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माध्यम से त्याग करना चाहिए, अन्यथा ये व्यर्थ ही नवीन कर्म - बन्धनों का कारण बनते हैं । यह जीवनशैली जीवन- प्रबन्धन के सम्यक् क्रियान्वयन में सहायक होती है, क्योंकि यह अल्पतम प्रयास के द्वारा अधिकतम परिणाम की प्राप्ति के सिद्धान्त पर आधारित है।
( 15 ) व्यसनयुक्त और व्यसनमुक्त एक जीवन-ढंग व्यसनयुक्त है, जिसमें व्यक्ति कुछ ऐसी आदतें बना लेता है, जो उसे पहले मस्त करती हैं, फिर व्यस्त करती हैं, कुछ समय बाद त्रस्त करती हैं और अन्त में अस्त कर देती हैं। लेकिन, दूसरा ढंग व्यसनमुक्त है, जिसमें व्यक्ति व्यसन के मोहपाश से मुक्त रहकर जीवन को सार्थक बना सकता है।
जैनआचारशास्त्रों में प्राथमिक रूप से सप्तव्यसनों से मुक्त होने की शिक्षा दी गई है, जो प्रत्येक मानव के लिए आचरणीय है। ये व्यसन हैं107
1) शिकार 2) जुआ 3) चोरी 4) मांसभक्षण 5 ) मद्यपान 6 ) वेश्यागमन 7) परस्त्रीगमन (16) सैद्धान्तिकज्ञानपरक और प्रायोगिकज्ञानपरक जिसमें सिद्धान्तों पर आधारित शिक्षा का आधिक्य होता है, वह सैद्धान्तिक - ज्ञानपरक जीवनशैली कहलाती है और जिसमें प्रयोग या अभ्यास पर आधारित शिक्षा की मुख्यता होती है, वह प्रायोगिक - ज्ञानपरक जीवनशैली कहलाती है।
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जहाँ तक जैनआचारशास्त्रों का प्रश्न है, इनमें शिक्षा के सैद्धान्तिक और प्रायोगिक - दोनों पक्षों को समान रूप से महत्त्व दिया गया है। 108 यह जीवन - प्रबन्धन के लिए आवश्यक है, क्योंकि इससे जीवन का सन्तुलित विकास होता है।
(17) आवेगप्रधान एवं शान्तिप्रधान वह जीवनशैली, जिसमें हमारी प्रवृत्तियों में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार आवेगों (कषायों) की प्रधानता होती है और जिससे हमारे बहिरंग एवं अंतरंग परिवेश में अशांति, तनाव और निराशा का वातावरण छा जाता है, आवेगप्रधान (काषायिक) जीवनशैली कहलाती है। इसके विपरीत, वह जीवनशैली, जिसमें क्षमा, मृदुता, सरलता और निर्लोभता आदि सद्गुणों की अभिव्यक्तियाँ होती हैं और जिससे शान्ति, सद्भावना तथा सौहार्दपूर्ण वातावरण की स्थापना होती है, शान्तिप्रधान ( अकाषायिक) जीवनशैली कहलाती है।
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जैनदर्शन में आवेगात्मक जीवनशैली को विकार या विभाव रूप होने से त्याज्य कहा गया है और अकाषायिक जीवनशैली को स्वभाव रूप होने से पूर्ण कषायरहित जीवन को सर्वोच्च आदर्श के रूप में स्वीकारा गया है। 109
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(18) शिष्टतायुक्त एवं अशिष्टतायुक्त – कुछ लोगों की जीवनशैली में सभ्यता, विनम्रता और आदर झलकता है, जबकि कुछ लोगों का व्यवहार असभ्य, अविनीत और अशोभनीय होता है।
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जैनदर्शन में गुरु और शिष्य के बीच आत्मीय सम्बन्धों की स्थापना हेतु जो व्यापक वर्णन किया गया है, वह इस बात का द्योतक है कि व्यक्ति को सदैव शिष्टतायुक्त व्यवहार करना चाहिए और यह
अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ
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