता है और अनंतानुबंधी के क्षय के पश्चात् उसका मरण हो तो उस अवस्था में मिथ्यात्व का उदय होने पर वह जीव पुनः अनंतानुबंधी का बंध करता है, क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में अनंतानुबंधी नियम से बंधती है, किन्तु . १ लब्धिसार (दिगम्बर चन्द्र में दर्शन महनीय की क्षपणा के बारे में निता है दंसणमोहपखवणापटुबगो कम्मभूमिजो मणुसो । तिस्थयरपादमूले केवलिसुदकेवलीमूले ।।११।। णिनगो तट्ठाणे विमाणभोगावणीमु धम्भे अ।। किदकरणिज्जो चदुसुवि गदीसु उप्पजदे जम्हा ।।१११॥ कर्मभूमिज मनुष्य तीर्थकर, केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनमोह के क्षपण का प्रारम्भ करता है। अधःकरण के प्रथम समय से लेकर अब तक मिथ्यात्व मोहनीय और मिथ मोहनीय का द्रव्य सम्पकत्व प्रकृति रूप संक्रमण करता है तब तक के अन्समुहूर्त काल को दर्णनमोह के क्षपण का प्रारम्भिक काल कहा जाता है और उस प्रारम्भ काल के अनन्तर समय से लेकर शायिक सम्पनत्व की प्राप्ति के पहले समय तक का काल निष्ठापक कहलाता है । निष्ठापक तो जहाँ प्रारम्भ किया था यहां ही अपना वैमानिक देवों में अपना मोगभूमि में अथवा धर्मा नाम के प्रथम नरक में होता है। क्योंकि बद्धायु कृतकृत्य वेदक सम्मष्टि मरण करके चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है । बढाउ पडिवनो पढमफसायक्खए अइ मरेज्जा। तो मिठत्तोदयो विणिज मुज्जो न खीणम्मि ।। -विशेषावश्यक भाष्य १३२३ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ पंचम कर्मग्रन्थ मिथ्यात्व का क्षय हो जाने पर पुनः अनंतानुबंधी का बंध नहीं होता है। बद्धायु होने पर भी यदि कोई जीव उस समय मरण नहीं करता है तो अनंतानुबंधी कषाय और दर्शनमोह का क्षपण करने के बाद वह वहीं ठहर जाता है, पारिवमोहनीय के क्षपण करने का प्रयत्न नहीं करता है । यदि अबद्धायु होता है तो वह उस श्रेणि को समाप्त करके केवलज्ञान प्राप्त करता है । अतः अबद्धायुष्क सकल श्रेणि को समाप्त करने वाले मनुष्य के तीन आयु- देवायु, नरकायु और तिर्यंचायु का अभाव तो स्वतः ही हो जाता है तथा पूर्वोक्त कम से अनंतानुबंधी चतुष्क और दर्शनत्रिक का क्षय चौथे आदि चार गृणस्थानों में कर देता है। इम प्रकार दर्शनमोहसप्तक का क्षय करने के पश्चात चारित्रमोहनीय का क्षय करने के लिये यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है । अपूर्वकरण में स्थितिघात आदि के द्वारा अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क कुल आठ प्रकृतियों का इस प्रकार क्षय किया जाता है कि अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में उनकी स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र रह जाती है । अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग बीत जाने पर- स्त्मानद्वित्रिक, नरकगति, नरकानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, बिकलेन्द्रियत्रिक ये चार जातियां, स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण, इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति उद्वलना संक्रमण के द्वारा उद्वलना होने पर पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र रह जाती है और उसके बाद गुणसंक्रमण के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों में उनका प्रक्षेप कर-करके उन्हें बिल्कुल क्षीण कर दिया जाता है । यद्यपि अप्रत्यास्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षय का प्रारंभ पहले ही कर दिया जाता है, किन्तु अभी तक ये क्षीण नहीं होती हैं कि अंतराल Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ शतक में पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों का क्षपण किया जाता है और उनके क्षय के पश्चात आठ कषायों का भी अन्तमु हुन में ही क्षय कर देता है।' उसके पश्चात नौ मोक्षाय और चार संचलन कापायों में अन्तरकरण करता है । फिर क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और हास्यादि छह नोकषायों का क्षपण करता है और उसके बाद पुरुषवेद के तीन खंड करके दो खण्डों का एक साथ क्षपण करता है और तोसरे खण्द्ध को संज्वलन क्रोध में मिला देता है। ___उक्त क्कम पुरुषवेद के उदय से श्रेणि चढ़ने वाले के लिये बताया है । यदि स्त्री घोणि पर आरोहण करती है तो पहले नपुंसकवेद का क्षपण करती है, उसके बाद क्रमशः पुरुषवेद, छह नोकपाय और स्त्रीवेद का क्षपण करती है यदि नपुंसक श्रेणि आरोहण करता है तो वह पहले स्त्रीवेद का क्षपण करता है, उसके बाद क्रमशः पुरुषवेद, छह नोकषाय और नपुंसक वेद का क्षपण करता है । सारांश यह है कि किसी-किसी का मत है कि पहले सोलह प्रकृतियों के ही क्षय का प्रारम्भ फरता है और उनके मध्य में आठ कषायों का क्षय करता है, पश्चात् सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है । गो. कर्मकांड में इस सम्बन्ध में मतान्तर का उल्लेख इस प्रकार किया है णरिम अणं उबसमगे स्ववगापुत्वं शक्त्तुि अट्ठा य । पच्छा सोलादीणं खवणं इदि केइ णिट्ठि ॥३६१।। उपशम श्रेणी में अनंतानुबंधी का सत्व नहीं होता और क्षपक अनिवृप्तिकरण पहले आठ कषायों का क्षपण करके पश्चात् सोलह आदि प्रकृतियों का क्षपण करता है, ऐसा कोई कहते हैं ।। इत्थी उदए नपुसं इत्थीवेयं च सत्तगं च कमा । अपुमोदयंमि जुगवं नपुसइत्थी पुणो सत्त । ____-पंधसंग्रह ३४६ (शेष अगले पृष्ठ पर देखें) Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ५१३ जिस वेद के उदय से श्रीणि आरोहण करता है, उसका क्षपण अन्त में होता है। वेद के क्षपण के बाद संज्वलाट क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षपण उक्त प्रकार से करता है। यानी संज्वलन क्रोध के तीन खण्ड करके दो खंडों का तो एक साथ क्षपण करता है और तीसरे खंड को संज्वलन मान में मिला देता है। इसी प्रकार मान के तीसरे खंड को माया में मिलाता है और माया के तीसरे खण्ड को लोभ में मिलाता है । प्रत्येक के क्षपण करने का काल अन्तमुहर्त है और श्रेणि काल अन्तमुहूर्त है किन्तु वह अन्तमुहूर्त बड़ा है। संज्वलन लोभ के तीन खंड करके दो खण्डों का तो एक साथ क्षपण करता है किन्तु तीसरे खण्ड के संख्यात' खण्ड करके चरम खंड के सिवाय शेष खंडों को भिन्न-भिन्न समय में खपाता है और फिर उस चरम खंड के भी असंख्यात खंड करके उन्हें दसवें गुणस्थान में भिन्नभिन्न समय में खपता है । इस प्रकार लोभ कषाय का पूरी तरह क्षय होने पर अनन्तर समय में क्षीणकषाय हो जाता है । क्षीणकषाय गुणस्थान के काल के संख्यात भागों में से एक भाग काल बाकी रहने तक मोहनीय के सिवाय शेष कर्मों में स्थितिघात आदि पूर्ववत् होते हैं। उसमें पांच ज्ञानाबरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय और दो निद्रा (निद्रा और प्रचला) इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति को क्षीणकषाय के काल के बराबर करता है किन्तु निद्राद्विक की स्थिति को एक समय स्त्रीवंद के उदय मे अणि चढ़ने पर पहले नपु मक वेद का क्षय होता है, फिर स्त्रोवेद का और फिर पुष्पवेद प हान्यादि षट्क का क्षय होता है । नपुसक वेद के उदय से अणि चढने पर नपुसक वेद और स्त्रीबंद का एक साथ आय होता है. उसके बाद पुरुषवेद और हास्यषट्क का क्षय होता है। __ गो० फर्मकांड गा० ३८८ में भी यही क्रम बताया है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ कम करता है। इनकी स्थिति के बराबर होते ही इनमें स्थितिघात वगैरह कार्य बन्द हो जाते हैं और शेष प्रकृतियों के होते रहते हैं। क्षीणकषाय के उपान्त समय में निद्राद्विक का क्षय करता है और क्षेत्र चौदह प्रकृतियों का अन्तिम समय में क्षय करता है और उसके अनन्तर समय में वह सयोगकेवली हो जाता है । शतक वह सयोगकेवली अवस्था जघन्य से अन्तम हूर्त और उत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्व कोटि काल की होती है। इस काल में भव्य जीवों के प्रतिबोधार्थ देशना, विहार आदि करते हैं। यदि उनके वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति आयुकर्म से अधिक होती है तो उनके समीकरण के लिये यानी आयुकर्म की स्थिति के बराबर वेदनीय आदि तीन अत्रातिया कर्मों की स्थिति को करने के लिये समुद्घात करते हैं, जिसे केबलीसमुद्घात कहते हैं और उसके पश्चात योग का निरोध करने के लिये उपक्रम करते हैं। यदि आयुकर्म के बराबर ही वेदनीय आदि कर्मों की स्थिति हो तो समुदघात नहीं करते हैं । योग के निरोध का उपक्रम इस प्रकार है कि सबसे पहले बादर काययोग के द्वारा बादर मनोयोग को रोकते हैं, उसके पश्चात बादर वचनयोग को रोकते हैं और उसके पश्चात सूक्ष्मकाय के द्वारा बादर काययोग को रोकते हैं, उसके बाद सूक्ष्म मनोयोग को, उसके पश्चात् सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं। इस प्रकार बादर, सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग और बादर काययोग को रोकने के पश्चात् सूक्ष्म काययोग को रोकने के लिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान को ध्याले हैं । उस ध्यान में स्थितिघात आदि के द्वारा सयोगि अवस्था के अंतिम समय पर्यन्त आयुकर्म के सिवाय शेप कर्मों का अपवर्तन करते हैं । ऐसा करने से अन्तिम समय में सब कर्मों की स्थिति अयोगि अवस्था के काल के बराबर हो जाती है। यहां इतना विशेष समझना चाहिये Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३६५ कि अयोगि अवस्था में जिन कर्मों का उदय नहीं होता है, उनकी स्थिति एक समय कम होती है। सयोगकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में साता या असाता वेदनीय में से कोई एक बेदनीय, औदारिक, तेजस, कार्मण, छह संस्थान, प्रथम संहनन, औदारिक अंगोपांग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराधात, उच्छ्वास, शुभ और अशुभ विहायोगति, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर और निर्माण, इन तीस प्रकृतियों के उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है और उसके अनन्तर समय में अयोगकेवली हो जाते हैं। ____ इस अयोगकेवली अवस्था में ब्युपरतक्रियाप्रतिपाती ध्यान को करते हैं। यहां स्थितिघात आदि नहीं होता है, अतः जिन कर्मों का उदय होता है, उनको तो स्थिति का क्षय होने से अनुभव करके नष्ट कर देते हैं, किन्तु जिन प्रकृतियों का उदय नहीं होता, उनका स्तिबुकसंक्रम के द्वारा वेद्यमान प्रकृतियों में संक्रम करके अयोगि अवस्था के उपांत समय तक वेदन करते हैं और उपांत समय में ७२ का और अंत समय में १३ प्रकृतियों का क्षय करके निराकर, निरंजन होकर नित्य सुख के धाम मोक्ष को प्राप्त करते हैं।' इस प्रकार से क्षपक श्रणि का स्वरूप समझना चाहिये । उसका दिग्दर्शक विवरण यह है १ सपक श्रेणि का विशेष विवरण परिशिष्ट में देखिये । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ सिद्ध अवस्था की प्राप्ति १४८ प्रकृतियों का क्षय १२/१३ प्रकृतियों का क्षय (१४वे गुणस्थान में ) ७२/७३ प्रकृतियों का क्षय (१३वें गुणस्थान में ) ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४, अंतराय ५ = १४ (१२ गुणस्थान में) दो निद्रायें २ (१२ गुणस्थान के उपरांत समय में ) संज्वलन लोभ १ (दसवे गुणस्थान में ) संज्वलन माया १ संज्वलन मान १ संज्वलन क्रोध १ पुरुपवेद १ हास्यादि षट्क ६ स्त्रीवेद १ नौवें गुणस्थान में नपुंसकवेद १ एकेन्द्रिय आदि १६ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ ( देव, नरक, तिर्यंच आयु ३ सम्यक्त्वमोहनीय ३ मिश्र मोहनीय २ मिथ्यात्व मोहनीय १ अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ गुणस्थान में ) शतक (४, ५, ६, ७ वें गुणस्थान में ) Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम फर्मग्रन्थ ३६७ _ 'नमिय जिणं घुबबंधोदयसत्ता' आदि पहली गाथा में जिन विषयों के वर्णन करने की प्रतिज्ञा की गई थी, उनका वर्णन करने के पश्चात ग्रन्थकार अपना और ग्र'थ का नाम बतलाते हुए ग्र'य को समाप्त करते हैं। देविवरिलिहियं सयमिणं आयसरणट्ठा ॥१०॥ शब्दार्थ-देविद सूरि—देवेन्द्रसूरि ने, लिहिय-- लिखा, सयग-शतक नाम का, इग-यह ग्रय, आयसरणट्ठा-आस्मस्मरण करने, बोध प्राप्त करने के लिये। मार्थ-देने ते आत्मा का बोध प्राप्त करने के लिए इस शतक नामक ग्रन्थ की रचना की है। विशेषार्थ -- उपसंहार के रूप में ग्रन्थकार अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुये कहते हैं कि इस ग्र'थ का नाम 'शतक है, क्योंकि इसमें सौ गाथायें हैं और उनमें प्रारम्भ में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार वर्ण्य विषयों का वर्णन किया गया है और यह ग्रन्थ स्वस्वरूप बोध के लिए बनाया गया है। इस प्रकार पंचम कर्म ग्रन्थ की व्याख्या समाप्त हुई । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. पंचम कर्मग्रन्थ की मूल गाथायें २. कर्मों की बन्ध, उदय, सत्ता प्रकृतियों की संख्या में भिन्नता का कारण ३. मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों में भूयस्कार आदि बन्ध ४. कर्म प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध, ५. आयुकर्म के अबाधाकाल का स्पष्टीकरण ६. योगस्थानों का विवेचन ७. ग्रहण किये गये कर्मस्कन्धों को कर्म प्रकृतियों में विभाजित करने की रीति ८. उत्तर प्रकृतियों में पुद्गलद्रव्य के वितरण तथा होनाधिकता का विवेचन #. पल्यों को भरने में लिए जाने वाले वालाग्रों के बारे में अनुयोगद्वार सूत्र आदि का कथन १०. दिगम्बर साहित्य में पल्योपम का वर्णन ११. दिगम्बर ग्रन्थों में पुद्गल परावर्ती का वर्णन १२. उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों का गो० कर्मकांड में आगत वर्णन १३. गुणश्रेणि के विधान का स्पष्टीकरण १४. क्षपक श्रेणि के विधान का स्पष्टीकरण १५. पंचम कर्मग्रन्थ की गाथाओं की अकारानुक्रमणिका Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ पंचम कर्मग्रन्य की मूल गाथायें नमिय जिणं घुबबंधोदयसतापाइपुनपरियत्ता। सेयर चउहविवागा वुच्छ बन्धविह सामी य ।।१।। वन्नचउतेयकम्मागुरुलहु निमणोबघाय भयकुच्छन । मिच्छकसायावरणा विपन्न वर्गति सगचता ।।२।। तणुवंगागिइसंघयण जाइगइखगइपुब्बिजिणुसामं । उज्जोयायवपरघा तसवीसा गोय बेयणियं ।।३।। हासाइजुयलदुगवेय आउ तेवुत्तरी अधुवबंधा। भंगा अणाइसाई अर्णतसंत्त त्तरा चउरो ।।४।। पढमबिया धुवउदइस धुवबंधिसु तइअवब्जभंगतिगं । मिच्छम्मि तिन्नि भंगा दुहावि अधुवा तुरिअभंगा ।।५।। निमिण थिर अथिर अगुरुय सुहअसुहं तेय कम्म चउबन्ना । नाणंतराय सण मिच्छ धुवउदय सगवीसा ।।६।। थिर-सुभियर विणु अधुवबंधी मिच्छ विणु मोहधुवबंधी । निदोबघाय' मीसं मम्मं पणनवइ अध्रुवुदया ।।७।। तसवन्नवीस सगतेय-कम्म धुवबंधि सेस वेयतिगं । आगिइतिग वेयणियं दुजुयल सगउरल सासचऊ ||८|| खइगतिरिदुग नीयं धुवसंता सम्म मीस मणुयदुगं ।। विउविक्कार जिणाऊ हारसगुच्चा अधुवसंता || पढ़मतिगुणसू मिच्छ नियमा अजवाइअट्टगे भज्ज । सासाणे खलु सम्म संतं मिच्छाइदसगे वा ।।१०।। सासणमीसेसु धुर्व मीरू मिच्छाइनवसु भयणाए । आइदुगे अण नियमा भइया मीसाइनवगम्मि ॥११॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ आहारसत्तगं वा सव्वगुणे वितिगुणे बिणा तित्थं । नोभयसंते मिच्छो अंतमुहुन' भवे तित्थे ॥१२।। केवलजुयलावरणा पणनिदा बारसाइमकसाया। मिळ ति सध्वघाइ चणाणतिदसणावरणा ।।१३।। संजलण नोकसाया विघं इय देसघाइय अधाई । पत्ते यतणुट्ठाऊ तसपीस: गोरा जाना । सुरनरतिगच्च सायं तसदस तणुवंगबइर चउरस । परघासग तिरिआऊ बन्नचउ पणिदि सुभखगइ ।।१५।। बायालपुन्नपगई अपदमसंठाणखगइसंधयणा । तिरियदुग असायनीयोबघाय इगविगल निरयतिगं ।।१६।। थावरदम बन्नचउक्क घाइपणयालसहिय बासीई । पावपडित्ति दोसुवि वन्नाइगहा सुहा असुहा ।। १७14 नामधवबंधिनवगं देसण पणनाणविरघ परघार्य । भयकुमिच्छसासं जिण गुणतीसा अपरियत्ता ।।