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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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EN
स्वर्गीय सनत् कुमार जी छाबड़ा
(निधन - २८ अप्रैल १९८८) की पुण्य स्मृति में सादर समर्पित
គេ - ធា រក
সাহা অ৫ সন্তান চায় मुकाम मिर्जापुर, पोस्ट गनकर
जिला मुशिदावाद (प बगाल) Crewwwwwwwwwwesesaneesareaner)
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विषय
णमोकार मन्त्र
दर्शन पाठ सस्कृत
दर्शन पाठ भाषा
पञ्च मङ्गल
लघु अभिषेक पाठ
विनय पाठ दोहावली
श्री शान्तिनाथ स्तुति
पूजा प्रारम्भ
पश्च कल्याणक अर्घ
पञ्च परमेष्ठी अर्ध
जिन सहस्रनाम अर्ध
विषय सूची
विषय
नन्दीश्वर द्वीप का अर्घ
दशलक्षण धर्म का अर्ध
स्वस्ति मङ्गल
देव शास्त्र गुरु पूजा ( भाषा) श्री पार्श्वनाथ स्तुति श्री देव शास्त्र गुरु विद्यमान विदेह क्षेत्र तथा अनन्तानन्त सिद्धपूजा देव शास्त्र गुरु पूजा ( युगल ) बीस तीर्थकर पूजा ( भाषा ) विद्यमान बीस तीर्थङ्कर अर्ध अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्घ सिद्धपूजा भाषा ( स्वयसिद्ध )
सिद्धपूजा (संस्कृत)
सिद्धपूजा का भावाष्टक
तीस चौबीसी का अर्ध
सोलह कारण का अर्ध पचमे का
पृष्ठ
१
१
३
४
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१४
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१८
१८
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२०
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४२
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५६
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रत्नत्रय का अ
पचमेरु पूजा
नन्दीश्वर द्वीप पूजा
सोलह कारण पूजा
दशलक्षण धर्म पूजा
रत्नत्रय पूजा
स्वयम्भू स्तोत्र भाषा
समुच्चय चौबीसी पूजा
सप्त ऋषि का अ
व्रतों का अघ
समुच्चय अर्घ
शान्ति पाठ भाषा
भजन (नाथ तेरी )
भाषा स्तुति (तुम तरणतारण )
विसर्जन
आशिका लेने का मन्त्र श्री वर्द्धमान स्तुति
निर्वाण क्षेत्र पूजा
श्री आदिनाथ जिन पूजा
श्री चन्द्रप्रभु के पूर्वभव
श्री चन्द्रप्रभु जिन पूजा
श्री शान्तिनाथ जिन पूजा
श्री नेमिनाथ जिन पूजा
श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा
5 3 3 3
पृष्ठ
५७
५७
५८ ६१
६५
६८
७५
८३
८६
८९
८९
८९
९२
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22 23
९४
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९७
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९८
१०१
१०५
१०६
११२
११७
१२१
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विषय
श्री महावीर स्वामी पूजा शिर तिस क्षेत्र पूजा
श्री
श्री चम्पापुर क्षेत्र पूजा
श्री गिरनार मिसक्षेत्र पूजा
क्षेत्र पूजा
श्री पानापुर
श्री मोनारि
श्री
क्षेत्र पूजा
रिमिक्षेत्र पूजा
श्री पद्मप्रभु जिन पूजा
श्री
स्वामी पूजा
श्री विष्णु कुमार महामुनि पूजा
रमित पूजा दीपावली पूजा (नाना ) निपाणी माता को भारती श्री मकामर स्तोत्र पूजा
श्री जागर स्तोत्रम्
श्री तार्थ सूत्रम्
तो
चि
श्री चोदनगर महावीर पूजा
वृहत् अभिषेक पाठ
अभिषेक पूजा नव तिल
देव-शास्त्र-गुरु पूजा (संस्कृत)
प्रदत् मिजनक पूजा ( भाषा )
तीम चौवीसी पूजा
कृत्रिम चवालय पूजा
क्षमावणी पूजा
सरस्वती पूजा
पृष्ट
१२६
१३१
१४४
१४७
१५३
१७६
१६१
१६५
१६९
१०३
१७७
१८१
૧૮૩
१८४
१९०
२०१
२१६
२१७
23
ܕܕ
૨૩૩
२३४
२४२
२५१
२५७
२६२
२६६
11
विषय
सप्त ऋषि पूजा
अनन्त मत पूजा
शान्ति पाठ ( खरकृत )
जिनवाणी माता का भजन
पृष्ठ
२६९
२७५
स्तुति ( मस्कृन )
२७६
विगर्जन (संस्कृत )
२७७
श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र ( यानत ) २७८
२७२
( जिनवाणी माता ) २७९
जिवाणी माता की स्तुति, ( घोर हिमाचल ) भूधर का स्तुति (बन्दों दिगम्बर) २८०
२७९
भूधर कृत स्तुति ( ते गुरु )
२८१
संकटहरण विनती
होनहार बलवान ( भजन )
श्री नेमिनाथ की विनती
सुप्रभात स्तोत्रम्
अद्याष्टक स्तोत्रम्
२८३
२८८
२८९
१९०
शास्त्र - भक्ति ( अकेला )
भूपर एल स्तुति ( अहो जगत ) २९२
मङ्गलाष्टक ( वृन्दावन )
२९३
२९५
२९७
२९८
३००
मंगलाष्टक
दृष्टाष्टक स्तोम्
एकीभाव स्तोत्रम
३०२
कल्याण मन्दिर स्तोत्र ( भाषा ) ३०७
विपापहार स्तोत्र ( भाषा)
३१५
जिन चतुविशतिफा
३१९
भावना द्वित्रिशतिका
३२४
श्री जिन सहस्रनाम स्तोत्रम्
३२८
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विषय
श्री महावीराष्टक स्तोत्रम् निर्वाणकाण्ड (गाथा ) भक्तामर स्तोत्र ( भापा ) कल्याण मन्दिर स्तोत्र ( भाषा)
एकीभाव स्तोत्र ( भापा )
नेमीनाथ के पूर्वभव
विपापहार स्तोत्र भापा
श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र ( भाषा)
निर्वाणकाण्ड (भाषा)
आलोचना पाठ
सामायिक पाठ ( भापा ) भूधर कृत स्तुति ( पुलकन्त )
स्तुति ( तव विलम्ब ) स्तुति ( सकलज्ञेय )
३७७
३८०
३८६
३८७
३८९
दुखहरण स्तुति
३९१
३९३
दौलत पद ( अपनी सुध ) समाधिमरण भाषा ( गौतमस्वामी) ३९४
वैराग्य भावना
मेरी भावना
भजन ( सिद्धचक्र )
पृष्ठ
३४२
३४४
३४६
३५३
३५८
३६३
३६४
३७३
३७५
जैन व्रत और त्यौहार
दिशाशूल विचार
भारत के प्रमुख
वन्दना
विपन
आराधना पाठ
अटाईरामा
बारह भावना ( मंगतराय कृत )
तत्वार्थ सूत्र पूजा
श्री
के पूर्वभ
सुगन्ध दशमी त स्था
रवित्रत स्था
श्री वासुपूज्य जिन पूजा
विशेष जानने योग्य बाते
भारती
चौबीसों भगवान को भारत
महावीर स्वामी को भारती ३९६ पार्श्वनाथ की भारती ३९९ | शातिमत्र प्रारभ्यते ४०१ चौबीस तीर्थपुरी के चि
आवश्यक नियम पदार्थों की मर्यादा
जैन तीर्थक्षेत्र | बारह भावना
पृष्ठ
क्षिप्त सूतक विधि
मुद्रक श्री जवाहर प्रिंटिंग वर्क्स, ८० रबिन्द्र सरणी,
४.२
४०/
भक्तामर भाषा
(हजारीलाल, कुन्दडी काका ) ४३८
समाथि मरण भाषा
शान्तिनाथ पूजा ( रामचंद्र )
पोडशकारण व्रत जा
शिखरजी का भजन
८०८
४१८
ܝܙ
८१८
४३१
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ماری
८५३
४५७
४५७
४७८
४५८
४७९
४०
૪૬,
४६३
कलकत्ता-७
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प्रमुख जैन तीर्थक्षेत्र
[ विहार प्रान्त ]
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सम्मेद शिखर- - इस क्षेत्र से २० तीर्थङ्कर एव असख्यात मुनि मोक्ष गये है । पारसनाथ स्टेशन से एव गिरिडीह से शिखरजी जाने के लिये मोटर मिलती है । गुणावा -- नवादा स्टेशन से डेढ़ मील । यहाँ से गौतम स्वामी मोक्ष गये है । पावापुरी - नवादा से मोटर जाती है। यहाँ से महावीर स्वामी कार्तिक कृष्णा ३० को मोक्ष गये हैं। जल-मन्दिर दर्शनीय है ।
राजगृही -- विपुलाचल, सोनागिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि, वैभारगिरि-ये पञ्च पहाड़ियों प्रसिद्ध है । इन पर २३ तोर्थङ्करो का समवशरण जाया था ।
कुण्डलपुर - नालन्दा स्टेशन से ३ मील दूर - भगवान महावीर का जन्मस्थान है । चम्पापुरी - भागलपुर स्टेशन । यहाँ से वासुपूज्य स्वामी मोक्ष गये है । गुलजार बाग - ( पटना ) यहाँ से सेठ सुदर्शन मुक्ति गये हैं ।
[ उडीसा प्रान्त ]
खण्डगिरि - उदयगिरि - भुवनेश्वर स्टेशन से ४ मोल पर दो पहाडियाँ है । यहाँ स कलिंग देश के ५०० मुनि मोक्ष गये है ।
[ उत्तर प्रदेश ]
सिहपुरी - बनारस से ७ मील । यहाँ श्रेयांसनाथ भगवान के गर्भ, जन्म, तपये तीन कल्याणक हुए थे । वर्तमान मे सारनाथ के नाम से प्रख्यात है ।
चन्द्रपुरी - बनारस से १३ मील अथवा 'सारनाथ' से ६ मील गंगा के किनारे पर है। यहाँ पर चन्द्रप्रभु भगवान का जन्म हुआ था ।
अयोध्या - आदिनाथजी, अजितनाथजी, अभिनन्दननाथजो, सुमतिनाथजी, अनन्तनाथजी का जन्मस्थान ।
अहिक्षेत्र - बरेली-अलीगढ़ लाइन पर आमला स्टेशन से ८ मील । यहाँ भगवान पार्श्वनाथ के ऊपर कमठ ने घोर उपसर्ग किया था और उन्हे केवलज्ञान प्राप्ति हुआ था । हस्तिनापुर - शान्तिनाथ, कुन्धनाथ, और अरहनाथ तीर्थङ्करो के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक हुए थे ।
-
चौरासी - मथुरा शहर से २|| मील । यहाँ से जम्बू स्वामी मोक्ष गए थे । शौरीपुर - शिकोहाबाद से १० मील पर बटेश्वर ग्राम है। यहाँ पर नेमिनाथ स्वामी के गर्भ और जन्म- ये दो कल्याणक हुए थे 1
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रामटेक-स्टेशन में तीन मील की दूरी पर धर्मशाला है। दस बडे-बड़े मन्दिर है । इसमें १ मन्दिर मे एक प्रतिमा १४ फुट की दर्शनीय है।
मध्य भारत . मालवा ] मक्ती-पार्श्वनाथ-~-सेन्ट्रल रेलवे को भोपात - उज्जेन शाखा में इस नाम का स्टेशन है। वहीं से १ मोर पर एक प्राचीन जैन मन्दिर है। उसमे पार्श्वनाथ की दड़ी मनोर प्रतिमा
सिद्धवरकूट-दौर से सण्डया लाईन पर गोकारेश्वर स्टेशन से होते हुए या मनावद मे ६ मीन पर है। यहाँ २ चक्रवती. १० कामदेव एव साढे तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं।
पडवानी-बड़वानी स्टेशन से ५ मोन पर चूतिगिरि पहाड है, जिसको तलहटी में दादनगजा (म्म ण) को प्रसिद्ध सड़गासन प्रतिमा है। पौष मे यहाँ मना रगता है। वहीं इन्द्रजीत जोर कुम्भकर्ण णादि मुनि मोक्ष गये है।
ऊन-यह प्राचीन क्षेत्र पावागिरि के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। यहीं पर बहुत मे मन्दिर भौर मूर्ति जमीन से निकली है तथा दर्शन करने योग्य है ।
[राजस्थान प्रान्त ] श्रीमहावीरजी-पश्चिम रेलवे की नागदा - मथुरा लाईन पर श्री महावीरजी स्टेशन है, यहाँ से ४ मोम पर क्षेत्र है। भगवान महावीर स्वामी की प्रति मनोज्ञ प्रतिमा पाम के ही एकटील के अन्दर से निकली थी। __पद्मपुरी-स्टेशन योदासपुरा। मगवान पदाप्रभु की अतिशयपूर्ण, भव्य और मनाश प्रतिमा के प्रतिशय के कारण इस क्षेत्र का नाम पदापुरी पड़ा है।
फेशरियानाथ-उदयपुर स्टेशन से ४० मील पर । यहाँ ऋषभदेव स्वामी का यहुत विशान मन्दिर है । यह भारत के सभी तीर्थो से अधिक केशर भगवान को चढ़ती है. इमी म इम्का नाम फैशरियानाथ पड़ा है।
तिजारा-मतवर एव दिशो स बस द्वारा । चन्द्रप्रभु भगवान की अतिशय युक्त मूति दर्शनीय है।
[वम्बई प्रदेश ] नारंगा-स्टेशन तारगा-हिस से ३ मील दूर पहाड़ पर यह क्षेत्र है। यहाँ से वरद तादि साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये है।
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गिरनार-काठियावाड मे जूनागढ़ स्टेशन से ४-५ मील की दूरी पर गिरनार पर्वत की तलहटी है। पहाड पर ७००० सीढ़ियो की चढ़ाई है। यहीं स नेमिनाथ स्वामी तथा ७२ करोड सात सौ मुनि मोक्ष गये है।
शत्रुञ्जय-पालिताना स्टेशन से २ मील पर है । यहाँ न युधिष्ठिर, भीम, मजन तथा ८ करोड मुनि मोक्ष गये है। __ पावागढ-बडौदा से २८ मील की दूरी पर यह क्षेत्र है। यहीं स न्व, कुश आदि पाँच करोड मुनि मोक्ष गये है।
मागीतुंगी-मनमाड स्टेशन से ७० मील पर घन जगल मे पहाड पर यह क्षेत्र है । यहाँ से रामचन्द्र, सुग्रोव, गवय गवाक्ष, नील आदि ६६ करोड मुनि मोक्ष गये है।
गजपन्या-नासिक रोड स्टेशन से ६ मोल नसरुन ग्राम के पास । यहीं से बलभद्र आदि पाठ करोड मुनि मोक्ष गये हैं ।
कुन्थलगिरि-वास टाऊन रेलवे स्टेशन से २१ मीन दूरी पर । यहाँ से देशभूषण, कुलभूषण मुनि मोक्ष गये है।
[ मैसूर प्रान्त] मूडबद्री-कारकल से दस मील पर यह एक अच्छा कस्वा है । यहाँ १८ मन्दिर है । यहाँ के मन्दिरो मे होरा, पत्रा, पुखराज, मूंगा, नीलम को मूर्तिर्या है।
जैनबद्री-(श्रवणबेलगोला ) हसन जिले के अन्तर्गत यह तेत्र है। हसन से मोटर जाती है। प्रवणबेलगोला मे चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि नाम को दो पहाडिया पास-पास है । पहाड पर ५७ फीट ऊंची बाहुबली की मनोज्ञ प्रतिमा है । २२ वर्ष बाद महामस्तकाभिषेक होता है ।
घेणर-गोम्मट स्वामी की ६० फोट ऊंची एक प्रतिमा है तथा अन्य हजारो मनोज्ञ मूर्तियाँ यहाँ पर है-मन्दिर दर्शनीय हैं ।
हडवेरी-यहाँ एक मन्दिर पूरा कसौटी पत्थर का बना हुआ है।
कारकल-यहाँ प्राचीन और मनोज्ञ १२ मन्दिर लाखो रुपयो की लागत से बने है। पर्वत पर श्री बाहुबली स्वामो की विशाल मूर्ति कायोत्सर्ग अवस्था मे देखने योग्य है। __ बारंग-यहाँ एक मन्दिर तालाब के मध्य भाग में है। किश्ती मे बैठ कर जाने से दर्शन होते है।
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वन्दना
रचयिता- - स्व० कवि भगवत् जैन, एत्मादपुर ( जागरा ) शिवपुर पथ परिचायक जय है, सन्मति युग निर्माता । गङ्गा फल - फल स्वर में गाती, तव गुण गौरव गाथा | सुर नर किन्नर तव पद युग में, नित नत करते माथा ॥ हम भी तव यश गाते, सादर झुकाते ।
शीश
हे सद्
बुद्धि
प्रदाता ॥
दु.प हारक सुप दायक जय हे, सन्मति युग
निर्माता ।
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ॥ सन्मति युग निर्माता ॥ १ ॥
मंगल फारक दया प्रचारक, सग पशु नर उपकारी । भविजन तारक कर्म विदारक, सब जग तव आभारी ॥ तब तक गीत तुम्हारे । विश्व रहेगा गाथा ॥
जब तक रवि शशि तारे,
त्रिर सुख शान्ति विधायक जय हे, सन्मति युग निर्माता । जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ॥ सन्मति युग निर्माता ||२|| जातु भावना भुला परस्पर, लडते है जो प्राणी । उनके उर में विश्व प्रेम, फिर भरे तुम्हारी चाणी ॥ सप में करुणा जागे, जग से हिंसा भागे ।
दे दुर्जय दुख दायक जय हे,
पायें सब सुख साता ॥
सन्मति युग निर्माता ।
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ॥
सन्मति युग
निर्माता ||३||
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आवश्यक नियम
इनके पालन से आत्म-कल्याण के साथ-साथ जीवनचर्या मे भी उत्थान होता है ।
(१) प्रतिदिन देव - पूजन, शास्त्र-स्वाध्याय व गुरु-भक्ति करें । (२) रात्रि भोजन व अभक्ष्य पदार्थो का भक्षण नही करें । (३) २४ घण्टे मे कम से कम १५ मिनिट स्व- चिन्तन करें । (४) चिन्तन द्वारा दिन भर मे हुई गलतियो का पश्चाताप करें । (५) चमडे की वस्तुओ का प्रयोग न करें ।
(६) अफीम, भाग, तम्बाखू आदि मादक द्रव्यो का प्रयोग न करें । (७) अनैतिक कार्य न करे व हित- मित- प्रिय वचन वोले । (८) नगदी, सोना, चांदी, जायदाद आदि की मर्यादा निश्चित करें ।
( ९ ) विकथाओ ( स्त्री, राज्य, चोरी, भोजन ) मे अपना समय नष्ट नही करे ।
(१०) अपनी आय का कम से कम १/१० हिस्सा दान के कार्यों मे लगाये ।
(११) अष्टमी, चतुर्दशी या महीने मे कम से कम १ उपवास या एकाशन करें ।
(१२) आहार के लिये हरी सब्जी, अनाज, फल आदि की गिनती कर नियम ले लें |
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पदार्थों की मर्यादा
७ दिन
.
नाम
शीत प्राप्म पूरा (घर में पनाया)
१ मा १५ दिन दूध ( दुपने के पश्चात ) ४८ मि. ४८ मि० ४८ मि० दूध ( उगलने के याद)
२४ घण्टे दशी (गर्म दूध ) २४ घण्टे २४ घण्टे २४ घण्टे छाल
४८ मि० ४८ मि० ४८ मि० घी, तेल घ गुन ~ जय तक म्याद न विगडे माटा ( मप तर फा) ७ दिन ५ दिन ३ दिन (पिस पुगममाले
दिन ५ दिन ३ दिन नमक ( पिमा हुना) ४८ मि० ४८ मि० ४८ मि० नमफ ( मनाला मिला देने पर) घण्टे ६ घण्टे ६ घण्टे खिचडी, गयना, फही, तरकारी ६ घण्टे घण्टे ६ घण्टे रोटी, पूी, ल्वा (जल्याले पदार्थ) १२ घण्टे १२ घण्टे १२ घण्टे मोन मिले पदार्थ
२४ घण्टे २४ घण्टे ___२४ घण्टे पफवान ( पानी रदिन) दिन ५ दिन ३ दिन पदी ( मीठे पदार्थ माहित ) ४८ मि० ४८ मि० ४८ मि०
गुट मिला दही या छाछ सर्वथा अभक्ष्य है।
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बोधिदुर्लभ भावना-धनकनकञ्चन राज सुख, सहि सुलभ करि जान ।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ॥११॥ धर्म भावना -जाचे सुरतरु देय सुख, चिन्तन चिन्ता रैन ।
विन जाचे विन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन ॥१२॥
संक्षिप्त सूतकविधि।
सूतकमें देव शास्त्र गुरुका पूजन प्रक्षालादिक फरना, तथा पंदिरजीको जाजम वस्त्रादिको स्पर्श नहीं करना चाहिये । सूतक का समय पूर्ण हुये बाद पूजनादि फरके पात्रदानादि फरना चाहिये। १-जन्मफा सूतक दश दिन तक माना जाता है । २-यदि स्त्रीका गर्भपात (पाचवें छठे महीनेमें) हो तो जितने महीनेका गर्भपात हो उतने दिनका सूतक माना जाता है। ३-प्रसूति स्त्रीको ४५ दिनका सूतक होता है, फहीं फहीं चालीस दिनका भी माना जाता है। प्रसूतिस्थान एक मास तफ अशुद्ध है ४-रजस्वला स्त्री चौथे दिन पतिके भोजनादिकके लिये शुद्ध होती है परन्तु देव पूजन, पात्रदानके लिये पाचवे दिन शुद्ध होती है। व्यभिचारिणी स्त्रीके सदा ही सूतक रहता है। ५ मृत्युका सूतक तीन पीढी तक १२ दिनका माना आता है। पौथी पीढीमें छह दिनका, पाचवीं छठी पीढी तक बार दिनका, सातवीं पीढीमें तीन, आठवीं पीढीमें एक दिन रात, षषमी पीटी में स्नानमात्रमें शुद्धता हो जाती है ।
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जन्म तथा मृत्युका सूतक गोत्रके मनुष्यको पाच दिनका होता है । तीन दिनके बालकसी मृत्युका एक दिनका आठ वर्षके बालफकी मृत्युका तीन दिन तकका माना जाता है । इस मागे बारह दिनका |
9 अपने कुलके किसी गृहत्यागीका सन्यास मरण, वा किसी कुटुम्बीका ग्राम में मरण हो जाय तो एकदिनका सूतक माना माता है ।
८--यदि अपने कुलका कोई देशातरमें मरण करे और १२ दिन पहले खबर सुने तो शेष दिनोंका ही सूतक मानना चाहिये । यदि १२ दिन पूर्ण हो गये हों तो स्नानमात्र सूतक जानो 1 ६ - गौ, भैंस, घोडी आदि पशु अपने घरमें जनै तो एक दिनफा सूतक और घरके बाहर जनै तो सुतक नहीं होता । दासी सद् तथा पुत्रीके घरमें प्रसूति होय तो एक दिन, मरण हो तो तीन दिनका सूतक होता है। यदि घरसे बाहर हो तो सुतक नहीं । जो कोई अपनेको अग्नि आदिकमें जलाकर वा विष, शस्त्रादिले मात्महत्या करै तो छह महीनेतकका सुतक होता है । इली प्रकार और भी विचार है सो आदिपुराणसे जानना ।
1
१० - बच्चा हुये बाद भैसका दूध १५ दिन तक, गायका दूध १० दिन तक, वकरीका ८ दिन तक अभक्ष्य ( अशुद्ध ) होता है देशभेदले सूतक विधानमें कुछ न्यूनाधिक भी होता है परन्तु की पद्धति मिलाकर ही सूतक मानना चाहिये । समाप्त
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* श्री जिनाय नम *
णमोकार मन्त्र __णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सवसाहणं ॥ १ ॥
दर्शन पाठ दर्शनं देव देवस्य, दर्शनं पापनाशनं ।
___दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षलाधनं ॥ दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन च ।
न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम् ॥ वीतरागमुखं दृष्ट्वा , पद्मरागसमप्रभ ।
अनेक जन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति॥ दर्शनं जिन सूर्यस्य, संसारध्वान्तनाशनं ।
वोधनं चित्तपास्य, समस्तार्थप्रकाशनं ॥ दर्शनं जिन चन्द्रस्य, सद्धर्मामृतवर्षणं ।।
जन्मदाहविनाशाय, वर्धनं सुखवारिधेः॥
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जीवादितत्वप्रतिपादकाय. लल्यक्त्वसुख्याष्टगुणार्णवाय । प्रशान्तरूपाय दिगम्बराय. देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ चिदानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने ।
परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः ॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! ॥ नहि त्राता नहि त्राता नहि त्राता जगत्त्रये ।
वीतरागात्परो देवो. न भूतो न भविष्यति ॥ जिनेभक्तिर्जिनेभक्तिजिनेभक्तिदिनेदिने ।
सदामेऽस्तु लदामेऽस्तु लदासेऽस्तु भवे-भवे ।। जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भवचक्रवर्त्यपि ।
स्थाच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि. जिनधर्मानुवासितः ॥ जन्मजन्मकृतपापं जन्सकोटिसिरर्जितं ।
जन्ममृत्युजरारोगं हन्यते जिनदर्शनात् ॥ अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य,
देव । त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक प्रतिभाषते मे,
संसारवारिधिरयं चुलकप्रमाणम् ॥
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पाठ संद
भाषा दर्शन पाठ
प्रभु पतितपावन में अपावन, चरण आयो शरणजी । यो विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरणजी ॥ तुम ना पिछान्यो आन मान्यो, देव विविध प्रकारजी । या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रमगिन्यो हितकारजी ॥ सव विकट वनमें करम वेरी, ज्ञान धन मेरो हो । तव इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फियो || धन घड़ीयो धन दिवसयो ही, धन जनम मेरो भयो । अव भाग मेरो उदय आयो, दरश प्रभुको लख लयो || छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासापै घरें । वसुप्रातिहार्य अनन्त गुण जुत, कोटि रवि छविको हरें ॥ मिट गयो तिमिर-मिध्यात मेरो, उदय रवि आतम भयो । सो उर हरप ऐसो भयो, मनु रक चिंतामणि लयो । ाथ जोड़ नवाय मस्तक, वीनऊँ तुव चरणजी ।
८ त्रिलोकपति जिन, सुनहु तारण तरणजी ॥ वहीं सुरवास पुनि, नर राज परिजन साथजी । जाच तुव भक्ति भव-भव, दीजिये शिवनाथजी ॥
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पंच मंगल ( अभिषेक ) पाठ
पर्णाविवि पञ्च परमगुरु गुरु जिन शासनो । सकलसिद्धिदातार सु विधनविनाशनो ॥ शारद अरु गुरु गौतम सुमति प्रकाशनो | मङ्गल कर चउ-संग्रहि पापपणासनो ॥ १ ॥ पापहिपणासन गुणहि गरुवा, दोष अष्टादश रहिउ । धरिध्यान करमविनाश केवल ज्ञान अविचल जिन लहिउ । प्रभु पञ्च कल्याणक विराजित, सकल सुर नर ध्यावहीं। त्रैलोकनाथ सु देव जिनवर जगत मङ्गल गावहीं ॥ १ ॥ १- - गर्भ कल्याणक
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जाके गर्भ कल्याणक धनपति आइयो । अवधिज्ञान — परवान सु इन्द्र पठाइयो | रचि नत्र बारह जोजन, नयरि सुहावनी । कनकरयणमणिमण्डित, मन्दिर अति बनी ॥ २ ॥
अति बनी पौरि पगारि परिखा, सुवन उपवन सोहये । नर-नारि सुन्दर चतुर भेष सु देख जनमन मोहये ॥ तहं जनकगृह छ मास प्रथमहिं, रतनधारा बरसियो । पुनि रुचिकवासिनि जननि-सेवा करहि सब विधि हरषियो ॥ २ ॥ कुञ्जर धवल धुरन्धरो ।
सुर कुअर सम केहरि - केशरशोभित, नख शिख सुन्दरो ॥
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चैन पूजा पाठ सग्रह
कमलाकलश-न्हवन, दुइ दाम सुहावनी। रविशशि मण्डल मधर, मीन जुग पावनी ॥३॥ पावनि कनक घट जुगमपूरण कमलकलित सरोवरो। कल्लोलमाला कुलित सागर सिहपोठ मनोहरो॥ रमणीक अमर विमान फणपति-भुवन रविछवि धाजहीं। रुचि रतनराशि दिपन्त रहन सु तेजपुश्च विराजहीं ॥३॥ ये सखि सोलह सुपने सूती शयनहीं। देखे माय मनोहर, पश्चिम रयनहीं। उठि प्रभात पिय पूछियो, अवधि प्रकाशियो। त्रिभुवनपति सुत होसी, फल तिहं भासियो ॥४॥ भासियो फल तिहि चिन्ति दम्पति, परम आनन्दित भये। छ मास परि नव मास पुनि तह रैन दिन सुखसों गये ।। गर्भावतार महन्त महिमा. सुनत सब सुख पावहीं । भणि 'रूपचन्द' सुदेव जिनवर जगत माल गावहीं ॥ ४ ॥
२-जन्स कल्याणक मतिश्रुत अवधि विराजित, जिन जब जनमियो। तिहुँ लोक भयो छोभित, सुरगन भरमियो। 'कल्पवासि-घर घण्ट, अनाहद वज्जियो। ज्योतिष घर हरिनाद, सहज गल गज्जियो ॥५॥
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जैन पूजा पाठ मप्रह
गजियो सहजहि सख भावन, भवन शब्द सुहावने । विन्तरनिलय पटु पटह वाजहि, कहत महिमा क्यों बने ।। कम्पित सुरासन अवधिबल, जिन-जनम निहचे जानियो । धनराज तब गजराज मायामयी निरमय आनियो ।। ५ । जोजन लाख गयन्द, बदन सौ निरमये। वदन वदन वसुदन्त, दन्त सर संठये ।। सर-सरसौ पनवीस, कमलिनी छाजहीं। कमलिनि-कमलिनि,कमलपच्चीसविराजहीं॥६॥ राजही कमलिनी कमल ठोतर सौ मनोहर दल बने। दल दलहिं अपछर नटहिं नवरस. हाव भाव सुहावने ।। मणि कनक किकणि वर विचित्र सु अमरमण्डप सोहये। धन घण्ट चंवर धुजा पताका, देखि त्रिभुवन मोहये ।। ६ ।। तिहिं करि हरि चदि आयउसुर परिवारियो। पुरहि प्रदच्छिण दे त्रय, जिन जयकारियो॥ गुप्त जाय जिन-जननिहि, सुरवनिद्रा रची। मायामयि शिशु राखितो, जिन आन्यो सची॥ आन्यो सची जिनरूप निरखत, नयन तृपति न हूजिये । तब परम हरषित हृदय हरि ने, सहस लोचन कीजिये ।। पुनि करि प्रणाम जु प्रथम इन्द्र, उधप धरि प्रभु लीनऊ । ईशान इन्द्र सु चन्द्र धवि, शिर छन प्रभु के दीनऊ 1912 सनतकुमार माहेन्द्र चमर दुई ढारहीं। शेष शक जयकार, शबद उच्चारहीं।
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जैन पूजा पाठ मह
उच्छवसहित चतुरविधि, सुर हरषित भये । जोजन सहस निन्यानवे, गगन उलंघि गये ॥८॥ लधि गये सुरगिरि जहा पाण्डुक, वन विचित्र विराजहीं । पाण्डुक - शिला तह अर्द्धचन्द्र समान, मणि छवि छाजहीं ॥ जोजन पचास विशाल दुगुणायाम, वसु ऊँचों गनी । वर अष्ट- मङ्गल कनक कलशनि, सिंहपीठ सुहावनी ॥ ८ ॥ रचि मणिमण्डप शोभित, मध्य सिंहासनो । थाप्यो पूरव-मुख तह, प्रभु कमलासनो ॥ बाजहिं ताल मृदङ्ग, वेणु वीणा घने । दुन्दुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जुवाजने ॥६॥ बाजने वाजहिं शची सव मिलि, धवल मङ्गल गावही । पुनि करहिं नृत्य सुराङ्गना सब, देव कौतुक घावहीं ॥ भरि क्षीर-सागर जल जु हाथहिं, हाथ सुरगिरि ल्यावहीं। सोधर्म अरु ईशान इन्द्र सु कलश ले प्रभु न्हावहीं ॥ ९ ॥ वदन उदर अवगाह, कलशगत जानिये । एक चार वसु योजन, मान प्रमानिये ॥ सहस - अठोतर कलशा, प्रभु के शिर ढरै । पुनि श्रृङ्गार प्रमुख, आचार सबै करै ॥१०॥
र
1
करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छव, आनि पुनि मातहिं दयो । धनपतिहि सेवा राखि सुरपति, आप सुरलोकहिं गयो । जनमाभिषेक महन्त महिमा, सुनल सब सुख पावहीं। मणि 'रूपचन्द्र' सुदेव जिनवर, जगत मङ्गल गावहीं ॥१०॥
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तीरार्णवस्य पयसा शुचिभिः प्रवाहः
प्रक्षालितं सुरवरैर्यदनेकवारम् । अत्युद्घमुद्यतमहं जिनपादपीठं
प्रक्षालयामि भव-संभव-तापहारि ॥५॥ ।
[इति पठित्वा पीठप्रक्षालनम् ] श्रीशारदा-सुमुख-निर्गत-बीजवर्ण
श्रीमङ्गलीक-वर-सर्वजनस्य नित्यम् । श्रीमत्स्वयं क्षयति तस्य विनाशविनं
श्रीकार-वर्ण-लिखितं जिन-भद्रपीठे (१)॥६॥
[इति पठित्वा पीठे श्रीकारलेखनम् ] इन्द्रामि-दण्डधर-नैऋत-पाशपाणि
वायूत्तरेश-शशिमौलि-फणीन्द्र-चन्द्राः । आगत्य य॒यमिह सानुचराः सचिह्नाः
स्वं स्वं प्रतीच्छत वलि जिलपाभिषेके ॥७॥ पुरोलिखितान्मन्त्रानुच्चार्य क्रमशो दशदिक्पालकेभ्योऽय॑समर्पणम् ] १ ॐ आं को ही इन्द्र आगच्छ आगच्छ इन्द्राय स्वाहा । २ ॐ आं को ही अमे आगच्छ आगच्छ अग्नये स्वाहा । ३ ॐ आं क्रौं ही यम आगच्छ आगच्छ यमाय स्वाहा । ४ ॐआं क्रौं ही नैऋत आगच्छ आगच्छ नेऋताय स्वाहा। ५ ॐआं को ह्रीं वरुण आगच्छ आगच्छ वरुणाय स्वाहा । ६ ॐ आं क्रौं ही पवन आगच्छ आगच्छ पवनाय स्वाहा ।
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जेन पूजा पाठ सप्रह
७ ॐ आं क्रीं ह्रीं कुवेर आगच्छ आगच्छ कुबेराय स्वाहा । ___ ८ ॐआं क्रौंहीं ऐशान आगच्छ आगच्छ ऐशानाय स्वाहा।
है ॐआं क्रौं ही धरणीन्द्र आगच्छ आ० धरणीन्द्राय स्वाहा।। १० ॐ आं क्रौं ही सोम आगच्छ आगच्छ सोमाय स्वाहा ।
इति टिक्पालमन्त्रा. दध्युज्ज्वलाक्षत-मनोहर-पुष्प-दीपः
पात्रार्पितं प्रतिदिनं महतादरेण । त्रैलोक्य-मङ्गल सुखालय-कामदाह
मारार्तिकं तव विभोरवतारयामि ॥ [पात्रापितैर्दधितण्डुलपुष्पदीपैर्जिनत्यारार्तिकावतरणम् ]
यं पाण्डुकामल-शिलागतमादिदेव
मस्नापयन्सुरवराः सुरशैलमूर्ध्नि । कल्याणमीप्सुरहमनत-तोय-पुष्पैः
संभावयामि पुर एव तदीय-विम्बम् ॥ [जलाक्षतपुष्पाणि निक्षिप्य श्रीवर्णे प्रतिमास्थापनम् ] सत्पल्लवार्चित-मुखान्कलधौतरौप्य
ताम्रारकूट-घटितान्पयसा सुपूर्णान् । संवाह्यतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान् ।
संस्थापयामि कलशाञ्जिनवेदिकान्ते ॥१०॥ आम्रादिपल्लवशोभितमुखाश्चतु कलशान् पीठचतुःकोणेषु स्थापयेत् ।
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आभिः पुण्याभिरद्भिः परिमल-बहुलेनामुना चन्दनेन श्रीपयरमीभिः शुचि-सदकचयैरुद्दमैरेभिरुधैः । होरेभिनिवेद्यैर्मख-भवनमिमैर्दीपयद्धिः प्रदीपैः धूपैः प्रायोभिरेभिः पृथुभिरपि फलैरेभिरीशं यजामि ॥११॥ [ही त्रीपरमदेवाय नीअईत्परमेष्टिनेऽर्थ निर्वपामीति स्वाहा ।] दृगवनम्र-सुरनाथ-किरीट-कोटी
संलग्न रत्न-किरण-च्छवि-धूसराधिम् । प्रस्वेद-ताप-मल-मुक्तमपि प्रकटै
भक्त्या जलैर्जिनपति बहुधाऽभिपिञ्चे ॥१२॥ [*ही श्रीमन्तं भगवन्तं कृपालसन्तं वृपभादिमहावीरपर्यन्तचतुर्विशतितीर्थक्षरपरमदेवं आधानां आये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे · .. नाम्नि नगरे मासानामुत्तमे मासे ... ."मासे ... पक्षे .. शुभदिने मुन्यार्यिका-श्रावकश्राविकाणां मकलकर्मक्षयार्थ जलेनाभिषिञ्चे नम ।] [इति पठित्वा जिनस्य जलाभिषेक कृत्वा उदकचन्दनेति लोकं
पठित्वा अध्यं समर्पयेत् ] उत्कृष्ट-वर्ण-नव-हेम-रसाभिगम
देह-प्रभा-वलय-संगम-लुप्त-दीप्तिम् । धागं घृतस्य शुभ-गन्ध-गुणानुमेयां
वन्देऽहतां मुरभि-संस्नपनोपयुक्ताम् ॥१३॥ [ॐ ह्रौं श्रीमन्तं भगवन्त इत्यादिमन्त्रं पठित्वा घृतेनाभिषिञ्चे
इति पठित्वा घृताभिपेकं कुर्यात् । ]
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जैन पूजा पाठ समह
संपूर्ण - शारद - शशाङ्क - मरीचि - जालस्यन्दैरिवात्मयशसामिव सुप्रवाहैः ।
चीरैर्जिनाः शुचितरैरभिषिच्यमानाः संपादयन्तु मम चिर- समीहितानि ||१४||
[ उपरितन मन्त्र पठित्वा जलेनासि पिचे इत्यस्मिन्स्थाने तीरेणाभिपिल्वे इत्युच्चार्य.क्षीराभिषेक कुर्यात् । ] दुग्धान्धि-वीचि - पयसाचित-फेनराशिपाण्डुत्व - कान्तिमवधीरयतामतीव । दध्नां गता जिनपतेः प्रतिमा सुधारा
संपद्यतां सपदि वाञ्छित - सिद्धये नः ॥१५॥ [ उपरितन मन्त्र पठित्वा जलेनाभिपिचे इत्यस्मिन्स्थाने दध्नाभिपि इति पठित्वा दध्यभिषेक कुर्यात् । ] भक्त्या ललाट-तटदेश-निवेशितोच्चै
र्हस्तैश्च्युता सुरवरासुर-मर्त्यनाथैः । तत्काल-पीलित- महेक्षु-रसस्य धारा
सद्यः पुनातु जिन- विम्व गतैव युष्मान् ॥ १६॥ [ उपरितन मन्त्र पठित्वा जलेनाभिपि इत्यस्मिन्स्थाने इक्षुरसेनाभिपि इति पठित्वा इक्षुरसाभिषेक कुर्यात् । ] संस्नापितस्य धृत-दुग्ध-दधीक्षुवा है:
सर्वाभिरौपधिभिरर्हत उज्ज्वलाभिः ।'
उद्वर्तितस्य विदधाम्यभिषेकमेला
कालेय-कुंकुम-रसोत्कट-वारि- पूरैः ।। १७।।
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मन पूजा पाठ सप्रह
[उपरितनमन्त्रमुच्चार्य जलेनाभिषिञ्चे इत्यस्मिन्स्थाने सौषधिभि
रभिपिरचे इति पठित्वा सवौषधिभिरभिषेकं कुर्यात् । ] द्रव्यैरनल्प-धनसार-चतुःसमाये
रामोद-वासित-समस्त-दिगन्तरालैः । मिश्रीकृतेन पयसा जिनपुङ गवानां
त्रैलोक्य-पावनमहं स्नपनं करोमि ॥१८॥ [जलेनाभिषिञ्चे इति स्थाने सुगन्धजलेनेति पठित्वा स्नपन कुर्यात् ] इष्टैमनोरथ-शतैरिव भव्यपुंसां
पूर्णैः सुवर्ण-कलशैनिखिलैर्वसानैः । संसार-सागर-विलंघन-हेतु-सेतु.
___माप्लावये त्रिभुवनैकपतिं जिनेन्द्रम् ।।१६।।'
[ उपरितनमन्त्रेणैव समस्तकलशैरभिषेक कुर्यात् ] मुक्ति-श्री-वनिता-करोदकमिदं पुण्याङ्कुरोत्पादक
नागेन्द्र-त्रिदशेन्द्र-चक्र-पदवी-राज्याभिषेकोदकम् । सम्यग्ज्ञान-चरित्र-दर्शनलता-संवृद्धि-संपादकं कीर्ति-श्री-जय-साधकं तव जिन स्नानस्य गन्धोदकम् ॥२०॥
[ग्लोकमिमं पठित्वा गन्धोदक गृह्णीयात् ] इति श्रीलम्वमिपेकविधि समाप्त ।
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जन पूजा पाठ मप्रद
विनय पाठ दोहावली इह विधि ठाडो होयके, प्रथम पढ़े जो पाठ । धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशे कर्म जु आठ ॥ १ ॥ अनन्त चतुष्टयके धनी, तुम ही हो सिरताज । मुक्ति वधूके कन्त तुस, तीन मुक्त के राज ॥ २ ॥ तिहूँ जगकी पीड़ा हरण, भवदधि शोषणहार । ज्ञायक हो तुम विश्वके, शिव सुखके करतार ॥ ३ ॥ हरता अघ अधियार के, करता धर्म प्रकाश । थिरतापद दातार हो, धरता निजगुण राश ॥ ४ ॥ धर्मात उर जलधिसों, ज्ञानभानु तुम रूप । तुमरे चरण सरोज को, नावत तिहुँजग सूप ॥ ५ ॥ में वन्दौं जिनदेव को, कर अति निर्मल भाव ।। कर्मबन्ध के छेदले, और न कछु उपाय ॥ ६ ॥ भविजनकों भवकूपत, तुमही काढनहार । दीनदयाल अनाथपति, आतम गुण भण्डार ॥ ७॥ चिदानन्द निर्मल कियो, धोय कर्मरज मैल । सरल करी या जगत में, भविजनको शिवगैल ॥ ८ ॥
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तुम पदपराज पूजत, विन्त रोग टर जाय । शन मित्रता को धर. विष निरविपता थाय॥६॥ चक्री खगधर उन्द्र पद. मिले आपत आप । अनुकम ने शिवपद लहें, नेम सकलहनि पाप ॥१०॥ तुम बिन में व्याकुल भयो, जसे जल विन मीन । जन्म जरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ॥११॥ पतिन बहुत पावन किये, गिनती कॉन करेव । अमन से तारे प्रम, जय जय जय जिनदेव ॥१२॥ थकी नाय भवदधि विष, तुम प्रभु पार करेव । स्वबटिया तुम हो प्रभु, जय जय जय जिनदेव ॥१३॥ रागसहित जगमें रुल्यो, मिले सरागी देव । वीतगग भेट्यो अब, मेटो राग कुटेव ॥१४॥ कित निगोद कित नारकी, किन तिर्यश्च अज्ञान । आज धन्य मानुप भयो, पायो जिनवर थान ॥१५॥ नुमको पूजे सुरपति, अहिपति नरपति देव । धन्य भाग्य मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव ॥१६॥ अगरणके तुम शरण हो, निराधार आधार । में इवत भवसिन्धु में, खेय लगाओ पार ॥१७॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान । अपनो विरद निहारिक, कीजै आप समान ॥१८॥ तुमरी लेक सुदृष्टित, जग उतरत है पार । हाहा इत्यो जात हों, लेक निहार निकार ॥१६॥ जो में कहहूँ औरसों, तो न सिटै उरझार ।
लेरी तो तोलों बनी, तातें करों पुकार ॥२०॥ __ वन्दौं पांचो परमगुरु, सुर गुरु वन्दत जास। विधन हरण लाल करण, पूरण परम प्रकाश ॥२१॥ चौवीसों जिनपद लमों, नमों शारदा माय । शिवमग साधक लाधु नलि, रच्यो पाट सुखदाय ॥२२॥
पुप्पावलि दिपेत् । श्री शान्तिनाथ स्तुति
मत्तगयन्द ( सवैया ) शांतिजिनेश जयौ जगतेश, हरै अघताप निशेशकी नाई। सेवत पाय सुरासुरराय, नमै शिरनाय महीतलताई ॥ मौलि लगे मनिनील दिपे, प्रभुके चरणों झलके वह झांई। सूचन पाय-सरोज-सुगन्धिकिधौ चलि ये अलिपङ्कति आई ॥
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पूजा प्रारम्भ ॐ जय जय जय । नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु । णमो अरिहन्ताणं. णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवमायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं ॥ १ ॥
यो नम (Sri Rom) चत्तारि महलं-अरिहन्ता महलं, सिद्धा मगलं, साह महल केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारिलोगुत्तमा-अरिहन्तालोगुत्तमा,सिहालोगुत्तमा, साइलोगुत्तमा, केलिपण्णनो धम्मोलोगुत्तमा। पत्तारिसरणं पजामि-अरिहन्ते सरणं पपज्जामि, सिले सरणं परजामि, साहसरणं पवज्जामि । केलिपपणत्तं धम्म सरणं पवजामि।। नमोऽहतेस्वाहा
समागी SIP पेर। अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्यायेत्वंचनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १ ॥ अपवित्रः पवित्रो का सपोवस्थां गतोऽपि वा।। यः स्मरेत्परमात्मानं स वायाभ्यन्तरे शुचिः ॥ २ ॥ अपराजित मन्त्रोऽयं सर्वविघ्न विनाशनः । रंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ॥ ३ ॥ एसो पञ्च गमोयारो सव्वपावप्पणासणो।
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जैन पूजा पाठ सग्रह
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मंगलाणं च सव्वेसिं पढस होइ मंगलं ॥ ४ ॥ अहमित्यक्षरं ब्रह्मवाचक परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य लद्वीजं सर्वतः प्रणमाम्यहं ॥ ५ ॥ कर्माष्टकविनिर्मक्तं मोक्षलक्ष्मीनिकेतनं । सम्यक्त्वादिगुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहं ॥ ६ ॥ विघ्नौधाः प्रलयं यान्ति शाकिनी-भूत-पन्नगाः। विषो निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥७॥
इत्याशीर्वाद पुष्पाजलि क्षिपेत ।
पंच कल्याणक अर्थ उदकचन्दनतन्दुल पुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूप फलार्धकः । धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृह जिलनाथमहं यजे ॥ ॐ ही भगवान के गर्भजन्मतपज्ञाननिर्वाण पञ्च कल्याणकेभ्यो अर्घ्य निर्वामीति स्वाहा ।
पंच परमेष्ठी का अर्घ उदकचन्दनतन्दुल पुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूरा फलार्यः । धवलसंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिन इष्टमहं सजे ॥ ॐ ही श्री अरहन्ससिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाश ।
सहसनाम का अर्थ उदकचन्दनतन्दुल पुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूप फलालैः । धवलसंगलगानरवाकुले जिनगृह जिननास अहं पझे।
ॐ ही श्री भगपजिनसहस्रनामेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
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स्वस्ति मंगल
श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवन्द्य जगत्त्रयेशं, स्याद्वादनायकमनन्तचतुष्टयाहं । श्रीमूलसंघ सुदृशां सुकृतेक हेतुजे नेन्द्रयज्ञ विधिरेष मयाऽभ्यधायि ॥१॥ स्वस्तित्रिलोकगुरवे जिन पुंगवाय. स्वस्ति स्वभावमहिमोदय सुस्थिताय । स्वस्ति प्रकाशसह जोज्जितहमवाय, स्वस्ति प्रसन्नललिताद्भुतवैभवाय ||२|| सम्युच्छल ढिमलबोधसुधाप्लवाय, स्वस्ति स्वभावपरभाव विभालकाय । स्वस्ति त्रिलोकविततेकचिदुदुगमाय, स्वस्ति त्रिकालसकलायत विस्तृताय ॥३॥ द्रव्यन्य शुद्धिमधिगस्य यथानुरूपं, भावस्य शुद्धिअधिकाधिगन्तुकामः । आलम्वनानि विविधान्यचलंव्यवल्गन्, भृतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञं ॥१॥ अर्हत्पुराण पुरुषोत्तमपावनानि वस्तून्यनूननखिलान्यवमेक एव । अस्मिन् ज्वल हिमलकेवलवो वहीं, पुण्यं समग्रमहकना जुहोमि ॥ ५ ॥
ॐ तनायन परिपुप्पल क्षिपेत ।
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जैन पूजा पाठ सग्रह
श्रीवृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअजितः । श्री सम्भवः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअभिनन्दनः ॥ श्रीसुमतिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीपद्मप्रभः । श्रीसुपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीचन्द्रप्रभः ॥ श्रीपुष्पदन्तः स्वस्ति, स्वस्ति श्रोशीतल : श्रीश्रेयांसः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवासुपूज्यः ॥
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श्रीविमलः स्वस्ति, स्वस्ति
श्रीअनन्तः ।
श्रीधर्मः स्वस्ति, स्वस्ति
श्रीशान्तिः ॥
श्री कुन्थुः स्वस्ति, स्वस्ति
श्रोअरहनाथः ।
श्रीमुनिसुव्रतः ॥
श्रीमलिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीनमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीनेमिनाथः । । श्रीपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवर्द्धमानः ॥
इति जिनेन्द्र रवस्तिमङ्गलविधानम् । ( पुष्पाजलि क्षेपण )
नित्याप्रकं पाद्भुतकेवलौघाः स्फुरन्मनःपर्ययशुद्धबोधाः । दिव्यावधिज्ञानबलप्रबोधाः स्वस्तिक्रियासुः परमर्षयोनः ॥
यहा से प्रत्येक श्लोक के अन्त में पुष्पाजलि क्षेपण करना चाहिये ।
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कोष्ठस्थधान्योपममेकवीजं सम्भिन्नसंश्रोतृपदानुसारि । चतुर्विधं बुद्धिवलं दधानाः स्वस्ति कियासुः परमर्पयोनः॥ संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादनघ्राणविलोकनानि । दिव्यान्मतिज्ञानवलाद्वहन्तःस्वस्तिक्रियासुःपरसर्पयो नः॥ प्रज्ञाप्रधानाः श्रमणासमृद्धाः प्रत्येकबुद्धा दशसर्वपूर्वैः । प्रवादिनोऽष्टांगनिमित्तविज्ञाःस्वस्ति क्रियासु.परमर्षयोन। जबावलिश्रेणिफलांबुतन्तु प्रसूनवीजांकुरचारणाहाः । नमोऽङ्गणस्वरविहारिणश्च स्वस्तिक्रियासुःपरमर्पयो नः॥ अणिम्निदक्षाःकुशलामहिम्निलघिम्निशक्ता कृतिनोगरिम्णि मनोवपुर्वाग्बलिनश्च नित्यं,स्वस्ति क्रियासुःपरमर्पयो नः॥ सकामरूपित्ववशित्वमेश्यं प्राकाम्य मन्तद्धिमथाप्तिमाताः। तथाऽप्रतीघातगुणप्रधानाःस्वस्ति क्रियासुः परमर्पयो नः॥ दीप्तं च तप्तं च तथा महोन घोरतपो घोरपराक्रमस्थाः। ब्रह्मापरंघोरगुणाश्चरन्तःस्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः॥ आमर्प सर्वोपधयस्तथाशीविपं विपादृष्टि विषविषाश्च । सखिल्ल विड्जल्लमलापधीशाः स्वस्ति क्रियासुःपरमर्षयो नः क्षीरंस्त्रवन्तोऽत्र घृतं सवन्तो मधुस्रवन्तोऽप्यमृतस्रवन्तः। अक्षोणसंवासमहानसाश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः।।
इति स्यस्ति माल विधान ।
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जैन पूजा पाठ सग्रह
देव-शास्त्र-गुरु पूजा भाषा
अडिल्ल छन्द । प्रथम देव अरहन्त सुश्रुत सिद्धान्त जू। गुरु निरयन्ध महन्त सुकतिपुरपंथ जू । तीन रतन जग माहि लो ये भवि ध्याइये ।
तिनकी भक्तिप्रसाद परमपद पाइये ॥ दोहा-पूजों पद अरहन्त के, पूजों गुरुपद सार !
पूजों देवी सरस्वती, नितप्रति अष्ट प्रकार ।। ॐ हीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र अवतर अवतर सवौपट आह्वानन । - ही देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
गीता छन्द। सुरपति उरगनरनाथ तिनकर, बंदनीक सुपदप्रसा। अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल,देखिछवि मोहित लभा ।। वर नीर क्षीरलमुद्रघट भरि अग्र तसु बहुविधि नवं । अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ लित पूजा रचूं ।। दोहा-मलिन्न वस्तु हरलेत सब, जल स्वभाव मलछीन
जास पूजों परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ॐही देषशास्त्रगुरुसमूह जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
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तेन पूजा पाठ समद
जे त्रिजग उदर मंकार प्राणी तपत अतिदुद्धर खरे । तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ॥ तसु भ्रमर लोभित घ्राणपावन सरसचंदन घसि सचूँ । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ दोहा - चन्दन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन । जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन |॥२॥
२३
ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्यो समाधिनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि टई । अति दृढ़ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही ॥ उज्जल अखंडित सालि तंदुल पुञ्ज धरि त्रयगुण जचूँ । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु- निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥ दोहा - तंदुल सालि सुगन्ध अति, परम अखंडित वीन । जासों पूजौं परमपद देवशास्त्र गुरु तीन ॥३॥
ॐ ही देवास्त्रगुरुभ्योऽयपदप्रीतये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
जे विनयवंत सुभव्य - उर- अम्बुजप्रकाशन भांन हैं । जे एक मुख चारित्र भापत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं ॥ लहि कुंदकमलादिक पहुप, भव भव कुवेदनसों बचूँ । अरहन्त श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रखूँ ।"
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जन पूजा पाठ सप्रह
दोहा-विविध भाँति परिमलसुसन, भ्रमर जाल आधीन ।
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन !!!! ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्य. कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ अति सबल सदकंदर्प जाको क्षुधा-उरग असाल है। दुल्लह सयानक तासु नाशनको सुगरुडलमान है। उत्तम छहों रसयुक्त नित, नैवेद्य करि घृतमें प→ । अरहन्त श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रयूँ ॥ दोहा - नानाविधि संयुक्तरस, व्यञ्जन सरस नवील ।
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु ती ॥५॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्य क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५॥ जे त्रिजग-उद्यम नाश कीने, मोह-तिसिर सहावली । तिहि कर्मघाती ज्ञानदीपप्रकाशजोति प्रभावली ॥ इह साँति दीप प्रजाल कंचन के सुभाजनमें खचूँ । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ । दोहा- स्वपर प्रकाशक जोति अति,दीपक तसकर हील ।
जालों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥६॥ *ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६॥
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जेन पूजा पाठ सग्रह
जो कर्म-इंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै । वर धूप तासु सुगन्धताकरि, सकलपरिमलता हँसै ॥ इह भॉति धूप चढ़ाय नित भव-ज्वलनमांहि नहीं पचूँ। अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।। दोहा-अग्निमांहिं परिमलदहन, चंदनादि गुणलीन :
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन । ७॥ ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ लोचन सुरसना धान उर उत्साह के करतार हैं। मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फलगुणसार हैं। सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सधैं । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।। दोहा-जे प्रधान फल फलविर्षे पंचकरण रस लीन ।
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥८॥ ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ। वर धूप निरमल फल विविध, बहुजनमके पातक हरूँ । इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिव-पंकति मयूँ । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा र→ ।।
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जैन पूजा पाठ सग्रह
दोहा-वसुविधि अर्घ संजोयकै, अति उछाह मन कीन।
__ जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥६॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घपदप्राप्तये अचं निपार्माति स्वाहा ॥ ९ ॥
जयमाला, दोहा देव शास्त्र गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुणविस्तार ।
पद्धरी छन्द। चउ कर्मसु त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोपराशि । जे परम सुगुण हैं अनन्त धीर, कहवतके छयालिस गुण गंभीर ॥ शुभ समवशरण शोभा अपार, शतइन्द्र नमत कर शीस धार । देवाधिदेव अरहंत देव, बन्दों मन वच तन करि सु सेव ॥ जिनकी ध्वनि है ओंकाररूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप । दश-अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक मुचत ॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गंथे बारह सुअंग। रवि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय ॥ गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रतनत्रयनिवि अगाध । संसार-देह वैराग धार, निरवांछि तपै शिवपद निहार ।। गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस, भवतारन तरन जिहाज ईश। गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरु नाम जपों मन वचन काय ॥
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सोरठा - की शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा धरे । 'द्यानत' सरधावान, अजर अमरपद भोगवे || हीना।
दोहा - श्री जिनके परसाद तें, सुखी रहें सब जीव यातें तन मन वचन तें, सेवो भव्य सदीव ॥
इयानी क्षिपेत् ।
श्रीपार्श्वनाथ स्तुति छप्पय ( सिहावलोकन )
जनम - जलधि - जलजान जान जनहंस - मान सर । सरव इन्द्र मिलि आन, आन जिस धरहिं शीसपर || चान, परउपकारी चान उत्थपर कृनय गन । घनसरोजवर भान, भान मम मोह तिमिर धनवरन देह दुख दाह हर, हरसत हेरि मयूर मनमथ - मतङ्ग हरि पासजिन जिन विसर छिन जगत
घन ॥
-
,
-
मन ।
जन ॥
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२८
जैन पूजा पाठ सग्रह
श्री देव शास्त्र गुरु, विदेह क्षेत्र विद्यमान दौस तीर्थकर तथा
अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी पूजा
IT
दोहा—देवशास्त्र गुरु नमनकरि, बीस तीर्थङ्कर ध्याय ।
सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमूं चित्त हुलसाय ॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरु समूह । श्री विद्यमान विंशति तीर्थकर समूह । श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठि समूह । अत्रावतरावतर सवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अत्र मम सत्रिहितो भव भव वषट् सत्रिधीकरणम् ।
अष्टक __ चाल-करले-करले तू नित प्राणी श्री जिन पूजन करले रे । अनादिकाल से जग मे स्वामिन् जलसे शुचिता को माना। शुद्धनिजातम सम्यक रत्नत्रयनिधि को नहि पहिचाना ॥ अब निर्मल रत्नत्रय जल ले देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।
ॐ ह्री श्रीदवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठि-यो, जन्ममृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ।। २ ।। भव आताप मिटावन की निज मे ही क्षमता समता है। अनजाने अबतक मैंने पर में की झूठी ममता है। चन्दन सम शीतलता पाने श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री वीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥
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ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिम्यो, ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामोति स्वाहा ॥ २ ॥ अक्षय पदके बिना फिरा जगत की लख चौरासी योनि में । अष्ट कर्म के नाश करन को अक्षत तुम ढिग लाया मैं ॥ अक्षयनिधि निज की पाने अब देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊं ॥
___ॐ ही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अक्षयपद प्राप्तये पक्षतान् निर्वपामोति स्वाहा ॥ ३ ॥
पुष्प सुगन्धी से आतम ने शील स्वभाव नशाया है। __ मन्मथ वाणों से विध करके चहुँ गति दुःख उपजाया है ।।
स्थिरता निजमे पाने को श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥
ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठि-यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ।। ४ ।। षट्रस मिश्रित भोजन से ये भूख न मेरी शान्त हुई। आतम रस अनुपम चखने से इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई । सर्वथा भख के मेटन को श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
___ॐ ही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमैष्ठिभ्यो, क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
जड दीप विनश्वर को अबतक समझा था मैंने उजियारा । निज गुण दरशायक ज्ञान दीपसे मिटा मोह का अंधियारा ॥ ये दीप समर्पित करके मै श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ । _ ॐ ही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामोति स्वाहा ॥ ६ ॥ ये धूप अनल मे खेने से कर्मों को नहीं जलायेगी। निज मे निज की शक्ती ज्वाला जो राग द्वेष नशायेगी । उस शक्ति दहन प्रगटानेको श्री देव शास्त्र गुरुको ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ।। __ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करम्य , श्री अनन्तानन्त 'सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ।। ७ ।। पिस्ता बदाम श्री फल लवग चरणन तुम दिग मै ले आया। प्रातमरस भीने निजगुण फल मम मन अब उनमे ललचाया ।। अब मोक्ष महा फल पानेको श्री देव शास्त्र गुरुको ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ।
ॐ ही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामोति स्वाहा ।। ८ ।।
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अष्टम वसुधा पाने को कर में ये आठों द्रव्य लिये। सहज शुद्ध स्वाभाविकतासे निजमे निज गुण प्रकट किये। ये अर्घ समर्पण करके मैं श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥
शेदवावगुरुभ्यः, श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्यः, श्री अनन्तानन्त लिदियो, मनपदमाये मयं निर्वपामोति स्वाहा ॥ ६ ॥
जयमाला नसे घातिया कर्म अर्हन्त देवा, करें सुर असुर नर मुनि नित्य सेवा । दरगनान मुख बल अनन्तके स्वामी, छियालीस गुण युक्त महा ईश नामी। तेरी दिव्य वाणो सदा भव्य मानी, महा मोह विध्वसिनी मोक्ष दानी। अनेकान्तमय हादशांगी वखानी, नमो लोक माता श्री जेन वाणी ॥ विरागो अचारज उवज्झाय साधू , दरश ज्ञान भण्डार समता अराधू। नगन वेपधारी नुएका विहारी, निजानन्द मंडित मुकति पथ प्रचारी।। विदह क्षेत्र में तोवर वीस राजे, विहरमान बन्दु सभी पाप भाजें। नम सिह निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी।
छन्द देव शास्त्र गुरु बीस तीर्थकर सिद्ध हृदय बिच धरले रे। पूजन ध्यान गाल गुण कर के भवसागर जिय तरले रे ॥
ॐही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य , श्री विद्यमान विंशति तीर्थकरेभ्य , श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेटिभ्यो अनघंपदप्राप्तये अचं निर्वपापोति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ मग्रह
मत भविष्यत् वर्तमान की, तीस चौबीसी मैं ध्याऊ । चैत्य चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम, तीन लोक के मन लाऊँ। ॐ ही त्रिकाल सम्बन्धी तीस चौबीसी त्रिलोक सम्बन्ची कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालयेभ्यो अधु० चैत्य भक्ति आलोचना चाहूँ कायोत्सर्ग अघनाशन हेत । कृतिमाकृत्रिम तीन लोक मे राजत है जिनबिम्ब अनेक ॥, चतुर निकाय के देव जजें ले अष्ट द्रव्य निज भक्ति समेत । निज शक्ति अनुसार जजं मैं कर समाधि पाऊँ शिव खेत ।।
पुष्पाजलि क्षिपेत् । पूर्व मध्य अपराह्न की वेला पूर्वाचार्यों के अनुसार । देव बन्दना करूं भाव से सकल कर्म की नाशन हार ।। पश्च महा गुरु समिरन करके कायोत्सर्ग करू सुख कार। सहज स्वभाव शुद्ध लख, अपना जाऊगा अब मै भव पार ॥
( कायोत्सर्ग पूर्वक ह बार णमोकार मन्त्र जपें) शोडष कारण भावना भाऊ, दशलक्षण हिरदय धारू। सम्यक रत्नत्रय गहि करके अष्ट कर्म बन को जासू॥ ____ ही षोडश कारण भावना दशलक्षण धर्म सम्यक् रत्नत्रयेभ्यो अर्घ० । श्री कैलाशपुरी पावा चम्पा गिरिनार सम्मेद जजू । तीरथ सिद्ध क्षेत्र अतिशय श्री चौबीसों जिनराज भज ।।
ॐ ही श्रोचतुविशति तीर्थकरेभ्य तथा सिद्धक्षेत्रातिशयक्षेत्रेभ्यो अघ० ।।
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पूजा पास
१३
देव-शास्त्र-गुरु-पूजा युगलकिशोर जन 'गुगर' विरचित .'
* स्थापना * केवल रवि-किरणोसे जिसका सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर। उस श्री जिनवाणी में होता. तत्वों का सुन्दरतम दर्शन ॥ सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण। उनदेव.परमआगमगुरुको शत-शतवन्दन शत-शतवंदन ॥
इन्द्रिय के भोग नधुर विष सन.लावण्यमयी कञ्चन काया। यह सब कुछ जड़की क्रीड़ा है, में अब तक जान नहीं पाया। में भूल स्वयं के वैभव को, पर ममता में अटकाया हूं। अब निर्मल सम्यक-नीर लिये,सिध्या मल धोने आया है। Pranी - E
A T : HTin Erum जड़ चननकी सब परिणति प्रभु ! अपने अपनेमें होती है। अनुकल कहें प्रतिकृल कहै. यह झूठी मन को वृत्ति है ।। प्रतिकृल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है। सन्तप्त हृदय प्रभु! चंदन सम, शीतलता पाने आया है। ॐार गार यो
माननाय गन्दन निपामानि याहा ॥ २॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
उज्ज्वल हूं कुन्द धवल हूँ प्रभु! पर सेन लगा हूं किंचित्भी। फिर भी अनुकूल लगे उनपर, करता अभियान निरंतर ही॥ जड़ पर झुक झुक जाता चेतन, की मार्दवकी खंडित काया। निजशाश्वतअक्षत-निधिपाने, अबदासचरणरजमें आया।
ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निजअन्तरका प्रभु!भेद कहूं, उसमें ऋजुताकालेश नहीं॥ चिंतन कुछ, फिर सम्भाषणकुछ वृत्ति कुछ की कुछ होती है। स्थिरता निज में प्रभु पाऊंजो, अन्तर का कालुषधोतीहै।। ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्य, कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ अबतक अगणित जड़ द्रव्योंसे,प्रभु!भूख न मेरी शांत हुई। तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही। युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूं। पंचेन्द्रिय मन के षट्-रस तज, अनुपम रस पीने आया हूं।
ॐ ही देष शानगुरुभ्य क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ जग के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा। झंझा के एक झकोरे में जो बनता घोर तिमिर कारा॥ अतएव प्रभो यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूं। तेरी अन्तर लौ, से निज अन्तर, दीप जलाने आया हूँ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ जड़ कर्म घुमाता है मुझको यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी । मैं रागीद्वेषी हो लेता, जव परिणति होती है जड़ की। यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ। निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया।
ही देवगावगुरुभ्योऽष्टर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है। में आकुलव्याकुल होलेता, व्याकुलका फल व्याकुलता है। में शान्त निराकल चेतन है, है सक्तिरमा सहचर मेरी। यह मोह तड़प कर टूट पड़े,प्रभुसार्थक फल पूजा तेरी ॥ ॐ हीं देवगान्त्रमुग्भ्यो मोक्ष फलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ क्षण भर निजरसको पी चेतन,मिथ्या सलको धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनंद अमृत पीता है। अनुपम सुख तव विलसित होता,केवल रवि जगमग करता है दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, येही अर्हन्त अवस्था है। यह अर्घ समर्पण करके प्रभ, निजगनका अर्घ बनाऊंगा। और निश्चित तेरे सदृशप्रभु! अर्हन्त अवस्था पाऊंगा * ही देवगावरुभ्योऽनयपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९॥
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जैन पूजा पाठ मप्रह
जयमाला भववनमें जीभर घूलचुका, कण-कणको जीभर-भर देखा। सृग-लम-मृग-तृष्णाके पीछे,सुझको न मिली सुखको रेखा॥ रुठे जम के सपने सारे, झूठी मत की लब आशाये। तन-जीवन-यौवन अस्थिर है, क्षण भंगुर पल में मुरझाए । सम्राट महावल सेनाली, उस क्षण को टाल सकेगा क्या ? अशरण मृत कायाने हर्षित, निज जीवन डाल सकेगाक्या ।। संसार महा दुख लागरके प्रसु दुख मय सुख-आमालों में। सुझकोल लिला सुख क्षणभर भी,कंचनकामिनि-प्रासादोंल।। में एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते । तन धन को साथी ललना था, पर ये भी छोड़ चले जाते॥ मेरे न हुये थे मैं इनसे, अति भिन्न अखंड निराला हूँ। निज में पर ले अन्यत्व लिये, निज लम रल पीनेवाला हूँ॥ 'जिलके शृंगारों में लेरा, यह महंगा जीवन घुल जाता।
अत्यन्त अशुदि जड़ कायाले, इस चेतल का कैसा नाता॥ दिन रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता। मानव वाणी और काया से, आस्त्रब का द्वार खुला रहता। शुभ और अशुल की ज्वाला ले, झुलसा है मेरा अन्तःस्थल ।
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जन पूजा पाठ सप्रह
शीतल सपकित किरणें फूटें, संवर से जागे अन्तर्बल ॥ फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़े, सर्वाङ्ग निजाम प्रदेशों से, अमृत के लिभर फूट पड़ें।
हल छोड़ चलें यह लोक तसी,लौकान्त विराजे क्षण में जा। .. निज लोक हसारा वासाहो, शोकांत बने फिर हमको क्या।
जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो, दुर्नय तम सत्वर टल जावे। बस ज्ञाता दृष्टा रह जाऊं, सद-लत्सर-मोह विनश जावे ॥ चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी॥ चरणों में आया हूँ प्रभुवर! शीतलता मुझको मिल जावे। मुकोई ज्ञान-लता मेरी, निज अन्तर्वल से खिल जावे ।। सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला। परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला। तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा। अबतक ही समझ न पायाप्रभु! सच्चे सुखकी भी परिभाषा॥ तुम तो अधिकारी हो प्रभुवर ! जग में रहते जग से न्यारे; अतएव झुके तव चरणों में, जगके माणिक मोती सारे॥ स्याद्वाद मयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने झरते हैं। .
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जैन पूजा पाठ संग्रह
उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं। हे गुरुवर ! शाश्वत सुख-दर्शक यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है, जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करने वाला है। जब जग विषयोंमें रच पचकर, गाफिल निद्रामें सोता हो। अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विष-कंटक बोता हो। हो अर्द्ध निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों। 'तब शान्त निराकुल मानस, तत्वों का चिन्तन करते हों। करते तपशैल नदी तट पर, तरु तल वर्षा की झड़ियों में। समता रसपान किया करते, सुख-दुख दोनों की घड़ियोंमें। अन्तर ज्वाला हरती वाणी, मानों झड़ती हों फुलझड़ियाँ। भवबन्धन तड़-तड़ टूट पड़े, खिल जावें अन्तर की कलियाँ। तुमसादानी क्या कोई हो, जगको दे दी जगकी निधियाँ ॥ दिन रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियाँ। हे निर्मल देव ! तुम्हें प्रणाम, हेज्ञान दीप आगम ! प्रणाम ! हेशान्ति त्यागके मूर्तिमान,शिव पथ-पंथी गुरुवर ! प्रणाम। ॐ ही देवशास्त्रगुरुन्योऽनर्धपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ संप्रह
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बौस तीर्थंकर पुजा-भाषा दीप अढ़ाई मेरु पन, अब तीर्थंकर बीस । तिन सबकी पूजा करूँ, मन वच तन धरि शीस ॥ ॐ ही विद्यमानविंशतितीर्थकरा ! अत्र अवतर अवतर सौषट् आह्वाननम् । ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थकरा ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ ठ स्थापन ।
हों विद्यमानविंशतितीर्थकरा. ! अन मम सन्निहितो भवतभवत वषट् सन्निधिकरणम् । इन्द्र-फणींद्र-नरेन्द्र-वंद्य, पद निर्मल धारी। शोभनीक संसार, सारगुण हैं अविकारी ॥ क्षोरोदधि सम नीरसों (हो), पूजौं तृषा निवार । सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मंझार ॥ श्रीजिनराज हो, भवतारण तरण जिहाज ॥१॥ ॐहीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल० ॥ १॥ तीन लोकके जीव, पाप आताप सताये। तिनकों साता दाता, शीतल वचन सुहाये ॥ बावन चंदन लौं जजू (हो) भ्रमन तपन निरवार ॥ती. ॐ हीं विद्यमानविंशतितीयंकरेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन० ॥ २ ॥ यह संसार अपार महासागर जिनस्वामी। ताते तारे बड़ी भक्ति-नौका जगनाली ॥ तंदुल अमल सुगंधसों (हो) पूजों तुम गुणसार ॥ सी० ॐहीं विद्यमानविंशतितीर्थ करेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्० ॥ ३ ॥
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बैन पूजा पाठ संग्रह
भविक-सरोज-विकाश. निंद्य-तमहर रविले हो। जति-श्रावक आचार, कथनको, तुम ही बड़े हो । फूल-सुवाल अनेकसों (हो) पूजो मदन प्रहार ॥ सी० ॐ ही विद्यमानविशतितीर्थ करेभ्य कामवाणविध्वय पुष्प ० ॥ ४॥ काम-नाग विषधाल. नाशको गरुड़ कहे हो।। क्षुधा महादवबाल. तासुको सेघ लहे हो। नेवज बहु धृत लिष्टसों (हो) पूजों सूखविडार ॥ सी० ॐ ही विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्य क्षुधारोगविनागनाय नैवेब० ॥ ५ ॥ उद्यम होन न देत सर्व जगमांहि भयो है। मोह-महातम घोर, नाश परकाश करयो है। पूजों दीप प्रकाशसों (हो) ज्ञानज्योति करतार ।। सी० ॐ ही विद्यमानविंशतितीर्थ करेन्च, मोहान्धकारविनामनाय दीप० ॥६॥ कर्म आठ सब काठ, भार विस्तार निहारा । ध्यान अगनिकर प्रकट, सरव कीनों निरवारा ॥ धूप अनूपम खेवतै (हो) दुःख जलै निरधार ॥ सी० ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूप० ॥ ७ ॥ मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे है। सबको छिनमें जीत जैनके मेरु खड़े हैं। फल अति उत्तमलों जजों (हो) वांछितफलदातार ॥सी० के ही विद्यमानविंशतितीर्थ करेभ्यो मोक्षफल प्राप्तचे फलं० ॥८॥
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जेन पूजा पाठ मद
जल फल आठों दर्द, अरघ कर प्रीति धरी है । गणधर इन्द्रनहृतें, धुति पूरी न करी है ॥ 'थानत' सेवक जानके (हो) जगतैं लेहु निकार || सी०
॥
विद्यमानर्विनितीर्थं परे न्योऽनपदप्राप्तचे अपे० ।। ९ ।
४१
जयमाला
सोरठा - ज्ञान-सुधा-कर चंद, भविक खेतहित मेघ हो । भ्रम-तम भान अमंद, तीर्थकर वीसों नम ॥ चौपाई १६ मात्रा |
मोमंधर सीमंधर स्वामी, जुगमन्धर जुगमन्धर नामी । बाहुबाहु जिन जगजन तारे, करम सुबाहु बाहुबल दारे ।। १ ।। जान सुजातं केवलज्ञान, स्वयंप्रभू प्रभु स्वय प्रधानं ।
पमानन ऋषभानन टोप, अनन्त चीरज वीरज कोपं ॥ २ ॥ सांगेप्रभ सौरीगुणमालं, मुगुण विशाल विशाल दयालं । वज्रधार व गिरिवज्जर है, चन्द्रानन चन्द्रानन वर हैं ॥ ३ ॥ भद्रबाहु भद्रनिके करता, श्री भुजंग भुजंगम भरता । ईश्वर सबके ईश्वर छाजें, नेमिप्रभु जस नेमि विराजै ॥ ४ ॥ वोग्सेन वीरं जगजाने, महाभद्र महाभद्र चखाने ।
नमो जमोधर जमधरकारी, नमो अजितवीरज चलधारी ॥ ५ ॥ धनुष पांचसं काय विराजे, आयु कोडि पूरब सब छाजै । समवशरण शोभित जिनराजा, भवजल तारन तरन जहाजा ॥ ६ ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
सम्यक रन-त्रयनिधि दानी, लोकालोक प्रकाशकन्नानी।। शतइन्द्रनिकरि वंदित सोह, सुरनर पशु सबके मन मोहैं ।। ७ ।। दोहा-तुमको पूजै वंदना, करै धन्य नर सोय ।
___ 'धानत' सरधा सन धरै सो भी धरमी होय ।। ही विद्यमानविंशतितीभ्यो नहा निर्वगानिस्वाहा।
विद्यमान बीस तीर्थंकरोंका अर्घ उदकचंदनतंदुलपुष्पक श्चरसुदीपसुधूपफलार्घकः। धवलमङ्गलगानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे॥
ॐ ही श्रीसीमघर-युग्नघर-बाहुवाहु-जात-स्वयंन ऋष्मानन - नन्त-सूर्यम विशाललीदिवञ्चर चन्द्रानन वामपन-दर-नेनिस्वीरगनहाना- देवरगोजितवीति विगतिविद्यमानतीयरेन्योऽध निर्वपानीति स्वाहा ।
अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्घ कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्यनिलयान् नित्यं त्रिलोकीगतान । वंदे भावन-व्यंतरान् युतिवरान् स्वर्गामरावालगान् । सदगन्धाक्षत - पुष्प - दाम - चस्कैः सदीपधूपैः फलैद्रव्यैीरसुखैर्यजालि सततं दुष्कर्मणांशांतये ॥ १ ॥
सवैया सात किरोड़ बहत्तर लाख पताल विष जिन मन्दिर जानो। सध्यहि लोकमें चारसौ ठावन, व्यंतर ज्योतिष के अधिशालो ।।
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फेन पूजा पाठ साह
लाख चौरासी हजार सत्यान तेइस ऊरध लोक बखानो। एकेकमें प्रतिमा शत आठ नमौं तिहु जोग त्रिकाल सयानो। *ली कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयसय धिजिननिम्मे योऽध निर्यपामीति रवाहा।
वपु वन्तर-पर्वतेषु । नन्दीश्वरे यानि च मन्दरेषु । यावति चंत्यायतनानि लोके सर्वाणि वंदे जिन पुगवानां ॥२॥ अवनि-तल-- गतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां चन-भवन-गतानां दिव्य-वैमानिकानां I इह मनुज-कृतानां देवराजार्चितानां । जिनवर-निलयानां भावतोऽहं स्मरामि ॥ ३ ॥ जंबू-धातकि-पुष्करार्ध-वसुधा-क्षेत्र-त्रये ये भवाश्चन्द्रांभोज-शिखंडिकण्ठ-कनक प्रावृड्घनाभाजिनाः ।। सम्यग्ज्ञान-चरित्रलक्षण-धरा दग्धाष्टकमन्धनाः | भूतानागत-वर्तमानसमये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥ ४ ॥ श्रीमन्मेरौ कुलाद्रौ रजतगिरि वरे गाल्मली जंववृक्ष। वक्षारे चत्यवृक्षे रतिकर-रुचिके कुण्डले मानुपांके । इप्वाकारेचनाद्रौ दधिमुख-शिखरे व्यंतरे स्वर्गलोके ज्योतिर्लोकेऽभिवंदे भवन-महितले यानि चैत्यालयानि ॥ ५॥ दौ कंद-तुपार-हार-धवलौ द्वाविंद्रनील-प्रभी द्वौ वंधक-समप्रमौ जिनवृषौ द्वौ च प्रियंगुप्रभो। शेपाः षोड़श जन्म-मृत्यु-रहिताः संतप्त-हेमप्रभा-स्ते संज्ञान-दिवाकराः सुर-नुताः सिद्धि प्रयच्छंतु नः ।।६।।
ही त्रिलोकसवधि पृल्याकृत्रिमत्यालयेभ्योऽर्घ निर्वपामीति स्वाहा । इच्छामि-भंताचेइयभक्ति-काउसग्गो कओ तस्सालोचे । अहलोय-तिरियलोय-उड्ढलोयस्मि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिणचेइयाणि ताणि सम्बाणि, तीसु वि लोएसु भवणवासिय
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जैन पूजा पाठ मग्रह
चाणवितरजोइसियकप्पवासियत्ति चउविहा देवाः सपरिवारा दिवेणगंधेण दिवेण पुफ्फेण दिन्वेण धन्वेण दिन्वेण चण्णेण दिवेण वासेण दिवःण हाणेण णिच्चकालं अच्चंति पुज्जंति वंदंति णमस्संति । अहमवि इह सन्तो तत्थसंताइ णिच्चकालं अच्चेमि पुज्जेमि चन्दामि णमस्सामि। दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगहगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ती होउ मज्झं ।। अथ पौलिक-माध्याहिक-आपराज्ञिक देववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावंदनास्तवससेतं श्रीपंचमहागुरुभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।
___इत्याशीर्वाद पुष्पाजलि क्षिपेत् । ताक कायं पावकम्पं दुचरियं वोस्लरामि । णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णलो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं । ( यहाँ पर नौ बार णमोकार मत्र जपना चाहिये )
आत्मशक्ति . जो कुछ है सो आत्मा में, यदि वहा नहीं तो कहीं नहीं। - आत्मा अनन्त ज्ञान का पात्र है और अनन्त सुख का धारी है
परन्तु हम अपनी अज्ञानतावश दुर्दशा के पात्र बन रहे हैं। - आत्मा ही आत्मा का गुरू है और आत्मा ही उसका शत्रु है । - अन्तरग की बलवता हो श्रेयोमार्ग की जननी है।
-'वर्णी वाणी' से
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जन पूजा पाठ सप्रह
मुक्ताफल की उनहार, अक्षत धोय धरे। अक्षय पद प्रापति जान, पुण्य भण्डार भरे ।। जग में सु पदारथ सार, ते सब दरसावै ।
सो सम्यग्दर्शन सार, यह गुण मन भावै ॥ ३॥ के हो णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठि-यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥
सुन्दर सु गुलाब अनूप, फूल अनेक कहे । श्री सिद्धन पूजत भूप, बहुविधि पुण्य लहे ।। तहां वीर्य अनन्तो सार, यह गुण मनमानो।
ससार समुद्रतै पार, तारक प्रभु जानो ॥ ४ ॥ ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्धपरमैष्ठि-यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वामीति स्वाहा ॥४॥
फेनी गोजा पकवान, मोदक सरस बने। पूजौ श्री सिद्ध महान्, भूखविथा जु हने ॥ झलके सब एकहिवार, ज्ञेय कहे जितने ।
यह सूक्षमता गुरण सार, सिद्धन के सु तने ॥ ५॥ __ही णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठि-यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥
दीपक को ज्योति जगाय, सिद्धन को पूजो । करि आरति सनमुख जाय, निरमल पद हूजो ।। कुछ घाटि न वाढि प्रमाण, अगुरुलघु गुरण राख्यो ।
हम शोस नवावत प्राय, तुम गुरण मुख भाखो ॥६॥ ॐ ही गमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठि-यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप निर्वपामोति स्वाहा ॥६,
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दूर हट
वरधूप सु दर्शविधि ल्याय, दश विधि गन्ध धरै । वसु कर्म ज्लावत जाय, मानो नृत्य
करे ॥
पब
पावै ।
इक सिद्ध में सिद्ध अनन्त सदा यह अवगाहन गुरू सन्त, सिन
गावै ॥ ७ ॥
मिस्व ॥ ७
पूजौ ।
दूज |
भई ।
चीन, शिव सुन्दरी सु लई ॥ ८ ॥
मायाति स्व ॥ ८ ॥
के
1
को
नहिं
ले फल उत्कृष्ट महान सिद्ध लटि मोक्ष परम गुरा धाम, प्रभुसम यह गुण वाधाकरि होन, बाधा नाश सुख अव्यावाध
YU
जल फल भर कञ्चन थाल, परच कर जोरी। प्रभु सुनियो दीनदयाल, विनती है मोरी ॥ कामादिक दुष्ट महान इनको दूर करो। तुम सिद्धसदा सुवदान, भव भव दुःख हरी ॥ ६ ॥
शमीति स्था । ६ ॥
जयमा दr
नमीं सिद्ध परमात्मा अद्भुत परम रसाल । तिन गुण महिमा अगम है, सरस रची जयमाल ।
परि छन् ।
जय जय श्री सिद्धन के प्रणाम, जय शिव मुख सागर के सुधान जब बलि बलि जात सुरेश जान, जय पूजत तन मन हर्प ठान ॥
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जन पूजा पाठ मप्रह
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जय क्षायिक गुण सम्यक्त्व लीन, जय केवलज्ञान सुगुण नवीन । जय लोकालग प्रकाशवान, यह केवल अतिशय हिये जान ॥ जय सर्व तत्व दरसे महान, सो दर्शन गुण तोजो महान । जय वोर्य अनन्तो है अपार, जाकी पटतर दूजो न सार ।। जय सूक्षमता गुण हिये धार, सव ज्ञेय लत्यो एकहि सुवार । इक सिद्ध मे सिद्ध अनन्त जान, अपनी-अपनी सत्ता प्रमाण ।। अवगाहन गुण अतिशय विशाल, तिनके पद बन्दे नमित भाल । कछु घाटि न बाधि बहे प्रमाण, गुण अगुरु लघु धारै महान ।। जय वाघा रहित विराजमान, सो अव्यावाध कह्यो बखान । ये वसुगुण है व्यवहार सन्त, निश्चय जिनवर भाषे अनन्त ।। सब सिद्धान के गुण कहे गाय, इ. गुणकरि शोभित है जिनाय । तिनको भविजन मनवचन काय, पूजत वसु विधि अति हर्ष लाय ।। सुरपति फणपति की महान, दलि हरि प्रतिहरि मनमथ सुजान । गणपति मुनिति मिल घरत ध्यान, जय सिद्ध निरोगति नग धान ॥
सोरा।। ऐसे सिद्ध महान. तुम गुण नहिमा अगम है। वरण को बखान, तुच्छ बुद्धि भवि लाला ॥ ॐ ही रणमा सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो महाघ निर्वपापीति स्वाहा ।
दोहा। करता की यह उिनती, सुनो सिद्ध भगवान । मोहि बुलाओ आप ढिग, यही अरज उर आन ॥
इत्याशीर्वाद ।
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मन पूरा पा BET
सिद्ध पूजा ऊध्वाधारयुतं सचिंद सपरं नामस्वरावेष्टितं वगापूरित-दिग्गतांबज-दलं नलंधि-तत्वान्वितं । अन्तःपत्र - तटेवनाहतयुतं हीकार - संवेष्टितं
देवं पायति यःम मुक्ति-सुभगो वर्गभ-कंठीरवः । *
: writi !! T T मा । हाशिवरात्रि ! RTE : । होनाrd : फिर निगो र मय यम ।
निरस्त कर्म-संघ, बुक्ष्म निन्यं निरामयम् । वन्देऽहं परमात्मानममूर्तमनुपद्रवम् ॥१॥
(पिम म्यापनम् )
द्रव्याप्टक। सिदा निवानमनुगं परमात्मगम्य हान्यादि-भाव-रहितं भव-धीत-कार्य। रेवापगा-बर-सरी-यमुनादयानां, नीरजकलगगबर-सिद्ध-चक्र ॥१॥ ही मारिन पिप निरागमनागनाय जल। आनंद-मंद-जनकं घन-कम-मुक्त, सम्यक्त्व-शर्म-गरिमंजननाति-धीत। सौरम्प-वामित-भुवं हरि-चंदनानां, गंधर्यज परिमलबर-सिद्धचकम् ॥२॥
ही सिसकाभिपतये मिक्षपग्मेटिने समारतापधिनागनाय नन्दनम् ।। मर्वारगाहन-गुणं सुसमाधि-निप्टं, सिद्ध स्वरूप-निपुणं कमलं विशालं। मौगंध्य-शालि-बनशालि-बराक्षतानां,पंजर्यज शशिनिभवरसिद्धचक्रम्॥३
मिस्माधिनिये मिस्परमेष्टिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षनान् ।
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५०
जैन पूजा पाठ सप्रह
नित्य स्वदेह-परिमाणमनादिसंज्ञं, द्रव्यानपेक्षप्रमृतं मरणाबतीतम् । मन्दारकुन्दकमलादिवनस्पतीनां, पुष्पैर्यजे शुभतमैत्ररसिद्धचक्रम् ॥४॥ ॐ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामवाणविध्वसनाय पुप्प० । ऊर्ध्वस्वभावगमनं सुमनोव्यपेतं । ब्रह्मादिवीजसहित गगनावभासम् ।। क्षीरान्नसाज्यवटकै रसपूर्णगर्भेनित्यं यजे चरुवरैर्वर सिद्धचक्रम् ॥५॥ ॐ हीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य । आतंक-शोक-भय-रोग-मद-प्रशांतं -निर्द्व भावधरणं महिलानिदेशं । करिवर्तिबहुभिः कनकावदातैदींपैर्यजे रुचिवरैरसिद्धचक्रम् ।।६।। ॐ ही सिद्धचकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीप । पश्यन्समस्तभुवनं युगपन्नितांतं । त्रैकाल्यवस्तुविषये निविड़-प्रदीपम् । सव्यगंधधनसारविमिश्रितानां । धूपैर्यजे परिमलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥७॥ ॐ हीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिनेऽष्टकर्मदहनाय धूप०। सिद्धासुराधिपतियक्षनरेंद्रचक्र ध्येयं शिवं सकलभन्यजनैः सुवंद्य । नारगिपूंगकदलीफलनारिकेलैः सोऽहं यजे वरफलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥८॥ ॐ हीं सिद्धचकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फल । गन्धाब्यं सुपयो मधुव्रतगणैः संगं वरं चन्दनं ।
पुष्पौषं विमलं सदक्षतचयं रम्यं चरुं दीपकं ।। धूपं गंधयुतं ददासि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये ।
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोचरं वांछितं ॥ ॐ हीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिनेऽर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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चन पूजा पाठ सग्रह
ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं । सूक्ष्मस्वभावपरमं यदनंतवीर्य । कर्मांधकक्षदहनं मुखशस्यवीजं । वन्दे सदा निरुपमं वरसिद्धचक्रम् ॥१०॥
फर्माप्टर विनिमुक्तं मोहलक्ष्मी-निकेतनम् ।
सम्यक्त्यादि-गुणोपेत सिसचा नमाम्यहम् ॥ ही निशनकाधिपतये मिलपरमेष्टिने मापं नियंपामोति स्वाहा । त्रैलोक्येश्वर-वन्दनीय-चरणाः प्रापुः श्रियं शाश्वती
यानाराध्य निरुद्ध-चण्ड-मनसः संतोऽपि तीर्थकराः। मत्सम्यक्त्व-वियोध-वीर्य-विशदाऽच्यावाधताय गणयुक्तां स्तानिह तोप्टवीमि सतत सिद्धान्धिशुद्धोदयान।
पुष्पांजलिं क्षिपेत ।
जयमाला। विराग मनातन शांतनिरंश निरामय निर्भय निर्मल हंस । सुघाम वियोध-निधान विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥१॥ विदरित-समृति-भाव निरंग, समामृत पूरित देव विसंग । अवध कपाय-विहीन विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥२॥ निवारित दुष्कृत कर्म विपाश, सदामल-केवल-केलि-निवास । भवोटधिपारग शांत विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ॥३॥ अनन्तसुखामृतसागर धीर, कलंकरजोमलभूरिसमीर । विसंडितकाम विराम विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥४॥ विकार विवर्जित तर्जित शोक, विवोध सुनेत्रविलोकित लोक । विहार विराव विरग विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥॥ रजोमलखंदविमुक्त विगात्र, निरन्तर नित्य सुखामृतपात्र । मुदर्शनराजित नाथ विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥६॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
नरामरवंदित निर्मल भाव, अनन्तमुनीश्वरपूज्य विहाव | सदोदय विश्वमहेश विमोह, प्रसीद, विशुद्ध सुसिद्धसमूह ||७|| चिदंभ वितृष्ण विदोष विनिद्र, परापर शंकरसार वितिंद्र | विकोप विरूप विशंक विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ||८|| जरामरणोज्झित वीतविहार विचितित निर्मल निरहंकार । अचित्यचरित्र विदर्प विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥६॥ विवर्ण विगंध विमान विलोभ, विमाच विकाय विशब्द विशोभ । अनाकुल केवल सर्व विमोह, प्रसीद विशुद्ध, सुसिद्धसमूह ||१०|| घत्ता - असमयसमयसारं चारुचैतन्यचिन्हं,
परपरणतिमुक्तं पद्मनंदीन्द्रवंद्यं ।
५२
निखिल गुणनिकेतं सिद्धचक्रं विशुद्ध,
स्मरति नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्ति ॥ ॐ ह्रीं सिद्धचकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
अडिल छन्द ।
अविनाशी अविकार परमरसधाम हो ।
समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो ।
शुद्धबुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हो ।
जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो || १ ॥ 8 ध्यान अगनिकर कर्म कलंक सबै दहे,
नित्य निरञ्जनदेव सरूपी है रहे ।
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जन पूजा पाठ सप्रह
ज्ञायकके आकार ममत्व निवारिक,
सो परमातम सिद्ध नमूं शिरनायकै ॥२॥
सवैया ध्यान हुताशनमें अरि ईधन झोंक दियो रिपु रोक निवारी। शोक हस्यो भविलोकनको वर केवलज्ञान मयूख उघारी॥ लोक अलोक विलोक भये शिव जन्म जरामृत पडू पखारी। सिद्धन थोक बस शिव लोक तिन्हें पग धोक त्रिकाल हमारी॥. तीरथ नाथ प्रनाम करें तिनके गुण वर्णन मैं बुधि हारी। मोम गयो गलि मूसमझार रखो तहं व्योम तदाकृति धारी॥ लोक गहीर नदीपति नीर गये तरि वीर भये अविकारी । सिद्धन थोक वसे शिव लोक तिन्हें पगधोक त्रिकाल हमारी॥ दोहा- अविचलज्ञान प्रकाशते, गुण अनन्तकी खान ।
ध्यान धरै सो पाइये, परमसिद्ध भगवान ॥ अविनाशी आनन्दमय, गुण पूरण भगवान । शक्ति हिये परमात्मा, सकल पदारथ ज्ञान ।। चारों करम विनाशिके, उपज्यो केवल ज्ञान । इन्द्र आय स्तुति करी, पहुंचे शिवपुर थान॥
इत्याशीर्वाद पुप्पांजलिं क्षिपेत् ।
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इ
जेन पूजा पाठ सप्रह
सिद्ध पूजा का भावाष्टक
निजमनोमणिभाजनभारया, समरसैकसुधारसधारया |
सकल वोधकलारमणीयकं सहजसिद्धमहं परिपूजये ॥ मोय तृषा दुःख देत, सो तुमने जीती प्रभू । जलसे पूजूं मैं तोय, मेरो रोग निवारियो ॥
ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने ( सम्पत्त, णाग दसण वीर्यत्व, सुहमत अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अन्यावाघत्व अष्टगुण सहिताय ) जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ।
सहजकर्म कलंकविनाशनै रमलभावसुवासितचन्दनैः ।
अनुपमान गुणावलिनायकं सहजसिद्धमह परिपूजये ॥
,
इन अव आतप मांहिं, तुम न्यारे संसारसूं । कीज्यो शीतल छांह, चन्दन से पूजा करूं ॥ चन्दनं ॥ सहजभावसुनिर्मलतंदुलैः सकल दोपविशालविशोधनैः ।
अनुपरोध सुबोध विधानकं, सहजसिद्धमह परिपूजये ॥
हम अवगुण समुदाय, तुम अक्षय गुणके भरे । पूजूं अक्षत लाय, दोष नाश गुण कीजिये ॥ अक्षतं ॥ समयसार सुपुष्पसुमालया, सहजकर्मकरेण विशोधया ।
परमयोगवलेन वशीकृतं, सहज सिद्धमहं परिपूजये ॥
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जैन
पूजा पाठ समह
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काम अनि है मोहि, निश्चय शील स्वभाव तुम । फूल चढ़ाऊँ तोहि, मेरो रोग निवारियो । पुष्पं० ॥ अकृतबोधसुदिव्यनैवेद्यकैर्विदितजातिजरामरणांतकैः ।
निरवधिप्रचुरात्मगुणालय, सहजसिद्ध मह परिपूजये ॥
मोहि क्षुधा दुख भूरि ध्यान खड्ग करि तुम हती | मेरी वाधा चूर, नेवज से पूजा करूं ॥ नैवेद्यं ● ॥ सहजरत्त्ररुचिप्रतिदीपकैः, रुचिविभूतितमः प्रविनाशनैः ।
निरवधिस्व विकाशप्रकाशनैः, सहजसिद्धमहं परिपूजये ॥ मोह तिमिर हम पास, तुम पै चेतन ज्योति है । पूजों दीप प्रकाश, मेरो तम निरवारियो ॥ दीपं० ॥ निजगुणाक्षयरूपसुधूपनैः, स्वगुणघातिमलप्रविनाशनैः ।
विराटबोधसुदीर्घसुखात्मक, सहजसिद्धमह परिपूजये ॥
अष्टकर्मवन जार, मुक्ति मांहि तुम सुख करो । खेऊँ धूप रसाल, अष्ट कर्म निरवारियो ॥ धूपं० ॥ परमभावफलावलिसम्पदा, सहजभावकुभावविशोधया ।
निजगुणास्फुरणात्मनिरजन, सहजसिद्धमह परिपूजये ॥
अन्तराय दुःख टाल, तुम अनन्त थिरता लही । पूजूं फल दरशाय, विघ्न टाल शिवफल करो ॥ फलं० ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
नेत्रोन्मीलिविकाशभावनिवहैरत्यन्तवोधाय वै।
वार्गधाक्षतपुष्पदामचरुकैः सद्दीपधूपः फलैः ॥ यश्चितामणिशुद्धभावपरमज्ञानात्मकैरर्चयेत् ।
सिद्ध स्वादुमगाधवोधमचल सञ्चर्चयामो वयम् ॥६॥ हममें आठों दोष, जजहं अर्घ ले सिद्धजी।। दीज्यो वसु गुण मोय, कर जोड़े सेवक खड़ो ॥ अर्घ० ॥
तीस चोवीसका अर्घ द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ करमें नवीना है। पूजते पाए छीना है, भालुसल जोर कीना है। दीप अढाई सरल राजै, क्षेत्र दश ता विषै छाजै । सात शत बील जिन राजै, पूजतां पाप सब भाजै ॥ ॐ ही पाच भरत पांच ऐरावत दश क्षेत्रके विर्षे तीस चौवीसीके सातमौ बीस जिन विम्वेभ्योऽर्घ निर्वपार्माति स्वाहा ॥ १ ॥
सोलह कारण का अर्घ जल फल आठों द्रव्य चढ़ाय, द्यानत' बरत करो मनलाय ।
परस गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दरश विद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थकर पद पाय ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो॥१॥
ॐ ही दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलवतेष्वनतीचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, स वेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अरहतभक्ति, भाचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचन वात्सल्य पोहसकारणेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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सन पूजा पाठ पर
पंचमेरु का अघ आट दरवमय अर्घ बनाय. द्यानत पूजों श्रीजिनराय । ___ महा सुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पांचों मेरु असी जिन धाम, सब प्रतिमाको करों प्रणाम।
महासुख होय. देखे नाथ परम सुख होय ॥ पंचमेरो जिन देशालयन्यनिरिबन्यो भए ।
नन्दीश्वरद्वीप का अर्घ यह अरघ कियो निज हेतु तुमको अरपतु हों। द्यानत कीनों शिव खेत भूमि समरपतु हों॥ नन्दीश्वर श्रीजिनधाम घावन पुंज करों। वसु दिन प्रतिमा अभिराम आनन्दभाव धरों ॥३॥ दीधी मन्दीरहीये पूर्ण दक्षिणपश्चिमोत्तर हिसचालग्गिनालयस्थगिनप्रतिमाम्यो भनपदमा निशानीति स्यावा ।
दशलक्षण धर्म का अर्घ आठों द्रव्य संवार, द्यानत अधिक उछाह सों। भव आताप निवार, दशलक्षण पूजों सदा ॥४॥ VE ETE Eमा,माप, भागंप, मस, शौच, सयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य गरपयोग नियंपामोति स्वादा।
रत्नत्रय का अर्थ आठ दरव निरधार, उत्तमसों उत्तम लिये। जन्म रोग निरवार, सम्यकरतनत्रय भजों ॥५॥ ॐदा अष्टांग सम्यग्दर्शनाय भष्टविमसम्परशानाय, प्रयोदराप्रकारसम्पफ चारित्रायऽपं।
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५८
जैन पूजा पाठ समह
पंचमेरू पूजा
तीर्थंकरों के न्हवन - जलतैं, भये तीरथ शर्मदा । तातें प्रदच्छन देत सुरगन, पंचमेरून की सदा ॥ दो जलधि ढाई द्वीपसें, सब गनत मूल विराजहीं । पूजौं असी जिनधाम - प्रतिमा, होहिं सुखदुख भाजहीं ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐ ह्रीं पचमेरुसम्वन्धिजिनचे त्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ह्रीँ पचमेरूसन्धिजिनचैत्यालयस्यजिनप्रतिमासमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । अथाष्टक | चौपाई आंचलीबद्ध ( १५ मात्रा )
शीतलसिष्ट सुवास मिलाय, जलसों पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ यांचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाको करों प्रणाम । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं पचमेरुसम्वन्धिजिनचैत्यालयस्यजिनबिम्बेभ्यो जल निर्वपामीति स्वाहा ॥
जल केशर करपूर मिलाय, गंधसों पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों०॥२॥
ॐ ह्रीं पचमेरुसम्वन्धिजिनचैत्यालयस्थजिन विम्बेस्यो चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ।
अमल अखंड सुगंध सुहाय, अच्छतसौं पूजौं जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों०॥३ ॥
ॐ ह्रीं पंचमेश्सन्वन्तिजिन चैत्यालयस्थाजिनबिम्बेभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
い
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जैन पूजा पाठ सद
५९
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बरन अनेक रहे महकाय, फूलनसौं पूजौं जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों॥४॥ ॐ ही परमेस्सम्वन्धिजिन चैत्यालयस्यजिननिम्नेभ्यो पुप्प निर्वपामीति स्वाहा । मनवांछित बहु तुरत बनाय, चरुसौ पूजौं श्रीजिनराया महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥पांचों ॥५॥ ॐ ही पंचमेश्मन्पन्धिजिनचैत्यालयस्यजिनविम्बेभ्यो नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । तमहर उज्ज्वल ज्योति जगाय,दीपसौ पूजौं श्रीजिनराया महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों० ॥६॥ ॐ ही परमेहसम्यन्धिजिनचत्यालयस्यजिनविम्वेभ्यो दीप निर्दपामीति स्वाहा । खेऊ अगर अमल अधिकाय, धूपलौं पूजौं श्रीजिनराया। महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों० ॥७॥ ॐ ही पचमेरुनम्बन्धिजिनचैन्यालयस्यजिनयिन्येभ्यो धूप निर्वपामीति स्वाहा । सुरस सुवर्ण सुगंध लुभाय, फलसौं पूजौं श्रीजिनराया । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों॥ ॐ ही पचमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यो फल निर्वपामोति म्यादा । आठ दरवमय अरघ बनाय, 'द्यानत' पूजौं श्रीजिनराय। महासुख होय, देख नाथ परमसुख होय॥ पांचों०॥६॥ ॐही पंचमेलम्बन्धिजिनचैत्यालयस्यजिमविम्बेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ संग्रह
प्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मंदर कहा। विद्युन्माली नाम, पंचमेरु जगमें प्रगट ॥१॥
वेसरी छन्द। प्रथम सुदर्शन मेरु विराजे, भद्रशालवन भूपर छाजे चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन बन्दना हमारी ॥२॥ ऊपर पांच शतक पर सोहै, नंदनवन देखत मन मोहै ।। चैत्या०||३|| साढे बासठ सहस ऊंचाई, वनसुमनस शोभ अधिकाई ।। चैत्या०॥४॥ ऊँचा जोजन सहस छत्तीसं, पांडकवन सोहै गिरिसीसं । चैत्या०॥शा चारों मेरु समान बखानो, भूपर भद्रसाल चहुँ जानो। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन चंदना हमारी ॥६॥ ऊंचे पांच शतक पर भाखे, चारों नन्दनवन अभिलाखे। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मनवचतन बदना हमारी ॥७॥ साढे पचपन सहस उतगा, वन सौमनस चार बहुरगा। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ||८|| उच्च अट्ठाइस सहस बताये, पांडुक चारों वन शुभ गाये। चैत्यालय सोलह सूखकारी, मन वच तन बन्दना हमारी ॥६॥ सुर नर चारन वन्दन आवै, सो शोभा हम किह सुख गायें । चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥१०॥ दोहा-पञ्चमेरुकी आरती पढ़े सुनै जो कोय। 'थानत' फल जानें प्रभू, तुरत महासुख होय ॥ ११ ॥ ॐ ही पचमेस्सम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनविम्बेभ्यो अर्ष निर्वपामीति स्वाहा। .
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अन पूना पाठ सर
नन्दीश्वरद्वीप पूजा अडिल्ल-सरव पर्वमें बड़ो अठाई परव है।
नन्दीश्वर सुर जांहिं लिये वसु दरक है। हमें सकति लो नाहि इहां करि थापना । पूर्जा जिन गृह प्रतिमा है हित आपना ॥१॥
श्री नन्दीमा पिलिमिटिगा मर! अन अवतर आतर refrefut I मन पन्निहि वो भव भप गपट् ।
कंचन-मणि-पय-भृतार, तीरथ नीर भरा। तिहुँ धार दई निरवार, जामन मरन जरा ॥ नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, बावन पुंज करों ।
वसुदिन प्रतिमा अभिराम, आनंद-भाव धरों ।। अहोगी नीलाप दिगिरि मोरे विपंचागजिनालयल्पलिन प्रतिमाभ्यो गन्ना अधिनागनाय नपानानि पाहा । ॥ १॥ भव तप हर शीतल वास, लो चन्दन नाहीं। प्रभु यह गुन कीज सांच, आयो तुम ठाहीं ॥ नंदी०॥२॥ Faश्री नन्दीश्वर ही पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाशज्जिनाउयस्यजिनप्रतिमाभ्यो संसारनास्निगलाय चन्दनं निर्यपागीति स्पामा ॥ २ ॥
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जैन पूजा पाठ मह
उत्तम अक्षत जिनराज, पुंज धरे सोहै । सब जीते अक्ष-समाज, तुम सम अरुको है । नंदी० ॥३॥
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ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्योअक्षय पदप्राप्तये अक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
तुम काम विनाशक देव, ध्याऊं फूलन सौं । लहिशील लक्ष्मी एव, छूटूं सूलन सौं ॥ नंदी० ||४||
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाशज्जिनालयस्यजिनप्रतिमाभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
नेवज इन्द्रिय-बलकार, सो तुमने चूरा | चरु तुम ढिग सोहै सार, अवरज है पूरा ॥ नंदी० ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
दीपक की ज्योति प्रकाश, तुम तन मांहिं लसै ।
टूटै करमनकी राश, ज्ञानकणी दरसे || नंदी० ॥६॥
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाराज्जिनालय स्थजिनप्रतिमाभ्यौ मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
कृष्णागरु धूप- सुवास, दश - दिशि नारि वरै । अति हरष-भाव परकाश, मानो नृत्य करें | नंदी० ॥७॥
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाशज्जिनालय स्थजिनप्रतिमाग्यो अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
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जैन पूजा पाठ सह
६
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बहुविधिफल ले तिहुंकाल. आनन्द रावत हैं। तुम शिवफल देहु दयाल,तुहि हम जाचत है।नंदी०॥८॥ ॐ श्री नन्दोपली पूर्णािनिमीत्तरे हिपचागजिनालयस्यजिनप्रतिमाभ्यो गोARTER पर नियंपानीति स्वाहा ॥ ९॥ यह अर्घ कियो निज-हेत, तुमको अरपतु हों। 'धानत' कीजो शिवखेत, भूमि समरपतु हों ॥ नंदी॥६॥ 5. मन्दीपरटीपे मिसिमोन दिवाजिनानयम्यजिनप्रतिमाभ्यो सागर निपानीति
जयमाला, दोहा-कार्तिक फागुन साढ़के, अन्त आठ दिनमाहि ।
नन्दीश्वर मर जात हैं, हम पूज इह ठाहिं ॥१॥
एफ मी प्रेसठ फोडि जोजन महा । लाख चौरासिया एफ पिशमे लहा ।। आठनों डीप नन्दीश्यर भात्यर । भोन यावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ।। चारदिशि चारअनगिरि राजही । माइम चौरासिया एफ दिश छाजही ।। ढोलमम गोल उपर तले सुन्दर । भोन यावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ।। एक टफ चारदिशिचार शुभवावरी । एक इक लार जोजन अमल जल भरी ॥ चहें दिशा चार बन लाख लोजन वर। भौन बावन्न प्रतिमा नमो सुसकर ।। मोल वापीन मधि मोलगिरि दधिमुस । साहस दश महा जोजन लसत ही सुख ।। बावरी कौन टोमांहि दो रतिफर । मौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकर ।। शल बत्तीस एक सहस जोजन कहे। चार सोले मिले सर्व वावन लहे ।। एक इक सीस पर एक जिनमदिर । भौन वावन्न प्रतिमा नमों सुखकर ॥
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जेन पूजा पाठ सप्रह
बिंब अठ एक सौ रतनमयि सोहही। देव देवी सरव नयन मन मोहही ।। पाचसै धनुष तन पद्मआसन परं। भौन वावन्न प्रतिमा नमों सुखकर ।। लालनख मुख नयनश्याम अरु श्वेत हैं । श्याम रंग भोंह सिर केश छवि देत हैं ।। बचन बोलव मनो हसत कालुष हर । भौन बावन्न प्रतिमा नमो सुखकरं ।। कोटिशशिभानुदुति तेज छिप जात है। महावैराग परिणाम ठहरात है ।। वयन नहिं कह लखि होत सम्यक् धर! भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकर ॥ सोरठा-नंदीश्वर जिनधाम, प्रतिमा महिमाको कहै।
'चानत' लीनो नाम, यहै भगतिशिव सुखकरै ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाराज्जिनालयस्थचिनप्रतिमान्यो पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
आत्म - विश्वास • "मुझ से क्या हो सकता है ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं असमर्थ हूँ,
दीन-हीन हूँ ऐसे कुत्सित विचारवाले मनुष्य आत्म-विश्वास के अभाव में
कदापि सफल नहीं हो सकते। - जिस मनुष्य में आत्म-विश्वास नहीं, वह 'मनुष्य' कहलाने का अधिकारी
नहीं।
• जिन्हें अपने भात्मवल पर विश्वास नहीं, उन्हें संसार सागर की तो बात जाने दो, गाँव की मेंढक तरण-तलैया भी भारी है।
-~-'वर्णी वाणी' से
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ऐन पूजा पाठ मेट
सोलहकारण पूजा
अडिल - सोलहकारण भाय तीर्थंकर जे भये । हरपे इन्द्र अपार मेरुपे ले गये ॥ पूजा करि निज धन्य लख्यो बहु चावसौं । हम कृ षोड़श कारण भाव भावसौं ॥१॥
होट
स्थापन
६५
केही दर्शविणारी धन नवीन
कंचन भारी निरसल नीर. पूजों जिनवर गुण गंभीर । परम गुरु हो. जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दश विशुद्धि भावना भाय. सोलह तीर्थंकर पददाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥१॥
नया ॥ १ ॥
चंदन सों कपूर मिलाय, पूजों श्रीजिनवर के पाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परस गुरु हो | दरश ॥२॥
ॐ ही दर्शकापेयी ॥ २ ॥
तंदुल धवल सुगंध अनृप, पूज जिनवर तिहुँ जगभूप । परम गुरु हो. जय जय नाथ परम गुरु हो | दरश०||३||
हो दर्शनविदा पक्षप्तता ॥ ३ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
फूल सुगंध मधुप-गुंजार, पूजौं जिनवर जग-आधार । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥दरश०॥४॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धयादिपोडराकारणेभ्यो कानवाणविश्वसनाय पुष्प० ॥ ४ ॥ सद नेवज वहुविधि पकवाल, पूजों श्रीजिनवर गुणखान। परम गुरु हो, जय जय लाथ परम गुरु हो दरश०॥५॥ ॐ हीं दर्शनविशुद्धयादिपोडगलारणेभ्यो बुधारोगविनाशनाय नैवेद्य० ॥ ५ ॥ दीपक-ज्योति तिलिर क्षयकार, पूजं श्रीजिन केलधार । परम शुरु हो, जय जय नाय परस गुरु हो ॥ ०॥६॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप० ॥ ६॥ अगर कपूर गंध शुभ लेय, श्रीजिनवर आगे महकेय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम शुरु हो दा॥७॥ ॐ हीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो अष्टम दहनाय धूप० ॥ ७ ॥ श्रीफल आदि बहुत फललार, पूजौंजिन वाँछित-दातार। परल गुरु हो, जय जय नाय परन शुरु हो ॥दरशास। ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्वयादिषोडशकारणेभ्यो मोक्ष फलप्राप्तये फल० ॥ ८॥ जलफल आठोंदव चढ़ाय, 'द्यालत करत करौलनलार। रन गुरु हो, जय जय नाथ परन गुरु होदरश०॥॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्ब० ॥ ९ ॥
जयमाला
षोड़श कारण गुण करै, हरे चतुरगति-वाल। पार पुण्य सब नालकै, ज्ञान-साना परकाश ॥१॥
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लेन पूजा पाठ समक
चौपाई १६ मात्रा । दरश विशुद्ध धरे जो कोई। ताको आवागमन न होई । विनय महा धार जो पानी। शिव-वनिता की ससी वखानी ॥२॥ शील सदा दिढ़ जो नर पाले। सो औरनकी आपद टालै॥ ज्ञानाम्यास कर मनमाही। ताके मोह-महातम नाहीं ॥३॥ जो सदेग-भाव विस्तारै । सुरंग-मुकति-पद आप निहारै। दान देय मन हरप विशेख । इह भव जस परभव सुख देखे ॥४॥ जो तप तपै सपे अभिलापा । चूरे करम-शिसर गुरुभाषा ॥ साधु-समाधि सदा मन लावै । तिहुँजगभोग भोगि शिव जावै॥शा निनि-दिन वैयावृत्य करैया । सो निहचे भव-नीर तिरैया ॥ जो अहंत-भगति मन आने । सोजन विषय कपाय न जाने ॥६॥ जो आचारज-भगति करै है। सो निर्मल आचार धरै है। व तन्त-भगति जो करई। सो नर संपूरन श्रुत धरई ॥७॥ प्रवचन-नगति करें जो ज्ञाता । लहै ज्ञान परमानन्द-दाता ॥ पट आवश्य काल जो साधै । सो ही रत-त्रय आराधै ॥८॥ भरम-प्रभाव करें जो ज्ञानी । तिन शिव-मारग रीति पिछानी॥ वत्तल अड सदा जो ध्या। सो तिथकर पदवी पावै ॥६॥
ॐ हीं दर्शनपिशुद्धयाटिपोटशफरणेभ्यः पूर्णाध्यं निर्वपामीति र वादा । दोहा-एही सोहल भावना, सहित धरै व्रत जोय । देव-इन्द्र-नर-पंद्य-पद, 'द्यानत' शिवपद होय ॥ १०॥
[आशीर्वाद
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૬૮
जैन पूजा पाठ सप्रह
दशलक्षण धर्म पूजा
अडिल्ल— उत्तम छिया मारदव आरजव भाव हैं ।
सत्य शौच संजय तप त्याग उपाव हैं ।। आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश तार हैं। चहुँगति दुखतें काढ़ि सुकृति करतार हैं ॥१॥
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! क्षत्र अवतर अवतर सवौषट् । 'ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र निष्ठ तिष्ठ ठ ठ |
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
सोरठा ।
हेमालकी धार, सुन्दि-चित सम शीतल सुरस्थि । सव- आताप निवार, दस-लक्षण पूजौं सदा ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षण धर्माय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १॥
चन्दन केशर गार, होय सुवास दशदिशा ॥ भव०
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमा दिदशलक्षण धर्माय चन्द्रन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
अमल अखंडित सार, तंदुल चन्द्रमान शुभ ॥ भगव
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षण धर्माय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
फूल अनेक प्रकार, महर्के ऊरलोकलों ॥ भव
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमा दिदशलक्षण धर्माय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
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पन पूजा पाठ संग्रह
नेवज विविध निहार, उत्तम पट-रस-संयुगत ॥ भव. ॐ ही उत्तमक्षमादिशक्षण धमाय नैवय निर्वपामीति स्वाह! ॥ ५ ॥ वाति कपूर सुधार, दीपक जोति-सुहावनी ॥ भव० ॐ ही उत्तमक्षमादिदरालक्षण धर्माय दीपं निर्यपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ अगर धूप विस्तार, फेले सर्व सुगन्धता ॥ भव० ॐही उत्तमक्षमादिदगलक्षण धर्माय धूप निर्मपामीति स्वाहा ॥ ७॥ फलकी जाति अपार, घ्राण नयन मनमोहने ॥ भव०
ही उत्तमक्षमादिरालक्षण धर्माय फल निवपागोति स्वाहा ॥ ८ ॥ आठों दरव संवार, 'द्यानत' अधिक उछाहसों । भव० ही उनमर्शमादिदलक्षण धर्माय मर्म निर्यपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
अंग पूजा
सोरठा। पी. दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें। धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ॥१॥
चौपाई मिश्रित गीता छन्द । उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस, पर-भव सुखदाई। गाली सनि मन खंद न आनो, गुनको औगुन कहै अयानो। कहि है अयानो वस्तु छीन, बांध मार बहुविधि करे। परस निकारे तन विदार, वैर जो न तहां धरै ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
ते करम पूरय किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा। अति क्रोध-अगनि बुझाय प्रानी, साम्यजल ले सीयरा ॥१॥ ॐ हीं उत्तमक्षमाधर्माशाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।। मान महाविषरूप, करहिं नीच-गति जगतमें। कोमल सुधा अनूप, सुख पावै नानी सदा ॥२॥ उत्तम मार्दव-गुन मन माना, मान करनको कौन ठिकाना। बस्यो निगोदमाहित आया, दमरी रूकन भाग विकाया ॥ रूकन निकाया भागवशत, देव इकइन्द्री भया। उत्चम चुआ चांडाल हवा, भूप कीड़ों गया। बीतन्य - जोवन - धन - गुमान, कहा करे जल - बुदवदा । करि विनय बहु-गुन, बड़े जनकी, ज्ञानका पात्र उदा ॥२॥ ॐ हीं उत्तममादंवधर्माशाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। कपट न कीजै कोय, चोरनके पुरु ना बसे। सरल सुभावी होग, ताके घर बहू संपदा ॥३॥ उत्तम आर्जव-रीति वखानी, रंचक दगा बहुत दुखदानी । मनमें होय सो बचन उचरिये, वचन होय सो तनसौं करिये ॥ करिये सरल तिहुजोग अपने, देख निरमल आरसी। मुख करे जैसा लखै तैसा, कपट - प्रीति अंगारसी॥ नहिं लहै लक्ष्मी अधिक छल करि, करम-बन्ध-विशेषता। • अय त्यागि दूध बिलाव पीवै, आपदा नहिं देखता ।। ३ ।।
ॐ ह्रीं उत्तमआर्जषधर्माशाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
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जैन पूजा पाठ समह
कठिन बचन जति बोल, पर-निन्दा अरु झूठ तज । सांच जवाहर खोल, सतवादी जगमें सुखी ॥४॥
कीजै ।
पेखो ॥
दीजिये ।
लीजिये ||
धरमका भूपति भया । गया ॥ ४ ॥
उत्तम सत्य-वरत पालीजै, पर विश्वासघात सांचे झूठे मानुप देखो, मानुष देखो, पेखो तिहायत पुरुष सांचेको, मुनिराज श्रावककी प्रतिष्ठा, ऊंचे सिंहासन बैठ बसु नृप, वसु झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरग में नारद
ॐ ह्रीं उत्तम सत्य धर्माङ्गाय अघं निर्वपामीति स्वाहा ।
नहिं
आपन पूत स्वपास न
दरव सब
सांचगुन लख
७१
धरि हिरदै सन्तोष, करहु तपस्या देहलों । शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में ||५|| उत्तम शौच सर्व जग जानो, लोभ पापको are aarat | आशा - पाश महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ॥ प्रानी सदा शुचि शील जप तप ज्ञानध्यान प्रभावतें । नित गंग-जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष सुभावतें ।।
1⁄2
ऊपर अमल मल भयो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहै ॥ बहु देह मैली सुगुन- थैली, शौच-गुन साधु लहै || ||
ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्माङ्गाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री सन वश करो । संजम - रतन संभाल, विषय चोर बहु फिरत हैं || ६ ||
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जैन पूजा पाठ समह
उत्तम संजय गहु मन मेरे, भव-भवके भाजें अब तेरे | सुरंग - नरक - पशुगति नाहीं, आलस-हरन करन ठाहीं पृथ्वी जल आग मारुत, रूख त्रस सपरसन रसना घ्राण नैना, कान मन व जिस विना नहिं जिनराज सीझे, इक घरी मत दिसरो करो नित आयु जम-मुख पीचमें ||६||
तू रुलो जग - कीच में ।
,
७२
सुख ठाहीं ॥
करुना धरो । वश करौ ॥
ॐ ह्रीं उत्तम तयन धर्माज्ञाय अवं निर्वपामीति स्वाहा ।
तर चाहें सुरराय, करम - शिखरको वज्र हैं । द्वादश विधि सुखदार क्यों न करें निज शक्तिसन ||७|| उत्तम तप सब साहिं बखाना, करम शैल को बज-समाना । बस्यो अनादि-निगोद-सझारा, भू-विकलत्रय - पशु-वन धारा ॥ धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आव निरोगता । श्रीजैनवानी तत्वज्ञानी, भई विषय योगता ॥ अति महादुरलभ त्याग विषय कषाय जो तप आदरै । नर-भव अनूपम कनक घरपर, मणिमयी कलसा धरै ॥ ७ ॥
ॐ ही उत्तम तपो दगलक्षण धर्मानाय पूर्णार्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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दान चार परकार, चार संघको दीजिये । धन बिजुली उनहार, नर-भत्र लाहो लीजिये ॥८॥ उत्तम त्याग को जग सारा, औषधि शास्त्र अभय आहारा । निहचै राग-द्वेष निरदारै ज्ञाता दोनों दान सम्भारै ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
दोनों संभारै कूप - जलसम, दरव घरमें परिनया ।
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया वह गया। पनि साध शास्त्र अभय-दिबया, त्याग राग विरोधकों।
बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहैं नाहीं वोधकों ॥८॥ ॐ ही उत्तम त्याग धर्माशाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करैं सुनिराजजी। तिसनाभाव उछेद, घटती जान घटाइए ॥६॥ उचम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिन्ता दुख ही मानो।
फांस तनकसी तनमें सालै, चाह लंगोटी की दुख भाले । भाले न समता सुख कभी नर, बिना जुनि-मुद्रा धरै।
धनि नगनपर तन-नगन ठाड़े, सुर असुर पायनि परें । घरमांहि तिसना जो घटावै, रुचि नहीं संसारसौं।
बहु धन राहू मला कहिये, लीन पर-उपगारसौं ॥६॥ ॐ ही उत्तम आकिवन्य धर्मादाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। शील-बाडि लौ राख ब्रह्म-भाव अन्तर लखो। करि दोनों अभिलाख, करह सफल नर-भव सदा ॥१०॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानौ।
सह वान-वर्षा वह सूरै, टिक न नैन-बान लखि करे॥ कूरे तिया के अशुचितनमें, कामरोगी रति करें।
बहु मृतक सड़हि मसान मांहीं, काक ज्यों घोंचें भरै ॥
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जैन
पूजा पाठ सप्रह
संसार में विष बेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा ।
'द्यानत' धरम दशपैड़ चढिके, शिव-महल में पगधरा ||१०||
ॐ ह्रीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्माङ्गाय अनपद प्राप्ताय गर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा - दश लच्छन बंदों सदा, मनवांछित फलदाय । कहीं आरती भारती. हमपर होहु सहाय ||१||
।
उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर-बाहर शत्रु न कोई । उत्तम मार्दव विनय प्रकारों, नाना भेद ज्ञान सब भासे ॥ २ ॥ उत्तम आर्जव कपट मिटावे दुरगति त्यागि सुगति उपजावै । उत्तम सत्य वचन सुख बोलै, सो प्रानो संसार न डोलै ॥ ३ ॥ उत्तरा शौच लोभ- परिहारी, संतोषी गुण- रतन भण्डारी | उचम संयम पालै ज्ञाता, नर-भव सफल करै ले साता ॥ ४ ॥ उत्तम रूप निर्वाचित पालै, सो नर करम- शत्रुको टालें । उत्तम त्याग करें जो कोई, भोगभूमि- सुर- शिवसुख होई ॥ ५ ॥ उतम आकिंचन व्रत धारै, परम समाधि दशा बिसतारै । उचम ब्रह्मचर्य मन लावै, नरसुर सहित मुकति फल पावै ॥ ६ ॥ दोहा - करे करमकी निरजरा, भवपींजरा विनाशि | अजर अमर पदको लहै, 'द्यावत' सुखकी राशि ॥
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, सयम, तप, त्याग, आकिंचन्य ब्रह्मचर्यधर्मेभ्य पूर्णाधं निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ संप्रह
रत्नत्रय पूजा
दोहा। चहुँगति-फणि-विष-हरन-मणि, दुख-पावक-जल-धार । शिव-सुख-सुधा-सरोवरी, सम्यक-त्रयी निहार ॥१॥ ॐ हीं सम्यकत्रय धर्म! अत्र अवतर अवतर सपौषट् । ॐ ही मम्पनत्रय धर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ही सन्यकरमप्रय धर्म । अत्र मग सन्निहितो भव भव वषट् ।
सोरठा। क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहना। जनम-रोग निरवार, सम्यक-रल-त्रय भजू ॥ १ ॥ ॐ हीं सम्यकलत्रयाय जन्मरोगविनाशनाय जल ॥१॥ चंदन केशर गारि, परिमल-महा-सुगंध-मय ॥ जन्म ॐ हीं सम्यकदात्रयाय भवातापविनाशनाय चन्दन० ॥ २॥ तंदुल अलल चितार, बासमती-सुखदासके ।। जन्मक ॐ ह्री सम्यकरत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् ॥ ३ ॥ महके फूल अपार, अलि गुंजै ज्यों थुति करें ॥ जन्मक ॐ ह्रीं सम्यकलत्रयाय कामवाणविश्वसनाय पुष्पं० ॥ ४ ॥ लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगंधयुक्त ॥ जन्म ॐ ह्रीं सम्यकत्नत्रयाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं ॥ ५ ॥ दीप रतनमय सार, जोत प्रकाशै जगतमें। जन्म ॐ ह्रौं सम्यकरत्नत्रयाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं० ॥ ६ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रद
धूप सुवास विथार, चंदन अगर कपूर
की ॥ जन्म०
ॐ ह्रीँ सम्यन्त्नत्रयाय मोहान्धकार विनागनाय दीप निपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
फल शोभा अधिकार, लोंग छुहारे जायफल || जन्स०
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ॐ ह्रीं सम्यत्र्रनत्रवाय नोलपट प्राप्तये फल ॥ ८ ॥
आठ दरव निरधार, उत्तमलों उत्तम लिये || जन्म०
ॐ ह्रीं सन्चकुरनत्रयाय अनपदप्राप्तये अ० ॥ ९ ॥
सम्यक दरशन ज्ञान, व्रत शिवमय तीनों मयी । 'धानत' पूजों व्रतसहित ॥१०॥
पार उतारन यान,
ॐ ह्रीं सम्यत्नत्रयाय पूर्णां
निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्यग्दर्शन पूजा
दोहा - सिद्ध अष्ट-गुनमय प्रगट, मुक्त जीव-सोपान | ज्ञान चरित जिहैं बिन अफल, सम्यक्दर्श प्रधान ॥ १ ॥
ॐ हो अष्टागसम्यग्दर्शन ! भत्र भक्तर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ |
ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शन । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
सोरठा-नीर सुगन्ध अपार, शिवा हरै मल छय करै । सम्यकदर्शन सार, आठ अङ्ग पूजौं सदा ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं अष्टागतम्यग्दर्शनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
जल केशर घनसार, ताप हरै शीतल करै ॥ सम्य०
ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
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न पूजा पाठ सप्रह
अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै ॥ सम्यक ॐ हीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय अक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ पुहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे । सम्या ॐ हीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करै ॥ सम्यक ॐ हीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ दीप-ज्योति तम-हार, घट पट परकाशै महा ॥ सम्म ॐ ही अष्टांगसम्यग्दर्शनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ धूप घान-सुखकार, रोग विघन जड़ता हरै ॥ सस्य ॐ ही अष्टांगमम्यग्दर्शनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर-शिव-फल करै॥ सम्यक ॐ ही अष्टागसम्यग्दर्शनाय फल निवपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल-फूल चरु ॥ सम्यक ॐ ही अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अब निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥
जयमाला दोहा। आप आप निहचै लखै तत्व-प्रीति व्योहार । रहित दोष पच्चीस हैं, सहित अष्ट गुनसार ॥१॥
चौपाई मिश्रित गीता छन्द । सम्यकदरशन-रतन गहीजै। जिन-बचमें सन्देह न कीजै। इह भव विभव-चाह दुखदानी । पर-भव भोग चहै मत प्रानी ।।
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जैन पूजा पाठ नग्रह
पानी गिलास नकार अशुचि ललि, धरम गुरु न परखिये। पर-दोष किये घाम डिगते की, बुधिर कर हरखिये।। चर संघको वात्सल्य भील, धरम की परभावना । गुण जाठचा गुन आठ लहिक, इहां पर न आना ॥ २ ॥ ॐ ही लबाग उहिमगितिटोहितन्यदर्शनाय पूार्च निपानाति स्वाहा।
सम्पन्जान पूजा दोहा-पंसद जाके गट, लेय प्रकाशात-सान ।
मोह-ताल-हर-चंद्रमा, लोई, सन्यज्ञान ॥१॥ ॐ ही सदिच नन्गलान ! जब लव- जर तोप्ट। ॐ ही बटविध उन्मान । अत्र विकसि । ॐ ही अष्टविध रन्यज्ञान ! बनन्न उन्निहिली व नत्र ट् । लोरठा-तीर सुगंध सपार, त्रिप हरे लल ना करे।
लल्यज्ञान विकार, आठ-सेद पूजौं लदा ॥१॥ ॐ ही अष्टविध सन्दजानाय जल निपानाति साहा ॥ १ ॥ जलकेनर घल्लार, तार हरे शीतल करे ।। ल० ॥२॥ ॐ ही कष्टविय नन्दन्नानाय चन्दन निर्वपानीति स्वाहा ॥२॥ अक्षत अयूए निहार, दारिद नाशै सुख सरै ॥ स० ॥३॥ ॐ ही अप्टदिव सन्दरज्ञानाय भलतान दिपानीति स्वाहा ॥ ३ ॥ पुहुए सुवाल उदार, खेद हरें सन शुचि करै ॥ सा॥ ॐ ही अष्टविव सम्बनानाय पुष्प निर्वपानीति स्वाहा ॥ ४ ॥
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जैन पूजा पाठ समह
नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करे ॥ स०॥५॥ ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
७९
दीप-जोति तम- हार, घटपट परकाशै महा ॥ स० ॥६॥
ॐ ही अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
धूप धान- सुखकार, रोग विघन जड़ता हरै ॥ स०॥७॥
ॐ ह्री अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
श्रीफलआदि विधार, निहचे सुर - शिव - फल करें ॥स०|८|
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फलफूल वरु ॥स०॥६॥
ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अघ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
जयमाला दोहा
आप आप जानै नियतः ग्रन्थपठन व्योहार । संशय विभ्रम मोह बिन, अष्ट अङ्ग गुनकार ॥ १ ॥ सम्यकज्ञान-रतन मन भाया, आगम तीजा नैन बताया । अच्छर शुद्ध अरथ पहिचानौ, अच्छर अरथ उभय सँग जानौ ॥ जानौ सुकाल-पठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाये । तप - रीति गहि वहु सौन देकें, विनयगुन चित लाइये || ये आठ भेद करम उछेदक, ज्ञान दर्पन देखना | इस ज्ञानहीसों भरत सीझा, और सब पट पेखना ॥११॥ ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णाघ' निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
सम्यक्चारित्र पूजा दोहा-विषय रोग औषधि महा, देवकषाय जलधार ।
तीर्थकर जाकों धरै, सम्यकचारितसार ॥ १॥ - ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐ ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ हीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट ।
सोरठा। नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हरै मल छय करै। सम्यकचारित सार, तेरह विध पूजौं सदा ॥ १ ॥ ॐ ही प्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जल ० ॥ १ ॥ जलकेशर घनसार, ताप हरे शीतल करें। ल० ॥२॥ ॐ ह्री प्रयोदशविधसम्यचारित्राय ससारतापविनाशनाय चन्दनम् ॥ २ ॥ अछत अनूप निहार दारिद नाशै सुख भरै । स० ॥३॥ ॐ हीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् ॥ ३ ॥ पुहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै। स०॥४॥ ॐ हीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प० ॥ ४ ॥ नेवज विवध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करै । स०॥५॥
ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य • ॥ ५॥ दीप-जोति तम-हार, घट पट परकाशै महा । स०॥६॥ ॐही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप ॥ ६ ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
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धूप घान-सुखकार, रोग विधन जड़ता हरै । स॥७॥ ॐ हीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अष्टकर्मदहनाय धूप० ॥ ७ ॥ श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर-शिव-फल करै । स०॥८॥ ॐ हीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय मोक्षफलप्राप्तये फल० ॥ ८॥ जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । स०॥६॥ ॐ ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अनर्थ्यपद प्राप्तये अध्य० ॥ ९॥