१८।। तणुअट्ठ वेय दुजुयल कसाय उजोयगोयदुग निद्दा । तसवीसाउ परित्ता खित्तविवागाऽणुपुथ्वोओ ||१|| घणघाइ दुगोय जिणा तसियरतिग सुभगभगचउ सासं । जाइतिग जियविवागा आऊ चउरो भवविवागा ॥२०॥ नामधुवोदय चउत्तणु बधायसाहारणियर जोयतिगं । पुरगलविकागि बंधो पयइठिइरसपएसत्ति ।।२१।। मूलपयडीण असत्तछेगबंधेसु तिन्नि भूगारा । अप्पतरा तिय चउरो अवट्टिया ण हु अवत्तब्यो ।।२२।। एगादहिगे भूओं एगाईऊणगम्मि अप्पतरो। तम्मनोऽवट्ठियओ पढमे समए अवत्तवो ।।२३।। नव चउ दंसे दुदु, तिदु मोहे दु इगवीस सत्तरस । तेरस नव पण चउ ति दु इसको नव अछ दस दुन्नि ।।२४।। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्रत्य ठाणमि ||२५|| तिपण छञटुनबहिया वीसा तीगतीस इस छसगअद्रुतिबन्धा सेसेसु य वीसयरकोडिकोडी नामे गोए नामे गोए य नत्तरी मोहे | तीसवर चउसु उदही निरयसुराउंीम तित्तीसा ॥२६॥ मुहुत्ता जहन्न वेयणिए । सस एसु मुत्त तो ॥२७॥ अट्ठार मुहुमविगलतिगे । दुसुबरिमेसु दुगवुड्ढी ||२८|| मुत्त अकसाथडिई बार अट्ठट्ठ नामगोएस विग्धावरण असाए तो पढमासिंघणे दस चालीस कसाएसुं मिउलहु निद्ध हसुर हिसियमहुरे । दस दोसद्द्दसमहिया ते हालिद बिलाई ||२३|| दस सुहविहगई उच्चे सुरदुग थिरक्क पुरिमरहासे । मिच्छे सप्तरि इस विजव्वितिरिउरल निरयदुगनोए । पन्नरस ॥ ३० ॥ भमकुच्छअरइसोए I तेयपण अथिरछक्के तसत्रउथावरङ्गपर्णदी ||३१|| नपुकुखग इसासचउगुरुक+खरुखसी यदुगंधे वीसं कोडाकोडी एवइयावाह वाससया ||३२|| गुरु कोडिकोडितो तित्थाहाराण भिन्नमुहु बाहुा । लहुलिइ संखगुणूणा नरतिरियाणाउ पल्लत्तिगं ||३३|| इगविगलपुब्वकोटि पलियासंखंस आउचउ भ्रमणा । निरुवकमाण ज्यासा अवाह संसाण भवतंसो ||३४|| लहुबंधो तंजलणलोहपणविग्वनागदंसेसु । य साए ||३५|| भिन्नमुत' ते अटु जसुच्चे बारम दो मास पक्खी संजलगति साक्कोसाओ अयमुक्कोंसो गिदिसु पलियासंखसहीण लहुबंधो । कमसो पणवीसाए पन्नासयस हस्ससंगुणिओ ||३७|| मिच्छत्त लिईड जं ܂ नामे | | पुमट्टवरिसाणि 1 ४० ३ लङ्घ' ||३६|| Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- १ बिगलिअसन्नि जिलो कणिउ पल्लसंखभागुणो । सुरनरमाउ समादससहस्स ससाउ खुड्ड़भवं ||३८|| सव्वाणवि लहुबंधे भिन्नमुहू अबाह आउजिवि । केइ सुराउसमं जिणमंतमुहू बिति आहारं ||३६|| सत्तरससमहिया किर इगाणुषाणुमि हुति खडुडभवा । सगतीससयत्तिहत्तर पाण पुण इगमुहुत्त मि ॥४०॥ sor पण सकििसह स्सपणसय छत्तीसा इगमुहुत्तखुड्डभवा । आवलियाणं दोसय छप्पन्ना एगखुड्डभवे ।।४१।। अविरयसम्मो तित्थं आहारदुगामराउ य पत्तो । मिच्छद्दिट्टी बंध जिदुठिई सेसपयडी ||४२ ॥ विगलसुहुमाउगतिगं तिरिमश्या सुरविउब्धिनिरयदुगं । एगिदिथायरायव आईसाणा सु+कोसं ||४३|| तिरिउरलदुज्जयं बिट्टु सुरनिरय सेस चउगइया | आहारजिणमपुत्रोऽनिर्वादिठ संजलण पुरिस लहु ||४४ || सायजसुकवावरणा विग्धं सुमो विउविछ असन्नी । सन्नीवि बायरपज्जेगिदिउ सेसा ।। ४५ । उक्कोस जहन्नेयरभंगा साइ अगाइ ध्रुव अध्रुवा । उहा संग अजहन्नो संसतिगे आउचउनु दुहा ॥ ४६ ॥ उभेओ अजहरनो संजलणावरणमवगविग्धाणं । सेततिगि साइअधुवो तह चउहा सेसपयडीएं ॥४७॥२ साणा अयुव्वते अयरंतो कोडिकोडिओ न हिगो । बंधो न हू होणो न य मिच्छे भव्विय रसन्निमि ||४८ || जइलहुबंधी वायर पज्ज असंखगुण सुहुमपज्जहिंगो । एसि अपज्जाण लहू सुहमेअरअपजपज्ज गुरू ||४३|| लहु बिय पज्जअपज्जे अपजेयर बिय गुरू हिगो एवं । ति चउ असन्निसु नवरं संखगुणो बियममणपज्जे ।। ५० ।। आउ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्थ ४०५ तो जइजिहो बंधो मखगुणो देसविरय हस्सियो । सम्मचउ सन्निचउरो ठिइबंधाणुकम संखगुणा ॥५१॥ सव्वाण वि जिहांठई असुभा ज साइकिलसेण । इनरा विसोहिओ पुण मुत्तु नरअमरतिरिया ॥५२॥ सुहमनिगोयाइखणप्पजोग बायरयविभलअमणमणा । अपज लहु पढमदुगुरु पजहस्सियरो असंखगुणों ।।३।। अपजत्त तसुक्कोसो पज्जजन्नियर एब ठिइठाणा । अपजेयर संखगुणा परमपजबिए असंखगुणा ॥५४|| पइखणमसंखगुणविरिय अपज पइठिहमसंखलोगसमा । अज्झवसाया अहिया सत्तसु आउसु असंखगुणा ।।'५५।। तिरिनरयतिजोयाणं नरभवजुय सचउपल्ल तेसट्ठ 1 थावरचउगविगलायवेसु पणसीइसयमयरा ।।५६।। अपढमसंघयणागिइखगई अणमिच्दुभगथीणतिगं । निय नए इत्थि दुतीसं पणिदिसु अबन्धठिइ परमा ||५७।। विजयाइसु गेविज्जे तमाइ दहिसय दुतीस तेसटें । पणसीइ सययबंधो पल्लतिगं मुरविउविदुगे ॥५८।। समयादसंखकालं तिरिदुगनीएस आउ अंतमुहू । उरलि असंखपरट्टा साठिई पुनकोडणा ॥५६|| जल हिसयं पणसोयं परघुस्सासे पणिदितसचउगे । बत्तीसं सुद्दविहगइपुमसुभगतिगुच्चच उरसे ।।६०।। असुखगइजाइआगिइ संघवणाहारनरयजोयदुर्ग । थिरमुभजसथावरदसनपुइत्थीदुजुयलमसायं ॥६॥ समयादतमुहन मणुदुर्गाजणवइरउरलवंगेसु । तित्तीसयरा परमा अंतमुह लहू वि आउजिणे ॥६२।। तिब्बो असुहसुहाणं संकेसविसोहिओ विवजयउ । मंदरसो गिरिमहिरयजलरेहासरिसकसाएहि ।।६३।। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y. परिशिष्ट-१ बउठाणाई असूहा सुहानहा विग्धदेसघाइआवरणा । पुमसंजलणिगदुतिचलठाणरसा सेस दुगमाई ।।६४।। निबुचारसो महजो दुतिचउभाग कति इक्कभागंतो । इगठाणाई अमुहो असुहाण सुहो मुहाणं तु ||६५।। तिध्यमिगथावरायव सुरमिच्छा विगलसुहुनिरयतिगं । तिरिमणुयाउ तिरिनरा तिरिदुगछेवट्ठ सुरनिरया ॥६६।। विश्वमुराहारदुगं सुखगइ बन्नचाउतेजिणसायं ।। समाजसन्दरा पदिय गुब्द बाम ।।७।। तमतमगा उज्जोयं सम्मसुरा मणय उरलदुगवइरं । अपमत्तो अभराउं उगइमिच्छा उ सेसाणं ॥६८।। यीणांतनं अमिच्छ मंदरसं संजमुम्मुहो मिच्छो। बिर्यातयकसाय अविरय देस पमत्तो अरइसोए ६Ell अपमाई हारगदुर्ग दुनिअसुबन्नहासरइकुच्छा । भयमुबघायमपुवो अनियट्टी पुरिससंजलणे ||७०।। बिग्घाबरणं सुहुमो मणुतिरिया सूहमबिगलतिमआऊ। वेगविछक्कममरा निरया उज्जोयउरलदुगं ।।७१t तिरिदुगनिअंतमतमा जिणमविरय निरयविणिगथावरयं । आसुहुमायव सम्मो व सायथिरसुभजसा सिमरा ।।७२।। तसवन्नतेयचउमणुखमइदुग पणिदिसासपरधुच्छ । संघयणागिइनपुत्थीसुभगियरति मिच्छा बजगइगा ।।७३|| चउतेयबन्नवेयणिय नामणुक्कोस संसधुवबंधी । घाईणं अजहन्नो गोए दुविहो इमो चउहा ॥७४।। सेममि दुहा इगदुगणुमाइ जा अभवणंतगुणियाण । खंधा उरलोचियवग्गणा उ तह अगहणतरिया ।।७।। एमेव विउब्वाहारतेयभामाणुषाणमणकम्मे । कमावगाहो ऊणूणंगुलअसंखेसो ७६|| सुहमा Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४०७ इक्किक्कहिया सिद्धाणंतसा अंतरेसु अग्गहणा। सब्वस्थ जहन्नुचिया नियतसाहिया जिट्ठा ।।७॥ अंतिमचउफामदुगंधपंचवन्नरसकम्मखंघदले । सजियपंतागरसमानता 1941) एमपएसोगाढं नियसब्वपएसउ गहेइ जिऊ। थेवो आउ तदसो नाम गोए समो अहिउ ।।७।। विग्धावरणे मोहै सन्योवरि वेयणीय जेणापे । तस्स फुडत्त' न हधइ ठिईविसेसेण सेसाणं ॥२०॥ नियजाइलद्धदलियाणतंसो होइ सन्वघाईणं । बझंतीण विभज्जई सेसं सेसाण पइसमयं ।। ८११ सम्मदरसत्वविरई अणविसंजोयदसखवगे य । मोहसमसतखवगे खीणसजोगियर गुणसेढी ॥२॥ गुणसेढी दलरयणाऽणुसमयमुदयावसंखगुणणाए । एयगुणा पुण कमसो असंखगुणनिज्जरा जीवा ||८३॥ पलियासंखसमूह सासणइयरगुण अंतरं हस्सं । गुरु मिच्छी बे सट्ठी इयरगुणे पुग्गलद्धतो उद्धारअद्धखित्त' पलिय तिहा समयवाससयसमाए । केसवहारो दीवोदहिआउतसाइपरिमाणं ।।५।। दब्वे खित' काले भावे चउह दुह बायरो सुहमो । होइ अणंतुस्सप्पिणिपरिमाणो पुग्गलपरलो ।।८६।। उरलाइसत्तगेणं एमजिउ मुबइ फुसिय सवअणू । जत्तियकालि स थूलो दब्वे मुहमो सगन्नयरा ।।८।। लोगपएसोसप्पिणिसमया अणुभागबंधठाणा य । जह तह कममरणणं पुट्ठा खिताइ धूलियरा ॥८॥ अप्पयरपयडिबंधी उक्कडजोगी य सन्निपजत्तो। कुणइ पएसुक्कोसं जहन्नयं तस्स बन्चासे ॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You परिशिष्ट-१ मिच्छ अजयचड आऊ बितिगुण बिणु मोहि सन्त मिच्छाई । छह सतरस सुमो अजया देसा वितिकसाए ॥०॥ पण अनियट्टी सुखगइ नराउसुरसुभगतिगविउन्चिदुगं । समचउरंसमसाय वरं मिच्छो वरं मिच्छो व सम्मो वा ॥8१ ! | निद्दापयलादुजुयल भयकुच्छातित्त्व सम्मगो सुजई । आहारदुर्ग सेसा उको पसगा मिच्छी ||२|| सुमुणी दुन्नि असन्नी निरयतिमसुरासुरविउब्विदुगं । सम्मो जिणं जहन्नं सुहमनिगोयाइखणि सेसा ॥ ६३ ॥ दंसणगभय कुच्छावितितुरियकषाय विग्घनाणाणं | मूलगेऽणुक्कोसो चउह दुहा सेसि सव्वत्थ ||४|| सेविअसंखिज्जैसे जोगहाणाणि यति । ठिइबंधयवसायाणुभागठाणा असंखगुणा ||५|| रसच्छेया । कसायाउ || १६ | तत्तो कम्मपएसा अनंतगुणिया तो जोगा पयिडिपएस ठिइअणुभागं चउदसरज्जु लोगो बुद्धिकओ सत्तरज्जुमाणघणो । तही हेगपएसा सेढी पयरो य तव्वग्गो ।।७।। अणदंसनपुंसित्थीवेय छक्कं च पुरिसवेयं च । दो दो एमंतरिए सरिसे सरिसं उवसमेइ ||८|| अणमिच्छमीससम्मं तिउ इगविगलधौणतिगुजोत्रं । तिरिनरयथावदुगं साहाराय अडनपुत्थीए ॥ ६६ ॥ नाणी । सयगमिण आयसरणट्टा 1900l छगपुंसंजलणादोनिविग्धवरणखए देबिन्दसूरिलि हियं Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ कर्मों की बंध, उदय, सत्ता प्रकृतियों को संख्या में भिन्नता का कारण ___ ज्ञानावरण आदि मूल कर्मों की बंधयोग्य १२०, उदययोग्य १२२ तया सत्तायोग्य १५८ का १४८ प्रकृतियाँ हैं । अर्थात् बंधयोग्य की अपेक्षा उदयोग्य २ और उदयोग्य की अपेक्षा सत्तायोग्य ३६ या २६ प्रकृतियां अधिक हैं। यहाँ इस भिन्नता के कारण को स्पष्ट करते हैं। सामान्यतया कर्म प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता के संबन्ध में यह नियम है कि जितनी कम प्रकृतियों का बंध होता है. बंध होने के पश्चात उसनी ही प्रकृतियों की सत्ता और उदय काल में उतनी हो प्रकृतियों का उदय होता है । विना बंध के उदय और सत्ता में संख्या अधिक होना भी नहीं चाहिए । लेकिन इस सामान्य नियम का अपवाद होने से उदय और सत्ता में कर्म प्रकृ. तियों की संख्या अधिक मानी जाती है। बंध की अपेक्षा उदय प्रकृतियों में दो को अधिकता का कारण यह है कि वर्शन मोहनीय को तीन प्रकृतिया है- सम्यक्त्व मोहनीय, मित्र मोहनीम और मिथ्यात्व मोहनीय । इनमें से केवल मिथ्यात्व मोहनीय का बंध होता है और शेष दो प्रकृतियाँ बिना बंध के उदय में आती हैं और सत्ता में रहती हैं । इसका कारण यह है कि जैसे कि राख और औषधि विशेष के द्वारा मादक कोदों (धान्य विशेष) को शुद्ध किया जाता है वैसे ही मादक कोदों जैसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म को औषधि समान सम्मकत्व के द्वारा शुद्ध करके तीन भागों में विभाजित कर दिया जाता है १ - शुद्ध, २ बर्ध शुद्ध और ३ अशुद्ध । उनमें अस्पन्त शुद्ध किये हुए जो कि सम्मस्व स्वरूप को प्राप्त हुए हैं अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्ति में विधासफ नहीं होते हैं, ऐसे पुद्गल शुद्ध कहलाते हैं और उनका सम्यकच मोहनीय यह नाम व्यवहार किया जाता है और वो अरूप शुद्धि को प्राप्त हुए हैं पे अर्धविशुद्ध और उनको मिश्र मोहनीय कहते हैं और Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० परिशिष्ट-२ जो किचिन्मात्र भी शृद्धि को प्राप्त नहीं हुए हैं परन्तु मिथ्यात्व मोहनीय रूप ही रहते हैं, वे अशुद्ध कहलाते हैं। इस प्रकार सम्यत्व मोहनीय और मित्र मोहनीय सम्यक्त्व गुण द्वारा सत्ता में ही शुद्ध हुए मिथ्यात्व मोहनीय फर्म के पुद्गल होने से उनका बंध नहीं होता है किन्तु मिन्यात्व मोहनीय काही बंध होता है, जिससे बंध के विचार-प्रसंग में सम्यक्त्व माहनीय और मिन मोहतोय के बिना मोहनीय कर्म की प्रब्बीस प्रकृतियाँ मानो जाती हैं। इसी प्रकार पाँच वन्धन, पांच संघातन का अपने-अपने शरीर के अन्तर्गत ग्रहण करने से और वर्णादिक के वीस भेदों का वर्णचतुष्क में ग्रहण होने से उनकी सोलह प्रकृतियों के विना नामकर्म की सरसठ प्रकृतियां बंध में ग्रहण की जाती है और शेष कर्मों की प्रकृतियों में न्यूनाधिकता नहीं होने से सम्पूर्ण प्रकृतियों का योग करने पर बंध में एक सो बीस उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं। उदम के विचार के प्रसंग में सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय का भी उदय होने से उनकी वृद्धि करने पर एक सौ बाईस उत्तर प्रकृतियां मानी जाती हैं। यद्यपि बंध और उदय का जब विचार किया जाता है तब बंधन और संघातन नामकर्म के पांच-पांच भेदों की उन-उन शरीरों के अन्तर्गत विवक्षा कर ली जाती है। किन्सू पांचों बन्धनों और पांचों संघातनों का बंध है और उदय भी है अपने अपने नाम वाले शरीर नामकर्म के साथ, इसीलिये उनकी बंध और उदय में अलग से विवक्षा नहीं की है किन्तु सत्ता में अलग-अलग बताये हैं और बताना ही चाहिए। क्योंकि यदि सत्ता में उनको न बताया जाये तो मूल वस्तु का ही अभाव हो जायेगा। बन्धन और संघातन नामक कोई कर्म ही नहीं रहेंगे। पाच बन्धन और पांच संघातन नामकर्मों की शरीर नामकर्म के पाँच भेदों में इस प्रकार विवक्षा की जाती है.--औदारिकबंधन और औदारिक संघातन की औदारिक शरीर के अन्तर्गत, वैक्रिमबन्धन और क्रिय संघातन की बैंक्रिय शरीर के अन्तर्गत, आहारकबन्धन और आहारक संघातन की आहारक शरीर के अन्तर्गत, संजसबन्धन और तेजस संघातन की तैजस शरीर के अन्तर्गत और कार्ममबन्धन व कर्ममा Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य संघासन की कार्मण शरीर के अन्तर्गत वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नामकर्म के अनुक्रम से पाँच, दो, पाँच और बाठ उत्तर भेद होते हैं। उनकी बंध और उक्ष्य में विवक्षा नहीं की है परन्तु सामान्य से वर्णादि चार ही माने है, क्योंकि इन बीस का साथ ही बंध और उदय होता है, एक भी प्रकृति पहले या बाद में बंध या उदय में से कम नहीं होती है। इसीलिये बंध और उदय में वर्णादि चतुष्क को माना है । इस प्रकार बंध और उदय में अविवक्षित पाँच बंधन, पाँच संघातन और वर्णादि सोलह प्रकृतियों का सत्ता में ग्रहण होने से कुल मिलाकर एकसी अड़तालीस उत्तर प्रकृति सत्ता में मानी जाती हैं और जब बंधन नामकर्म के पौत्र की बजाय पन्द्रह भेद करते हैं तो मत्ता में एकसो अट्ठावन प्रकृतियाँ समझना चाहिये | संक्षेप और विस्तार की अपेक्षा बंध, उदय और सत्ता में प्रकृतियों की भिन्नता मानी जाती है । मोहनीयकर्म को उत्तरप्रकृतियों में भूयस्कार आदि बंध 1 कर्मग्रन्थ में मोहनीयकर्म के दस बंधस्थान तथा उनमें नो मूयस्कार, झा अल्पतर दस अवस्थित और दो अवक्तव्य बंध माने हैं । लेकिन गो० कर्मकांड में बीस भुजाकार, ग्यारह मल्पतर, तेतीस अवस्थित और दो वक्तव्य बंध बतलाये है, जो निम्नलिखित गाथा में स्पष्ट किये हैं दस वोसं एक्कारस तेतीसं मोहबंधठाणाणि । मुअगारप्पवाणि य अवयवाणिथि य सामणे ॥४६८ मोहनीय कर्म के दस बंधस्थानो में बीस भुजाकार (भूयस्कार), ग्यारह अल्पतर, तेतीस अवस्थित और 'थ' से दो अवस्थबंध सामान्य से होते हैं। कर्मग्रन्थ और कर्मकांड के इस विवेचन में अंतर पड़ने का कारण यह है कि कर्मग्रन्थ में भूयस्कार आदि बंधों का विशेषन केवल गुणस्थानों में उतरने और चढ़ने की अपेक्षा से किया गया है किन्तु कर्मकांड में उक्त दृष्टि के साथसाथ इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि गुणस्थान आरोहण के समय जीव किस गुणस्थान से किस-किस गुणस्थान में जा सकता है और अवरोहण के Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ समय किस गुणस्थान से किस-किस गुणस्थान में आ सकता है त.