___ जयमाला दोहा । आप आप थिर नियत नय, तप संयम व्योहार । स्वपर-दया-दोनों लिये, तेरहविध दुख-हार ॥ १० ॥
चौपाई मिश्रित गीता छन्द। सम्यकचारित रतन सम्भालो, पंच पाप तजिके व्रत पालौ । पंचसमिति त्रय गुपति गहीजे, नर-भव सफल करहु तन छीजै ॥ छीजै सदा तन को जतन यह, एक संयम पालिये। बहु रुल्यो नरक-निगोद-माहीं, कपाय-विषयनि टालिये ।। शुभ-करम-जोग सुघाट आयो, पार हो दिन जात है। 'यानत' धरमकी नाव बैठो, शिव-पुरी कुशलात है ॥ २ ॥ ॐ हीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय महा निर्वपामीति स्वाहा ।
समुच्चय जयमाला दोहा सम्यकदरशन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुकति न होय । अन्ध पंगु अरु आलसी. जुदे जलें दव-लोय ॥१॥
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चौपाई १६ मात्रा
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रतनन्त्रय
॥३॥
जाप ध्यान सुथिर न आवै, ताके करमचन्ध कट जावै । तास शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक् रतन त्रय ध्यावें ॥२॥ ताकौ चहुँगतिके दुख नाहीं, सो न परं भव-सागर माहीं । जनम- जरा मृत दोष मिटावें, जो सम्यक रतन त्रय ध्यावें ||३|| सोई दशलच्छनको साथै, सो सोलह कारण आराधे । सो परमातम पद उपजावै, जो सम्यक् रतनन्त्रय यांवे ॥४॥ तीन लोकके सुख विलसेई । जो सम्यक् रतन त्रय ध्यावै ॥ ५ ॥ परमानन्द दशा विस्तारै । जो सम्यक् रतन त्रय वचन कहो नहिं
ध्यावै ॥ ६ ॥ जाय । सुसदाय ॥७॥
सोई शक्र - चक्रिपद लेई, सो रागादिक भाव बहावै, सोई लोकालोक निहारै, आप तिरै औरन तिरवावै, एक स्वरूप प्रकाश निज, तीन भेद
व्योहार सब, 'द्यानत' को
जैन पूजा पाठ सप्रह
ॐ ह्रीं सम्यकूत्नत्राय महाघं निर्वपामीति स्वाहा ।
आत्म निर्मलता
केवल शास्त्र का अध्ययन ससार बन्धन से मुक्त होने का राम-राम रटता है परन्तु उसके मर्म से अनभिज्ञ ही रहता है । शास्त्रों का बोध होने पर भी जिसने अपने हृदय को निर्मल नहीं बनाया उससे जगत का कोई कल्याण नहीं हो सकता ।
मार्ग नहीं । तोता इसी तरह बहुत से
- 'वर्णी वाणी' से
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जैन पूजा पाठ सप्रह
स्वयंभू स्तोत्र भाषा
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राजविषै जुगलनि सुख कियो, राज त्याग भवि शिव पद लियो । स्वयंवोध स्वयंभू भगवान, चंदौं आदिनाथ गुणखान ॥ १ ॥ इन्द्र क्षीरसागर जल लाय, मेरु न्हवाये गाय बजाय । मदन- विनाशक सुख करतार, चंदौं अजित अजित पदकार ॥ २ ॥ शुक्लध्यान करि करम विनाशि, घाति अघाति सकल दुखराशि | लह्यो मुकतिपद सुख अधिकार, वदौं सम्भव भव दुखटार || ३ || माता पच्छिम रयन मंझार, सुपने सोलह देखे सार । भूप पूछि फल सुनि हरपाय, वदौं अभिनन्दन मनलाय ॥ ४ ॥ सब कुवाद वादी सरदार, जीते स्यादवाद-धुमि धार । जैन-धरम - परकाशक स्वाम, सुमतिदेव पद करहु प्रणाम ॥ ५ ॥ गर्भ अगाऊ धनपति आय, करी नगर-शोभा अधिकाय । बरसे रतन पंचदश मास, नमों पदमप्रभु सुखकी रास ॥ ६ ॥ इन्द्र फनिन्द्र नरिंद्र त्रिकाल, बाणी सुनि सुनि होहिं खुस्याल | द्वादश सभा ज्ञान-दातार, नमों सुपारसनाथ निहार ॥ ७ ॥ सगुन छियालिस हैं तुम माहि दोष अठारह कोऊ नाहिं । मोह महातम - नाशक दीप, नमों चन्द्रप्रभ राख समीप ॥ ८ ॥ द्वादश विधितप करम विनाश, तेरह भेद रचित परकाश । निज अनिच्छ भवि इच्छक दान, वदौं पुहुपदत मन आन || ६ | भवि-सुखदाय सुरगर्ते आय. दश विधि धरम को जिनराय ।
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CY
जैन पूजा पाठ सप्रह
आप समान सबनि सुखदेह, वन्दौं शीतल धर्म-सनेह ॥१०॥ समता-सुधा कोप-विष - नाश, द्वादशांगवानी परकाश । चार सघ-आनन्द-दातार, नमों श्रेयास जिनेश्वर सार ।।११।। रतनत्रय शिर मुकुट विशाल, शोभै कण्ठ सुगुण मणिमाल । युक्ति-नार-भरता भगवान, वासुपूज्य वन्दी धर ध्यान ॥१२॥ परम समाधि स्वरूप जिनेश, ज्ञानी ध्यानी हित-उपदेश । कर्मनाशि शिव-सुस-विलसन्त, बन्दी विमलनाथ भगवत ॥१३॥ अन्तर बाहिर परिग्रह डारि, परम दिगम्बर-व्रतको धारि । सर्व जीव-हित-राह दिखाय. नमों अनन्त वचन मन लाय ॥१४॥ सात तत्त्व पचासतिकाय, अरथ नवों छ दरव बहु भाय । लोक अलोक सकल परकारा, बन्दो धर्मनाथ अविनाश ॥१शा पंचम चक्रवर्ति निधिभोग, कामदेव द्वादशम मनोग। शांतिकरन सोलम जिनराय, शांति नाथ चन्दौं हरपाय ॥१६॥ बहु थुति करै हरप नहि होय, निदे दोष गहै नहिं कोय । शीलवान परब्रह्मस्वरूप, बन्दो कुन्थुनाथ शिव - भूप ॥१७॥ द्वादशगण पूजे सुखदाय, थुति वन्दना करें अधिकाय । जाकी निज-थुति कबहुँ न होय, वदौं अर-जिनवर-पद दोय ॥१८॥ पर-भव रतनत्रय-अनुराग, इह-भव व्याह-समय वैराग। बाल-बम - पूरन - व्रतधार, चन्दौं मल्लिनाथ जिनसार ॥१६॥ विन उपदेश स्वयं वैराग, थुति लौकान्त करें पगलाग । नमःसिद्ध कहि सब व्रत लेहि, वन्दौं मुनिसुव्रत व्रत देहिं ॥२०॥
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मन पसंद
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धारक विद्यावंत निहार, भगति-भावसों दियो अहार । बग्मी रतन-रागि नामाल, बन्दी नमिप्रभु दीन-दयाल ॥२१॥ सब जीवनसी बन्दी डोर, राग-देष द्ववन्धन तोर । रजमति तजि गिय-निया मिले, नेमिनाथ चंदी सुग निलं ॥२२॥ दन्य नियी उपमर्ग अपार, ध्यान देसि आयो फनिधार । गयो कमठ गट मुवकर श्याम, नमो मेरुमम पारसस्त्राम ॥२३॥ भव-गागन्तै जीय अपार, धरम-पातमे धरे निहार । इयत काटे दया रिचार, बर्द्धमान बन्दों यापार ॥२४॥ दोहा-चौवीसी पद कमल जुग, बंदों मन वच काय।
'द्यानत' पढ़े सुन सदा, सो प्रभु क्यों न सहाय ॥
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मोक्षमार्ग
.LTE ने गुगार लोर मोटर पाने दो में गो, महा सपान तुम्हें
मिद - १६ का देगा। * मास - मार्ग पर में नदी, मजिद में नदी, गिरजाघर में नही, पी पदार भोर तोराज में नदी-दफा उदय तो मारमा में है।
-'पणी पाणी' से
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जैन पूजा पाठ सग्रह
समुच्चय चौबीसी पूजा वृषभ अजितसंभवअभिनन्दन,सुमतिपदमसुपासजिनराय चंद्र पुहुप शीतल श्रेयांस नमि, वासुपूज्य पूजित सुरराय ।। विमल अनंत धर्मजल उज्ज्वल, शांति कुंथु अर लल्लि मनाय मुनिसुव्रत नलिनेमि णर्श्वप्रसु, वर्द्धमान पद पुष्य चढ़ाय ।। ॐ हीं श्रीवृषभादिमहावीरातचविरातिजिनसमूह ! अत्र अवतर भक्तर लवौषट् । ॐ ही श्रीवृषभादिमदापीगतचतुविशतिजिनसमूह | अत्र तिष्ठ तिष्ट ठ । ॐ हीं श्रीवृषभादिम्हावीरातचतुविशतिजिनसमूह । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । मुनि-मन-सस उज्ज्वल लीर, प्रासुक गंध भरा ।
भरि कनक-कटोरी धीर दीनी धार धरा ॥ चौबीसों श्रीजिनचन्द, आनन्द - कन्द सही।
पद जजत हरत भवफंद, पावत मोक्ष-मही । ॐ ही श्रीवृपभादिवीगते यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ गोशीर कपूर मिलाय, केशर - रंग भरी। जिन-चरनन देत चढ़ाय, भव-आताप हरी ॥चौबीसों०॥ ॐ हीं श्रीवृषभादिवीरातेभ्यो भवतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ तन्दुल सित सोम-समान, सुन्दर अनियारे । मुक्ता फलकी उनहार, पुञ्ज धरों प्यारे॥चौबीसों०॥ . ॐ हीं श्रीवृषभादिवीरातेभ्यो क्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ वर-कञ्ज कदंव कुरंड सुमन सुगन्ध भरे। जिन अग्रधरौं गुन-मंड, काम-कलंक हरे॥चौबीसों॥ ॐ हीं श्रीवृषभादिवीरांतेभ्य, कामवाणविध्वंसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥
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मन-मोहन-मोदक आदि, सुन्दर सद्य बने । रस-पूरित प्रासुक स्वाद. जजत छुधादि हने ॥चौबीसों०॥
ही धीरमादियोरशिद शुमारोगपिनारानाप नैर निपंपामीति स्याहा ॥ ५ ॥ तम-खंडन दीप जगाय, धारों तुम आगे। सब तिमिर मोह क्षय जाय, ज्ञान-कलाजागे॥चौबीसों०॥ ॐ समाधीको मोबामगारदिनानाप दीप निर्णपानीति म्याहा ॥ ६ ॥ दश गन्ध हुताशन-मांहि, हे प्रभु खेवत हों। मिस धम करम जरिजाहि, तुम पद सेवतहों। चोवीसों०
मान नाय निकामीति स्याहा ॥ ७ ॥ शुचि पक सुरस फल सार. सब पातुके ल्यायो। देखत दृग-मनको प्यार, पूजत सुख पायो ॥ चोवीलों०
Sankariन्यो मोटामाय पर निपंपानीति म्यास ८ ॥ जल-फल आठों शुचि-सार, ताको अर्घ करों। तुमको अरपो भवतार, भवतरिमोच्छ वरों ॥चौबीसों० ॐ पनादिनीविया न
पानीति स्याहा ॥९॥
जयमाला दोहा । श्रीमत तीरथनाघ-पद, माथ नाय हित हेत। गाऊं गुणमाला अव, अजर अमर पद देत ॥१॥
TIL८॥
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जन पूजा पाठ मप्रह
घत्ता। जय भवतमभञ्जन जनमनकञ्जन,रञ्जन दिनमनि स्वच्छ करा। शिवमणपरकाशक अरिगननाशक, चौबीसों जिनराज वरा॥
पद्धरी धन्द। जय ऋषभदेव ऋषिगण नमन्त, जय अजित जीत वसुअरि तुरन्त । जय सम्भव भव-सय करत चर, जय अभिनन्दन आनन्द-पूर ॥१॥ जय सुमति सुमति-दायक दयाल, जय पद्मपद्मदुवितन-रसाल । जय जय सुपास भवपासनाश, जय चंद चंद तन दुति प्रकाश ॥२॥ जय पुष्पदन्त दुतिदन्त-सेत, जय शीतल शीतल-गुण-निकेत । जय श्रेयनाथ नुत-सहसभुञ्ज, जय वासव-पूजित वासुपुज्य ॥३॥ जय विमल विमल पद-देनहार, जय जय अनन्त गुणगण अपार । : जय धर्म-धर्म शिव-शर्म देत, जय शान्ति शान्ति-पुष्टी करेत ॥४॥ जय कंथ कंथ-आदिक रखेय, जय अर जिन वस अरि-क्षय करेय । जय मल्लि मल्ल हतमोह-मल्ल, जय मुनिसुव्रत व्रत-शल्ल-दल्ल ॥शा जय नमि नित वासव-नुत सपेम, जय नेमिनाथ वृष-चक्र-नेम । जय पारसनाथ अनाथ-नाथ, जय वर्द्ध मान शिव-नगर साथ ॥६॥
घत्ता। चौबीस जिनन्दा आनन्द-कन्दा, पाप-निकन्दासुखकारी। तिनपद-जुग-चन्दा उदय अमन्दा,वासव-वन्दा हितकारी। ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिचतुर्विशति जिनेभ्यो महायं निर्वपामीति स्वाहा। सोरठा-भुक्ति-मुक्ति-दातार, चौबीसों जिनराज वर ।
तिन पद मन वचधार, जो पूजे सो शिव लहै।
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सप्तऋपि का अर्थ जल गन्ध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना । फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित अर्घ कीजे पावना ।। मन्वादिचारणद्धिधारक, मुनिन की पूजा करूँ। ताकरं पातक हरे सारे, सकळ आनन्द विस्तरूँ॥ * मामाभासदो अनिर्णमालिम्पादन ॥ १॥
यतों का अप उदक चन्दन तन्दुल पुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकः । धवल मंगल गानरवाकुले जिनगृहे जिनवतमहंयजे ॥ गरिमाको भनाल निपानीति म्याहा ।
ममुच्चय अर्ध प्रभुजी अप्ट द्रव्यजु ल्यायो भावसों। प्रभु यांका हर्प-हर्ष गुण गाऊँ महाराज ॥ यो मन हरग्यो प्रभुथाकी पूजाजी रेकारणे। प्रभूजी यांकी तो पूजा भविजन नित करें। जाका अशुभ कर्म कट जाय महाराज यो मन०॥ प्रभुजी थांकी तो पूजा भवि जीव जो करें। सो तो मुरग मुकतिपट पात्र महाराज ॥ यो मन० ॥
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जन पूषा पाठ सह
प्रभुजी इन्द्र धरणेन्द्रजी सब मिल गाय । प्रभु का गुणां को पार न पाइया । प्रभुजी थे छो जी अनन्ताजी गुणवान । थाने तो सुमऱ्या संकट परिहरे ॥ प्रभुजी थे छो जी साहिब तीनों लोकका । जिनराय मैं छू जी निपट अज्ञानी महाराज ॥ यो मन०॥ प्रभुजी थांका तो रूपजु निरखन कारणे।। सुरपति रचिया छै नयन हजार महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी नरक लिगोदमें भव-भव में रुल्यो। जिनराज सहिया छै दुःख अपार महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी अव तो शरणोजी थारो में लियो। किस विधि कर पार लगाशे महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी म्हारौ तो मनड़ो थांमे घुल रह्यो।। ज्यों चकरी विच रेशम डोरी महाराज ॥ यो मन०॥ प्रभुजी तीन लोक में है जिन विम्ब । कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय पूजस्यां ॥ प्रभुजी जल चन्दन अक्षत पुष्प नैवेद । दीप धूप फल अर्घ चढ़ाऊँ महाराज ॥
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Trir
जिन चैत्यालय महाराज. सब त्या० जिनराज ॥ यो० प्रभुजी अष्ट द्रव्य जु ल्यायो बनाय । एजा रचाऊँ श्री भगवान की।
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शान्ति पाठ भाषा चौपाई |
शांतिनाथ मुख शशि उनहारी, शील- गुणत्रत - संयमधारी । लखन एक सौ आठ विराजें, निरखत नयन कमलदल लार्जे ॥ पञ्च चक्रवतिपद धारी, सोलन तीर्थंकर सुखकारी । इन्द्र नरेन्द्र पूज्य जिन नायक. नमो शांनिहितशांति विधायक ॥। दिव्य विटप पहुपनकी वरपा, दुन्दुभि आसन वाणी सरसा । छत्र चमर भामण्डल भारी, ये तुव प्रातिहार्य मनहारी || शांति जिनेश शांति सुखदाई, जगत्पूज्य पूजौं शिर नाई । परम शांति दीजै हम सबको, पढ़ें तिन्हें पुनि चार संघको ॥
वसन्ततिलका |
पूजैं जिन्हें मुकुट हार किरीट लाके ।
जेन पूजा पाठ मह
इन्द्रादि देव अरु पूज्य पदाज जाके ||
सो शान्तिनाथ वरवंश जगत्प्रदीप |
मेरे लिये करहिं शान्ति सदा अनूप ॥
इन्द्रवज्रा ।
संपूजकों को प्रतिपालकों को यतीनको औ यतिनायकों को । राजा प्रजा राष्ट्र सुदेशको ले, कीजै सुखी हे जिन शांतिको दे ॥
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न पूना पाठ सह
मग्धरा इन्द।
मन्नामान्ता।
होवे सारी प्रजाको सुख बलयुत हो धर्मधारी नरेशा । होवे वर्षा समैप तिल भर न रहे व्याधियोंका अन्देशा ।। हो चौरी न जारी सुसमय बरत हो न दुष्काल भारी । सारे ही देश धार जिनवर-वृपको जो सदा सौख्यकारी ।। दोहा - घातिकर्म जिन नाश करि, पायो केवलराज ।
शांति करो सब जगतमें, वृपभादिक जिनराज ॥ शास्त्रों का हो पठन सुखदा लाभ सत्संगती का।
सदवृत्तों का सुजस कहके, दोप ढांकू सभी का ॥ वोलं प्यारे वचन हितके, आप का रूप ध्याऊँ। ___सोलों सेॐ चरण जिनके मोक्ष जोलौं न पाऊँ । तव पद मेरे हिय में, मम हिय तेरे पुनीत चरणों में। तबलों लीन रहों प्रभु,जबलौं पाया न मुक्ति पद मैने । अक्षर पद मात्रासे दूषित जो कुछ कहा गया मुझसे। क्षमा करो प्रभु सोसव,करुणारि पुनि छुड़ाहुभव दुखसे॥ हे जगवन्धु जिनेश्वर ! पाऊँ,तव चरण शरण लिहारी। मरण समाधि सुदुर्लभ, कर्मोका क्षय सुवोध सुखकारी ।।
पुप्पाजलि क्षेपण ।
आया।
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भजन
जैन पूजा पाठ सप्रह
नाथ ! तोरी पूजाको फल पायो, मेरे यो निश्चय अब जायो || टेका मेढ़क कमल पाखडी मुखमे, वीर जिनेश्वर धायो ।
श्रेणिक गजके पतल मूवी, तुरत स्वर्गपढ पायो ॥ नाथ० ॥ १ ॥ मैना सुन्दरी शुभ मन सेती, सिद्धचक्र गुण गायो ।
अपने पतिको कोट गमायो, गंधोदक फल पायो ॥ नाथ० ॥ २ ॥ अष्टापद में भरत नरेश्वर, आदिनाथ मन लायो ।
अष्टद्रव्य से पूजा प्रभुजी, अवधिज्ञान दरशायो || नाथ० ॥ ३ ॥ असे सब पापी तारे, मेरो मन हुलसायो ।
महिमा मोटी नाथ तुमारी, मुक्तिपुरी सुख पायो || नाथ० ॥ ४ ॥ थकी थकी हारे सुर तर पति, आगम सीख जितायो । 'देवकीर्ति गुरु ज्ञानमनोहर, पूजा ज्ञान बतायो । नाथ० || ५ ||
भाषा स्तुति
तुम तरण तारण भव- निवारण, भविकमन आनन्दनो ।
श्रीनाभिनन्दन जगतवन्दन, आदिनाथ निरञ्जनो ॥ १ ॥ तुम आदिनाथ अनादि सेऊ, सेय पद पूजा करूँ ।
कैलाश गिरिपर ऋषभ जिनवर, पद कमल हिरदै धरूं ॥ २ ॥ तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्ट कर्म महावली |
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PAR
पर पिद नुन कार पर आयो, रुपाकीज्यो नायजी ॥३॥ तुम पन्द्रबदन पत्र न, पन्नपुरि परमेम्बरो।
महानननन्दन गन्दन, गन्नाथ जिनेवरो ॥ ४ ॥ तुम शान्ति पांच बार पूनों, गन पर फापन।
दुर्मिस यांग पासमान, पिन ताप पलार जू॥५॥ तुम पार Eि . भाप न विकारानी।
भीनगिनाय विधगिर, पाय-तिमिरविनानो ॥६॥ जिमनी गन, माया, मम पा गरी ।
चाम्पियनसिपमा नाप शिव-नगणी बरी॥७॥ चन्दपप समस्तरउन, पाटन न किया।
नन्दन गत मन्दन, सपल संघ मगल फिगों ।। ८ ।। हिनपरी पानका दीक्षा फमट . मान विहारः।
भोपाननाय मिन्टन पट. नमोर धार ॥६॥ तुग फर्माना नोक्षदाता, दीन जानि दया करो।
मिडानन्दन कामपन्दन महावीर जिनगे ॥१०॥ म मा मुग्ना मो, पीनी र धाग्यि।
का नोट मेरपीनव.आवागमन निवारिये ॥११॥ यवहार भर भर मामि , मेंगदा मेवफ रहा।
करागी कामान गांग, गोसफल ज्ञापन मा ॥१२॥ बीप. माई प. गर्ज, पर मांहि अनेकनी।
एक अनश की नहिं मंग्या नम मिद निरजनी ॥ १३ ॥
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जैन पूजा पाठ मप्रह
मैं तुम चरण-कमल गुणगाय, बहुविधि भक्ति करी मनलाय । जनम जनम प्रभु पाऊ तोहि, यह सेवा-फल दीजे मोहि ॥ १४ ॥ कृपा तिहारी ऐसी होय, जामन मरण मिटावी मोय । वार-बार में विनती करूं, तुम सेवा भवसागर तरूं ॥ १५ ॥ नाम लेत सब दुःख मिट जाय, तुम दर्शन देख्यो प्रभु आय । तुम हो प्रभु देवन के देव, में तो करूं चरण तव सेव ॥ १६ ॥ जिन पूजा त सब सुख होय, जिन पूजा सम अवर न कोय । जिन पूजा ते स्वर्ग विमान, अनुक्रम तैं पावै निर्वाण ॥ १७ ॥ मैं आयो पूजन के काज, मेरो जन्म सफल भयो आज । पूजा करके नवाऊं गीग, मुझ अपराध क्षमहु जगदीश ॥ १८ ।। दोहा-सुख देना दुःख मेटना, यही तुम्हारी बान।
मो गरीव की वीनती, सुन लीज्यो भगवान ॥ १६ ॥ पूजन करते देव की, आदि मध्य अवमान । सुरगनके सुख भोग कर, पावै मोक्ष निदान ॥ २० ॥ जैमी महिमा तुम विर्षे, और धरै नहि कोय । जो सूरज मे जोति है, नहिं तारागण सोय ।। २१ ।। नाथ तिहारे नामतें, अघ छिनमांहि पलाय । ज्यों दिनकर परकाशतें, अन्धकार विनशाय ।। २२ ।। बहुत प्रशसा क्या करू, मैं प्रभु बहुत अजान । पूजाविधि जान नहीं, शरण राखि भगवान ॥ २३ ॥
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र पूजा पाठ ग्रह
निर्वाणक्षेत्र पूजा परमपूज्य चौवील, जिहँ जिहँ थानक शिव गये।
सिद्धभूमि निशदीस, मन वच तन पूजा करौं । *हो धीनुमितितीरंथनिर्वाणक्षेत्राणि । अत्र पर स्वतन पट।
हो धीगितिनीलविणक्षेत्राणि ! ति तित::. ॐ हीं प्रीगितितोलन्विनिक्षेत्राणि ! कत्र न्न चलिहिनान्न्विन नवा नष्ट ।
गीता छन्। शुचि छीर-दधि-लम नीर निरमल, कनक-झारीमें भरौं । संसार पार उतार स्वासी, जोर कर विनती करों ।। सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलाशकों । पूजौं लदा चौबील जिन, निर्वाणभूमि-निवालकों ।।
ही गिपिंक निर्माणलेभ्यो पल निमाति बाहः ॥ ६ ॥ केशर कपूर सुगन्ध चन्दन. सलिल शीतल विस्तरौ । भव-तापको सन्ताप मेटो, जोर कर विनती करौ ॥ल. ॐ ही चतुर्दिगतितोदर निर्वाणत्रेभ्यो चन्दन निपानोति बाहः ॥ २ ॥ मोती-समान अखण्ड तन्दुल, अमल आनन्द धरि तरौं। औगुन हरौ गुण करौ हमको,जोर कर विनती करौं । स० ॐ ही श्रीगितिज निर्माणक्षेत्रेभ्यो मतान् विपानीति बाहा ॥: ॥ शुभ फूल-रास सुवास-वासित, खेद सब मन की हरौं ।
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मैन पूजा पाठ समह
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दुख-धाम-काम विनाश मेरो, जोर कर विनती करौं ॥स०
ॐ ही श्री चतुविशतितीर्थक्र निवाणक्षेत्रेभ्यो पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ नेवज अनेकप्रकार जोग, मनोग धरि भय परिहरौं । यह भूख-दुखन टार प्रभुजी, जोर कर विनती करौं ॥स० ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
दीपक प्रकाश उजास उज्ज्वल, तिमिरसेती नहिं डरौं । संशय-विमोह - विभरम-तम-हर, जोर कर विनती करौं ॥स० ॐ ही श्रीचतुविशतितीर्थंकर निर्वाक्षेत्रेभ्यो दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ शुभ - धूप परम अनूप पावन, भाव पावन आचरौं । सब करम- पुञ्ज जलाय दीज्यो, जोर कर विनती करौं ॥ स० ॐ ह्रीं श्रीचतुविशतितीर्थंकर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ बहु फल मंगाय चढ़ाय उत्तम, चार गतिसों निवरों । निहचें मुकति-फल देहु मोको, जोर कर विनती करौं ॥स०
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीयंकर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
जल गन्ध अक्षत पुष्प चरु फल, दीप धूपायन धरों । 'द्यानत' करो निरभय जगतसों, जोर कर विनती करौं ॥ स ॐ ह्रीं श्रीचतुविशतितीर्थंकर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अव निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥ जयमाला दोहा
श्रीचौबीस जिनेश, गिरि कैलाशादिक नमों । नीरथ महाप्रदेश, महापुरुष निरवाणतें ॥
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पूजा पाठ मुद्द
चौपाई १६ नात्रा
नमीं ऋषभ कैलाशपहारं नेमिनार गिरनार निहारं । वासुपूज्य चम्पापुर चन्दी सम्मति गणपुर अभिनन्दी ॥१॥ चन्द्र अजित अजित-पद-दावा. व म्भ-दुःखाता । चन्द्र अभिनन्दन गण-नायक, वन्दी नुमति सुमतिके दायक ॥२॥ चन्दौं ण्डम मुकति-पदमा बन्दी लगना-पानाहरू ! चन्दौ चन्द्रप्रभु प्रभुचन्दा, बन्दी विधि विधि-निधि-कन्दा ||३|| वन्द शील अ-तप- शीतल, चन्द्रवायन महीतल । चन्दौं त्रिमल विमल उपयोगी, बन्द अनंत अनंत-सुखभोगी ||१|| वन्दाँ धर्म धर्म-विस्तारा, वन्दों शान्ति शान्ति-मन-धारा । चन्द कुंधु कुघु-रवालं इन्टीअर अरि-हर गुणमालं ||१५|| वन्द मल का चूरन न्त्री त्रिव पूरन । वन्दौं नमि-जिन तमित-लुरासुर वढदों पार्क पर्व्व सजग-हर ||६|| बीसों सिद्धभूमि जा ऊपर. शिखरसम्मेद - महागिरि भूपर | एकबार दंदें जो कोई, ताहि नरक-पशु-पति नहिं होई ॥७॥ नरपतिनृप सुर शक कहावे. तिहुँ जग भोग भोग शिव पार्ने । दिघन-विनाशन मंगलकारी, गुण- विलास यों पचा - जो तीरथ जावें पाप मिटावे, ध्यावें गा
ताको जस कहिये संपति लहिये, गिरिके गुण को दूध उतरें ।
भवतारी ॥८॥ भगति करें
1
ॐ ह्रीं श्रीचनुर्विगतितका निर्वाणक्षेत्रेभ्यो पूर्ण निर्वपामीति स्वाहा ।
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ন বাঃ সুম
१.१'
-
श्री जादिनाजिन पूजा नाभिराय मरुदेविके नन्दन, आदिनाथ स्वामी महाराज। सर्वार्थसिद्धिते आप पधारे, मध्यलोकमांही जिनराज ॥ इन्द्रदेव सब मिलकर आये, जन्म महोत्सव करने काज । आह्वानन सब विधि मिल करके, अपने कर पूजे प्रसुआज।।
मानाय ग्नेिन्ट आवतर मयत्तर मापट बालानन । ॐ भीमादिनाय जिनेन्द्र ! अन तिष्ठ तिष्ठ ठ स्थापन ।। धादिनाय निन्द्रलम मम गन्निहि नो मा भनट सनकरणम् ।
अप्टक । क्षीरोदधिका उज्ज्वल जल ले, श्रीजिनवरपद पूजन जाय। जन्म-जरा दुःख सेटन कारन, ल्याय चढ़ाऊं प्रसुके पाय !! श्रीआदिनाथके चरण-कमलपर,वलि-पलिजाउँमनवचकाय! हो करुणानिधि भव दुःस्व मेटो. याते में पूजों प्रख पाय॥
धीमादिनाध निन्द्राय जन्ममृत्युविनागनाय जल पिपामोति मा || १ ॥ मलयागिरि चंदन दाह निकंदन, कञ्चन झारीलर ल्याय ! श्रीजीकेचरणचढ़ावोभविजनभवआतापतुरतमिटिजायानी
ही योजादिना निन्द्राय गगनापविनाशनाय चन्दन नि पामी नि घाटा ॥ २ ॥ शुभशालिअखंडित सौरभिमंडित,प्रासुक जलसोधोकर ल्याय। श्रीजीकेचरण चढावोभविजन अक्षयपदको तुरत उपाय॥श्री
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ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
।
कमल केतकी वेल चमेली, श्रीगुलाब के पुष्प मंगाय । श्रीजी के चरण चढावो भविजन, कामवाणतुरत नसिजाय ||श्री ०
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
नेवज लीना षट् रस भीना, श्रीजिनवर आगे धरवाय । थाल भराऊँ क्षुधा नशाऊँ, ल्याऊँ प्रभुके मंगल गाय ॥ श्री०
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारो विनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ जगमग जगमग होत दशोंदिशि, ज्योति रही मन्दिर में छाय । श्रीजी के सन्मुख करत आरती, मोहतिमिर नासै दुखदाय ॥ श्री०
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा | ॥ ६ ॥
अगर कपूर सुगन्ध मनोहर, तगर कपूर सुद्रव्य मिलाय । श्रीजी के सन्मुख खेय धुपायन, कर्मजरे चहुँगतिमिटिजाय ॥श्री०
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
श्रीफल और बदाम सुपारी, केला आदि छुहारा ल्याय । महामोक्षफल पावन कारण, ल्याय चढ़ाऊँ प्रभुके पाय ॥ श्री०
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
!
शुचि निरमल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरू ले मन हर्षाय दीप धूप फल अर्ध सु लेकर, नाचत ताल मृदङ्ग बजाय ॥ श्री०
ॐ हो श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्धपदप्राप्तये अघ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
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मेन पूजापाठ
पचकल्याणक
सर्वार्थसिद्धितं चये, मरुदेवी उर आय । दोज असित आषाढकी, जजूं तिहारे पाय ॥
चेत बढी नौमी दिना, जन्म्या श्रीभगवान | सुरपति उत्सव अति करचा. में पूजौं घर ध्यान ॥
दिनापविनेन्द्राय अप्य निर्वपामीति
१०३
श्री निर्वपामीति ।
तृणवन पाडि सबछोड़िके, नप धाग्यो वन जाय । नॉमी चैत्र असेन की, जजूं तिहारे पाय ॥
भजन दयमिति ।
फाल्गुण नदि एकादशी, उपज्यो केवलज्ञान | इन्द्र आय पूजा करी, में पूजों इह थान ॥
काय भीमानाने ज
माथ चतुर्दशि कृष्णकी, मोक्ष गये भगवान | भवि जीवोंको बोधिके पहुँचे शिवपुर धान ॥
#mam qhri arus a nesima sundramufahz14 - जपमाला |
आदीवर महाराज मे निती तुम
·
कर्म । चारों गतिके मांहि में दुःपायो मो सुनो ॥
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१०४
अष्टकरम में एकलौ, ये दुष्ट महादुःख देत हो ।
जेन पूजा पाठ समूह
कबहूं इतर निगोद में मोकूं पटकत करत अचेत हो । म्हारी दीनतनी सुन वीनती ॥
"
प्रभु कबहुँक पटक्या नरकमें, जठै जीव महादुःस पाय हो । नित उठि निरदई नारकी, जठ करत परस्पर घात हो || म्हारी० ॥ प्रभु नरकतणा दुःख अब कहूं, जठे करें परस्पर घात हो । कोइक वांध्यो संभसों, पापी दे मुद्गरकी मार हो | म्हारी० ॥ कोइक कार्टे करोंतसों, पापी अङ्गतणी दो फाड़ हो । प्रभु इह विधि दुःख भुगत्या घणा, फिर गति पाई तिर्यञ्श्व हो | म्हारी || हिरणा वकरा बाछड़ा पशु दीन गरीब अनाथ हो । प्रभु मैं ऊट वलद भैसा भयो, ज्यांपै लदियो भार अपार हो || म्हारी || नहि चाल्यो जठे गिर पस्यो, पापी दे सोटन की मार हो । प्रभु कोइयक पुण्य संजोगसू, मैं पायो स्वर्ग निवास हो || म्हारी० ॥ देवांगना संग रमि रह्यो, जठ भोगनिको परिताप हो ।
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प्रभु सग अप्सरा रमि रह्यो, कर कर अति अनुराग हो || म्हारी० ॥ कबहुँक नन्दन-वन विषे प्रभु, कबहुँक वन-गृह मांहि हो । प्रभु इह विधि काल गमायकै, फिर माला गई मुरझाय हो || म्हारी० देव विधी सब घट गई, फिर उपज्यो सोच अपार हो । सोच करत तन खिर पड्यो, फिर उपज्योगर्भमे जाय हो || म्हारी० ॥ प्रभु गर्भतणा दुःख अब कह, जाठै सकडाई की ठौर हो ।
हलन चलन नहि कर सक्यो, जठे सघन कीच घनघोर हो || म्हारी० ॥
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जैन पूजा पाठ संग्रह
माता खावै चरपरौ, फिर लागे तन सन्ताप हो । प्रभु ज्यों जननी तातो भखै, फिर उपजै तन सन्ताप हो || म्हारी || औंधे मुख झुल्यो रह्यो, फेर निक्सन कौन उपाय हो । कठिन कठिन कर नीसस्यो, जैसे निसरै जंती में तार हो || म्हारी ० प्रभु फिर निकसत धरत्यां पढ्यो, फिर लागी भूख अपार हो । रोय रोय विलख्यो घणो, दुख वेदनको नहिं पार हो || म्हारी ० प्रभु दुख मेटन समरथ धनी, यातें लागू तिहारे पांय हो । सेवक अरज करें प्रभु ! मोकू भवोदधि पार उतार हो || म्हारी ० दोहा - श्रीजीकी महिमा अगम है, कोई न पावै पार । मैं मति अल्प अज्ञान हो, कौन करें विस्तार ॥
ॐ ह्री श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
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दोहा - विनती ऋषभ जिनेशकी, जो पढ़सी मनलाय । स्वर्गो में संशय नहीं, निश्चय शिवपुर जाय ॥
इत्याशीर्वाद ।
श्री चन्द्रप्रभके पूर्वभव गीत | श्रीवर्मा भूपति पालि पुहमी, स्वर्ग पहले सुरभयौ । पुनि अजित सैन छखन्डनायक, इन्द्र अच्युत में थयौ ॥ चर परम नाभिनरेश निर्जर, वैजयंति विमान में | चन्द्राभस्वामी सातवें भव, भये पुरुष पुरानमें ॥
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नेन पूजा पाठ मह
श्री चन्द्रप्रभु पूजा
चारित चंद्र चतुष्टय मंडित चारि प्रचंड अरी चकचूरे । चन्द्र विराजित चर्णविषै यह चंद्रप्रभा सम है अनुपूर । चारु चरित चकोरनके चित चोरन चंद्रकला बहु सूरे । सो प्रभुचंद्र समंतगुरुचित चिंतत ही सुख होय हुजूरे ॥
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर सवौपट
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेद्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ |
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र । अत्र मम मन्निहितो भव भव वाट् ।
पद्म द्रह सम उज्जल जल ले शीतलता अधिकाई । जन्म जरा दुःख दूर करनको जिनवर पूज रचाई ॥ चञ्चल चितको रोकि चतुर्गति चक्रभ्रमण निवारो । चारु चरण आचरण चतुर नर चंद्रप्रभू चित धारो ॥
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
मलिया - गिरवर बावन चंदन केशरि संग घसाओ । भव आताप निवारन कारण श्रीजिन चरणचढ़ाओ ॥ चं०
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
चन्द्र किरण सम श्वेत मनोहर खंड विवर्जित सोहै । ऐसे अक्षतसों प्रभु पूजौं जग जीवन मन मोहै ॥ चं०
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
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न पूजा पाठ म्ह
ܙ
सुरतरुके शुचि पुष्प मनोहर बरन २ के लावो । काम दाह निवारन कारण श्रीजिनचरण चढ़ावो ॥चं
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभणिनन्दार कामवाणविष्यमनाय पुत्र निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
नाना विधिके व्यञ्जन ताजे स्वच्छ अदोष बनावो । रोग क्षुधा दुःख दूर करनको श्रीजिनचरण चढ़ावो ॥ चं० ॥
ॐ ही श्रीनन्दनमजिनेन्द्राय धुधारोगविनाननाय नैवेद्य निपामीति याहा ॥ ५ ॥
कनक रतनमय दीप मनोहर उज्ज्वल ज्योति जगावो । मोहमहातम नाश करनको जिनवर चरण चढ़ावो ॥ चं०
ॐ ही श्रीचन्दमभजिनेन्द्राव मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
दशविधि धूप हुताशन माहीं खेय सुगंध बढ़ावो । अष्ट करमके नाश करनको श्रीजिनचरण चढ़ावो ॥ चंगा ॐ ही श्रीचन्दनभजिनेन्द्राय अष्टकमदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
नाना विधिके उत्तम फल ले तनमनको सुखदाई । दुःख निवारण शिक्फल कारण पूजौं श्रीजिनराई ॥ चं
श्रीनन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षपदप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
वसुविधि अर्ध बनाय मनोहर श्रीजिनमंदिर जावो । अष्टकर्मके नाश करनको श्रीजिनचरण चढ़ावो ॥ चं० ॥
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
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१०८
जन पूजा पाठ सह
पचकल्याणक कुलुमलता छन्द ।
चैत्र प्रथम पंचम दिन जानों, गर्भागम मंगल गुणखान । मात लक्ष्मणाके उर आए, तजि दिवलोक चन्द्र भगवान ॥ पट नवसास रतन वरषाए, इन्द्र- हुकुमतें धनद महान । तिनके चरण कमल मैं पूजूं, अर्घ चढ़ाव करूं नित ध्यान ॥
ॐ हीं चैत्रकृष्णपचन्या गर्भनगलप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्थं ।
पौष वदी ग्यारसको जन्मे, चंद्रपुरी जिनचन्द्र महान । महासेन राजाके प्यारे, सकल सुरासुर मानें आन ॥ सुरगिरिपर अभिषेक कियो हरि, चतुरनिकाय देव सबआन सो जिनचंद्र जयो जगमांही, अर्घ चढ़ाय करूँ नित ध्यान ॥
ही पौषकृष्णैकादया जन्नमगलप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अयं ।
पौष बदी ग्यारस तप लीनों, जानों जगत अथिर दुखदान । राजत्यागि वैराग धरो, वन जाय कियौ आतम कल्यान ॥ सुरनर खग मिलि पूज रचाई, मनमें अतिही आनंद मान | ऐसे चंद्रनाथ जिनवरको अर्घ चढ़ाय करूँ नित ध्यान ॥
ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्या तपोमगलप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अघं ।
फाल्गुन वदी सप्तमी जानों, चार घातिया घाति महान । सकल सुरासुर पूजि जगतपति, पायो तिहि दिन केवलज्ञान ॥
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जन पूजा पास
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समवशरन महिमा हरि कीनी दीनी दृष्टि चरण निजआना ऐसे चंद्रनाथ जिनवरको, अर्घ चढ़ाय करूं नित ध्यान।।
ही फाल्गुन गममन्यां फेलतानप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रमधिनेन्द्राय अघ । सातें बदि फाल्गुनके महिना, संमेदाचल शृङ्ग महान । ललितकूट ऊपर जगपतिने, पायौ आतम शिव कल्यान॥ सुरसुरेश मिलि पूज रचाई, गायो गुण हर्पित जिय ठान। सुगुरु समन्त भद्रके स्वामी. देहु जिनेश्वर को सतज्ञान ।। ही फागुनमाया नाक्षर
न्याय धीनन्द्रपानन्दाय अन ।
जरनाला
दोहा-अष्टम क्षितिपति तुम धनी, अष्टम तीरथराय । अष्टम पृथ्वी कारने, न अङ्ग वसु नाय ॥ १॥
चाल- अहो जगतगुरु' को। अहो चन्द्र जिनदेव तुम जगनायक स्वामी ।
अप्टम तीरथगज, हो तुम अन्तरयामी ॥ १ ॥ लोकालोक मझार, जड चतन गुणधारी।
द्रव्य छह अनिवार पर्यय शक्ति अपारी ।। २ ।। तिहिं सबको इकबार जार्ने ज्ञान अनन्ता।
ऐसो ही सुखकार दर्शन है भगवन्ता ।। ३ ।। तीनलोक तिहुँकाल ज्ञायक देव कहावी।
निरवाधा मुखमार तिहिं शिवथान रहावौ ॥४॥
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जन पूजा पाठ मप्रह
हे प्रभु ! या जगमांहि मैं बहुते दुःख पायौ ।
कहन जरूरत नाहिं तुम सवही लखि पायौ ।। ५ ।। कबहूँ नित्य निगोद कबहुं नर्क मंझारी ।
सुरनर पशुगति मांहि दुक्ख सहे अति भारी ।। ६ ।।। पशुगतिके दुःख देव ! कहत बड़े दुःख भारी ।
छेदन भेदन त्रास शीत उष्ण अधिकारी ।। ७ ।। भूख प्यासके जोर सवल पशु हनि मारै ।
तहां वेदना घोर हे प्रभु कौन सम्हार ।। ८ ।। मानुष गतिके मांहि यद्यपि है कछु साता ।
तोहू दुःख अधिकाय क्षणक्षण होत असाता ।।६।। भन जोवन सुत नारि सम्पति ओर घनेरी।
मिलत हरप अनिवार विछुरत विपत धनेरी ॥१०॥ सुरगति इष्ट वियोग पर सम्पति लखि झरे।
मरण चिन्ह संयोग उर विकलप वह पूरै ॥११॥ यों चारों गति मांहि दुःख भरपूर भरौ है।
ध्यान धरौ मनमांहि याते काज सरौ है ॥१२॥ कर्म महादुःख साज याको नाश करौ जी।
बड़े गरीव निवाज मेरी आश भरौजी ॥१३॥ समन्तभद्र गुरुदेव ध्यान तुम्हारो कीनों!
प्रगट भयो जिनवीर जिनवर दर्शन कीनों ॥१४॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
जब तक जगमें वास तवतक हिरदे मेरे ।
कहत जिनेश्वरदास शरण गहों मैं तेरे ॥१५॥
दोहा - जग जयवन्ते होहु जिन, भरौ हमारी आस । जय लक्ष्मी जिन दीजिये, कहत जिनेश्वर दास ॥
ॐ हो श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्दाय पूर्णाधं निर्वपामीति स्वाहा ।
अडिल छन्द ।
वर्तमान जिनराय भरत के जानिये ।
पञ्चकल्याणक मानि गये शिवधानिये ॥
जो नर मन वच काय प्रभू पूजै सही ।
१११
सो नर दिव सुख पाय लहै अष्टम मही ॥
इत्याशीर्वाद पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
श्रद्धा
जो मनुष्य युद्धिपूर्वक श्रद्धागुण को अपनायेगा, उसे कोई भी शक्ति संसार में नहीं रोक सकती ।
कुछ भी करो श्रद्धा न छोड़ो । श्रद्धा हो संसारातीत अवस्था को प्राप्ति में सहायक होती है। श्रद्धा बिना आत्मतत्व की उपलब्धि नहीं होती ।
• जिन जीवों को सम्यग्दर्शन हो गया है, उन्हें माता - असाता कर्म का
उदम चल नहीं करता ।
-'वर्णी वाणी' से
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जेन पूजा पाठ सग्रह
श्रीशान्तिनाथजन-पूजा
मतगयद छद । ( यमकालकार ) या भव-काननमें चतुरानन, पाप-पनानन घरि हमेरी। आतम-जान न मान न ठान न, वान न होन दई सठ मेरी ॥ ता मद-भानन आपहि हो गह, छान न आनन आन्न टेदी ।
आन गही शरनागतको, अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय । अत्र अवतर अवतर सवौषट । ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय ! अन तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय ! अब मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
छद त्रिभगी। अनुप्रयासक । ( मात्रा ३२ जगणवर्जित)। हिमगिरि-गत-गंगा धार अभंगा, प्रासुक संगा भरि भृङ्गा। जर-मरन - मृतंगा नाशि अधंगा, पूजि पदंगा मृदुहिगा ।। श्रीशान्ति - जिनेशं, नुत - शक्रेशं वृपचक्रेश, चक्र । हनि अरि - चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयामृतेशं, मक्रेशे ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा । वर बावन-चंदन, कदली-नंदन, धन-आनदन, सहित घसों। भव-ताप-निकंदन, ऐरा-नंदन, वंदि अमंदन, चरन बसों॥श्री. ॐ ही श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा। हिमकर करि लज्जत, मलय सुसज्जत, अच्छत जज्जत, भरिथारी। दुख-दारिद-गज्जत, सद-पद-सज्जत, भव-भय-भज्जत, अतिभारी॥श्री० ॐ हीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्ष तान् निर्वपामीति स्वाहा ।
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भेन पूजा पाट BK
मंदार सरोज, कदली जोज, पुञ्ज भरोजं, मलयमरं । भरि कंचन-धारी, तुम हिंग धारी, मदन-विदारी, धीर-धरं ।। श्री०
ही गान्निागिनेवाय कामपाणयिध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा। पकवान नवीने. पावन कीने, पट रस भीने, सुखदाई। मन-मोदन-हारे, छुधा विदारे, आगे धारे, गुन गाई ।। श्री.
ही धीगामिलापकिय भागविनाशनाय नैवेचं निर्यपामीति स्याहा। तुम ज्ञान प्रकाशे, भ्रम-तम नाशे, शेय विकाशे, सुसरासे । दीपक उजियाग, यात धाग, मोह निवारा, निज भासे || श्री० जी धीमानिनामरिनेत्राय मादायका पिनारानाय दोप निपपामीति म्याटा। चन्दन करपूरं, करि वर चरं, पावक भृरं, माहि जुरं। तमु धूम उडाच, नाचत आवं, अलि गंजावे, मधुर सुरं ॥ श्री.
ही भागान्तिनापग्नेिटाय आर्मदहनाय धूप नियंपामीति स्याहा ।। वादाम राजरं, दाडिम पूरं, निवक भूरं, ल आयो । तासों पद जजों, शियफल मज्जों, निज-रस-रज्जों, उमगायो ॥ श्री.
ही श्रीगान्तिनापजिननाय मोक्षफ्लप्रारये फल नियंपामीति स्याहा । बसु द्रव्य संवारी, तुम हिंग धारी, आनंदकारी, दृग-प्यारी। तुम हो मवतारी, करुना-धारी, यात थारी, शरनारी ।। श्री० हो धागान्तिनापजिननाय अप पामीति स्याहा ।
पंचकल्याणक ___ सुन्दरी तथा द्रुतविलम्वित छद। असित मातय भादव जानिये, गरभ-मंगल ता दिन मानिये । सचि कियो जननी-पद चर्चनं, हम करें इत ये पद अर्चनं ।।
ही माद्रपटगृष्णसप्तम्यां गर्ममगर मष्टिताय श्रीशान्तिनायजिनेन्द्राय अघ ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
जनम जेठ चतुर्दशि श्याम है, सकल इन्द्र सु आगत धाम है । गजपुरै गज साजि सबै त, गिरि जजे इत में जजि हों अवै । ॐ ही ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्या जन्ममगलप्राप्ताय श्रीशान्तिनायजिनेन्द्राय अर्घ ० । भन शरीर सुभोग असार हैं, इमि विचार तवं तप धार हैं। भ्रमर चौदश जेठ सुहावनी, धरम-हेत जजों गुन-पावनी । ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्या निष्क्रमणमहोत्सवमण्डिताय श्रीशान्तिजिनेन्द्राय अर्घ ० । शुकल पौष दशैं सुख-राश है, परम केवल-ज्ञान प्रकाश है । भव-समुद्र-उधारन देवकी, हम करें नित मंगल सेवकी ।। ॐ ही पौषशुक्लदशम्या केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अब ० । असित चौदश जेठ हने अरी, सिरि ससेद थकी शिव-ती वरी। सकल-इन्द्र जजै तित आइक, हम जर्ज इत मस्तक नाइक॥ ॐ हीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्या मोक्षमगलप्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ ० ।
जयमाला शान्ति शान्ति-गुन-मंडिते सदा, जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा । मैं तिन्हें भगत-मंडिते सदा, पूजि हों कलुष-हडिते सदा ॥ मोक्ष-हेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन-रन-माल हो । मैं अवै सुगुन-दाम ही धरों, ध्यावते तुरित मुक्ति-ती वरों ।।
पद्धरि छन्द । जय शान्तिनाथ चिन्द्र पराज, भव-सागरमें अद्भुत जहाज । तुम तजि सरवारथसिद्ध थान, सरवारथ-जुत गजपुर महान । तित जनम लियौ आनंद धार, हरि ततछिन आयो राज-द्वार । इन्द्रानी जाय प्रस्त-थान. तमको करमें ले हरष मान ।।
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न पूजा पात AT
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हरि गोद देर सो मोद धार, सिर चमर अमर ढारत अपार । गिरिराज जाय तित शिला पांड, तापं धाप्पी अभिषेक मांड ।। तित पंचम उदधितनों सु वार, सुरकर कर करि ल्याये उदार। तप सहस-फर करि अनंद, तुम सिर-धारा ढारी सुनंद ।। जप वप घघघघ धुनि होत घोर, भभभभभभ धधधध कलश शोर । दम म म म वाजत मृदंग, सन नननन नननन नू पुरंग ।। तन नन नन नन नन तनन तान, घन नन नन घटा करत बान । ताइ थह ह ह घई सुचाल, जुत नाचत नावत तमहिं भाल।। चट चट चट अटपट नटत नाट, सट घट झट हट नट शट विराट । इनि नाचत रात भगत रंग, सुर लेत तहाँ आनंद सग ।। इत्यादि अतुल मंगल मुठाट, तित बन्यो जहाँ सुरगिरि विराट । पुनि करि नियोग पित, सदन आय, हरि सौंप्यो तुम तित वृद्ध थाय ।। पनि गजमाहि लहि चक्र-रत, भोग्या छ सड करि धरम जत। पुनि तप धरि केवल-ऋद्धि पाय, भवि जीवनकों शिव-मग बताय ।। शिवपुर पहुंच तम हे जिनेश, गुन-मंडित अतुल अनन्त भेप। में ध्यावत हों नित शीश नाय, हमरी भव-बाधा हरि जिनाय ।। सेवक अपनों निज जान जान, करुना करि भी-भय भान भान । यह विधन-मृल-तरु संड संड, चित-चिन्तित-आनद मंड मंड।
धत्तानन्द छन्द (मात्रा ३१) श्रीशांतिमहंता, शिवतियकता, सुगुनअनंता भगवंता । भवभ्रमन हनंता, सोख्य अनंता दातारं तारनवंता॥
उन्हीं श्रीशातिनायजिनेन्द्राय पूर्णाघ निर्वपामीति म्वाहा ॥१॥
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जैन पूजा पाठ सद
छन्द रूपक सवैयां
शान्तिनाथ-जिनके पद-पंकज, जो भवि पूजै मन वच काय । जनम जनमके पातक ताके, ततछिन तजिकै जाय पलाय ॥ मनवांछित सुख पावै सो नर, वांचें भगति-भाव अति लाय । वातै 'वृन्दावन' नित बंदे, जातैं शिवपुर- राज कराय ॥ १ ॥
इत्याशीर्वाद. पुष्पाजलि क्षिपामि ।
रत्नत्रय
■ यदि रत्नत्रय की कुशलता हो जावे तब यह सब व्यवहार अनायास छूट जावे ।
जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है उसी को तुम् 'स्व - समय' जानो और इसके विपरीत जो पुद्गल कर्म प्रदेशों में
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स्थित है उसे ' पर समय' जानो। जिसके ये अवस्थायें हैं उसे अनादि, अनन्त, सामान्य जीव समझो। केवल राग द्वेष की निवृत्ति के अर्थ चारित्र की उपयोगिता है ।
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■ सम्यकदृष्टि जोव का अभिप्राय इतना निर्मल है कि वह अपराधी जीव का अभिप्राय से बुरा नहीं चाहता। उसके उपभोग क्रिया होती है । इसका कारण यह है कि चारित्र मोह के उदय से बलात् उसे उपभोग क्रिया करनी पड़ती है । एतावता उसके विरागता नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते ।
- 'वर्णी वाणी' से
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से
श्री नेमिनाथ जिन पूजा श्रीहरिवंश उजागर नागर, नमीश्वर जिनराई । नारी जनवारी श्याम शरीर सुहाई ॥ यादववंश महानभ पुरण चन्द्रकला सुखदाई | अत्र विराज हरी मरी. शिवख यो जिनराई ॥
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की मनोहर, कथन कारी माहि परो । जनमजय दुकानको, श्रीजिन सन्मुख धार करो ॥ चालवावारी वर्गवारी, नेमीश्वर निंगज महान । प्रभु ने मां दीजो अविचल धान ॥
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कुछ हुल जोकि एक्टर क 124 d 17/
मलयागिरि कपूर मिलाया. बेशर रंग अनोपम जान । भर आतापरहित जिन चरणकमलको पूजे आन ॥वा
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चन्द्रकिरण
लीजे, अक्षत स्वन्डसरल गुणसान । अक्षय नायक प्रभुको पूजे एसहित हितमान ॥ घाल
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भांति-भांति कृमंगावे. कृमुमायुध अरिजीतून काज । कुलमा विजयी जिनवर, चरण कमलको पूजें आज ॥ घा
मनमोहन पकवान बनानी एसहित प्रभुके गुण गाय । धारोके नाश करन को श्रीजिन चरणनाय | घाल
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जैन पूजा पाठ संग्रह
मणिमय दीप अमोलक लेके, रतन रकेवी मे धर लाय । मोहमहातम नाशक प्रभुके, चरणाम्बुज देत चढ़ाय ॥ वाल्ह ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय मोहधिकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाग ॥ ६ ॥
कृष्णागरु कर्पूर मिलाकर, धूप सुगन्ध मनोहर आन । कर्मकलंक निवारक प्रभुके, चरणकमल को पूज न ॥वाल
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ॐ ह्री श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकमदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
श्रीफल लौंग सुपारी पिस्ता, एला केला आदि महान । मुक्ति श्रीफलदायक प्रभुके, चरणाम्बुज पूर्जे गुणखान ॥ बाल
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तचे फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
जलफल द्रव्य मिलाय गाय गुण, रत्नथार भरिये सुखदान । अष्टकर्म के नाशक प्रभुको पूजौं निजगुण दायक जान ॥ वाल
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये ययं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥ पंचकल्याणक चाल छन्द ।
छठि कार्तिक सित सुखदाई, गर्भागम मंगल गाई इन्द्रादिक पूज रचाई, हम पूर्जे अर्ध चढ़ाई ॥
ॐ ह्रीं कार्तिशुक्रषष्ट्यां गर्भमङ्गलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अध्यं ।
सित श्रावण छठि शुभ जानौं, जन्मे जिनराज सहानो ! पितु समुद्रविजय सुख पायो, जिनको हम शीश नवायो ॥
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्रषयो जन्ममलप्राप्ताय श्रीने मिनापजिनेन्द्रायाअघ्यं ।
श्रावण सुदि छठि शुभ जानों, तजि राज महानत ठानों शिव नारि हर्ष वह कीनों, हम तिनके पद चित दीनों ॥
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लषष्ट्या तपोमङ्गलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय अध्यं ।
सित एके आश्विन भाई, चउघाति हने दुःखदाई । वर केवलज्ञान सुलीनों, जिनके पद में चित दीनों ॥
ॐ आश्विन शुक्लप्रतिपदायां ज्ञानकल्याणप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्यं
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छप्पन दिन छद्मस्थ रहे जिन चार घातिया चर ।
ज्ञान लहि सर्व लखायोजी जिनके ॥ मुण० ॥ समवशरण की महिमा राजे श्रीमण्डप सुखकार । रतन सिंहासन ऊपर प्रभुजी पद्मासन निरधार | तीन छत्र सिर ऊपर राजे चौसठि चामर सार || जिनके सन्मुस ठाउ इन्द्र नरेन्द्रजी । नभ में दुन्दुभि की धुनि भारी, वर्षे फूल सुगन्ध अपारी । जिनके सम्मुख ठाडे इन्द्र नरेन्द्रजी ।
वृक्ष अशोक शोक सब नाशे वाणी दिव्य प्रकाश ।
जैन पूजा पाठ सग्रह
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स्वहित वृप निज निधि पावैजी || जिनके० ॥ श्री गिरिनार शिसरते स्वामी, पायो पद, निर्वाण | कर्मकलङ्क रहित अविनाशी सिद्ध भये भगवान । पञ्चकल्याणक पूजा कीनी सकल सुरासुर आन || अपनो विरद निवाहो दीन दयालजी । मोकों दीजे निजकी माया, कारज कीजे मन ललचाया । अपनो विरढ़ निवाहो दीन दयालजी || विनय जिनेश्वर की सुन स्वामी, नेमीश्वर महाराज । हृदय मे तुम पद ध्याऊजी जिनके गुण गावें सुरनर शेपजी || दोहा - चरणन शीश नवाय के, पूजा कर गुन गाय । अरज करूँ यह एक मैं, भव-भव होहु सहाय ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा । अडिल छन्द |
वर्तमान जिनराय भरत के जानिये,
• पञ्चकल्याणक मानि गये शिवथानिये ।
जो नर मनवचकाय प्रमु पूजें सही,
सो नर दिवसुख पाय लहै अष्टम मही ॥ इत्याशीर्वाद, परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
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श्रीपार्श्वनाथ जिन पूजा
गोवा छन्द।
वर स्वर्ग प्राणतको विहाय, सुमात वामा-सुत भये । अवसे के पारस जिनेश्वर, चरण तिनके सुर नये ॥ नवहाथ उन्नत तन विराज, उरग-लच्छन अति लसें । थाएं तुम्हें जिन आय तिष्ठो, करम मेरे सब नसें ॥
ही श्रीरपर्यन्त जिटे
ह
चामा छन्दा
और सोम के समान अम्बसार लाइये | हेम-पात्र धारिक सु आपको चढाइये || पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूं सदा । दीजिये निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ॥ १ ॥
नाविना संगीति स्वाहा ॥ १ ॥
चन्दनादि केशरादि स्वच्छ गन्ध लीजिये ।
आप चर्ण चर्च मोह-ताप को हनीजिये ॥ पार्श्व ० ॥२॥
श्रीनवनागाव पादन निर्वपामीति ॥ २ ॥
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टैन पूजा पाठ मह
फेन चन्दके समान अक्षतं मंगाय के । चरण के समीप सार पूज को स्वायके || पार्श्व० ॥३॥
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ॐ ह्रीं श्रीपादवनाथ विनेन्द्राय अक्षयपाप्तये अनान निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
केवड़ा गुलाव और केतकी चुनाइये ।
धार चर्णके समीप काम को नसाइये || पार्श्व० ॥४॥
ॐ ह्रीं श्रीपादवनाथ विनेन्द्राय कानवाणविव्यसनाय पुष्प निर्वपानी स्वाहा ॥ ४ ॥
घेवरादि बावरादि मिष्ट सर्पिमें सने ।
आप चर्ण अर्च ते क्षुधादि रोग को हने || पार्श्व ० ॥५॥
ॐ ह्रीं श्रीपादर्श्वनाथ जिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वरजीत न्वाद्रा ॥ ९ ॥
लाय रत्न-दीप को सनेह-पूर के भरू |
वातिका कपूर वार मोह ध्वांतकूं हरु || पार्श्व० ||६|
ॐ ह्रीं श्रीपादनाय जिनेन्द्राय मोहान्वका विनाशनाय दीप निर्वणमनि स्वाहा ॥ ६ ॥
धूप गन्ध लेयकें सु अग्निसंग जारिये ।
तास धूप के सुसंग अष्टकर्स बारिये || पार्श्व० ॥७॥
ॐ ह्रीं श्रीपादवनाय जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
खारकादि चिरभटादि रत्न- थाल में भरूँ । हर्ष धारिकें जजूं सुमोक्ष सौरव्य को दरूँ || पार्श्व ॥
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
नीरगन्ध अक्षतान पुष्प चारु लीजिये । दीप धूप श्रीफलादि अर्धतें जजीजिये || पार्श्व० ॥६॥
ॐ श्रीपार्श्वनाथ विनेन्द्राय अनपद प्राप्ताये अर्च निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
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पनजन्यानन्द चाल ।
शुभप्राणन स्वर्ग विहाये. वामा माता उर आये । वैशाखतनी दुतिकारी, हम पूजें विघ्न निवारी ॥
अर्पन |
जनमें त्रिभुवन सुखदाता, एकादशी पाप विख्याता । श्यामा तन अदभुत राजे, रवि-कोटिक-तेज सुलाजे ॥
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कलि पॉप इकादशी आई, तब घारह भावना भाई । अपने कर लॉच सुकीना, हम पूजें चरण जजीना ॥
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कलि चैत चतुर्थी आई. प्रभु केवलज्ञान उपाई । तव प्रभु उपदेश जु कीना, भवि जीवनको सुख दीना ॥
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सित सात सावन आई, शिवनारि वरी जिनराई । सम्मेदाचल हरि माना, हम पूर्जे मोक्ष कल्याणा |
ॐ ही ममता श्रीपादयनेिन्द्राय अर्थ- । जयमाला, छन्द ।
पारसनाथ जिनेन्द्र तने वन, पीनभयो जग्तें सुन पाये ।
।
कग्यो सरधान लष पद आन भयो पद्मावति शेष कहाये | नाम प्रताप से सन्ताप सु भव्यन को शिव-शर्म दिसाये ।
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हैन पूजा पाठ मह
हो विश्वसेनके नन्द्र भले गुणगावत हैं तुमरे हरपाये ॥ १ ॥ दोहा - केकी-कंठ समान छवि, वपु उतंग नत्र हाथ । लक्षण उरग निहारपग, बन्दों पारसनाथ ॥२॥
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पद्धरि छन्द । रची नगरी छः मात अगार बने चहँगोपुर शोभ अपार । कोटवनी रचना छात्र देव, कंगूरन लह बहुकेत ||३|| बनारस की रचना जु अपार, करी बहुभांति धनेश तयार | तहां विश्वसेन नरेन्द्र उदार, करें सुख नाम सु दे पटतार ||४|| राज्यो तुम प्राणत नाम विमान, भवे तिनके वर नन्दन आन । त सुरइन्द्र नियोगन आय, गिरिन्द की विधिन्हौन तुजाय ॥५॥ पिता-घर नौपि गये निज धाम, कुबेर करें वसु जाम मुकाम | चढै जिन दोज मयंक समान, रमैं बहु बालक निर्जर आन ||६|| भये जय अष्टम वर्ष कुमार, घरे अणुव्रत महासुखकार । पिता जब आन करी अरदास करो तुम व्याह वरें मम आस ||७||
1
करी तब नाहि कहे जगचन्द्र, किये तुम काम कषाय जु मन्द । चढ़े राज राजकुमारन सग, तु देखत गंगवनी सु तरंग ॥८॥ लख्यो इक रंक करै तप घोर, चहूदिशि अगनि बलें अति जोर | कहें जितना अरे तुन भ्रात, करे बहु जीवनकी मत घात ॥ ६ ॥ भयो तब कोप कहे कि जीव, जले तर नाग दिखाय सजीव । लख्यो यह कारन भावन भाव, नये दिव ब्रह्म ऋषीस आय ||१०||
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त सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निज कन्ध मनोग। कियो चनमांहि निवास जिनन्द, धरे व्रत चारित आनन्द कन्द ॥११॥ गहे तई अप्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु अवास । दियो पगदान महामुसकार, भयी पनगृष्टि तहां तिहिवार ॥१२॥ गये तर काननमाहि दयाल, धरो तुम योग सये अघटाल । तय यह धम सुस्त अपान, भयो कमठाचर को मुर आन ।।१३।। कर नभ गान लखे तुम धीर, जु पूरव र विचार गहीर । कियो उपस भयानक घार, चली बहु तीक्षण पवन झकोर ॥१४॥ रसो दस दिगिमें तम छाय, लगी बह, अग्नि लसी नहिं जाय । मुरुण्डन के दिन मुण्ट दिसाय, पड जल मुसलधार अथाय ||१|| तव पदमापति-कन्य धनिन्द, नये जुग गाय तहां जिनचन्द । मग्यो तर रंकसु देसत हाल, लयो तब केवलान विशाल ॥१६॥ दियो उपदेश महा हितकार, सुभयन चोधि समेद पधार । मुवर्णभद्र जह झूट प्रसिद्ध, बरी शिव नारि लही वसुऋद्ध ॥१७॥ जज तुम चरण दुई कर जोर, प्रभृ लसिये अब ही मम ओर । कई 'यसनार रत्न' बनाय, जिनेश हमें भवपार लगाय ॥१८॥ जय पारस देवं सुरकृत सेवं वन्दत चरण सुनागपती। करुणाके धारी पर उपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ॥
मोगागिनेन्टाप नियंपा पारा । अडिल्ल -जो पूज मनलाय भव्य पारस प्रभु नितही । ताके दुःख सब जांय भीति व्याप नहिं कितही।
सुग्व सम्पनि अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे। अनुक्रमसों शिव लहे, रतन' इस कहै पुकारे ।।
यागीयांट पुरिलि क्षिपेत ।
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श्री महावीर स्वामी पूजा
नतगयन्द ।
प्रेम सम्
श्रीमती हरे वीर, भरे सुख-सीर अनाकुलताई । केहरि अङ्कल अरी करदङ्क, नये हरि-पङ्कति-सौ लिसु आई ।। मैं तुमको इत थापतु हौं प्रभु, भक्ति समेत हिये हरखाई । हे करुणा धन धारक देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहि आई ||
क्षीरोदधितम शुचि नीर, कञ्चनभृङ्ग भरों । प्रभु बेग हरो भव पीर, यातै धार करो ॥ श्रीवीर सहा अतिवीर सम्मतिनायक हो । जय वर्द्धमान गुण-धीर, सम्मति-दायक हो ॥ १ ॥
स्वाहा ॥
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कुछ ही श्रन्हावी, विन्न वन्न्छ
मलयागिरि - चन्दनसार, केशर - संग घलों । प्रभु भव आताप निवार पूजत हिये हुलसो ॥ श्रीवीर० ॥
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नन्दुलसित शशि- सम शुद्ध, लीनों थार भरी । तसुपुञ्जवरों अविरुद्ध, पावों शिव नगरी ॥ श्रीवीर० ॥
ॐ ही श्रीमहावीर जिनेन्द्राय पदप्राप्तय अक्षतान् निर्वपामीति स्वादा ||
सुमन सुमन प्यारे ।
सुरतरुके सुमन समेत, सो मनमथ - भञ्जन-हेत, पूजों पद थारे ॥ श्रीवीर० ॥
ॐ ही श्रीमहावीर जिनेन्द्राय कामवाणविवरानाय पुष्प निर्वपामीति स्यादा ॥ रस- रज्जत सज्जत सद्य, सज्जत थार भरी ।
पद जज्जत रज्जत अय, भज्जत भूख-अरी ॥ श्रीवीर०॥ ॐ ही श्रीमदायीर जिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नवेय निर्वपामीति स्वाहा ॥ तम- खण्डित मण्डित-नेह, दीपक जोवत हों ।
तुम पदतर हे सुख-गेह, भ्रम-तम खोवत हों ॥श्रीवीर ०॥
ॐ श्रीमहावीर जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ हरिचन्दन अगर कपूर, चूर सुगन्ध करा |
तुम पढ़तर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा ॥ श्रीवीर० ॥
ॐ श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अष्टमं दहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥
ऋतु - फल कल - वर्जित लाय, कंचन-थार भरों । शिव-फल-हित हे जिनराय, तुर्माढग भेंट घरों ॥ श्रीवीर० ॐ ही श्रीमहावीर जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये पल निर्वपामीति स्वाहा ॥
जल - फल वसु सजि हिस-थार, तन-मन-मोद धरों । गुण गाऊँ. भव-दधितार, पूजत पाप हरों ॥ श्रीवीर० ॥
ही श्रीमहावार जिनेन्द्राय अनन्यपदामय सर्प निवपामीति स्वाहा ॥
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म गह। राग- बगल मोहि राखो हो शरना श्रीमान जिनगयी । मो० गरभ साट सित छट्ट लियो निधि. त्रिशलाउर अपहरना। सुर सुरपति तितलेव करी नित. में पूजो सव-तरना । मोहि राखो हो शरना. श्रीवद्धमान जिनरारजी !
ल्या माहिर जनम चेततित तेरसके दिन, कुण्डलपुर कन-बरता । सुरगिरि लुरगुल पूज रचायो में पूजो सव-हरना मो० ॐ ही केल्दा
जान कर ! मगसिर असित मनोहर दशनी. ता दिन तर आचरना। नप-कुमार घर पारन कीनों में पूजों तुन बरला । सो ਵਜੋਂ ਵੀ ਜਾਂ ਕੁਦਰਾਵਾਂ ਨੇ ਅੱਤ । शुकल दशै बैशाख दिवल अरि. घाति-चतुक छय करना। केवल लहि भविभवलर तारे. जजौचरन सुखभरना मो० में ही देगाल्गन्दा काम र दार दिन्न्दरा कार्तिक श्याम अमावश शिव तिय, पावापुरते एरना । गन-फनि-वृन्द जतित वहविधि,मैं पूज्यों भव्हरनामो० ओं हैं जनाचा मोहाडनरोन्ही मिन्द्रः ।
जयनाल, बन्द हरिणीता २८ मात्रा! गणधर असनिधर. चक्रधर हलधर गदाधर वरवदा ।
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जन पूजा पाठ मा
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अरु चापधर विद्यासुधर, तिरसूलधर सेवहिं सदा ॥ दुस-हरन आनन्द-भरन तारन,तरन चरन रसाल हैं। सुकुमाल गुनमनिमाल, उन्नत भालकी जयमाल हैं ।
चन्द घत्तानन्द। जय त्रिशलानंदन, हरिकृतवंदन, जगदानंदन चंदवरं । भवताप निकंदन. तनकनमंदन रहित सपंदन नयनधर।।
छन्द बोटफ। जय केवल-भानु कलासदनं, भविकोक-विकाशन-कंजवनं । जगजीत-महा-रिपु-मोहहरं, रज ज्ञानहगांवर चरकरं ॥१॥ गर्गादिक मंगल मण्डित हो, दुःखदारिदको नित स्खण्डित हो। जगमाहिं तुमी सतपंडित हो, तुमही भवभाव विहंडित हो ॥२॥ हरिवंश सरोजनको रवि हो, बलवन्त महन्त तुमी कवि हो। लहि केवल धर्म प्रकाश कियो अवलों सोई मारगराजतियो ॥३॥ पुनि आपतने गुणमाहिं सही, सुरमन रहें जितने सवही । विनकी वनिता गुनगावत हैं, लयमाननिसों मन भावत हैं ॥ ४ ॥ पुनि नाचत रंग उसंग भरी तुद भक्ति विप पग एम धरी । झननं झननं झननं झननं, मुरलेत तहां तननं वननं ॥५॥ घननं घननं धन घण्ट बजे, हमदं हमदं मिरदंग सज। गगनांगन-गर्भगता-सुगता, ततता ततता अतता वितता ॥६॥ धृगतां धृगतां गति वाजत है, सुरताल रसाल जु छाजत है।
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जैन पूजा पाठ मह
सनन सननं सननं नभमें, इक रूप अनेक जु धारि भू ॥ ७ ॥ कई नारि सु बीन बजावति हैं, तुमरो जस उज्ज्वल गावति है । करतालविषै करताल धरें, सुरताल विशाल जु नाद करें ॥ ८ ॥ हत आदि अनेक उछाह भरी, सुरभक्ति करें प्रभुजी तुमरी । तुम्ही जगजीवन के पितु हो, तुमही विन कारणके हितु हो ॥ ६ ॥ तुम्ही लब विघ्न विनाशन हो, तुमही निज आनंद भासन हो । तुम्ही चित चिंतित दायक हो, जगमांहि तुम्ही सब लायक हो ॥१०॥ तुमरे पर मंगल मांहि सही, जिय उत्तम पुण्य लियो सदही । हमको तुमरी शरनायत है, तुमरे युगमें सन पागत है ॥ प्रभु सो हिय आप सदा बसिये, जब लौं वसु कर्म नहीं नतिये | तब लौं तुम ध्यान हिये वरतो, तब लौं श्रुत चितन चित्तरतों ॥ तबलौं तल व्रत चारित वाहत हों, तबलौं शुभ भाव सुहागत हों । des समसंगति नित रहो, तवलों मम संजम चित्त है ॥ १३ ॥ जबलौं नहिं नाश करौं अरिको, शिव नारिवरों समता धरिको । यह द्यो ववलौं हमको जिन जी, हम जाचत हैं इतनी सुनजी ॥ १४ ॥
११ ॥
१२ ॥
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धत्ता
श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा नाग नरेशा भगतिभरा । 'वृन्दावन' ध्यावै विघन नशावै, वांछित पावे शर्मवरा ॥
म ही श्रीमहावीर जिनेन्द्राय महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा - श्री सनमतिके जुगलपद, जो पूजै धरि प्रीत । 'वृन्दावन' सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
तीर्थक्षेत्र पूजा-संग्रह
श्री सम्मेदशिखर पूजा दोहा-सिद्धक्षेत्र तीरथ परम, है उत्कृष्ट सुथान ।
शिखर सम्मेद सदा नमू, होय पाप की हान ॥ ३ अगनित मुनि जहतें गये, लोक शिखरके तीर । तिनके पद पङ्कज नमू, नाशें भव को पीर ॥२॥
अडिल्ल छन्द । है उज्ज्वल यह क्षेत्र सु अति निरमल सही। परम पुनीत सुठौर महागुण की मही ॥ सकल सिद्ध दातार, महा रमणीक है। बन्दू निज सुख हेत, अचल पद देत है ॥ ३॥
सोरठा। शिखर सम्मेद महान, जग में तीर्थ प्रधान है। महिमा अद्भुत जान, अल्पमती मैं किम कहूं ॥ ४ ॥
पाल, सुन्दरी छन्द । सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है, अति सु उज्ज्वल तीर्थ महान है। करहिं भक्तिसु जे गुण गायक, लहहि सुर शिवकै सुख जायकै ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
अडिल्ल छन् ।
आदि और वन्दन
सुर नर हरि इन भव सागर से तिरै नही भव में जन्म जन्म के पाप सकल छिन मे सुफल होय तिन जन्म शिखर दरशन
करै ।
परै ॥
ट
करे ॥ ६ ॥
स्थापना, अडिल छन्द |
गिरि सम्मेद तै बीस जिनेश्वर शिव गये । और असंख्ये मुनी तहां ते सिध भये ॥ बन्दू मन वच काय नम शिर नायकै ! नमूं तिष्ठो श्रीमहाराज सबै इत आयकै ॥ २ ॥ दोहा —— श्रीसम्मेद शिखर सदा पूजू मन वच काय ।
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हरत चतुरगति दुःखको मन वांछित फलदाय ॥ २ ॥
ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती श्री बीस तोर्घङ्कर और प्रसस्यात मुनि मुक्ति पधारे, तिनके चरणारविन्द की पूजा श्रत्रावतरावतर सर्वोौषट् श्रह्मननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । अत्र मम सत्रिहितो भव भव वषट् सत्रिधापन । अथाष्टक, गीता छन्द |
सोहन झारी रतन जड़िये मांहि गंगा जल भरो जिनराज चरण चढ़ाय भविजन जन्म मृत्यु जरा हरौ ॥ संसार उदधि उबारने को लीजिये सुध भावसो । सम्मैद गिरपर बीस जिन मुनि पूज हरष उछावसो ॥ २ ॥ ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो बीस तीर्थङ्करादि असंख्यात मुनि मुक्ति पधारे, जन्ममृत्युरोगविनाशनाय जल० ॥ १ ॥
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जेन पूजा पाठ सप्रह
जाकी सुगन्ध थकी हो अलि गुंजते आवे घने । सो मलय संग घसाय केसर पूज पद जिनवर तने ॥ भव आताप निवारने को लीजिये सुध भावसों ॥ स०॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो बीस तीर्थङ्करादि असंख्यात मुनि मुक्ति पधारे, भवप्रताप विनाशनाय चन्दनं० ॥ २ ॥
अक्षत अखंडित अतिहि सुन्दर जोति शशि सम लीजिये । शुभ शालि उपज्वल तोय धोय सु पूज प्रभु पद कीजिये ॥
पद अक्षय कारण लेय भविजन शुद्ध निरमल भावसों ॥ स० ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो बीस तीर्थङ्करादि असख्यात मुनि मुक्ति पधारे, अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं० ॥ ३॥
है मदन दुष्ट अत्यन्त दुर्जय हते सबके प्रान ही । ताके निवारण हेत कुसुम मंगाय रंजन घ्रान ही ॥ जाकी सुवास निहार षट्पद दौरि आवै चावसों ॥ स०॥
ॐ हो श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो बीस तीर्थङ्करादि असख्यात मुनि मुक्ति पधारे, कामवाणविध्वसनाय पुष्पं० ॥ ४ ॥
रस पूर रसना घ्रान रंजन चक्षु प्रिय प्रति मिष्ट ही । जिनराज चरण चढ़ाय उत्तम क्षुधा होवै नष्ट हो || भरि थाल कञ्चन विविध व्यञ्जन लीजिये सुध भावसों ॥ स०॥ ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो बीस तीर्थङ्करादि असंख्यात मुनि मुक्ति पधारे, क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ० ॥ ५ ॥ त्रैलोक्यगर्भित ज्ञान जाको मोह निजवश कर लियो । अज्ञान तममें पड्यो चेतन चतुरगति भरमन कियो ||
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१४
ॐन पूजा पाठ मह
छिनमाहि मोह विध्स हौवें आरती कर चावसों ॥ स०॥
ॐ ही मोहसिचर निक्षत्र पर बनी तोगदि असंख्यात मुनि नलिका, दिनान दो० ॥ ६ ॥ शुभ अगर अम्बरनाल सुन्दर धूप प्रभु टिग खेवही। ए दुष्टकम प्रचण्ड तिनको होय तत छिन छेव्ही ॥ सो धूप दसु विधि जरत कारण लीजिये सुध भावसो | सol
ॐई की नन्द रहित रक्त तो दोन तद असव्यात मुनि मुक्ति पारे, अन्न पू० ७ ॥ बादाम श्रीफल लोग पिस्ता लेय शुद्ध सम्हालही। सेकार द्वारा ग्रनार केला तुरत टूटे डालही ।। भवि लेय उत्तन हेत गिव के छट विधि के दावसों ॥ स०।।
ॐ ही मीट केन्द्रित रक्त ते दोन डरादि असख्यात मुनि मुक्ति पधारे, मासना र ल ' ८॥
चपय चाल। जन्म मृत्यु जल हरे, गन्ध आताप तन्दुल पदके अक्षय मदन कू सुमन विदारै ।। क्षुधा हरण नैवेद्य दीप ते ध्वान्त नसावे । धूप दहै वसु कम मोक्ष सुख फल दरसावै ॥ ए वस द्रव्य मिलाएके अर्घ रामचन्द्र कीजिये। कर पूजा गिरिशिखरकी नरभव का फल लोजिये।
ॐ ही श्री सन्मैट शिवर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो वीस तीर्थक्रादि असख्यात मुनि मुक्ति पधार, अनर्यपदप्राप्तये अर्ध्य० ॥ ६॥
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प्रत्येक अर्घ
सोरठा। सकल कर्म हनि मोक्ष, परिवा सित बैशाख ही। जजौ चरण गुण धोख, गये सम्मेदाचल थकी ॥ १ ॥
ॐ हो श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती ज्ञानधर कूट के दरशन फल एक कोड़ उपवास और श्री कथुनाथ तीर्थकरादि छानवें कोडा कोडी छानवे कोड बत्तीस तास दानवे हजार सात से वैयालिस मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ १ ॥ दोहा-जेठ शुकल चउदस दिवस मोक्ष गये भगवान।
जजौ मोक्ष जिनके चरण कर करि बहु गुणगान ।। ___ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती सुदतवर कूट के दरशन फल एक कोड उपवास श्री धरमनाथ तीर्थंकरादि गुणतोस कोडा कोडी उनीस कोड नौ लाख नौ हजार सात से पचानवे मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ २॥
चैत शुकल एकादशी शिवपुर में प्रभु जाय । लहि अनन्त सुख थिर भये आतमसू लवलाय ॥ ३ ॥
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती अविचल कूट के दरशन फल एक कोड़ि उपवास और श्री सुमतनाथ तीर्थकरादि एक कोडाकोडी चौरासी कोड़ बहत्तर ताख इक्यासी हजार सातस मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ ३ ॥
जेठ शुकल चउदस दिना सकल कर्म क्षय कीन । सिद्ध भये सुखमय रहै हुए अष्टगुण लीन ॥ ४ ॥
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती शान्तिप्रभ कूट के दरशन फल एक कोड उपवास और श्री शान्तिनाथ तीर्थंकरादि नौ कोडाकोडी नौ लाख नौ हजार नौ सौ निन्यानवे मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ ४ ॥
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३६
जन पूजा पाठ सप्रह
बदि अषाढ़ अष्टमि दिवस मोक्ष गये मुनि ईश। जन भक्तिते विमल प्रभु अर्घ लेथ नमि शीश ॥ ५॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षन परवत सेती सुवीर त कूट के दरशन पस एक कोड उपवास और विमलनाथ तीर्थकरादि सत्तर कोडाकोटी साठ तास छ हजार सात से बयालिस मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ ५ ॥
फागुन शुकल सप्तमि दिना हनि अघातियाराय । जगत फास क काटके मोक्ष गये जिनराय ॥६॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती प्रभास कूट के दरशन फत एक कोड उपवास और श्री सुपाश्वनाथ तीर्थकरादि उनचास कोडाकोडो चौरासी कोड़ वहत्तर लाख सात हजार सातसे बयालिस मुनि मुक्ति पधारे, भर्घ० ॥ ६ ॥
चैत शुकल पंचमि दिना हनि अघातिया राय । मोक्ष भये सुरपति जज मैं जजहूं गुण गाय ॥ ७॥
ॐ ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो सिद्धवर कूट के दरशन फस बत्तीस कोड उपवास और श्री अजितनाथ तीर्थकरादि एक अरब प्रस्सी कोड चौपन ताख मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ ७ ॥
जुगल नाग तारे प्रभु पार्श्वनाथ जिनराय । सावन शुकल सात दिवस लहे मुक्ति शिव जाय ॥ ८॥
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती सुवरनभद्र कूट के दरशन फत सोलह कोड उपवास और श्री पार्श्वनाथ तीर्थकरादि बयासी करोड़ चौरासी लास पैंतालिस हजार सातसै बयालिस मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ ८॥
सोरठा। हनि अघाति शिव थान, चतुर्दशी वैशाख बदि। जज़ मोक्ष कल्यान, गये सम्मेदाचल थको ॥६॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
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हनि अघाति जिनराय, चौथ कृष्ण फागुन विषै । जजू चरण गुणगाय, मोक्ष सम्मेदाचल थकी ॥ २४ ॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती मोहन कूट के दरशन फल एक कोड उपवास और श्री पद्मप्रभु तोर्घकरादि निन्यानवे कोडि सत्यासी लाख तितालिस हजार सात से सत्ताइस मुनि मुक्ति पचारे, अर्घ० ॥ २४ ॥
हनि अघाति निश्वान, फागुन द्वादशि कृष्ण ही ।
जजू मोक्ष कल्यान, गए सुरासुर पद जजो ॥ २५ ॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती निर्जर नामा कूट के दरशन फल एक कोड उपवास पर श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरादि निन्यानवे कौडा कोड सत्यानवे कोडि नौ लाख नौ सौ निन्यानवे मुनि मुक्ति पधारे, अर्धं० ॥ २५ ॥
शेषकर्म हनि मोक्ष, फागुन शुकल जु सप्तमी ।
जजू गुणनि के धोक, गये सम्मेदाचल थकी ॥ २६ ॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती ललित कूट के दरशन फल सोलह लाख उपवास और श्री चन्द्रप्रभु तीर्थंकरादि नौ सौ चौरासी प्ररव बहत्तर कोडि अस्सी लाख चौरासी हजार पाच सो पचानवे मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ २६ ॥
गये मोक्ष भगवान, अष्टमि सित असौज की ।
देहु देहु शिवथान, वसुविधि पदपङ्कज
जजू ॥ २७ ॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो विद्युतवर कूट के दरशन फल एक कोड उपवास और श्री शीतलनाथ तीर्थकरादि अठारह कोडा कोडि बयालिस कोड बत्तीस लाख बेयालिस हजार नौ सौ पांच मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ १७ ॥ दोहा - चैत कृष्ण पूनम दिवस, निज आतम को चीन । मुक्ति स्थानक जायके, हुए अष्ट गुण लीन ॥१८॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती स्वयंभू कूट के दरशन फल एक कोड उपवास और श्री अनन्तनाथ तीर्थंकरादि छानवे कोडा कोड सत्तर कोड सत्तर ताख सत्तर हजार सात से मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ १८ ॥
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सोरठा। शेष कर्म निरवान चैत शुकल षष्ठमि विषै । जजो गुणौघ उचार मोक्ष वरांगना पति भये ॥ २६ ॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सैती धवल कूट के दर्शन फल बयालीस लाख उपवास और श्री सम्भवनाथ तीर्थक्करादि नौ लोडा कोड बहत्तर लाख बयालीस हजार पाच सौ मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ।। १६ ।। दोहा-अष्टमि सित बैशाख की गए मोक्ष हनि कर्म ।
जज चरण उर भक्ति कर देहु देहु निज धर्म ॥२०॥ ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती आनन्द कूट के दर्शन फल एक लाख उपवास और अभिनन्दन तीर्थङ्करादि वहत्तर कोडा कोडि सत्तर कोड सत्तर लाख बयालीस हजार सात सै मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ।। २० ॥
चौपाई छन्द ।। माघ असित चउदश विधि सैन, हनि अघाति पाई शिव दैन । सुर नर वग कैलाश सुथान, पूजै मैं पूजू धर ध्यान ।। दोहा-ऋषभ देव जिन सिध भये, गिर कैलाश से जोय । __ मन वच तन कर पूजहूँ शिखर नमू पद सोय ॥
ॐ ह्री श्री कैलाश सिद्धक्षेत्र परवत सेती माघ सुदी १४ को श्री आदिनाथ तीर्थकरादि असख्य मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ०। दोहा-वास पूज्य जिनकी छबी अरुन वरन अविकार ।
देहु सुमति विनती कर ध्याऊं भवदधितार ।। वासु पूज्य जिन सिध भये चम्पापुर से जेह । मनवचतन कर पूज हूँ शिखर सम्मेद यजेह ॥ ।
ॐ ही श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र परवत सैती भादवा सुदी १४ श्री वासुपूज्य तीर्थङ्करादि असंख्य मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ।
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१४.
जैन पूजा पाठ सह
शुकल षाढ़ सप्तमि दिवस शेष कर्म हनि मोक्ष । शिव कल्याण सुरपति कियो जजू चरण गुण धोन्त ।। नेमनाथ जिन सिद्ध भये सिद्ध क्षेत्र गिरनार ।
मन वच तन कर पूज हूँ भवदधि पार उतार ॥ ॐ ही श्री गिरनार सिद्धक्षेत्र परवत सेतो अषाढ़ सुनी साते को प्री नेमिनार तीर्घवरादि बहत्तर कोड़ सात से मुनि मुक्ति पधारे, पर्य० । दोहा—कार्तिक वदि मावस गये शेष कर्म हनि मोक्ष ।
पावापुरते वीर जिन जजू चरण गुण धोक ॥ महावीर जिन सिद्ध भये पावापुर से जोय ।
मन वच तन कर पूजहूं शिखर नमूं पद दोय ॥ - ही श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र परक्त सेतो कार्तिक दो ममावत को श्री वर्द्धमान तीर्यकरादि पसंख्य मुनि मुक्ति पधारे, अर्घo 1 दोहा—सुधर्मादि गणेश गुरु अन्तिम गौतम नाम ।
तिन सबकू लै अर्घ तै पूजू सब गुण धाम || . • हो श्री सुधर्मादि गौतम गणधर देव गुरावा ग्राम के उद्यान आदि भित्र-भित्र स्थानो से निरवारा पधारे, जर्घ० । दोहा—या विधि तीर्थ जिनेश के बन्दू शिखर महान ।
और असंख्य मुनीश जे पहुंचे शिवपद थान ॥ सिद्ध क्षेत्र जे और हैं भरत क्षेत्र के मांहि । और जे अतिशय क्षेत्र हैं कहे जिनागम मांहि ॥
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बेन पूजा पाठ संप्रद
१४१ तिनके नाम सु लेत ही पाप दूर हो जाय । ते सब पूजू अर्घ ले भव भव को सुखदाय ।। ॐ हो श्री भरत क्षेत्र सम्बन्धी सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्रेभ्यो अर्घ ० ।
सोरठा। दीप अढ़ाई मांहि सिद्धक्षेत्र जे और हैं। पूज अर्घ चढ़ाय भव भव के अघ नाश हैं ।
अडिल्ल छन्द। पूजू तीस चौबीसी महासुख दाय जू । भूत भविष्यत् वर्तमान गुण गाय जू ॥ कहे विदेह के बोस नमू सिरनाय जू ।
और जू अर्घ बनाय सु विघन पलाय न । ॐ ही श्री तीस चौवीसी और भूत भविष्यत् वर्तमान जोर विदेह क्षेत्र के वीस जिनेश्वर अर्घ ०। दोहा-कृत्याकृत्यम जे कहे तीन लोक के मांहि ।
ते सब पूजू अर्घ ले हाथ जोर सिरनाय ।।
ॐ ही श्री ऊर्ध्वलोक मध्यलोक पाताललोक सम्बन्धी जिन मन्दिर जिन चैत्यालयेभ्यो नम अर्ध । दोहा-तोरथ परम सुहावनो शिखर सम्मेद विशाल ।
कहत अल्प बुधि युक्ति से सुखदाई जयमाल ॥
___ अथ जयमाला, छन्द पद्धडी। जय प्रथम नम जिन कुन्थ देव, जय धर्म तनी नित करत सेव । जय सुमति सुमति सुधबुद्धि देत, जय शान्ति नमूं नित शान्ति हेत ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
जय विमल न आनन्द कन्द जय सुपार्स न, हनि पास मन्द । जय अजित गये शिव हानि कर्म, जय पाव करी जुग उरग सर्म ।। पश्चिम दिस जानू टोक एव, वन्दे चहुँगति को होय छेव । नर सुर पद की तो कौन बात, पूजे अनुक्रमते मुक्ति जात ॥ जय नेमि तनू नित धरू ध्यान, जय अरि हर लीनो मुक्ति थान। 'जय मल्लि मदन जय शील धार, श्रेयास गये भव उदधि पार ॥ जय सुमति सुमति दाता महेश, जय पद्म नमूं तम हर दिनेश । जय मुनि सुवृत गुण गण गरिष्ट, जय चन्द्र कर आताप नष्ट ॥ जय शीतल जय भव के आताप, जय अनन्त नमू नशि जात पाप । जय सम्भव भव की हरो पीर, जय अभय करो अभिनन्दन वीर ॥ पूरव दिश द्वादश कूट जान, पूजत होवत है अशुभ हान । फिर मूल मन्दिरकू करू प्रणाम, पावै शिव रमनी वेग धाम ।
___पत्ता छन्द । श्री सिद्ध सु क्षेत्र अति सुख देतं तुरतं भव दधि पार करं। अरि कर्म बिनासन शिव सुख कारन जय गिरवर जगता तारं॥
चाल छप्पय । प्रथम कुथ जिन धर्म सुमति अरु शान्ति जिनन्दा । विमल सुपारस अजित पार्श्व मेट भव फन्दा ॥ श्री नमि अरह जु मल्लि श्रेयांस सुविधि निधि कन्दा। पद्म प्रभु महाराज और मुनि सुवृत चन्दा ।।
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शीतलनाथ अनन्त जिन सम्भव जिन अभिनन्दजी। बीस टोंक पर बीस जिनेश्वर भाव सहित नित बन्दजी॥
ॐ हो यो सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती बीस नीदरादि असाल्यात मुनि मुक्ति पधारे, अर्घम् ।
कविता शिखर सम्मेदजी के बीस टोक सब जान । तासों मोक्ष गये ताकी संख्या सब जानिये ॥ चउदासे कोड़ा कोड़ि पैसठ ता ऊपर । जोडि छियालिस अरब ताको ध्यान हिये आनिये ॥ बारा सै तिहत्तर कोड़ि लाख ग्यारा से बैथालीस। और सात सै चौतीस सहस बखानिये ॥ सैकडा है सातसै सत्तर राते हुए सिद्ध ।
तिनकू सु नित्य पूज पाप कर्म हानिये ॥ दोहा-बीस टोंक के दरश फल, प्रोषध सख्या जान । एकसौ तेहत्तर मुनी, गुण सठ लाख महान ।।
घत्ता छन्द। र बीस जिनेश्वर नमत सुरेसुर मघवा पूजन कू आवै । नरनारी ध्यावै सब सुख पावै रामचन्द्र नित सिर नावै ॥
इति पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
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जेन पूजा पाठ मह
श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र पूजा दोहा
उत्सव किय पनवार जहॅ, सुरगणयुत हरि आय । जजों सुथल वसुपूज्य तसु, चम्पापुर हर्षाय ॥
ॐ ह्रीं श्री नन्नापुर क्षेत्र । अत्रावतरायत्तर सीपट् । ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र । अत्र मन सहितो भय भय यद् । अष्टक चाल नन्दीश्वर पूजन की
सम अमिय विगतत्रस वारि, लै हिम कुम्भ भरा । लख सुखद त्रिगदहरतार, दे प्रय धार धरा ॥ श्रीवासुपूज्य जिनराय, निर्वृतिथान प्रिया । चम्पापुर थल सुखदाय, पूजों हर्प हिया ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धऐत्रेभ्यो अन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ||१|
कश्मीरी केशर सार, अति ही पवित्र खरी ।
शीतल चन्दन संग सार लै भव तापहरी ॥ श्री० ॥ ॐ ही श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वष्टा ॥ २ ॥
मणिद्युतिसम खण्ड विहीन, तन्दुल लै नीके । सौरभ युत नव वर वीन, शालि महा नीके ॥ श्री० ॥
ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धतेनेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये भक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
अलि लुभन सुभग हगघ्राण, सुमन जु सुरद्रुमके | ले वाहिस अर्जुन वाण, सुमन दमन झुमके ॥ श्री०
७)
ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामवाणविध्वशनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
रस पूरित तुरि पकवान, पक्ष यथोक घृती। क्षुधगदमदादमन जान, लै विध युक्त कृती ॥श्री०॥ कही श्री चन्मापुर सिद्धग्रेभ्यो धारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्याहा ॥ ५॥ तम अज्ञप्रनाशक सूर, शिवमग परकाशी। लै रत्नद्वीप (तिपूर, अनुपम सुखराशी ॥ श्री० ॥ ॐ ही श्री चम्पापुर सिद्धग्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ वर परिमल द्रव्य अनूप, सोध पवित्र करी । तस चरण कर कर धूप, लै विधि कुञ्ज हरी ॥श्री०॥ ॐ हीं श्री चम्पापुर सिदभ्यो अष्टकर्मविश्वशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७॥ फल पक्क मधुर रस दान, प्रासुक वह विधके । लखि सखद रसनहगघ्रान, ले शुभपद सिधके॥ श्री०॥
हो श्री चम्पापुर मिग्रेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निर्यपामीति स्याहा ॥ ८॥ जलफलवस द्रव्य मिलाय, लै भर हिमधारी। वस अंग धरापर ल्याय, प्रमुदित चितधारी ॥ श्री०॥ ॐही श्री चम्मापुर सिद्धग्रेभ्यो भनयंपदप्राप्तये अध्यं नियंपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
जयमाला।
दोहा भये द्वादशम तीर्थपती, चम्पापुर निर्वान । तिन गुणकीजयमाल कछ,कोंश्रवणसुखदान।
पद्धडी छन्द । जय जय श्री चम्पापुर सुधाम, जहं राजत नृप वसुपूज नाम । जय पौन पल्यस धर्म हीन, भव भ्रमण दुःखमय लख प्रवीन ॥ उर करुणाघर सो तम विडार, उपजे किरणावलि घर अपार ।
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रसद
श्री वासुपूज्य तिन चाल, बादाम तीर्षका विशाल ॥ भन भोग देहत विश्न- होय, वय बाल्नाहि ही नाय नोय । सिड्न ननि महान मार तीन, तप हाइन्न विष उपोष चीन ॥ तह मोन उत्रय आय ह. इन प्रति पूई ही क्ष्य रह । अं अन्न आह होय, गुरु नान नाग नदनाहि सोय । सोलह बस इस पद न शक इस इम इन कर रहय । पुनि सनयान क लोम् दारहाइमन्यान सोलह द्विारा हे अनन्तु तुष्टय यूज स्वाल पायो ३ सुखद नयोग वान.! तह काल गिोचर सम्या सुमरन हि जन्य इजनहित्य ।।
जाल दुवित्र र अनिय कृष्ट. जर पोरे भविमाने धान्य दृष्टी इङ्ग कल आप की जान. जिन गोगन की नुचि दान ।। ताही धस ते जिवघ्यान ब्णय, मुनसनयान निवसे जिताय । ह भ नलए नहर. तो जु बसचा तिपहि पनि । तेरह न रन सनय द्वार, कार श्री जगन्दर प्रहार । इसनि अवनीश अन्य नदि, विवो पार निः चल ऋद्धि । युन गु बनु र अमित गुप्लेन है हे ना ही उनहि बैन । तुम्ही में सो पाना पवित्र, त्रैलोन्य गायो निवित्र ॥ ने वतु रज निज तक लाय. बन्दौं पुनि पनि मुवि होस नाय ! ताही पर वांडा उर मार. घर अन्य बाह बुद्ध बिडार।
दोहा श्रीचन्पापुर जो पुल्प. पूजे सन वच काय ! वगिल तो पाय ही, सुख सम्पति अधिनाय !!
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मन पुमा पास
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भी गिरनार सिद्धक्षेत्र पूजा
दोहा-वन्दी नेमि जिनेश पद, नेमि-धर्म दातार ।
नेम धुरन्धर परम गुरु, भविजन सुख करतार । जिनवाणीकोप्रणमि कर गुरु गणधर उरधार । सिद्धक्षेत्र पूजा रचों, सब जीवन हितकार । ऊर्जेचन्त गिरिनाम तस, कायो जगत विख्यात। गिरिनारी तासों कहत, देखत मन हात ।।
पिलंदिरा सपा सुन्दरी बन्द ।। गिरि सु उन्नत सुभगाकार है, पञ्चकूट उत्तंग सुधार है। वन मनोहर शिला सुहावनी, लखत सुन्दर मनको भावनी॥ अवर कूट अनेक बने तहां, सिद्ध धान सु अति सुन्दर जहां। देखि सरिजन मन हर्पावते. सकल जन वंदनको आवते॥ तह नमसाग त तप धारा, कर्म विदारा शिव पाई। मुनि कोटि बहत्तर सात शतक धर तागिरि ऊपर सुखदाई।। है शिवपुरबासी गुणके राशी विधि थिति नाशी द्धिधरा। तिनके गुण गाऊँ पूज रचाऊँ, मन हर्षाऊँ सिद्धि करा॥ दोहा-सो क्षेत्र महान तिहिं. पूजों मन वच नाय ।
वय वार जु कर थापना, तिष्ठ तिष्ठ इत आय ॥
ही भी गिरनार मित्र धन भरतर प्रपतर गपोपट । नधी गितार मित्राय सिप्छा तिप्टन मठ स्थापन ।
भी सिरनार सियय । अन मम सन्निदितानि भप भय पपट ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
अष्टक, कवित्त |
लेकर नीर सु क्षीर समान महा सुखदान सु प्रासुक लाई । दे त्रय धार जजों चरणा हरना मम जन्म जरा दुःखदाई ॥ नेमिपती तज राजमती भये वालयती तहत शिवपाई । कोड बहत्तर सातसौ सिद्ध मुनीश भये सुजजों हर्पाई ॥
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाये जल निर्वपामीति स्वाहा ||१||
चन्दनगारि मिलाय सुगन्ध सु, ल्याय कटोरी में धरना । मोहमहातम मेटनकाज सु चर्चतु हों तुम्हरे चरना ॥ नेमि०
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
अक्षत उज्ज्वल ल्याय धरों, तह पुंज करो मनको हर्पाई । देहु अखयपद प्रभु करुणा कर, फेर न या भववास कराई ॥ नेमि०
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्ध क्षेत्रेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्याहा ॥ ३ ॥
फूल गुलाब चमेली बेल कदंव सु चम्पक वीन सु ल्याई । प्राशुकपुष्प लवंग चंद्राय सु गाय प्रभू गुण काम नसाई ॥ नेमि
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामवाण विध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
नेवज नव्य करों भर थाल सु कंचन भाजनमें घर भाई । मिष्ट मनोहर क्षेपत हों यह रोग क्षुधा हरियो जिनराई ॥ ति०
ॐ ह्रीं श्री गिरनार 'सिद्धक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोगविनामनाय नैत्रेय निर्वपामीति खाहा ॥ ५ ॥
दीप बनाय धरों मणिका अथवा घृत वाति कपूर जलाई । नृत्य करोंकर आरति ले मम मोह महातम जाय नशाई ॥ नेमि
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
धूप दशांग सुगन्धमई कर खेबहु अग्नि मकार सुहाई ।
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शीघ्रहि अर्ज सुनो जिनजी मम कर्ममहावन देउजराई ॥ नेमि० ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिसचेत्रेभ्यो मष्टकर्मविध्वसनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
ले फल सार सुगन्धमई, रसना हृद नेत्रनको सुखदाई । क्षेपतहों तुम्हरे चरणा प्रभु देह हमें शिवकी ठकुराई ॥ नेमि०
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
ले वसु द्रव्य सु अर्ध करों घर थाल सु मध्य महा हर्षाई । पूजत हों तुमरे चरणा हरिये वसु-कर्मबली दुःखदाई ॥ नेमि०
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो अनर्थपदप्राप्तये अप्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
दोहा - पूजत हों वसुद्रव्य ले, सिद्धक्षेत्र सुखदाय । निज हितहेतु सुहावनो, पूरण अर्ध चढ़ाय ॥
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो पूर्णार्धम् निर्वपामीति स्वाहा । पञ्चकल्याणक अर्ध, छन्द पाइता ।
कातिक शुक्ला की छठ जानों, गर्भागम ता दिन मानो । उत इन्द्र जर्ज उस थानी, इत पूजत हम हर्षानी ॥
ॐ ह्रीं कार्तिकशुकाट्यां गर्भमतल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य ० ।
भावण शुक्ल छठ सुखकारी, तब जन्म महोत्सव धारी । सुरराज सुमेर न्हवाई, हम पूजत इत सुखपाई ॥
ॐ ह्रीं श्रावणायां जन्ममालमण्डिताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अय० ।
सित श्रावणकी छट्टि प्यारी, ता दिन प्रभु दीक्षा धारी । तप घोर वीर तह करना, हम पूजत तिनके चरणा ॥
ॐ ही श्रावणशुक्रमष्टी दिने दीक्षामङ्गलप्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अध्यं • •
सूक्ष्म शुक्ल आश्विन भाषा, तब केवल ज्ञान प्रकाशा ।
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१५.
जैन पूजा पाठ सप्रह
हरि समवशरण तब कीना, हम पूजत इत सुख लीना॥ ___ ॐ ही आश्विनशुजाप्रतिपदि क्वलज्ञानप्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिने द्राय अध्य० । सित अष्टमी मास अषाढ़ा, तब योग प्रभू ने छाड़ा। जिन लई मोक्ष ठकुराई, इत पूजत चरणा साई । ही आपाढशुरूपयो मोक्षमालपाप्ताय श्री नेमिनाय जिनेद्राय अप० ।
__ अडिल्ल छन्द । कोडि बहत्तरि सप्त सैकड़ा जानिये। मुनिवर मुक्ति गये तहत सु प्रमाणिये ।। पूजो तिनके चरण सु मनवचकायकैं।
वसुविध द्रव्य मिलाय सुगाय वजायकैं। दोहा- सिद्धक्षेत्र गिरिनार शुभ. सब जीवन सुखदाय । कहों तासु जयमालिका, सुनतहि पाप नशाय ॥१॥
पद्धडी छन्द! जय सिद्धक्षेत्र तीरथ महान, गिरिनारि सुगिरि उन्नत बखान । तहँ जनागड है नगर सार, सौराष्ट्र देश के मधि विधार ॥ २ ॥ विस जूनागढ से वले सोइ, समभूमि कोस वर तीन होइ । दरवाजे से चल कास आध, इक नदी वहत है जल अगाघ ॥ ३ ॥ पर्वत उत्तर दक्षिण सु दोय, मधि वहत नदी उज्वल सु तोय । ता नदी मध्य इक कुण्ड जान, दोनों तट मन्दिर बने मान ॥४॥ तह वैरागी वैष्णव रहाय, भिक्षा कारण तीरथ कराय। इक कोसतहां यह मच्चोख्याल,आगें इक वर नदी वहत नाल ॥५॥ तहँ श्रावकजन करते सनान, घो द्रव्य चलत आगें सु जान । फिर मृगीकुण्ड इक नाम जान, तहा वैरागिन के बने थान ॥६॥
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वैष्णव तीरथ जहा रच्यो सोइ, चैष्णव पूजत आनन्द होइ । जानें चल रेढ सु कोस जाप, फिर छोटे पर्वत को चढ़ाव ।। ७॥ वहां तीन कुण्ड सोहे महान, श्रीजिन के युग मन्दिर वखान। मन्दिर दिगम्बरी दोय जान, श्वेतांबर के बहुते प्रमान ॥ ८॥ जहां पनी धर्मशाला सु जोय, जलकुण्ड तहां निर्मल सु तोय । श्वेताम्बर यात्री वहां जाय, ताकुण्ड माहि नितही नहाय ॥ ६ ॥ फिर आग पर्वत पर चढ़ाय, चढि प्रथम कूट को चले जाय । तहां दर्शन कर आगें सु जाय, तहां दुतिय टोंक के दर्श पाय ॥१०॥ तहां नेमनाथ के चरण जान, फिर है उतार भारी महान । तहाचढ कर पञ्चम टोंक जाय, अति कठिन चढ़ाव तहा लखाय॥११॥ श्रीनेमनाथ का मुक्ति थान, देखत नयनों अति हर्ष मान । इक विंय चरणयुग तहा जान, भवि करत चन्दना हर्ष ठान ॥१२॥ कोउ करते जय जप भक्ति लाइ, कोऊ थुति पढते तहा सुनाय । तुम त्रिभुवनपति त्रैलोक्यपाल, मम दुःख दूर की दयाल ॥१३॥ तुम राजमद्धि भुगती न कोइ, यह अथिररूप संसार जोइ । तज मात पिता घर कुटुमा द्वार तज राजमती-सी सती नार ॥१४॥ द्वादशभावन भाई निदान, पशुवदि छोड दे अभय दान । शेसा वन में दीक्षा सुधार, तप करके कर्म किये सु छार ॥१५॥ ताही बन केवल ऋद्धि पाय, इन्द्रादिक पूजे चरण आय । तहां समवशरण रचियो विशाल, मणि पञ्चवर्ण कर अति रसाल ॥१६॥ तहा वेदी कोट सभा अनूप, दरवाजे भूमि बनी सु रूप । वसुप्राविहार्य छत्रादि सार, वर द्वादश सभा वनो अपार ॥१७॥ करके विहार देशों मझार, भवि जीव करे भव सिन्धु पार ।। पुन टोंक पञ्चमीको सु जाय, शिव नाथ लयो आनन्द पाय ॥१८॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
जोर ॥१६॥
थाय ।
सो पूजनीक वह थान जान, चन्दत जन तिनके पाप हान | तह मु बहत्तर कोड और, मुनि सात शतक सब कहे उस पर्वतों सब मोक्ष पाय, सव भूमि सु पूजन योग्य तहां देश-देश के भव्य आय, वन्दन कर बहु आनन्द पाय ॥२०॥ पूजन कर कीने पाप नाश, बहु पुण्य बंध कीनो प्रकाश । यह ऐसो क्षेत्र महान जान, हम करी चन्दना हर्ष ठान ॥२१॥ उनईस शतक उनतीस जान, सम्वत् अष्टमि मित फाग मान । सब सग सहित वन्दन कराय, पूजा कीनी आनन्द पाय ||२२|| अव दुःख दूर कीजै दयाल, कहें 'चन्द्र' कृपा कीजे कृपाल | मैं अल्पबुद्धि जयमाल गाय, भवि जीव शुद्ध लीज्यो बनाय ||२३|| तुम दयाविशाला सव क्षितिपाला, तुमगुणमाला कण्ठ धरी । ते भव्य विशाला तज जगजाला, नावत भाला मुक्तिवरी ॥
घत्ता ।
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो नहाएं निर्वपामीति स्वाहा ।
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चारित्र
आत्मा के स्वरूप में जो चर्या है उसी का नाम चारित्र है, वही वस्तु का स्वाभाविक धर्म है ।
■ सयम का पालन करना कल्याण का प्रमुख साधन है ।
■ ससार में वही जीव नीरोग रहता है, जो अपना जीवन चारित्र पूर्वक बिताता है ।
■ उपयोग की निर्मलता हो चारित्र है ।
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'वर्णी वाणी' से
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भी पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा
जिहि पावापुर छित अघाति, हत सन्मति जगदीश । भये सिद्ध शुभधान सो, जजों नाय निज शीश ॥
ॐ हो श्री दावापुर सिद्धक्षेत्र ! स्वतर स्वतर संवोधट् श्राननं । ॐ ही प्रो पावापुर सिद्धक्षेत्र ! पति विस्थापन । ॐ श्री पावापुर निक्षेत्र ! मम सहितो व भव अथाष्टक, गोता छन्द |
शुचि सलिल शीतौ कलिलरीतौ श्रमण चीतौ लै जिसो । भर कनक भारी त्रिगद हारी, दै त्रिधारी जित तृषो ॥ वर पदावर भर पद्म सरवर, वहिर पावा ग्राम ही । शिवधाम सन्मत स्वामी पायो, जजों सो सुखदा नही || श्रीपाधापुर भ्यो वनाथ जिनेन्द्राय जन्ममृत्युरोगविनाशनाय जलं० ॥२॥ भव भ्रमत भ्रमत शर्मा तपकी, तपन कर तप ताइयो । तसु बलय-कन्दन मलय-चन्दन, उदक सग घिसाइयो || वर० पावापुर सिद्धक्षेत्रे दोन नेिन्द्राय समारतापविनाशनाय चन्दनं० ॥२॥ तन्दुल नवीन अखण्ड लीने, ले महीने ऊजरे । मणिकुन्द इन्दु तुषार द्युति जित, कनक- रकाबी में धरे ॥ वर पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वन निन्द्रा पदप्राप्तये अक्षत० ॥ ३ ॥
मकरन्दलोभन सुमन शोभन सुरभि चोभन लेय जी । मद समर हर वर अमर तरुके, घ्राण हग हरखेय जी ॥ वर० श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वीरनाथ जिनन्द्राय कामवासविध्वसनाय पुष्प० ॥ ४ ॥ नैवेद्य पावन छुध मिटावन, सेव्य भावन युत किया । रस मिष्ट पूरित इष्ट सूरति, लेयकर प्रभु हित हिया || वर० ॐ ही श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वोरनाथ जिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ० ॥ ५ ॥
वषट् सत्रिधापनं 1
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जैन पूजा पाठ समह
तम अज्ञ नाशक स्वपरभाशक ज्ञेय परकाशक सही । हिमपात्रमे धर मौल्यबिन वर घोतधर मपि दीपही ॥ वर० ॐ ही श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वोरनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप० ॥६॥
आमोदकारी वस्तुसारी विध दुचारी - जारनी !
तसु तूप कर कर धूप ले दशदिश- सुरभि - विस्तारनी ॥ वर० ॐ ह्री श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वीरनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वसनाथ धूप० ॥ ७ ॥ फल भक्क पक सुचक्य सोहन, सुक जनमन मोहने ।
वर सुरस पूरित त्वरित मधुरत लेय कर अति सोहने ॥ वर०
हो श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वोरनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये प्लं० ॥ ८ ॥ जल गन्ध आदि मिलाय वसुविध धारस्वर्ण भरायकै । मन प्रमुद भाव उपाय करले आय अर्ध बनायकै ॥ वर० ॐ ह्री श्री पावांपुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वीरनाथ जिनेन्द्राय श्रनपदप्राप्तये ॥ ६ ॥
जस्वाला |
दोहा - चरम तीर्थ करतार, श्री वर्द्धमान जगपाल । कल मलदल विध विकल है, गाऊँ तिन जयमाल ॥ पद्धडी छन्द ।
जय जय सुवीर जिन मुक्ति धान, पावापुर वन सर शोभवान । जे सित असाढ छट स्वर्ग धाम, तज पुष्पोत्तर सुविमान ठान ॥ १ ॥ कुण्डलपुर सिद्धारथ नरेश, आये त्रिशला जननी उरेश । सित चैत त्रयोदशि युत त्रिज्ञान, जनमे तम भज्ञ-निवार भात | पूर्वाह्न धवल चउदिशदिनेश, किय नहुन कनकगिरि-शिर सुरेश । वय वर्ष तीस पद कुमरकाल, सुख दिव्य भोग भुगते विशाल ॥ ३ ॥
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मगसिर अलि दशमी पवित, चट चन्द्रपभा शिविका विचित्र । चलि पुर सो सिद्धन शीरानाय, धारो सजम वर शर्मदाय ॥ ४ ॥ गत वर्ष दुदरा कर तप विधान, दिन शित वैशाख दशै महान । रिजुकूला सरिता तट स्व सोध, उपजायो जिनवर चमर बोध ॥ ५ ॥ तब ही हरिआज्ञा शिर चढाय, रवि समवशरण वर धनदगय । चउसंघ प्रति गौतम गणेन युत तीस वर्ष विहरे जिनेश ॥ ६ ॥ भविजीव देशना विविध देश, आये वर पावानगर खेत । कार्तिक अलि अन्तिम दियत ईस, कर गोग निरोध अघाति पीस ॥ ७ ॥ ह सिद्ध अमल इक समग माहि, पजम गति पाई श्री जिनाह । तव सुरपति जितरवि भरत जान, माये तुरन्त चढि निज विमान ॥ ८ ॥ कर वपु अरचा युति विविध भांत, ले विविध द्रव्य परिमल विरयात । तब ही अगणीन्द्र नवाय पीत, सस्कार देह की विजगदीश ॥ ९ ॥ कर भस्म वन्दना निज महीय, निवसे प्रभु गुण चितवन स्वहीय । पुनि नर मुनि गणपति आय-आय, वदी सो रज शिर नाय-नाय ॥१०॥ तवही सो सो दिन पूज्य मान, पूजत जिनगृह जन हर्प मान । मैं पुन-पुन तिस भुवि शीश धार, बन्दी तिन गुणधर उर मझार ॥११॥ तिनही का अब भी तीर्थ एह, बरतत दायक अति शर्म गेह । अरु दुःखमकाल अवसान ताहि, वर्तगो भव तिथि हर सदाहि ॥१२॥
कुसुमलता छन्द। श्रीसन्मति जिन अघ्रिपद्म यग जज भव्य जो मन वच काय। ताके जन्म-जन्म संचित अघ जावहि इक छिन माहिं पलाय ॥ धन धान्यादिक शर्म इन्द्रपद लहै सो शर्म अतीन्द्री थाय । अजर अमर अविनाशी शिवथल वर्णी दौल रहै शिर नाय ॥
ॐ ही श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो महाघम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा
अडिल्ल छन्द । जम्बूद्वीप मझार स भरत क्षेत्र कहो।
आर्य खण्ड सु जान भद्र देशे लहो । सुवर्णगिरि अभिराम सु पर्वत है तहां।
पञ्चकोड़ि अरु अर्द्ध गये मुनि शिव तहां ॥१॥ दोहा-सोनागिरिके शीश पर, बहुत जिनालय जान।
चन्द्रप्रभु जिन आदि दे, पूजों सब भगवान ॥ ही धी पोनागिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो । अन्न अवतर अवतर सवौषट् आहातन । ही श्री सानागिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो ! अन तिष्ठ तिष्ठ 3. 2' स्थापन । ॐ हो श्री मोनागिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो ! मन मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
___अथाष्टक, सारङ्ग छन्द ।। पदमबह को नीर ल्याय गंगा से भरके ।
कनक कटोरी मांहि हेम थारन में धरके ।। सोनागिरिक शीश भूमि निर्वाण सुहाई।
पञ्चकोडि अरु अर्द्ध मुक्ति पहुंचे मुनिराई॥ चन्द्रप्रभु जिन आदि सकल जिनवर पद पूजो।
स्वर्ग मुक्ति फल पाय जाय अविचल पद हो ।। दोहा -सोनागिरि के शीष पर, जेते सब जिनराज ।
तिनपद धारा तीन दे, तृषा हरण के काज ।। *ही श्री मोनागिरि निर्वाणयेने यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निवपार्माति स्वाहा ।।१०
केसर आदि कपूर मिले मलयागिरि चन्दन । परिमल अधिकी तास और सब दाह निकन्दन ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रद
सोनागिरि के शीश पर जेते सब जिनराज । ते सुगन्ध कर पूजिये, दाह निकन्दन काज ॥
१५७
'ही थी सोनागिरि निर्माण क्षेत्रेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति साहा ॥२॥2 तन्दुल धवल सुगन्ध ल्याय जल धोय पखारो । अक्षय पद के हेतु पुअ द्वादश तहॅ धारो ॥ सोनागिरि के शीश पर जेते सब जिनराज । तिन पद पूजा कीजिये, अक्षय पद के काज ॥ ही थी सोनागिरि निर्माणपेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३० वेला और गुलाव मालती कमल मंगाये । पारिजात के पुष्प ल्याय जिन चरण चढ़ाये ॥ सोनागिरि के शीश पर, जेते सब जिनराज । ते सब पूर्जी पुष्प ले, मन विनाशन काज ॥
ही थी सोनागिरि निर्वाणक्षेत्रभ्यो पामवाणपिध्वरानाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥
विंजन जो जगमांहि खांडघृत मांहि पकाये | मीठे तुरत घनाय हेम धारी भर ल्याये ॥ सोनागिरि के शीश पर जैते सब जिनराज । ते पूजों नैवेद्य ले, क्षुधा हरण के काज ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिरि निर्माणक्षेत्रेभ्यो सुधारोगपिनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ मणिमय दीप प्रजाल धरौं पंकति भर थारी । जिन मन्दिर तम हार करहु दर्शन नर-नारी ॥ सोनागिरि के शीश पर जेते सब जिनराज । करों दीप ले आरती, ज्ञान प्रकाशन काज ॥
ॐ हीं श्री सोनागिरि निर्याणक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥
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१५८
जेन पूज पाठ सप्रह
दशविध धूप अनूप अनि भाजन मे डालो। जाकी धूप सुगन्ध रहे भर सर्व दिशालों ।। सोनागिरि के शोश पर जेते सब जिनराज ।
धूप कुम्ल आगे धरो, कम दहन के काज ॥ ॐ ह्रीं श्री सोनागिरि नेवाणक्षेत्रेभ्यो अष्टकमविध्वशनाय धूप निवपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
उत्तम फल जग माहि बहुत मीठे अरु पाके । अमित अनार अवार आदि अमृत रस छाके। सोनागिरि के शीश पर, जेते सब जिनराज ।
उत्तम फल तिनको मिले, कर्म विनाशन काज ।। ॐ ही श्री सानानिवि निवाणक्षेत्रभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निवपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ दोहा - जल आदिक वसु द्रव्य अर्घ करके धर नाचो।
वाजे बहुत वजाय पाठ पढ़ के सुख सांचो । सोनागिरि के शीश पर, जेते सब जिनराज।
ते हम पूजे अर्घ ले, मुक्ति रमण के काज ।। ॐ हीं श्री सोनागिरि निवाणक्षेत्रेभ्यो अनर्थ्यपदप्राप्तये अध्यं निवामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
अडिल बन्द । श्री जिनवर की भक्ति सु जे नर करत है। फल वांछा कुछ नाहि प्रेम उर धरत है। ज्यों जगमाहि किसान सु खेती को करें । नाज काज जिय जान सु शुभ आपहि झरें । ऐसे पूजादान भक्ति यश कीजिये।
सुख सम्पति गति मुक्ति सहज पा लीजिये। ॐ ह्री श्री सोनागिरि निर्वाणक्षेत्रेभ्यो पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा। '
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बेन पूजा पाठ सम्ह
१५९
अथ जयमाला ।
दोहा - सोनागिरिके शीश पर, जिन-मन्दिर अभिराम । तिन गुणकी जयमालिका, वर्णत 'आशाराम ' ॥१॥
एड्डी छन्द ।
गिरि नीचे जिन मन्दिर सुचार, ते यतिन रचे शोभा अपार । तिनके अति दीरघ चौक जान, तिनमे यात्री भेलें सु आन ॥ २ ॥ गुमटी छज्जे शोभित अनूप, ध्वज पद्धति सोहैं विविध रूप | चसु प्रातिहार्यं तहां घरे आन, सब मङ्गल द्रव्यन की सुखान ॥ ३ ॥ दरवाजों पर कलशा निहार, करजोर सु जय जय ध्वनि उचार | इक मन्दिरमं यति राजमान, आचार्य विजय कीर्ति सुजान ॥ ४ ॥ तिन शिष्य भागीरथ विबुध नाम, जिनराज भक्ति नही और काम। अन पर्वत को चट चलो जान, दरवाजो वहा इक शोभमान ॥ ५ ॥ तित ऊपर जिन प्रतिमा निहार, तिन वंदि पूज आगे सिधार । तहां दुःखित भुखित को देत दान, याचक जन जहां हैं अप्रमाण ||६|| आगे जिन मन्दिर दुहुँ ओर, जिन मान होत वादित्र शोर । माली बहु ठाडे चौक पौर, ले हार कलङ्गी तहां देत दौर ॥ ७ ॥ जिन यात्री तिनके हाथ मांहि, वखशीस रीझ त देत जाहिं । दरवाजो तहा दूजो विशाल, तहां क्षेत्रपाल दोउ ओर लाल ॥ ८ ॥ दरवाजे भीतर चौक मांहि जिन भवन रचे प्राचीन आहिं । तिनकी महिमा चरणी न जाय, दो कुण्ड सुजलकर अति सुहाय ॥६॥ जिन मन्दिर की वेदी विशाल, दरवाजे तीनों बहु सु ढाल । ता दरवाजे पर द्वारपाल, ले मुकुट खड़े अरु हाथ माल ॥ १० ॥
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१६०
जैन
पूरा गठ संग्रह
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जे दुर्जन को नहीं जान देय ते निन्दक को ना दर देव | चन्द्र प्रभु के चौक माहि, दालाने वहां चौतर्फ आहि ॥ ११ ॥ वहां मध्य सभा मण्डप निहार, तितकी रचना नाना प्रकार | तहाँ चन्द्र के दरश पाप, फल जात लहो तर जन्म आय ॥ १२ ॥ प्रतिमा विशाल वहां हाथ साव. कायोत्सर्ग हुद्रा तुहाव | बन्दे पूछें तहां देवदान, जननृत्य सजत कर मधुर गान ॥ १३ ॥ ता धेरै धेरै धेरै वाजत सितार, मृदङ्ग बीन मुहार । तिनकी ध्वनि तुनि भवि होत प्रेम, जयकार करत नाहत एव ॥ १४ ॥ ते स्तुति करके फिर नाय शीस, भवि चले तो करीत । इह सोनागिरि रचना अपार, वर्णन कर को कवि हे पार ॥ १५ ॥ अति तक वृद्धि 'आशा' तुरार. वत भक्ति कही इतनी गा । मैं मन्दबुद्धि किम लहों पार, बुद्धिवान चूक लीजे सुधार ॥ १६ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिरि णिक्षेत्रयो नहायानीति स्वाहा।
दोहा - सोनागिरि जयमालिका, लघुमति कहो बताय । प्रीतले, तो तर शिवपुर जाय ॥
पढे सुने जो
इत्पदः ।
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जन पूजा पाठ संग्रह
अथाष्टका
श्री खण्डगिरि क्षेत्र पूजा
दोहा अंगवंग के पास है देश कलिंग विख्यात । तामें खण्डगिरि लसत है, दर्शन भव्य सुहात । दसरथ राजा के सुत अति गुणवान जी।
और मुनीश्वर पञ्च सैंकड़ा जान जी ॥ अष्ट-कर्म कर नष्ट मोक्षगामी भये। तिनके पूजहुँ चरण सकल मंगल ठये॥ ॐ ही श्री कलिंगदेशमध्ये खण्डगिरि सिवरेत्र से सिद्धपद प्राप्त दशरय राजा के सुत सया पञ्चशतक मुनि ! अत्र अवतर भयतर संवौषट् आहानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । अत्र मम सनिहितो भव भष षषट् सनिघापनम् । .
अति उत्तमशुचि जल ल्याय, कञ्चन कलश भरा। करूं धार सु मन वच काय, नाशत जन्म जरा॥ श्री खण्डगिरि के शीश जसरथ तनय कहे । मुनि पञ्चशतक शिव लीन देश कलिंग दहे। ही श्री खण्डगिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्युपिनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ केशर मलयागिरि सार, घिसके सुगन्ध किया। संसार ताप निरवार, तुम पद वसत हिया ॥ श्री०॥
ही श्री खण्डगिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ मुकाफल की उन्नमान, अक्षत शुद्ध लिया। मम सर्व दोष निरवार, निजगुण मोह दिया ॥श्री०॥ ॐ हाँ श्री खण्डगिरि सिनोत्रेम्पो मक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्याहा ॥ ३ ॥ ले सुमन कल्पतरु थार, बुन-चुन ल्याय धरूं। तुम पद लिंग धरतहि, पाण काम समूल हरूं॥ श्री०॥ ॐ ही श्री खण्डमिरि सिसक्षेत्रेम्यो कामषाणषिध्यशनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥
११
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जैन पूजा पाठ संग्रह
लाडू घेवर शुचि ल्याय, प्रभु पद पूजन को। धरूं चरणन ढिग आय, मम क्षधा नाशन को॥ श्री० ॥ *ही श्री अण्डगिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो सुधारोगाधनाशनाय नेवेद्य निवपामीति म्वाहा ॥ ५ ॥ ले मणिमय दीपक थार, दोय कर जोड धरो। मम मोह अन्धेर निरवार, ज्ञान प्रकाश करों ॥ श्री० ॥ ॐही श्री सागिरि सिमक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप नियंपामीति म्वाहा ॥६॥ ले दशविधि गन्ध कुटाय, अग्नि मझार धरों। मम अष्ट-कर्म जल जांय, यातें पांय परों ॥ श्री० ।। ॐ ह्रीं श्री खण्ड गिरि सिद्धक्षयम्यो अष्टकर्म विनाशनाय धूप निवपामीति स्वाहा ॥ श्रीफल पिस्ता सु बदाम, आम नारंगि धरूं । ले प्रासुक हिम के थार, भवतर मोक्ष वरूं ।। श्री०॥ ॐ ही श्री खण्डगिरि सिसक्षेत्रभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निवपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ जल फल वसु द्रव्य पुनीत, लेकर अर्घ करूं। नाचं गाऊ इह भांत, भवतर मोक्ष वरूं ।। श्री०॥ ॐ ही श्री खण्डगिरि सिसप्रेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निवपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
जयमाला। दोहा- देश कलिंगके मध्य है, खण्डगिरि सुखधाम ।
उदयागिरि तसु पास है, गाऊँ जय जय धाम ॥ श्रीसिद्ध खण्डगिरि क्षेत्र जान, अति सरल चढाई तहा मान । अति सघन वृक्ष फल रहे आय, तिनकी सुगन्ध दशदिश जु जाय ॥ ताके सु मध्य में गुफा आय, नव मुनि सुनाम ताको कहाय । तामें प्रतिभा दशयोग धार, पद्मासन है हरि चवर डार ।। ता दक्षिण दिश इक गुफा जान, तामें चौबीस भगवान मान ।
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बेन पूजा पाठ सह
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प्रति प्रतिमा इन्द्र सडे दुओर, कर घंवर धरै प्रभु भक्ति नोर ।। आज बाज खडी देवी द्वार, पद्मावती चक्रेश्वरी सार । कर द्वादश भुजि हधियार धार, मानहुँ निन्दक नहिं आवें हार ।। ताफे दक्षिण चली गुफा आय, सतवसरा है ताको कहाय । तामें चौपीसी पनी मार, अरु प्रय प्रतिमा सय योग धार ।। सबमें हरि चमर सु घरहि हाथ, नित आय भन्य नावहिं सु माय । ताके ऊपर मन्दिर विशाल, देखत भविजन होते निहाल ।। सा दक्षिण टूटी गुफा आय, तिनमें ग्यारह प्रतिमा सुहाय । 'पुनि पर्वत के अपर सु जाय, मन्दिर दीरय मन को लुभाय ।। तामें प्रतिमा मगवान जान, सद्गासन योग धरै महान । ले अट द्रव्य तनु पूज्य कीन, मन वच तन करि मम धोक दीन । मपो जन्म मफल अपनो सु भाय, दर्शन अनूप देसो जिनाय । जय अष्ट-फर्म होंगे जु चर, जात मुख पाहें पूर-पूर ।। पूरब उत्तर द्वय निज सु धाम, प्रतिमा खड्गासन अति महान । दर्शन करके मन शुद्ध होय, शुभ वन्ध होय निश्चय जु जोय ।। पुनि एक गुफा में विम्मसार, ताको पूजन कर फिर उतार । पुनि और गुफा खाली अनेक, ते हैं मुनिजन के ध्यान हेत ।। पुनि चल कर उदयगिरि मुजाय, भारी-भारी जु गुफा लखाय । इक गुफा माहि जिनराय जान, पद्मासन धर प्रभु करत ध्यान ।। जो पूजत है मन वचन काय, सो भव-भव के पातक नशाय । तिनमें इक हाथी गुफा जान, प्राचीन लेस शोभे महान ॥ महागन खारवेल नाम जास, जिनने जिनमत का किया प्रकाश । बनवाई गुफा मन्दिर अनेक, अरु करी प्रतिष्ठा भी अनेक ॥
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बेन पूजा पार
इसका प्रमाण वह शिलालेस, बतलाता है जैनत्व एक। प्रारम्भ लेख में यह पसान, सिद्धों को वन्दन अरु प्रणाम ।। स्वस्तिकका चिद्ध विराजमान, जो जन-धर्म का है महान । मथुरापति से उन युद्ध कीन, प्रतिमा आदीवर फेर तीन ॥ तालाप, कूप, वापी अनेक, सुदवाई उन कर्तव्य पेत। रानी भी दानी पी विशेप, बनवाई गुफा उनने अनेक॥ पुनि और गुफा मे लेख जान, पढते जिनमत मानत प्रधान । तहं जसरथ नृप के पुत्र आय, मुनि मंग पाच सौ मी लहाय ॥ उप पारद विधि का यह करन्त, वाईम परीपह वह सहन्त । पुनि समिति पञ्च युत चलें सार, छ्यालीस दोष टल कर अहार ॥ इस विधि तप दुदर करत जोय, सो उपजे केवलज्ञान सोय। सन इन्द्र आज अति भक्ति घार, पूजा कानी आनन्द घार ।। धर्मोपदेश दे भव्य तार, नाना देशन में कर विहार । पुनि आये याही शिखर धान, सो ध्यान योग्य माना महान ॥ भये सिद्ध अनन्ते गुणन ईश, तिनके युग पद पर घरत शीन । तिन सिइन को पुनि-पुनि प्रणाम, जिन मुख अविचल माना सुधाम।। घन्दत भव दुःख जावे पलाय, सेवक अनुक्रम शिवपद लहाय । पूजन करता हूँ मैं त्रिकाल, कर जोड़ नमत है "मुन्नालाल" || उदयागिरि क्षेत्रं अतिसुख देतं, तुरतहि भवदधि पार कर। जो पूजे ध्यावे कर्म नसावे, वांछित पावे मुक्ति वरं ॥ ___ ही धी खप्रगिरि सिरक्षेत्रेभ्यो जयमाला नियंपामोति स्वाहा । दोहा-श्री खण्डगिरि उदयगिरि, जो पूजे काल । पुत्र पौत्र सम्पति लहे, पावे शिव सुख हाल॥
इत्याशीर्षाद ।
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जैन पूजा पाठ संग्रह
ले तन्दुल अमल अखण्ड, थाली पूर्ण भरो । अक्षय पद पावन हेतु, हे प्रभु पाप हरो ॥ बाड़ा केο ॐ हो श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
१६६
आगे।
ले कमल केतुकी बेल, पुष्प धरू प्रभु सुनिये हमारी टेर, काम कला भागे ॥ वाड़ा के० ही श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
नैवेद्य तुरत बनवाय, सुन्दर थाल सजा । मम क्षुधा रोग नश जाय, गाऊँ वाद्य बजा ॥ बाडा के० ॐ ह्री श्री पद्मप्रभु जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
हो जगमग जगमग ज्योति, सुन्दर अनयारी |
ले दीपक श्रीजिनचन्द, मोह नशे भारी ॥ बाडा के० ॐ ह्री श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ ले अगर कर्पूर सुगन्ध, चन्दन गन्ध महा |
खेवत हों प्रभु ढिग आज, आठों कर्म दहा ॥ बाड़ा के०
ॐ ह्री श्री पद्मप्रभु जिनेन्द्राय श्रष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
श्रीफल बादाम सु लेय, केला आदि हरे । फल पाऊँ शिव पद नाथ, अरपूं मोद भरे || बाडा के० ॐ ह्री श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८
जल चन्दन अक्षत पुष्प, नेवज आदि मिला ।
मैं अष्ट द्रव्य से पूज, पाऊँ सिद्ध शिला ॥ बाड़ा के० हो श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
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१६८
जन पूजा पाठ मप्रह
चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा, उपज्यो केवलज्ञान । भवसागर से पार हो, दियो भव्य जन ज्ञान || श्री पद्म० ॐ ही चैत शुक्ल पूर्णिमा केवलज्ञान प्राप्ताय श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय अध्य० ॥ ४ ॥ फाल्गुन कृष्ण सु चौथ को, मोक्ष गये भगवान । इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजौ धर ध्यान ॥ श्री पद्म० ॐ ही फाल्गुन कृष्ण चौथ मोक्षमङ्गल प्राप्ताय श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय प्रध्य० ॥ ५ ॥
जयमाला। दोहा-चौतीसो अतिशय सहित, बाडा के भगवान । जयमाला श्री पद्म की, गाऊँ सुखद महान ।।
पद्धडो छन्द। जय पद्मनाथ परमात्म देव, जिनकी करते सुर चरण सेव । जय पद्म-पद्म प्रभु तन रसाल, जय जय करते मुनिमन विशाल । कोशाम्बो मे तुम जन्म लीन, वाडा मे वह अतिशय करीन । एक जाट पुत्र ने जमी खोद, पाया तुमको होकर समोद ॥ सुर कर हर्षित हो भविक वृन्द, आकर पूजा की दुःख निकन्द । करते दुःखियो का दुःख दूर, हो नष्ट प्रेत बाधा जरूर ॥ डाकिन साकिन सब होय चूर्ण, अन्धे हो जाते नेत्र पूर्ण । श्रीपाल सेठ अञ्जन सु चोर, तारे तुमने उनको विभोर ।। अरु नकुल सर्प सीता समेत, तारे तुमने निज भक्त हेत। हे सङ्कट मोचन भक्त पाल, हमको भी तारो गुण विशाल ॥ विनती करता हूँ बार-बार, होवे मेरा दुःख क्षार-क्षार । मीना गूजर सब जाट जैन, आकर पूजे कर तृप्त नेन । मन वच तन से पूजै सुजोय, पावे वे नर-शिव सुख जु सोय । ऐसी महिमा तेरी दयाल, अब हम पर भी होवो कृपाल ॥ ॐ ही श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय पुर्णाऱ्या०1४॥
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श्री बाहुबली स्वामी की पूजा दोहा-कर्म अरिगण जीति के, दरशायो शिव पन्थ ।
प्रथम सिद्ध पद जिन लयो, भोगममि के अन्त । समर दृष्टि जल जीत तहि, मल्ल युद्ध जय पाय । वीर अग्रणी बाहुबली, वन्दौ मन वच काय ॥ ही श्रीमद् दाहती। पत्रावतरावतर संवौषट् पासानन । ॐही श्रीमद् वाक्ली। पत्र तिट तिट ठ ठ स्थापनं । ही प्रीमद् वाह वली। अत्र मR सत्रिहितो भव भव वषट् सनिधापनं ।
अथ अष्टकं चाल जोगीरासा। जन्म जरा मरणादि तृषा कर, जगत जीव दुःख पावै । तिहि दुःख दूर करन जिनपद को पूजन जल ले आवै । परम पूज्य वीराधिवीर जिन बाहुबली बलधारी।' तिनके चरण-कमल को नित प्रति धोक त्रिकाल हमारी॥
हो प्री वर्तमान वसपिजी समये प्रथम मुक्ति स्थान प्राप्ताय कर्मारि विजयी वोराधीवीर वीराग्री श्री वाहवली परम योगोन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल ॥१॥ यह संसार मरुस्थल अटवी तृष्णा दाह भरी है। तिहि दुःख वारन चन्दन लेकै जिन पद पूर्ण करी है । परम०
ॐ ही दे ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामोति स्वाहा ॥ २ ॥ स्वच्छ शालि शुचि नीरज रजसम गन्ध अखण्ड प्रचारी। अक्षय पद के पावन कारण पूजे भवि जगतारी ॥ परम०
ॐ ही श्री अक्षयपदप्राप्तये अक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
हरिहर चक्रपति सुर दानव मानव पशु बस याकै । तिहि मकरध्वज नाशक जिनको पूजो पुष्प चढ़ाकै ॥ परम० कामवारादिध्व सनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा । ४६
ॐ ही श्री
दुःखद त्रिजग जीवन को अतिही दोष क्षुधा अनिवारी । तिहि दुःख दूर करन को चरुवर ले जिन पूज प्रचारी ॥ परम०
ॐ ही श्री
चारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । ५
७०
मोह महातम मे जग जीवन शिव मग नाहिं लखावै ।
तिहि निरवारण दीपक करले जिनपढ़ पूजन श्रावै ॥ परम० मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ६६ ॥
ॐ ह्री श्री
उत्तम धूप सुगन्ध बना कर दश दिश में महकावै । दश विधि बन्ध निवारण कारण जिनवर पूज रचावै ॥ परम० श्रष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
ॐ ही श्रो
सरस सुवरण सुगन्ध अनूपम स्वच्छ महाशुचि लावै । शिवफल कारण जिनवर पद की फलसो पूज रचावै ॥ परम० मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
ॐ ह्री श्री
वसु विधिके वश वसुधा सबही परवश अति दुःख पावै । तिहि दुःख दूर करन को भविजन अर्घ जिनाग्र चढ़ावै ॥ परम० अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
ॐ ह्री श्री
जयमाला. दोहा ।
आठ कर्म हनि आठ गुण प्रगट करे जिन रूप । सो जयवन्तो भुजवली प्रथम भये शिव भूप ॥
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रून पूजा पाठ रामद
कुसुमलता छन्द। जै जै जै जगतार शिरोमणि भत्रिय वश अशस महान । न जै जै जग उन हितकारी दीनो जिन उपदेश प्रमाण ॥ जैसे पति मुन जिनके शत सुत जेष्ठ भरत पहिचान । * श्री ऋषभदेव जिनसों जयवन्त सदा जगजान ॥९॥ जिनके द्वितीय महादेवी मुधि नाम 'सुनन्दा गुण की सान । रुप शोर, सम्पन्न मनोहर तिनके सुत मुजवली महान ॥ सवापदा शत धनु उन्नत तनु हरितवरण शोभा असमान । वहरसमणि पर्वत मानो नील कुलाचल सम घिर जान ॥२॥. तेजवन्त परमाणु जगत में तिन कर रपो शरीर प्रमाण । रान योरत्व गुणाफर जाको निरसत हरि हरप उर आन । धीरज अतुल यस सम नीरज सम वीरामणि अति पलवान । जिन एरि लम्पि मनु शशिछपि लाले फुसुमायुध लीनों मु पुमान ॥३॥ चाल समे जिन याल पन्द्रमा शशि से अधिक धरे दुतिसार । तो गुरुदेव पढाई विद्या शम्न शाम्न मद पढी अपार ॥
पमदेव ने पाटनपुर के नृप कीने भुजवली कुमार। दई अयोध्या भरतेश्वर को आप बने प्रमुजी अनगार ॥ ४ ॥ राजकाज पटवण्ड महीपति सव दल ले चढि आये आप! बाहुबलि भी मन्मुस आये मन्त्रिन तीन युद्ध दिये थाप ।। , रष्टि नीर अर मस्ट युद्ध में दोनों नृप कोनो बल धाप । , पृथा हानि रुक जाय सैन्य की या लडिये आपों-आप ॥ ५॥
मरत भुजवळी भूपति भाई उतरे समर भूमि में जाय । रष्टि नीर रण थके पक्रपति मल्लयुद्ध तव करो अपाय ।।
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जैन पूजा पाठ समह
पगतल चलत चलत अचला तब कंपत अचल शिखर ठहराय । निपघ नील अचलाघर मानौ भये चलाचल क्रोध बसाय ॥ ६ ॥ सुन विक्रमबलबाहुवलीनें लये चक्रपति अधर उठाय । चक्र चलायो चक्रपति तव सो भी विफल भयो तिहि ठाय ॥ अति प्रचण्ड भुजदण्ड सुंड सम नृप शार्दुल बाहुबलि राय । सिंहासन मगवाय नासपै अग्रज को दोनों पधराय ॥ ७ ॥ राजरमा रामासुर धुन में जोवन दमक दामिनी जान | भोग भुजन जन सम लग को जान त्याग कोनों तिहि थान ॥ अष्टापद पर जाय वीरनृप वीर व्रती घर कीनों ध्यान । अचल अङ्ग निरभन सन तन सवतसरलों एक स्थान ॥ ८ ॥ विषधर वम्बी करी चरनतल उपर वेठ चढी अनिवार । युगनङ्घा कटि बाहुवेटि कर पहुॅची वक्षस्थल शिर के केश वढे जिस मांही नभचर पक्षी वसे अपार । धन्य-धन्य इस अचल ध्यान की महिमा सुर गावै उरधार ॥ ६ ॥ कर्मनाशि शिव जाय वसे प्रभु ऋपभेश्वर से पहले जान । अष्ट गुणादित मिद्ध शिरोमणि जगदीश्वर पद लयो पुमान || वीरव्रती वीराग्रगन्य प्रभु वाहुवली जगधन्य महान । वीरवृत्ति के काज जिनेश्वर नम सदा जिन विम्ब प्रमान ॥ १० ॥ दोहा - श्रवणबेलगुल विध्य गिरि जिनवर बिब प्रधान ।
परसार ।।
सन्तावन फुट उत्तङ्ग तनो खडगासन अमलान ॥ २ ॥ अतिशयवन्त अनन्त बल धारक बिब अनूप 1 अर्ध चढ़ाय नमों सदा जै जै जिनवर भूप ॥ २ ॥
ॐ ही वर्तमानावसर्पिणी समये प्रथम मुक्तिस्थान प्राप्ताय कर्मारि विजयी वीराधिवीर वीराग्रणी श्री बाहुबलि स्वामिने अनर्घपद प्राप्ताय महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
इत्याशीर्वाद. |
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श्री विष्णुकुमार महामुनि पूजा
अभिन्दा विष्णकुमार महामुनि को ऋद्धि भई । नाम दिग्विा तान सकल पानन्द ठई ।। सी मुनि · साये रथनापुर के बीच मे। मुनि बचाये खा कर वन बीच मे ॥ १ ॥ तहा भयो मानन्द सर्व जीवन धनो। जिगि चिन्तामणि रत एक पायो मनो ।। सब पुर जे जे कार भब्द उचरत भये ।
मुनि फी देव आहार आप फरते भये ॥ २॥
ifa f act तर दवतर सर्वान्ट मानिन । उहारिनिट ट स्थापन । D ire ci! RATARA म मय पर सविधीकर।
चाल सोलह कारण पूजा को. अथाष्टक । गलाजल सम उज्ज्वल नोर, पूजो विष्णुकुमार सुधीर । दयानिधि होय, जय जगवन्धु दयानिधि होय ।। सस सैकदा मुनिवर जान, रक्षा करी विष्णु भगवान । दयानिधि होग, जय जगवन्धु दयानिधि होय ।।
ही श्री बिरसार मुनिभ्यो कम उमराहत्यविनाशनाय त निपानाति रवाहा मलयागिर चन्दन शुभसार, पूजो श्रीगुरुवर निर्धार । दयानिधि होय, जय जगवन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त० केही श्री विष्णुमार मुनिभ्यो नम भवजातापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा।
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श्वेत अखण्डित अक्षत लाय, पूजो श्रीमुनिवर के पाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त० ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । कमल केतकी पुष्प चढाय, मेटो कामवाण दुःखदाय । दयानिधि होय, जय जगवन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त० ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम कामवाण विध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा । लाडू फेनी घेवर लाय, सब मोदक मुनि चर्ण चढाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त० ॐ ह्रो श्रो विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । मृत कपूर का दीपक जोय, मोहतिमर सब जावे खोय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त० ॐ ही श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा । अगर कपूर सुधूप बनाय, जारे अष्ट कर्म दुःखदाय | दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त० ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा । लोग लायची श्रीफल सार, पूजो श्रीमुनि सुखदातार । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त०
ही श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा । जल फल आठो द्रव्य संजोय, श्रीमुनिवर पद पूजो दोय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नमः श्वनर्घपदप्राप्तये अर्ध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
सप्त०
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अध जयमाला। दोहा-श्रावण शुक्न सु पूर्णिमा, मुनि रक्षा दिन जान । रक्षक विष्णुकुमार मुनि, तिन जयमाल बखान ।।
चाल-चन्द मुजगप्रयात। मी विष्णु देवा करू चर्ण सेवा, हरी जन की बाधा सुनो टेर देवा। गनपुर पधारे महा मुफ्याफारी, धरो रूप वामन मु मन में विचारी।। गरे पाम लिये हुआ यो प्रसन्मा. जो मांगो सो पावो दिया ये वचना । मुनि नीन सग मागी भरनी मुतार्प, नई ताने ततलिन सुनहि ढील थापै।। कर घिमिया मुनि नु काया बढ़ाई, जगह सारी लेली सु डग दोके माही। धरी नोमरी सग बली पीट माही. सु मांगी क्षमा तष यली ने बनाई ।। बल की मु पृष्टि करी सुयफारी, मरव अग्नि क्षण में भई भरम सारी। टरेस उपमग श्री विष्णु जी से, भई जै जैकारा सरव नग्रही से ।।
चौपाई। फिर राजा के हुक्म प्रमाण, रक्षामन्धन वधी सुजान । मुनिवर घर-घर फियो विहार, श्रावक जन तिन दियो अहार ।। जा घर मुनि नदि आये कोय, निज दरवाजे चित्र सु लोय । ग्यापन कर तिन दियो अहार, फिर सय भोजन कियो सम्हार ।। तव से नाम मटना मार, जन-धर्म का है त्योहार । शुद्ध पिया कर मानो जीव, जासों धर्म बढे सु अतीव ।। धर्म पदारय जग में भार, धर्म पिना झूठो ससार । भावण शुष्ठ पूर्णिमा जब होय, यह दो पूनन कीजै लोय ॥
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जाम
सुनाय ।
सब भाइन को दो समझाय, रक्षाबन्धन कथा मुनि का निज घर करो अकार, मुनि समान तिन देहु अहार ॥ सबके रक्षा बन्धन बाध, जैन मुनिन की रक्षा जान इस विधि से मानो त्यौहार, नाम सलुना है
ससार ॥
घत्ता ।
मुनि दीनदयाला सव दुःख टाला, आनन्द माला सुखकारी । 'रघु सुत' नित वन्दे आनन्द कन्दे, सुक्ख करन्दे हितकारी ॥ ॐ हो श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा - विष्णुकुमार मुनि के चरण, जो पूजे धर प्रीत । 'रघु सुत' पावे स्वर्गपद, लहे पुण्य नवनीत || इत्याशीर्वाद. |
हमारा कर्त्तव्य
■ बाल विवाह, अनमेल विवाह, वृद्ध विवाह और कन्या विक्रय या वर विक्रय जैसी घातक दुष्ट प्रथाओं का बहिष्कार करना ।
■ माता-पिता का आदर्श प्रदाचारी गृहस्थ होना ।
■ अपने बालकों को सदाचारी बनाना ।
■ सन्तति को सुशिक्षित बनाना ।
• बालकों में ऐसी भावना भरना जिससे वे बचपन से ही देश, जाति
और धर्म की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य सममं ।
- 'वर्णी वाणी' से
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जेन पूजा म
रविप्रत पूजा
यह भवजन हितकार, स रविव्रत जिन कही । करहु भव्यजन लोग, तु मन देके सही ॥ पूजों पार्क जिनेन्द्र, वियोग लगाय के | मिटे सफल सन्ताप, मिले निधि आय के ॥ मति सागर इक सेट, कथा मन्थन कही । उन्हीं ने यह पूजा का आनन्द लही ॥ सुख सम्पति सन्तान, अतुल निधि लीजिये । तात रवित्रत सार, लो भविजन कीजिये || दोहा - प्रणमो पार्श्व जिनेश को, हाथ जोड़ शिरनाथ । परभव सुख के कारने, पूजा कहूँ बनाये ॥ एक बार व्रत के दिना, एही पूजन ठान । नाप सुख सम्पति लहे, निश्चय लीजे सान ॥ समीपटू शादानन । स्थापन ।
॥
!