पा मरण की अपेक्षा से भी भूयस्कार आदि बंध गिनाये हैं। कर्मग्रन्में एक से दो, दो से तीन, तीन से चार आदि का बंध बतलाकर दस बंघस्थानों में नौ भूपस्कार बंध बतलाये हैं, लेकिन कर्मकांड में उनके सिवाय ग्यारह भूयस्कार और भी बतलाये हैं । वे इस प्रकार हैं-मरण की अपेक्षा से जीव एक को बांधकर सत्रह का, तीन को बाधकर सत्रह का, चार को बांध कर सत्रह का और पांच को बांध कर सत्रह का बंध करता है। अतः ये पांच भूयस्कार तो मरण की अपेक्षा से होते हैं तथा छठे प्रमतसंयत गुणस्थान में नौ प्रकृतियों का बन्ध करके कोई जीव पांचवे गुणस्थान में आकर तेरह का बंध करता है, कोई जीव चौथे गुणस्थान में आकर सत्रह का बंध करता है और कोई जीव दूसरे गुणस्थान में आकर इसकीस का बंध करता है और कोई जीव पहले गुणस्थान में आकर बाईस का बंध करता है। क्योंकि छठे प्रमत्त. संयत गुणस्थान से युक्त होकर जीव नीचे के समी गुणस्थानों में जा सकता है। अत: नौ के चार भूयस्कार बंध होते हैं । इसी प्रकार पांचवें गुगस्थान में तेरह का बंध करके सत्रह, इक्कीस और बाईस का उन कर सकता है, अत: तेरह के तीन भूयस्कार बंध होते हैं। सत्रह को बांधकर इक्कीस और बाईस का बंध कर सकता है, अत: सत्रह के दो भयस्कार होते हैं। इस प्रकार नौ के चार, तेरह के तीन और सत्रह के दो भूयस्कार बंध होते हैं। _लेकिन कंर्मग्रन्थ में प्रत्येक बंधस्थान का एक-एक, इस प्रकार तीन ही भूयस्कार बतलाये हैं । अतः शेष छह रह जाते हैं तथा मरण की अपेक्षा से पांच भूयस्कार पहले बतला चुके हैं। इस प्रकार गो० फर्मकांड में ५-६ = ११ भूपस्कार अधिक बतलाये हैं। ___ कर्मग्रन्थ में अल्पतर बंध आठ बतलाये हैं किन्तु कर्मकांड में उनकी संख्या ग्यारह बसलाई है। वे इस प्रकार है-.-कर्मग्रन्थ में बाईस को बांधकर सत्रह का बंध रूप केवल एक ही अल्पतर बन वत लाया है लेकिन पहले गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक जीव दूसरे और छठे गुणस्थान के सिवाय सभी गुणस्थानों में मा सकता है । अतः बाईस को बांधकर सत्रह, तेरह और नो का वध कर सकने के कारण बाईस प्रकृतिक बंधस्थान के तीन अल्पतर होते हैं तथा सत्रह का Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम क्रर्मग्रन्य ४१३ बंध करके तेरह और नौ का बंध कर सकने के कारण सत्रह के बंधस्थान के हो अल्पप्तर बंध होते हैं । इस प्रकार दाईस के तीन और सत्रह के दो अल्पतर बंधों में से कर्मनन्य में केवल एका-एक ही अल्पतर बंध बतलाया है । अतः शेष तीन रहते हैं जो कर्मग्रन्थ से कर्मकां में अधिक है। भूयस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बंध के द्वितीय समय में भी यदि उतनी ही प्रकृतियों का बंध होला है जितनी प्रकृतियों का बंध पहले समय में हुआ था तो उसे अवस्थित बंध कहते हैं । अतः कर्मकांड में म्यस्कार, अल्पतर और अव सव्य बंधों की संख्या के बराबर ही अवस्थित बंधों की संख्या बतलाई है । यदि दुसरे समय में होने वाले बध के ऊपर से भूयस्कार, अल्पतर अथवा अवक्तव्य पदों को अलग करके उनकी वास्तविक स्थिति को देखें तो मूल अवस्थित बंध उतने ही ठहर सकते हैं जितने बंधस्थान होते हैं । जैसे किसी जीव ने इक्कीस का बध करके प्रथम समय में बाईस का बन्ध किया और दूसरे समय में भी बाईस का ही बध किया तो यहः ५ समय का बंध भूस्कार बध है और दूसरे समय का अवस्थित । जिस प्रकार भूयस्कार आदि बंधों का निरूपण है, यदि उसी प्रकार अन्न स्थित बंध का निरूपण किया जाये तो दाईस का बंध करके बाईस का बंध करना, इक्कीस का बंध करके इक्कीस का बंध करना, सत्रह का बंध करके सत्रह का बंध करना, आदि अवस्थित बंध ही है। इसका सारांश यह है कि मूल अवस्थित बंध उतने ही होते हैं जितने कि बंधस्थान होते हैं, इसीलिये कर्मग्रन्थ में दस ही अवस्थित बंध मोहनीय कर्म के बतलाये हैं। किंतु भयस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बंध के द्वितीय समय में प्रायः अवस्थित बन्ध होता है, अतः इन उपपद पूर्वक होने वाले अवस्थित बंध भी उतने ही होते है जितने कि तीनों बंधों के होते हैं । इसी से कर्मकांड में उक्त तीनों प्रकार के बंधों के बराबर ही अवस्थित बंध का परिमाण बतलाया है। अवक्तव्य बंन कर्मग्रन्य और गो कर्मकांड में समान हैं । गो० कर्मकांड में विशेषरूप से भी भूयस्कार आदि को गिनाया है, जिनकी संख्या निम्न प्रकार है ससानीसहियसयं पणवालं पंषहतरिहियसयं । मुनगारप्पदरागि य अषिटुवाणिवि विसेसेण ॥१ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ परिशिष्ट-२ विशेषपने से अर्थात् मंगों की अपेक्षा में एकसो सत्ताईस मुजाकार होते हैं, पंतालीस अल्पतर होते हैं और एकसौ पचहत्तर प्रवक्तव्य बंध होते हैं । एक ही बंधस्थान में प्रकृतियों के परिवर्तन से जो विकल्प होते हैं, उन्हें भंग कहते हैं। जैसे बाईस प्रकृतिक अंघस्थानों में तीन वेदों में से एक बेद का और हास्य-रति और शोक-अरति के युगलों में से एक युगल का बंध होता | है । अतः उसके ३४३=६मंग होते हैं । अर्थात् बाईस प्रकृतिक बंधस्पान को कोई जीव हास्य, रति और पुरुषवेद के साथ बांधता है, कोई गोक, अरति और पुरुषवेद के साथ बांधता है। कोई हास्य, रजि और स्त्रीवेद के साथ बांधता है, कोई शोक, अरति और स्त्रीवेद के साथ बांधता है । इसी तरह । नपुंसक वेद के लिये मी समझना चाहिये । इस प्रकार बाईस प्रकृतिक बंध. स्थान भिन्न-भिल जीवों के छह प्रकार से होता है। इसी प्रकार इक्कीस प्रकतिक बंधस्थान में चार भंग होते हैं, क्योंकि उसमे एक जीव के एक समय में । दो वेदों में से किसी एक वेद का और दो युगलों में से किसी एक युगल का बंध होता है। इसका साराश वह है कि अपने-अपने बंधरयान में संपक्ति वेदों को और युगलों को परस्पर में गुणा करने पर अपने-अपने बंधस्थान के भंग होते हैं । उन भंगस्थानों को सख्या इस प्रकार है--- अम्बापोंसे बदु इगियोसे वो हो हवंति छटो ति । एक्क मयो भंगो बंधट्टाणेसु मोहस्स ।।४६७ मोहनीय कर्म के बंधस्थानों में से बाईस के छह, इक्कीस के पार, इसके , आगे प्रमत्त गुणस्थान तक सभवित बंधस्थानों के दो-दो और उसके आगे संभबित बंधस्थानों के एक-एक भंग होते हैं। इन मंगों की अपेक्षा से एकसो सत्ताईस मुजाकार निम्न प्रकार हैं णम चवीसं बारस बोसं बजरटुवोस वो हो । धूले पणगावोणं तिपतिय मिच्छादिमुजगारा ।।४७२ पहले गुणस्थान में एक भी मुजाकार बंध नहीं होता है क्योंकि बाईस प्रकृतिक बंधस्थान से अधिक प्रकृतियों वाला कोई बंघस्थान ही नहीं है, जिसके बांधने से यहाँ भुजाकार बंध संभव हो। दूसरे गुणस्थान में चोबीस भुजाकार होते हैं, क्योंकि इक्कीस को बांधकर बाईस का बंध करने पर इक्कीस के चार Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ भंगों को और बाईस के छह भंगों को परस्पर गुणा करने पर ४४ ५ = २४ मुजाकार होते हैं । तीसरे गुणस्थान में बारह भुजाकार होते हैं। क्योंकि सत्रह को बांधकर बाईस का बंध करने पर २x६=१२ मंग होते हैं । चौथे में बीस भुजाकार होते हैं, क्योंकि सत्रह का बंध करके इक्कीस का बन्ध होने पर २४४ - और आईम मा बन्ध होने पर २ x ६=१२, इस प्रकार १२+==२० भंग होते है। पांचवें गुणस्थान में चौबीस भुजाकार होते है, क्योंकि तेरह का बन्ध करके सत्रह का वध होने पर २४२=४, इक्कीस का बंध होने पर २४४-८ और बाईस का बंध होने पर २४६=१२ इस प्रकार ४++१२=२४ मंग होते हैं। छठे में अट्ठाईस मुजाकार होते हैं, क्योकि नौ का बन्ध करके तरह का बन्ध करने पर २२२४, सत्रह का वध करने पर २४२-४, इक्कीस का बंध करने पर २४४-- और बाईस का बन्ध करने पर २४६-१२, इस प्रकार ४+४+ +१२-२८ भंग होते हैं। सातवें में दो भुजाकार होते हैं, क्योंकि सातवें में एक भंग सहित नौ का बंध करके मरण होने पर दो भंग सहित सत्रह का बंध होता है । आठवें गुणस्थान में भी सातवें के समान ही दो भुजाकार होते हैं। नौवें गुणस्थान में पाच, चार आदि पांच बंधस्थानो में से प्रत्येक के तीन-तीन मुजाकर होते हैं, जो एक-एक गिरने की अपेक्षा से और दो-दो मरने की अपेक्षा से । इस प्रकार एक सौ सत्ताईस भुजाकार बंध होत है। पंतालीस अल्पतर बंध इस प्रकार हैं अप्पदरा पुण तीसं णम पम छटोणि बोणि णम एव । यूले पणगावोणे एकवर्क अंतिमे सुण्ण ॥ ४७३ पहले गुणस्थान में तीस अल्पतर बंध होते हैं, उसके आगे दूसरे गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक क्रम से शून्य, शुन्य, ६, २, २, शून्य, १ प्रकृति रूप अल्पतर बंध हैं | नौवें गुणस्थान में पान आदि प्रकृति रूप का एक, एक ही अल्पतर बंध होता है किन्तु अंत के पांचवें भाग में शून्य अर्थात् अल्पतर बंध नहीं होता है । इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में तीस अल्पतर बंध होते हैं, क्योंकि बाईस को बांधकर सत्रह का बंध करने पर ६x२=१२, तेरह का बंध करने पर ६x२ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ -१२ और नी का बंध करने पर ६x६, इस प्रकार १२+१+६= ३० भंग होते हैं । दूसरे गुणस्थान में एक भी अल्पतर बंध नहीं होता है, क्योंकि दूसरे के बाद पहला ही गुणरणान देता है और मा बस्था में प्रति का बंध करके बाईस का बंध करता है जो कि भुजाकार बंध है | तीसरे गुणस्थान में भी कोई अल्पतर नहीं होता है, क्योंकि तीसरे से पहले गुणस्थान में आने पर भुजाकार बंध होता है और चौथे में जाने पर अवस्थित बंध होता है । क्योंकि तीसरे में भी सत्रह का बधस्थान है और चौथे में भी सत्रह का बंध होता है । घौथे में छह अल्पतर होते हैं, क्योंकि सत्रह का बंध करके तेरह का बंध करने पर २४२-४ और नौ का बंध करने पर २४१-२, इस प्रकार ४+२= ६ अल्पतर बंध होते हैं। पांचवें गुणस्थान में तेरह का बंध करके सातवें में 'जाने पर नौ का बंध करता है अत: वहाँ २४१-२ अल्पतरबंध होते हैं। छठे गुणस्थान में भी दो अल्पतर होते हैं, क्योंकि छठे से नीचे के गुणस्थानों में आने पर तो मुजाकार बंध ही होता है किन्तु ऊपर सातवे में जाने पर दो अल्पतर बंध होते हैं । यद्यपि छठ और सातवें गुणस्थान में नौ-नौ प्रकृतियों का ही बंध होता है किन्तु छॐ के नौ प्रकृतियों वाले बंधस्थान में दो भंग होते हैं, क्यों यहाँ दोनों मुगल का बंध संभव है और सातवें के नौ प्रकृतिक बंधस्पान का एक ही मंग होता है, क्योंकि वहाँ एक ही युगल' का बंध होता है । जिससे प्रक तियों की संख्या बराबर होने पर भी मंगों को न्यूनाधिकता के कारण २४१ -२ अल्पतर बंध माने गये हैं । सातवें गुणस्थान में एक भी अल्लतर बंध नहीं होता है, क्योंकि जब जीव सातवें से आठवें गुणस्थान में जाता है तो वहां भी नौ प्रकृतियों का ही बंध करता है, कम का नहीं करता है। आठवें में नो का बंध करते नौवें गुणस्थान में पांच का बंध करने पर १x१=१ ही मल्पतर बंध होता है। नौवें गुणस्थान में पांच का बंध करके चार का बंध करने पर एक, चार का बंध करके तीन का बंध करने पर एक, तीन का बंध करके दो का बंध करने पर एक और दो का बंध करके एक का बंध करने पर एक, इस प्रकार चार अल्पतर बंध होते हैं । इस प्रकार पैतालीस अल्पतर बंध समझना चाहिए । अवक्तव्य बंध इस प्रकार है-- मेरेण अवत्तवा ओपरमाणम्मि एकार्य मरगे। गोवेव होति एल्यवि विष्णेच मठिया अंगा ।। ४७४ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ मग की विवक्षा के विशेष से अवक्तब्य बंध सूक्ष्म संपराय गुणस्थान से उतरने में एक होता है । अर्थात् दसवें गुणस्थान मे उतर कर जब नौ गुणस्थान में एक प्रकृति का बंध करता है तब एक अवक्तव्य होता है और दसवें में मरण करके देवगति में जन्म लेकर जब सबह का बंध करता है तब दो अवक्तव्य बंध होते हैं। इस प्रकार तीन अवक्तव्य बंघ मानना चाहिए । अर्थात् दसवें से उत्तर के जब नौने में आना है तब संज्वलन लोभ का बंध करता है, अतः एक अवक्तव्य बंध हा तपा उसी दसवें में मरण कर देव असंयत हुआ तब दो अवक्तव्य बंध होते हैं, क्योंकि देव होकर १७ प्रकृतियों को दो प्रकार में बांधता है। इस तरह तीन अवक्तव्य बंध हुए। १२७ भुजाकार, ४५ अल्पतर और ३ अवक्तब्य बंध मिलकर १७५ होते हैं और इतने ही अवस्थित बंध हैं । इस प्रकार मोहनीय कर्म के सामान्य विशेष रूप से भुजाकार आदि बंध समझना चाहिए । कर्मप्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध कर्मग्रन्थ में नामोल्लेखपूर्वक बताई गई कर्म प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के बारे में कर्मप्रकृति, गो० कर्मकांड और कर्मग्रन्थ के मंतव्य में समानता है । शेष पचासी प्रकृतियों के सम्बन्ध में कुछ विचारणीय यहाँ प्रस्तुत करते हैं। गो० कर्मकांड में उनके बारे में लिखा है कि.... सेसाणं परमतो बादराई दियो विमुखो प। बंदि सवजहम्णं सगसमकस्सपधिमागे ॥१४३ शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थितियों को वादर पर्याप्त विशुद्ध परिणाम याला एकेन्द्रिय जीव अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति के प्रतिभाग में बांधता है। इस गाथा में जिस प्रतिभाग का उल्लेख किया है, उसको गाथा १४५ में स्पष्ट किया है । एकेन्द्रियादिक जीवों की अपेक्षा से उक्त प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बतलाने के लिए अपनी अपनी पूर्वोक्त उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग दने से प्राप्त लन्ध एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति है और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग न्न करने से जघन्य स्थिति होती है । अत: जघन्य स्थिति बंध को एकेन्द्रिय जीव के करने से शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध कर्मकांड में अलग से नहीं बतलाया है। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ परिशिष्ट-२ कर्मप्रकृति में शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बतलाने के लिए वर्ग बना कर मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने का पहले संकेत किया गया है और एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा से प्रकृतियों की स्थिति का परिमाण बतलाते हुए आगे लिखा है एसेगिदियहरे सम्वासि ऊणसंजुओ जट्ठो । अर्थात अपने-अ . उत्कृष्ट गित . .... अति ! का भाग देकर लब्ध में से पल्य के असंख्यातवें भाग को कम करने से जो अपनी-अपनी जघन्य स्थिति आती है, वहीं एकेन्द्रिय योग्य जघन्य स्थिति का प्रमाण जानना चाहिए । कम किये गये पल्य के मसंख्यात भाग को उस जघन्य । स्पिप्ति में जोड़ने पर उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण होता है। कर्मग्रन्थ में पचासी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का विवेचन पंचर्सग्रह और कर्म प्रकृति दोनों के अमिनायानुसार किया है। इन दोनों विवेचन में यह अंतर है कि पंचसंग्रह में तो अपनी-अपनी प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्याश्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर जघन्य स्थिति बतलाई है और कर्म प्रकृति में अपने-अपने गं की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर और उसके लब्ध में से पल्प का असंख्यातयां भाग कम करके जघन्य स्पिति वतलाई है। गो० कर्मकांड प्रकृतियों की स्थिति में भाग देने तक तो पंचसंग्रह के मत से सहमत है लेकिन आगे वह कर्मप्रकृति के मत से सहमत हो जाता है। पंचसंग्रह का मत है कि प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर जो लन्ध माता है, वह तो एकेन्द्रिय की अपेक्षा से जघन्य स्थिति होती है और उस में पल्य का असंख्यातवां भाग जोड़ने से उसकी उत्कृष्ट स्थिति हो जाती है। लेकिन जी. कर्मकांड और कर्मप्रकृति के मतानुसार मिध्वात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध पाता है वही उत्कृष्ट स्थिति होती है और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग काम देने पर जघन्य स्थिति होती है । पंच- : संग्रह में तो अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में भाग नहीं दिया जाता है फिन्तु अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर प्राप्त सम्ध जघन्य स्थिति का परिमाण है। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्ध ___ ४१६ इस प्रकार से पंचसग्रह और कर्म प्रकृति के मत में अंतर है। आयुकर्म के अबाधाकाल का स्पष्टीकरण देव, नारक, तिर्यच, मनुष्य मायु की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते समय अबाधासाल पूर्व कोटि का तीसरा भाग बतलाया है । इसका कारण यह है कि पूर्व फोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तियं च यथायोग्य रीति से अपनी आयु के दो भाग बीतने के पश्चात् तीसरे भाग के प्रारम्भ में देव, नारक का सेतोस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु बांध सकते हैं. इसलिए उत्कृष्ट स्थिति के साथ अबाधा रूप कास पूर्व कोटि का तीसरा भाग लेने का संकेत किवा है । जैसे अन्य सभी कर्मों के साथ अबाधाकाल जोडकर स्थिति कही है वैसे आयुकाम की स्थिति अबाधाकाल जोड़कर नहीं बताई है । क्योंकि उसका अवाधाकाल निश्चित नहीं है । असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच एवं देव तथा मारक अपनो आयु के छह माह शेष रहने पर परमव की आयु बांधते हैं और शेष संख्यात वर्ष की निरुपक्रमी आयु वाले अपनी आयु के दो भाग बीतने के पश्चात तीसरे भाग की शुरुआत में परमन को आयु का बंध करते हैं और सोपक्रमी आयु वाले कुल आयु के दो भाग जाने के पश्चात तीसरे भाग के प्रारम्भ में बांधते हैं । यदि उस समय आयु का बध न करें तो जितनी आयु शेष हो उसके तीसरे माग की शुरूआत में बांधते हैं । इसका आशय यह है कि संपूर्ण आयु के तीसरे भाग, नौवें भाग, मत्ताईसवें भाग, इस प्रकार जब तक अंतिम अन्तर्मुहूर्त आयु शेष हो तब परमर की आयु का बंध करते हैं। परभव की आयु का बंध करने के बाद जितनी आयु मेष हो, वह अबाधाकाल है तथा अबाधा जघन्य हो और आयु का बंध में: जघन्य हो जैसे अन्त मुंहतं की आयु वाला अन्तर्मुहूर्त प्रभाग आयु बांधे । अबाधा जघन्य हो और आयु का बंध उत्कृष्ट हो जैसे अन्न मुहूर्त की आयु वाला तेतीस सागर प्रमाण त दुल मत्स्य की तरह नारक का आयु बांधे । उत्कृष्ट अबाधा हो और आयु का जघन्य बध हा अंस पूर्व कोटि वर्ष की मायु वाला अपनी आयु के तीसरे भाग के प्रारम्भ में अन्तर्मुहूर्न आयु का बंध करे तथा उस्कृष्ट अवाधा हो और आश्रु का बंध भी उत्कृष्ट हो जैसे पूर्व कोटि वर्ष वाला तीसरे भाग की शुरुआत में से तीस सागरोपम प्रमाण देव, Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ नारक की आयु का बंध करे । इस प्रकार अबाधा के विषय में आयूकर्म की सह पोभंगी है । इस तरह अबाधा अनिश्चित होने से गायु के साथ उसे जोड़ा ! नहीं है तथा अन्य कर्म अपने स्वजातीय कर्मों के स्थानों को अपने बंध के द्वारा पुष्ट करते है और यदि उनका उदय हो तो उसी जाति के बंधे हुए नये कर्मों की सभी आदलिका जाने के बाद उदीरणा द्वारा उसका उबय भी होता है, लेकिन आयुकर्म के बारे में यह नियम नहीं है। बंधने वाली आयु भोगी जाने वाली आयु के एक भी स्थान को पुष्ट नहीं करती है तथा मनुष्य आयु । को भोगते हुए यदि स्वजातीय मनुष्य आयु का बंध करे तो वह बंधी हुई आयु अन्य मनुष्य जन्म में जाकर ही भोगी जाती है 1 यहीं उसके किसी दलिक का उदय या उदीरणा नहीं होने से भी आयु के साथ अबाधा कास नहीं हा है। योगस्थानों का विवेचन कमंग्राय को तरह गोः कर्मकांड गा. २१८ से २४२ तक योगस्यानों का विवेचन स्वरूप, संख्या तथा स्वामी की अपेक्षा से किया गया है । उसका उपयोगी अंश यहां प्रस्तुत करते हैं। ___ गोल कर्मकांड में योगम्थान के तीन मेद किये है और इन तीन भेदों फे भी १४ जीवसमासों की अपेक्षा चौदह-चौदह भेद हैं तया ये १४ भेद भी सामान्य, जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन-तीन प्रकार के हैं। उनमें से सामान्य की अपेक्षा १४ भेद, सामान्य और अन्य की अपेक्षा २८ भेद तथा ! सामान्य-जधन्य और उत्कुष्ट की अपेक्षा ४२ भेद होते हैं । कुल मिलाकर ये ८Y भेद हैं । जिनके नाम आदि इस प्रकार हैं जोगटठाणा तिविहा उपादेयंसद्धिपरिणामा । मेदा एक्केवपि घोदसभेवा पुणो तिविहा ॥२१८ उपपाद योगस्थान, एकांतद्धि योगस्थान और परिणाम योगस्थान, इस | प्रकार योगस्थान तीन प्रकार के हैं और ये तीनों भेद भी जीवसमास की अपेक्षा चौदह-चौदह भेद वाले हैं तथा उनके भी तीन-तीन भंद होते हैं। विग्रहगति में जो योग होता है उसे उपपाद योगस्थान' कहते हैं। शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक जो योगम्थान होता है उसे एकांतानुद्धि और शरीर - - ... Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मन्थ पर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से लेकर आयु के अन्त तक होने वाले योग को परिणाम योगस्थान कहते हैं । परिणाम योगस्थान उत्कृष्ट भी होते हैं और जघन्य भी । लब्ध्यपर्याप्तक के भी अपनी स्थिति के सब भेदों में दोनों परिणाम योगश्थान सम्भव हैं। सो ये सब परिणाम योगस्थान पोटमान योग समझना । क्योंकि ये घटते भी है, बढ़ते भी है और जैसे के तैसे भी रहते हैं । ४२ १ I उपपाद योगस्थान और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानों के प्रवर्तन का काल जघन्य मीर उत्कृष्ट एक समय हो है । क्योंकि उपपादस्थान जन्म के प्रथम समय में ही होता है और एकांतानुवृद्धि स्थान भी समय-समय प्रतिबुद्धि रूप जुदा-जुदा ही होता है और इन दोनों से भिन्न जो परिणाम योगस्थान हैं. उनके निरन्तर प्रवर्तने का काल दो समय से लेकर आठ समय तक है । आठ समय निरन्तर प्रवर्तते वाले योगस्थान सबसे थोड़े हैं और सात को आदि लेकर चार समय तक प्रवर्तने वाले ऊपर-नीचे के दोनों जगह स्थान असंख्यात गुणे हैं किन्तु तीन समय और दो समय तक प्रवर्तने वाले योगस्थान एक जगहऊपर की ओर ही रहते हैं और उनका प्रमाण क्रम से असंख्यात असंख्यात गुणा है । सब योगस्थान जगत् श्रोणि के असंख्यात भाग प्रमाण हैं । इनमें एक-एक स्थान के १. अविभाग प्रतिच्छेद २. वर्ग, ३. वर्गणा, ४. स्वक, ४. गुणहानि, ये पांच भेद होते हैं । जिसका दूसरा भाग न हो, ऐसे शक्ति के अंश को अविभाग प्रतिच्छेद कहते हैं | अविभाग प्रतिच्छेद का समूह वर्ग वर्ग का समूह वर्गणा श्रर्गणा का समूह स्पर्द्धक और स्पर्द्धक का समूह गुणहानि कहलाता है और गुणहानि समूह को स्थान कहते हैं । के एक योगस्थान में गुणहानि की संख्याएँ पल्य के असंख्यात भाग प्रभाण हैं और एक गुणहानि में स्पर्द्धक जगत्श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । एक-एक स्पर्द्धक में वर्गणाओं की संख्या जगत् णि के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और एक-एक वर्गणा में असंख्यात जगत्प्रतर प्रमाण वर्ग हैं और एक एक वर्ग में असंख्यात लोकप्रमाण अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ एक योगस्थान में सब स्वद्धंकों, सब वर्गणाओं की संख्या और असंख्यात प्रदेशों में गुणहानि का आयाम (काल) का प्रमाण सामान्य से जगत्वं णि के असंध्यातमें भाग मात्र है । क्योंकि असंख्यात के बहुत भेद हैं। एक योगस्थान में अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। ऊपर जो योगस्थान कहे हैं, उनमें चौदह जीवसमामों के जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा तथा उपपादादिक नीन प्रकार के योगों की अपेक्षा चौरासी स्थानों में अब अल्पबहत्व बतलाते हैं सुहमगरल सिजाहणं तिषिणस्वरसीजहणयं तत्तो । लासिअपुष्णपकस्स चादरलविस्स अघरमको ।। २३३ सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यगर्याप्तक जीव का जघन्य उपमादस्थान सबसे थोडा है, उससे सूक्ष्म निगोदिया निवृ त्यपप्तिक जीव का जघन्य उपपादस्थान पल्प के असंख्यातवें भाग गुणा है, उससे अधिक सूक्ष्म लयपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान और उससे भी अधिक वादर लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य उपपादयोगस्थान मानना चाहिये । मिष्यत्तिसुहमजेटुं मावरणियत्तिपस्स अवरं तु । बादरलखिस्स वर पोइ वियलद्विगमहणं ॥ २३४ फिर उससे अधिक सूक्ष्म नित्यपर्याप्तक जीव का उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान है। उससे अधिक बादर निवृत्यपर्याप्तक का जघन्य योगस्थान है, उससे बाबर लन्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट योगस्थान अधिक है, उससे अधिक हीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य योगस्थान है। बावरणियत्तिवरं णित्तिमि दियस्स अवरमयो । एवं चितिवितितिश्चतिच घधिमणो होदि घउधिमणो ॥ २३५ उसके बाद उससे भी अधिक बादर एकेन्द्रिय नित्यपर्याप्नक का उत्कृष्ट योगस्थान है, उसमे अधिक हीन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तक का जघन्य योगस्थान और. इसी तरह द्रीन्द्रिय लक्ष्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट ना त्रीन्द्रिय नब्ब्यपर्याप्तक का जघन्य उपपाद स्थान, द्वीन्द्रिय नित्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट, त्रीन्द्रिय निवृ त्य पर्याप्तक का जघन्य, त्रीन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्तक का उत्कृष्ट, Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम फर्मग्रन्थ चतुरिन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्तक का जघन्य, त्रीन्द्रिय नित्य पर्याप्तक का उत्कृष्ट, चतुरिन्द्रिय निर्वृषपर्याप्तक का जघन्य, चतुरिन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट, असंशी पंचेन्द्रिय सध्यपर्याप्तक का जघन्य, चतुरिन्द्रिय नित्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट और असंज्ञी पंचेन्दिर नित्यपर्याप्तक का जघन्य उपपाद योगस्थान क्रम-क्रम से अधिक-धिक जानना । तह य असणीसाणी असण्णिसEिR सण्णिउववावं । सुहमेह विपाडगावर एयंतारिखस्स ।। २३६ इसी प्रकार उससे अधिक असंजो सध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट स्थान और संजी लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य स्थान, उससे अधिक असंजी नित्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट और संशी नित्यपर्याप्तक का जघन्य स्थान, उससे संजी पंचेन्द्रिय सन्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान पल्य के असंख्यातवें भाग गुणा है और उससे अधिक गुणा सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य एकातानुवृद्धि योगस्थान जानना चाहिये । सम्णिसुषवादपरं नियत्तिगवस्स मुमजीवस्स । एवंतवाहितअवर अधिररे धूलपले ५ ॥ २३७ उससे अधिक संझी पंचेन्द्रिय नित्यपर्याप्तफ का उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान, उससे अधिक सूक्ष्म एफेन्द्रिय नित्यपर्याप्तक का जघन्य एकांतानुवृद्धि योगस्थान है, उससे अधिक बादर एकेन्द्रिय लब्स्यपर्याप्तक का और वावर (स्थूल) एकेन्द्रिय नित्यपर्याप्तक का जघन्य एकान्तानुवृद्धि योगस्थान कम से पल्य के असंख्यात माग कर गुणा है। तह सुहममुहमजेद्रं सो पावरबावरे वर होदि । अंतरमवरं लविगसुमिहरवरपि परिणामे ।। २३८ इसी प्रकार उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्घ्यपर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय निवृत्यपर्याप्तक इन दोनों के उत्कृष्ट योगस्थान फ्रम से अधिक है । उससे अधिक बादर एकेन्द्रिय लम्ध्यपर्याप्तक और बादर एफेन्द्रिय नित्यपर्याप्सक इन दोनों के उत्कृष्ट एकांतानुष्ठि योगस्थान हैं, उसके बाद अंसर है। अर्थात् बादर एकेन्द्रिय नित्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट एकांतानुवृद्धि योगस्थान और सुक्ष्म Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ एकेन्द्रिय लन्यपर्याप्तक का जघन्य परिणाम योगस्थान, इन दोनों के बीच में जगत्त्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों का पहला अंतर है। इस अंतर के स्थानों का कोई स्यामी नहीं है। क्योंकि ये स्थान किसी जीव के नहीं होते हैं, इसी कारण यह अंतर पड़ जाता है । इन स्थानों को छोड़कर सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय लन्थ्यपर्याप्तक इन दोनों के जघन्य और उत्कृष्ट परिणामजोगस्थान क्रम से पल्प के असंख्यातवें भाग कर गुणे जानना चाहिये । अंतरमुपरोवि पुष्णो तप्पुण्यागं व उरि अंतरियं । एयतावठाणा तसपणलावस अवरवरा ॥ २३६ इसके ऊपर दूसरा अंतर है। अर्थात् बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट परिणाम मोगस्थान के आगे जगतथेणी के असख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान स्वामीरहित हैं। इनको छोड़कर शूटम एकोन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तफों के जधन्य और उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान क्रम से पल्प के असख्यातवें भाग से गुणे है । फिर इस हादर एफेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट योगस्थान के आगे तीसरा अंतर है। उसको छोड़कर पाँच प्रमों के अति द्वीन्द्रिय लब्धिअपर्याप्सक आदि पांच के जधन्य और उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थान क्रम से पल्प के असंख्यात भाग से गुणे हैं । सोणिबत्तीर्ण परिणामयंतरिवठाणाओ। परिणामट्ठागाओ अन्तरअन्तरिय उपस्वरि ।। २४० इसके आगे चौथा अन्तर है । इसके बाद लब्धि-अपर्याप्तक और निसि अपर्याप्तफ पाँच प्रसजीवों के परिणामयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धि योगस्थान और परिणामयोगस्थान तथा इनके ऊपर बीच-बीच में अन्तर सहित स्थान हैं । ये तीनों स्थान उत्कृष्ट और जवन्य पने को लिये हुए पहली रीति से कम पूर्वक पत्य के असंख्यातवें भाग से गुणित जानना । इस तरह ८४ स्थान योगों के हैं । इन स्थानों में अविभाग प्रतिछेद एक के बाद दूसरे में आगे-आगे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणे हैं । कर्मग्रन्थ में योग के उपपाद पोगस्थान मादि तीन भेद नहीं किये हैं, इसीलिये जघन्य और उत्कृष्ट, इन दो भेदों को लेकर बीवस्थानों के २८ भेद Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम कर्मग्रन्य ४२४ बतलाये हैं। दोनों ग्रन्यों के मैदक्रम में भी अन्तर है । जिज्ञासु जनों को इस अन्तर के कारणों का अन्वेषण करना चाहिए । ग्रहण किये गये कर्मस्कन्धों को फर्म प्रकृतियों में विभाजित करने को रोति पंचम फर्मग्रन्थ गाथा ७६, ८० में सिर्फ ग्रहण किये गये कर्मस्कन्धों के विभाग का क्रम यसलाया है कि आयुकर्म को सबसे कम, उससे नाम और गोत्र कर्म को अधिक, उससे अंतराय, भानावरण, दर्शनावरण को अधिक तथा मोहनीय को अंतराय आदि से भी अधिक भाग मिलता है तथा वेदनीय कर्म का भाग मोहनीय कर्म से भी अधिक है । इस प्रकार उससे इतना ही ज्ञात होता है कि अमुक कर्म को अधिक भाग मिलता है और अमुफ कर्म को कम भाग । कितु गो कर्मकांड में इस क्रम के साथ-ही-साय विभाग करने की रीति बतलायी है । जो इस प्रकार है कर्मग्रन्थ की तरह गोल कमंफ्रांद में भी ग्रहण किये हुए कर्मस्कंधों का मूल फर्म प्रकृतियों में बंटवारे का क्रम बतलाया है कि वेदनीय के सिवाय बाको मूल प्रकृतियों में द्रव्य का स्थिति के अनुसार विभाग होता है । सेसागं पयडोणं लिविपरिभागेण होरि वर्ष तु। आवलिअसंखभागो परिमागो होरि णियमेन ॥१६४ वेदनीय के सिवाय शेष मूल प्रकृत्तियों के द्रव्य का स्थिति के अनुसार विभाग होता है। जिसकी स्थिति अधिक है उसको अधिक, झम को कम और समान स्थिति वाले को समान द्रव्य हिस्से में आता है और उनके भाग करने में प्रतिभागहार नियम से आवली के असंख्यात भाग प्रमाण समझना चाहिये । आयु आदि शेष सात कर्मों में विभाग का क्रम इस प्रकार है ... आउगमायो बोयो णामागोदे समो तदो अहिओ। घावितियेवि य तत्तो मोहे तत्तो तयो तदिये ॥१६२ सब मूल प्रकृतियों में आयुकर्म का हिस्सा थोड़ा है । नाम और गोत्र कर्म का हिस्सा आपस में समान है तो भी आयुकर्म के भाग से अधिक है । अंतराय, । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ । भानावरण, दर्शनावरण, इन तीन घातिया कमो का भाग आपस में समान है लेकिन नाम, गोन के भाग से अधिक है। इससे अधिक मोहनीय कर्म का भाग है तथा मोहनीय से भी अधिक वेदनीय कर्म का भाग है । जहां जितने कर्मों का बन्च हो वहां उतने हो कर्मों में विभाग कर लेना चाहिये । विभाग करने की रीति यह है बहुमागे समझागो अहं होवि एषकमाम्हि । उत्तकमो तरवि बहभागो अझुगस्स वेभो बु॥ १६५ बहुभाग के समान भाग करके आठों कर्मों को एक-एक भाग देना चाहिए। शेष एक भाग में पुन: बहुभाग करना चाहिए और वह बहुभाग बहुत हिस्से वाले कर्म को देना चाहिए। ___इस रीति के अनुसार एक समय में जितने पुदगल द्रव्य का बंध होता है, उसमें आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देकर एक भाग को अलग रखना चाहिए, और बहुभाग के आठ सभान भाग फरके आठों कर्मों को एक-एक भाग देना चाहिए । शेष एक भाग में पुनः आवली के असंख्यातवें भाव से भाग देकर एक 'भाग को अलग रखकर बहुभाग वेदनीय कर्म को देना चाहिए, क्योंकि सबसे अधिक भाग' का स्वामी वही है। शेष भाग में पुनः आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देकर एक भाग को जुदा रखकर वहभाग मोहनीय कर्म को उसकी स्थिति अधिक होने से देना चाहिए। शेष एक भाग में पुन: आवली के असंख्यातवें भाग से भाग देकर एक भाग को जुदा रख बहुभाग के तीन समान भाग करके झानावरण, दर्शनावरण और अंसराय कर्म को एकनाक भाग देना चाहिए । शेष एक भाग में पुन: आवली के असंख्पात भाग का भाग देकर एक भाग को जुदा रन बहुभाग के दो समान भाग करके नाम और गोत्र कर्म को एक, एक भाग देना चाहिए । शेष एक भाग आयुकौ को देना चाहिए । इस प्रकार पहले वटबारे में और दूमरे बटवारे में प्राप्त अपने-अपने द्रव्य का संकलन करने से अपने-अपने भाग का परिमाण आता है। यानी ग्रहण किये हए द्रव्य में से उतने परमाण उस जम कर्म रूप होते है । पूर्वोक्त कथन को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं कि एक समय में जितने पुद्गल दव्य का बंध होता है, उसका परिमाण २५६०० है और आवसी के Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F r ! पंचम कर्मन्य असख्य तवं भाग का प्रमाण ४ है | अतः २५६०० को ४ से भाग देने पर लब्ध ६४०० आता है, यह एक भाग है इस प्रकार एक भाग को २५६०० में से घटाने पर १६२०० बहुभाग आता है। इस बहुभाग के आठ समान भाग करने पर एक-एक भाग का प्रमाण २४००, २४०० होता है अतः प्रत्येक कर्म के हिस्से में २४००, २४०० प्रमाण द्रव्य आता है। शेष एक भाग ६४०० को ४ से भाग देने पर ल १६०० आता है। इस १६०० को ६४०० में से घटाने पर ४५०० बहुभाग हुआ । यह बहुभाग बेदनीय कर्म का है। शेष १६०० में ४ का भग देने पर लब्ध ४०० आता है । १६०० में से ४०० घटाने पर बहुभाग १२०० हुआ, जो मोहनीय कर्म का हुआ। शेष एक भाग ४०० में ४ का भाग देने पर - १०० आता है । ४०० में से १०० को घटाने पर बहुभाग ३०० आता है । इस बहुभाग ३०० के तीन समान भाग करके ज्ञाताचरण, दर्शनावरण और अन्तराय को १०० १०० देना चाहिए । शेष १०० में ४ का भाग देने से लब्ध २५ आया । इस २५ को १०० में में घटाने पर बहुभाग ७५ आता है । इस बहुभाग के दो समान भाग कर नाम और गोत्र कर्म को बांट दिया और शेष एक भाग २५ आयुकर्म को दे देना चाहिए । अतः प्रत्येक कर्म के हिस्से में निम्न द्रव्य आता है — - वेदनीय '२४०७ ४८०० ७२०० नाम २४०० ३७१ मोहनीय २४०० १२०० ३६०० गोत्र २४०० ३७३ जानावरण २४०० १०० २५०० आयु २४. ÷५ दर्शनावरण २४०० १०० २५०० अंतराय २४०० १०० २५०० ४२७ २४३७३ २४३७÷ २४२५. इस प्रकार २५६०० में इतना इतना बव्य उस उस कर्म रूप परिणत होता है । यह उदाहरण केवल विभाजन की रूपरेखा समझाने के लिए है किन्तु वास्त Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ परिशिष्ट-२ विक नहीं समझ लेना चाहिए । पानी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वेदनीय का प्रब्ध मोहनीय से ठीक दुगना है, वैसे ही वास्तव में भी दुगना एव्म होता है । उक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मस्कन्धों के विभाजन में श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य में समानता है । कर्मग्रंथ में लाधव की दृष्टि से ही विभाग करने की रीति नही बतलाई जा सकी है। उत्तर प्रकृतियों में पुद्गल द्रव्य के वितरण व होनाधिकता का विवेचन गो० कर्मकांड में गापा १६६ से २०६ तक उत्तर प्रकृतियों में पुद्गल द्रव्य के विभाजन का वर्णन किया गया है । कर्मग्रन्थ के समान ही घातिकर्मों को जो भाग मिलता है, उसमें से अनन्तवा भाग सर्वघाती द्रव्य होता है और शेष बहुभाग देशघाती द्रव्य होता है सम्वावरणं नावं अगंतभागो मूलपपडीणं । सेसा असमागा देसावरणं हवे का ॥ १६७ गो० कर्मकांड के मत से सर्वधाती द्रव्य सर्वघाती प्रकृतियों को भी मिलता है और देशघाती प्रकृतियों को भी मिलता है सम्वावरणं बच्वं विभंजणिज्नं तु उभपपयडीसु । बेसाहरणं वन्वं देसावरणेसु विदरे ॥ १६६ सर्वघाती द्रव्म का विभाग दोनों तरह की प्रकृतियों में करना चाहिए । किन्तु देशघाती द्रव्य का विभाग देशघाती प्रकृतियों में ही करना चाहिए। अर्थात् सर्ववाती द्रव्य सर्वधाती और देशघाती दोनों प्रकार की प्रकृतियों को मिलता है किन्तु देशघाती द्रव्य सिर्फ देशघाती प्रकृतियों में ही विभाजित. होता है। प्राप्त द्रव्य को उत्तर प्रकृतियों में विभाजित करने के लिए एक सामान्य नियम यह है कि----- उत्तरपयडोसु पुणो मोहावरणा हवंति होणकम।। अहियकमा पुम णामाभिधा प प मंजमं सेले १९६ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्य ४२६ उसर प्रकृतियों में मोहनीय, ज्ञानाबरण, दर्शनावरण के भेदों में क्रम से होन-हीन द्रव्य है और नाम, अंतराय कर्म के भेदों में कम से अधिक-अधिक द्रव्य है तथा बाकी बचे वेदनीय, गोत्र, आयु कर्म, इन तीनों के भेदों में बटवारा नहीं होता है । क्योंकि इनकी एक ही प्रकृति एक काल में बंधती है । जैसे देदनीय में साता वेदनीय का बंध हो या असाता वेदनीय का परन्तु दोनों का एक साथ बध नहीं होता है। इसीलिए मूल-प्रकृति के द्रव्य के 'प्रमाण ही इन तीनों के द्रव्य को समझना चाहिए । विभाग की रीति निम्न प्रकार है शामावरण---सर्वघाती द्वन्ध में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर बहुभाग के पांच समान भाग करके पांच प्रकृतियों को एक एक भाग देना चाहिए। शेष एक भाग में आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर बहभाग मतिज्ञानावरण की, शेष एक भाग में पुनः मावली के असंख्यात माग का प्राग देकर दूसरा सवयाग श्रुतमानावरण को पोष भाग में पुन: आवली के असंख्यात भाग का भाग देकर तीसरा बहुमाग अवधिज्ञानावरण को, इसी तरह चौथा बहुभाग मनपर्यायज्ञानावरण को और शेष एक भाग केवलज्ञानावरण को देना चाहिए । पहले के भाग में अपने अपने बहुभाग को मिलाने से मतिज्ञानावरण आदि का सर्वधाती द्रव्य होता है। अनन्तवें भाग के सिवाय शेष बहभाग द्रव्य देशघाती होता है । यह देशघाती द्रध्य केवलज्ञानावरण के सिवाय शेष चार देशघाती प्रकृतियों को मिलता है। विभाग की रीति पूर्व अनुसार है । अर्थात् देशघाती द्रब्य में आवली के असंध्यातवें भाग का भाग देकर एक भाग को जुदा रखकर शेष बहुभाग के चार समान भाग करके चारों प्रकृतियों को एक एक भाग देना चाहिए। शेष एक भाग में आवली के असख्यासवें भाग का भाग देकर बहुभाग निकालते हुए क्रमशः वह बहुभाग मतिज्ञानावरण, यूत ज्ञानावरण, अवधिज्ञानाचरण और मनपर्यायज्ञानावरण को नम्बर वार देना चाहिए। अपने-अपने सर्वधाती और देशघातो द्रव्य को मिलाने से अपने अपने सर्व द्रव्य का परिमाण होता है । दर्शनावरण-- सर्वघाती द्रव्य में आवली के असंख्यात भाम का भाग देकर एक भाग को अलग रखकर शेष बहुभाग के नौ भाम करके दर्शनावरण की नौ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ प्रकुतियों को एफ एक भाग देना चाहिए । शेष एक भाग में आवली के असख्यात भाग का भाग देकर बहुभाग निकालते जाना चाहिए और पहला बहुभाग स्त्यानदि को, दूसरा निद्रा-निदा का. तीसरा प्रचला-प्रचला को, चौथा निद्रा को, पांचवा प्रचला को, छठा चक्षुदांनाचरण को, सातवां अचक्षुपर्शनावरण को, माठवा अवधिदर्शनावरण का और शेष एक भाग केवलदर्शनावरण को देना चाहिए । इसी प्रकार देशपाती द्रव्य में शावली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर एक भाग को जुदा रख बहुभाग के तीन समान भाग करके देशघाती चक्षुदशनावरण, अचश दर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण को एक-एक माग देना चाहिए । शेष एक भाग में भी भाग देकर बहुभाग चक्षुदर्शनावरण, इस बहभाग अचक्षुदर्शनावरण को और शेष एक भाग अवधिदर्शनावरण को देना चाहिए । अपने-अपने भागो का संकलन करने से अपने-अपने द्रव्य का प्रमाण होता है । चक्षु, अवक्ष और अवधि दर्शनावरण का द्रव्य सर्वघाती भी है और देशघाती भी । शेष छह प्रकृतियों के सर्वघातिनी होने से उनका दृष्य सर्वघाती ही होता है। अम्तराय-प्राप्त द्रव्य में आवली के असंख्यातवें भाग (प्रतिभाग) का भाग देकर एक भाग के बिना घोष बहुमाग के पांच समान भाग करके पांचों प्रकृतियों को एक, एक भाग देना चाहिए । अब मोष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग बीर्यान्तराय को देना चाहिए। शेष एक भाग में पुनः प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग उपभोगान्त राय को देना चाहिये। इसी प्रकार जो जो अबशेष एक भाग रहे, उसमें प्रतिभाग का भाग दे-देकर क्रमश: बहुभाग भोगान्तराय और लाभारतराय को देना चाहिए । शेप एक भाग दानान्त राय को देना चाहिए । अपने-अपने समान भाग में अपना-अपना बहभाग मिलाने से प्रत्येक का द्रव्य होता है। मोहनीय-सर्वघानी द्रव्य को प्रतिभाग आवली के असख्यानवें भाग का भाग देकर एक भाग को अलग रखकर शेष बहुभाग के समान मत्र भाग यारके सत्रह प्रकृतियों को देना चाहिये । पोष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहभाग मिथ्यात्व को देना चाहिए । शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहभाग अनन्तानुबन्धी लोभ को दें, शेष एक भाग को प्रतिभाग का भाग Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४३१ देकर बहभाग अनन्तानुजन्धी माया को देना चाहिये । इसी प्रकार जो जो भाग शेष रहता जाये उसको प्रतिभाग का भाग दे देवार बहुभाग अनंतानुबंधी शोध को, अनंतानुबंधी मान को, संज्वलन लोभ को, संज्मलन माया को, सज्वलन क्रोध को, संज्वलन मान को, प्रत्याख्यानावरण लोभ को, प्रत्याख्यानावरण माया को, प्रत्याख्यानावरण क्रोध को, प्रत्याख्यानावरण मान को, अप्रत्माख्यानाबरण लोभ को. अप्रत्याख्यानाचरणा माया की, अप्रत्यान्यानावरण को को देना चाहिए और शेष एक भाग अप्रत्याख्यानावरण' मान को देना चाहिए । अपने अपने एक एक भाग में पीछे के अपने-अपने बहभाग को मिलाने से अपना-अपना सर्वघाती द्रव्य होता है। देशघाती द्रव्य को आवली के असंख्यात में भाग का भाग देकर एक भाग को अलग रखकर बहुमाग का आधा नोकषाम को और बहुभाग का आधा और शेष एक भाग संज्वलन कषाय को देना चाहिये । संज्वलन कषाय के देशपाती द्रव्य में प्रतिभाग का भाग देकर एक भाग को जुदा रखकर शेष बहभाग के चार समान भाग करके चारों क्रोधादि कषायो को एक-एक भाग देना चाहिये । पोष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर संज्वलन लोभ को देना चाहिये । शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग संज्वलन माया को देना चाहिये। शेष एक भाग में प्रतिभान का भाग देकर बहुभाग संज्वलन क्रोध को देना चाहिये और शेष एक भाग संज्वलन मान को देना चाहिये । पूर्व के अपने-अपने एक भाग में पीछे का बहुभाग मिलाने से अपना अपना देशघासी द्रव्य होता है। चारों संज्वलन कषयों को अपना-अपना सर्वघाती और देशघाती द्रव्य मिलाने से अपना-अपना सर्वद्रव्य होता है। मिथ्यात्व और बारह फषाय का सब द्रव्य सर्वघाती ही है और नोकषाय का सब द्रव्य देशघाती ही। नोकषाय का विभाग इस प्रकार होता है-नोकषाय के द्रष्य को प्रतिभाग का भाग देकर एक भाग को जुदा रख, बहुभाग के पाँव मभान भाग करके पांचों प्रकृतियों को एक-एक भाग देना चाहिये । शेष एक भाग को प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग तीन वेदों में से जिस देद का बंध हो, उसे देना चाहिये । शेर एक भाग को प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग रति और अरति में से जिसका बंध हो, उसे देना चाहिये । शेष एक Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३२ परिशिष्ट-२. भाग को प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग हास्य और शोक' में से जिसका बंध हो, उसे देना चाहिये। शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग भय को देना चाहिये और शेष एक भाग जुगुप्सा को देना चाहिये । अपने-अपने पएक भाग में पीछे का महभाग मिलाने से अपना-अपना दृष्य होता है। नामकम-तियंगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक, तंजस, कामग तीन गरीर, हुंब संमान, वर्णचतुष्क, तिर्य चानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपधात, म्पावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकोति घोर निर्माण, इन तेईस प्रकृतियों का एक साथ बंध मनुष्य अपवा तिथंच मिथ्याइष्टि करता है । नामकर्म को जो द्रम्प मिलता है उसमें आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर एक भाग को अलग रख बहभाग के इक्कीस समाम भाग करके एक-एक प्रकृति को एक-एक भाग देना चाहिये। क्योंकि ऊप! पीईस प्रतियों में नौकारिक वा और को तीनों प्रकृतियां एक मरीर नाम पिंड प्रकृति के ही अवान्तर भेद है। अतः इनको पृथक्-पृथक दव्य न मिलकर एक शरीर नामकर्म को ही हिस्सा मिलता है। इसीलिये इसक्रीम ही भाग किये जाते है। शेष एक बहुमाग में आवली के असंख्यात भाग का भाग देकर अंत से । आदि को ओर के क्रम के अनुसार बहुभाग को देना चाहिये। जैसे कि शोष एक भाग में आमली के असंख्यातवें भाग का शग देकर बहभाग अंत की ‘निर्माण प्रकृति को देना चाहिये। शेष भाग में आवनी ः असंख्यातवे भाग का भाग देकर बहुभाग अयश कीर्ति को देना। शेष एक भाग में पुनः आपली के असंख्यात भाग का भाग देकर बहुभाग जनादेय को देना चाहिए। इसी प्रकार जो-जो एक भाग शेष रहे उसमें प्रतिभाग का भाग दे-देकर बहुभाग दुर्भग, अशुभ आदि को कम से देना चाहिये । अंत में जो एक भाग रहे, वह तियंचगति को देना चाहिये। पहले के अपने-अपने समान भाग में पीछे का भाग मिलाने से अपनाअपना द्रव्य होता है। जहाँ पच्चीस, छब्बीस, अदठाईन, उनतीस, तीस, इकतीस प्रकृतियों का एक साथ बध होता है, वहाँ भी इसी प्रकार से बटवारे का क्रम जानना चाहिये। किन्तु जहाँ केवल एक मशःकीति का हो बंध होता है, वहीं नामकर्म का सब द्रव्य इस एक ही प्रकृति को मिलता है। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मप्रन्थ नामकर्म के उस बंधस्थानों में जो पिंडप्रकृतियां हैं, उनके द्रव्य का बटवारा उनकी अवान्तर प्रकुतियों में होता है। जैसे ऊपर के बंधस्थानों में शरीर नाम पिडप्रकृति के तीन भेद हैं अतः वटवारे में पारीर नामक्रम को जो अव्य मिलता है, उममें प्रतिभाग का भाग देकर, बहुभाग के तीन समान भाग करके तीनों को एक-एक भाग देना चाहिये। शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग कार्मण शरीर को देना चाहिये। शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग तजस को देना चाहिये और शेष एक भाग औदारिक को देना चाहिये । ऐसे ही अन्य पिडप्रकृतियों में भी समझना चाहिये । जहाँ पिंड प्रकृति की अवाल र प्रकृतियों में से एक ही प्रकृति का बध होता हो, वहां पिकप्रकृति का सब न उस एक ही प्रकृति को देना चाहिने । ___ अंत राम और नाम कर्म के बटवारे में उत्तरोत्तर अधिक-अधिक द्रव्य प्रकृतियों को देने का कारण प्रारम्भ में ही बतलाया जा चुका है कि जानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय की उत्तर प्रकृतियों में क्रम से हीन-हीन द्रध्य बाँटा जाता है और अंतराम व नाम कर्म की प्रकृतियों में क्रम से अधिकअनिक द्रव्य । वेदनीय, गायु और गोत्र कर्म की एक समय में एक ही उत्तर प्रकृति बंधती है, अत: मूल प्रकृति को जो प्रव्य मिलता है, वह उस एक ही प्रकृति को मिल जाता है । उसम बटवारा नहीं होता है। ___ इस प्रकार से गो० कर्मका अनुसार कर्म प्रकृतियों में पुद्गल द्रव्य का बटवान यानना चाहिये । अब वामप्रकृति (प्रदेशबंध गा० २८) में बतायी गई उत्तर प्रकृतियों में कर्मलिकों के विभाग की हीनाधिकता का कथन करते हैं : उममे यह जाना जा सकता है कि उत्तर प्रकृतियों में विभाग का क्या और कसा क्रम है नषा किम प्रकृति को अधिक भाग मिलता है और क्रिम प्रकृति को कम । पहले उत्कृष्ट पद की अपेक्षा अल्पबहुत्व वालाते हैं। शामावरण .. . ५. केवलज्ञानावरण | मम सबसे ' कम, २. मनपर्याय. ज्ञानाबरण का उससे अनंत गुणा, ३. अवधिमानावरण का मनपर्यायज्ञाना Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ 'परिशिष्ट-२ वरण से अधिक, ४. श्रुतशानावरण का उससे अधिक और ५. मतिज्ञानावरण का उससे अधिक भाग है। दर्शनावरण-१, प्रचला का सबसे कम भाग है, २. निद्रा का उससे अधिक, ३. प्रवला-प्रथला का उससे अधिक, ४. निद्रा-निद्रा का उससे अधिक, ५. स्त्यानद्धि का उससे अधिक, ६. केवलदर्शनावरण का उससे अधिक, ७. अवधिज्ञानावरण का उससे अनन्तगुणा, ८. अचक्षुदर्शनावरण का उससे अधिक और ६. चक्षुदर्शनावरण का उससे अधिक भाग होता है। देवनीय-असाता वेदनीय का सबसे कम और साता वेदनीय का उससे अधिक द्रव्य होता है। मोहनीय--१. अप्रत्याख्यानावरपा मान का सबसे कम, २. अप्रत्याख्यानावरण क्रोध का उससे अधिक, ३. अप्रत्याख्यानावरण माया का उत्ससे अधिक और ४. अप्रत्याख्यानावरण लोभ का उससे अधिक भा है। इस प्रकार... प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का (मान, कोध, माया और लोभ के क्रम से) उत्तरोत्तर भाग अधिक है। उससे ९-१२. अनन्तानुबंधी चतूष्क का उत्तरोत्तर भाग अधिक है । उससे १३. मिथ्यात्व का माग अधिक है। मिथ्यात्व से १४. जुगुप्सा का माग अनन्तगुणा है, उससे १५. भय का भाग अधिक है, १६, १७. हास्प और शोक का उससे अधिक फिन्तु आपस में बराबर, १८, १६. रति और अरति का उससे अधिक किन्तु आपस में बराबर, २०, २१. स्त्री और नपूसकबेद का उमसे अधिक किन्तु आपस में बराबर, २२, संज्वलन क्रोध का उससे अधिक २३. सज्वलन मान का उससे अधिक, २४, पुरुषवेद का उससे अधिक, २५. संज्वलन माया का उससे अधिक ओर २६. संज्वलन लोभ का उससे असंख्यात गुणा भाग है। ___ आयुकर्म-चारों प्रकृतियों का समान ही भाग होता है, क्योंकि एक ही बंधती है। मामकर्म-पति नामकर्म में देवगति और नरकगति का सबसे कम किन्तु परस्पर में बराबर, मनुष्यगति का उससे अधिक और तियंचगति का उससे अधिक भाग है। जाति नामकर्म में-द्वीन्द्रिय आदि चार जातियों का सबसे कम किन्तु आपस में बराबर और एकेन्द्रिय जाति का उससे अधिक माग है। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ शरीर नामक में – आहारक शरीर का सबसे कम संक्रिय शरीर का उससे अधिक, औदारिक शरीर का उससे अधिक, अधिक और कार्मण शरीर का उससे अधिक भाग है । तेजस शरीर का उससे इसी तरह पांच संघातों का भी समझना चाहिये । अगोपांग नामकर्म में – आहारक अंगोपांग का सबसे कम उससे अधिक, औदारिक का उससे अधिक भाग है । संस्थान नामक में— मध्य के चार में बराबर-बराबर भाग होता है। उससे का भाग उत्तरोत्तर अधिक है । रक बंधन नामक में – आहारक आहारक बंधन का सबसे कम, आहारकतेजस बंधन का उससे अधिक आहारक- कार्मण बधन का उससे अधिक, थाहा * तैजस-कार्मण बंधन का उससे अधिक, वैक्रिय-संक्रिय बंधन का उससे अधिक, यि - Fan बन्धन का उससे अधिक, वैकिय कामेण बन्धन का उससे अधिक, क्रिम जस- कामं बन्धन का उससे अधिक, इसी प्रकार बारिक औदारिक बंधन, औदारिक- नेजस बधन, औदारिक कार्मण बन्धन, औदारिक तैजसकार्मण बंधन, तेजस तेजस बंधन, तैजस-कार्पण बन्धन और कामंणकार्मण बन का भाग उत्तरांतर एक से दूसरे का अधिकधहा है। ४३५ संहनन नामकर्म में सबसे थोड़ा है, उससे सेवा का अधिक है । - वैक्रिय का संस्थानों का सबसे कम किन्तु आपस समचतुरस्र और उससे इंड संस्थान आदि के पांच संहननों का द्रश्य बराबर किन्तु वर्णं नाम में कृष्ण का सबसे कम और नील, लोहित, पीत तथा शुक्ल का एक से दूसरे का उत्तरोत्तर अधिक भाग है । गंध में सुगंध का कम और दुर्गन्ध का उससे अधिक भाग है । रम में – कटुक रस का सबसे कम और तिक्त, कसैला खट्टा रस का उत्तरोत्तर एक से दूसरे का अधिक अधिक भाग है । और मधुर स्पर्श में – कर्कश और गुरु स्पर्श का सबसे कम, मृदु और लघु स्पर्श का उससे अधिक सूझ और फीत का उससे अधिक तथा स्निग्ध और उष्ण का J Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ उससे अधिक भाग है। चारों युगलों में जो दो-वो स्पर्श हैं, उनका आपस में बराबर-बराबर भाग है। आनृपूर्वी में- देवानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी का भाग सबसे कम किन्तु आपस में बराबर होता है । उससे मनुष्यानुपूर्वी और तिर्यंचानुपूर्वी का क्रम से अधिक-अधिक भाग है। विहायोगति में-प्रणस्त विहायोगति का कम और अप्रशस्त विहायोगति का उमसे अधिक। ___असावि बीस में:-प्रस का कम, शावर का उससे अति ! पर्याप्त का कम, अपर्याप्त का उससे अधिक । इसी तरह प्रत्येक-साधारण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुगम-युभंग, मुझम-दादर और आदेय-अनादेय का भी समझना चाहिए तथा अयश:कीर्ति का सबसे कम और यशःकीति का उससे अधिक भाग है। आतप उद्योत, प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति, मुस्वर, दुःस्वर का परस्पर में बराबर भाग है। निर्माण, इचश्वास, पराधात, उपधात, अनुरुलघु और तीर्षकर नाम का अल्पबहुत्व नहीं होता है। क्योंकि अल्पबहुत्व का विचार सजातीय अथवा विरोधी प्रकृतियों मे ही किया जाता है । जैसे कृष्ण नामकर्म के लिए वर्णनामकर्म के शोष भेद सजातीय हैं तथा सुभग और दुर्भग परस्पर में विरोधी हैं। किन्तु उक्त प्रकृतिमा न तो सजातीय हैं क्योंकि किसी एक पिड प्रकृति की अवान्तर प्रकृतिमा नहीं हैं तथा विरोधी भी नहीं हैं, क्योंकि उनका बंध एक साथ भी हो सकता है। गोत्रकर्म - नीच गोत्र का कम और उच्च गोत्र का अधिक है। अन्तरायकर्म - दानान्तराय का सबसे कम और लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य अन्तराय का उत्तरोत्तर अधिक भाग है । उत्कृष्ट पद की अपेक्षा से उक्त अल्पबहत्व समझना चाहिए और जघन्यपर की अपेक्षा से - जानावरपा और वेदनीच का अल्पबहत्व पूर्ववत् है। दर्शनाबरण में निद्रा का सबसे कम, प्रचला का उसके अधिक, निदा. निदा Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्म ग्रन्थ का उससे अधिक । प्रचला-प्रचला का उसमे अधिक, स्त्यानद्धि का उससे अधिक है । शेष पूर्ववत् माग है। मोहनीय में केवल इतना अंतर है कि तीनों वेदों का भाग परस्पर में नुल्य है और रति-अति से विशेषाधिक है। उससे संज्वलन मान, क्रोध, माया और लोम का उत्तरोत्तर अधिक है। आयु में तिर्यंचायु और मनुष्यायु का सबसे कम है और देवायु, नरकायु का उससे असंख्यात गुणा है। नामकर्म में लियंचति का सबसे कम, मनुष्यगति का उससे अधिक, देवगति का उससे असंख्याप्त गुणा और नरकगति का उससे असंख्यात गुणा भाग है । जाति का पूर्ववत् है । शरीरों में औदारिक का सबसे कम, तेजस का उससे अधिक, कार्मण का उससे अधिक, वक्रिय का उससे असंख्यात गुणा, आहारक का उससे असल्पात गुणा भाग है । सघास और बंधन में भी ऐसा ही क्रम जानना चाहिए । शंगो में औदारिक का सबसे कम वैक्रिय का उससे असख्यात गुणा, पाहारक का उससे असख्यात गुणा भाग है। आनुपूर्वी का पूर्ववत् है । शेष प्रकृतियों का भी पूर्ववत् जानना चाहिए। गोत्र और अंतराय फर्म का भी पूर्ववत् है । यानी नीच गोत्र का कम और उम्मन गोत्र का उससे अधिक । दानान्त राय का कम, लाभान्त राय का उससे अधिक, भोगान्त राय का उससे अधिक, उपभोगाम्तराय का उससे अधिक और वीर्या. न्तराम का उससे अधिक भाग है । इस प्रकार गो० कर्मकांड और कर्म प्रकृति के अनुसार कर्म प्रकृतियों में। कर्मदलिकों के विभाजन व अल्पबहुत्व को समझना चाहिये । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ पल्य को भरने में लिये जाने वाले बालानों सम्बन्धी अनुयोगद्वार-सूत्र आदि का कथन पल्योपम का प्रमाण बतलाने के लिए एक योजन लंबे, एक योजन चौड़े और एक योजन गहरे पल्प-गह को एक से लेकर साल दिन तक के बालानों मे भरने का विधान किया है। इस संबंधी विभिन्न दृष्टिकोणों को यहाँ स्पष्ट करते हैं। अनुयोगद्वार मूत्र में 'एगाहिब, देहिनतेयाहिम जाव उक्कोसेणं सस रत्तरकाण"वालग्गकोडीण' लिखा है और प्रवचनसारोदार में भी इसी से मिलता-जुलता पाठ है। दोनों की टीका में इसका अर्थ किया गया है कि सिर के मुड़ा देने पर एक दिन में जितने बड़े बाल निकलते हैं, वे एका हिक्य कहलाते हैं, दो दिन के निकले बाल वाहिलय, तीन दिन के निकले बाल न्याहित्य, इसी तरह सात दिन के उगे हुए बाल लेना चाहिये । नच्यलोकप्रकाश में इसके बारे में लिखा है कि उत कुरु के मनुष्यों का सिर मुड़ा देने पर एक से सात दिन तक के अन्दर जो केशान शि उत्पन्न हो, यह लेना चाहिये । उसके आगे लिखा है कि-- क्षेत्रसमासवृहद्वसिजम्बूदीपप्रज्ञप्तित्यभिप्रायोऽयम् . प्रवचनसारोद्वारवत्तिसंग्रहणीवृहकृत्योस्तु मुण्डिते गिरसि एफेनासा द्वाभ्यामहोभ्यां यावदुत्कर्षतः सप्तभिरहोभिः प्रकलानि वालाग्राणि इत्यादि सामान्यलः कथनादुतारकूनरवालाग्राणि नोक्न नीति ज्ञेयम् । 'वीरञ्जय सेहर' क्षेत्रविवार मत्कम्वोपज्ञवृत्तौ तु देयकुरूत्तरकुरूप्रथमतदिनजातोरणस्योत्सेघाङ्गलप्रमाणं रोप सनकृत्योऽष्ट स्खण्डीकरणेम विशतिलक्षसप्तनवतिसहस्र कशतवापञ्चाशतप्रमितखण्डभावं प्राप्यते, तादृशै रोमखण्डे रेष पल्यो नियत इत्यादिरपंसः संप्रदायो दृश्यत इति जयम् । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम कर्मग्रन्थ ४३६ अर्थात् क्षेत्रसमास की वृहद्वृत्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृद्धि का यह अभिप्राय है कि उत्तरकुरु के मनुष्य के केशाय लेना चाहिये। किंतु प्रवचनसारोद्धार की वृति और संग्रहणी की वृहद्वृत्ति में सामान्य से सिर मुड़ा देने पर एक से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालों का उल्लेख किया है. उत्तरकुरु के मनुष्य के बालाओं का ग्रहण नहीं किया है। क्षेत्रविचार की स्वोपज्ञवृत्ति में लिखा है कि देवकुरु- उत्तरकुरु में जन्मे सात दिन के मेष ( मेड) के उत्सेधांगुलप्रमाण रोम को लेकर उसके सात बार आठ-आठ खंड करना चाहिये । अर्थात् उस रोम के आठ खंड करके पुनः एक-एक खंड के आठ-आठ खंड करना चाहिए। ऐसा करने पर उस रोम के बीस लाख सत्तानव हजार एकसौ बावन २०६७१५२ खंड होते हैं। इस प्रकार के खंडों से उस पल्स को भरना चाहिए । जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी एयाहि चेहि तेहिअ उक्कोसेणं सत्त रत्तपरूठाणं वालग्गकोडीज' ही पाठ है। जिसका टीकाकार ने यह अर्थ किया है। वालेषु प्राणि श्रेष्ठाणि वालाग्राणि कुरुतर रोमाणि तेषां कोटयः अनेकर: कोटी प्रमुखाः संख्याः जिसका आशय है कि बालों में अग्न श्रेष्ठ जो उत्तरकुरु देव कुरु के मनुष्यों के बाल, उनकी कोटिकोटि । इस प्रकार टीकश्कार ने बाल सामान्य से कुरुभूमि (देवकुरु, उत्तरकुरु) के मनुष्यों के बालों का ग्रहण किया है। दिगम्बर साहित्य में 'एकादिसप्ताहोरात्रिजाताविवालाग्राणि' लिखकर एक दिन से सात दिन तक जन्मे हुए मेष (भेड़) के बालाग्र ही ग्रहण किये हैं। दिगम्बर साहित्य में पल्योपम का वर्णन उपमा प्रमाण के द्वारा काल की गणना करने के लिए पल्योषम, सागरोपम का उपयोग श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों संप्रदायों के साहित्य में समान रूप से किया गया है। लेकिन उनके वर्णन में भिन्नता है। श्वेताम्बर साहित्य में पाये जाने वाले पस्योपम के स्वरूप आदि का वर्णन गा० ६५ में किया जा चुका है, लेकिन दिगम्बर साहित्य में पत्योम का जो वर्णन मिलता है, वह उक्त वर्णन से भिन्न है । उसमें क्षेत्रपल्योपम नाम का कोई भेद नहीं है कुछ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० परिशिष्ट-३ और न प्रत्येक पल्योपम के बादर और सूक्ष्म भेद ही किये गये है। संक्षेप में पल्योएम का वर्णन इस प्रकार है-- पल्य के तीन प्रकार है --व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य और अदापल्य । ये तीनों नाम सार्थक हैं और उद्धार व अद्धा पल्पों के व्यवहार का मूल होने के कारण पहले पत्य को व्यवहारपल्य कहते हैं। अर्थात् व्यवहारपल्य का इतना ही उपयोग है कि वह उद्धारपल्य और अडापल्य का आधार बनता है । इसके द्वारा कुछ मापा नहीं जाता है । ___नारम्य से सम्मान रो, दी. सोरहों की संख्या जानी जाती है, इसीलिये उसे उद्धारपत्य कहते है और असापल्य के द्वारा जीवों की आयु आदि जानी जातो है, इसीलिये उसे अदापल्प कहते हैं । इन तीनों पस्यों का प्रमाण निम्न प्रकार है-- प्रमाणांगुल से निष्पन्न एक योजन लम्बे, एक योजन चौड़े और एक योजन गहरे तीन गड़वे बनाओ। एक दिन से लेकर सात दिन तक के भेड के रोमों के अग्रभागों को काटकर उनके इतने छोटे-छोटे खण्ड करो कि फिर वे कंघी से न काटे जा सके। इस प्रकार के रोमखण्डों से पहले पल्य को खब ठसाठस भर देना चाहिए । उस पल्म को व्यवहारपल्य कहते हैं। उस व्यवहारपल्य से सो-सो वर्ष के बाद एक-एक रोमखण्ड निकालतेनिकालते जितने काल में कह पल्म खाली हो, उसे व्यवहार पल्योपम कहते हैं । व्यवहारपस्य के एक-एक रोमखण्ड के कल्पना के द्वारा उत्तने खण्ड कगे जितने असंख्यात कोटि वर्ष के समय होते हैं और वे सब रोमन्त्रण्ड दूसरे पल्य मैं भर दी। उसे उदारपल्य कहते हैं । उस उद्धारपल्य में से प्रति समय एक खण्ड निकालते-निकालते जितने समय में वह पल्य खाली हो, उसे उद्धारपस्योपम काल कहते हैं । दस कोटाकोटी उद्धारपल्योपम का एक उद्धार-सागरोपम होता है। अताई उद्धारसागरोपम में जितने रोमखंड होते हैं, उतने ही द्वीप, समुद्र जानना चाहिए। उदारपल्प के रोमखंडों में से प्रत्येक रोमखंड के कल्पना के द्वारा पुनः उत्तने र करो जितने सौ वर्ष के समय के होते हैं और जन बंगे को सीसरे पल्य में मर दो । उसे अखापल्य कहते है। उसमें से प्रति समय एक-एक रोम Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४४१ खंड निकालते-निकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो, उसे अद्धा-पल्योपम कहते हैं और दस कोटाकोटी अद्धापल्यों का एक अद्धासागर होता है । सफोटि अद्धासागर की एक उत्सर्पिणी और उतने ही की एक अवसर्पिणी होती है । इस अद्धा-पल्योपम से नारक, तियंच, मनुष्य और देवों की कर्मस्थिति, भवस्पिति और काय स्थिति जानी जाती है। दिगम्बर ग्रन्थों में पुदगल परतवती का वर्णन दिगम्बर साहित्य में पुद्गल परावर्तों के पांच भेद हैं और पंच परिवर्तनों के नाम से प्रसिद्ध है। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-द्रव्य-परिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, काल-परिवर्तन, मन-परिवर्तन और भाद-परिवर्तन । दध्य-परिवर्तन के दो भेद है--नोकर्मद्रव्य-परिवर्तन और कर्मेद्रव्य-परिवर्तन । इनके स्वरूप निम्न प्रकार हैं___ नोकरण्य-परिवर्तन—एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुदगलों को एक समय में प्रहण किया और दूसरे आदि समय में उनको निर्जरा कर दी । उसके बाद अनंतवार अग्रहीत पुद्गलों को यहण करव, अगलवार मिश्र पुद्गलों को ग्रहण करके और अनन्तवार ग्रहीत पुद्गलों को ग्रहण करके छोड़ दिया। इस प्रकार वे ही पुद्गल जो एक समय में ग्रहण किये थे, उन्हीं भावों से उतने ही रूप, रस, गंध और सार्श को लेकर जब उसी जीव के द्वारा पुनः नोकर्म रूप से ग्रहण किये जाते हैं तो उतने काल के परिमाण को नोकर्नदव्य-परिवर्तन कहते हैं । कर्मद्रव्य-परिवर्तम-इसी प्रकार एक जीव ने एक समय में आठ प्रकार के कर्म रूप होने के योग्य कुछ पुद्गल ग्रहण किये और एक समय अधिक एक आवाली के बाद उनकी निर्जरा कर दी। पूर्वोक्त क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से जब उसी जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, तो उतने काल को कमब्रव्य-परिवर्तन कहते हैं। नोकमंद्रव्य-परिवर्तन और कर्मद्रव्य-परिवर्तन को मिलाकर एक द्रव्यपरिवर्तन या पुद्गल परिवर्तन होता है और दोनों में से एक को अर्धपुद्गलपरिवर्तन कहते हैं । परिवर्तन--सबसे जपन्य अवगाहना का धारक सूक्ष्म निगोदिया पीय Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ परिशिष्ट-३ सोफ के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ और मर गया । वही जीव उसी अवगाहना को लेकर वहां दुबारा उत्पन्न हुआ और मर गया । इस प्रकार घनांगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में जितने प्रदेश होते हैं, उतनी बार उसी अवगाहना को लेकर वहां उत्पन्न हुआ और मर गया । उसके बाद एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते जब समस्त लोकाकाश के प्रदेशों को अपना जन्मक्षेत्र बना लेता है तो उसने काल को एक क्षेत्रपरिवर्तन करते हैं। काल-परिवर्तन-एक जीव उत्सपिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूरी करके मर गया। वही जीव दुसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुना और आयु पूरी हो जाने में बाद मर गया । वही जीव नीसरी उत्सपिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और उसी तरह मर गया । इस प्रकार यह उत्सर्पिणी काल के समस्त समयों में उत्पन्न हुआ और इसी प्रकार अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में उत्पन्न हुआ। उत्पत्ति की तरह मुत्यु का भी क्रम पूरा किया। अर्थात् पहली उत्सपिणी के पहले समय में मरा, दूसरी उत्सपिणी के दूसरे समय में मरा, इसी प्रकार पहली अवसर्पिणी के पहले समय में मरा, दूसरी अवसर्पिणी के दूसरे समय में मरा । इस प्रकार जितने समय में उत्सर्पिणी और अवसपिणी काल के समस्त समयों को अपने जन्म और मृत्यु से स्पृष्ट कर लेता है, उतने समय का नाम कालपरिवर्तन है। भवपरिवर्तन - नरकगति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है । कोई जीव उतनी आयु लेकर नरक में उत्पन्न हुआ। मरने के बाद नरक से निकलकर पुनः उसी आयु को लेकर दुबारा नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय होते हैं, उतनी बार उसी आयु को लेकर नरक में उत्पन्न हआ। उसके बाद एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते नरकगति की उत्कृष्ट आयु तेतीस मागर पूर्ण की । उसके बाद तियंचगति को लिया। नियंचगति में अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ और मर गया । उसके वाद उसी आयु को लेकर पुनः तिर्यचगति में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अन्समहर्त में जितने समय होते हैं उसनी बार अन्तमुहर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। इसके बाद पूर्वोक्त प्रकार से एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते सिर्षचगति Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कमग्रन्य ४४३ को उत्कृष्ट आयु तीन पल्प पूरी की। तिर्यघगति की ही तरह मनुष्यगति का काल पूरा किया और नरफगति की तरह देवगलि का काल पूरा किया । लेकिन देवगति में इतना अंतर समझना चाहिए कि देवगति में ३१ सागर की आयु पूरी करने पर ही भवपरिवर्तन पूरा हो जाता है। प्रमोंकि ३१ सागर से अधिक आयु वाले देव सम्पष्टि ही होते हैं और वे एक या दो मनुष्य भव धारण करके मोक्ष चले जाते हैं। इस प्रकार चारों गति की आयु को भोगने में जितना काल लगता है, उसे भवपरिवर्तन कहते हैं। भावपरिवर्तन -कमों के एक स्थिनिबंध के कारण असंख्यात लोक प्रमाण कषाय-अध्यवसायस्थान हैं और एक-एक कषायस्थान के कारण असंस्यात लोकप्रमाण अनुभाग अध्यबसायस्थान है। किसी पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्सक मिथ्याष्टि जीव ने जानावरण कम का अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण जघन्य स्थितिबंध किया, उसके उस समय सबसे जघन्य कषायस्थान और सबसे जघन्य अनुभागस्थान तथा सबसे जघन्य योगस्थान था । दूसरे समय में वही स्थितिबंध, वही कषायस्थान और वहीं अनुभागस्थान रहा किन्तु योगस्थान दूसरे नंबर का हो गया। इस प्रकार उसी स्थितिबंध को कषायस्थान और अनुभागस्थान के साथ श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण समस्त योगस्थानों को पूर्ण किया । योगस्थानों की समाप्ति के बाद स्थितिबंध और कषायस्थान तो बही रहा किन्तु अनुभागस्थान दूसरा बदल गया । उसके भी पूर्ववत समस्त योगस्थान पूर्ण किये । इस प्रकार अनुभाग-अध्यवसायस्थानों के समाप्त होने पर उसी स्थितिबंध के माथ दूसरा कवायस्थान हुआ 1 उसके भी अनुमागस्थान और योगस्थान भी पूर्ववत् समाप्त किये । पुन. तीसरा कषायस्थान हुआ, उसके भी अनुभागस्थान और योगस्थान पूर्ववत् समाप्त किये । इस प्रकार समस्त कषायस्थानों के समाप्त हो जाने पर उस जीव ने एफ समय अधिक अन्तःकोटाकोटि सागर प्रमाण स्थितिबंध किया । उसके भी कपायम्यान, अनुभागस्थान और योगम्यान पूर्ववत् पूर्ण किये । इस प्रकार एक-एक समय वहाते बढ़ाते ज्ञानावरण की तीस कोटाकोटि सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण की । इसी तरह जब वह जीव मभी मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकनियों की स्थिति पूरी कर लेता है, तब उसने काल को भावपरिवर्तन कहते हैं । इन सभी परिवर्तनों में क्रम का ध्यान रखना चाहिए । अर्थात् अक्रम से Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ परिशिष्ट-३ जो क्रिया होती है, वह गणना में नहीं ली जाती है । सूक्ष्म पुद्गल परावर्तो को । जो व्यवस्था है, वहीं व्यवस्था यहाँ समझना चाहिये। उत्कष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों का गोम्मटसार कर्मकांड में आगत वर्णन दिगम्बर साहित्य गो कर्मकांड में भी प्रदेशबंध के स्वामियों का वर्णन किया गया है । जो प्राय: कर्मग्रन्य के वर्णन से मिलता-जुलता है । तुलनात्मक मध्ययन में उपयोगी होने से संबंधित अंश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों के बारे में यह सामान्य नियम है कि उत्कृष्ट लोगों सहित, संजो पर्याप्त और प्रोदी एकति मा ा करने वाला जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा जपन्य गोग वाला असंज्ञी और अधिक प्रकृतियों का बंध करने वाला जघन्य प्रदेशाबंध करता है । सर्वप्रथम मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट बंध का स्वामित्व गुणस्थानों में कहते । आजमकस्स पदेस छक्कं मोहस्त णव दुठाणापि । सेसाण तणकसाओ बंदि उपकस्सनोगेण ॥ २११ __ आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबध छह गुणस्थानों के अनन्तर सातवें गुणस्थान में रहने वाला करता है । मोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नौवें गुणस्थानबर्ती करता है और आम व मोहनीय के सिवाय शेष जानाधरण आदि छह को का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट योग का धारक दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानबाला जीव करता है । यहाँ सभी स्थानों पर उत्कृष्ट योग द्वारा हो पन्ध जानना चाहिए । उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन का स्वामित्य इस प्रकार है ससर सुहमसरागे पंचणिपट्टिम्हि वेसगे सदियं । अयये विविप्रकसायं होवि ह उक्तस्सदश्वं तु ॥२१२ छण्णोकसायणिद्दापयलातित्यं च सम्मगो यजदी। सम्मो वामो तेरं परसुरआउ भसावं तु ॥११३ देवचरमक व समर सस्थामणसुभगति । आहारमप्पमतो सेसपासुबको मिन्डो ॥२१४ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४४५ मतिज्ञानावरण आदि पांच, दर्शनावरण चार, अन्तराय पांच, पशःकीति, वचन गोत्र और साता वेदनोध, इन रात्र प्रकृतियों का दसवें सूक्ष्मस पराम गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है। नौवें अनिवृत्तिवादर गुणस्थान में पुरुषत्रेदादि पांच का, होसरा प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का देश विरति नामक पांचवें गुणमा ग री मारा: पाम तुष्मा का चौथ अविरत गुणस्थान में उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध होता है । छह नोकषाय, निदा, प्रचला और तीर्थकर, इन नौ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबाघ सम्याष्टि जीव करता है तथा मनुष्यार, देवायु, असाता वेदनीय, देवति आदि देवस्तष्क, वज्रगमनाराच संहनन, समचतुरस संस्थान, प्रशस्त विहामांगति, सुभाषिक, इन तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशवाघ सम्यग्दृष्टि अथवा मिच्याइष्टि दोनों ही करते हैं । आहारकतिक को उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्त गुणस्थान वाला करता है। इन चीवन प्रकृतियों के सिवाय शेष रही छियासठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिध्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट योगों से करता है । उत्कृष्ट प्रदेशबघ के स्वामियों का कथन करने के बाद अब जघन्य प्रवेशबन्ध के स्वामियों को बतलाते हैं। मूल प्रकृतियों के बन्धक के बारे में बताया है कि सहमणियोदअपज्जत्तयस्स पहमे जहण्णये जोगे। सत्तम्हं तु जहणं आउगर्वधेषि आउस्स ।।२१५ युम निगोदिया लब्यपर्यातक जीव के अपने पर्याम के पहले समय में जनन्य योगो से आशु के सिवाय सात मूल प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध होना है। नायु का वन्न होने पर उसी जीव के आयु का भी जघन्य प्रदेशबन्ध होता है । आयुकर्म का वध सब नहीं होता रहता है इसीलिये आयुकर्म का अलम से कायन किया है। अर्थात् पाठी कर्मों का जघन्य प्रदेशबन्न. सूक्ष्मनिगोदिया लन्ध्यपर्याप्नक जीम करता है। मुल प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध बतलाने के बाद उत्तर प्रकृति के लिये करते हैं कि घोडणजोगोसण्णी पिरययुसुरणिरयआउजह । अपमत्तो याहारं श्रययो तिरमं च षषक । २१६ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ श्रीमान योगों (परावर्तमान बोयों) का धारक असंजो जाव नरकद्विक.. देवायु तथा नरकायु का जवन्य प्रदेशबन्ध करता है । आहारकद्विक का अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती तथा चोथे अविरत गुणस्थान वाला ( पर्याय के प्रथम समय में जघन्य उपपाद योग का धारक ) तीर्थंकर प्रकृति और देवचतुष्क, कुल पाँच प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इन ग्यारह प्रकृतियों से शेष बची हुई १०३ प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबन्धक की विशेषता को बतलाते हैंचरमपुष्णभवत्यो तिविवाहे पढमविगाहम्मि ठिक । ४४६ सुमभिगोदो अंधवि सेसाणं अरबंध सु ॥ २१७ लब्ध्यपर्याप्तक के ६०१२ भों में से अन्त के भव को धारण करने वाला और विग्रहगति के तीन मोड़ों में से पहले मोड़ में स्थित सूक्ष्म निगोदिया जीव शेष रही १०६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । कर्मग्रन्थ और गो० कर्मकांड, दोनों में १०६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्धक सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव माना है। कर्मग्रन्थ में जन्म के प्रथम समय में उसको बन्धक बतलाया, लेकिन गो० कर्मकांड में लब्ध्यपर्याप्तक के ६०१२ भवों में से अन्तिम भव को धारण करने वाले को बतलाया है। गुणश्रभि की रचना का स्पष्टीकरण ऋक्षण से लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे कमंदलिकों की रचना को गुणश्रेणि कहते हैं । इस गुणश्रेणि के स्वरूप को स्पष्ट बरसे हुए कर्मप्रकृति गा० १५ की टीका में उपाध्याय यशोविजयजी ने लिखा हैअधुना गुणश्व णिस्वरूपमाह यत्स्थितिकण्डकं घातयति तन्मध्याद्दलिकं नृहीत्वा उदयसमयादारभ्यान्तमुहूर्त चरमसमयं यावत् प्रतिसमयमयेय गुणनया निक्षिपति । उक्तं च- 1 जयरिलहितो घणं पुग्गले उ सो विद्द | squeaufor घोषे तत्तो व असंखगुणिए उ || श्रीयम् विवइ समए तइए तत्तो असंलगिए उ । एवं समए समए अन्तमुत्तं तु का पुन्नं ॥ एवः प्रथमसमयगृहीतदलिक निक्षेपविधिः । एवमेव द्वितीयादिसमय Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ३४७ गृहीतानामपि दलिकानां निक्षेपविधिद्रष्टव्यः । किञ्च गुणश्रेणिरचनाय गुणश्रेणिचरमममयं यावद् गृह्यमाणं दलिकं यथोत्तरमसंख्येय गुण द्रष्टव्यम् । उक्तं च- प्रथम समय वारम्व दलिये तु तिष्मणोपपति उचरिल्ल विहितो वियम्मि अगुणियं तु ॥ गिरहइ समए बलियं सहए समए असंखगुणियं तु । एवं समए समए जा चरिमो अंतसमभोलि ।। निक्षेपकालो, इहान्तमुहूर्त प्रमाणो पूर्वकरणानिवृत्तिकरणाद्धाद्विकात् चाघस्तनोदयक्षणे वेदनत क्षीणे शेषक्षणेषु दलिकं रचयति न पुनम्परि गुण दलरचनारूपगुणश्रेणिकालश्चाकिञ्चिदधिको द्रष्टव्यः तावत्कालमध्ये श्रेणि वर्धयति । उक्तं च सेढोइ कालमाणं वृष्णयकरणाणसमहियं जाण । जिक्व सा उदएणं जं सेसं तम्मि निक्लेको ।। अर्थात् अब गुणश्रेणि का स्वरूप कहते हैं- जिस स्थितिकण्डक का घात करता है, उसमें से दलिकों को लेकर उदयकाल से लेकर अन्तर्मुहुर्त के अंतिम समय तक के प्रत्येक समय में असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिक स्थापन करता है। कहा भी है ऊपर की स्थिति से पुद्गलों को लेकर उदयकाल में थोड़े स्थापन करता है, दूसरे समय में उससे असख्यातगुणे स्थापन करता है, तीसरे समय में उससे असंख्यातगुणे स्थापन करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल की समाप्ति के समय में असंख्यातगुणे - असंख्यातगुणे दलिक स्थापन करता है । यह प्रथम समय में ग्रहण किये गये दलिकों के निक्षेपण की विधि है । इसी तरह दूसरे आदि समयों में ग्रहण किये गये दलिकों के निक्षेपण की विधि जाननी चाहिए तथा गुणश्रेणि रचना के लिये प्रथम समय से लेकर गुणश्रेणि के अन्तिम समय तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिक प्रग किये जाते हैं। कहा भी है - - ऊपर की स्थिति से दलिकों का ग्रहण करते हुए प्रथम समय में थोड़े Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ परिशिष्ट-३ दलिकों को ग्रहण करता है, दूसरे समय में उससे असंख्यातगृणे वलिकों का ग्रहण करता है । इस प्रकार अन्तमुहर्त काल के अन्तिम समय तक असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिकों का ग्रहण करता है। यह निक्षेपण करने का काल अन्तर्मुहूर्त है और दलिकों की रचना रूप गुणश्चणि का काल अपूर्वक रण और अनिवृत्तिकरण के कालों से कुछ अधिक जानना चाहिए । इस काल से नीचे-नीचे के उदयक्षण का अनुभव करने के बाव क्षय हो जाने पर बाकी के क्षणों में दलिकों की रचना करता है, किन्तु गुणश्रेणि को अपर की और नहीं पड़ता है। कहा है 'गणश्रेणि का काल दोनों करणों के काल से फैछ अधिक जानना चाहिए । उदय के द्वारा उसका काल क्षीण हो जाता है, असः जो शेष काल रहता है, उमो में दलिकों का निक्षेपण किया जाता है । पंचसंग्रह में भी गुणश्रेणि का स्वरूप उपमुक्त प्रकार बतलाया है। तत्संबंधी गाथा इस प्रकार है पादयठिइओ वलियं घेत्तुं घेत्तु असंखगुणगाए । साहियनुकरण काले उक्याइ रयह गुगसे हि ।।७४६ अव लब्धिसार दिगम्बर ग्रन्थ) के अनुसार गुणश्रेणि का स्वरूप मतलाते हैं उदमाणसालिम्हि य उभयाणं बाहरम्मि शिवगढ़। लोयाणमसंखेज्जो कमसो उसकटुणो हारो ॥६८ जिन कृतियों का उदय पाया जाता है, उन्हीं के द्रव्य का उदयानलि में निक्ष पण होता है । उसके लिए असंख्यात लोक का भागाहार जानना और जिनका उदय और अनृदय है, उन दोनों के द्रव्य का उदयावलि से बाह्य गुणश्रेणि में अथवा ऊपर की स्थिति में निर्भपण होता है, उसके लिए अपकर्षण भागाहार (पल्य का असंपल्यानवां भाग) जानना चाहिए 1 उपकठिन इगिमागे पल्लासलेण भाजिदे तत्थ । बहुभागनिवं दव उठवरिल्लविदीसुणिक्खयदि ॥ ६६ अपकर्षण भागाहार का भाग देने पर एक भाग में पल्प के असंख्यात Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचत कर्म ग्रन्थ ४४६ भाग का भाग दिया, उममें से बहुभाग अपर की स्थिति में निक्षेपण करता सेसगमागे मनिचे असंखसोगेण तत्व बहभाग । गुणसे दिए सिंवि सेसेगं बेष उदयाम्हि ॥७० अवशष एक भाग को असत्यात लोकः सा मांग ३५... जो बहुभाग बाये, उसको गुणणि आयाम में और शेष एक भाग का उदयाजि में देना चाहिए। उरयावलिस्म बव्यं आवनिजि होदि मनायमं । कलमदाणूमेण - गिसेप हारेन ॥७१ मनिममघगमवहरिदे पचयं पचयं गिमेय हारेण । गुणिवे आदि णिसेयं विसेसहीणं कम मत्तो ॥७२ उदयाघ लि में दिये गये द्रव्य में आवली के समय प्रमाण का भाग मे पर मध्यघन होता है और उस मध्यघन की एक कम आवली प्रमाण गच्छ के आधे कम निपकहार का भाग देने से वय का प्रमाण होता है। उस चय को मिर्षकाहार से (दो गुण हानि से) गुणा करने पर आनन्दी के प्रथम निषेक के ध्य का प्रमाण आता है । उससे द्वितीयादि निषेकों में दिये क्रम से एक-एक चय कर घटता प्रमाण लिये जानना चाहिये । वहाँ एक कम आवली मात्र चय घटने पर अंतनिषेक में दिये द्रव्य का प्रमाण होता है। उक्कविम्हि देहि हु असंखसमयप्पषमाविम्ह । संखातीवगुणवकम मसंखहीण विसेसहीणकर्म ॥ ७३ गुणनेणि के लिये अपकर्षण किये द्रव्य को प्रथम समय की एक शलाका, उससे दूसरे समय को असंख्यात गुणी, इस तरह अंत समय तक असंख्यातगुणा क्रम लिए हए जो शलाका, उनको जोड़ उसका भाग देने से जो प्रमाण आये उसको अपनी-अपनी शलाकाओं से गुणा करने से गुणश्रेणि आयाम के प्रथम निक में दिया ट्रव्य असंख्यात समय प्रबद्ध प्रमाण आता है। उससे वितीयादि निषेकों में द्रष्य क्रम से असंख्यातगुणा अंत समय तक जानना 1 प्रथम निषेक में द्रव्य गुणणि के अंत निषेक में दिये द्रव्य के असंख्यात भाग प्रमाण है। प्रथम गुणहानि का द्वितीयादि निषेकों में दिया द्रव्य चय घटता ब्रम्प लिये Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० परिशिष्ट-३ गुणश्रेणी करने द्वितीयाद अंत पर्यन्त समयों में समय-समय के प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये द्रव्य को अपकर्षण करता है और मंचित अर्थात पुर्वोक्न प्रकार उदयानि आदि में उसे निक्षेपण करता है । ऐसे आयु के दिना सात फार्मों का गृणी णि विधान समय-समय में होता है ! वन कथन का सारांश यह है कि गुणने णि रचना जो प्रकृतियो उदय में आ रही हैं उनमें भी होती है और जो उदय में नहीं आ रही है उनमें भी होती है। अन्तर केवल इतना ही है कि उदयागत प्रकुतियों के द्रव्य का निक्षेपण तो उदयावली, गुणश्रेणी और ऊपर की स्थिति, इन तीनों में ही होता है, फिन्तु जो प्रकृतियाँ उदय में नहीं होती हैं उनके द्रव्य का स्थापन केवल गुणणि और ऊपर की स्थिति में ही होता है, उदयायली में उनका स्थापन नहीं होता है। आशय यह है कि वर्तमान समय से लेकर एक आवली तक के समय में जो निषेक उदय आने के योग्य हैं, उनमें बो द्रव्य दिया जाता है, उसे जदयावली में दिया गया दव्य समझना चाहिये । उदयावली के ऊपर गुणश्रेणि के समयों के बराबर जो निषेक हैं, उनमे जो दृष्य दिया जाता है, उसे गणणि में दिया गया समझना चाहिये । गुणश्रेणि से ऊपर के अंत के कुछ निकों को छोड़कर शेष कर्मनिषकों में जो प्रव्य दिया जाता है, उसे ऊपर की स्थिति में दिया गया दृश्य समझना चाहिये। इसको मिथ्यात्व के उदाहरण द्वारा यों समझना चाहिये मिथ्यात्व के द्रव्य में अपकर्षक भागाहार का भाग देकर, एक माग विना बहभाग प्रमाण द्रव्य तो ज्यों का त्यों रहता है, शेष एक भाग को पल्य के असंख्यात भाग का भाग देकर बहुभाग का स्थापन पर की स्थिति में करता है। योष एक भाग में असंख्यात लोक का भाग देकर गुणश्रेणि आयाम में देता है, शेष एक भाग उदयावली में देता है । इस प्रकार गुणश्रेणि रचना के लिये गुणाकाल के अंतिम समय पर्यन्त असंख्यात गुणे असंख्यातगुणे द्रव्य का अपकर्पण करता है और पूर्वोक्त विधान के अनुसार उदयावली, गुणणिआयाम और ऊपर की स्थिति में उस द्रव्य की स्थापना करता है । इस प्रकार आयु के सिवाय शेष सात कर्मों का गुणणि विधान जानना चाहिये । मुणणि में उत्तरोत्तर संख्यातगण संख्यातगुणे हीन-हीन समय में Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ ४५१ उत्तरोत्तर परिणामों की विशुद्धि की अधिकता होते जाने के कारण कर्मों की निर्जरा असंस्पातगुणो असंख्यातगृणी अधिक-अधिक होती है, अर्थात् जैसे-जैसे मोरकर्म निःशेष होता जाता है वैसे-वैसे निर्जरा भी बढ़ती जाती है और यका द्रव्य प्रमाण असंख्यातगुणा, असंख्यातगुणा अधिकाधिक होता जाता है। फलतः वह जीव मोक्ष के अधिक-धक निकट पहुंचता जाता है। जहाँ गुणाकार रूप से गुणित निर्जरा का द्रव्य अधिकाधिक पाया जाता है उनको गुण णि कहा जाता है और उन स्थानों में होने वाली निर्जरा गुणौणि निर्जरा नही जाती है। ___ गो० जीवकांड गार ६६-६७ में उक्त दृष्टि को लक्ष्य में रखकर गुण श्रेणि का वर्णन किया है। यह वर्णन कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थ से मिलता-जुलता है। लेकिन इतना अंतर है कि कर्मग्रन्थ आदि में सम्यक्त्व, देशविर ति, सर्वविरति, अनन्तानुबंधी का विसंयोजन, दर्शनमोह का क्षपत्रा, चारियमोह का उपशमक, उपशांतमोह, लपक, क्षीणमोह, सयोग केवली और अयोग केवली, ये ग्यारहगुणणि स्थान बतलाये है । लेकिन गो० जीवकांड, तत्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थराजवातिक आदि ग्रन्थों में सयोगिकेवली और अयोगिकवली इन दोनों को अलग-अलग न मानकर जिन पद से दोनों का ग्रहण कर लिया है। ‘गो. जीवकार्ड की मूल गाथाओं में गुणश्रेणि निरा के दस स्थान गिनाये हैं, लेकिन टीकाकार ने ग्यारह स्थानों का उल्लेख करते हुये स्पष्ट किया है कि या तो सम्यक्त्वोत्पत्ति इस एक नाम से सातिशय मिच्यादृष्टि और असंयत सम्याप्टि, इस तरह दो मेदों का ग्रहण करके ग्यारह स्थानों की पूर्ति की जा सकती है अथवा ऐसा न करके सम्यक्त्वोत्पत्ति शब्द से तो एक ही स्थान लेना किन्तु अन्तिम जिन शब्द से स्वस्थानस्थित केवली और समृद्घानगत केवली, इन दो स्थानों का ग्रहण कर लेना चाहिये और स्वस्थानकेवली की अपेक्षा समूदयात गत केवली के निर्जरा द्रव्य का प्रमाण असंस्थानगुगा होता है। इस प्रकार ग्यारह और दस गुणश्रेणि स्थान मानने में विवक्षा भेद है। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ परिशिष्ट क्षपकणि के विधान का स्पष्टीकरण श्रपकथेणि में भय होने वाली प्रकृतियों के नाम कर्मग्रन्थ के अनुरूप आवश्यक नियुक्ति गा० १२१-१२३ में बतलाये हैं । गोर कर्मकांड में शपकश्रेणि का विधान इस प्रकार है णिरयतिरिक्ससुरागसते ण हि वेससयलबवखवगा । अयदश्चतक्कं तु अणं अणियट्टीकरणचरिमम्हि ॥ ३३५ जुगवं संजोगिसा पुणोवि अणियट्टिकरणबहुमागं । पोलिय कमसो मिच्छ मिस्सं सम्म खवेषि फमे ।। ३६६ अर्थात्-नरक, तिथंच और देवायु के सस्व होने पर क्रम से देशवत, महाश्रत और भपक थेणि नहीं होती, यानी नरकासू का सत्व रहते देशवत नही होते, तिमंचायु के सत्व में महाव्रत नहीं होते और देवायु के सत्व में क्षपकवेणि नहीं होती है । अत: पक थणि के आरोहक मनुष्य के नरकायु, तिर्यचायु और देवायु का सत्त्व नहीं होता है तथा असंयत सभ्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त संयत अथवा अप्रमत्त संबत मनुष्य पहले की तरह अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन करण करता है । अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का एक साथ विसंयोजन करता है, उन्हें अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषायों और नौ नोकषाय स्प परिणमाता है और उसके बाद एक अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम करके दर्शनमोह का क्षपण करने के लिये पुनः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करता है । अनिवृत्तिकरण के काल में से जब एक भाग काल बाकी रह जाता है और बहुभाग बीत जाता है, तब क्रमशः मिथ्यात्व, मिन और सम्यक्त्व प्रकृति का क्षपण करता है और इस प्रकार क्षायिक सम्पदृष्टि हो जाता है । इसके बाद चारित्रमोह का क्षपण करने के लिये लपक श्रेणि 'पर आरोहण करता है। सबसे पहले सातवें गुणस्थान में अधःकरण करता है और उसके बाद आठवें गुणस्थान में पहुंच कर पहले की ही तरह स्थिति खंडन, अनुभागखंडन आदि कार्य करता है। उसके बाद नौवें अनिवृसिकरण गुणस्थान में पहुँच कर Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम कर्मग्रन्थ सोलछेमिका छक्क चनुसेक्क पावरे अदो एक्क । खोणे सोससऽजोगे घायर तेवत ते ॥३३७ उसके नौ भागों में में पांच भागों में क्रम से सोलह, आठ, एक, एक, छह प्रकृतियों का क्षय होता है अथवा सत्ता से व्युच्छिन्न होती है तथा शेष चार भागों में एक-एक ही की सत्ता व्युच्छिन्न होती है । अनन्तर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणम्यान में एक प्रकृति की न्युच्छित्ति होती है । ग्यारहवें गुणस्थान में योग्यता नहीं होने से किसी भी प्रकृति का विच्छेद नहीं होता है और उसके बाद बारहवें जीणमोह गुणस्थान के अन्त समय में सोलह प्रकृतियों की सत्ता म्युचिन्छन्न होती है। समोगी केवली गुणस्थान में किसी भी प्रकृति की व्यूजित्ति नहीं होती और अयोगी केवली-चौदहवें गुणस्थान के अन्त के दो समयों में से पहले समय में ७२ तथा दूसरे समय में १३ प्रकृतियों का विच्छेद होता है। प्रकृतियों के विच्छेद होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिये कि नौर्य गुणस्थान के नौ भागों में से पहले भाग में नामकर्म की १३ प्रकृतियां | नरकतिक, तिर्यचटिक, विकलत्रिक, आतप, उद्योत, एकेन्द्रिय, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर तया दर्शनावरण की ३ प्रकृतियाँ --स्त्यानद्धित्रिक, कुल १६ प्रकृतियां क्षपण होती हैं । दूसरे भाग में अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क कुल आठ प्रकृतियों का, तीसरे भाग में नपुंसक बेद, चौथे भाग में स्त्रीवेद, पांचवें भाग में हास्यादि षट्क तथा छठे, सातवें, आठवें और नौ भाग में क्रमवाः पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया का क्षपण होता है। इस प्रकार नौवें गुणस्थान में ३६ प्रकृतियां ब्युरिछन्न होती हैं । दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में संज्वलन लोभ, बारहवें गुणस्थान में ज्ञानाधरण पांच, दर्शनावरण चार, अंसराय पांच और निद्रा व प्रचला, इस प्रकार सोलह प्रकृतियां क्षय होती हैं, फिर सयोगकेपली होकर चौदहा गुणस्थान प्राप्त होता है और उसके उपान्त्य समय में नाम, गोत्र, वेदनीय की ७२ प्रकृ. तियों का भय होता है और अन्त समय में १३ प्रकृसियों का क्षय हो जाने पर मुक्त तशा प्राप्त हो जाती है । जो क्षपक श्रेणि का प्राप्तव्य है । अयोग केवली गुणस्थान के मंत्र समय में किन्हीं-किन्हीं प्राचार्यों का मत Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ है कि १३ प्रकृतियां क्षय होती हैं और किन्हीं का मत है कि १२ प्रकृतियां सा होती हैं। १३ प्रकृतियों का क्षम मानने वाले अपने मत को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि तद्भवमोक्षगामी के अंतिम समय में आनुपूर्वी सहित तेरह प्रकृतियों की गत्ता उत्कृष्ट रूप से रहती है और जपाय से तीर्थकर प्रकृति के सिवाय शेष बारह प्रकुत्तियों की सता रहती है। इसका कारण यह है कि मनुष्यगति के साथ उदा को प्राप्त होने वाली मविपानी मनुष्यायु क्षेत्रविपाकी मनुष्यानपूर्वी, जीवधिपाको शेष नौ प्रकृतियां तथा साता या अमाता में से कोई एक वेदनीय', उच्च गोत्र, ये तेरह प्रकृतियां समवमोक्षगामी जीव के अंतिम समय में भय को प्राप्त होती हैं, द्विचरम समय में नष्ट नहीं होती है। अतः तद्भव मोक्षगामी के अंतिम समय में उत्कृष्ट तेरह प्रकृतियों की और अन्य बारह प्रकृतियों की मत्ता रहती है । लेकिन चौदहवे गुणस्थान के अंतिम समय में बारह प्रकृतियों का क्षय मानने वालों का कहना है कि मनुष्यानुपूर्वी का क्षय विचरम समय में ही हो जाता है, क्योंकि उसके उदय का काम है। जिन प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें स्तिबुकसंक्रम न होने से अंत समय में अपने-अपने स्वरूप से उनके दलिक पाये जाते है जिससे उनका चरम समय में सत्ताविच्छेद होना युक्त है। किन्तु चारों ही आनुपूर्वी क्षे ऋविपाकी होने के कारण दुसरे मव के लिये मति करते समय ही उदय में आती हैं अतः भव में जीव को उनका उदय नहीं हो सकता है और उदय न हो सकने से अयोगि अवस्था के द्विचरम समय में ही मनुष्यानुपूर्वी फी सत्ता का क्षय हो जाता है। इस प्रकार के मतान्तर में अधिकतर अयोगिकवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में ७२ और अंत समय में १३ प्रकृतियों के क्षय को प्रमुख माना है । पंचम कर्मग्रन्य की टीका में ७२ + १३ का ही विधान किया है और गो कर्मकांड गात ३४१ में भी ऐसा ही लिखा है-'उदयगवार गराणू तेरल चरिमहि वोच्छिण्णा' अर्थात् उदयगत १२ प्रकृतियां और एक मनुष्यानृपूनी, इस प्रकार तेरह प्रकुतियाँ अयोगी केवली के अंत के समय में अपनी सत्ता से छूटती है। संक्षेप में क्षपक श्रेणि का यह विधान समझना चाहिये। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधा Mr own पंचम कर्मग्रन्थ की गाथाओं की अकारादि-अनुक्रमणिका ___ • गाती पृ० सं० अणदंसनपुसित्थी ३७१ घणघाइ दुगोय जिणा अमिच्छमीससम्म ३६६ घउठाणा असुहा २२४ अपहमसंघयणागिइ २०. चउतेयवम्नवेणिय अपमाइ हारगदुर्ग २४६ पदस रज्जू लोजी अपजसप्तसुषकोसो १६६ चउमेओ अमहानो अप्पयरपय डिबंधी ३३४ रालीस फसाएसु भयमुक्कोसो गिदिसु १४६ छगपुसंजलणादो अविरय सम्मो तित्थं १६० पाइलहुबधो वायर १५७ असुखगडजाइ मागिइ २१६ जल हिसयं पणसीयं. २१६ आहार सत्तगं वा ४२ तणुवंगागिइ संघयण इक्किलकहिया सिद्धा २७६ सण अट्ठ वेय बुजुयल इंगविगलपुधकोडि १३७ ततो कम्मपएसा उफ्फोस जहन्नेयर १७६ तमतमगा उज्जोयं उद्धारअखितं ३१३ तसदन्नतेयचा उरलाइसत्तगेणं ३२३ तसवन्नवीस संगतेय एगपएसो गाई २७८ तिपण छ भट्ट नहिया एगादहिगे भूओ १४ तिरिउरल दुगुज्जोयं १७० एमेव विउभ्वाहार २६६ तिरिदुनिअं तमतमा अंतिम चउफास दुगंध २७८ तिरिनरयतिजोयाणं २०८ फेवानाजुयलावरणा ५२ तिवमिगथावरायव २३६ खगई तिरिदुग नीयं ३६ तिष्यो असुहसुहाणं गुणसढी दलरपणा ३०१ तो जजिडो बंधो गुरु कोडिकोडि अंतो १३२ थावरदसवन्नषउक्क १४ * * * 44 × = २१४ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ / 187 236 168 146 2 " 214 --.:- ...... - थिर सुमियर विणु थोणतिगं अणमिच्छ दसणछा भयकुम्छा दम्चे खिसे काले दस सृहविगइ उच्चे दो इगमासो पक्खो नपुकुखगइसासंघउ नमिय जिणं ध्रुवबंधो ना छ वन से नामध्रुवबंधिनवगं नाम धुवोदय च उतणु निवुच्छरसो सहजो निदापयला दुजयल निमिण थिर अयिर अगुरुय नियजाइलद्धदसिया पहखणमसंखगुण पढमविया धुवउदाइ पम तिगुणेस मिच्छ पण अनियट्टी सुबगह पणसद्विसहस्स पणसय पलियाप्तखंसमुहू बायालघुघ्नपगई भयकुच्छमरइ सोए मिच्छ अजयचउ आज मुत्तु अकसाय ठिई मूलपमीण अट्ट , लड्डु ठिबंधो संजलण 26 लहु बिय पन्ज अपज्जे 243 लोगपएसो सम्पिणि 348 वन चलतेयकम्मा :23 विश्चिमुराहारदुर्ग 126 विगलसुहमाउंगतिम 144 विगलिअसन्निम जिट्टो 127 विग्धावरणअसाए 1 दिग्धावरणे सुहमो 64 विधापरणे मोहे 67 बिजयाइसु विज्जे 76 बोसयरकोडिकोडी 233 संजलण नोकसाया 341 मा समझिम गिर 26 समयादसंखकालं 286 समयार्दतमुहत्त 206 सम्मदरमस्व विरई 22 सब्बाणबि लहुबंधे 42 सन्याणवि जिछठिई 341 साणाइ अपुच्छते 157 सायजसुच्यावरणा 306 सासणमी सेस धुवमीसं 63 समुणी दुन्नि असन्नी 127 सुरनरतिगुच्च साय 336 सुहमनिगोयाइखण 115 सेहिअविजंसे 88 सेसम्मि दुहा 143 हासाइजुयलदुगवेय - .-... -- ~ 196 184 170 344 193 365 .. 14