हो
ही
श्री
१७७
मम मतिभनय पद्
अथाष्टकं ।
ज्ज्वल जल भरके अति लायो, रतन कटोरन मांहीं । धार देत अति हर्ष बढ़ावन. जन्म जरा मिट जाहीं ॥ पारसनाथ जिनेश्वर पूजों, रवित्रत के दिन भाई । सुरपति वह होय, तुरत ही आनन्द मंगलदाई ||
ॐ श्री पायनायनिन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
१
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१७८
जैन पूजा पाठ सग्रह
मलयागिर केशर अति सुन्दर, कुमकुम रंग बनाई । धार देत जिन चरणन आगे, भव आताप नसाई ॥ पाο
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय ससार तापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ मोती सम अति उज्ज्वल, तन्दुल ल्यावो नीर पखारो । अक्षय पढ़के हेतु भावसों, श्रीजिनवर ढिग धारो || पा०
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय सक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
बेला अर मचकुन्द चमेली, पारिजात के ल्यावो ।
चव-चन श्री जिन अत्र चढ़ावो, सर्वाछित फल पावो ॥ पा० ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविव्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
बावर फेली गोजा आदिक, हृत में लेत पकाई । कञ्चन और मनोहर भरके, चरणन देत चढ़ाई ॥ पा०
ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निवपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
मणिमय दीप रतनमय, लेकर जगमग जोत जगाई । जिनके आगे आरति करके, सोह तिमिर नस जाई ॥ पा०
ॐ श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनामनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
चूरकर मलयागिरि चन्दन, धूप दशांग बनाई ।
तद पावक में खेय भावसों, कर्मनाश हो जाई || पा०
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय वूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
श्रीफल आदि बदाम सुपारी, भांति-भांति के लावो । श्रीजिनचरण चढ़ाय हर्षकर, तातैं शिवफल पावो ॥ पा०
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
१७९
जल गन्धादिक अष्ट दरव ले, अर्घ बनावो भाई। नाचत गावत हर्ष भावलों, कञ्चन थार सराई ।। पा० ॐ ही श्री पाश्र्वनाप जिनेन्द्राय अनपंपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
गीति का छन्द । भल वचन काय विशुद्ध करिके पार्श्वनाथ सु पूजिये। जल आदि अर्थ बलाय भविजन भक्तिवन्त सु हूजिये । पूज पारसनाथ जिनवर सकल सुख दातारजी। ले करत हैं नर नार पूजा लहत सुक्ख अपारजी।
जयमाला, दोहा। यह जग में विख्यात है, पारसनाथ सहान । जिलगुणकी जयमालिका, भाषांकरों बखान॥ जय जय प्रणमों श्रीपादेव, इन्द्रादिक तिनकी करत सेव । जय जय सु बनारस जन्म लीन्ह, तिहुँ लोकवि उद्योत कीन । जय जिनके पितु श्री विश्वसेन, तिनके घर भये सुख चैन एन । जय वामादेवी मातु जान, तिनके उपजे पारस महान ॥ जय तीन लोक आनन्द देन, भविजन के दाता भये ऐन। . जय जिनने प्रभुको शरण लीन, तिलकी सहाय प्रभुजी सो कीन । जय नाग नागनी भये अधीन, प्रभु चरनन लाग रहे प्रवीन । तजके जु देह सो स्वर्ग जाय, धरणेन्द्र पद्मावती भये जाय । जे चोर अजना अधम जान, चोरी तज प्रभु को धरो ध्यान । जे मतिसागर इक सेठ जाल, जिन रविव्रत पूजा करी ठान ॥
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१८०
जेन पूजा पाठ सग्रह
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तिनके सुत थे परदेश मांहि, जिन अशुभ-कर्म काटे सु ताहि । जे रविव्रत पूजन करी सेठ, तो फल कर सबसे मई भेट ।। जिन-जिनने प्रभुकी शरण लीन, तिन ऋद्धि-सिद्धि पाई नवीन ।' जे रविव्रत पूजा करहि जेह, ते सुक्ख अनन्तानन्त लेय ।। धरणेन्द्र पद्मावती हुए सहाय, प्रभु भक्ति जान तत्काल जाय । पूजा विधान इहि विधि रचाय, मन वचन काय तीनों लगाय ।।. जो भक्ति भाव जैमाल गाय, सो नर सुख सम्पति अतुल पाय। वाजत मृदङ्ग वीनादि सार, गावत-नाचत नाना प्रकार ॥ तन नन नन नन ताल देत, सन नन नन तन सुर भरसु लेत।' ताई थेई थेई पग धरत जाय, छमछम छमछम धुघरू बजाय। ,
जे करहिं निरति इहि भांति-भांति, ते लहहि सुख्य शिवपुर सुनात ॥ दोहा-रविव्रत पूजा पार्श्व की, करै भविक जन कोय ।
सुख संपति इहि अब लहै, तुरत महासुख होय ॥ अडिल्ल-रविव्रत पार्श्व जिनेन्द्र पूज भवि भन धरै ।
भव-भव के आताप सकल छिन में टरें । होय सुरेन्द्र नरेन्द्र आदि पदवी लहैं। सुख-सम्पति सन्तान अटल लक्ष्मी फेर सर्व निधि पाय भक्ति अनुसरै ।
नाना विधि सुख भोग बहुरि शिव तियवरै ।। ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।
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जन पूजा पाठ सग्रह
161
दीपावली पूजा
नया वसना
दीपावली के दिन सन्ध्या की शुभ बेला व शुभ नक्षत्र मे नीचे लिखी रीति से पूजा करके नई नहीं का मुहूर्त तथा दीपों की ज्योति करें ।
कुटुम्ब के अभिभावक या दुकान के मालिक को एकाग्र एवं प्रसन्न चित्त से घर या दुकान के पवित्र स्थान में पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके पूजा प्रारम्भ करनी चाहिये, पूजा करनेवाले को अपने सामने एक चौकी पर पूजा की सामग्री रख लेना चाहिये और दूसरी चौकी पर सामग्री घढाने का थाल रख लेना चाहिये । इन दोनों चौकियों के आगे एक चौकी पर केशर से ॐ लिख कर शास्त्रजी को विराजमान करें ।
पश्चात् व्यापार की वही मे सुन्दरतापूर्वक केशर से स्वस्तिक लिखे तथा दावात कलम के मौलि वाघ कर सामने रखें ।
पूजा प्रारम्भ करने के पूर्व उपस्थित सज्जनों को नीचे लिखा श्लोक बोल कर केशर का तिलक कर लेना चाहिये । उपस्थित सज्जनों को भी पूजा बोलना चाहिये व शान्तिपूर्वक सुनना चाहिये ।
तिलक मन्त्र
मंगलम् भगवान वीरो, मगलम् गौतमो गणी । मंगलम् कुन्दकुन्दाद्यौ, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ २ ॥
उपस्थित सज्जनों को तिलक करना चाहिये । मङ्गल कलश को स्थापना
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1
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जैन पूजा पाठ सप्रह
कलश को जल से धोकर सुपारी, मूग, हल्दी की गाठ धनिया के
दाने नवरत्न अक्षत, पुष्प आदि डाल कर जल से कपड़े से मौली द्वारा वेष्ठित नारियल को कलश के
परिपूरित कर, लाल मुख पर रखे पश्चात
ॐ अद्य भगवतो महापुरुषस्य श्री मदादि व्रह्मणो मतेऽस्मिन् नूतन वसना मङ्गल कर्मणि होम मण्डप भूमि शुद्धयर्थं पात्र शुद्धयर्थं क्रिया शुद्धद्ध्यर्थं शान्त्यर्थं पुण्याहवाचनार्थं नवरत्नगन्धपुष्पाक्षतादि बीज फल सहित शुद्ध प्रासुक तीर्थ जल पूरितं मङ्गल कलश संस्थापन करोम्यह ।
भवीक्षवी ह स स्वाहा । श्रीमजिनेन्द्र चरणारविन्देष्वानन्द भक्ति सदास्तु । मन्त्रोच्चारण करके शास्त्रजी की चौकी पर चावलों के बनाये साथिये
5
पर मङ्गल कलश स्थापन करे
I
साधारण नित्य नियम पूजा करके श्री महावीर स्वामी की और पूजा मे फल चढाने के बाद शाखजी के पूजा के पश्चात् कर्पूर प्रज्वलित कर श्रद्धापूर्वक खड़े होकर सब ललित-ध्वनि से नीचे लिखी आरती बोलें ।
सरस्वती की पूजा करें - सरस्वती लिये शुद्ध वस्त्र या वेस्टन चढावें ।
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जिनवाणी माता की आरती जय अम्बे वाणी, माता जय अम्बे वाणी। तुमको निशि दिन ध्यावत सुर नर मुनि ज्ञानी ।। टेर ॥ श्रीजिन गिरित निकसी, गुरु गौतम वाणी। जीवन भ्रम तम नाशन, दीपक दरशाणी ।। जय० ॥१॥ कुमत कुलाचल चूरण, बज सु सरधानी । नव नियोग निक्षेपण, देसन दरशाणी ॥ जय० ॥२॥ पातक पद पराानल, पुन्प परम पाणी । मोहमहार्णव ड्बत, चारण नौकाणी ।। जय० ॥३॥ लोकालोक निहारण, दिव्य नेत्र रथानी । निज पर मेद दिसापन, सूरज किरणानी !! जय० ॥४॥ श्रावक मुनिराण जननी, तुमही गुणहानी। सेवक लस सुखदायक, पावन परमाणी ॥ जय० ॥ ५ ॥ पश्चात् नीचे लिखे अनुसार पहियो में स्वस्तिकादि लिख कर पीट संवत् , विक्रम संवत्, इश्वी सन, निती, वार, तारीख आदि लिसें।
श्री महावीराय नमः
भी भी लाभ श्री भी
श्री शुभ ___ श्री श्री श्री
भी श्री भी सी श्री ऋपभाय नमः
...मी मी श्री री श्री श्री वर्धमानाय नमः श्री गौतम गणधराय नम श्री जिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै नमः
श्री फेवलशानलक्ष्मीदेव्यै नमः
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- श्री भक्तामर स्तोत्र पूजा ॐ जय जय जय । नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु ॥
अनुष्टुप् ।
परमज्ञान वाणासि, घाति - कर्म प्रघातिनम् | महा धर्म प्रकर्त्तारं वन्देऽहमादि नायकम् ॥
"
भक्तामर महास्तोत्रं मन्त्रपूजां करोम्यहम् | सर्वजीव - हितागारं, आदिदेवं नमाम्यहम् ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिदेव ! अत्र अवतर अवतर सर्वोौषट् आह्वानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन ।
ॐ ह्रीं श्री आदिदेव !
ॐ ह्रीं श्री आदिदेव ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधापण 1
अथाष्टकं ।
सुरसुरी नदसंभृत जीवनैः सकल ताप हरैः सुख कारणैः । वृषभनाथ वृषांक समन्वितं शिवकरं प्रयजे हत किल्विषं ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
मलय चन्दन मिश्रित कुंकुमैः सुरभितागत षट्पद नंदनैः । वृ०
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
कमल जाति समुद्भवतन्दुलैः परम पावन पञ्च सुपुञ्जकैः । वृ०
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
जलज चंपक जाति सुमालती, वकुलपाड़लकंद सुपुष्पकैः । वृ०
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
,
वटक खज्जक मंडुक पायसै विविध मोदकव्यञ्जनषट्रसैः । वृ०
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
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रविकर चु ति सन्निभ दीप धवलमोह घनांध निवारकैः। वृ०
को भनार दास मोइन्धकार विनाशनाय दोप निर्यपाति स्वाहा ॥ ६ ॥ स्वगुरु धूएभरे घटतिष्टितः प्रतिदिशंमिलितालिसमूहकैः। वृ०
हो भनाथ प्रिनेत्राय फर्मदहनाय धूप निर्यपामीति स्याहा ॥ ७ ॥ सरस निंबुकलांगलिदाडिमःकदलि पुगकपित्थशुभैःफलैः।०
ही मी मनाप जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्मपामीति स्पाटा ॥ ८॥ सलिल गंध शुभाक्षत पुष्पकेश्चर सुदीप सुधूप फलार्घकैः । जिनपतिं च यजेसुखकारक, वदतिमेरुसु चन्द्र यतीश्वरं । वृ० हीधी मनाप जिनन्द्राय भनघंपदप्राप्तये अ निर्षपानीति स्याहा ॥९॥
प्रत्येक शलोक पूजा (भक्तामर स्तोत्र का एक एक श्लोक पढ फर नीचे लिखे क्रम से ॐ ही घोल कर अर्घ पढाना चाहिये ।)
ही प्रत देष सनूर मुकुटाममणि महा पापान्धकार विनाशकाय धी भादि । परमेरपराय अपं नियंपामीसि स्पाहा ॥१॥
ॐ हो गगपर चारण समस्त रूपीन्द्रयन्दित्वसुरेन्द्रव्यन्तरेन्द्रनागेन्द्र चतुषि! मुनीन्टरपितररणारविन्दाय श्री भादि परमेश्वराय अर्घ निर्षपामीति स्वाहा ॥२॥
अहो विगतयुद्धिगव्योपदारसहित श्री मानतुझाचार्य भफिसहिताय श्री आदि परमेश्वराय अनियंगमीति स्पाहा ॥ ३ ॥
ही अिभुषनगुणसमुद्र चन्द्रकान्तिमणितेजशरीरसमस्त सुरनाथ स्ववित। धीमादि परमेश्वराय अब नियंपामीति स्पाहा ॥ ४ ॥
ही समन्त गणपरादि मुनिपर प्रतिपालफ मृगयालवत श्री आदिनाथ , परमेश्वराय व निपानाति स्याहा ॥५॥
ॐ त धी मिनेन्द्र चन्द्रभफिसर्व सौल्य तुच्छभक्ति यह सुखदायकाय श्री दिनेन्दाय यादि परमेश्वराय अपं निर्षपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
सही श्री अनन्त भद पातक सर्व यिनपिनाशकाय तप, स्तुतिसौख्यदायफाय श्री मादि परमेश्वराय अघ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र स्तवन सत्पुरुचित्त चमत्काराय श्री आदि परमेश्वराय अघ० । ॐ ह्रीं जिनपूजनस्तवन कथाश्रवणेन समस्त पाप विनाशकाय जगत्त्रय भव्यजीव विघ्ननाशसमर्थाय च श्री आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं त्रैलोक्य गुणमण्डितसमस्तोपमासहिताय श्री आदि परमेश्वराय अ०] ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र दर्शनेन अनन्त भव सचित अघसमूह विनाशकाय श्री प्रथम जिनेन्द्राय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११॥
ॐ ह्रीं त्रिभुवन शान्त स्वरूपाय त्रिभुबन तिलकाय मानाय श्री आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
त्रैलोक्यविजय रूप अतिशय अनन्तचन्द्र तेजमित सदातेज पूजमानाय
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ॐ
श्री आदि परमेश्वराय अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
ॐ ह्रीं शुभगुणातिशयरूप त्रिभुवनजीत जिनेन्द्र गुण बिराजमानाय श्री प्रथम जिनेन्द्राय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४॥
ॐ ह्रीं मेरुचन्द्र अचलशील शिरोमणि व्रतोद्यराजमण्डित चतुषि धवनिता विरहित शीलसमुद्राय श्री आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
ॐ ह्रीं धूम्रस्नेह वातादि विनर हिताय त्रैलोक्य परम केवल दीपकाय श्री प्रथम जिनेन्द्राय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
ॐ ह्रीं राहु चन्द्र पूजित कर्म प्रकृति क्षयति निवारण ज्योतिरूप लोकद्वयावलोकि सदोदयादि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १७ ॥
ॐ ह्रीं नित्योदयादि रूप राहुना अप्रसिताय त्रिभुवन सर्व कला सहित विराजमानाय श्री आदि परमेश्वराय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ १८ ॥
ॐ ह्रीं चन्द्र सूर्योदयास्त रजनी दिवस रहित परम केबलोदय सदादीति विराजमानाय श्री आदि देवाय आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १९ ॥
ॐ ह्रीं हरि हरादि ज्ञानसहिताय सर्वज्ञ परम ज्योति केवलज्ञान सहिताब " श्री आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २० ॥
ॐ ह्रीं त्रिभुवन मनमोहन जिनेन्द्ररूप अन्य दृष्टान्त रहित परम बोध मण्डिता श्री आदि जिनाय परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २१ ॥
ॐ ह्रीं त्रिभुवन वनितोपमारहित श्री जिनबर माताजनित जिनेन्द्र पूर्व दिग् मास्कर केवलज्ञान भास्कराय श्री आदिब्रह्म जिनाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥ २२ ॥
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ऐन पूजा पाठ संप्रह
ॐ
पावनादिपर्ण परनाटोतर रात लक्षण नगरात व्यञ्जनसमुदाय एक सहर भए मन्दिताय श्री सादि विनेन्द्राय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥ २३ ॥ यदादिष्णु धीर गणपति त्रिभुवनदेवत्य सेविताय सेविकाय श्री भादि arren नर्वपामीति स्वाहा ॥ २४ ॥
ही दिरा दोषभर मादि समस्तानन्तनामसहिताय श्री आदि जिनेन्द्राय परमेश्वराय निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५॥
मधोमध्पोष लोकप्रय कृतादीरानिनमस्कार ममस्ता तिरौद्र विनाशक त्रिभुवनेश्वर मबोदधि तरण तारन ममर्पय भी आदि परमेश्वराय क्षपं ॥ २६ ॥ ॐ परात एकादि भरगुणरहिताय श्री आदि परमेश्वराय अपं० ॥२७॥ ॐ ही गोक्ष प्राविहाय महिताय परमेश्वराय धर्म निर्वपामीति स्वाहा ॥२८॥ ही निमगदाद महिताय श्री प्रथम विनेदार अयं निर्वपामीति० ॥२९॥ ही पष्टि पामर नातिहार्य सहिताय श्री प्रथम जिनेन्द्राय भ० ॥ ३० ॥ प्रतिसहिताय श्री जादि परमेश्वराय अपं निर्वपामीति० ॥३१ भादरोटि पादिन प्रातिहार्य सहिताय श्री परमादि जिनाय अपं० ॥३२॥ होम पुष्प प्रतिगृष्टि प्रातिहार्य हिताय श्री आदि जिनेन्द्राय अर्प० ॥३३॥ ही छोटि भास्कर प्रभा गरिटत गामण्दल प्रातिहार्य सहिताय श्री परमादि विनाय सर्प निपामीति स्वाहा ॥ ३४ ॥
ही मनिन उसपर पटनगरितम्पनि योजन प्रमाण प्रातिहार्य सहिताय श्री आदि परमेश्वराय भयं निपामीति स्वाहा ।। ३५ ।।
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ॐ ही हम मतपरिगमन देवतानिव सहिताय श्री भादि परमेश्वराय अ० ॥३६॥ देशगम समयकारण विभूति मण्डिताय श्री आदि परमेश्वराय अपं० ॥३७॥ ही मननितरण मुर गजेन्द्र मदादुर गय विनाशकाय श्रीजिनाय परमेश्वराव अपं हीनादिदेव नाम प्रसादान्मद्दासिद नय विनाशकाय श्रीयुगादि परमेश्वराय अ० ॥३९॥ ॐ ही महापहि विश्वमक्षण समर्प सिननाम जल विनाशकाय श्री आदि प्रमणे परमेश्वराय व निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४० ॥
ॐ ही रकनयन सर्प दिन नागदमन्योपधि समस्त भय विनाशकाय श्री जिनादि venture ed निर्वपामीति स्यादा ॥ ४१ ॥
ही महासमा भय विनाशकाय समरक्षणाय श्री प्रथम जिनेन्द्राय परमेश्वराय अ ० ॥४२१
૧૦૦
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जन पूजा पाठ सग्रह
ॐ ही महारिपुयुद्धे जयदायकाय श्री आदि परमेश्वराय मधं निर्वपामीति स्वाहा ॥४३॥ * हीं महासमुद्र चलित बातमहादुर्जय भय विनाशकाय श्री जिनादि परमेश्वराय अर्घ ० ॥४४॥
ॐ हीं दग प्रकार ताप जलघराष्टादश कुप्ट सनिपात महद्रोग विनाशकाय परमकामदेवरूप प्रकटाय श्री जिनेश्वराय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४५ ॥
ॐ ही महाबन्धन आपाद कण्ठ पर्यन्त वैरिकृतोपद्रव भय विनाशकाय श्री आदि परमेश्वराय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४६॥
ॐ ही सिंह गजेन्द्र राक्षस भूत पिशाच शाकिनी रिपु परमोपद्रव भय विनाशकाय श्री जिनादि परमेश्वराय अर्घ निर्मपामीति स्वाहा ॥ ४५ ॥
ॐ ही पठक पाठक श्रोता पा श्रद्धावान मानतुझाचार्यादि समस्त जीप कल्याणदायक श्री आदि परमेश्वराय अचं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४८ ॥ वन सुगंध सु तन्दुल पुष्पकैःप्रवर मोदक दीपक धूपकः। फल नरैः परमात्म पदप्रदं, प्रवियजे श्रीआदि जिनेश्वरम् ॥ ॐ ही अष्ट चत्वारिंशत्कमलेभ्य पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला। श्लोक-प्रमाणद्वय कर्तारं स्यादस्ति वाद वेदकं ।
द्रव्यतत्व नयागार मादिदेवं नमाम्यहम् ॥
छन्द। आदि जिनेश्वर भोगागार, सर्व जीववर दया सुधारं । परमानन्द रमा सुखकन्दं, भव्य जीव हित करणममन्दं ॥२॥ परम पवित्र वंशवर मण्डन, दुःख दारिद्र काम बल खण्डन । वेद-कर्म दुजेय वल दण्डन, उज्ज्वल ध्यान प्रप्ति शुभ मण्डन ॥३॥ चतु अस्सीलक्षपूर्व जीवित पर, धनुष पञ्च शत मानस जिनवर । हेमवण रूपौध विमल कर, नगर अयोध्या स्थान व्रत धर ॥ ४॥
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नाभिराज परमानन चेता, माता मरुदेवी गुण नेता। सोल पम पर मेरविण्याता, निस्पननायफ पुरा विधाता ॥५॥ गर्भपापक गुरपति कीघा, जगपल्याप मेरागिर सीधा । सरं प दीधाधारी, संघल पोघ मु त्रिभुवन पारी॥६॥ अर गुमार मिल दिपार, परम धन विस्तारण लय भा। गीतकार रदिन भए हाम, मनीय निरपम गुणधारी ॥७॥
जय आदि सुब्रह्मा, त्रिभुवन नामा ब्रह्मास्यात्म स्वरूप परं । जय बोध माना. पंच सुनाना, ब्रह्मा समति जलधिनिकरं ।। Rani ne: eEENA TRI
सिरित। देवोऽनक भवार्जितो गत मला पापः प्रदीपा नलः । देवः सिद्ध वधु विशाल ददयालंकार हारोपमः ।। देयोऽष्टादश दोप सिन्दुर घटा दुभंद पश्चाननो। भव्यानां विदधातुवांछित फलं श्री आदिनाथो जिनः ।। श्लोक-लामीचन्द्रगुरुजीतो मृलसंघ विदाग्रणी।
पट्टाभवचन्द्रो यो दयानन्दि विदांवरः ॥ रक्षकीर्ति कुमुदेन्दु सुमतिः सागरीदिनः ।
भक्तामर महास्तोत्र पूजा चक्रीगुणाधिका ।। Bf REETसा पिति भणार यो पक्ष FEIR I
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श्रीमानतुङ्गाचार्य विरचितं श्री भक्तामर स्तोत्रं ।
जैन पूजा पाठ सम
वसन्ततिलका छन्द
भक्कामरजपवमौलिमणिप्रभागा सुद्योतकं दलितपापतपोवितानम् सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगंयुगादा, वालवलं भट्टजले पततां जनानाम् ॥१॥ यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्ववोधादुदभूत बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्र जगत्रितयचितहरै रुदारे:, स्तोये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ बुद्धा विनापि विबुधाtितपादपीठ स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रवोऽहम् बालं विहाय जलसंस्थितमिदुबिंद - अन्यः क इच्छति जनः सहसा यहीतुम् ॥३ ॥ वक्तु गुणान्गुणसमुद्रशशाष्ट्रकांतान्, करते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपिबुद्धया ।
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कल्पांतकालपरनोद्धतनकनके, कोया तरी तुमलसंबुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ ४ ॥ सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्पुनीश, कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रातः । प्रीत्यात्सर्वमविवृगीन्द्र नाभ्येति किं निजशिशोः परिशलनार्थम् ||५|| अल्लुतं श्रुतयतां परिहासधान,
दुर्भाक्तिरेव सुखरीकुरुते पलान्साम् । यक्लोफिट फिलम मधुरं विरौति तच्चामा चालिका निकरेकहेतु ॥६॥ त्यसंवेन सन्ततिसन्निपर्छ, पापं सणात्क्षयमुपति शरीरभाजाम् आकांत लोकमलिनीलमाशु सूर्याशुभिन्नधकारम् ॥७॥ मनि नाथ मारभ्यते तयापित प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु मुक्ताफलयुतिमुपैति ननृदुबिंदुः ||८||
संस्तवनं सवेद
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आग्ता नवरतवनमस्तसवग्न दोष, त्वत्स.,थापि जगतां दरिनानि सन्ति । दूरे नहमकिरण कुम्ने प्रलंच पद्माकरेप जलजानि विकालभाति ॥६॥ नात्यदभुत सुवन भूषण नाय । भूतगणाविसदनममीटरत , तुल्या भवनि भवनो ननु लेन कि वा सत्यापित व इत नासल र कोति ॥१०॥ हटवा भवन्तसनिलेपविलोकनीय नान्या तोय सुषयाति जनाबक्ष ! पीत्वापय शशिकल्य-ति पनियो क्षारं जल जलनिधे रसिक छेत् ॥११॥ ये. शानरागमचिमि परमाणुसिम्त्व निर्मापित-त्रिभुवनक ललापस्न । तावन्त एव खल्ल तेऽप्यवः पृथिगं. यत्ते समानमपरं न हि रुपमरित ॥१२॥ वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेनहारि निःशेपनिर्जितजगत्रितयो मानन्
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घूम घाट
वित्रं कलंकमलिनं व निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥ १३ ॥ सम्पूर्ण मण्डलशांककला कलापशुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तब लक्ष्यन्ति । ये संश्रितासिजगदीश्रग्नाथमेक. करतान्निवारयति सधरतो ष्टम् ॥ १४ ॥ चित्र किमत्र यदि ते त्रिदशानाभिनीनं मनागपि सनो न विकारमार्गम् कल्पांनकालना चलिताचलन. किं मन्दराशिरं चलितं कदाचित् |१५| निर्धमवतिरपवर्जितपूर.,
कृल्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु समतां चलिताचलानां. दीपोऽपत्रमसि नाथ जगत्प्रकाश. |१६| नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोपि सहसा युगपज्जगन्ति । नांभोधरोदर निन्द्रमहाप्रभावः, सूर्यातिशापि महिमासि मुनीद्र लोके ॥१७॥
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जेन पूजा पाठ सप्रह
नित्योदयं दलितमोहमहांधकार, गम्यं न राहु वदनस्य न वारिदानां । वित्राजते तव सुखान्जमनल्पकांति, विद्योतयज्जगदपूर्व शशांकर्दिवम् ॥१८॥ किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्सुखेन्दुदलितेषु तमासु नाथ ! लिष्पन्न शालिवलशालिलि जीवलोले, कार्य कियज्जलधरैर्जलभारनः ।१६। ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु लायझेपु। तेजःस्फुरन्सणिषु थाति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥ मन्ये वरं हरिहरादय एक हष्टा, दृष्टेषु थेषु हृदयं त्वयि तोषति । किं वीक्षितन अवता सुषि येल नान्यः, कश्चित्मनो हरति नाथ सवांतरेऽपि ॥२१॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयति पुत्रान्, लान्य सुतं त्वदुप जननी प्रसूता ।
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देन न Ret
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सर्वादियो दधति भानि सहस्तरहिम, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदन्शुजालम् ॥२२॥ त्यामासनन्ति मुनयः परमं पुसांस. मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्यामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यं, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनींद्र पन्थाः ॥२३॥ वामव्ययं विभुमचिंत्यमसंख्यमाचं, मात्रामीश्वरमनन्तमना क्षेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरुपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥ बुद्धम्त्यमेव विबुधाचितबुद्धिबोधात् , त्वं शहरोऽति भुवनय शहारत्वात् । धातालि धीर शिवमार्गविधेविधानाद, व्यक्तं त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि२५। तुभ्यं नम स्त्रिभुवनातिहराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमन्त्रिजगतः परमेश्वराय, नुभ्यं नमो जिनभवोदधिशोपणाय ॥२६॥
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जैन पूजा पा०प्रह
को वित्मयोऽत्र यदि नास गुणरशेषै. स्त्वं लंश्रितो निरवकाशतया सुनीश । दोषैत्पातविविधानयजातगः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचित्पीक्षितोऽलि २७१ उच्चैरशोकतलंश्रितमुन्मयल. माभाति रूपसललं भक्तो नितांत । स्पष्टोलसकिरणमस्ततमो वितानं, विवं रबेरिवपयोधरपाववति (२८॥ लिहालले मणिमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तब वपुः कनकावतानम् विंबं वियबिललदंशुलतावितानं, तजोदयात्रिशिरलीवसहत्ररसः ॥२६॥ कुन्दावदातचलचालरचानशोसं. विधाजते तव वपुः कलधौतकान्तम् उयशाकशुचिनिर्भरशरिधारमुस्तट सुरगिरेवि शानकौंभम् १३०॥ छत्रत्रयं तव विभाति शशाकान्त मुचैः स्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम्
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जैन पूजा पाठ सप्रह
डल्लिद्रमनवपङ्कजपुञ्जकांती, पर्युल्लसन्नखमयूखशिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जितेंद्र ! धतः, पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति | ३६ | इत्थं यथा तव वितिरस्तूज्जितेंद्र, धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । यादृस्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, ताहरू कुतो ग्रहगणस्य विकाशिलोऽपि |३७| श्रयोतन्मदाविलविलोल कपोलमूल
मतभ्रमभ्रमरनाद विवृद्धकोपं ।
ऐरावताभमिभमुद्धतमापततं,
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥ ३८ ॥ भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताकमुक्ताफलप्रकरसूषितभूमिभागः ।
बन्द्रक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि, नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते |३६| कल्पांतकालपवनोद्धतवह्निकल्यं, दावानलंज्वलितमुज्ज्वलमुत्फुलिङ्गम्
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जैन पूजा पाठ सग्रह
उदभूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः, शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः । स्वत्पादपङ्कजरजीतदिग्धदेहा, मा भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥ आपादकण्ठमुरुशृङ्खलवेष्टिताङ्गा, गाई बृहन्निगड़कोटिनिघृष्टजंघाः । त्वन्नाममंत्रमनिशं अनुजाः स्वरन्तः, सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥४६॥ सत्तद्विपेन्द्रभृगराजदवानलाहिसंग्रामवारिधि महोदरबन्धनोत्थाम् तस्याशु नाशमुपयाक्ति अयं लियेव, यस्ताव स्तवषिमं भतिलानधीते॥४७॥ स्तोत्र खजं तव जिनेन्द्र गुणनिबद्धां, भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम् धत्ते जनो य इह कण्ठगता-मजलं, तं मानतुङ्गलवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥ इति श्री मानतुङ्गाधाय विरचित भक्तामर स्तोत्रं समाप्तम् ।
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तत्त्वार्थसूत्रम् [ आचार्य गृडपिन्छ ]
मोक्षमार्गस्य नेतार भेत्तार कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥
त्रैकाल्यं द्रव्य-पट्क नव-पद-सहितं जीव-पट् काय-लेश्या' पञ्चान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान-चारित्र-भेदाः । इत्येतन्मोक्षमूल त्रिभुवन महितै प्रोनमङ्गिरीशै. प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥ १ ॥ सिद्धे जयापसिद्धे चउविहाराहणफलं पत्ते । वद्वित्ता अग्हते चोच्छं आराहणा कमसो ॥२॥ उज्जोवणमुज्जवण णिव्वहणं साहण च णिच्छरण | दमण-णाण-चरितं तवाणमाराहणा भणिया ॥३॥
सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्ष मार्गः ॥ १॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ||२|| तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ जीवाजीवास्रव - वन्ध-संवर- निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥ नामस्थापना- द्रव्य-भावतस्तन्न्यासः॥ ५ ॥ प्रमाण नयैरधिगमः॥६॥ निर्देश - स्वामित्व-साधनाधिकरण - स्थिति-विधानतः ॥ ७ ॥ सत्संख्या -क्षेत्र - स्पर्शन-कालान्तर - भावाल्पबहुत्वैव ||८|| मतिश्रुतावधि - मन:पर्यय - केवलानि ज्ञानम् ||६|| तत्प्रमाणे ॥१०॥ आधे परोक्षम् ॥ ११ ॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिवोध इत्यनर्थान्तरम् || १३|| तदिन्द्रियानिन्द्रिय
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जैन पूजा पाठ सग्रह
निमित्तम् ॥१४॥ अवग्रहेहावाय धारणाः ।। १५ ।। बहु-बहुविध - चिप्रानिःसृतानुक्त-ध्रुवाणां सेतराणाम् ||१६|| अर्थस्य ॥ १७॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥१८॥ न चतुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १६॥ श्रुतं मति-पूर्वं द्रयनेक- द्वादश-भेदम्। २०। भव-प्रत्ययोऽवधिर्देव नारकाणाम् | २१| क्षयोपशम-निमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ||२२|| ऋजु - विपुलमती मन:पर्ययः ||२३|| विशुद्धयप्रतिपाताभ्या तद्विशेषः ॥ २४ ॥ विशुद्धि- क्षेत्र- स्वामि-विषयेभ्योऽवधि-वनःपर्यययोः॥२५॥मति-श्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु ॥ २६ ॥ रूपिष्वधेः॥ २७ ॥ तदनन्त-भागे मनःपर्ययस्य ॥ २८ ॥ सर्व- द्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥२६॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिनाचतुर्भ्यः || ३० ॥ सति श्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥ सदसतोरविशेषाद्यद्द्च्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३२ ॥ नैगमसंग्रह-व्यवहारर्जु-सूत्र-शब्द- समभिरूढैवम्भूता नयाः ॥३३॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे प्रथमोऽध्याय ॥ १ ॥
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औपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रच जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक - पारिणामिकौ च ॥ १ ॥ द्वि-नवाष्टादशैकविंशतित्रि-भेदा यथाक्रमम् ॥ २ ॥ सम्यक्त्व - वारित्रे ॥ ३ ॥ ज्ञानदर्शन - दान - लाभ- भोगोपभोग- वीर्याणि च ॥ ४ ॥ ज्ञानाज्ञानदर्शन - लब्धयश्चतुस्त्रित्रि-पञ्च भेदाः सम्यक्त्व चारित्रसंयमासंयमाश्च ॥ ५ ॥ गति कषाय- लिङ्ग- मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयता सिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्येकैकैकैक - षड्भेदाः ॥ ६ ॥ जीवभव्यामव्यत्वानि च ॥ ७ ॥ उपयोगो लक्षणम् ॥ ८ ॥ सू
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लिपियोग-समंदः ॥ ६ ॥ नंगारिणो मुक्ताध ॥ १० ॥ गमनमायनामा ॥ ११ ॥ गंगारिणसम म्यागः ॥१२॥ प्रमियाजो पाय-बनम्पनयः भागः ॥२३॥जीन्द्रियाव्यरमाः ॥2॥ पन्द्रियाणि ||१५|| निरिधानि ॥१६॥ निपत नन्दिरम् ॥ १७॥ लग्यपयोगी मानिया| पर्गन-मन-बाग-नतः-श्रीवाणि ॥१६॥ पार-वर्ण-शनालवर्धाः ।। २० ।। अगमनिन्दिरम्य ॥२३॥ मनगमनानाम् ॥२शा कमि-पिपीलिका-भ्रमरमनुमानामा दानि ॥२३॥ संशिनः समनम्काः ॥२४॥ विना-गनी कम-योगः ॥ २५ ॥ अनुश्रणि गतिः ॥२६॥ अधिग्रहा जीयम्प ॥ २७॥ विग्रहपनी 7 गंसारिणः प्राक गतम्यः ॥ २८ ॥ नमाविग्रदा ॥ २६ ॥ एकता प्रान्नाहार ॥३८॥ ममदन-गोपपाटा जन्म ॥ ३१ ॥ मचिनजान-गंता: सेवरा मिधायकगन्तग्रोनयः ॥ ३२ ॥ जगजाण्डज-पीनानां गमः ।। ३३ ।। टेन-नारकाणासपपाटः ।। ३४॥ पाणां सम्मन्नम ॥३५॥ औदारिकपरियिकाहारसनजस-कार्मणानि शरीराणि ॥ ३६॥ परं परंसदमम् ॥३७॥ संदेगनासंग्ययगुणं पाक जमान् ॥३०॥ अनन्न-गुण परे ॥३६॥ अप्रतीवाने ॥४०॥ अनादि-गम्पन्धन ॥ ११ ॥ नवम्य ॥ १२ ॥ तदादीनि भाज्यानि युगपटकम्मिन्नानतुभ्यः ॥ १३ ॥ निरुपमोग
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टन पूजा पाठ मग्रह
मन्त्यम् ॥ ४४ । गर्भसंमूर्च्छनजमाद्यम् ॥४५॥ औपपादिक वैक्रियिकम् ।।४६|| लब्धि-प्रत्यय च ॥४७॥ तेजसमपि ॥४८॥ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥ ४६ ।। नारक-संमृच्छिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥ न देवाः ।। ५१ ॥ शेपास्त्रिवेदाः ।। ५२ ॥ औपपादिक-चरमोत्तमदेहाऽसख्येयवर्षायुपोऽनपवायुपः ॥ ५३ ॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोनशाखे द्वितीयोऽध्याय ॥ २ ॥
रत्न-शर्कग-वालुका-पव-धूम-तमो-महातमः-प्रभा-भूमयो घनाम्बुवाताकाश-प्रतिष्टाः सप्ताऽधोऽधः ॥ १॥ तासु त्रिंशपंचविंशति-पंचदश-दश-त्रि-पञ्चोनैक-नरक-शतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ||२|| नारका नित्याऽशुभतर-लेश्या-परिणामदेह-वेदना-विक्रियाः ॥३॥ परस्परोदीरित-दुःखाः ॥ ४ ॥ सक्लिप्टाऽसुरोदीरित-दुखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥ ५ ॥ तेष्वेक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविशति - त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सवाना परा स्थितिः ॥ ६ ॥ जंबूद्वीप-लवणोदादयः शुभनामानो द्वीप-समुद्राः।।७॥द्विििवष्कम्भाः पूर्व-पूर्व-परिक्षेपिणो वलयाकृतयः ||८|| तन्मध्ये मेरु नाभिवृत्तो योजन-शतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वापः ।। 6 ॥ भरत-हैमवत-हरि-विदेह-रम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निपध-नील-रुक्मि-शिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥११॥ हेमार्जुन तपनीय-बैर्य-रजत-हेममया ॥१२॥
APAN
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परम
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मणिनिनिन-पावां उपरिमुळे च तुल्य-विस्ताराः ॥ १३ ॥ पन- महापत्र - निगिंध-केरारिमहा पुण्डरीक- पुण्डरीका हदास्तेपामुपरि ॥ १४ ॥ प्रथमो योजन-सामायामस्तदर्द्धविष्कम्भो हृदः ॥ १५ ॥ दश-योजनानगाः ॥ १६ ॥ तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ||१७|| द्विगुण-हिगुणा हाः पुष्कराणि च ॥ १८ ॥ त्रिवासियो देव्यः श्री-की-प्रति-कीर्ति-वृद्धि-लक्ष्म्यः पल्योपतयः सामानिक-परिपत्काः ॥ १६ ॥ गङ्गा-विन्धुरोहिद्रोहितास्या- हरिहरिकान्ना-सीता-सीतांदा-नारी नरकान्तासुवण रूपला रक्ता रक्तोद्राः सरितस्तन्मध्यगाः ॥ २० ॥ यायो पूर्ण पूर्वगाः ॥ २१ ॥ शेपाचपरगाः ॥ २२ ॥ चतुर्दश-नदी-सह-परिवृता गंगा-सिम्पादयो नद्यः ॥ २३ ॥ भरतः पति-पचयोजनशत-विस्तार. पट् बैंकोनविंशतिभागा योजनस्य॥२॥ नदद्विगुण-द्विगुण- विग्नारा वर्षभर वर्षा विदेशा॥२५॥ उत्तरा दक्षिण- तुल्याः॥ २६ ॥ भरतेरावतयोदिनाभ्यामुत्यपिण्यवनर्पिणीभ्याम् ॥ २७ ॥ ताभ्यामपरा भ्रमयस्थिताः ॥ २८ ॥ एक-द्वि-त्रिपन्योपम-स्थितयो हैमवतक-हारिक देवपुखकाः ॥ २६ ॥ तोताः ॥ ३० ॥ विदेहेषु संख्य कालाः ||३१|| भरतस्य निकम्मो जम्बूद्वीपस्य नवति शत-भागः ॥ ३२ ॥ द्वितखण्डे ||३३|| पुष्करार्द्ध च ||३४|| ग्रामानुपोतरान्मनुष्याः ॥ ३५ ॥ आर्या म्लेच्छाश्च ॥ ३६ ॥
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नृस्थिती तिर्यग्योनिजाना च ॥ ३६ ॥
채
कर्ममयोऽन्यत्र कुतरस्यः||३७|| परावरं विपयोपमान् ॥ ३८ ॥
इति निगम गोवारी तृतीयोऽप्यार ||
पूजा पाठ गमह
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दशाट-पच-द्वादश-विकल्पाः
व्यन्तग
देवाचतुर्णतयाः॥१॥ आदितत्रिषु पीतान्न लेण्या ॥२॥ - पर्यन्तः ||३|| इन्द्र-सामानिक त्रास्त्रिश पारिपदात्मरच लोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्य किल्विपिकाद्यैकशः ||१|| त्रायलिश-लोकपाल-नर्ज्या व्यन्तर-ज्योतिकाः || ५ || पूर्वयोडीन्द्राः ॥ ६ ॥ काय प्रवीचारा आ ऐशानात ||७|| शेषाः स्पर्श-प-शब्दमनः- प्रवीचाराः ||८|| परेवीचाराः ||६|| भवनवामिनां सुरनाग - विद्यत्सुपर्णाग्नि-नात रननितोदवि द्वीप-दिक्कुमाराः ॥ १० किन्नर किपुरुष-महोरग- गन्धर्व-यच - राजस भूतपिशाचाः || ११ || ज्योतिकाः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रह-नक्षत्रप्रकीर्णक - तारका च ॥ १२ ॥ मेरु- प्रदक्षिणा नित्य- गतयां नृ-लोके ॥ १३ ॥ तत्कृतः काल विभागः ||१४|| चहिरवस्थिताः || १५ || वैमानिकाः ||१६|| कल्पोपपन्नाः कल्पातीताय ॥१७॥ उपर्युपरि ||१ || सौधर्मेशान - सानत्कुमार माहेन्द्र - ब्रह्म-त्रलोत्तरलान्तव- कापिष्ठ-शुक्र- महाशुक्र - शतार- सहस्रारेप्वानत-प्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १६ ॥ स्थिति - प्रभाव - सुख- द्युति-लेश्या
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जन पूजा पाठ मह
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विशुद्धीन्द्रियावधि-विपयतोऽधिकाः ॥ २० ॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥२१॥ पीत-पद्म-शुक्र-लेश्या द्वि-त्रिशेषेषु ॥ २२॥ प्राग्यैवेयकेभ्यः कल्पाः ॥२३॥ ब्रह्म - लोकालया न्तिकाः ॥ २४ ॥ सारस्वतादित्य - वह्नयरुण - गर्दतोयतुपिनान्यागधारिष्टाच ||२५|| विजयादिषु द्वि-चरमाः ॥२६॥ औपपादिक सनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ||२७|| स्थितिरसुर-नाग-सुपर्ण-द्वीप-शेषाणां सागरोपम- त्रिपल्योपमार्थ-हीनमिताः ||२८|| सौधर्मेशानयोः सागरोपमेऽधिके ||२६|| सानत्कुमार- माहेन्द्रयोः सप्त ।। ३० ।। त्रि-सप्त-नवैकादश-त्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु ॥३१॥ आग्णाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु
केषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥३२॥ अपरा पल्योपममधिकम्।।३३||परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तररा||३४||नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥ ३५ ॥ दश वर्षसहस्राणि प्रथमायाम् || ३६ || भवनेषु च ||३७|| व्यन्तराणां च ||३८|| परा पल्योपममधिकम् ||३६|| ज्योतिष्काणां च ॥४०॥ तदष्ट-भागोऽपर ।।४१|| लौकान्तिकानामौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ||४२||
इति तत्वार्थाभिगमे मोक्षशास्त्र चतुर्थोऽध्याय ॥ ४ ॥ अजीव काया धर्माधर्माकाश-पुद्गलाः ॥ १॥ द्रव्याणि ॥ २ ॥ जीवाय || ३ || नित्यावस्थितान्यस्पाणि ॥ ४ ॥ रूपिणः पुद्गलाः || ५ || आ आकाशांदेकद्रव्याणि ॥ ६ ॥ निष्क्रियाणि च ॥ ७ ॥ असंख्येयाः प्रदेशा धर्मधर्मैक
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जन पूजा पाठ माह
जीवानाम् ||८|| आकाशस्यानन्ताः।।।। संस्थेयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥१०॥ नाणोः ॥११॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥ धमाधमयोः कृत्स्ने ॥१३॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥ असंख्येय-भागादिषु जीवानाम् ॥१५॥ प्रदेश-संहार-विसपाभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥ गति-स्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ॥१७॥ आकाशस्यावगाहः॥१८॥ शरीर-बाड-मनः-प्राणापानाः पुद्गलानाम्।।१६ सुख-दुःख-जीवित-मरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१ ॥ वर्तना-परिणाम-क्रिया-परत्वापरत्वे च कालस्य ।। २२ ।। स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः ॥२३॥ शब्द -बन्ध-सौन्स्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥ २४ ॥ अणवः स्कन्धाश्च ॥ २५ ॥ भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते ॥२६॥ भेदान्णुः ॥२७॥ भेद-संघाताभ्यां चाक्षुषः ॥ २८ ॥ सद् द्रव्य-लक्षणम् ॥ २६ ॥ उत्पादव्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत् ॥ ३० ॥ तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥३१॥ अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥ ३२ ॥ स्निग्ध-रूक्षत्वाद्वन्धः ॥ ३३ ॥ न जघन्य-गुणानाम् ॥३४॥ गुण-साम्ये सदृशानाम् ॥३५॥ द्वयधिकादि-गुणानां तु ॥ ३६ ॥ वन्धेऽधिको पारिणामिको च ॥३७॥ गुण-पर्ययवद् द्रव्यम् ।। ३८॥ कालश्च ॥ ३६॥ सोऽनन्तसमयः ॥४०॥ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥४१॥ तद्भावः परिणामः ।। ४२ ॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
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-ना 10 पर
२
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काय-वाड-मनः कम योगः ॥१॥ स आसवः॥२॥ शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥३॥ मकपायाकपाययोः साम्पगयिकेर्यापथयोः ॥ ४ ॥ इन्द्रिय-कपायावत-क्रियाः पञ्च-चतुःपत्र-पञ्चविंशति-संख्याः पृवम्य भेदाः ॥शा तीव-मन्द-ज्ञाताबात-भावा धिकरण-बीय-विशपेभ्यम्नद्विशेषः ॥ ६ ॥ अधिकरणं जीवांजीवाः ॥७॥ आद्यं मंग्म्भ-समारम्भारम्भ-योग-कृत-कारितानमन-कपाय-विशेषेतिविधिवतश्चैकशः ॥८॥ निवतनानियंप-संयोग-निसा द्वि-चतुढ़ि-त्रि-भेदाः परम्।।६।।तत्प्रदोपनिव-मात्सर्यान्तरायामादनांपघातानान-दर्शनावरणयोः।।१० दुःख-शोक-नापाकन्दन-बध-परिंदबनान्यान्म-पगेभय-स्थानान्यमदवेद्यस्य ।।११।। भृन-व्रत्यनुकम्पादान-सरागसंयमादियोगः तांतिः शौचमिति मद्यस्य ॥१२॥ केवलि-श्रुत-संवधम-देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ १३ ॥ कपायोदयात्तीत्रपरिणामश्चारित्रमोहम्य ॥१४॥ बहारम्भ-परिग्रहत्वं नागफम्यायुपः ॥१५॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥१६॥ अल्पारम्भपरिग्रहन्वंमानुपस्य ॥१७॥म्वभाव-मार्दवं च॥१८॥निःशीलव्रतत्वंच मपाम्॥१६मरागसंयम-संयमासंयमाकामनिर्जरावालतपांसि देवस्य ॥२०॥ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ योगवक्रता विसंवादनं चाशुभम्य नाम्नः।।२२॥ तद्विपरीतं शुभस्य ॥२३॥ दर्शनविशुद्विविनयसम्पन्नता शोल-व्रतेष्वनतोचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोग-संवेगी शक्तितस्त्याग-तपसी साधु-समाधिया
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२१०
जैन पूजा पाठ सप्रह
वृत्यकरणमर्हदाचार्य-व हुश्रुत-प्रवचन-भक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्ग-प्रभावना प्रवचन-वत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥२४॥ परात्म-निन्दा-प्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्या॥२५॥ तद्विपर्ययो नीचैत्यनुत्सेको चोत्तरस्या॥२६॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य ||२७||
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे पष्टोऽध्याय ॥ ६ ॥
हिंसाऽनृत-स्तेयानह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ।।१।। देशसर्वतोऽणु-महती||२||तत्स्थै र्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ||३|| वाड. मनोगुतीर्यादाननिक्षेपण-समित्यालोकित-पानभोजनानि पञ्च |४||मोध-लोभ भीरुत्व-हास्य-प्रत्याख्यानान्यनुवीची-भाषणंच पञ्चाशाशून्यागार-विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैत्यशुद्धिसविसंवादाः गच॥६॥ स्त्रीरागकथाश्रवण-तन्मनोहरांगनिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-प्येष्टरस-स्वशरीरसंस्कार-त्यागाः पन्च ॥७॥ मनशामलोशेन्द्रिय-विषय-राग-द्रुप-वर्जनानि पस ॥८॥ हिंसादिविहानापायाश्यदर्शनम् ॥६॥ दुःखमेव वा ॥१०॥ मैत्री प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि च सत्त्व-गुणाधिक-क्लिश्यमानापिनेयेषु॥११॥ जगत्काय-स्वभावौ वा संवेग-वैराग्यार्थम् ॥ १२॥ प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥ असद्विधानमनृतम् ॥१४॥ अदत्तादानं स्तेयम् ॥१५॥ मैथुनमनला ॥१६॥ मूर्छा परिग्रहः ॥१७॥ निःशल्यो व्रती ॥१८॥ अगार्यनगारश्च।।१६।। अणुव्रतोऽगारी॥२०॥ दिग्देशानर्थदण्ड
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विरति-मामायिक-प्रोपधोपवासोपभोग-परिभोग-परिमाणानिथि मविभाग-व्रत-सम्पन्नश्च ।।२१।।मारणान्तिकीं सल्लेखनां जापिता ॥ २२॥ शंका-कांना-विचिकित्सान्यदृष्टि-प्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥२३॥ व्रत-शीलेषु पञ्च पञ्च यधाक्रमम् ॥ २४ ॥ बन्ध-वध-च्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ॥२५॥ मिथ्योपदेश रहोभ्याख्यान-कटलेखक्रियान्यानापहार-माकारमन्त्रभेदाः ॥२६॥ स्तेनप्रयोग-तदाहतादान-निन्दुराज्यातिकम-हीनाधिकमानोन्मान-प्रतिरूपकव्यवद्वाराः ॥ २७ ॥ परविवाहकरणत्वारिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीटा-कामतीब्राभिनिवेशाः ॥ २८ ॥ नेवास्तुहिरासुवर्ण-धनवान्य-दामीठाम-कुप्य-प्रमाणातिक्रमाः॥२६॥ अधिनियंग्व्यतिक्रम-वृद्वि-स्मृत्यन्तराधानानि ॥३०॥ आनयन-गण्यप्रयोग-शब्द-पानुपात-पुद्गलन पाः ॥ ३१ ॥ चन्दप-कोन्कुन्य-मासर्यायमीन्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥ ३२ ॥ योग-दुःमणिधानानादर-म्मृत्यनुपस्थानानि ॥३३॥ अग्रन्यवेक्षितानमार्जिनोत्सगांदान-संस्तरोपक्रमणानादर-स्मृन्यनुपस्थानानि ।। ३४ ॥ सचित्त-सम्बन्ध-सम्मिश्राभिषय-दुःपक्वाहागः ||३|| सचित्तनिन पापिधान-परव्यपदेश-मान्सव्य-कालातिक्रमः ॥३६॥ जीवित-मरणाशंमामित्रानुराग-सुखानुबन्ध-निदानानि ॥३७॥ अनुग्रहार्थ क्यम्यानिमगो दानम् ॥३८|| विधि-द्रव्य-दात-पात्र-विशेपा
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२१२
जन पूजा पाठ संग्रह
तद्विशेषः ॥३॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे सप्तमोऽध्याय ||७||
मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा वन्धहेतवः।। सकपायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते सवन्धा२।। प्रकृति-स्थित्यनुभव-प्रदेशास्तद्विधयः ॥ ३॥ आयो ज्ञानदर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीयायुर्नाम-गोत्रान्तरायाः ॥४॥ पञ्च-नव-द्वयष्टाविशति-चतुर्द्विचत्वारिशद्-द्वि-पञ्च-भेदा यथाक्रमम् ॥शामति-श्रतावधि-मनःपर्यय-केवलानाम् ।।६।। चक्षुरचनरवधि-केवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धयश्च ॥७॥ सदसवेद्य ॥८॥ दर्शन-चारित्र-मोहनीयाकषाय-कषायवेदनीयाख्यास्त्रि-द्वि-नव-पोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्व-तदुभयान्यकपाय-कषायौ हास्य-रत्यरति-शोक-भयजुगुप्सा-स्त्री-पुन्नपुंसक-वेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-विकल्पाश्चैकशःक्रोध-मान-माया-लोभाः।। नारक-तैर्यग्योन-मानुप-दैवानि ॥ १०॥ गति-जाति-शरीराङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बन्धन-संघात-संस्थान-संहनन-स्पर्श-रसगन्ध-वर्णानुपूर्व्यगुरुलधूपघात - परघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्तिस्थिरादेय-यश कीर्ति-सेतराणितीर्थकरत्वं च॥११॥ उच्चैर्नीचैव ॥ १२ ॥ दान - लाभ- भोगोपभोग-वोर्याणम् ॥१३॥ आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम-कोटीकोट्यः
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মন ঘূমা বা মুস
२१३
JA
परा स्थितिः ॥१४|| सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१॥ विंशतिनामगोत्रयोः ॥१६॥ त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥ अपरा द्वादश-मुहर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥ नाम-गोत्रयोरष्टौ ॥१६॥ शेषाणामन्तमुहर्ता॥२०॥विपाकोऽनुभवः।।२१॥स यथानाम।।२२ ततश्च निर्जरा ॥२३॥ नाम-प्रत्ययाः सर्वतो योग-विशेषावसूक्ष्मैक-क्षेत्रावगाह-स्थिताः सर्वात्म-प्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥२४॥ सद्वेद्य-शुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम् ॥२॥ अतोऽन्यत्पापम् ॥२६॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रेऽष्टमोऽध्यायः ॥८॥
आस्रव-निरोधः संवरः।।१।। स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षापरीपहजय-चारित्रः ।।२।। तपसा निर्जरा च ॥३॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥ ४॥ ईया-भाषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ उत्तम-क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्मः॥६॥ अनित्याशरण-संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यासवसंवरनिर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७॥ मार्गाच्यवन-निर्जरार्थ परिपोढन्याः परीपहाः ॥८॥ नुत्पिपासा-शीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारति-स्त्री-वर्या-निपद्या-शय्याक्रोश-वध-याचनालामरोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कारपुरस्कार-प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि l सूक्ष्ममाम्पराय-च्छास्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥१०॥ एकादश जिने ॥११॥ वादरसाम्पराये सर्वे ॥१२॥ ज्ञानावरणे प्रज्ञा
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मन पूजा पाठ समह
२१५
परे केवलिनः || ३= ॥ पृथक्त्वैकत्ववितर्क -सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि ॥ ३६ ॥ त्र्येकयोग-काययोगायोगानाम्॥ ४० ॥ एकाश्रये सवितर्क- वीचारे पूर्वे ॥ ४१॥ अवीचारं द्वितीयम्॥४२॥ वितर्कः श्रुतम्॥ ४३ ॥ वीचारोऽर्थ-व्यञ्जनयोग - संक्रान्तिः ||१४|| सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त- मोह पक - क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुण-निर्जराः ॥ ४५ ॥ पुलाक- चकुश-कुशीलनिर्ग्रन्थ- स्नातका निर्ग्रन्थाः ॥ ४६ ॥ संयम - श्रुत- प्रतिसेवना-तीर्थलिङ्ग - लेश्योपपाद-स्थान- विकल्पतः साध्याः || ४७||
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे नवमोऽध्याय ॥६॥ मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय - नयाच्च केवलम् ॥ १ ॥ बन्वहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न- कर्म - विप्रमोक्षो मोक्षः ||२|| औपशमिकादि-भव्यत्वानां च ॥३॥ अन्यत्र केचलसम्यक्त्वज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्यः ||४|| तदनन्तरमृर्ध्वं गच्छत्या लोकान्तात् || ५ || पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच || ६ || आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतले पाला बुबदेरण्डबीजवदनिशिखावच्च ||७|| धर्मास्तिकायाभावात् ||८|| क्षेत्रकाल - गति - लिङ्ग-तीर्थ चारित्र - प्रत्येकबुद्ध - चोषित - ज्ञानावगाहनान्तर-संख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥६॥
sa aarafar मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्याय ॥१०॥ कोटीश द्वादश चैव कोटयो लक्षाण्यशीतिस्त्र्यधिकानि चैव । पञ्चाशदष्टौ च सहस्रसख्यामेतत् श्रुतं पञ्चपद नमामि ॥ १ ॥
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जेन पूजा पाठ सग्रह
अरहंत भासियन्थं गणहरवेहि गथियं सच । पणमामि भत्तिजुत्तो, सुदणाणमहोवयं सिरसा ॥२॥ अक्षर-मात्र-पठ-स्वर-हीन व्यजन-सन्धि-विवर्जित-रेफम् । साधुभिरत्र मम नमितन्यं को न चिमुह्यति शास्त्र-समुद्रे ॥३॥ दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थ पटिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भापितं मुनिपुगवै ॥ ४॥ तत्वार्थसूत्रकत्तारं गृद्धपिच्छोपलनितम् । वन्दे गणीन्द्रसजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥ ५ ॥ जं सक्कड तं कीरड जंपुण सक्कड तहेव सहहणं । सदहमाणो जीवो पावड अजरामरं ठाणं ॥ तवयरणं वयधरणं संजमसरणं च जीवढयाकरणम् । अते समाहिमरणं चउविहढुक्खं णिवारेड ।। ७ ॥
इति तत्त्वार्थसूत्रं समाप्तम्।
चौवीम तीर्थकरोंके चिन्ह
छप्पय । गऊपुत्र गजराज, बाज बानर मनमोहै ।
कोक कमल साथिया, सोम सफरीपति सोहै ।। सुरतरु गैड़ा महिप, कोल पुनि सेही जानौं ।
बज्र हिरन अज मीन, कलश कच्छप उर आनौं । शतपत्र शंख अहिराज हरि ऋपभदेव जिन आदिले।
वर्द्धमानलौं जानिये, चिन्ह चारु चौवीस ये ।।
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२१८
जन पूजा पाठ सप्रह
तन्दुल उज्ज्वल अति धोय थारा में लाऊँ। तुम सन्मुख पक्ष चढाय अक्षय पद पाऊँ । चाँदन० ॐ ही श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षत० ॥ ३ ॥ वेला केतुकी गुलाब चम्पा कमल लऊँ। जे कामवाण करि नाश तुम्हरे चरण दऊँ | चाँदन० ॐ ही श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने कामवाणविध्वसनाय पुष्प ० ॥ ४ ॥ फैनी गुना अरु स्वार मोदक ले लीजे । करि क्षुधा रोग निरवार तुम सन्मुख कीजे ॥ चॉदन० ॐ ह्री श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ० ॥ ५ ॥ घृत में कर्पूर मिलाय दीपक मे जारो। करि मोह तिमिर को दूर तुम सन्मुख बारो ॥ चॉदन० ॐ हो श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं० ॥ ६ ॥ दश विधि ले धूप बनाय तामें तुम सन्मुख खेऊ आय आठों कर्मः जला || चाँदन० ॐ ही श्री चाँदनपुर, महावीर स्वामिने अष्टकर्मदहनाय धूप० ॥ ७ ॥ पिस्ता किसमिस बादाम 'श्रीफल लोग, सजा। श्री वर्धमान पद राख पाऊं मोक्ष पदा ॥ चॉदन० ॐ ह्री श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फल० ॥ ८ ॥ जल गन्ध सु अक्षत पुष्प चरुवर जोर करों। ले दीप धप फल मेलि आगे अर्घ करों | चाँदन० ॐ ही श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने अनर्घपदप्राप्तये अर्घ० ॥ ६ ॥
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,
+
प्रेम
२१९
टोक के चरणो का अर्घ
जहां कामधेनु नित आय दुग्ध जु बरसावे । तुम चरणनि दरशन होत श्राकुलता जावै ॥ जहां छतरी बनी विशाल तहां अतिशय बहु भारी । हम पूजत मन वच काय तजि सशय सारी ॥ चांदनपुर के महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ॥
टीक में स्थापित की महार घरभ्यो निर्वपामीति स्वाहा । टीले के अन्दर विराजमान समय का अर्घ टीले के अन्दर आप सोहें पदमासन । जहां चतुर निकाई देव वे जिन शासन ॥ नित पूजन करत तुम्हार कर मे ले झारी । हम हू वसु द्रव्य वनाय पूजे भरि थारी ॥ चांदनपुर के महावीर तोरी छवि प्यारी ।
प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ॥
ॐ श्री चंदनपुर महावीर जिनेन्द्राध टोते के भन्दर विराजमान समय का अर्धo P
पञ्चकल्याणक ।
4
कुण्डलपुर नगर मफार त्रिशला उर आयो ।
1
शुक्ल छट्टि अषाढ़ सुर आई रहन जु बरसायो || चांदन
श्री श्री महावीर जिनेन्द्राय श्रपा शुक्र छट्टि गर्भमत प्राप्ताय अ० १ ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
जनमत अनहद भई घोर, आये चतुर निकाई। तेरस शुक्ल को चेत्र सुर गिरि ले जाई ॥ चांदन० ॐ ही श्री महावीर जिनेन्द्राय चैत शुक्ल तेरस जन्ममङ्गल प्राप्ताय अर्घ । २ ॥ कृष्णा मंगसिर दश जान लौकान्तिक आये। करि केश लौच ततकाल मट दन को धाये ॥ चादन० ॐ ही श्री महादीर जिनेन्द्राय मगसिर कृष्ण दशमी तपमङ्गल प्राप्ताय अर्घ० ॥ ३॥ वैशाख शक्ल दश मांहि घाती क्षय करना। पायौ तुम केवलज्ञान इन्द्रनि की रचना ॥ चादन० ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय वैशाख शुक दशमी केवलज्ञान प्राप्ताय अर्घ० ॥ ४ ॥ कार्तिक जु अमावस कृष्ण पावापुर ठाहीं। भयो तीनलोक में हर्ष पहुँचे शिव माहीं ॥ चांदन० ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय कार्तिक कृष्ण अमावस मोक्षमङ्गल प्राप्ताय अर्घ ५ ।
जयसाला। दोहा-मङ्गलमय तुम हो सदा श्रीसन्मति सुखदाय । चांदनपुर महावीर की कहूँ आरती गाय ॥
पद्धड़ी छन्द । जय जय चॉदनपुर महावीर, तुम भक्तजनो की हरत पीर । जड़ चेतन जग के लखत आप, दई द्वादशांग वाणी अलाप ।। अब पञ्चम काल मझार आय, चाँदनपुर अतिशय दई दिखाय । टीले के अन्दर बैठि वीर, नित हरा गाय का आप क्षीर ॥
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3
ग्वाला को फिर नागाह कीन, जब दर्शन अपना आप दीन । सूरत देखी नति ही अनूप, हैं नम दिगम्बर शान्ति रूप ॥ तहां श्रावक जन वह गये आय, किये दर्शन करि मनवचनकाय । है चिह्न का ठोक जान, निश्चय हैं ये श्री वर्द्धमान ॥ सब देवन के श्रावक जु आय. जिन भवन अनूपम दियो बनाय | फिर शुद्ध दई वेदी कराव, तुरतहि गजन्य फिर लयो सजाय ॥ ये देन वाल मन में अधीर, मम ग्रह को त्यागो नही वीर । तेरे दर्शनविनतम् प्राण, सुनि टेर मेरी किरपा निधान ॥ कीने के प्रभु विराजमान, रय हुआ अत्तल गिरि के समान । तब तरह के किये और बहुतन न्य गाडी दिये तोड़ ॥ निशिमाहि राचिवहि दिसात, रथ चलै ग्वाल का लगत हाथ । भोरहिट चरण दियो बनाय, नन्तोष दियो ग्वालहिं कराय ॥ करि जय जय प्रभु से कारी ढेर, रध चल्यो फेर लागी न देर । वहु नृत्य करत वाजे बजाई, स्थापन कोने तह भवन जाई ॥ इक दिन नृप को लगा दोष, धरि तोप कही नृप खाई रोष । तुमको जब ध्याया वहा वीर गोला से भट वच गया वजीर ॥ मन्त्री चांदनगांव आय, दर्शन करि पूजा करितीन शिखर मन्दिर स्वाय, कवन कलशा दीने वह हुक्म कियो जयपुर नरेश सालाना अव जुडन लगे नर और नार, तिथि चैत शुक्ल पूनी मीना गुजर आये विचिन, सब वरण जुटे करि मन पवित्र । निरत करत गावें सुहाय, कोई-कोई घृत दीपक रह्यो चढाय ॥
की
मेला हो
1
मकार ॥
बहु
वनाय ।
धराय ॥
हमेश ।
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२२२
जन पूजा पाठ सप्रह
कोई जय जय शब्द कर गम्भीर, जय जय जय हे श्री महावीर । जैनी जन पूजा रचत आन, कोई छन्न चवर के करत दान ।। जिसको जो मन इच्छा करन्त, मन बाछित फल पावे तुरन्त । जो करै वन्दना एक बार, सुख पुत्र लम्पदा हो अपार ।। जो तुम चरणो ले रखे प्रोत, ताको जग मे को सके जीत । है शुद्ध यहा का पवन नीर, जहा अति विचित्र सरिता गम्भीर ।। 'पूरणमल पूना रची सार, हो मूल लेउ सज्जन सुधार । मेरा हे शमशाबाद ग्राम, त्यकाल करुं प्रभु को प्रणाम ।।
पत्ता। श्रीवर्द्धमान तुम गुण निधान, उपना न बनी तुम चरण की। है चाह यही लित बनी रहै, अभिलाण तुम्हारे दर्शन की।
ॐ ही श्री दिनगाव महावीर जिनेन्द्राय जयमालार्घ निर्वपामोति स्वाहा । दोहा—अष्ट-कर्म के दहल को पूजा की विशाल ।
घढे सुने जो भाव से छूटे जग जाल ॥ सम्वत् जिन चौबीस सौ है वासठ की साल । एकादश कार्तिक बदी पूजा रची सम्हाल ॥
इत्याशीर्वाद ।
सदाचार - मानव जीवन राज्य है, मन उसका राजा है, इन्द्रियाँ उसकी सेना हैं, कषाय शत्रु है। यदि मन विवेकशील है तो इन्द्रियाँ मदा सचेत रह कर कषाय शत्रुओं को पराजित करती रहेंगी।
- 'वर्णी वाणी' से
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वृहत् अभिषेक पाठ श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेणं, स्याद्वादनायकमनन्तचतुष्टयाहम् । श्रीसूलसंघसुदृशाम् सुकृतैकहेतुजैनेन्द्रयज्ञविधिरेष मयाभ्यधायि ॥ १ ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षेपण। सौगन्ध्यसंगतमधुव्रतमंकृतेन, सौवर्ण्यमान भिव गल्पलनियमादौ। आरोपवालि विवुधेश्वरवृन्दवन्य, सादारविन्दलभिवन्य जिनोत्तमानाम् ॥ २॥
अभिषेक करनेवालो को अन मे चन्दन लगाना चाहिये। नोट-अभिषेक पाठ करने के पहले गर्भ और जन्म के दो मंगल बोलना नाहिये।
प्रोत्फुल्लनीलकुलिशोत्पलपद्मराग, निर्जत्करणकरवंधसुरेन्द्रचापं । जैनालिषेक समयेऽगुलिपर्वसूले, गलांगुलीयकमहं विनिवेशयामि ॥ ३॥ __अभिपेफ करनेवालों को मुद्रिका धारण करना चाहिये ।
सम्यकपिललननिर्मलरक्तपंक्तिः, रोचिहलपजातबहुमनारं । कल्याणलिसितमहं कटक जिनेशं, पूजाविधानललिते स्वकरे करोसि ॥४॥
अभिषेक करनेवालो को हाथ में ककण धारण करना चाहिये ।
पूर्व पवित्रतरसूत्रविनिर्मितं यत्, प्रीतः प्रजापतिरकल्पयदंगसंग। सदभूषणं जिनमहे निजकण्ठधार्ययज्ञोपवीतमहमेप तदा तनोमि ॥५॥
अभिषेक करनेवालों को यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये। पुन्नागचम्पकपयोरुहकिकरात,जातीप्रसूननवकेसर
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जैन पूजा पाठ संग्रह
कुन्ददग्धम् । देव ! त्वदीयपदपंकज सत्प्रसादात्, मूर्ध्नि प्रणाममतिशेषकरं दधेऽहं ॥ ६ ॥
अभिषेक करनेवालों को शिर पर मुकुट धारण करना चाहिये ।
२२४
कटकं च सूत्रत्रयकुण्डलानि, केयूरहारगजमुद्रितमुद्रिकां च । प्रालेयपार्ट मुकुटस्वरूपं, स्वस्ति क्रियामेखलकर्णपूर्णं ॥ ७ ॥
अभिषेक करनेवालों को कुण्डल धारण करना चाहिये । ये सन्ति केचिदिह दिव्यकुलप्रसूता, नागाः प्रभूत वलदर्पयुता विवोधाः । संरक्षणार्थतेन शुभेन तेषां प्रक्षालयामि पुरतः स्नपनस्य भूषिम् ॥ ८ ॥
ॐ क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष इसको पढ कर अभिषेक के लिये भूमि या चौकी का प्रक्षालन करे ।
क्षीरार्णवस्य पयसां शुचिभिः प्रवाहः, प्रक्षालितं सुरवरैर्यदनेकवारम् । अत्युद्धमुद्यतमहं जिनपादपीठं, प्रक्षालयामि भवसम्भवतापहारि ॥ & ॥
सिंहासन प्रक्षालन करें, जिस पर भगवान विराजते है । श्रीशारदा सुमुख निर्गत बीजवणं, श्रीमंगलीकवर सर्वजनस्य नित्यं । श्रीमत्स्वयंक्षयित तस्य विनाश विघ्नं श्रीकारवर्ण लिखितं जिन भद्रपीठे ॥ १० ॥ यह श्लोक पढ कर सिंहासन पर श्री
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लिखना चाहिये |
इन्द्राग्निदण्डधरनैऋतपाशपाणि, मौलिफणीन्द्रचन्द्राः । आगत्य यूयमिह सानुचराः सचिन्हाः स्वं स्वं प्रतीच्छत बलिं जिनपाभिषेके ॥११॥
वायुत्तरेशशशि
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दश दिक्पालों के लिये अर्घ चढ़ाने की विधि १ॐ आंकी ही इन्द आग आगच्छ इन्द्राय रवाहा। २ॐ आधीही अग्ने मागच्छ आगच्छ अमये स्वाहा । ३ ॐ आ की ही यन मागच्छ आगच्छ यमाय स्वाहा । ४ ॐ आं को ही नैऋत आगच्छ आगञ्छ नै मृताय स्वाहा । ५ॐओं काही वरप आगच्छ पागच्छ वरुणाय रवाहा । ६ को ही पवन आगच्छ आगच्छ पवनाय स्वाहा । ७ॐ आ की ही पुर आगच्छ आग वेराय स्वाहा । ८ॐ आ को ही ऐमान भागञ्छ भागञ्च ऐशानाय स्वाहा । ९ॐ को ही परणीन्द्र आगच्छ आगच्छ धरणीन्द्राय स्वाहा । १० ॐ आ मी ही नोन आगच्छ आगच्छ सोमाय स्वाहा ।
____ इति दश दिक्पाल मन्त्रा । अत्युग्रतारमोक्तिकचूर्णवर्णभृगारनालमुखनिर्गतचारु धारैः। शीतैः सुगन्धिभिरतीव जलैजिनेन्द्रवियोत्सवस्नपनमेष समारभेऽहम् ।। १२ ।।
पुष्पालि क्षेपण। दध्युज्ज्वलाक्षतमनोहरपुष्पदीपैः, पात्रापितः प्रतिदिनं महतादरेण । त्रैलोक्यमंगलसुखालयकामदाहमारार्तिकं तव विभोरवतारयामि ॥ १३ ॥
दधि, अक्षत, पुष्प और दीप पात्र में लेकर मगल पाठ तथा अनेक वादित्रों के माथ भगवान की आरती उतारनी चाहिये ।
पुण्याहमद्य सुमहन्ति च मंगलानि, सर्वे प्रहृष्टमनसश्च भवन्ति भव्याः । पुण्योदकेन भगवन्तमनन्तकान्तिमहंतिमुज्ज्वलतनुं परिवर्तयामि ॥ १४ ॥
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जैन पूजा पाठ संग्रह
नाथ ! त्रिलोकमहिताय दशप्रकाराः धर्मावृष्टिपरिषिक्तजगत्त्रयाय । अर्धं महार्घगुणरत्नमहार्णवाय, तुभ्यं ददामि कुसुमैर्विशदाक्षतैश्च ॥ १५ ॥
( जहाँ भगवान विराजमान हों, वहाँ जाकर अर्ध चढाना चाहिये | ) जन्मोत्सवादिसमयेषु यदीयकीर्ति, सेन्द्राः सुराः प्रसदभारनताः स्तुवन्ति । तस्याग्रतो जिनपतेः परया विशुद्धया, पुष्पांजलि मलयजातमुपाक्षपेहम् ॥ १६ ॥
पुपाजलि क्षिपेत् ।
२२६
नीचे लिखा श्लोक बोल कर सिंहासन पर जिनविस्व की स्थापना 1
यं पाण्डुकासल शिलागतमादिदेवमस्नापयन् सुरवराः सुरशैलमूनि । कल्याणमीप्सुरहमक्षततोयपुष्पैः, संभावयामि पुर एव तदीय विस्त्रम् ॥ १७ ॥
ॐ ही अरहन्त । अत्र अवतर अवनर मवोपय् आह्वानन ।
ॐ ह्री अरहन्तदेव । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन ।
ॐ ह्रीं अरहन्तदेव ! अत्र मम सनिहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम
सत्पल्लवाचित मुखान्क लधौतरौप्य, ताम्रारकूटिघट तान्पयसा सुपूर्णान् । संवाह्यतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान्, संस्थापयामि कलशान जिनवेदिकान्ते ॥१८॥ चार दिशाओं में जल से पूर्ण स्वस्तिक लगे हुए कलश स्थापन ।
आभिः पुण्याभिरद्भिः परिमल बहुलेनामुना चन्दनेन, श्रीदृक् पेयैरमीभिः शुचिसदकचयैरुद्गमै रेभिरुद्वैः । हृद्यैरेभिर्निवेयैर्मख भवन सिमैर्दीपयद्भिः प्रदीपैः धूपैः
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प्रायोभिरेभिः पृथुभिरपि फलै रेभिरीशैर्यजामि ॥ १६ ॥
ॐ ह्रीं श्री परमदेवाय श्रीअहं परमेष्ठिने अध्यं निर्वपामीति स्वाहा |
दूरावनम्रसुरनाथ किरीटकोटी संलग्नरत्त किरणच्छविधूसरांघ्रिम् । प्रस्वेदतापमलमुक्तमपि प्रकृष्टैर्भक्त्या जलै जिनपतिं बहुधाभिषिंचे ॥ २० ॥
ॐ ह्रीं श्री भगवन्त कृपालसन्त श्रीवृषभादि वोर पर्यन्त चतुविशति तीर्थंकर परमदेव जिनामिषेक नमये आये आये जम्मूद्वीपे भरतक्षेत्र आर्यखण्डे नाम्नि नगरे पक्षे पर्वणि शुभ
माने
तिथौ
वासरे मुनि
मानान। नासोसमे यायिक निरुणा श्रावक श्राविकाणा नन्कर्मक्षयार्थं जलेनाभिसिंचेति स्वाहा। यह जन्त्र पडकर भगवान के ऊपर शुद्ध जल की धारा देनी चाहिये ।
उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैश्चरु सुदीप सुधूपफलार्घकैः । धवलमंगलगानखाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥
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श्री पभादिवीरान्तेभ्यो ऽनपदप्राप्तये अन्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
उत्कृष्ट वर्णन व हेमरसाभिराम, देहप्रभावलय संग सलुप्तदीप्तिम् । धारां वृतस्य शुभगन्धगुणानुमेयां, वन्देऽर्हतां सुरभिसंस्तपनोपयुक्ताम् ॥
गाथा - जो घियचणवण्णदुइ जिणण्हावे धरि भाव । सो दुग्गयगड़ अवहर जम्मनदुक्कइपाइ ॥
अभिषेक मन्त्र में 'जलेनाभिपिचे' की जगह 'घृतेनाभिपिचे' पढें । इति घृत कलशाभिषेक | पीछे 'उदकचन्दनादि' बोल कर अर्ध चढाना चाहिये । लम्पूर्णशारदशशांकमरीचिजालस्यन्दैरिवात्मयशसामित्र सुप्रवाहैः क्षीरेजिनाः शुचितरैरभिषिच्यमानाः, सम्पाद - यन्तु मम चित्तसमीहितानि ॥
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जैन पूजा पाठ मह
गाथा - दुद्धहि जिणवर जो पहवई मुत्ताहलधवलेण । सो संसार न संभवइ मुच्चड़ पावलेण ॥
अभिषेक मन्त्र मे 'जलेनाभिपिचे' की जगह 'क्षीरेणाभिपिचे' पढें । इति दुग्ध कलशाभिषेक | पीछे 'उदकचन्दनादि' बोल कर अर्ध चढावें ।
दुग्धान्धिवी चिपय संचितफेनराशिपाण्डुत्वकान्तिमत्रधारयतामतीव । दध्ना गता जिनपतेः प्रतिमा सुधारा, सम्पाद्यतां सपदि वांछित सिद्धये नः । गाथा - दुद्धरूडाकड उत्तरइ दडवडदहीपडन्त | भवियह सुच्चइ कलिमलह जिणदिट्ठ उवीसन्त ॥
मन्त्र में 'जलेनाभिपिचे' की जगह 'दना' पढें । इति दधिकलशाभिषेक । पीछे 'उदकचन्दनादि' बोल कर अर्घ चटाना चाहिये । भक्त्याललाट तट देशनिवेशितोच्चैः, हस्तैश्च्युता सुरवराऽसुरमर्त्यनाथैः । तत्कालपीलितमहेक्षुरसस्य धारा. सद्यः पुनातु जिनविश्वगतैव युष्मान् ॥
२२८
मन्त्र में 'जलेनाभिषिंचे' की जगह 'इक्षुरसेनाभिर्पिचे' पढें । पीछे "उदकचन्दन” बोल कर अर्घ चढाना चाहिये ।
संस्नापितस्य घृतदुग्धदधीक्षुवाहैः सर्वाभिरौषधिभिरर्हतमुज्ज्वलाभिः । उद्वर्तितस्य विदधाम्यभिषेकमेलाका लेय कुंकुमरसोत्कटबारिपूरैः ॥
गाथा - रसदुद्धदही पाणीय जो जिनवर पहावे । raine तोडे विकरि अचल सुक्ख पावइ | मन्त्र में 'जलेनाभिषिंचे' की जगह 'सर्वोषधेनाभिषिचे' पढें । इति सर्वोषधिकलशाभिषेक । पीछे 'उदकचन्दनादि' बोल कर अर्घ चढाना ।
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जैन पूजा पाठ सग्रह
२२९
द्रव्यैरनल्प घनसारचतुःसमायै रामोदवासितसमस्तदिगन्तरालैः । मिश्रीकृतेन पयसा जिनपुंगवानां, त्रैलोक्यपावनमहं स्नपनं करोमि ॥
मन्त्रमें 'जलेनाभिपिचे' की जगह 'सुगन्धजलेन' पढें । केशर कर्पूरादि सुगन्धित पूर्ण कलशाभिषेक । पीछे 'उदकचन्दनादि' वोल कर अर्घ चढ़ाना । ___ इष्टमनोरथशतैरिव भव्यपुंसां, पूणैः सुवर्णकलशैनिखिलैवसानैः। संसारसागरविलंघन हेतुसेतुमाप्लावये त्रिभुवनैकपतिं जिनेन्द्रम् ॥ श्लोक-श्रीमन्नीलोत्पलामोदैराहता भ्रमरोत्कटैः ।
___ गन्धोदकैजिनेन्द्रस्य पादाभ्यर्चनमारंभे ।। पूरा अभिषेक मन्त्र वोल कर वाकी बचे हुए समस्त कलशोंसे भगवान का अभिषेक करना चाहिये।
अथ गन्धोदक धारण मुक्ति श्री वनिताकरोदकमिदं पुण्यांकुरोत्पादकं । नागेन्द्रत्रिदशेन्द्रचक्रपदवी राज्याभिषेकोदकं ॥ सम्यग्ज्ञानचरित्रदर्शनलता संवृद्धि सम्पादकं । कीर्तिश्री जयसाधकं तव जिन ! स्नानस्य गन्धोदकं श्लोक-निर्मलं निर्मलीकरणं पावनं पापनाशनम् ।
जिनगन्धोदकं वन्दे अष्टकर्मविनाशकम् ॥ इसको पढ कर गन्धोदक अपने मस्तक पर लगाना चाहिये।
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अभिषेक पूजा
अथाष्टकम्
न पूजा पाठ सह
सद्गन्धतोयैः परिपूरितेन, श्रीखण्डमाल्यादिविभूषितेन । पादाभिषेक प्रकरोमिभूत्यै, भृङ्गारनालेन जिनस्य भक्त्या ॥ १॥
ॐ ही चतुविश्वतिजिनद्वृषभा दिवीरान्तेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ।
काश्मीरपंक हरिचन्दनसारसांद्र निस्पंदनादिरचितेल विलेपनेन | अभ्याजसौरभतनौ प्रतिमा जिनस्य, संचर्चयामि भवदुःखविनाशनाय ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतिजिनवृषभादिवीरान्तेभ्यो समान्तापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ।
तत्कालभक्तिसमुपार्जितसौख्यवीज, पुण्यात्मरेणुनिकरैरिव संगलब्धिः । पुंजीकृतः प्रतिदिनं कमलाक्षतोघैः, पूजा करोति रचयामि जिनाधिपानाम् || ३ ||
ॐ हो चतत्रिंशतिजिनवृषभाद्विवीरान्तेभ्यो अक्षयपत्प्राप्तचे अक्षत निर्वपामीति स्वाहा ।
अम्भोज कुन्दवकुलोत्पलपारिजात, मन्दारजातविदलं नवमल्लिकाभिः । देवेन्द्र मौलिविरजीकृतपादपीठं, भक्त्या जिनेश्वरमहं परिपूजयामि ॥ ४ ॥
ॐ ह्रीं चतुर्षि राति जिनवृषभादित्रीरान्तेभ्यो कामवाणविध्वशनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा । अत्युज्ज्वलं सकललोचनचारुहार, नानाविधौ कृतनिवेद्यमनिन्द्यगन्धं । आघ्रायमाण रमणीयसि हेमपात्रे संस्थापितं जिनवराय निवेदयामि ॥ ५ ॥
ॐ ही चतुर्विशतिजिनवृषभादिवीरान्तेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । निःकज्ज्वल स्थिरशिखा कलिकाकुलापैः, माणिक्यरश्मि शिखराणिविडंवयद्भि 1 सर्वाभिरुज्ज्वलविशालतरा
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वलोकै दीपे जिनेन्द्रभवनानि यजे त्रिसन्ध्यम् ॥ ६ ॥
ॐ ही चविंशतिनिपृषभादिबीरान्तेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा
कर्पूरचन्दनतरुप्क सुरेन्द्रदारुकृष्णागरुप्रभृतिचूर्णविधानसिद्धिं । नासाक्षिकण्ठमनसां प्रियधूमवर्तिधूपैर्जिनेन्द्र, मभितो बहुभीः क्षपेऽहम् ॥ ७ ॥
ॐ ही वीरान्तेभ्यो अष्टकमंषिध्नमनाय धूप निर्वपामीति स्त्रादा ।
वर्णेन जातिनयनोत्सवमावहन्ति, यानी प्रियाणि मनसो रससंपदा च । गन्धेन सुष्ठु रमयन्ति च यान्ति नाशं. तस्तैः फलैजिन पतेर्विदधामि पूजाम् ॥ ८ ॥ ॐ चतुतिनिनादिपीरान्तेभ्यो मोक्षपातये फल निर्वपामीति स्वाहा ।
एवं यथाविधिमनागपि यः सपर्यामर्हस्तव स्तवपुरस्सरमातनोति । कामं सुरेन्द्रनरनाथसुखानि भक्त्या, मोक्षं तमप्यभयनन्दि पदं स याति ॥ ६ ॥
ॐ चतुतिनियुपभादिपोरान्तेभ्यो अनम्यं पराप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला
श्रीमत्श्री जिनराजजन्मसमये इन्द्रोऽतिहर्षायमान् । इन्द्राणी परिवार भृत्यसहितो देवांगनां नृत्यवान् ॥ नानागीतविनोद मंगल विधौ पूजार्थमादाय सः । जलगन्धाक्षतपुष्पचारुचरुभिर्दीश्च धूपैः फलैः ॥
छन्द |
जन्म जिनराज को जवहिं जिन जानियो । इन्द्र धरणिन्द्र सुर सकल अकुलानियो ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
देवदेवांगना चलियउ जयकारती । सचिय सुरपति सहित करहिं जिन आरती ।। २ ॥ साजि गजराज हरि लक्ष योजन तनौ । चदन शतवदनप्रतिदन्तवसु सोहनौ ।। सजल भरिपूर प्रतिदन्त सर सोहती ॥ सचिय० ॥३॥ सरहि सर पञ्च द्वै इक कमलिनी बनी। तासु प्रति कमल पच्चीस शोभा बनी ।। कमल दल एक सौ आठ विस्तारती ।। सचिय० ॥४॥ दलहि दल अपछरा नाचही भावसों। करहिं मंगीत जयकार सुर रागसौ ॥ ताग्र तत थेड थेड करति पगढारती ।। सचिय० ॥५॥ तासु करि चठि हरि मकल परिवारसों। देहिं परदिछना जिनहि जयकारसो ॥ आनि कर सचिय जिननाथ उद्धारती ।। सचिय० ॥६॥ आनि पाण्डकाशिला पूर्वमुख थापि जिन । करहिं अभिषेक जो इन्द्र उत्साहसों। अधिक निनदेखि प्रभु कोटि छवि वारती ॥ सचिय० ॥७॥ योजना आठ गम्भीर कलसा बनौ । चारि चौड़ाई मुख एक जोजन तनी ।। सहस्र अठोतरसौ कलश शिर ढारती ॥ सचिय० ॥ ८ ॥ छत्र मणि खचित ईशान शिर ढारती। सनतमाहेन्द्र दोऊ चमर गिर ढारती ।। देव-देवी सुपुष्पाञ्जलि डारती । सचिय० ॥ ६ ॥
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110 40
I
जल सुचन्दन अक्षत पुष्प चरु ले धर दीप अरु धूप फल अर्घ पूजा करें ।। पाण्डुका और नीराञ्जना वारती || मचिय० ॥ १० ॥ कियो सिंगार सब अंग सम्मानकौ
'
आनि मातहि दियो फेरि जिनराजको ॥
तृप्त नहि हो हग रूप को नीहारती ॥ सचिय० ॥ ११ ॥ ताल मृदङ्ग ध्वनि नप्त स्वर वाजहीं ।
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नृत्य ताण्डव करत इन्द्र अति छाजहीं ॥
करन उत्साह सौ जिन सुपग ढारती || सचिय० ॥ १२ ॥ भव्यजन लोक जन्ममहोत्सव करें। आगिले जन्म के सकल पातक हरें ॥
भक्ति जिनराज की पार उतारती । नचिय सुरपति सहित करहिं जिन आरती || १३ ॥ घत्ता - जिनवर वर माता, माननीया सुरेन्द्रेः ।
ल जयति जिनराजा "लालचन्द्र" विनोदी | '
ॐ गिनिनिवृपमा दितीर्थहरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अप्यं इत्याशीर्वाद नव तिलक
पूजा करनेवाले को प्रथम नय तिलक करना चाहिये ।
शिखा शीश की जानि, ललाट सु लीजिये ।
भुजा गनि लीजिये ॥ सरस शुभ कीजिये । तिलक नव कीजिये ॥१॥
1
कण्ठ, हृदय अरु कान, कूंख, हाथ अरु नाभि, तव जिनवर को जजो,
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२३४
देव शास्त्र - गुरु पूजा संस्कृत
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पूजा पाठ सह
पूजा प्रारम्भ बना चाहिये।
सावः सवज्ञनाथ नकल-तनुभृता पाप-संताप - हर्ता त्रैलोक्याकाल-कीति नत मढनरिपुर्वातिकर्म-प्रणाश श्रीमान्निर्वाणमपट्टरयुवति करालीड-कठै. मुकण्ठै देवेन्द्रैबन्द्य-पाडी जयति जिनपतिः प्राप्त कल्याण-प्रज || १ || जय जय जय श्रीनत्कान्ति-प्रभो जगता पतं । जय जय भवानेव स्वामी भवाम्भसि मताम् ॥ जय महामोह - ध्वान्न प्रभातकृतेऽचनम् । जय जय जिनेशत्व नाथ प्रसीद करोम्यहम् ॥ २ ॥ * ही भगवज्जितेन्द्र अत्र अवतर नवौषट् आह्वाननम् अत्र तिष्ठ तिष्ठ 55 1 अनम नतिहितो भ देवि श्रीश्रुतदेव भगवति त्वत्पादपङ्केरुह
जय
C
इन्हे यामि शिलीमुखत्वमपर भक्त्या मया प्राथ्यते 1 माततानि तिष्ठ में जिन मुखोद्भूते नदा त्राहि मा
इन्दानेन मयि प्रसीद भवतीं नपूजयामोऽधुना ॥ ३ ॥ हो जिनसोद्भूतद्वादशाङ्गध्रु तज्ञान अत्र अवनर अवतर नवौषट् । अत्र तिष्ट तिष्ट 65 1 अन नम नन्निहितो भव भव वषट् । संपूजयामि पूज्यस्य पादपद्मयुग गुरो !
भव वश्ट्
तपः प्राप्त प्रतिष्ठस्य गरिष्ठम्य महात्मनः ॥४॥
ॐ ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमूह ' अत्र अवतर अवतर सर्वौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठठ । अत्र नम सन्निहितो भव भव वषट् ।
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२३६
अक्षय अक्षय मैं कहूँ, सो अक्षय पद नाय ।
महाअक्षय पद तुम लियो, यातें पूजू राय ॥ ॐ ह्री' अनयपदप्राप्तये अनतान् निर्वपामीति स्वाहा । विनीत-भव्याब्ज-विबोधसूर्यान्वर्यान् सुचर्या -कथनैक-धुर्यान् । कुन्दारविन्द-प्रमुखैः प्रमूनैजिनेन्द्र-सिद्धान्त-यतीन् यजेऽहम् ||८|| पुष्प चाप धर पुष्प सर, वारी मनमथ वीर ।
न पूजा पाठ सप्रह्
यातें पूजा पुष्प की, हरै मदन की पीर ॥
कासवान पुष्पे हरो, सो तुम जीते राय ।
बातें मैं पायन पडू, मदन काम नशि जाय ॥ ॐ ह्रीं कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा । कुदर्प- कन्दर्प - विसर्प-सर्प- प्रसह्य-निर्णाशन-चैनतेयान् । प्राज्याज्यसारैथरुभी रसात्यैजिनेन्द्र - सिद्धान्त-यतीन् यजेऽहम् ||६|| परम अन्न नैवेद्य विधि, क्षुधाहरण तन पोप ।
जे पूजें नेवेद्य सों, मिटे क्षुधादिक दोष ||
भोजन नाना विधि कियो, मूल क्षुधा नहिं जाय ।
क्षुधा रोग प्रभु तुम हरो, चातैं पूजू पाच ॥ ॐ ह्रीं सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । ध्वस्तोद्यमान्धीकृत- विश्व-विश्वमोहान्धकार- प्रतिघात - दीपान् । दीपैः कनत्कांचन-भाजनस्थैर्जिनेन्द्र- सिद्धान्त यतीन् यजेऽहम् ॥ १० आपा पर देखे 'सकल, निशि मे दीपक जोत ।
दीपक सों जिन पूजिये, निर्मल ज्ञान उद्योत ॥
दीप शिखा घट में वसै, ज्ञान घटा घट माय ।
ढूंढ़त डोलें करम को, कृत कलंक मिट जाय ॥ ॐ ह्रीं मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ।
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दुष्टार-कमन्वन-पुष्ट-जाल-मंधपने भानुर-धमकेतृन् । धूपैपितान्य-गुगन्ध-गन्धजिनेन्द्र-निद्धान्न-यतीन् यजेऽहम्॥१॥ पाय मुगध को कार्य सांग ।
मन प जिगर को, अष्ट पमं भय होय It सय प्रम पायन पान पर पीर ।
पाहिले, जिभपन पनि गम्भीर।। in Hदा नपानानि FICTI चम्पविलम्पन्मनमाणगापा मादि-बादाम्मलित-प्रमावान। पना मांस-पन्नाभिनाराजगन्न मिद्धान्त-बनीन बजेहम्॥१२॥ सो मी परनी पर, मोगमा ले।
पूना नाराापी, निम्पर शिव पल देव ।। पलट जाने पर ये पल ये पल नाय ।
महानोर पलम रियो, तानं पज़, पांच ॥ की मांग नाम पर नपानाति स्वास। सहारिनगन्धाचन-पुष्पजानन वेप-दीपामन-प-पत्रः । फल विनियन-पुण्य-योगासिनन्द्र-सिद्धान्त यतीन यजेहम्।।१३॥ उलधारा पदन पमों, अक्षत पुष्प नेपेदा ।
दोप थप फल अर्प युरा, ये पूजा यमु भेव । ये गिन पजा नष्ट विधि, कीजे पर शुचि अज।
प्रमि पासधार मो, दीजे धार अभग ॥ हो गयपान अब नियंपानानि च । ये पूजा जिननाय-शास्त्र-पमिना भन्या मटा कुर्वते अंमध्यं मुविचित्र-कान्य-रचनामुगारयन्तो नराः ।
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पुण्याच्या मुनिराज - कीर्ति सहिता भृत्वा तपोभूषणास्ते भव्याः सकलावबोध - रुचिग सिद्धि लभन्ते पराम् ||१४|| [ इत्याशीर्वाद, पुष्पाञ्जलि क्षिपामि ।] वृषभोऽजितनामा च सम्भवश्चाभिनन्दनः । मुमतिः पद्मभासच मुपार्श्वो जिनसत्तम ॥ १५॥ चन्द्राभः पुप्पदन्तश्च शीतलो भगवान्मुनिः । श्रेयांश्च वासुपूज्यश्च विमलो विमल -द्युतिः ॥ १६ ॥ अनन्तो धर्मनामा च शान्तिः कुन्थुर्जिनोत्तम' | अरच मल्लिनाथच सुत्रतो नमि-तीर्थकृत् ||१७|| हरिवंशसमुद्भृतोऽरिष्टनेमिर्जिनेश्वरः । ध्वस्तोपसर्ग-दैत्यारिः पारखों नागेन्द्र प्रजित ||१८|| कर्मान्तकृन्महावीरः सिद्धार्थ-कुल- सम्भव' । एते सुरासुरौघेण पूजिता विमलविः ||१९|| पूजिता भरताद्यैश्च भूपेन्द्रैर्भूरि-भूतिभिः । चतुर्विधस्य संवस्य शान्ति कुर्वन्तु शाश्वतीम् ||२०|| जिने भक्तिजिने भक्तिजिने भक्तिः सदाऽस्तु मे । त्वमेव समार-वारणं सोक्ष-कारणम् ||२१|| [ पुग्पाञ्जलि क्षिपामि ]
श्रुते भक्ति श्रुते भक्तिः श्रुने मक्ति सदाऽस्तु मज्जानमेव संसार-वारण मांत कारणम् ||२२|| [ पुष्पाञ्जलि त्रिपामि ।
गुगे भक्तिगुग भक्तिर्गुरी भक्ति सदास्तु मे । चारित्रमेव संसार चारण मोच कारणम् ||२३|| [ पुष्पाञ्जलि निपामि ]
से
पाठ सह
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देव- जयमाला
वत्ताद्वार्णे जणु धणदाणें पड़ पोसिउ तुहुं खत्तधरु | तचचरणविहाणे केवलखाणें तुहुं परमप्पउ परमपरु || १||
जय रिसह रिसीसर - विय-पाय | जय अजय जियंगय - रोस - राय ॥ जय संभव संभव-कय-विओय | जय अहिणंदण दिय-ओय ॥२॥ जय मुराइ सुमइ सम्मय-पयास । जय परमप्पह पउमा-णिवास ॥ जय जयहि सुपास सुपास-गत्त । जय चंदष्पह चंदाहवत्त ||३|| जय पुष्फयंत दंतंतरंग । जय सीयल सीयल-चयण-भंग | जय लेय सेय-किरणोह-सुज्ञ्ज । जय वासुपुत्र पुजाणुपुज ||४|| जय विमल विमल - गुणसेटि-ठाण | जय जयहि अनंतानंत-गाण || जय स्म धम्म - तित्थयर संत । जय संति संति - चिहियायवत || ५|ा जय कुंथु कुंथु - पहुअंगि सदय । जय अर - अर-मा- हर विहिय-समय || जय मल्लि नल्लिआ-दाम-गंध । जय सुणिसुव्वय सुव्वय - णिबंध ||६|| जय मि मियामर-पियर-सामि । जय घोमि धम्म-रह- चक्क - णेमि ॥ जय पास पास छिंदण-किवाण । जय वड्ढमाण जस- वडमाण ||७||
धत्ता
इह जाणिय-णामहिं दुरिय - विरामहिं पर हि वि अहिहिं अणाइहिं समय - कुवाइहिं पणविवि
णमिय- सुरावलिहिं | अरहंता लिहिं ||
ॐ ह्रीं वृषभादिमहावीरान्तचतुर्विंशतिजिनेभ्यो अर्ध
शास्त्र- जयमाला
संपर-सह-कारण कम्म - वियारण भव-समुद्द-तारणतरणं । जिणवाणि णमस्समि सत्ति पयासमि सग्ग- मोक्ख-संगम-करणं ॥ १॥ जिणिंद-सुहाओ विणिग्गय-तार | गणिद-विगुंफिय गंथ- पयार ॥ तिलोयहि संडण धम्मह खाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥२॥ अवग्गह-ईह-अवायजुएहिं । सुधारणभेयहि तिणिसएहि ||
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जेन पूजा पाठ मह
मई छत्तीस वहुप्पमुहाणि । सया पणमामि जिणिह वाणि ॥३॥ सुदं पुण दोणि अणेय पयार । सुवारह-भेय जगत्तय-नार ॥ सुरिंद-रि-समुचिय जाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥४॥ जिणिंद-गणिद गरिंदह रिद्वि । पयाम पुण्ण पुरा किल लद्वि ॥ णिउग्गु पहिल्लउ एहु वियाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥ ५॥ जु लोयअलोयह जुत्ति जणेइ । जु निण्णि वि काल सम्व भड || चउग्गड़-लक्सण दुज्जउ जाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥६॥ जिणिंद-चरित विचित्त मुणे । मुसावहि धम्मह जुत्ति जगह || णिउग्गु वि तिज्जउ इत्थु वियाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥७॥ सुजीव- अजीवह तच्चह चक्सु । सुपुण्णु वि पाव विनव विमुक् ॥ चउत्यु णिउग्गु विभासिय जाणि । सया पणनामि जिहि वाणि || || तिभेयहि जोहि विषाणु विचित् । चउत्प रिज़ विउल मह उत्तु ॥ सुखाय केवलणाण वियाणि । सया पणमाणि निणिदह वाणि ॥ ॥ , जिणिंदह णाणु जग-तय-थाणु । महातम णासिय सुक्स - णिहाणु || पचउ भक्तिभरेण वियाणि । सया पणमासि जिणिदह वाणि ॥१०॥ पयाणि सुवारह कोडि सयेण । मुलक्स तिरासिय जुत्ति-भरेण ॥ सहस अड्डावण पच वियाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥११॥ इक्कावण कोडिउ लक्ख अठेव । सहस चुलसीदिय सा छक्केव ॥ सढाइगवीसह गन्थ-पयाणि । सया पणासि जिणिदह वाणि ||१२|| पत्ता - इह जिणवर-वाणि विशुद्धमई । जो भवियण णिय-मण धरई । सो सुर- रिंद संपलई । वरणाण वि उत्तरई 118311 ॐ ह्रीं श्रीजिनमुसोभूतस्याद्वाद यगर्भितद्वादशारश्रुत ज्ञानाया। गुरु-जयमाला
२४०
भवियह भव-तारण सोलह-कारण अजवि तित्थयरचनहं । तवकम्म असगर दयधम्मंग पालवि पंच महन्वयहं ॥१॥ वंदामि महारिति सोलवत. पंचिदिय-संजम जोगजुरा । जे ग्यारह अंगह अणुसरंति, जे चउदह पुव्वह मुणि थुति ॥ २ ॥
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पादाणुसारि-वरकुट्टबुद्धि, उप्पण्णु जाह आयासरिद्धि ! जे पाणाहारी तोरणीय, जे रुक्ख-मूल आतावणीय ॥३॥ जे मोणिधाय चन्दाहणीय, जे जत्थत्थ वणि णिवासणीय । जे पंच-महव्यय धरणधीर,जे समिदि-गुत्ति पालणहि वीर ॥४॥ जे वड्वहि देह विरत्तचित्त. जे राय-रोस-भय-मोह-चित्त । जे कुगहि संवरु विगयलोह, जे दुरियविणासणकामकोह ॥शा जे जल्ल मल्लतणगत्तलित्त, आरंभ-परिग्गह जे विरत्त । जे तिण्णकाल बाहर गमंति, छहम-दसमउ तउचरंति।। ६॥ जे उकगास दुइगास लिंति, जे णीरस-भोयण रइ करंति । ते मुणिवर वंदउंठियमसाण. जे कम्म डहइ वर सुक्कझाण।।७।। बारहविह संजम जे धगति, जे चारिउ विकहा परिहरंति । चावीस परीपह जे सहति, संसार-महण्णउ ते तरंति ॥८॥ जे धम्मबुद्धि महियलि धुणंति, जे काउस्सग्गे णिसिगमंति। जे मिद्धि-विलासणि अहिलसंति,जे पक्व-मास आहार लिति।।।। गोहण जे वीगसणीय, जे धणुह-सेज-बजासणीय । जे तव-बलेण आयास जंति,जे गिरि-गुह-कंदर-विवर थति॥१०॥ जे सत्त-मित्त ममभाव चित्त, ते मुणिवर चंदउ दिढ-चरित। चउवीसह गंथह जे विरत्त, ते मुणिवर चंदउ जग-पवित्त ॥११॥ जे सुज्झाणिज्झा एकचित्त, वंदामि महारिसि मोक्खपत्त । रयण-त्तय-रंजिय सुद्ध-भाव, ते मुणिवर वंदउ ठिदि-सहाव ॥१२॥
न घत्ता जे तप-सरा संजम-धीरा सिद्ध-वधू अणुराईया। रयण-त्तय-रंजिय कम्मह-गंजिय ते ऋसिवर मय झाईया॥१३॥ [ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनशानचारित्रादिगुणविराजमानाचार्यो
पाध्यायसर्वसाधुभ्यो महाधैं निर्वपामीति स्वाहा ।]
५६
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जन पूजा पाठ सग्रह
वृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा दोहा
परम ब्रह्म परमातमा, परमजोति परमीश । परमनिरञ्जन परमपद, नमों सिद्ध जगदीश ॥
ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण मिद्ध परमेष्ठिन । अत्र अवतर अवतर सवौषट् आह्वानन । ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापन | ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण मिद्ध परमेष्ठिन । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् अथाष्टकं, सोरठा ।
मोहि तृषा दुःख देत, सो तुमने जीती प्रभू । जलसौं पूजों तोहि, मेरो रोग मिटाइयो ॥ १ ।
ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। हम भव आप महि, तुम न्यारे संसार तैं । कीजे शीतल छह, चन्दन सों पूजा करों ॥ २ ।
ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्वाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो समारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीपि स्वाहा।
हम औगुण समुदाय, तुम अक्षय सब गुण भरे । पूजौं अक्षत ल्याय, दोष नाश गुण कीजिये ॥ ३ ॥ .
श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्टिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षत निर्वपामीति स्वाहा काम अनि है मोहि, निश्चैय शील सुभाव तुम । फूल चढ़ाऊँ तोहि, सेवक की बाधा हरो ॥ ४ ॥
ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्धधपरमेष्ठिभ्यो कामवाण विध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ।
हमें क्षुधा दुःख सूर, ध्यान खड्ग सौं तुम हती | मेरी बाधा चूर, नेवजसौं पूजा करौं ॥ ५ ॥
ॐ श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा।
सोहतिमिर हम पास, तुम पै चेतन जोत है । पूजौं दीप प्रकाश, मेरो तम निरवारियो ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा
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अष्ट करम बनजाल, मुकति मांहि तुम सुख करौ । खेऊँ धप रसाल, मम निकाल बनजाल से ॥ ७ ॥ परमेडियो अष्टमं
ॐ श्री
धूप निर्वपामीति स्वाहा । अन्तराय दुःखटार, तुम अनन्त थिरता लिये । पूजों फल दरशाय, विघनटार शिव फल करो ॥ ८ ॥
ॐ श्री सारा सिपष्टिभ्यो मोक्षाफल निर्वपामीति स्वाहा ।
हममें आठों दोष. जजौं अरघलों सिद्धजी । दीजे वसु गुण मोहि, कर जोरे यानत खड़े ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं श्री पन विनागमियो अनध्यं पदप्रातने अन्यं निर्वपामीति स्वाहा । ज्ञानावरणकर्मनाशक सिद्ध जयमाला । दोहा मूरति ऊपर पट कुरो, रूप न जाने कोय । ज्ञानावरणी करमतें, जीव अज्ञानी होय ॥१॥ चौपाई
तिय छत्तिम विधि मति वणी, ताहि ढकै मति ज्ञानावरणी । द्वादश विधि श्रुत ज्ञान न होवें श्रुत ज्ञानावरणी सो होवे ॥ २ ॥ तिविधि पर विधि अवधि छिपाने, अवधि ज्ञानावरण कहावे । जो विधि मन:पर्यय नहि हो है, मन:पर्यय आवरणी सो है ॥ ३॥ केवलज्ञान अनन्तानन्ता, केवल ज्ञानावरणी हन्ता ।
उदय अनुदय मृरख ठानें, कुमति कुत कुअवधि पहिचानें ॥ ४ ॥ क्षय उपास करि सम्यकधारी, चारों ज्ञान लहै अधिकारी | ज्ञानावरणी सर्व विनाश, केवल ज्ञान रूप परकाश ॥ ५ ॥ दोहा ज्ञानावरणी पञ्च हत, प्रगट्यो केवलज्ञान । यानत मनवचकायसों, नमीं सिद्ध गुणखान ॥
ॐ ही श्री णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्टिभ्यो ज्ञानावरणी कर्मविनाशनाय अव्यं० ।
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जैन पूजा पाठ मग्रह
दर्शनावरणकर्मनाशक मिट्ट जयमाला ।
हा
जैसे भूपति दरश को, होन न दे दरवान | तैसे दरशन आवरण, देख न देई सुजान ॥ १॥
चौपाई। जाके उदै आस नहि होई, चक्ष दर्शनावरणी मोई। नहिं मुख नाक फरम मुख करणं, उदै अवक्ष दर्शनावरण || २ || अवधि दर्श प्रमाण विलोके, अवधि दर्शनावरणी रोके । केवल लोकालोक निहारे, केवल दर्शनावरण निवारें || ३ || निद्रा उदै सबै तन सोचे, थोरी नीट सुरत कछु हो 1 प्रचला बलसौ आंस खुली है, अर्ह मुढी - मी अई खुली है ॥ ४ ॥ निद्रा-निद्रा उदै बखानी, पलक उवार सके नहि प्राणी प्रचलाप्रचलाउदै कहावे, लार वह मुख अग चलावै ॥ उठे चलें बोले सुध नाही, जोर विशेष बढ़े तन माही । काम प्रचण्ड तास ते होवे, स्त्यानगृद्धि निद्रा जो गो ॥ ६ ॥ दोहा
|
५ ॥
दरशन आवरणी हतै, केवल दर्शन रूप | द्यात सिद्ध नमो सदा, अमल अचल चिद्रूप ॥
ॐ ह्रीं श्री गमो निद्वाण निपरमेष्ठिम्पो दर्शनावरणी कर्नविनाशनाय अ वेदनीयकर्मनाशक सिद्ध जयमाला सोरटा
शहद मिली असिधार, सुख दुःख जीवनको करै । कर्मवेदनीय सार, साताअसाता देत हैं ॥ १ ॥
चौपाई छन् ।
पुन्नी कनक महल मे सोधे, पापी राह परौ दुःख रोवें । पुन्नी वांछित भोजन खावें, पापी मांगें टूक न पावै ॥ २ ॥
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पुन्नी की जवाहर शर्म. पापी फटे कपड़े ओ | पुन्नी का भार कटोरा, पापी के कर प्याला फोरा ॥ ३ ॥ पुन्ना पाप नंगे पग धावन्ता । पुन्नी के पापी श्री सोशले घावें ॥ ४ ॥ पुन्नजपरा सुनेनहिं कोई। इन्ती न दनित आये, पापी धन देवन नदि पाये ॥ ५ ॥ पुन्नी की मापे, पापी जन को सुप न लगाएँ । नीरोग नपा, पापी को नित व्याधि मता ॥ ६ ॥ इन्नता, पापीनन फानी कारी । पुन्नी के सुतकी कमाई पाप से है दुदाई ॥ ७ ॥ पुनी गई फिर पाप के फर से गिर जायें । पुन्नी
के भोगे, पापी महादुषो अति रोव ॥ ८ ॥ पुण्य पाप दोऊ डार, कमवेदन क्ष के । सिद्ध जलावन हार, यानत निखाधा करो ||
ॐ श्री
"
१४५
Refinition मित्र जयमाला ।
ज्यों मदिरा के पान नं. सुधबुधसबै भुलाय | त्यो मोहनी-कर्म उ. जीव गहिल हो जाय ॥
पोवाई
1
दरशन मोर तीन परकार, नाश का सम्पक गुण सारं । मिया जुरी उ जब आप धर्म मधुर रम भूल न आये ॥ २ ॥ मिश्र भार विपरित एक सम्यक मिध्यतं । are a fara मताय, चल मूल शिथिल दीप उपजावें ॥३॥ चारित्र मोह पथम प्रकार. जो मेरे सम्पक आचारं ।
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२४६
जन पूजा पाठ सप्रह
क्रोध मान माया अर लोभ, चारी चार-चार विधि शोमं ॥ ४ ॥ अनन्तानुबन्धी चौकड़िया, जिनने निरमल समकित हरिया । अप्रत्याख्यानी चऊ भाखे, श्रावक व्रत विधि वश कर राखे ॥ ५॥ प्रत्याख्यान चौकड़ी मोई, जाके उदय न मुनि व्रत होई। सो संज्वलन चतुष्क बखानी, यथाख्यात पावै नहीं प्राणी ॥ ६॥ हास्य उदै तै हांसी ठाने, रतिके उदै जीव रति मान । अरति उदय तें कछु न सुहावै, शोक उदै सेती विललावै ।। ७ ।। भयतै डरे जुगुप्स गिलान, पुरुष भाव तिन पावक जानं । योठे की पावक समनारी, पंढापा जावे अगनि निहारी ॥ ८ ॥
दोहा
ह की, तुम नाशक भगवान । अटल शद्ध अवगाहना, नमों सिद्ध गुणखान ॥ ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहनीयकर्मविनाशनाय अर्घ्य ।
आयुकर्मनाशक सिद्ध जयमाला । जैसे नरको पांव. दियो काठमें थिर रहै।
तैसे आयु स्वभाव, जियको चहुँगति थिति करै ।। करक आयुतै नरक लहे हैं, तेतिस सागर तहां रहे हैं। गाढ़ा करि आरेसों चीरे, कोल्हू मांहि डारकै पेरें ॥ २ ॥ वैतरणी दुर्गन्ध नहावे, पुतरी अगनी मांहि गलावे ।। सूली देहि कड़ाई तावै, शाल्मली तल मांहि सुवावै ॥ ३ ॥ शीश तलै कर गिरिसैं डारे, नीचे वज्र मुष्टि सौं मारे। भूख प्यास तप शीत सहारी, पञ्च प्रकार सहै दुःख भारी ॥ ४ ॥ पशु की आयु कर पशु काया, बिना विवेक सदा विललाया। जन्म बैर जिय तै दुःख पावं, बाधमारकी कौन चलावें ॥ ५ ॥
सोरठा
चौपाई।
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" ला पा० प्रमा
हा
.
मानुष आयु धरै नर देही, इष्ट वियोग लहै दुःख तेही । धन संपतिको सदा भिखारी, प्रभुता मांहि पचै ससारी ॥ ६ ॥ देव आयुत देव कहाया, परको विभव देख खुनसाया। मरण चिह्न लख अति दुःख दानी, इम चारौं गति भटकै प्राणी ।।
द्यानत चारौं आयुके, तुम नाशक भगवान ।
अटल शुद्ध अवगाहना, नमों सिद्ध गुणखान ।। ही श्री णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्टि यो आयुकर्म विनाशनाय अध्य० ।
नामकर्मनाशक सिद्ध जयमाला । चित्रकार जैसे लिखे, नाना चित्र अनूप। नाम-कर्म तैसे करै, चेतन के बहु रूप ॥१॥
चौपाई। गतिके उदय चहूं गति जानी, जाति पंचइन्द्री सव प्राणी। आनुपूरवी गति ले जाई, दो विहाय दो चाल बताई ॥२॥ वन्धन पञ्च पञ्च विधि काया, तन बन्धान पश्च दृढ़ लाया। वन्ध सघन सो पञ्च संघातं, अंग उपंग तीन ही गातं ॥३॥ वरण पंच तन रंग वखाने, पांचों ही तन के रस जाने।। गन्ध दोय तन मांहि कहे हैं, आठ फरस तन मांहि लहे हैं ॥४॥ पट संठान देह आकारं, हाड छह भेद संहनन धारं उड़े पड़े न अगुरु लघु काया, स्वास उस्वास नाक सुर गाया ॥५॥ निज दुःख दे उपघात शरीरं, तन पर घात करें पर पीरं । चन्द्र विम्ब जिय देह उद्योतं, भानुर्विब जिय आतप होत ॥६॥ थावर उढे सुथिर न चले है, उस के उदैते चलै हलै है। परयापत पूरी जब होई, खिरे बीच अपरयापति सोई ॥७॥ थिरके उदै सुथिर तन गाया, अथिर उदैत कंप काया। तन प्रत्येक जिय एक भनन्तं, साधारण तन जीव अनन्त ॥८॥
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जग पूजा ५०
मारै मरे रहे आधार, दीसै अर लोकनि मे मारं । वादर जीया चहूँ पसरतं, सूक्ष्म जीव इन ते विपरीत ॥६॥ शुभ के उर्दू होय शुभ काया, अशुभ उदै तन अशुभ बताया | शुभग उदै भाग का पूरा, अशुभ उठे जभाग हजुरा ॥ १० ॥ सुस्वर उदय कोकिला वानी, दुस्वर गर्दभ - ध्वनि सम जोनी । आदर तैं बहु आदर पावें, उदय अनादर तें न सुहावै ॥ ११ ॥ जसके उदय सुजस जग मांही, अजस उदय अपजस जग मांही । थान प्रमान दुविधि निर्मानं, तीर्थङ्कर है पुण्य प्रधानं ॥ १२ ॥ दोहा
व्यालीस और तिरानवें, तथा एकसौ तीन । द्यानत सो प्रकृति हरी, सिद्ध अमूरति लीन ॥
ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नामकर्मविनाशनाय अर्घ्य गोत्रकर्मनाशक सिद्ध जयमाला ।
दाहा
ज्यों कुम्हार छोटो बड़ौ, भांड़ौ घड़ा जनेय । गोत्र-कर्म त्यों जीवको, ऊँच नीच कुल देय ॥ १॥
चौपाई।
२ ॥
३ ।।
नीच गोत्र पशु नर्क निहारं ऊंच गोत्र सब देव कुमार | मनुप मांहि दो गोत्र बखाने, नीच गोत्र सच शूद्र प्रवानै ॥ ब्राह्मण क्षत्री वैश्य मझारं, मद्य मांस जो करे अहारं । जो पंचनि बाहिर होई, नीच गोत्र कहिये नर सोई ।। परगुणको औगुण करि भाख, निज औगुणको गुण अभिलाष । परको निन्दै आप बड़ाई, बांधे नीच गोत्र दुखदाई ॥ नीच गोत्रको मुनित्रत नाहीं, क्योंकर जाय मुकतिके माही. नीच काज तज ऊंच सम्हारे, दया धरम कर आतम तारे ॥ ५ ॥ सोरठा ऊँच नीच दो गोत्र, नाश अगुरुलघु गुण भये । द्यानत आतम जोत, सिद्ध शुद्ध बंदों सदा ॥
४ ॥
ही श्री णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिभ्यो गोत्रकर्मविनाशनाय अयं ० ।
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जग ५। ५101
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अन्तरायकर्मनाशक सिद्ध जयमाला । भूप दिलाचे दर्व को, भण्डारी दे नाहिं । होन देय नहिं सम्पदा, अन्तराय जगमाहिं ॥१॥
चौपाई। छती वस्तु दे मर्क न प्राणी, दान अन्तराय विधि जानी। उद्यम कर न होय कमाई, लाभ अन्तराय दुःखदाई ॥२॥ भोजन त्यार सान नहिं पावै, भोग अन्तराय जब आवै । पट भूपण है पहिरत नाही, उपभोग अन्तराय की छाही ॥३॥ तन वर पोख रल नहिं होई, गीर्य अन्तराय है सोई। इह विधि अन्तराय विवहारी, निश्चय बात मनो मति धारी ॥४॥ मिध्याभाव त्याग सो दानं, समताभाव लाभ परधानं । आतमीक सुख भोग मजोगं, अनुभौउभ्याम मदा उपभोग ॥१॥ भ्यान ठानकै कर्म चिनाम, सी धीरज निज भाव प्रकामै : पांचों भाव जहाँ नहिं लहिये, निश्च अन्तराय मो कहिये ॥६॥
अन्तराय पांचों हत, शगट्यो सुवल अनन्त ।
द्यानत सिजनमो सदा,ज्यों पाऊँसव अन्त ॥१॥ आधी मी पमाण मिझपरमेष्टिभ्यो अन्नरायकर्मविनाशनाय अध्यं । __ आठ कमनाशक सिद्ध जयमाला ।
सोरवा .. आठ करल को नाश, आठों शृण परगट भये। सिद्ध सदा सुखरास, करों आरती भावतों ॥१॥
चोपाई। ज्ञानावरणी कम विनाश, लोकालोक ज्ञान परकाशै। दस्शन आवरणी छय कीनी, दुःस सुगुण परजय लसिलीनी ||२|
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२५.
जन पूजा पाठ अप्रह
कर्म वेदनी नारा गया है, निरवाधा गुण प्रगट भया है। मोह कर्म नाशा दुःखकारी, निर्मल छायक दरगन धारी ||२|| आयु-कर्म थिति पर्व विनाशी, अवगाह गुण अटल प्रकानी । नाम-कर्म जीता जग नामी, चेतन जोत अमृरति म्यामी ॥४॥ गोत्र-कर्म पाता वरवीरं, सिद्ध अगुरु लघु गुण गम्भीरं । अन्तराय दुःखदाय हरा है, बल अनन्त परकाश करा है ॥५॥ जा पद मांहि सर्वपद छाजै, ज्यों दर्पण प्रतिबिंब विराजें। राग न दोप मोह नहि भावे, अजर अमर अब अचल सुहाये ।।६।। जाके गुण सुर नर सब गावे, जाको जोगीश्वर नित ध्यावे । जाकी भगति मुकति पद पावै, सो शोभा किह भांति बतावै ॥७॥ ये गुण आठ थूल इम भाखे, गुण अनन्त निज मनमें राखे । सिद्धनकी थुतिको कर जाने, या मिस सो शुभ नाम बखाने ।।८।।
सोरठा। वह विधि नाम बखान, परमेश्वर सवही भजें। ज्यों का त्यों सरधान, घानत से0 ते बड़े ॥६॥ ॐ ही श्री णमो सिद्धान सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मविनागनाय अत्यं० ।
ज्ञान . आँख वही है जिसमें देखने की शक्ति हो अन्यथा उसका होना न होने के तुल्य है। इसी तरह ज्ञान वही है जो 'स्व' और 'पर' का विवक करा देवे, अन्यथा उन ज्ञान का कोई मूल्य नहीं ।
-'वर्णी वाणो' से
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तीस चोवीसी पूजा
पा
पाँच भरत शुभ क्षेत्र, पांच ऐरावते । आगत नागत वत्तमान जिन शाश्वते ॥ तो चोबोसी तीस जजो लन लायके । आहानन विधि करूँ बार प्रय गायके ||
अधाष्टक, रखता ।
नीर दधि क्षीर सम लायो. कनकके भृङ्ग भरवायो । जरामृतु रोग सन्तायो, अ तुम चर्ण ढिग आयो ॥ दीप दाई सरस राजें. क्षेत्र दश ता विपैं छाजे । सात शत वीस जिन राजे, पूजते पाप सब भाजै ॥
मीननाथ
₹
सुरभि जुन चन्दनं लायो. संग करपूर घसवायो । धार तुम चरण दवायो, भवोदधि ताप नमवायो || हीप०
के हो या मन्दपालीबीन जिने भ्यो बसारतापविनाशनाय चन्दन।
चन्द्र सम तन्दुलं सारं, किरण मुक्ता जु उनहारं । पुञ्ज तुम चरण ढिग धारं, अखै पद काजके कार्यं ॥ द्वीप० श्रीकालिदासीपीए जिनेन्द्रेभ्यो अक्षयपदाथ अक्षत |
पुष्प शुभ गन्ध जुत सोहे, सुगन्धित तास मन मोहे । जजत तुम मदन छय होवे, मुक्तिपुर पलकमे जोवे ॥ द्वोप०
ॐ मेन्यभिलेनके खातसी ग्रीम जिनेन्द्रे यी विव्यसनाय पुष्प ।
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सरस व्यञ्जन लिया ताजा, तुरत वनवाइया खाजा ।
चरण तुम जजों महाराजा, क्षुधादु.ख पलकम भाजा ॥ द्वीप०
ॐ हो नेम्नम्बवत्र मान बनविने यो रोविनाशनाय नवेद्य ● ॥
०
दोप तम नाग कारी है, सरस शुभ ज्योतिधारी है । होय दशदिश उजारी है, धूम्र मिस पाप जारी है ॥ द्वीप०
ही पचन्तक्षेत्रके मानसी बीम जिनेन्द्र या मोहान्धकारविनाशनाय दीप० ।
सरस शुभ धूप दश अङ्गी, जराऊँ अग्नि के सही ।
कर्म की सेन चतुरङ्गी. चरण तुम पूजते अङ्गी ॥ द्वीप
ॐ ही पदनेन नानी जिनेन्द्र यो अकर्मविध्वचनाय धूप,
मिष्ट उत्कृष्ट फल ल्यायो, अष्ट अरि दुष्ट नसवायो । श्रीजिन भेंट करवायो, कार्य मनवांछित पायो ॥ द्वीप०
ॐ ह्रीं पद्मनेत्नम्बन्विदनक्षेत्र के नाम बोस जिनेन्द्रभ्यो नोक्षप्राप्तये फल० ।
द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ कर में नवीना है । पूजते पाप छीना है, 'भानु' मल जोड़ि कीना है ॥ द्वीपο
D
ॐ हो पचनेरनन्वन्धिक्षेत्रके सातौ वीत जिनेन्द्रेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये भवं । प्रत्येक अर्थ ( अडिह छन्द )
आदि सुदर्शन मेरु तनी दक्षिण दिशा । भरत क्षेत्र सुखदाय सरस सुन्दर बसा ॥ तिहॅ चौवीसी तीन तने जिनरायजी । बहत्तर जिन सर्वज्ञ नमों शिरनायजी ॥ १ ॥
ॐ ही मुदानमर के दक्षिणदिना के भरत क्षेत्रसम्बन्धि तीनचोबीनी के बहत्तर जिनेन्द्र यो वर्षे निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
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ताहि मेरु उत्तर ऐरावत सोहनो आगत नागत वर्त्तमान मनमोहनो ॥ निहे चौबीसी तीन तने जिनरायजी । बहत्तर जिन सर्वज्ञ नमीं शिरनायजी ॥ २ ॥
काही द्रव तीन दोसी के यदत्सरि for Tru
तुमलता एन्छ ।
खण्ड धातुको विजय संग के दक्षिण दिशा भरत शुभू जान । तहां चौबीसी तीन विराज आगत नागत अवमान ॥ तिनके चरण कमलको निशिदिन अर्घ चढ़ाय करूँ उर ध्यान इस संसार भ्रमण तारी अहो जिनेश्वर करुणावान ॥
ही दगा दिसम्बभी दीनकची निर्वा३ि ॥
इसी द्वीपको प्रथम शिखर के उत्तर ऐरावत जो महान । आगत नागत वर्त्तमान जिन महत्तरि सदा शास्वते जान ॥ तिनके चरणकमलको निर्शाटन अर्ध चढ़ाय करूँ उर ध्यान । संसार भ्रमण तारो अहो जिनेश्वर करुणावान ॥ इस
एरापनक्षेत्र सम्बन्धो
पूर्व तर ताब पति वा ॥ ४ ॥ चौपाई न्
खण्ड धातु गिरि अन्चल जु मरु, दक्षिण तास भरत वहु घेरु । तामें चौवीसी त्रय जान, आगत नागत अरु वत्त मान ॥ की पश्चिम व दक्षिण दिश' भरतक्षत्र सम्बन्धी तीनवाणी कन्यो अनिपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
अचल से उत्तर दिश जाय, ऐरावत शुभ क्षेत्र वताय तामें चौवीसी त्रय जान, आगत नागत अरु वत्त मान
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ॐ ह्रीं धातुकीखण्ड की पश्चिमदिश अचलमेरु के उत्तर दिन ऐरावत क्षेत्र सम्वन्धी चोवीसी के चहत्तर जिनेन्द्रे भ्यो अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
सुन्दरी छन्द ।
द्वीप पुष्कर की पूरव दिशा, सन्दिर मेरुकी दक्षिण भरत-सा । ता विषै चौबीसी तीन जू, अर्ध लेय जजों परवीन
जू ॥
ॐ ह्रीं पुष्करद्वीप की पूर्वदिश मन्दिरमेह की दक्षिणदिश भग्तक्षेत्र सम्बन्धी नीसचौबीसी के हरि जिनेन्द्रे भ्यो अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
गिरि सुमन्दिर उत्तर जानियो, क्षेत्र ऐरावत सुबखानियो । ता विषै चौबीसी तीन जू, अर्घ लेय पूजों परवीन नृ ॥
ॐ ह्रीं पुकरद्वीप की पूर्वादिश मदिरमेरु की उत्तर दिन ऐरावत्क्षत्र सम्बन्धी तीन जिनेन्द्रेभ्यो अर्ध निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ पद्धडी छन्द ।
पश्चिम पुष्कर गिरि विद्यु, तमाल, तादक्षिण भरत वन्यो रसाल तामें चौवीसी है जु तीन, वसु द्रव्य लेय पूजों प्रवीन ॥
ॐ पुष्करार्द्ध द्वीप की पश्चिमदिश विद्युन्मालीनेरु के दक्षिणदिन भरतक्षेत्र नम्ववी तीन चौवीसी के महत्तरि जिनेन्द्रे भ्यो अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९॥
याही गिरिके उत्तर जु ओर, ऐरावत क्षेत्र तनी सुठौर । ता चौबीसी है जु तीन, वसु द्रव्य लेय पूजों प्रवीन ॥
ॐ ह्रीं पुष्करार्द्धद्वीप की पश्चिमदिश विद्युन्मालीमेरु के उत्तरदिन ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी तीनचौवीसी के वहत्तरि जिनेन्द्रे भ्यो अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १० ॥ कुण्डलिया ।
द्वीप अढाई के विषै, पांच मेरु हितदाय | दक्षिण उत्तर तासुके, भरत ऐरावत भाय ॥ भरत ऐरावत भाय एक क्षेत्र के मांहीं ।
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चौबीसी है तीन तीन दशहीके माही ॥ दशो क्षेत्र के तीस, सात सौ बीस जिनेश्वर ।
अघलेय करजोर जजों 'रविमल' मन शुद्ध कर।। ही समयपी दरान रे विणे तीनचौधीमो के सातमो पीस जिनेन्दे भ्यो अ० ।
जयमाला। दोहा-चौबीसी तीसों तनी, पूजा परस रसाल । मन वच तनसों शुद्ध कर, अव वरणों जयमाल ।
पद्धडी छन्द । जय द्वीप अटाई में जु सार, गिरि पञ्चमेरु उन्नत अपार । ता गिरि पूरव पश्चिम जु और, शुभ क्षेत्र विदेह बसे ज ठौर ॥१॥ ता दक्षिण क्षेत्र भरत सुजान, है उत्तर ऐरावत महान । गिरि पांच तने दस क्षेत्र जोय, ताको वर्णन सुनि भन्य लोय ॥२॥ जो भरत तनी चरणन विशाल, तसो ही ऐरावत रसाल । इक क्षेत्र बीच विजयाद्ध एक, ता ऊपर विद्याधर अनेक ॥३॥ इक क्षेत्र तने पट खण्ड जान, तहाँ छहों काल वरते समान । जो तीन काल में भोग भूमि, दश जाति कल्पतरु रहे झमि ॥४॥ जब चीथो काल लग जु आय, तव कर्मभूमि वरते सु आय । जर तीथकरको जनम होय, सुर लेय जर्ज गिरि मेरु मोय || वहु भक्ति कर सब देव आय, ता थई थई थई तान लाय । हरि ताडव नृत्य करे अपार, सब जीवन मन आनन्दकार ॥६॥ इत्यादि भक्ति करिके सुरिन्द, निज धान जाय युत देव वृन्द । या विधि पांचों कल्याण जोय, हरि भक्ति करे अति हर्प होय ॥७॥ या काल वि पुण्यवन्त जीव, नर जन्म धार शिव लहे अतीव । मत्र सठ पुरुप प्रवीण जोय, सर याही काल विप जु होय ॥८॥ जब पञ्चम काल कर प्रवेश, मुनि धर्म तनों नहि रहे लेश । विरले कोई दक्षिण देश माहि, जिनधी जन बहुते जु नाहिं ।।
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जय गुना
जब आवत है षष्ठम जु काल, दुःखमादुःख प्रगटे अति कराल | तब मांसभक्षी नर सर्व होय, जहाँ धर्म नाम नहिं सुनें कोय ॥१०॥ याही विधि से पटकाल जोय, दश क्षेत्रन में इकसार होय । सब क्षेत्र में रचना समान, जिनवाणी भाख्यो सो प्रमान ॥११॥ चौवीसी है इक क्षेत्र तीन, दश क्षेत्र तीस जानों प्रवीन । आगत नागत जिन वर्त्तमान, सब सात सतक अरु बीस जान ||१२|| सही जिनराज नसों त्रिकाल, मोहि भव वारिधिते ल्यो निकाल । यह वचन हिये में धारि लेव, मम रक्षा करो जिनेन्द्र देव || १३|| "रविमल" की विनती सुनो नाथ, मैं पांय पडू जुग जोरि हाथ । मन वांछित कारज करो पूर, यह अरज हिये में धरि हजूर ||१४||
घत्ता ।
शत सात जू बीसं श्रीजगदीशं आगत नागत बरततु है । मन वच तन पूजै शुद्ध मन हुजै सुरंग मुक्ति पद धारतु है ॥
ॐ ह्रौं पाच भरत पाच ऐरावत दक्षेत्र के विर्षे तीनचौवीसी के सात सौ वीस जिनेन्द्रे भ्यो अवं निर्वपामीति स्वाहा ।
पूजाकार की प्रार्थना ।
दोहा - संवत् शत उगनीस के, ता ऊपर पुनि आठ । पौष कृष्ण तृतीया गुरु, पूरण कोना पाठ ॥ अक्षर मात्रा की कसर, बुधजन शुद्ध करेहिं । अल्प बुद्धि मो जानके, दोष नाहिं मम देहिं ॥ पढ्यो नहीं व्याकरण मैं, पिङ्गल देख्यो नाहिं । जिनवाणी परसादतै, उमग भई घट माहिं || मान बड़ाई ना चहूं, चहूं धर्म को अंग । नितप्रति पूजा कीजियो. मनमें धार उमंग ॥
इयाशीर्वाद
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अकृत्रिम चैत्यालय पूजा आठ कोड़ अरु छप्पन लाख, सहस सत्यानव चतुशतभाख। जोड़ इक्यासी जिनवर थान, तीन लोक आह्वान करान॥ . होलोस्य सम्बन्ध्यप्टकोटिपटपचाराक्षसप्तनपतिसहत्र चतु-शतकाशीति महनिमजिनचैत्यालयानि ! भाभपतर भपतर सोपट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठन ८ ।, अब नम सलिहितो भप भय पछ्। क्षीरोदधिनीरं उज्ज्वल क्षीरं, छान सुचीरं भरि भारी। अति मधुर लखावन,परम पावन तृपावुझावन गुण सारी) वसुकोटि सु छप्पन लाख सत्तानव,सहस चारशत इक्यासी। जिनगेह अकीर्तिम तिहॅजग भीतर,पूजत पद ले अविनाशी।
औ ही तीन लोक सम्बन्धी साठ मोटि छप्पन लाख सत्यानवै हजार चार सौ इक्याती अग्रिम जिन चैत्यालयेभ्यो जन्ममृत्युपिनागनाय जल निर्मपामीति रवाहा । मलयागिरि पावन,चन्दन वावन,ताप बुझावन घसिलीनो। धरि कनक कटोरी.द्वेकरजोरी,तुमपद ओरी,चित दीनोवसुरू
ही सतारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपाीति राता। बहुभांति अनोखे, तन्दुल चोखे, लखि निरदोखे, हम लीने। धरि कञ्चनथाली,तुम गुणमाली,पुँज विशाली कर दी।वसुल
ही समयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपानीति रवाहा। शुभ पुष्प सुजाती है, बहुसांति, अलि लिपटाती लेय वरं । धरि कनकरकेची,करगह लेबी,तुम पद जुगकी भेट घरं वसु०
ॐ हीं पाममाणविध्वशनाय पुप्प निर्यपााति सादा । खुरमा जु गिंदोडा, बरफी पेड़ा, घेवर मोदक भरि थारी। विधिपूर्वक कीने,घृतपय भीने,खण्ड में लीने,सुखकारी।वसु०
ॐ ही सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्मपामीति स्वाहा।
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लियात महात,छाय रह्योलम,निजभव परणति लहि सूझै।
इहकारण पाले दीए सजाके, थाल धरा, हल पूजै वसु० १ . ही मोहान्धकारविनाशनाय दीप निवपामीति स्वाहा । दागन्ध कुटाकै, धू, बना, निजकर लेक, परि ज्वाला। तसुधूल उड़ाई, दशदिश छाई.बहु महकाई.अति आला ॥वसु०
ॐ हौं अधर्मदहनार धूप निर्वपामीति स्वाहा। हादान छुहारे, श्रीफल धारे, पिरता प्यारे. दाखवरं । इन आदिलोलखिनिरदोखे,थाल एजोले,भेटघावसु०
- मोक्षफलप्राप्तये फल निपानीति स्वाहा । जल चंदन संदुलहुलुहरू लेवजा दी धूप फल पाल रवौं । जयघोष कराऊबीन बजाऊँ,अर्घ चढ़ाऊँ, खूब नवौं । वसु० ___ हो अनयंपदप्राप्त अध्ये निवपानीति स्वाहा ।
प्रत्येक अर्घ चौपाई। अधोलोकजिन आनललाख, तात कोडिअरु बहत्तरिलाख। श्रीजितवन महा छवि देइ, ते सब पूजौं क्लुविधि लेइ । ॐ ही अधोलोकनम्बन्धी सात कोटि वहत्तर लाख श्रीअकृत्रिम जिनचेत्यालयेभ्योऽ० । सध्यलोक जिन-खन्दिर ठाठ, साढ़े चार शतक अरु आठ । ते सब पूजौं अर्थ बढ़ाय, सनवरतन त्रयजोग मिलाय ।। ॐ हीं मध्यलोक सन्ब्न्धी चारसौं अगवन श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्थ निर्बपामीति स्वाहा ।
अडिल्ल छन्द अलोकके माहिं भवन जिन जानिये । लाल चौराली लहल सत्यानक मानिये ॥
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तापै धरि तेईस जजौं शिर नायकें । कञ्चन थाल मकार जलादिक लायकें ॥
ही ऊर्ध्वोक्तम्यन्धा चांरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस श्रीजिनचैत्यालयेभ्योऽr
वसुकोटि छप्पन लाख ऊपर, सहस सत्यानवे मानिये । सत चारपैगिनले इक्यासी, भवन जिनवर जानिये ॥ तिहुँलोक भीतर सासते, सुर असुर नर पूजा करें | तिन भवनको हम अर्ध लेकेँ, पूजिहैं जग दुःख हरें ॥
ॐ ही तीनधा आठ कोटि उपन लाख सत्यानये हजार चारसो इटानिजिनचत्यालयेभ्यो अर्थ निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा - अत्र वरणों जयमालिका, सुनो भव्य चितलाय । जिन मन्दिर तिहुँलोकके, देहुँ सकल दरशाय ॥ १ ॥
पडी छन् ।
जय अमल अनादि अनन्त जान, अनिमित जु अकीर्तम अचल थान । जय अजय असण्ड अरूप धार, पट्द्रव्य नहीं दीसै लगार ॥ २ ॥ जय निराकार अविकार होय, राजत अनन्त परदेश सोय । जे शुद्र सुगुण अवगाह पाय, दश दिशा मांहि इहविधि लखाय ॥२॥ यह भेद अलोकाकान जान, ता मध्य लोक नभ तीन मान । स्वयमेव बन्यो अविचल अनन्त, अविनाशि अनादि जु कहत सन्त ॥४॥ पाकार ठाढी निहार, कटि हाथ धारि है पग पसार । दक्षिण उत्तर दिशि सर्व ठोर, राज जु सात भाख्यो निचोर ॥५॥ जय पूर्व अपरदिश पार बाधि, सुने कथन कहूं ताको जु साधि । लसि अभ्र राजू जू सात, मधिलोक एक राजू रहात ॥६॥
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फिर ब्रह्मसुरग राजू जु पांचं, भूसिद्ध एक राजू जु साँच। दश चार ऊंच राजू गिनाय, षट द्रव्य लये चतुकोण पाय ॥७॥ तसु वातवलय लपटाय तीन, इह निराधार लखियो प्रवीन । त्रसनाड़ी तामधि जान खास, चतुकोन एक राजू जु व्यास ॥८॥ राज उतंग चौदह प्रमान, लखि स्वयं सिद्ध रचना महान । तामध्य जीम बस आदि देय, निज थान पाय तिष्ठै भलेय ॥६॥ लखि अधोभाग में वभ्रथान, गिन सात कहे आगम प्रमान । पट थान माहिं नारकि बसेय, इक श्वभ्रभाग फिर तीन भेय ॥१०॥ तसु अधोभाग नारकि रहाय, पुनि ऊर्ध्वभाग द्वय थान पाय । जस रहे भवन व्यन्तर जु देद, पुर हर्म्य छजै रचना स्वमेव ।।११॥ सिंह थान गेह जिनराज भाख, गिन सात कोटि बहत्तरि जु लाख । ते भवन नमों मन वचन काय, गति सम्रहरण हारे लखाय ॥१२॥ पुनि मध्यलोक गोला अकार, लखि दीप उदधि रचना विचार । गिन असंख्यात साखेजु सन्त, लखि संभुरमण सबके जु अन्त ॥१३ इक राजु व्यास में सर्व जान, मधिलोक तनों इह कथन मान । सव मध्य द्वीपजम्ब गिनेय, त्रयदशम रुचिकवर नाम लेय ॥१४॥ इन तेरह में जिन-धाम जान, शत चार अठावन है प्रमान । खग देव असुर नर आय-आय, पद पूज जांय शिर नाय-नाय ॥१॥ जय ऊर्ध्वलोक सुर कल्पवास, तिहं थान छजै जिन-भवन खास । जय लाख चौरासी पर लखेय, जय सहससत्यानव और ठेय ॥१६॥ जय वीस तीन पनि जोड देय, जिन-भवन अकीर्तम जान लेय । प्रतिभवन एक रुचना कहाय, जिनबि एक शत आठ पाय ॥१७॥
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शत पञ्च धनुप उन्नत लसाय, पदमासनयुत वर ध्यान लाय । शिर तीनछत्र शोभित विशाल, त्रय पादपीठ मणिजडित लाल ॥१८॥ भामण्डलकी छवि कौन गाय, पुनि चॅवर दुरत चौसठि लखाय । जय दुन्दुभिरव अद्भुत सुनाय, जय पुष्पवृष्टि गन्धोदकाय ॥१६॥ जय तरु अशोक शोभा भलेय, मंगल विभूति राजत अमेय । घट तूप छ मणिमाल पाय, घट धम्र धम दिग सर्व छाय ॥२०॥ जय केतुपंक्ति सोहे महान, गन्धर्व देव गण करत गान । सुर जनमलेत लखि अवधि पाय, तिहं थान प्रथम पूजन कराय ॥२१॥ जिन गेह तणो वरणन अपार, हम तुच्छ बुद्धि किम लहत पार । जय देव जिनेसुर जगत भूप, नमि 'नेम' मंगै निज देहु रूप ॥२२॥ दोहा-तीनलोक में सासते, श्रीजिन भवन विचार । ___मनवचतन करि शुद्धता, पूजों अरघ उतार ।
ॐ ही तीन लोक सम्बन्धी आठ कोहि छप्पन लाख सत्यानवै हजार चारसौ इक्यासी भकृत्रिमजिनचत्वालयभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । तिहुँ जगभीतर श्रीजिनमंदिर,वनेअकीर्तम अति सुखदाय। नरसुरखग कर वन्दनीक, जे तिनको भविजन पाठ कराय ।। धनधान्यादिक संपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय। चक्री सुर खग इन्द्र होयके, करम नाश शिवपुर सुख थाय ।
इत्याशीर्वादः ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
क्षमावणी-पूजा
[कवि मल्लजी] छप्पय अंग क्षमा जिन-धर्मतनो दृढ़-मृल वखानो।
सम्यक रतन सँभाल हृदयमे निश्चय जानो ।। तज मिथ्या विष-मूल और चित निर्मल ठानो । जिनधर्मीसो प्रीत करो सब पातक भानो । रत्नत्रय गह भविक-जन जिन-आज्ञा सम चालिये। निश्चय कर आराधना करम-रासको जालिये ।। ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रय अत्र अवतर अवतर संवौपट । ॐ ह्रीं सम्यकरत्नत्रय । अत्र तिष्ठ तिष्ट ठ ठ । ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रय । अत्र मम सन्निहितं भव भव वपट् । नीर सुगंध सुहावनो, पदम-द्रहको लाय । जन्म-रोग निरवारिये, सम्यक्रतन लहाय ।। क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय । ॐ ह्रीं निशंकितागाय नि काक्षितागाय निर्विचिकित्सतांगाय निर्मूढतांगाय उपगृहनागाय सुस्थितीकरणाङ्गाय वात्सल्यांगाय प्रभावनाङ्गाय जन्ममृत्युविनाशनाय सम्बग्दर्शनाय जलं
ॐ ह्रीं व्यंजनव्यजिताय अर्थसमग्राय तदुभयसमग्राय कालाध्ययनाय उपाध्यानोपहिताय विनयलब्धिप्रभावनाय गुरुवाधाह्नवाय बहुमानोन्मानाय अष्टाङ्गसस्यग्ज्ञानाय जल निर्वपामीति स्वाहा ।
ॐ ह्री अहिसामहाव्रताय सत्यमहाव्रताय अचौयमहानवाय ब्रह्मचर्यमहाव्रताय अपरिग्रहमहात्रताय सनोगुप्तये वचनगुप्तय कायगुप्तये ई-समितये भाषासमितये ऐषणासमितये आदाननिक्षेपणसमितये प्रतिष्ठापनसमितये त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥
केसर चंदन लीजिये, संग कपूर घसाय । अलि पंकति आवत घनी. वास सुगंध सुहाय || क्षमा
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ॐ ही अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चन्दनं
शालि अखंडित लीजिये, कंचन थाल भराय । जिनपद पूजों भावसों, अक्षत पदको पाय ॥ क्षमा ॐ ह्रीं अष्टानसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविघसम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्
पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगंध गुलाव | श्रीजिन-चरण सरोजकुं, पूज हर्ष चितचाव || क्षमा * ही अष्टाम्यदर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यकुचारित्राय रत्नत्रयाय कामवाणविध्वसनाय पुष्प
शकर घृत सुरभीतना, व्यंजन पटरस स्वाद । जिनके निकट वढायकर, हिरदे धरि आह्लाद ॥ चूमा ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं
होटेकमय दीपक रचो, वाति कपूर सुधार ।
शोधित घृत कर पूजिये, मोह - तिमिर निरवार | क्षमा ॐ ह्रीं अांगसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यरज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविधि जान । जिन चरणन ढिग खेड़ये, अष्ट-कर्मकी हान | क्षमा ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविवसम्यक् चारित्राय रत्नत्रयाय अष्टकर्मदहनाय धूपं
केला अंब अनार ही नारिकेल ले दाख । अग्र धरो जिनपदतने, मोक्ष होय जिन भाख ॥ क्षमा ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यक् चारित्राय रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं
जले फल आदि मिलायके, अरध करो हरपाय | दुःख जलांजलि दीजिये, श्रीजिन होय सहाय ॥ क्षमा ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय, अष्टविघसम्यग्ज्ञानाय, त्रयोदशविधमम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय अनवेपदमाप्तये अर्ध
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परिग्रह देख न मूर्छित होई, पंच महाव्रत धारक सोई । महाव्रत ये पांचों खरे हैं, सब तीर्थंकर इनको करे हैं || मनमें विकल्प रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई । वचन अलीक रंच नहिं भारों, वचन गुप्ति सोमुनिवर राखेँ ॥ कायोत्सर्ग परीषद सहि हैं, ता मुनि काय-गुप्ति जिन कहि हैं । पंच समिति अब सुनिये भाई, अर्थ सहित भाखों जिनराई ॥ हाथ चार जब भूमि निहारें, तब मुनि ईर्ष्यापथ पद धारें । मिष्टवचन गुख बोले सोई, भाषा समिति तास मुनि होई ॥ भोजन छयालिस दूपण टारें, सो मुनि एपण शुद्ध विचारै । देखकर पोथी ले अरु धर हैं, सो आदान-निक्षेपण वर हैं | मल-मूत्र एकांत जु डारें, परतिष्ठापन समिति संभारे । यह सब अंग उनतीस कहे हैं, जिन भाखे गणधरने गहे हैं ॥ आठ-आठ-तेरहविधि जानों, दर्शन - ज्ञान- चरित्र सु ठानों । तांत शिवपुर पहुँचो जाई, रत्नत्रयकी यह विधि भाई ॥ रत्नत्रय पूरण जय होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई । चैत माघ भाटों त्रय बारा, चमा क्षमा हम उरगें धारा ॥ दाहा यह चमावणी आरती, पढ़ें सुनै जो कोय ।
।
कहे "मल्ल" सरधा करो, मुक्ति-श्री-फल होय ॥२२॥ ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदश विधसम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ । सोरठा दोष न गहियो कोय, गुण गह पढिये भावसीं । भूल चूक जो होय, अर्थ विचारि जु शोधियो | [ इत्याशीर्वादः । परिपुप्पाञ्जलि क्षिपामि ]
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जन पूजा पाठ सह
सरस्वती पूजा
जनम जरा मृत्यु छ्य करै, हरें कुनय जड़रीति । भवसागरसों ले तिरै, पूजै जिन वच प्रीति ॥
ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिवाग्वादिनि । अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐ ह्रीं श्री जिन्मुखोद्भवसरस्वतिवाग्वादिनि । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ ठ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भव सरस्वतित्राग्यादिनि । अत्र मम सन्निहितानि भव वषट् ।
छीरोदधिगंगा, बिमल सरंगा, सलिल अभंगा सुखसंगा । भरि कञ्चन कारी, धार निकारी, तृषा निवारी हितचंगा ॥ तीर्थकर की धुवि, गणधरने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञाननई । सो जिपवर वानी, शिव सुखदानी. त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवमरस्वतीदेव्यै जन्ममृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ करपूर संगाया, चंदन आया, केशर लाया, रंग भरी । शारदपट नंदों. मन अभिनंदों, पापनिकदों, दाह हरी ॥ ती०
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुख े द्रवसरस्वती देव्यै ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥
सुखदास कमोद, धारकमोद, अति अनुमोद, चंदनं । बहुभक्ति बढ़ाई, कीरति गाई, होहु सहाई, माल लर्म ॥ ती
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवमरस्वती अक्षयपदप्राप्तये अजतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
बहुफूल सुवाल, विमल प्रकाशं, आनंदरास, लाय घरे । सम काम मिटायो, शीलवढ़ायो. सुखउपजायो दोष हरे ॥ ती
ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भत्रसरस्वतीदेव्यै कामवाण विध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ ॥
पकवान बनाया, बहुघृत लाया, सब विधि भाया, मिष्ट महा ।
पूजूं थुति गाऊँ, प्रीति बढ़ाऊँ, क्षुधा नशाऊँ, हर्ष लहा ॥ ती
ॐ ह्रीं श्रीजिननुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥
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करि दीपक जोतं, तमछय होतं, ज्योति उदोतं, तुमहिं चढ़े : तुम हो परकाशक, भरजविनाशक. हम घटभासक, ज्ञान बढ़े। ती ॐ ह्रीं श्रीजिनमुख सरस्वतीदेव्ये मोदान्वकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
शुभगंध दशोंकर, पावकमैं धर, धूप मनोहर, खेवत हैं । सब पाप जलावें, पुण्य कमावैं, दास कहावैं, सेवत हैं। सी ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अष्टकर्मविध्वसनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७
चादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी, ल्यावत हैं । मनवांछित दाता, मेट अलाता, तुम गुन माता, ध्वावत हैं ॥ ती
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखो द्रवमरस्वतीदेव्य मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
नयननसुखकारी, मृदुगुणधारी, उज्ज्वलभारी, मोल धरै । शुभगंधसम्हारा, वसन निहारा, तुम तटधारा, ज्ञान करे ॥ ती
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अनर्घपदप्राप्तये अन्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९॥ जलचंदन अच्छत, फूल चरू चत दीप धूप अति फल लावें । पूजाको ठालत, जो तुम जानत, सो नर यानत. सुख पावें ॥ ती
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भयसरस्वतीदेव्यै अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला, सोरठा ।
ओंकार धुनिसार, द्वादशांगवाणी विमल | नमो भक्ति उर धार, ज्ञान करें जड़ता हरे ॥ पहलो आचारांग खानो, पद अष्टादश सहस प्रयानो । दूजो सूत्रकृतं अभिलापं, पद छत्तीस सहल गुरु भापं ॥ १ ॥ तीजो ठाना अन सु जानं, सहस वियालिस पद सरधानं । चौथो समवायांग निहार, चौसठ सहस लाख हक धारं ॥२॥ पञ्चम व्याख्या प्रज्ञपति दरसं, दोय लाख अट्ठाइस सहसं ।
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जेन पूजा पाठ सप्रह
छट्टो ज्ञातृकथा विसतारं, पांच लाख छप्पन हज्जारं ।। ३॥ सप्तम उपासकाध्यायनगं, सत्तर सहस ग्यारलख भंग। अष्टम अन्तकृतं दश ईसं, सहस अट्ठाइस लाख तेईसं ।। ४ ।। नवम अनुत्तरदश सुविशालं, लाख बानवें सहस चवालं । दशम प्रश्न व्याकरण विचारं, लाख तिरान सोल हजारं ।। ५ ।। ग्यारम सूत्र विपाक सु भाखं, एक कोड़ चौरासी लाखं । चार कोडि अरु पन्द्रह लाख, दो हजार सव पद गुरु शाखं ॥६॥ द्वादश दृष्टिवाद पनभेदं, इकसौ आठ कोडिपनवेदं । अडसठ लाख सहस छप्पन हैं, सहित पञ्चपद मिध्याहन हैं॥७॥ इकसौ वारह कोड़ि बखानो, लाख तिरासी ऊपर जानो। ठावन सहस पञ्च अधिकाने, द्वादश अङ्ग सर्व पद माने ॥ ८॥ कोडि इकावन आठ हि लाख, सहस चुरासी छह सौ भाखं । साढ़े इकीस शिलोक वताये, एक एक पद के ये गाये ॥६॥
दोहा जा वानी के ज्ञानमैं, सूझै लोक अलोक । 'द्यानत' जग जयवन्त हो, सदा देत होंधोक॥ ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै महाघम् निर्वपामीति स्वाहा।
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सप्तर्षि-पूजा
[कविवर मनरंगलालजी ] लमय - प्रथम नाम श्रीमन्य दुतिय स्वरमन्व ऋषीश्वर ।
तीमर मुनि श्रीनिचय सर्वसुदर चौथो वर॥ पंचम श्रीजयवान विनयलालस पष्ठम भनि । सप्तम जयमित्रास्य सर्व चारित्र-धाम गनि ॥ ये सातों चारण-ऋद्धि-धर,फरतास पद थापना। -
म पृज मन वचन काय करि, जो मुस चाहूं आपना । * ही चारणधिरश्रीमतश्विरा । अत्र अवतरत अपतरत संवौषट् ।
हो चारणधिर श्रीमश्विरा ' अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ ठ । ॐही चारणधिर श्रीसतपरिपरा अनगम सन्निहिता भवत भवत वपट् ।
शुभ-तीर्थ-उद्भव-जल अनुपम, मिट शीतल लायर्के । मर-तपा-क्ट-निकट-कारण, शुद्ध-घट भरवायके ।। मन्यादि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिनकी पूजा करूं।
ता कर पातक हरं सारे, सकल आनंद विस्तरूं ।। ही धीचारद्विधरमन्चस्वरमन्व-निचय-सर्वसुन्दर-जयवान-विनयलालस जयमित्रपि यो जल निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीसंट कदलीनंद केशर, मंद मंद विसायकै ।
नसु गंध प्रसारित दिग-दिगंतर, भर कटोरी लायक मन्वादि० ॐ ह्रीं श्रीमन्नादिनमर्सिभ्य चदन निर्वपामीति स्वाहा ।
अति धवल अतत सड-बजित, मिष्ट राजन-भोगके ।
फलधीन-धागभरत मुदर, चुनित शुभ उपयोगके मन्वादि. ॐ ही श्रीमन्वादिनप्तर्पियो अक्षन निर्वपामीति स्वाहा ।
बहु-वर्ण सुवरण-गुमन आछे, अमल कमल गुलाबके ।
कनकी चंपा चार मरुआ, चुने निज-कर चारके । मन्वादि ॐ ही श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्य पुप्प निर्यपामोति स्वाहा।
पकवान नानाभाति चातुर, रचित शुद्ध नये नये ।
सटामिष्ट लाड आदि भर पह, पुरटके थारा लये ॥ मन्वादि० ॐ ह्रीं श्रीमन्वानिसप्तर्षिभ्यो नैवेद्यं निपामीति स्वाहा।
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जैन पूज पाठ संग्रह
कलधौत-दीपक जडित नाना, भरित गोवृत-मानसों।
अति ज्वलितजगमग-ज्योति जाती, तिमिरनाशनहारसों म० *ही श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो दीप निर्वपामोति स्वाहा।।
दिक-चक्र गंधित होत जाकर, धूप दश-अंगी कही ।
सोलाय मन-पत्र-कायशुद्ध, लगाय का सेऊनही ।।मन्वादि० ह्रीं श्रीमन्वादिसमर्पियो धूप निपानीति स्वाहा।
वर दाख सारक अमित प्यारे, मिष्ट उष्ट चुनाय ।
द्रावडी दाडिम चाल पुनी, थाल भर भर लाया ।। मन्वादि० ॐ हीं श्रीमन्वादिसमर्पिय पल निर्बपानीति स्वाहा ।
जल गंध अन्नत पुष्प चतदर, दीप यूप सु लावना ।
फल ललित आठौं द्रव्य-मित्रित, अपं तीजे पारना।। ॐ हो श्रीनन्वादिनप्तर्पियो अनिपासोति स्वाहा ।
जयमाला वद मृपिगजा धम-जहाजा निज-पर-काजा करत भले। करणाके धारी गगन-विहारी दुस-अपहारी भरम दले ॥ काढत जम-मंदा भवि-जन-नाकरतु अनंदा चरणनमें। जो पूजे या मंगल गान फेर न आवे भव-बनमें ॥१॥
ट पक्षरी जय श्रीमनु मुनिराजा महत, स-धावरकी रक्षा करत । जय मिथ्या-तम-नाशक पतंग कल्या-रस-पृरित अग अंग। जय श्रीस्वग्मनु अझलकहप, पद-सेव करत नित अमर-मृप । जय पंच अन जीते महान, तप नपत ढह कपन समानं । जय निचय मत तत्त्वाचे मान, तप-रमातना तनमें प्रकाश । जय विषय-रोधनमोघमान, परणदिके नाशन अचल ध्यान । जर जयहिं समुदर दयाल. लखि उद्रजालवत जगत-जाल । जय तृप्णाहारी रमण राम, निज परणतिने पारो विराम । जय आनन्यन कल्याणहर, फाल्याण परत सनको अनुप । जय मद-नाशन जयदान दम, निमद बिरचत सब करत संव। जर जाहिं विनयलालस अमान, समशत्रुमित्र जानत नमान। जय कृशित-काय तरके प्रभाव. छवि-छटा उड़ति आनद-दाय।
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जयमित्र सकल जगके सुमित्र, अनगिनत अधम कीने पवित्र । जय चंद्र-वदन राजीव-नैन, कबहूं विकथा वोलत न बैन । जय सातौ मुनिवर एक संग, नित गगन-गमन करते अभंग। जय आये मथुरापुर मझार, तह मरी रोगको अति प्रचार। जय जय तिन चरणनि को प्रसाद,सब मरी देवकृत भई वाद । जय लोक करे निर्भय समस्त, हमनमत सदा नित जोड़ हस्त । जय ग्रीषम-ऋतु परवत मॅझार, नित करत अतापन योग सार । जय तृषा-परीषह करत जेर, कहुं रंच चलत नहिं मन-सुमेर । जय मूल'' अठाइस गुणन धार, तप उग्र तपत आनंदकार । जय वर्षा ऋतुमें वृत्त-तीर, तह अति शीतल झेलत समीर। जय शीत-काल चौपट मॅझार, कैनदी-सरोवर-तट विचार । जय निवसत ध्यानारूढ़ होय, रंचक नहिं मटकत रोम कोय। जय मृतकासन वज्रासनीय, गोदूहन इत्यादिक गनीय । जय आसन नानाभांति धार, उपसगे सहत ममता निवार । जय जप्त तिहारो नाम कोय, लख पुत्रपौत्र कुल-वृद्धि होय। जय मरे लक्ष अतिशय भंडार, दारिद्रतनो दुख होय छार। जय चोर अग्नि डाकिन पिशाच, अरु ईति भीति सवनसत सांच। जय तुम सुमरत सुख लहत लोक, सुर असुरनवत पद देत धोक ।
चन्द रोला ये सातों मुनिराज, महातप लछमी धारी। प्रम पूज्य पद धरौं, सकल जगके हितकारी ।। जो मन वच तन शुद्ध, होय सेवे औ ध्यावे । सो जन 'मनरंगलाल', अष्ट ऋद्धिनको पावै ॥ नमन करत चरनन परत, अहो गरीवनिवाज । पंच परावर्तननितें, निरवारो ऋषिराज ।। ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
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२७५
जन पूजा पाठ सग्रह
अनन्तव्रत पूजा
अडिल्ल छन्द। श्रीजिनराज चतुर्दश जग जयकारजी । कर्म नाशि भवतार सु शिवसुख धारजी ।। सौपट ठः ठ. सुवषट् यह उच्चरूँ।
आह्नाननं स्थापन मम सन्निधि करूँ।। ॐ ही श्रीपमाद्यनन्ननायपर्यन्नचतुर्दशजिनदा । अत्र अवतर अवतर मवीपट् । ॐ ह्री श्रीयपमायनन्तनाथर्यन्नचतुदरनिनन्द्रा । अत्र तिष्ठ निठ ठ ठ स्थापन । *ही श्रीकृषभायनन्तनाथपर्यन्तचतुदराजिनन्द्रा · अम्र मम सन्निहितो भव भव वपट् ।
गीता छन्द । गगादि तीर्थको सु जल भर कनकमय भृङ्गार में । चउदश जिनेश्वर चरणयुगपरि धार डारौ सार में ।। श्रीवृषभ आदि अनन्त जिन पर्यंत पूजों ध्यायके । करि अनन्तव्रत तप कम हनिके लहो शिव सुख जायके॥ ॐ ही श्रीवृषभानन्तनावपर्यन्तचतुर्दशाजनने या तन्मजरामृत्युविनागनाय जल । चन्दन अगर घनसार आदि सुगन्ध द्रव्य घसायके । सहजहि सुगन्ध जिनेन्द्रके पद चर्च होंसुखदायके॥श्रीवृषभ. ॐ ही घाउपभायन-पन पन्नचतुर्दशजिनेन्द्र भ्या समारतापविनाशनाय बन्दन० । तन्दुल अरवण्डित अति सुगन्ध सुमिष्ट लेके कर धरों। राजत तुम चरणन निकट शिरनाय पूजो शुभ बरो॥श्रीवृषभ ॐ ही पभागुन मनायपर्यन्त चतुर्दशजिनेन्द्र न्यो अक्षयपदप्राप्तये अलतः . चम्पा चमेली केतकी पुनि सोगरो शुभ लायके । केवड़ो कमल गुलाब गैंदा जुही माल बनायके ।। श्रीवृषभ
ही धोवृषभाद्यनन्ननाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्र न्यो कामबाण विश्वसनाय पुष्प ।
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लाडू कलाकन्द सेव घेवर और मोतीचूर ले | गूंजा सु पेड़ा क्षीर व्यञ्जन थाल में भरपूर ले ॥ श्रीवृष०
01
'ही श्रीगाद्यनन्तनायपयन्तचतुदराजिनेन्द्रे भ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ले रत्नजड़ित सु आरती तामांहि दीप संजोयके । जिनराज तुम पद आरती कर तिमिर मिथ्या खोयके ॥ श्रीवृष०
ॐ श्रीपाद्यनन्तनापर्यन्त चतुर्दगजिनेन्द्रे भ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप ० 1 चन्दन अगरतर सिलारस कर्पूरकी करि धूपको । - ता गंधमधु चकित सो खेऊँ निकट जिन भूपको ॥ श्रीवृषभ०
ॐ श्रीपाद्यनन्तनायपर्यन्तचनुदंश जिनेन्द्रे भ्यो अष्टकर्मविध्वसनाय धूप० ।
नारंगि केला दाख दाड़िम वीजपूर मंगायके । पुनि आम्र और वदाम खारिक कनक थार भराय के ॥ श्रीवृष० ॐ ह्रीं श्रीवृषभाद्यनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्रेभ्यो मोक्ष फलप्राप्तये फल० ।
जल सुचन्दन अखत पुष्प सुगन्ध बहुविधि लावकै ।
नैवेद्य दीप सुधूप फल इनको जु अर्घ बनायके ॥ श्रीवृषभ० ॐ ह्रीं श्रीष्टषभाद्यनन्तनाथपर्यं नाचतुदशजिनेन्द्रे भ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तयेऽर्घ्य• । जयमाला पठडी छन्द ।
लय नृपमनाथ घृप को प्रकाश, भविजन को वारे पाप नाश । जय अजितनाथ जीते सु कर्म, ले क्षमा खड्ग भेदे जु मर्म ॥१॥ जय सम्भव जग सुखके निधान, जग सुख करता तुम दिया ज्ञान । जय अभिनन्दन पद धरो ध्यान, वासों प्रगटे शुभ ज्ञान भान ||२|| जय सुमति सुमतिके देन हार, जासों उतरे भव उदधि पार । जय पद्म पद्म पदकमल तोहिं, भविजन अति सेवें मगन होहि ॥ ३ ॥ जय जय सुपार्श्व तुम नमत पांय, क्षय होत पाप बहु पुण्य थाय । जय चन्द्रप्रभ शशिकोट भान, जगका मिथ्यातम हरो जान ||४||
१८
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जेन पूजा पाठ सग्रह
जय पुष्पदन्त जग मांहि सार, पुष्पकको मास्यो अति सुमार । फरि धर्मभाव जगमें प्रकाश, हरि पाप तिमिर दियो मुक्तवास ॥शा जय शीतलजिन भक्हर प्रवीन, हरि पाप ताप जग सुखी कीन । श्रेयांस कियो जग को कल्यान, दे धर्म दुःखित तारे सुजान ॥६॥ जय वासुपूज्य जिन नमों तोहि, सुर नर मुनि पूजत गर्व खोहि ।
जय विमल विमल गुण लीन मेय, मवि करे आपसम सुगुण देय ॥जा । जय अनन्तनाथ करि अनन्तवीर्य, हरि धातिकर्म धरि नन्त धीर्य ।
उपजायो केवलज्ञान भान, प्रभु लखे चराचर सब सु जान ॥८॥ दोहा-यह चौदह जिनजगत में, मंगल करन प्रवीन ।
पाप हरणबहु सुख करन, सेवक सुखमय कीन ॥ ॐ हो श्रीवृषभाद्यनतनाथपर्यंतचतुर्दशजिनेन्द्रभ्योऽध्य० ।
अनन्त चतुर्दशी मन्त्र एकादशी-ॐ ह्रीं अई हस• अनन्त फेवलिने नमः स्वाहा।
द्वादशी-ॐ ह्रीं क्ष्वी ही ही हो हंस अमृत वाहने नमः स्वाहा। त्रयोदशी-ॐ ह्रीं अनन्तनाथ तीर्थङ्कराय हो ही ह. हों असि
__ आउसा मम सर्व शान्ति कुरु-कुरु स्वाहा। चतुर्दशी-ॐ ह्रीं अई हसः। अनन्त केवलि भगवान अनन्त दान
_लाभ भोगोपभोग वीर्याभिवृद्धिं कुरु-कुरु स्वाहा।
अनन्त बदलने का मन्त्र ॐ ह्रीं अह हसः अनन्त फेवलि भगवान सर्व कर्म विमुक्ताय अनन्तनाथ 'तीर्थङ्कराय अनन्त सुख प्राप्ताय पूर्व सूत्र बन्धन मोचन करोमि स्वाहा ।
अनन्त वांधने का मन्त्र ॐ हीं अनन्त तीर्थङ्कराय सर्व शान्ति कुरु-कुरु सूत्र बन्धन करोमि स्वाहा।
यज्ञोपवीत मन्त्र ॐ ह्रीं नम परमशान्ताय परमशान्तिकराय पवित्रीकरावाह रमत्रय स्वरूप यज्ञोपवीत दधामि मम गात्रं पवित्र भवतु अहं नमः स्वाहा ।
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शान्तिपाठः
दोधफरत । शान्तिजिनं शशि-निर्मल-यक्त्र शील-गुण-त-संयम-पावम् । अष्टशताचिन-लत्तण-गान नौमि जिनोत्तममम्बुज-नेत्रम् ॥१॥ पामगोप्सित समाधगणां पजितमिन्द्र-नरेन्द्र-गणः । शान्तिफरं गण-शान्निमभीप्युः पोटश-नीयकरं प्रणमामि ॥२॥ दिव्य-ननः नर-पुष्प-गुष्पिदन्दाभतगन-योजन-घोपी । आतपवाण-नामर-गुम्मे यम्य विभाति च मण्डलतेजः ॥३॥ नं जगददित-शान्नि-जिनेन्द्र शान्तिकरं गिरसा प्रणमामि । मरगणाय तु पन्तु शान्ति मायमरं पठते परमां च ॥४॥
पसन्ततिपादि। . याचना मस्ट-न्टल-हारमन्न. गमादिभिः सरगणः स्तुत-पाद-पद्माः। ते मे जिनाःप्रवर-वंश-जगत्प्रटीपा-म्तीथहराःमतत-शान्तिकरा भरन्तु ॥शा
संजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र-मामान्य-तपोधनानाम् । दंगम्प गएम्प पुरम्य गाः करोतु शान्ति भगवाजिनेन्द्रः।।६।।
सन्धरायत्त । क्षेमं मन-प्रजानां प्रभपतु पलयान्धामिको भूमिपालः काले काले च मम्यानपतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुर्मितं चीर-मार्ग घणमपि जगता मा म्म भूअीरलोके जैनन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु मततं सर्व-नाल्य-प्रदायि ॥७॥
अनुष्टुप अध्वस्त-घाति-कर्माणः केवलसान-भास्कराः । उत्चन्तु जगतां शान्ति पृषभाचा जिनेश्वराः ।।८।।
अथेप्ट प्रार्थना प्रथम करणं चरणं द्रव्यं नमः . शाखाम्यासो जिनपति-नुतिः सद्गतिः सर्वदाय:
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जैन पूजा पाठ सग्रह
सद्वृत्तानां गण-गण-कथा दोप-वादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रिय-हित-वचो भावना चात्मतत्त्वे सम्पद्यन्तां मम भव-भवे यावदेतेऽपवर्गः ॥६॥
आर्यावृत्त तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पद-द्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावनिर्वाण-सम्प्राप्तिः ॥१०॥ अक्खर- पयत्थ-हीणं मत्ता-हीणं च जं मए भणियं । तं खमउ णाणदेव य मज्झ वि दुक्ख-क्खयं किंतु ॥११॥ दुक्ख-खओ कम्म-खओ समाहिमरणं च बोहि-लाहो य । मम होउ जगढ-बंधव तव जिणवर चरण-सरणेण ॥१२॥
स्तुतिः त्रिभुवन-गुरो, जिनेश्वर परमानन्दैक-कारणं कुरुष्व । मयि किङ्करेऽत्र करुणां यथा तथा जायते मुक्तिः ॥१३॥ निर्विण्णोऽहं नितरामर्हन्बहु-दुःखया भवस्थित्या । अपुनर्भवाय भवहर, कुरु करुणामत्र मयि दीने ॥१४॥ उद्धर मां पतितमतो विषमाद्भवकूपतः कृपां कृत्वा । अर्हन्नलसुद्धरणे त्वमसीति पुनः पुनर्वच्मि ॥१शा त्वं कारुणिकः स्वामी त्वमेव शरणं जिनेश तेनाहम् । मोह-रिपु-दलित-मानं फूत्करणं तव पुरः कुर्वे ॥१६॥ ग्रामपतेरपि करुणा परेण केनाप्युपद्रते पुंसि ।। जगतां प्रभो न कि तव जिन मयि खलु कर्मभिः प्रहते ॥१७॥ अपहर मम जन्म दयां कृत्वा चेत्येकवचसि वक्तव्यम् ।
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तव जिन चरणाब्ज-युगं करुणामृत - शीतलं यावत् । संसार-ताप-तप्तः करोमि हृदि तावदेव सुखी ॥ १६ ॥ जगदेक-शरण भगवन् नौमि श्रीपद्मनन्दित - गुणौघ । किं चहुना कुरु करुणामत्र जने शरणमापन्ने ॥२०॥
[ परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ]
विसर्जन संस्कृत
ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रोक्तं न कृतं मया । तत्सवं पूर्णमेवास्तु त्वत्प्रसादाज्जिनेश्वर ! ॥ १ ॥ आह्नानं नैव जानामि नैव जानामि पूजनं । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ! ॥ २ ॥ मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सवं क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! ॥ ३॥ आहूता ये पुरा देवा लव्धभागा यथाक्रमम् । ते मयाऽभ्यर्चिता भक्त्या सर्वे यांतु यथास्थितं ॥४॥ सर्वमंगल मांगल्यं सर्व कल्याणकारकम् । प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥ ५ ॥
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जेन पूजा पाठ समक्ष
पाश्र्वनाथ स्तोत्र
भुजंगप्रयात छन्द । नरेन्द्र फणीन्द्र सुरेन्द्र अधीसं, शतेन्द्र सु पुजे भज नाय शीशं । मुनीद्र गणेन्द्रनमो जोडि हाथ, नमो देवदेवं मदा पार्श्वनाथं ॥१॥ गजेन्द्र मृगेन्द्र गयो तू छुड़ावै, महा आगतै नागते तू बचावै । महावीरतें युद्ध मैं तू जितावै, महा रोगरौं बंधतें तू छुड़ावै ॥ २ ॥ दुःखी दुःखहर्ता सुखीसुक्खकर्ता, सदासेवकों को महानन्द भर्ता। हरे यक्षराक्षस्य भूतं पिशाचं, विषं डांकिनी विनके भय अवाचं ॥३॥ दरिद्रीन को द्रव्यके दानदी ने, अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने।। महासंकटोंसे निकारै विधाता, सबै सम्पदा सर्वको देहि दाता Tare महाचोरको वज्र का भय निवारै, महापौनके पुञ्ज तू उवारै । महाक्रोधकी अनिको मेघ धारा, महालोम शैलेशको वज्रभारा॥ महामोह अन्धेरको ज्ञान मानं, महाकर्मकांतारको दौं प्रधानं । किये नागनागिन अधोलोक स्वामी, हस्यो मान तू दैत्यको हो अकामी। तुही कल्पवृक्षं तुही कामधेनु, तुही दिव्य चिन्तामणी नाग एनं । पशू नर्क के दुःखतें तू छुड़ावै, महास्वर्गत मुक्ति मैं तू वसावै ॥ करै लोहको हेमपाषाण नामी, रटै नाम सो क्यों न हो मोक्षगामी । कर सेव ताकी करैं देव सेवा, सुनै वैन सोही लहैं ज्ञान मेवा ॥८॥ जपै जाप ताको नहीं पाप लागै, धरै ध्यान ताके सबै दोष भागे। विना तोहि जाने धरे भव घनेरे, तुम्हारी कृपातै सरै काज मेरे ॥६॥ दोहा-गणधर इन्द्र न कर सके, तुम विनती भगवान।
_ 'द्यानत' प्रीति निहारकै, कीजै आप समान ॥
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श्री जिनवाणी भजन
जिनबराणो माता दर्शन को बलिहारियां ॥ टेक ॥ प्रथम देव अरहन्त मनाऊ, गणधरजी को ध्याऊ । कुन्दकुन्द आचारज स्वामी, नितप्रति शीश नवाऊ ॥ ए जिनवाणी० योनि लाग चौरासी मांही, घोर महा दुःख पायो ।
तेरी महिमा सुन कर माता, शरण तिहारी आयो ॥ ए जिनवाणी० जाने मागे शन्नो लोनी, अष्टकर्म क्षय कीनो ।
जामन मरण मेट के माता, मोक्ष महाफल लोनो ॥ ए जिनवाणी ० बारबार में विनऊ माता, मिहरजु मोपर कीजे ।
पाददास की अज यही है, चरण दारण मोहि दीजै ॥ ए जिनवाणी०
जिनवाणी स्तुति
वीर हिमाचलते निकसी गुरु गौतम के मुख कुण्ड ढरी है। मोह महाचल भेद चली जग की जडता तप दूर करी है ॥ ज्ञान पयोनिधि माहि री बहु भक्ति तरङ्गनि सां उछरी है । ता शुचि शारद गङ्ग नदी प्रति में जजुरी निज शीश धरी है ॥ १ ॥ या जग मन्दिर मे अनिवार अज्ञान अन्धेर यो अति भारी । श्रीजिन की धुनि दीपशिसा सम जो नहि होत प्रकाशन हारी ॥ तो किस भाति पदारथ पाति कहा कहते रहते अविचारी । या विधि सन्त कहे धनि है धनि हैं जिन वेन वडे उपगारी ॥ २ ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
अथ भूधरकृत गुरु स्तुति
बन्दौ दिगम्बर गुरुचरण जग — तरण तारण जान । भरम भारी रोग को है, राजवैद्य
महान || जजीर ।
कर्म
।
पातक पीर ॥ १ ॥
जिनके अनुग्रह बिन कभी नहि, कटै ते साधु मेरे उर बसहु, मेरी हरहु
यह तन अपावन अथिर है, ससार सकल असार । ये भोग विषपकवान से, इह भाति सोच विचार ||
नप विरचि श्रीमुनि वन बसे, सब छाडि परिग्रह भीर । ते साधु०॥२॥
जे काच कञ्चनसम गिनहि, अरि मित्र एक स्वरूप ।
निन्दा बडाई सारिखी, वनखण्ड शहर अनूप ॥ सुख दुःख जीवन मरन मे, नहि खुशी नह दिलगीर । ते साधु०॥३॥
साधु०॥४॥
जे वाह्य परवत वन बसै, गिरि गुफा महल मनोग | सिल सेज समता सहचरी, शशि किरन दीपक जोग ॥ मृग मित्र भोजन तपमई, विज्ञान निरमल नीर । ते सूखहि सरोवर जल भरे, सूखहिं तरगिनि-तोय | बाटहि वटोही ना चले, जहँ घाम गरमी होय ॥ तिहँकाल मुनिवर तपतपहिं, गिरि शिखर ठाडे धीर । ते साधु०॥५॥ घनघोर गरजहिं घनघटा, जलपरहिं पावसकाल । चहुँ ओर चमकहि बीजुरी, अति चलै सीरी व्याल ॥ तरुहेट तिष्ठहिं तब जती, एकान्त अचल शरीर । ते साधु०॥६॥
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काय ॥
तीर । ते साधु० ॥७॥
जब शीतमास तुषारसो, दाहे सकल वनराय । जब जमै पानी पोखरां, थरहरे सबकी तब नगन निवसे चौहटै, अथवा नदी के करजोर 'भूधर' बीनवे, कब मिलहिं वे मुनिराज । यह आश मन की कब फलै, मम सरहिं सगरे काज ॥ ससार विषम विदेश मे, जे बिना कारण वीर । ते साधु० ॥ ८ ॥
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अथ भूधरकृत दूसरी गुरु स्तुति
राग भरथरी - दोहा |
ते
गुरु
मेरे मन बसो, जे भवजलधि जिहाज |
आप तिरहि पर तारही, ऐसे श्रीऋषिराज || ते गुरु० ॥ १ ॥
मोहमहारिपु जीतिकै छाड्यो सब घरबार ।
होय दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार || ते गुरु० ॥ २ ॥
रोग उरग - विलवपु गिण्यो, भोग भुजंग समान ।
कदलीतरु ससार है, त्याग्यो सब यह जान || ते गुरु० || ३ || '
रत्नत्रयनिधि उर धरें, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल ।
माय कामखबीस को, स्वामी परम दयाल || ते गुरु० ॥ ४ ॥
पञ्च महाव्रत आचरें, पांचो समिति समेत । तीन गुपति पाले सदा, अजर अमर पदहेत ॥ ते गुरु० ॥ ५ ॥
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२८२
जैन पूजा पाठ सग्रह
धर्म धरै दशलाक्षणी, भावें भावना वार |
सहैं परीषह बीस द्व, चारित - रतन भण्डार || ते गुरु० || ६ ||
जेठ तपे रवि आकरो, सूखे सर वर नीर ।
शैल - शिखर मुनि तप तपै दा
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नगन शरीर || ते गुरु० ॥ ७ ॥
जलधर धार ।
पावस रैन डरावनी, बरसै तरुतल निवसे तव यती, चालै झझा व्यार ॥ ते गुरु० ॥ ८ ॥
शीत पडे कपि-मद गले, दाहै सब वनराय ।
तालतरगनि के तटै ठाडे ध्यान लगाय ।। ते गुरु० ॥ ९ ॥
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इहि विधि दुद्धर तप तपै, तीनो काल मकार |
लागे सहज रूप में, तनसो ममत निवार ॥ ते गुरु० ॥ १० ॥
पूरव भोग न चिन्तवै, आगम वांछे नाहि ।
चहुँ गतिके दुःख सौ डरे, सुरति लगी शिवमाहिं । ते गुरु० ॥। ११ ॥
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रङ्गमहल मे पौढते, कोमल सेज बिछाय ।
ते पच्छिम निशि भूमि मे, सोवै सवरि काय || ते गुरु० ॥ १२ ॥
गज चढ़ि चलते गवंसो, सैना सजि चतुरङ्ग । निरखिनिरखि पग वे वरै, पालै करुणा अङ्ग ॥ ते गुरु० ॥ १३ ॥
वे गुरु चरण जहा घरै जग मे तीरथ जेह ।
सो रज मम मस्तक चढो, 'भूधर' मागे एह || ते गुरु० ॥ १४ ॥
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संकट हरण विनती है दीपा श्रीपति परा निभान जी। पर मेरीमा नागेवार या लगी। टफ ।। मालिको दो सदान शिनात आप हो । एकोहुनर हमार. तुमरे पिा नदी॥
जान में गुनाह मुममे पन गया मn1 परी से मोर को पटार मारिच नात हे दीन० ॥१॥ दकिrnपमे शिनने गा मदी। सुगनि सदर कार में गुजा नहीं। गर मे. और पुराण में मानी । आनन बन्द नीजिनेन्द्र देव ६ नदीतीन० ॥२॥ हामी ६ पटी सानी थी सोना सी। गहा में प्राह गही गरी गती उग यार में पुकार विा का तुम्हें गती। भय तारार या पा पती ॥ हे दोन० ॥ ३ ॥ पायक प्रप पुरा में दम जय रहा। गीता मे शपप ने पो जय राम ने पहा ॥ गुमपान घरफ ज्ञानको पग धारती तहो। तत्काल ही मर ग्यम मा फमल लदला ॥ हे दीन० ॥ ४॥ साय पोरदापीपा दुगानन ने या गाा। नपरी ममा के लोग पाते थे इटा-सा उम पच, भौर पीर में तुमने फरी सदा । परदा दफा सती का मुयश जगत मे रहा । हे दीन०॥५॥
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श्रीपाल को सागर विपै जब सेठ गिराया । उसकी रमा से रमने को आया था बेहया ।। उस वक्त के सङ्कट मे सती तुमको जो घ्याया। दुःख द्वन्दफन्द मेट के आनन्द बढाया । हे दीन० ।। ६ ।। हरिपेण की माता को जहां सौत सताया। रथ जैन का तेरा चले पीछे से बताया ।। उस वक्त के अनशन मे सती तुमको जो ध्याया। चक्रेश हो सुत उसके ने रथ जैन चलाया । हे दीन० ॥७॥ सम्यक्त शुद्ध शीलवन्त चन्दना सती। जिसके नजीक लगती थी जाहर रती-रती ।। वेडी मे पड़ी थी तुम्हें जब ध्यावती हुती। तब वीर धीर ने हरी दुःख द्वन्द की गती ।। हे दीन० ॥ ८॥ जब अञ्जना सती को हुआ गर्भ उजारा । तव सास ने कलक्क लगा घर से निकारा ।। चन वर्ग के उपसर्ग मे सती तुमको चितारा। प्रभु भक्त व्यक्त नानि के भय देव निवारा ।। हे दीन० ॥४॥ सोमा से कहा जो तू सती शील विशाला । तो कुम्भत निकाल भला नाग जु काला ।। उस वक्त तुम्हें ध्याय सती हाथ जो डाला। तत्काल ही वह नाग हुआ फूल की माला || हे दीन० ॥ १०॥ जव राज रोग था हुआ श्रीपाल राज को। मैना सती तब आपकी पूजा इलाज को॥ तत्काल ही सुन्दर किया श्रीपालराज को। वह राज रोग भोग गया मुक्तिराज को ।। हे दीन० ॥ ११ ॥
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जब सेठ सुदर्शन को मृषा दोष लगाया। रानी के कहे भूप ने शूली पै चढाया ।। उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज ध्यान मे ध्याया। शूली से उतार उसको सिंहासन पै बिठाया । हे दीन० ॥ १२ ॥ जब सेठ सुधन्नाजी को वापी मे गिराया। ऊपर से दुष्ट था उसे वह मारने आया ।। उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज ध्यान मे ध्याया। तत्काल ही जञ्जाल से तब उसको बचाया ।। हे दीन० ।। १३ ।। इक सेठ के घर मे किया दारिद्र ने डेरा । भोजन का ठिकाना नहीं था साझ सवेरा ।। उस वक्त तुम्हें सेट ने जब ध्यान मे घेरा। घर उसके मे तब कर दिया लक्ष्मी का बसेरा ।। हे दीन० ।। १४ ॥ बलि वाद मे मुनिराज सो जब पार न पाया। तब रात को तलवार ले शठ मारने आया । मुनिराज ने निज ध्यान से मन लीन लगाया। उस वक्त हो प्रत्यक्ष तहाँ देव बचाया ।। हे दीन० ।। १५ ।। जब राम ने हनुमन्त को गढ लङ्क पठाया। सीता की खबर लेने को सह सैन्य सिधाया ।। मग बीच दो मुनिराज की लख आग मे काया । झट वार मूसलधार से उपसर्ग बुझाया ।। हे दीन० ॥ १६ ॥ जिननाथ ही को माथ नवाता था उदारा । धेरे मे पडा था वो कुम्भकरण विचारा ।। उस वक्त तुम्हें प्रेम से सङ्कट मे उचारा। रघुवीर ने सब पीर तहा तुरत निवारा ।। हे दीन० ॥ १७ ॥
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जन पूजा पाठ सप्रद
रणपाल कुँवर के पड़ी थी पाँव मे वेरी । उस वक्त तुम्हें ध्यान मे ध्याया था मवेरी ॥ तत्काल ही सुकुमाल की सब झड पडी बेरी। तुम राजकुंवर की सभी दुःख द्वन्द निवेरी । हे दीन० ।। १८ ।। जब सेठ के नन्दन को डसा नाग जु कारा । उस वक्त तुम्हे पीर में धर धीर पुकारा ।। तत्काल ही उस वाल का विष भूरि उतारा । चह जाग उठा सोके मानो सेज सकारा ॥ हे दीन० ॥ १६ ॥ मुनि मानतुग को दई जव भूप ने पीरा। ताले मे किया चन्द भरी लोह जजीरा ।। मुनीश ने आदीश की थुति की है गम्भीरा । चक्रेश्वरी तव आन के झट दूर की पीरा ॥ हे दीन० ॥ २० ॥ शिवकोटि ने हट था किया समन्तभद्र सों। शिवपिण्ड को बन्दन करो शङ्को अभद्र सों। उस वक्त स्वयम्भू रचा गुरु भाव भद्र सों। अतिमा जहा जिन चन्द्र की प्रगटी सुभद्र सों ।। हे दीन० ।। २१ ॥ सूवे ने तुम्हें आन के फल आम चढाया। मेंढक ले चला फूल भरा भक्ति का भाया। तुम दोनों को अभिराम स्वर्ग धाम वसाया। हम आपसे दातार को लख आज ही पाया । हे दीन० ।। २२ ।। कपि, श्वान, सिंह. नवल, अज, बैल विचारे । तिर्यञ्च जिन्हें रश्च न था बोध चितारे ।। इत्यादि को सुरधाम दे शिवधाम में धारे । प्रभु आपसे दातार को हम आज निहारे । हे दीन० ॥ २३ ।।
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तुमही अनन्त जन्तु का भय भीर निवारा । वेदो-पुराण में गुरु गणधर ने उचारा ॥ हम आपकी शरणागति में आके पुकारा। तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष ईक्षु अहारा ।। हे दीन० ॥ २४ ॥ प्रमु-भक्त व्यक्त जक्त भुक्त मुक्त के दानी। आनन्द कन्द वृन्द को हो मुक्ति के दानी ।। मोहि दीन जान दीनबन्धु पातकी मानी। ससार विषम तार-तार अन्तर यामी ।। हे दीन० ॥ २५ ॥ करुणा निधान दास को अब क्यों न निहारो। दानी अनन्त दान के दाता हो सम्भारो॥ वृष चन्द नन्द वृन्द का उपसर्ग निवारो। ससार विषमक्षार से प्रभु पार उतारो ॥ हे दीनबन्धु श्रीपति करुणा निधानजी । अब मेरी व्यथा क्यों न हरो वार क्या लगी ।। हे दीन० ॥ २६ ॥
वर्णी वाणी की डायरी से "किसी को मत सताओ" यह परम कल्याण का मार्ग है । इसका यह तात्पर्य है कि जो पर को कष्ट देने का भाव है वह भात्मा का विभाव भाव है, उसके होते ही भारमा विकृत अवस्था को प्राप्त हो जाती है और विकृत भाव के होते हो मात्मा स्वरूप से च्युत हो जाती है, स्वरूप से च्युत होते ही आत्मा नाना गतियों का आश्रय लेती है
और वहाँ नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करती है ; इसका नाम कर्म फल चेतना है। कर्मफल चेतना का कारण कर्म चेतना है , जम तक कर्म चेतना का सम्बन्ध न छूटेगा इस ससार चक्र से सुलझना कठिन ही नहीं, असम्भव है।
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केन पूजा पाठ प्रद
भजन-होनहार वलवान नर होनहार होतव्य, न तिल भर टरती ।
भई जरदकवर के हाथ मौत गिरिधर की । श्री नेमिनाथ जिन आगम यह उच्चारी।
भई बारह वर्ष विनाशि द्वारिका सारी ॥ बचे फकत श्री बलभद्र और गिरिधारो।
गये निकलि देश से कथ तृषा अधिकारी ॥ भये निद्रावश वन बीच निवृत्ति हरि की।
भई जरदकवर के हाथ मौत गिरिधर को ॥ बलभद्र भरन गये नीर न नियरे पाया ।
धरि भेष शिकारी जरदकंवर तह आया । लखि पीताम्बर पट पीत पन हरषाया ।
तब मृगा जानि यदुवश ने वाण चलाया ।। लागत ही तीर उठि वोर पोर तरकस की।
भई जरदकुंवर के हाथ मौत गिरिधर. को ॥ चित चकित होत चहुँ ओर निहारे वन मे ।
किन मारा बैरी वाण प्राय इस वन मे॥ यह वचन सुनत यदुकंवर बिलखते मन में ।
सनाथ जिन वचन लखे ग मन में ॥ होनी से शक्ति न होवे गणधर मुनि की।
भई जरदकुंवर के हाथ मौत गिरिधर की ॥
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बेन पूजा पाठ संग्रह
ले आये नीर बलभद्र तीर नरपति के ।
लखि हाल भये बेहाल देख भूपति के || षट् मास फिरे बलभद्र मोहवश भ्रमते ।
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दिया तुङ्गीगिरि पर दाह बोध चितधर के ॥ कहे गुणीजन के सुन वाणी यह जिनवर की । भई जरदकंवर के हाथ मौत गिरिधर की ॥
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श्री नेमिनाथजी की विनती
सैयो म्हारी नेमीसुर वनडाने गिरनारी जातां राख लीजो ये ॥ टेक ॥ समद विजयजी रा लाडला ये माय, सैयो म्हारी दोनू छे हरघर लार । पिताजी ने जाय कहिजो ये ।। १ ।। नेमीसुर बनडो बण्यो हे माय, सैयो म्हारी खूव वणी छै वरात । झरोखा से भाख लीजो ये ॥ २ ॥ तोरन पर जब आईया ये माय, संयो म्हारी पशुवन सुणी पुकार । पाछो रथ फेरियो ये माय || ३ || ठोड्या कांकण डोरडा ये माय, सैयो म्हारी तोड्या है नवसर हार | दीक्षा उरधार लीनो हे माय ॥ ४ ॥ संजम अन्य मैं धारस्यू ये माय. सैयो म्हारी जास्या गढ गिरिनार | कर्म फन्द काटस्या ये माय ॥ ५ ॥ सेवक की ये विनती ये माय, सैयो म्हारी मागो हे शिवपुर वास । दया चित्त धार लीजो ये माय ॥ ६ ॥
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जैन पूजा पाठ स
शास्त्र भक्ति
अकेला ही हॅ में करम सब आये सिमटिके | लिया है मै तेरा शरण अब माता सटकि के || भ्रमावत है मोको करम दुःख देता जनमका । करो भक्ती तेरी, हरो दुख माता भ्रमणका ॥ १ ॥ दुखी हुआ भारी, भ्रमत फिरता हूँ जगतमे । सहा जाता नाही, अकल घबराई भ्रमणमे ॥ करो क्या मा मोरी, चलत वश नाही मिटनका । करो भक्ती तेरी, हरो दुख माता भ्रमणका ॥ २ ॥ सुनो नाता नोरी, अरज करता हूँ दरदमे । दुखी जानो मोको, डरप कर आयो शरणमे ॥ कृपा ऐसी कीजे, दरद मिट जावै मरणका । करो भक्ती तेरी, हरो दुख माता भ्रमणका ॥ ३ ॥ पिलावै जो मोको, सुबुधिकर प्याला मृतका । मिटावै जो मेरा, सरब दुःख सारा फिरनका || पडू पावा तेरे, हसे दुख सारा फिकरका । करो भक्ती तेरी, हरो दुःख माता भ्रमणका ॥ ४ ॥
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जेन पूजा पाठ सह
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सवैया |
मिथ्या-तम नाशवे को, ज्ञान के प्रकाशवे को । आपा पर भासवे को, भानुसी बखानी है ॥ छहो द्रव्य जानवे को, वसुविधि भानवे को । स्वपर पिछानवे को, परम प्रमानी है । अनुभौ बताइवे को, जीव के जतायवे को । काहून सतायवे को, भव्य उर आनी है ॥ जहां तहां तारवे को, पार के उतारवे को । सुख विस्तारवे को ऐसी जिनवानी है ॥ ५ ॥
दोहा -- जिनवाणी की स्तुति करै, अल्प बुद्धि परमान । 'पन्नालाल विनती करै, दे माता मोहि ज्ञान ॥ हे जिनवाणी भारती, तोहि जपू दिन रैन । जो तेरा शरणा गहै, सुख पावै दिन रैन ॥ जा वानी के ज्ञानतै, सूझे लोकालोक । सो वानी मस्तक चढ़ो, सदा देत हों धोक ॥
वर्णी वाणी की डायरी से
ससार की दशा जो है वही रहेगी इसको देख कर उपेक्षा करनी चाहिये । केवल स्वास्म गुण और दोषों को देखो। उन्हें देख कर गुण को ग्रहण करो और दोपों को त्यागो ।
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जेन पूजा पाठ सग्रह
पं० भूधरकृत दूसरौ स्तुति अहो ! जगतगुरु देव, सुनियो अरज हमारी। तुम हो दीनदयाल, मै दुःखिया संसारी ॥ इस भव वन में वादि, काल अनादि गमायो। भ्रमत चहूँगति माहिं, सुख नहि दुःख बहु पायो ।। कर्म महारिपु जोर, एक न कान करै जी। मन मान्या दुःख देहि, काहू सो नाहि डरै जी । कबहूँ इतर निगोद, कबहूँ नर्क दिखावें। सुरनर-पशुगति माहि, बहुविधि नाच नचावें ॥ प्रभु इनके परसग, भव भव माहि बुरे जी। जे दुःख देखे देव । तुमसो नाहिं दुरे जी ।। एक जनम की बात, कहि न सको सुनि स्वामी। तुम अनन्त परजाय, जानत अन्तरयामी । मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे। कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे ।। ज्ञान महानिधि लूटि, रङ्क निबल करि डारयो। इन ही तुम मुझ माहि, हे जिन ! अन्तर पार्यो । पाप पुण्य मिलि दोइ, पायनि बेडी डारी। तन कारागृह माहि, मोहि दिये दुःख भारी ॥
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इनको नेक विगार, मैं कछु नाहिं कियो
बिन कारन जगवधु ! बहुविधि बैर लियो ""."
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अब आयो तुम पास, सुनि कर सुजस तिहारो । नीति निपुन महाराज, कीजे न्याय हमारो ॥ दुष्टन देहु निकार, साधुन को रख लीजै । विनवै "भूधरदास" हे प्रभु! ढील न कीजै ॥
२९४
मंगलाष्टक (वृन्दावन कृत भाषा )
सघ सहित श्री कुन्दकुन्द गुरु, वन्दन देत गये गिरनार । बाद परयो तह सराय मतिसों, साक्षी बदी अम्बिकाकार || 'सत्य' पद्य निरयध दिगम्बर, कही सुरी तह प्रकट पुकार । सो गुरुदेव वसौ टर मेरे, विधन हरण मद्गल करतार ॥ १ ॥
स्वामी समन्तभद्र मुनिवरसों, शिवकोटी हट कियो अपार । चन्दन करो शम्भु पिण्डी को, तब गुरु रच्यो स्वयभू भार ॥ चन्दन करत पिण्डिका फाटी प्रगट भये जिनचन्द उदार || सो० २ ॥
श्री अकलङ्कदेव मुनिवरसों, वाद रच्यौ जहं बौद्ध विचार । तारादेवी घट में थापी, पटके ओट करत उच्चार ॥ जीत्यो न्यादवादवल मुनिवर, बौद्ध बोध तारामद टार || सो० ३ ॥ श्रीमत विद्यानन्दि जबे, श्री देवागम थुति सुनी सुधार । अर्थ हेतु पहुँच्यो जिनमन्दिर, मिल्यो अर्थ तह सुख दातार ॥
सब त परम दिगम्बर को धर, परमतको कीनों परिहार || सो० ४ ॥
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बैराठ सं
बन्द कियो वालों में वही प्र तत्र हरे,
श्रीमत नानतुङ्ग मुनिवर पर, भूप कोप जब थियो गंवार | भकार गुरु रच्यो उद्वार || किनो जयकार | नो० ॥
२९:
को बुद्धि नृपतिहिं दार |
श्रीमत वादिराज मुनिवरों श्रावक सेठ को दिई
मेरे गुरु कञ्चन तत्वार् ॥
तबहीं एकीभाव रच्यो गुरु तन सुरण बुद्धि भयो अपार ॥ नो०६ ॥
श्रीमत कुमुद्रचन्द्र कुत्रिम वापर वह नमा मलार तत्र ही श्रीकल्याग धानधुनि श्रीगुरु रक्तरची अपार ॥ तब प्रतिमा श्रीणश्वताय की
नयी त्रिभुत्र जयकार | सो० ७ ॥
श्रीमद मवचन्द्र गुरुनों जब केतुन मोहि
विजीपति इति की पुकार | अतिशय के पदो मेरो कार || दब गुरु प्रव ब्लॉकिन अतिशय तुरंत हरयो नानो स्वभार | सो गुरुदेव वर्ते, विक्त हर
लान || सो० ८ ॥
दोहा - विश्व हरण नहल करण वाहिद फल दातार । 'इन्द्रावतं अष्टक रच्यो, मेरो कण्ठ सुखकार |
वर्गी - वाणी (डायरी) से
से कहने में करो।
"
करो।
■ोच्छा
किसी से राग-द्वेष
राग-द्वेष के बेग ने लाकर अन्य प्रकार मत करो, वही कारमा के सुधार की शिक्षा है।
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सुप्रभात स्तोत्रम् यत्स्वर्गावतरोत्सवे यद्भगवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यदीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिलज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपतेः पूजाद्भुतं तदभवैः, संगीतस्तुतिमंगलैः प्रसरतान्मे सुप्रभातोत्सवः ॥ १॥
श्रीमन्नतामरकिरीटमणिप्रभाभि रालीढ़पादयुग दुर्धरकर्मदूर। श्रीनाभिनंदनजिनाजितसंभवाख्य त्वयानतोऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥२॥ छत्रत्रयप्रचलचामरवीज्यमान, देवाभिनंदनमुने सुमते जिनेन्द्र । पद्मप्रभारुणमूणियु तिभासुरांग। त्व०॥३॥ अर्हन् सुपार्श्व कदलीदलवर्णगात्र, प्रालेयतारगिरिमौक्तिकवर्णगौर । चन्द्रप्रभ, स्फटिकपाण्डुर पुष्पदन्तात्व०॥ ४ ॥ सन्तप्तकाञ्चनरुचे जिनशीतलाख्य, श्रेयन्विनष्टदुरिताष्टकलंकपक । बन्धकबन्धुररुचे जिनवासुपूज्य ।त्व०॥ ५ ॥ उद्दण्डदर्पकरिपो विमलामलांग स्थेमन्ननन्तज़िदनन्त सुखाम्बुराशे। दुष्कर्मकल्मषविवर्जित धर्मनाथा त्व०॥ ६ ॥ देवामरीकुसुमसन्निभ शांतिनाथ कुन्थो दयागुणविभूषणभूषितांग।
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जैन पूजा पाठ सा
देवाधिदेव भगवन्नरतीर्थनाथ। त्व० ॥ ७ ॥ यन्मोहमल्लमदभञ्जनमल्लिनाथ क्षेमकगेऽवितथशासनसुव्रताव्य । यत्सम्पदाप्रशमितो नमिनामधेयं । स्व० ॥ ८ ॥ तापिच्छगुच्छरुचिरोज्ज्वल नेमिनाथ घोरोपसर्गविजयिन् जिन पार्श्वनाथ स्याद्वादसूक्तिमणिदर्पणवर्द्धमान। त्व०॥६॥ प्रालेयनीलहरितारुणपीतभासं. यन्मूर्तिमव्यय सुखावसथं मुनीन्द्राः । ध्यायन्ति सप्ततिशतं जिनवल्लभानांत्व०॥१०॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं मांगल्यं परिकीर्तितम् । चतुर्विंशतितीर्थानां सुप्रभातं दिने दिने ॥११॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं श्रेयः प्रत्यभिनन्दितम् । देवता ऋषयः सिद्धाः सुप्रभातं दिने दिने॥१२॥ सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मनः । येन प्रवर्तितं तीर्थं भव्यसत्त्वसुखावहम् ॥ १३ ॥ सुप्रभातं जिनेंद्राणां ज्ञानोन्मीलितचक्षुषाम् । अज्ञानतिमिरान्धानां नित्यमस्तमितो रविः ॥१४॥ सुप्रभातं जिनेन्द्रस्य, वीरः कमल लोचनः । येन कर्माटवी दग्धा, शुक्लध्यानोग्रवह्निना ॥१५॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं सुकल्याणं सुमंगलम् । त्रैलोक्यहितकर्तृणां जिनानामेव शासनम् ॥१६॥
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अद्याष्टकस्तोत्रम्
अद्य
अद्य मे सफलं जन्म नेत्रे च सफले मम । त्वामद्राक्षं यतो देव हेतुमक्षयसंपदः ॥ १ ॥ संसार-गंभीर-पारावारः सुदुस्तरः । सुतरोऽयं क्षणेनैव जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ २ ॥ अद्य मे चालितं गात्रं नेत्रे च विमले कृते । स्नातोऽहं धर्म - तीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥३॥ अद्य मे सफलं जन्म प्रशस्तं सर्वमंगलम् । 'संसारार्णव तीर्णोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ४ ॥ अद्य कर्माष्टक - ज्वालं विधूतं सकपायकम् । दुर्गते विनिवृत्तोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ५ ॥ अद्य सौम्या ग्रहाः सर्वे शुभायैकादश-स्थिताः । नष्टानि विम-जालानि जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥६॥ अद्य नष्टो महाबन्धः कर्मणां दुःखदायकः । सुख-सङ्ग समापन्नो जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥७॥ अद्य कर्माष्टकं नष्टं दुःखोत्पादन -कारकम् । सुखाम्भोधि-निमग्नोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ८ ॥ अद्य मिथ्यान्धकारस्य हन्ता ज्ञान- दिवाकरः । उदितो मच्छरीरेऽस्मिन् जिनेन्द्र तव दर्शनात ॥६॥ अद्याहं सुकृती भूतो निर्धूताशेषकल्मपः । भुवनत्रय - पूज्योsहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥१०॥ अद्याष्टकं पठेद्यस्तु गुणानन्दित-मानसः । तम्य सर्वार्थसंसिद्धिर्जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ११॥
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जैन पूजा पाठ प्रह
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मङ्गलाष्टकम् श्रीमन्नम्र-सुरासुरेन्द्र मुकुट प्रद्योत-रतप्रभा
भास्वत्पाद-नखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः । ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः
स्तुत्या योगिजनैव पञ्चगुरवः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥१॥ सम्यग्दर्शन-घोष-वृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं
मुक्ति-श्री-नगराधिनाथ-जिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रदः । धर्मः सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं चैत्यालयं श्रयालयं
प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥२॥ नामेयादि-जिनाधिपास्त्रिभुवनख्याताश्चतुर्विंशतिः
श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश । ये विष्णु-प्रतिविष्णु-लाङ्गलधराः सप्तोत्तरा विंशतिः
त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिपष्टिपुरुषाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥३॥ देव्योऽष्टौ च जयादिका द्विगुणिता विद्यादिका देवताः
श्रीतीर्थङ्करमातृकाध जनका यक्षाश्च यक्ष्यस्तथा । द्वात्रिंशत्रिदशाधिपास्तिथिसुरा दिक्कन्यकाश्चाष्टधा
दिक्पाला दश चेत्यमी सुरगणाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम्॥४॥ ये सर्वोषधऋद्धयः सुतपसो वृद्धिंगताः पञ्च ये
ये चाष्टाङ्गमहानिमित्तकुशला येऽष्टाविधाश्चारणाः ।
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पञ्च ज्ञानधरास्त्रयोऽपि वलिनो ये बुद्धिऋद्धीश्वराः सप्तैते सकलाचिंता गणभृतः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥५॥ कैलासे वृषभस्य निर्वृतिमही वीरस्य पावापुरे
चम्पायां वसुपूज्यतुग्जिनयतेः सम्मेद शैलेऽर्हताम् । शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वरस्थार्हतो निर्वाणावनयः प्रसिद्ध विभवाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥६॥ ज्योतिर्व्यन्तर-भावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ तथा
जम्बू-शाल्मलि चैत्यशाखिपु तथा वक्षार- रूप्याद्रिषु । इष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे
शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ||७|| यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो
यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानभाकू । यः कैवल्यपुरप्रवेशमहिमा संभावितः स्वर्गिभिः
कल्याणानि च तानि पञ्च सततं कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ||८||
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इत्थं श्रीजिनमङ्गलाष्टकमिदं सौभाग्यसंपदं कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थङ्कराणामुपः । ये शृण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैर्धर्मार्थकामान्विता
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लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिता निर्वाणलक्ष्मीरपि ॥६॥ इति मङ्गलाकम्
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ज्न पूजा पाठ साह
दृष्टाष्टकस्तोत्रम् दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि
भव्यात्मनां विभव-संभव-भूरिहेतु । दुग्धाब्धि-फेन-धवलोज्ज्वल-कूटकोटी
नद्ध-ध्वज-प्रकर-राजि-विराजमानम् ॥१॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भुवनैकलक्ष्मी
__ धाम िवर्द्धित-महामुनि-सेव्यमानम् । विद्याधरामर-वधूजन-मुक्तदिव्य
पुष्पाजलि-प्रकर-शोभित-भूमिभागम् ॥२॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवनादिवास
विख्यात नाक-गणिका-गण-गीयमानम् । नानामणि-प्रचय-भासुर-रश्मिजाल
ब्यालीढ-निर्मल-विशाल-वातजालम् ॥३॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं सुर-सिद्ध-यक्ष
गन्धर्व-किन्नर-करार्पित-वेणु-वीणा-। संगीत-मिश्रित-नमस्कृत-धारनादै
रापूरिताम्बर-तलोरु-दिगन्तरालम् ॥ ४ ॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं विलसद्विलोल
मालाकुलालि-ललितालक-विभ्रमाणम् । माधुर्य वाद्य-लय-नृत्य-विलासिनीनां
लीला-चलद्वलय-नू पुर-नादनम्यम् ।। ५ ।।
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दृष्टं जिनेन्द्रभवनं मणि-रत्त-हेम
सारोज्ज्वलैः कलश- चामर-दर्पणाद्यैः ।
सन्मंगलैः सततंमष्टशत-प्रभेदै
विभ्राजितं विमल - मौक्तिक- दामशोभम् ॥ ६ ॥
दृष्टं जिनेन्द्रभवनं वरदेवदारु
कर्पूर- चन्दन - तरुष्क-सुगन्धिधूपैः । मेधायमानगगने पवनाभिवात
चञ्चञ्चलद्विमल- केतन - तुङ्ग- शालम् ॥ ७ ॥
दृष्टं जिनेन्द्रभवनं धवलातपत्र
च्छाया-निमग्न-तनु-यक्षकुमार-वृन्दैः । दोधूयमान- सित - चामर - पंक्तिभासं
भामण्डल-द्युतियुत-प्रतिमाभिरामम् ॥ ८ ॥
दृष्टं जिनेन्द्रभवनं विविधप्रकार
पुष्पोपहार - रमणीय- सुरत्नभूमिः । नित्यं वसन्ततिलकश्रियमादधानं
सन्मंगलं सकल- चन्द्रमुनीन्द्र- वन्द्यम् || ६ |
दृष्टं मयाद्य मणिकाञ्चन-चित्र- तुङ्ग
सिंहासनादि - जिनबिम्ब-विभूतियुक्तम् । चैत्यालयं यदतुलं परिकीर्तितं मे
सन्मंगलं सकल- चन्द्रमुनीन्द्र- वन्द्यम् ॥१०॥
इति दृष्टाष्टकम्
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पैर पूजा पा संघ
एकीभावस्तोत्रम्..
[नीवादिराज] एकोमा गत इव मया यः स्वयं कर्म-वन्धो
घोरं दुःखं भव-भव-गतो दुर्निवारः करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिन-रखे भक्तिरु मुक्तये चेत्
जेतुं शस्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतुः॥१॥ ज्योतीरूपं दुरित-निवह-ध्वान्त-विध्वंस-हेर्नु
त्वामेवाहुर्जिनवर चिरं तत्त्व-विद्याभियुक्ताः। चेतोबासे भवसि च मम स्फार मुद्भासमान
स्तस्मिनंहः कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे ॥२ आनन्दा-लपित-बदनं गद्गद चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढ-मनाः स्तोत्र-मन्त्रैर्भवन्तम् । तस्यास्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक मध्यात्
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याध्यः कान्वेयाः ॥३॥ प्रागेवेह विदिव-भवनादेप्यता भव्य-पुण्यात्
पृथ्वी-चक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्ववेदम् । ध्यान-द्वारं मम रुचिकरं स्वान्त-गेहं प्रविष्टः __तन्कि चित्र जिन वपुरिदं यत्सुवीकरोषि ॥४॥ लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्निनिमित्वेन बन्धु
स्त्वय्येशसौ सकल-विषया शत्तिरप्रत्यनीका । भक्ति फीता चिरमधिवसन्मामिकां चित्र-शव्यां मव्युत्पन्नं कथमिव तत. क्लेश-युथं तहेधाः |५||
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जन्माटव्यां कथमपि मया देव दीर्घ भ्रमित्वा
प्राप्तवेयं तव नय-कथा स्फार-पीयूष-बापी। तस्या मध्ये हिमकर-हिमव्यूह-शीते नितान्त
निर्मनं मां न जहति कथं दुःख-दायोपतापाः ॥६॥ पाद-न्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकी
हेमाभासो भवति सुरभिः श्रीनिवासश्च पद्मः। सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेष मनो मे
श्रेयः किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति ॥७॥ एश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्ति-पाच्या पियन्तं
कारण्यात्पुरुषमसमानन्द-धाम प्रविष्टम् । त्वां दुर्वार-स्मर-मद-हरं त्वत्प्रसादैक-भूमि
ऋराकाराः कथमिवरुजा-कण्टका निलुंठन्ति ।।८।। पाषाणात्मा तदितरसमः केवलं रत्न-मूर्तिः
मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्न-वर्गः। दृष्टि-प्राप्तो हरति स कथं मान-रोगं नराणां
प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्ति-हेतुः ॥६॥ हृद्यः प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्ति-शैलोपवाही
सद्यः पुंसां निरवधि-रुजा-धूलिवन्धं धुनोति । ध्यानाहूतो हृदय-कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्टः
तस्याशक्यः क इह भवने देव लोकोपकारः ॥१०॥ जानासि त्वं मम भव-भवे यच यादृक्च दुःखं .
जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवनिष्पिनष्टि ।
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जैन पूजा पाठ सग्रह
त्वं सर्वेशः सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम् ॥११॥ प्रापवं तव नुति-पदैर्जीवकेनोपदिष्टैः
पापाचारी मरण-समये सारमेयोऽपि सौख्यम् । कः सन्देहो यदुपलभते वासब-श्री-प्रभूत्वं
जल्पञ्जाप्यमणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कार-चक्रम् ॥१२॥ शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा
भक्तिनों चेदनवधि-सुखावञ्चिका कुश्चिकेयम् । शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसो
मुक्ति-द्वारं परिदृढ-महामोह-मुद्रा-कवाटम् ॥१३॥ प्रच्छन्नः खल्वयमघमयैरन्धकारैः समन्तात्
__ पन्था मुक्तः स्थपुटित-पदः केश-गतै रगाथैः । तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देव तत्त्वावभासी
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारती-रत्न-दीपः ।।१४।। आत्म-ज्योतिनिधिरनवधिद्रष्टगनन्द-हेतुः
कर्म-क्षोणी-पटल-पिहितोयोऽनवाप्यः परेषाम् । हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिन्तस्तं भवद्भक्तिभाजः
स्तोत्र न्ध-प्रकृति-परुषोदाम-धात्री-सनित्रः॥१५॥ प्रत्युत्पन्ना नय-हिमगिरेरायता चामृताब्धेः
या देव त्वत्पद-कमलयोः संगता भक्ति-गगा। चेतस्तस्या मम रुजि-वशादालत क्षालितांहः
कल्माष यद्भवति किमियं देव सन्देह-भूमिः ॥१६॥
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जैन पूजा पाठ मप्र
कोपावेशो न तर न तब स्वापि देव प्रसादो
च्याप्तं तम्तव हि परमोपेच येवानपेतम् । आज्ञावश्यं तदपि भुवन संनिधिरहारी
क्यैवंभूतं भुवन-तिलकं प्राभवं त्वत्परेपु ॥ २२ ॥ देव स्तोतुं त्रिदिव-गणिका-मण्टली-गीत-कीर्ति
तोतूति त्वा सकल-विषय-ज्ञान-मृति जनो यः । तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहर्ति पन्थाः ____तत्त्वग्रन्थ-मरण-विषये नय सोमूर्ति मर्त्यः ॥२३॥ चित्ते सन्निग्यधि-सुख-ज्ञान-दृग्वीर्य-रूपं
देव त्या यः समर-नियमादाढरेण स्तवीति । श्रेयोगार्ग पर मुशर्त तागता पृयित्वा
कल्याणानां भवति विपयः पञ्चधा पञ्चितानाम् ॥२४ भक्ति-प्रह-महेन्द्र-जि- ललीतीने न क्षमाः
सूक्ष्म-ज्ञान-शोऽपि संय्यभूतः के हन्त मन्दा वयम् । अस्माभिः स्नान-हले तु परस्त्वय्याठरस्तन्यते
स्वात्माधीन-सुखैषिणां स खलु नः कल्याण-कल्पद्रुमः॥ वादिराजमनु शाब्दिक-लोको वादिराजमनु तार्किक-सिंहः । वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्य-सहायः॥
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ये योगिनामपि न यान्ति गुणाम्नवेश वक्तु कथ भवति तेषु ममावकाशः । जाता तदेवमममीचित कारितयं
जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पचिणोऽपि ॥ ६॥ आस्तामचिन्त्य महिमा जिन संस्तवस्ते
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपो पहत - पान्यजनान्निदावे
प्रीणाति पद्म-सरसः सरसोऽनिलोऽपि ||७| द्वर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवन्ति
जन्तोः चणेन निविठा अपि कर्म चन्याः । सो भुजङ्गममया व मध्य-भाग
मभ्यागते वन - शिखण्डिनि चन्दनस्य || ||
मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र रौद्रैरुपद्रव-शतैस्त्वयि गो-स्वामिनि म्फुरित-तेजसि दृष्टमात्रे
ज्न पूजा पाठ ह
वीचितेऽपि ।
चौर रिवाशु पशवः ग्रपलायमानैः ॥६॥
त्वं तारको जिन कथ भविनां त एवं त्वामुद्वहन्ति हृदयेन
हृदयेन यदुत्तरन्तः ।
यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेप नून
मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥ १० ॥ यस्मिन्हर-प्रभृतयोऽपि हत - प्रभावाः
सोऽपि त्वया रति-पतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन
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पीतं न कि नदापि दुर्धर-बाडयन ॥११॥ पामिननल्प-गरिमाणमपि प्रपन्नाः
न्यां जन्तवः कथमहो हृदये दधानाः । जन्मांदधि लघु नरन्त्यनिलाघवेन
निन्योन इन्न मातां यदि बा प्रभावः ॥१२॥ जोधम्बया पदि विमा प्रथमं निरस्नो।
पम्नान्नुदा बद फयं फिल कर्म-चौराः। सोपन्यमुत्र पदि चा शिशिरापि लोके
नाल-दुमाणि विपिनानि न कि हिमानी॥१३॥ न्या योगिनो जिन सदा परमात्माप
मन्वेषपन्नि दयाम्मुज-कोप-देशे। नग्य निमरमचयटि रा किमन्य.
टसम्य मम्मव-पदं ननु कर्णिकायाः ॥१४॥ पानाजिनेश भरनो मरिनः चणेन
द विहाय परमात्म-दशां मजन्ति । नीबानलादपल-भावमपाम्य लोके
नामीकरत्वमचिगदिव धातु-भेदाः ॥१५|| अन्नः मंटर जिन यस्य विभाव्यगे वं
मयः कथं तदपि नाशयसे शरीरम् । एननम्बर एमथ मध्य-विवर्तिनी हि
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥१६॥ आन्मा मनापिभिरयं बदभेद-बुद्धधा
ध्यातां जिनेन्द्र भवतोह भवत्प्रभावः ।
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जैन पूजा पाठ संबर
पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं
किं नाम नो विप-विकारमपाकरोति ॥१७॥ त्वामेव वीत-तमसं परमादिनोऽपि
नूनं विभो हरि-हरादि-धिया प्रपन्नाः । किं काच-कामलिभिरीश सितोऽपि शहो।
नो गृह्यते विविध-वर्ण-विपर्ययेण ॥१८॥ धर्मोपदेश-समये सविधानुभावाट्
आस्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि
किं वा विवोधमुपयाति न जीव-लोकः ॥१६॥ चित्रं विभो कथमवाड्मुख-वृन्तमेव
विष्वक्पतत्यविरला मुर-पुप्प-वृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश
गच्छन्ति नूनमघ एव हि बन्धनानि ॥२०॥ स्थाने गभीर-हृदयोदधि-सम्भवायाः
पीयूपतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परम-सम्मद-सङ्ग-भाजरे
भव्यो व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम् ।।२१॥ स्वामिन्सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो
मन्ये वदन्ति शुचयः सुर-चासरौघाः । येऽस्मै नति विदधते मुनि-पुङ्गवाय
ते नूनमूर्ध्व-गतयः खलु शुद्ध-भावाः ॥२२॥ श्यामं गभीर-गिरमुज्ज्वल-हेम-रत्न
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मिसनन्धमि भन्य-शिरादिनस्त्वाम्। आलोस्पन्ति रमन नदन्तमुनः
चामीकराद्रि-शिरसीर नवाम्बुवाहम् ॥२३॥ उगहना तप शिति-प्रति-मटलेन
लुमन्द-स्वपिशोपतलभूष मांनिष्पनापि यदि या तप वीतराग
नीरागत घननि फोन सचेतनोऽपि ॥२४॥ मी माः प्रमादमध्य भजनमेन____ मागन्य निर्यनि-पूरी प्रति सार्थवारम् । एकनिवेदयति देव जगत्त्रयाय
मन्ये नदनामिनमः गुरदुन्दुभिस्ते परशा गोगिता भरता भुवनेगु नाथ
नागन्वितो विधुरयं विहताधिकारः। मृत्ता-कलाप फलितो-मितातपत्र
व्याजानिया नृत-तनुर्बुवमम्युपेतः ॥२६॥ म्येन अपरित-जगत्त्रय-पिण्डितेन
कान्ति-प्रताप-यशसामिव संचयेन । माणिक्य-हम-रजत-प्रसिनिमिवेन
सालत्रयेण भगवन्नभितो विभासि ।। २७ ।। दिव्य-मजो जिन नमत्रिदशाधिपाना
मुत्सृज्य रख-रचितानपि मौलि-बन्धान । पाटी श्रयन्ति भरतो यदि वापरत्र
त्वत्सदमे सुमनसो न रमन्त एव ॥ २८॥
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त्वं नाथ जन्मजलधेर्विपराड् मुखोऽपि यत्तारयस्यसुमतो
निज-पृष्ठ-लग्नान् ।
युक्तं हि पार्थिव निपस्य सतस्तवैव चित्रं विभो यदसि कर्म विपाक-शून्यः ||२६||
विश्वश्वरोऽपि जन- पालक दुर्गतस्त्वं
किं वाक्षर - प्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश । अज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्व-विकास- हेतुः ||३०|| प्राग्भार-सम्भृत-नभांसि रजांसि रोषाद्
उत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥ ३१ ॥ यद्गर्ज दूर्जित-घनौघमदभ्र - भीम
भ्रश्यत्तडिन्मुसल-मासल-घोरधारम् ।
दैत्येन मुक्तमथ दुस्तर वारि द
तेनैव तस्य जिन दुस्तर - वारि कृत्यम् ||३२||
ध्वस्तोर्ध्व-केश-विकृताकृति-मर्त्य-मुण्ड
प्रालम्बभृद्भयदवक्त्र - विनिर्यदग्निः । प्रेतव्रजः प्रति भवन्तमपीरितो यः
जन पूजा पाठ सप्रह
सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भव- दुःख हेतुः ॥ ३३ ॥
धन्यास्त एव भुवनाधिप ये त्रिसन्ध्य
मारावयन्ति विधिवद्विधुतान्य-कृत्याः ।
भक्त्योल्लसत्पुलक-पक्ष्मल- देह-देशाः
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पाट- द पिभो भवि अन्मभाजः ॥३४॥ अम्मिापार-मपन्यारि-नियों सुनीश ।
मन्ये न में शवण-गोचरलां गवोसि । आरुणिते तु नप गोत्र-पवित्र-मन्नं
किंवा पिपरिपधरी सपिधं समेति ॥ ३५ ॥ उन्मान्तरंशपि तप पाद-युगं न देव
मन्ये मया महितमादित-दान-रचम् । तनः जन्मनि सुनीश पराभवानां
जातो निक्लनमहं मथिताशयानाम् ॥ ३६ ॥ नन में मोद-विमिरा-लोचनन
पृय विमा सादपि प्रपिलोक्तिोऽसि । ममाविधी विधुरयन्ति दि मामनः
प्रोपत्प्रपन्ध-गतपः फयमन्यधने ।। ३७ ।। पाणितोपि महितोऽपि निरोपितोऽपि
नूनं न पेनसि मया विधुतोऽसि भक्त्या । जातोमि तेन जन-रान्धव दुःखपानं
यम्मात्त्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः ॥३८॥ त्वं माय दुःखि-जन-वत्सल हे शरण्य
कारण्य-पुण्य-यसते पशिनां चरेण्य । मात्या नते मयि महेश दयां विधाय
दुःसाहरोहलन-तत्परतां विधेहि ॥३६॥ निसिम्य-सार-शरणं शरणं शरण्य.
मासाय मादित-रिपु प्रथितावदानम् ।
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त्वत्पाद - पङ्कजमपि प्रणिधान वन्ध्यो वन्ध्योऽस्मि चेद्भवन-पावन हा हतोऽस्मि ॥ ४० ॥ देवेन्द्र - वन्द्य विदिताखिल-वस्तुसार संसार-तारक विभो भुवनाधिनाथ | त्रायस्त्र देव करुणा-हद मा पुनीहि
सीदन्तमद्य भयद- व्यसनाम्बु- गशे ॥४६॥
यद्यस्ति नाथ भवदङ्घ्रि- सरोरुहाणा
भक्तः फलं किमपि सन्तत - सञ्चितायाः । तन्मे त्वदेक- शरणस्य शरण्य भूया
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि || ४२ || इत्थं समाहित-धियो विधिवजिनेन्द्र
सान्द्रोल्लसत्पुलक- कञ्चुकिताङ्गभागाः । त्वद्भिम्ब-निर्मल-मुखाम्बुज-बद्ध-लच्या
ये संस्तवं तव विभो रचयन्ति भव्याः || ४३॥
जन- नयन-'कुमुदचन्द्र' प्रभास्वराः स्वर्ग- सम्पदो मुक्त्वा । ते विगलित-मल-निचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥ १४४ ॥
स्वाध्याय
■ स्वाध्याय आत्मशान्ति के लिये है, केवल ज्ञानार्जन के लिये नहीं । ज्ञानार्जन के लिये तो विद्याध्ययन है । स्वाध्याय तप है । इससे संवर और निर्जरा होती है ।
■ कल्याण के इच्छुक हो तो एक घण्टा नियम से स्वाध्याय में लगाओ ।
- 'वर्णो वाणी' से
भन
(
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विपापहारस्तोत्रम्
[श्रीधनक्षय] स्वात्म-म्थितः सर्व-गतः समस्त-व्यापार-वेदी विनिवृत्त-सङ्गः। प्रवृहकालोऽप्यजरो वरेण्यः पायादपायात्पुरुषः पुराणः । परैरचिन्न्यं युग-भारमेकः स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्यः । स्तुत्योऽय मेऽसौ वृपभो न भानोः किमप्रवेशे विशति प्रदीपः।। तत्याज शक्रः शकनाभिमानं नाहं त्यजामि स्तवनानुवन्धम् । स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थ वातायनेनेव निरूपयामि ॥ त्वं विश्वदृश्वा सकलेरदृश्यो विद्वानशेपं निखिलैरवेद्यः । वक्त कियान्कीदृश इत्यशक्यः स्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु।।। व्यापीडित बालमिवात्म-दोर्परुल्लापता लोकमवापिपस्त्वम् । हिताहितान्वेपणमान्यभाजः सर्वस्य जन्तोरसि वालवैद्यः ।। दाता न हर्ता दिवसं विवस्वानद्यश्व इत्यच्युत दर्शिताशः । संव्याजमेवं गमयत्यशक्तः क्षणेन दत्सेऽभिमत नताय ॥६॥ उपति भक्त्या सुमुखः सुखानि त्वयि स्वभावाद्विमुखश्च दुःखम् । सदावदात-यतिरेकरूपस्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि ||७|| अगाधतान्धेः स यतः पयोधिर्मरोश्च तुङ्गा प्रकृतिः स यत्र । द्यावापृथिव्योः पृथुता तथैव व्याप त्वदीया भवनान्तराणि ।। तवानवस्था परमार्थ-तत्त्वं त्वया न गीतः पुनरागमश्च । दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैपीविरुद्ध-वृत्तोऽपि समजसस्त्वम् ।। स्मरः मुदग्धो भवतेव तस्मिन्नद्भलितात्मा यदि नाम शम्भः । अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णुः कि गृह्यते येन भवानजागः ।।
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जन पूजा पाठ सह
स नीरजाः स्यादपरोऽघवान्वा तद्दोपकीयैव न ते गुणित्वम् । स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥ कर्मस्थितिं जन्तुरनेक-भूमिं नयत्यमु सा च परस्परस्य । त्वं नेतृ-भावं हि तयोर्भवान्धौ जिनेन्द्र नौ- नाविकयोरिवाख्यः॥ सुखाय दुःखानि गुणाय दोषान्धर्माय पापानि समाचरन्ति । तैलाय बालाः सिकता-समूहं निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीयाः ॥ विपापहारं मणिमौषधानि मन्त्र समुद्दिश्य रसायनं च । भ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति पर्याय-नामानि तवैव तानि ॥ चित्ते न किञ्चित्कृतवानसि त्वं देवः कृतश्चेतसि येन सर्वम् । हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्र सुखेन जीवत्यपि चित्तवाह्यः ॥ त्रिकाल-तत्त्व त्वमवैस्त्रिलोकी स्वामीति संख्या-नियतेरमीषाम् । बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यंस्तेऽन्येऽपि चेद्व्याप्स्यदमूनपीदम्।। नाकस्य पत्युः परिकम रम्यं नागम्यरूपस्य तवोपकारि । तस्यैव हेतु: स्वसुखस्य भानोरुद्विभ्रतच्छत्रमिवादरेण ॥ क्वोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेशः स चेत्किमिच्छा - प्रतिकूल-बादः । वासौ क वा सर्वजगत्प्रियत्व तन्नो यथातथ्यमवेविचं ते ॥ तुङ्गात्फलं यत्तदकिञ्चनाच प्राप्यं समृद्धान धनेश्वरादेः । निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाद्रनैकापि निर्याति धुनी पयोधेः ॥ त्रैलोक्य-सेवा-नियमाय दण्डं दवे यदिन्द्रो विनयेन तस्य । तत्प्रातिहार्यं भवतः कुतस्त्यं तत्कर्म - योगाद्यदि वा तवास्तु ॥ श्रिया परं पश्यति साधु निःस्वः श्रीमान्न कश्चित्कृपणं त्वदन्यः । यथा प्रकाश-स्थितमन्धकारम्थायीक्षतेऽसौ न तथा तमःस्थम्।।
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स्वष्टाद्वानः श्वास-ननमभाजि प्रत्यचमात्मानुभवेऽपि मृढः । किं चासिल-गय-निवर्ति योधस्वरूपमभ्यक्षमवैति लोकः ॥ तस्यात्मजन्नम्य पितेति देव त्यां वैज्वगायन्ति कुल प्रकाश्य । तेज्यापि नन्चारमनमित्यनस्यं पाणी कृत हेम पुनस्त्यजन्ति ॥ दत्तभिभृताः सुरासुरास्तस्य महान् स लाभः । मोहस्य मोदस्त्वयि की विरोद्धुम लस्य नाशो चलवद्विरोधः ॥ मार्गस्वको दर विक्तंतुनीनां गहनं परेण । सर्व मया रमिति रमन वंगा कदाचिद्भुजमालुलोक ।। स्वर्भानुर्वस्य निर्भुजम्भः कन्यान्तवातोऽम्बुनिधे विधानः । संसार-भोगग्य वियोग-भावो विपन पूर्वायुदयास्त्वदन्ये ॥ अज्ञानतस्त्वां नमतः फल यनज्ञानतोऽन्यं न तु देवतेति । हरिमणि काचधिया दधानस्तं तस्य बुद्धद्या वहतो न रिक्तः।। प्रशस्त वाचतुराः कपायेग्धम्य देवव्यवहारमाहुः । गतस्य दीपस्य हि नन्दिनत्वं दृष्टं कपालम्य च मङ्गलत्वम् ॥ नानार्थमेकार्थमस्त्वदुक्तं हितं वनस्तं निशमय्य वक्तुः । केन विभावयन्ति ज्वरेण मुक्तः सुगमः स्वरेण ॥ न क्वापि वाञ्छा पहने च वाक्तं काले कचिन्कोऽपि तथा नियोगः । न परयाम्यम्पुधिमित्युदंशुः स्वयं हि शीतद्युतिरभ्युदेति || गुणा गभीराः परमाः प्रसन्ना बहु-प्रकारा बहवस्तवेति । दृष्टोऽयमन्तः स्तवनेन तेषां गुणो गुणानां किमतः परोऽस्ति ॥
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स्तुत्या परं नाभिमत हि भक्त्या स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि । स्मरामि देवं प्रणमामि नित्य केनाप्युपायेन फल हि माध्यम् ॥ ततस्त्रिलोकी - नगराधिदेवं नित्यं पर ज्योतिरनन्त- शक्तिम् । अपुण्य-पापं पर- पुण्य-हेतु नमाम्यह वन्द्यमवन्दितारम् ॥ अशव्द मस्पर्शमरूप गन्ध त्वा नीरस तद्विपयावबोधम् । सर्वस्य मातारममेयमन्यैजिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि ॥ अगाध मन्यैर्मनसाप्यलङ्घयं निष्किञ्चन प्रार्थितमर्थवद्भिः । विश्वस्य पार तमदृष्टपार पति जनाना शरणं व्रजामि || त्रैलोक्य-दीक्षा-गुरवे नमस्ते यो वर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत् । प्राग्गण्डशैलः पुनरद्रि- कल्पः पश्चान्न मेरुः कुल-पर्वतोऽभूत् ॥ स्वयंप्रकाशस्य दिवा निशा वा न वाध्यता यस्य न वाधकत्वम् । न लाघवं गौरवमेकरूपं बन्दे विभुं कालकलामतीतम् ॥ इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छायातरं संश्रयतः स्वतः स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभः ॥ अथास्ति दित्सा यदि चोपरोधस्त्वय्येव सक्तां दिश भक्ति-बुद्धिम् करिष्यते देव तथा कृपां मे को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरिः ॥ वितरति विहिता यथाकथञ्चिजिन विनताय मनीषितानि भक्तिः त्वयि नुति - विषया पुनर्विशेषाद्दिशति सुखानि यशो'धनं जयं' च ॥
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जिनचतुर्विंशतिका
[श्री भूपाल कवि] श्रीलीलायतनं मही-कुल-गृहं कीर्ति-प्रमोदास्पदं
वाग्देवी-रति-केतनं जय-रमा-क्रीडा-निधानं महत् । स स्यान्सर्व-महोत्सवैक-भवनं यः प्रार्थितार्थ-प्रदं प्रातः पश्यति कल्प-पादप-दल-च्छायं जिनांघ्रि-द्वयम् ।। शान्तं वपुः श्रवण-हारि वचचरित्र
सर्वोपकारि तव देव ततः श्रतज्ञाः । संसार-मारव-महास्थल-रुन्द-सान्द्र
च्छाया-महीरुह भवन्तमुपाश्रयन्ते ॥२॥ स्वामिन्नध विनिर्गतोऽस्मि जननी-गर्भान्ध-कूपोदरा
दद्योद्घाटित-दृष्टिरस्मि फलवजन्मास्मि चाद्य स्फुटम् । वामद्राक्षमहं यदक्षय-पदानन्दाय लोक त्रयी
नेत्रेन्दीवर-काननेन्दुममृत-स्य न्दि-प्रभा-चन्द्रिकम् ॥३॥ निःशेष-त्रिदशेन्द्र-शेखर-शिखा-त्न-प्रदीपावली.
मान्द्रीभृत-मृगेन्द्र-विष्टर-तटी-माणिक्य-दीपावलिः । केयं श्रीः क च निःस्पृहत्वमिदमित्यहातिगस्त्वादशः ___ मर्व-ज्ञान-दशश्चरित्र-महिमा लोकेश लोकोत्तर ||४|| राज्य शासनकारि नाकपति यत्यक्तं तृणावज्ञया
हेला-निर्दलित-त्रिलोक-महिमा यन्मोह-मल्लो जितः। लोकालोकमपि स्वरोध-मुकुरस्यान्तः कृतं मैपाश्चर्य-परम्परा जिनवर
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दानं ज्ञान-धनाय दत्तमसकृत्पात्राय सद्वत्तये ___ चीर्णान्युग्र-तपांसि तेन सुचिरं पूजाश्च वह्वयः कृताः । शीलाना निचयः सहामलगुणः सर्वः समासादितो
दृष्टस्त्वं जिन येन दृष्टि सुभगः श्रद्धा-परेण क्षणम् ॥६॥ प्रज्ञा-पारमितः स एव भगवान्पारं स एव श्रुत
स्कन्धाब्धेगुण-रत्न-भूपण इति श्लाघ्यः स एव ध्रुवम् । नीयन्ते जिन येन कर्ण-हृदयालङ्कारतां त्वद्गुणाः
संसाराहि-विपापहार-मणयत्रैलोक्य-चूडामणे ||७|| जयति दिविज-वृन्दान्दोलितरिन्दुरोचिः
निचय-रुचिभिरुच्चैश्चामरैर्वीज्यमानः । जिनपतिरनुरज्यन्मुक्ति-साम्राज्य-लक्ष्मी
युवति-नव-कटाक्ष-क्षेप-लीलां दधानः ॥८॥ देवः श्वेतातपत्र-त्रय-चमरिरुहाशोक-भाश्चक्र-भाषा
पुष्पौघासार-सिंहासन-सुरपटहैरष्टभिः प्रातिहार्यः । साश्चर्यजमानः सुर-मनुज-सभाम्भोजिनी-भानुमाली
पायानः पादपीठीकृत-सकल-जगत्पाल-मौलिर्जिनेन्द्रः ।। नृत्यत्स्वर्दन्ति-दन्ताम्बुरुह-वन-नटन्नाक-नारी-निकायः
सद्यस्त्रैलोक्य-यात्रोत्सव-कर-निनदातोद्यमाद्यन्निलिम्पः। हस्ताम्भोजात-लीला-विनिहित सुमनोदाम-रम्यामर-स्त्री
काम्यः कल्याण-पूजाविधिषु विजयते देव देवागमस्ते ।। चक्षुष्मानहमेव देव भुवने नेत्रामृत-स्यन्दिनं , त्वद्वक्त्रेन्दुमतिप्रसाद सुभगैस्तेजोभिरुद्भासितम् ।
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येनालोकयता मयानति-चिराचक्षुः कृताथीकृतं द्रष्टव्यावधि-वीक्षण-व्यतिकर-व्याजम्भमाणोत्सवम् ॥ कन्तोः सकान्तमपि मल्लमति कश्चिन्
मुग्धो मुकुन्दमरविन्दजमिन्दुमौलिम् । मोघीकृत-त्रिदश-योपिदपाङ्गपातः
तस्य त्वमेव विजयी जिनराज मल्लः ॥१२॥ किसलयितमनल्पं त्वद्विलोकाभिलापात्
कुसुमितमतिसान्द्रं त्वत्समीप-प्रयाणान् । मम फलितममन्दं त्वन्मुखेन्दोरिदानी
नयन-पथमवाप्तादेव पुण्यद्रुमेण ॥१३॥ त्रिभुवन-वन-पुरप्यत्पुष्प-कोदण्ड-दर्प
प्रमर-दव-नवाम्भो-मक्ति-सूक्ति-प्रसूतिः । स जयति जिनराज-बात-जीमूत-संघः
___ शतमख-शिखि-नृत्यारम्भ-निर्वन्ध-बन्धुः॥१४॥ भूपाल-स्वर्ग-पाल-प्रमुख-नर-सुर-श्रेणि नेत्रालिमाला
लीला-चैत्यम्य चैत्यालयमखिलजगत्कौमुदीन्दोर्जिनम्य । उत्तंसीभूत-सेवाञ्जलि-पुट-नलिनी कुड्मलात्रिः परीत्य श्रीपाद-च्छाययापस्थितभवदवथुः सथितोऽस्मीव मुक्तिम् ।। देव त्वदंघ्रि-नख-मण्डल-दर्पणेऽस्मिन्
अव्ये निसर्ग-रुचिरे चिर-दृष्ट-वक्त्रः । २१
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श्रीकीर्ति- कान्ति-वृति-सङ्गम-कारणानि
नव्यो न कानि लभते शुभ- मङ्गलानि ||१६| जयति सुर-नरेन्द्र श्रीसुधा-निर्झरिण्याः
कुलधरणिधरोऽयं जैन - चैत्याभिरामः । प्रनिपुल-फल-धर्मानोकहाग्र-प्रवाल
प्रसर-शिखर- शुम्भत्केतनः श्रीनिकेतः ||१७|| विनमद मरकान्ता - कुन्तलाक्रान्त-कानि
स्फुरित-नख-मयस-चोतिताशान्तरालः । दिविज - मनुज -राज-व्रत-पूज्य-क्रमाजो
जयति विजित - कर्माराति-जालो जिनेन्द्रः ॥ १८॥ सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमङ्गलाय
द्रष्टव्यमरित यदि मङ्गलमेव वस्तु । अन्येन किं तदिह नाथ तवैव वस्त्रं
त्रैलोक्य मङ्गल-निकेतनमीक्षणीयम् ॥१६॥ त्वं धर्मोदय-तापसाश्रम - शुकस्त्वं काव्य-वन्य-क्रमक्रीडानन्दन - कोकिलस्त्वमुचितः श्रीमल्लिका - षट्पदः । त्वं पुन्नाग-कथारविन्द - सरसी-हंसस्त्वमु तंसकैः कैर्भूपाल न धार्यसे गुण-मणि-खमालिभिमौलिभिः || शिव-सुखमजर - श्री सङ्गमं चाभिलण्य स्वमभिनियमयन्ति क्लेश-पाशेन केचित् । वयमिह तु वचस्ते भूपतेर्भावयन्तः
तदुभयमपि शवल्लीलया निर्विशामः ||२१||
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क्षतिं मनः-शुद्धि- विधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शील वृतेर्विलंघनम् । प्रभोऽचितारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचार मिहातिसक्तताम् ॥ यदर्थ मात्रा- पदवाक्य- हीनं मया प्रमादाद्यदि किञ्च नोक्तम् । तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी सरस्वती केवलबोध-लब्धिम् ॥ वोधिः समाधिः परिणाम-शुद्धिः स्वात्मोपलब्धि: शिव-सौख्य-सिद्धिः । चिन्तामणि चिन्तित वस्तु दाने
त्वां वन्द्यमानस्य ममास्तु देवि ॥ ११ ॥ यः स्मर्यते सर्व - मुनीन्द्र-वृन्दैर्यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः । यो गीयते वेद-पुराण-शास्त्रैः स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ॥ यो दर्शन -ज्ञान- सुख-स्वभावः समस्त-संसार - विकार चाह्यः । समाधिगम्यः परमात्म-संज्ञः स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ॥ निपूदते यो भव- दुसजालं निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गतो योगि निरीक्षणीयः स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ॥ विमुक्ति-मार्ग-प्रतिपादको यो यो जन्म-मृत्यु- व्यसनाद्यतीतः । त्रिलोक-लोकी विकलो कलङ्कः स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ॥ कोडीकृताशेष-शरीरि-वर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ॥ यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तेः सिद्धो विबुद्धो धुत-कर्म-बन्धः । ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ॥
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नेपाल मह
न स्पृश्यने कर्म-फलइडापैः यो ध्वान्त-संबन्वितिन्म-श्मिः । निरञ्जनं नियमनकर्मझ नं दबमा शरण प्रपद्य ।। विमानते यत्र मर्गचिमाली न विद्यमान भुवनावमासि ! स्वान्म-चितं बोयमय-प्रकाशं तं देवमाप्तं शरणं प्रपच ।। विलोक्यमाने सति यत्र विस्वं विलायते स्पष्टमिदं विविक्तम् । शुद्ध शिवं शान्तमनाउनन्तं वमाप्नं शरणं प्रपद्ये ।। येन नता मन्नय-मान-मृञ्चा-विषाद-निद्रा-भय-शोर-चिन्ताः। चयोऽनलेनेव तत्प श्चन्नं देवमानं शरणं प्रपद्ये ।। नसंस्नगऽश्मानर्णन मंदिनी विधानता नाफलका विनिर्मितः यतो निरस्तान-झपाय-त्रिहिषः सुचाभिगात्मैव मुनिर्मिती मतः!! न संम्नगे भन समाधि-साधनं न लोर-पूजा न च संव-मेलनम्। यतस्ततोऽध्यात्म-तीभवानिशं विमुच्य सर्वामपि वाय-वासनाम् न सन्ति गया मम केचनार्या भवामि तेषां न कदाचनाहम् । इत्यं विनिश्चिन्य विमुच्य वा वन्यः सदा त्वं भद्र मुक्न्ये ।। आन्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्वं दर्शन-ज्ञानमयो विशुद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र स्थितोऽपि साधुलभते ममाधिम् ।। एकः सदा शावतिको समान्मा विनिमलः साविगम-स्वभावः वहिर्भवाः नन्त्यपरे ममन्तान शाश्वताः कर्म-भवाः स्वकीया।। यस्यास्ति नैश्यं वपुपापि साई तम्यान्ति किं पुत्र-कलत्र-मित्रः। पृथक्ने चर्मणि रोम-कृपाः कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ।।
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संयोगतो दुःखमनेकभेदं यतोऽश्नुते जन्म-वने शरीरी । ततस्विधासौ परिवर्जनीयो यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् ।। सर्व निराकृत्य विकल्प-जालं संसार-कान्तार-निपात-हेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो निलीयसे त्वं परमात्म-तत्त्वे ।। स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ निजार्जितं कर्म विहाय देहिनोन कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥ यैः परमात्माऽमितगति-वन्द्यः सर्व-विविक्तो भृशमनवद्यः। शश्वदधोतो मनसि लभन्ते मुक्ति-निकेतं विभव-वरं ते ।।
इति द्वात्रिंशतिवृत्तः परमात्मानमीक्षते । योऽनन्यगत-चेतस्को यात्यसौ पदमव्ययम् ॥
कायबल - जिनका कायवल श्रेष्ठ है, वे ही मोक्ष पथ के पथिक बन सकते हैं। इस
प्रकार जब मोक्षमार्ग में भी फायबल की श्रेष्ठता आवश्यक है, तब सांसारिक कार्य इसके बिना कैसे हो सकते हैं। - प्राचीन महापुरुषों ने जो कठिन से कठिन आपत्तियाँ और उपसर्ग सहन किये, वे कायपल की श्रेष्ठता पर ही किये। अत शरीर को पुष्ट रखना भावश्यक है, किन्तु इसी के पोषण में सब समय न लगाया जावे। दूसरे को रक्षा स्वात्म रक्षा की ओर दृष्टि रख कर ही की जाती है, अपने माप को भूल कर नहीं।
-'वर्णी वाणी' से
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जैन पूजा पाठ सप्रद
श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम्
[भगजिनसेनाचार्य] स्थय भुवे नमस्तुभ्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि । स्वात्मनैव तथोइतवृत्तयेचिन्त्यवृत्तये ॥१॥ नमस्ते जगता पत्ये लक्ष्मीभत्रे नमोऽस्तु ते । विदावर नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ॥ २ ॥ कमेशत्रुहण देवमामनन्ति मनीषिणः । त्वामानमत्सुरेण्मौलि-भा-मालाभ्यर्चित-क्रमम् ॥३॥ ध्यान-दुर्घण-निर्भिन्न-धन-घाति-महातरुः । अनन्त-भव-सन्तान-जयादासीरनन्तजित् ॥ ४ ॥ त्रैलोक्य-निर्जयावास-दुर्दर्पमतिदुर्जयम् । मृत्युराज विजिन्यासीजिन मृत्युंजयो भवान् ॥ ५ ॥ विधुताशेप-संसार-बन्धनो भव्य-बान्धवः । त्रिपुरारिस्त्वमीशासि जन्म-मृत्युजरान्तकृत् ॥ ६ ॥ त्रिकाल-विजयाशेप-तत्वमेदात् विधोत्थितम् । केवलाख्य दवचक्षुत्रिनेत्रोऽसि त्वमीशिता ॥6॥ वामन्धकान्तक प्राहुर्मोहान्धासुर-महेनात् । अद्धं ते नाग्यो यस्मादर्धनारीश्वरोऽस्यतः ॥ ८ ॥ शिवः शिव पदाध्यामाद् दुरितारि-हरो हरः । शङ्करः कृतशं लोके शम्भवस्त्वं भवन्सुरंग ॥ ६ ॥ वृपभोऽसि जगज्ज्येष्ठ. पुरु: पुस्-गुणोदयः । नामेयो नाभि-मम्भृतेरिया-कुल-नन्दनः ।। १० । त्वमेकः पुरुषम्कंधम्त्व द्वे लोकस्य लोचने । चं विधा युद्ध-सन्मार्गसिन्नखिल्तान धारकः ॥११॥
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चतुःशरण - माङ्गल्यमूर्तिस्त्व चतुरस्रधी' । पञ्च ब्रह्ममयो देव पावनस्त्व पुनीहि माम् ॥ १२॥ स्वर्गावतरणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नमः ।
जन्माभिषेक - वामाय वामदेव नमोऽस्तु ते ॥ १३॥ सनिष्क्रान्तावघोराय पर प्रशममीयुषे । केवलज्ञान- संसिद्धावीशानाय नमोऽस्तु ते ॥ १४ ॥ पुरस्तत्पुरषत्वेन विमुक्त-पद-भागिने |
नमस्तत्पुरुषावस्थां भाविनीं तेऽद्य विभ्रते ॥ १५॥ ज्ञानावरणनिर्हासान्नमस्तेऽनन्तचक्षुषे ।
दर्शनावरणोच्छेदान्नमस्ते
विश्वव ॥ १६ ॥
नमो दर्शनमोहघ्ने क्षायिकामलदृष्टये । नमचरित्रमोहने विरागाय महौजसे ॥१७॥ नमस्तेऽनन्तवीर्याय नमोऽनन्त सुखात्मने । नमस्तेऽनन्त लोकाय लोकालोकावलोकिने ||१८|| नमस्तेऽनन्त- दानाय नमस्तेऽनन्त - लब्धये । नमस्तेऽनन्त-भोगाय नमोऽनन्तोपभोगिने ॥ १६ ॥ परम-योगाय नमस्तुभ्यमयोनये । नमः परम- पूताय नमस्ते परमर्षये ||२०|| नमः परम-विद्याय नमः पर-मत- च्छिदे ।
नम
परम तत्वाय नमस्ते परमात्मने ||२१|| परमरूपाय नम परम-तेजसे ।
परमेष्ठिने ||२२||
नम
नम
नम परम-मार्गाय नमस्ते परमर्द्विजुने धाम्ने परम ज्योतिषे नमः
परतरात्मने ||२३|
नम परितमः प्राप्तधाम्ने नम क्षीण- कलङ्काय क्षीण चन्ध नमोऽस्तु ते ।
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जैन पूजा पाठ सह
नमस्ते क्षीण-मोहाय क्षीण-दोषाय ते नमः ||२४| नमः सुगतये तुभ्य शोभना गतिमीयुषे । नमस्तेऽनीन्द्रिय ज्ञान - मुसायानिन्द्रियात्मने ॥२५॥ काय बन्धननिमोचाटकायाय नमोऽस्तु ते । नमस्तुभ्यमयोगाय योगिनाम धियोगिने ||२६|| अवेदाय नमस्तुभ्यमकपायाय ते नमः । नम. परम - योगीन्द्र वन्दितात्रि- द्वयाय ते ॥२७॥ नम परम - विज्ञान नमः परम-सयम ।
नमः
परमदृष्ट- परमार्थाय ते नमः ||२८|| नमस्तुभ्यमलेश्याय शुक्रलेश्याशक- स्पृशे । नमो भव्येतरावस्थाव्यतीताय विमोक्षणे ॥२६॥ सज्यसंज्ञिद्वयावस्थाव्यतिरिक्तामलात्मने । नमस्ते बीतसंज्ञाय नमः क्षायिकदृष्टये ॥ ३० ॥ अनाहाराय तृप्ताय नमः परमभाजुषे । व्यतीताशेषदोषाय भवान्धेः पारमीयते ॥ ३१ ॥ अजराय नमस्तुभ्यं नमस्ते ऽतीतजन्मन । अमृत्यवे नमस्तुभ्यमचलायाक्षरात्मने ॥ ३२ ॥ अलमास्ता गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणाः । त्वं नामस्मृतिमात्रेण पर्युपासि सिषामहे ।। ३३ । एव स्तुत्वा जिनं देव भक्त्या परमया सुधीः पठेदष्टोत्तरं नाम्ना सहस्रं पाप- शान्तये ॥ ३४ ॥ इति प्रस्तावना
प्रसिद्धाष्ट सहस्र लक्षण त्वा गिरा पतिम | नाम्नामष्टसहस्रण तोष्टुमोऽभीष्टसिद्धये ॥ १ ॥ श्रीमान्स्वयम्भूर्ष्टषभः शभव शभुरात्मभूः । स्वयंप्रभः प्रभभक्ता विश्वभूरपुनर्भवः ॥ २ ॥
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विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरतर. । विश्वविद्विश्वविद्येशो विश्वयोनिरनीश्वर || ३ ॥ विश्वश्वा विभर्घाता विश्वेशो विश्वलोचन. | विश्वव्यापी विधिधा. शाश्वतो विश्वतोमुख ||४| विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमूर्ति जिनेश्वर । विश्व विश्वभूतेश विश्वज्योतिरनीश्वर || ५ || जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पति' । अनन्तजिदचिन्त्यात्मा भव्यबन्धुरबन्धनः ॥ ६ ॥ युगादिपुरुषो ब्रह्मा पञ्चब्रह्ममयः शिवः । परः परतरः सूक्ष्मः परमेष्ठी सनातनः ॥ ७ ॥ स्वयंज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिजः । मोहारिविजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वजः ॥ ८ ॥ प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वरार्चितः । ब्रह्मविद् ब्रह्मतत्त्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वर ॥ ६ ॥ शुद्धो बुद्धः प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थः सिद्धशासनः । सिद्धः सिद्धान्तविद् ध्येयः सिद्धसाध्यो जगद्धितः ॥ १० ॥ सहिष्णुरच्युतोऽनन्तः प्रभविष्णुर्भवोद्भवः ।
प्रभूष्णुरजरोऽजर्यो भ्राजिष्णुर्धीश्वरोऽव्ययः ॥ ११॥ विभावसुरसम्भूष्णुः स्वयम्भूष्णुः पुरातनः । परमात्मा परंज्योतिस्त्रिजगत्परमेश्वरः ||१२|| इति श्रीमदादिशतम् ।। १ ।।
[ प्रत्येक शतकके अन्तमे उदकचदनतदुल आदि श्लोक. पढकर अर्ध चढ़ाना चाहिये । ]
दिव्यभाषापतिर्दिव्यः पूतवाक्पूतशासन' | तात्मा परमज्योतिर्धर्माध्यचो दमीश्वरः ॥ १ ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
श्रीपतिर्मगवानहन्नरजा विरजाः शुचिः । तीर्थकृत्फेवलीशानः पूजाहः स्नातकोऽमलः ॥ २ ॥ अनन्तदीप्ति नात्मा स्वयम्बुद्धः प्रजापतिः । मुक्त. शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वरः ।। ३ ।। निरञ्जनो जगज्योतिर्निरुक्तोक्तिरनामयः । अचलस्थितिरक्षोभ्यः कूटस्थः स्थाणुरचयः ॥ ४ ॥ अग्रणीग्रामणीर्नेता प्रणेता न्यायशास्वकृत् । शास्ता धर्मपतियों धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् ॥ ५ ॥ वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुषायुधः ।। वृषो वृषपविर्भः वृषभाको वृषोद्भवः ॥ ६॥ हिरण्यनामिभूतात्मा भूतभृद् भूतभावनः । अभवो विभवो भास्वान भवो भावो भवान्तकः ॥ ७ ॥ हिरण्यगर्भः श्रीगर्भः प्रभूतविभवोऽभवः । स्वयंप्रभः प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्पतिः ॥ ८ ॥ सर्वादिः सर्वदृक् सार्वः सर्वज्ञः सर्वदर्शनः । सर्वात्मा सर्वलोकेशः सर्ववित्सर्वलोकजित् ।। ६ ॥ सुगतिः सुश्रुतः सुश्रद सुवाक् सरिबहुश्रुतः । विश्रुतः विश्वतः पादो विश्वशीर्षः शुचिश्रवाः ॥१०॥ सहस्रशीपः क्षेत्रज्ञः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूतभव्यभवद्भर्ता विश्वविद्यामहेश्वरः ॥ ११ ॥
इति दिव्यादिशतम ॥ २॥ अर्घम् । स्थविष्ठः स्थविरो जेष्ठ' पृष्ठः श्रेष्ठो वरिष्ठधी । स्थेष्ठो गरिष्ठो बहिष्ठः श्रेष्ठोमिठो गरिष्ठगी ॥१॥ विश्वभृद्विश्वसृट् विश्वेट विश्वमग्विश्वनायक. विश्वाशीविश्वरूपात्मा विश्वजिद्विजितान्तकः ॥ २ ॥
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विभवो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन् । विरागो विरतोऽसङ्गो विविक्तो वीतमत्सरः ॥ ३ ॥ विनयेजनताबन्धुर्विलीनाशेषकल्मषः । वियोगो योगविद्विद्वान्विधाता सुविधिः सुधीः ॥४॥ क्षान्तिभाक्पृथिवीमूर्तिः शान्तिभाक् सलिलात्मकः । वायुमूर्तिरसङ्गात्मा वह्निमूर्तिरधर्मधुक |॥ ५ ॥ सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सुत्रामपूजितः । ऋत्विग्यज्ञपतिर्यज्ञो यज्ञाङ्गममृतं हविः ॥६॥ व्योममूर्तिरमूर्तात्मा निर्लेपो निर्मलोऽचलः । सोममूर्तिः सुसौम्यात्मा सूर्यमूर्निर्महाप्रभः ॥ ७ ॥ मन्त्रविन्मन्त्रकृन्मन्त्री मन्त्रमूर्तिरनन्तगः। स्वतन्त्रस्तन्त्रकृत्स्वन्तः कृतान्तान्तः कृतान्तकृत् ॥८॥ कृती कृतार्थः सत्कृत्यः कृतकृत्यः कृतक्रतुः। नित्यो मृत्युञ्जयो मृत्युरमृतात्माऽमृतोद्भवः ।।६ ॥ ब्रह्मनिष्ठः परब्रह्म , ब्रह्मात्मा ब्रह्मसम्भवः । महाब्रह्मपतिब्रटेट महाब्रह्मपदेश्वरः ॥१०॥ सुप्रसनः प्रसन्नात्मा ज्ञानधमेदमप्रसुः । प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराणपुरुषोत्तमः ॥११॥
इति स्थविष्ठादिशतम् ।।३॥ अर्घम् । महाशोकध्वजोऽशोकः कः स्रष्टा पद्मविष्टरः । पद्मशः पद्मसम्भूतिः पद्यनाभिरनुत्तरः॥१॥ पायोनिर्जगद्योनिरित्यः स्तुत्यः स्तुतीश्वरः। स्तवना) हृषीकेशो जितजेयः कृतक्रियूः ॥ २ ॥ गणाधिपोगणज्येष्ठो गण्यः पुण्योगणाग्रणीः । गुणाकरो गुणाम्भोधिर्गुणज्ञो गुणनायकः ॥ ३ ॥
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जग पूजा पाठसप्रद
गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुणः पुण्यगीर्गुणः। शरण्यः पुण्यवाक्पूतो वरेण्यः पुण्यनायकः ॥ ४ ॥ अगण्यः पुण्यधीगुण्यः पुण्यकृत्पुण्यशासनः । धर्मारामो गुणग्रामः पुण्यापुण्यनिरोधकः ॥ ५ ॥ पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मपः । निर्द्वन्द्वो निर्मदः शान्तो निर्मोहो निरुपद्रवः ॥ ६॥ निर्निमेपो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लवः । निष्कलको निरस्तैना नितांगो निरास्त्रवः ॥ ७ ॥ विशालो विपुलज्योतिरतुलोऽचिन्त्यवैभवः । सुसंवृतः सुगुप्तात्मा सुवृत् सुनयतत्ववित् ॥ ८ ॥ एकविद्यो महाविद्यो मुनिः परिवृढः पतिः । घीशो विद्यानिधिः साक्षी विनेता विहतान्तकः ॥६॥ पिता पितामहः पाता पवित्रः पावनो गतिः । प्राता भिपग्वरो यो वरदः परमः पुमान् ।।१०॥ कविः पुराणपुरुपो वीयान्वृषभः पुरुः । प्रतिष्ठाप्रसवो हेतुर्भुवनकपितामहः ॥११॥
इति महाशोकध्वजादिशतम् ।। ४ ।। अर्घम् । शीवृक्षलक्षणः श्लपणो लक्षण्यः शुभलक्षणः । निरक्षः पुण्डरीकाक्षः पुष्कलः पुष्करेक्षणः ॥ १ ॥ सिद्धिदः सिद्वसङ्कल्प सिद्धात्मा सिद्धसाधनः। बुद्धवोध्यो महाबोधिर्वर्धमानो महर्द्धिकः ॥ २ ॥ वेदाङ्गो वेदविद्वेद्यो जातरूपो विदांवरः । वेदवेद्यः स्वसंवेद्यो विवेदो वदतांवरः ॥३॥ अनादिनिधनोऽव्यक्तो व्यक्तवाग्व्यक्तशासनः । युगादिद्युगाधारो युगादिर्जगदादिजः ॥ ४ ॥
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अतीन्द्रोऽतीन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽतीन्द्रियार्थ क् अनिन्द्रियोऽहमिन्द्रार्यो महेन्द्रमहितो महान् ||५॥ उद्भवः कारणं कर्ता पारगो भवतारकः । अग्राह्यो गहनं गृह्यं परार्ध्यः परमेश्वरः ॥ ६ ॥ अनन्तर्द्धिरमेयद्धिरचिन्त्यर्द्धिः समग्रधीः ।
प्रायः प्राग्रहरोऽस्यग्रः प्रत्ययोऽग्रयोऽग्रिमोऽग्रजः ॥७॥ महातपा महातेजा महोदर्को महोदयः । महायशा महाधामा महासत्त्वो महाधृतिः ॥ ८ ॥ महाधैर्यो महावीर्यो महासम्पन्महाबलः । महाशक्तिर्महाज्योतिर्महाभूतिर्महाद्युतिः ॥ ६ ॥ महामतिर्महानीतिर्महाक्षान्तिर्महोदयः ।
महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकविः || १०॥ महामहा महाकीर्तिर्महाकान्तिर्महावपुः । महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुणः || ११|| महामहपतिः प्राप्तमहाकल्याणपञ्चकः । महाप्रभुर्महाप्रातिहार्याधीशो
महेश्वरः ॥ १२ ॥
इति श्रीवृक्षादिशतम् ॥ ५ ॥ अर्धम् । महामुनिर्महामौनी महाध्यानी महादयः । महाक्षयो महाशीलो महायज्ञो महामखः ||१|| महाव्रतपतिर्मह्यो महाकान्तिधरोऽधिपः ।
महामैत्री महामेयो महोपायो महोदयः ||२|| महाकारुण्यको मन्ता महामन्त्रो महायतिः । महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपतिः ॥ ३॥ महाध्वरधरो धुर्यो महौदार्यो सहिष्ठवाक् । महात्मा महसांधाम महर्षिर्महितोदयः ॥ ४ ॥
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पूरा पाउन
महास्लेशाइश गगे महाभनपनिगुमः । महापगनमोऽनन्ती , महाकाधारिपुर्वगी ||५|| महाभवाब्धिमन्नारिमहामोहादिमृदन. । महागुणाकरः तान्नो महायोगीधरः गमी ॥६॥ महाध्यानपनियांतामहाधमा महावत' । महासमान्दिाऽऽन्मती महादेवो महेगिना ||७|| मवक्लेशापह' मा. मोपहगे हर. । अमन्ययो अमेयात्मा गमान्मा प्रगमानः ||८|| मवयोगी बगेचिन्य अनात्मा विष्टर श्रवा । दान्तात्मा दमनीर्थगो योगान्मा जानमवगः ।।६।। प्रधानमात्मा प्रकृति परमः परमादयः । प्रक्षोणबन्धः कामागिः क्षमझन्मशाननः ॥१०॥ प्रणवः प्रणय' प्राण प्राणदः प्रणवश्वनः । प्रमाण प्रणिचिर्दनो दतिणोधपुर बर ॥११॥ आनन्दो नन्दनो नन्दो बन्योऽनिन्यामिनन्दनः । कामहा कामदः काम्यः कामधेनुरग्जियः ॥१२॥
यति मागुन्याशितम् ॥ आम् । अमस्कृतमुसम्झार. प्राकृतो चकनान्तकम् । अन्तकृत्कान्तगुः कान्तचिन्तामणिभीष्टद. ॥१॥ अजितो जितकामारिमितोऽमितशामनः । जितक्रोधो जितामित्रो जितकेशो जितान्तकः ।।२।। जिनेन्द्र परमानन्दो मुनीन्द्रो दुन्दुभिम्बन' । महेन्द्रवन्या योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दनः ॥३॥ नाभेयो नाभिजोऽजात. मुव्रतो मनुरुत्तमः । अभेद्योऽनत्ययोऽनावानधिकोऽधिगुरु मुधीः ॥४॥
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सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षों निरुत्सुकः । विशिष्टः शिष्टमक शिष्टः प्रत्ययः कामनोऽनघः ॥शा क्षेमी क्षेमङ्कराऽक्षय्यः क्षेमधर्सपतिः क्षमी। . अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तरः ॥६॥ सुकृती धातुरिज्याहः सुनयश्चतुराननः । श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुखः ॥७॥ सत्यात्मा सत्यविज्ञानः सत्यवाक्सत्यशासनः । सत्याशीः सत्यसन्धानः सत्यः सत्यपरायणः ।।८।। स्थेयान्स्थवीयादीयान्दवीयान् दूरदर्शनः । अणोरणीयाननणुर्गुरुराधो गरीयसा ॥॥ सदायोगः सदाभोगः सदातृतः सदाशिवः । सदागतिः सदासौख्यः सदाविद्यः सदोदयः ॥१०॥ सुघोपः सुमुखः सौम्यः सुखदः सुहितः सुहृत् । सुगुप्तो गुष्ठिभृद् गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वरः ॥११॥
इति असस्कृतादिशतम् ॥७॥ अर्घम् । बृहद्वृहस्पतिर्वाग्मी वाचस्पतिरुदारधीः । मनीषी धिषणो धीमांञ्छेमुषीशो गिरांपतिः ॥१॥ नैकरूपो नयोतुङ्गो नैकात्मा नकधर्मकृत् । अविज्ञेयोऽप्रतात्मा कृतज्ञः कृतलक्षणः ॥२॥ ज्ञानगर्भो दयांगों रत्नगर्भः प्रभास्वरः । पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भः सुदर्शनः ॥३॥ लक्ष्मीयांत्रिदशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता । मनोहरो मनोज्ञाझो धीरो गम्भीरशासनः ॥४॥ धर्मयपो दयायागो धर्मनेमिर्मुनीश्वरः । धर्मचक्रायुधो देवः कर्महा धर्मघोषणः ॥शा
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बेन पूजा पाठ मद
अमांववागावात्री निर्मलामोवशामनः । मुन्य. नुमगन्यानी दमयन्त्रः ममाहिनः ॥६॥ मुचिताबामामाक्वन्या नीरजको निन्द्धवः। अलेपो निष्कलङ्कामा वीतरागो गतम्पृहः ।।७।। वन्दियो विमृत्तान्मा निःमपन्ना जिनेन्द्रियः । प्रशान्नानन्नघामपिमङ्गलं मलहानवः ||८|| अनीगुपमाभृतो दृष्टिवमगांवः । अमृता निमानको नको नानेकतन्त्रक ।।।। अगमगन्यो गम्यान्मायांगतियोगिवन्दिन । नयंत्रगः नढामार्ग त्रिकालविपयार्थक ॥१०॥ गदर पारदो दान्नो दमी सान्तिपनयणः । अधिपः परमानन्दः पगत्मत्रः परात्परः ॥११|| त्रिजगहल्लमोस्यच्यविनगन्मङ्गलोदयः । त्रिजगन्पनियाविधिलोकाग्रशिखामणिः ॥१२॥
अनि दादिगनम ।। ८ ।। अपन। त्रिकालदी लोकशा लोकयाता दृढवतः । नवलोकानिगः पृच्यः सर्वलोकमाथिः ।।१।। पुगणः पुन्प' पृः कृतपाङ्गविस्तरः ।। आदिवः पुगणावः पुन्टेवोविंदवता ||२|| युगमुच्या युगज्येष्ठो युगादिन्थितिदेशकः । कल्याणवणः कल्याणः कल्यः कल्याणलक्षणः ॥३॥ कल्याणप्रकृतिदीप्त रत्वाणान्मा विकल्मपः । विकला. कलातीतः कलिलनः कलाधरः ॥४॥ देवदेवो जगन्नाथों जगद्वन्धुर्जगद्विभुः । जगट्टितेपो लोसनः सर्वगो जगढग्रजः ||५||
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चराचरगुरुर्गीप्यो गूढात्मा गूढगोचरः। सद्योजातः प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसप्रभः ॥६॥ आदित्यवर्णो भर्माभः सुप्रभः कनकप्रभः । सुवर्णवणों रुक्माम. सूर्यकोटिसमप्रभः ॥७॥ तवनीयनिभस्तुङ्गो बालार्काभोऽनलप्रभः । सन्ध्याभ्रवद्महेमाभस्तप्तचामीकरच्छविः ॥८॥ निष्टप्लकनकच्छायः कनत्काञ्चनसन्निभः । हिरण्यवर्ण स्वर्णाभः शातकुम्भनिभमभः ॥ ६ ॥ घुम्नाभो जातरूपामस्तप्तजाम्बूनदद्युतिः । सुधौतकलधौतश्री: प्रदीप्तो हाटकद्यतिः ॥ १०॥ शिष्टेष्टः पुटिदः पुष्टः स्पष्टः स्पष्टाक्षरः क्षमः । शत्रुघ्नोऽप्रतिघोऽमोघः प्रशास्ता शासिता स्वभूः।।११।। शान्तिनिष्ठो मुनिज्येष्ठः शिवतातिः शिवप्रदः । शान्तिदःशान्तिकृच्छान्तिःकान्तिमान्कामितप्रदा१२॥ 'योनिधिरधिष्ठानसप्रतिष्ठः प्रतिष्ठितः । सुस्थिरः स्थावरः स्थाणुः प्रथीयान्प्रथितः पृथुः ॥१३॥
इति त्रिकालदर्यादिशतम ॥ ६ ॥ अर्घम् । दिग्वासा वातरशनो निग्रन्थेशो निरम्परः । निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुहः॥१॥ तेजोराशिरनन्तौजा ज्ञानाधिः शीलसागरः । तेजोसयोऽमितज्योतिर्योतिमूर्तिस्तमोपहः ॥ २ ॥ जगच्चूडामणिर्दीत. सर्वविघ्नविनायकः। कलिघ्नः कर्मशत्रुघ्नो लोकालोकप्रकाशकः ॥ ३ ॥ अनिद्रालुरतन्द्रालुजागरूका प्रसास्यः । लक्ष्मीपतिर्जगज्ज्योतिधर्मराजः प्रजाहितः ॥ ४ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
मुमुक्षुर्वन्धमोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथः । प्रशान्तरसशैलूषो भव्यपेटकनायकः ॥ ५ ॥ मूलकर्ताऽखिलज्योतिर्मलनी मूलकारणम् । आप्तो वागीश्वरः श्रेयाञ्छायसोक्तिनिरुक्तवाक् ||६|| प्रवक्ता वचसामीशो मारजिद्विश्वभावविन् । सुतनुस्तनुनिर्मुक्तः सुगतो हतदुर्नयः ॥ ७ ॥ श्रीशः श्रीश्रितपादाब्जो वीतशीरभयङ्करः । उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सलः ॥ ८॥ लोकोत्तरो लोकपतिर्लोकचक्षुरपारधीः । धीरधीषु द्धसन्मार्गः शुद्धः सूनृतपूतवाक् ।। ६ ।। प्रज्ञापारमितः प्राज्ञो यतिनियमितेन्द्रियः । भदन्तो भद्रकृद्रः कल्पवृक्षो वरप्रदः ।। १० ॥ समुन्मूलितकारिः कर्मकाष्ठाशुशुणिः । कर्मण्यः कर्मठः प्रांशुहेयादेयविचक्षणः ॥ ११ ॥ अनन्तशक्तिरच्छेद्यस्त्रिपुरारित्रिलोचनः । त्रिनेत्रस्त्र्यम्बकाच्यक्षः केवलज्ञानवीक्षणः ॥१२॥ समन्तभद्रः शान्तारिधर्माचार्यो दयानिधिः । सूक्ष्मदर्शी जितानङ्गः कृपालुर्धर्मदेशकः ॥१३॥ शुभंयुः सुखसाद्भतः पुण्यराशिरनामयः । धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥१४॥ इति दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम् ।। १० ।। अर्घम् । धाम्नां पते तवानि नामान्यागमकोविदः । समुचितान्यनुध्यायत्पुमान्यूतस्मृतिर्भवेत् ॥१॥ गोचरोऽपि गिरामासांत्वमवाग्गोचरो मतः। स्तोता तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं भजेत् ।।२।।
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त्वसतोसि जगबन्धुः त्वमतोऽसि जगद्भिषक् । त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धितः ।।३।। त्वमेक जगता ज्योतिस्त्वं द्विरूपोपयोगभाक् । त्वं त्रिरूपंकमुक्त्यङ्गः स्वोत्थानन्तचतुष्टयः ॥४॥ त्वं पञ्चब्रह्मतत्त्वात्मा पश्चकल्याणनायकः । पड्भेदभावतत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रहः ॥१॥ दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्व नवकेवललब्धिकः । दशवतारनिर्धार्यों मां पाहि परमेश्वर ॥६॥ युष्मन्नामावलीब्धविलसत्स्तोत्रमालया । भवन्तं परिवस्यामः प्रसीदानुगृहाण नः ॥७॥ इदं स्त्रोत्रमनुस्मृत्य पूतो भवति भाक्तिकः । यःस पाठं पठत्येन स स्यात्कल्याणभाजनम् ||८|| ततः सदेदं पुण्यार्थी पुमान्पठति पुण्यधीः । पौरुहूती श्रियं प्राप्तु परमामभिलाषुकः ॥६॥ स्तुत्वेति मघवा देवं चराचरजगद्गुरुम् । ततस्तीर्थविहारस्य व्यधात्प्रस्तावनामिमाम् ॥१०॥ स्तुतिः पुण्यगुणोत्कीर्तिः स्तोता भव्यः प्रसन्नधीः । निष्ठितार्थो भवांस्तुत्यः फलं नैश्रेयसं सुखम् ॥११॥ यः स्तुत्यो जगता त्रयस्य न पुनः स्तोता स्वयं कस्यचित् ध्येयो योगिजनस्य यश्च नितरां ध्याता स्वय कस्यचित् ॥ यो नेतृन् नयते नमस्कृतिमल नन्तव्यपक्षेक्षणः स श्रीमान् जगतां त्रयस्य च गुरुर्देवः पुरुः पावनः ॥१२॥ तं देवं त्रिदशाधिपार्चितपदं धोतिक्षयानन्तरंप्रोत्थानन्तचतुष्टयं जिनमिमं भव्याब्जिनीनामिनम् । मानस्तम्भविलोकनानतजगन्मान्यं त्रिलोकीपति आप्ताचिन्त्यवहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रवन्दामहे ||१३||
[पुप्पाजलि क्षिपामि ।]
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महावीराष्टकस्तोत्रम [ कस्विर भागचन्द ] शिखरिणी
यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः
जैन पूजा पाठ संग्रह
समं भान्ति धौव्य-व्यय- जनि-लसन्तोऽन्तरहिताः । भानुरिव यो भवतु मे ॥ १ ॥
जगत्साची मार्ग- प्रकटन - परो महावीरस्वामी नयन - पथ- गामी अताम्र यच्चतुः कमल-युगलं स्पन्द-रहितं जनन्कोपापायं प्रकटयति वास्यन्तरमपि । स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला महावीर स्वामी नमन्नाकेन्द्राली-सुकुट-मणि-मा-जाल-जटिल लसत्पादाम्भोज-द्वयमिह यदीयं तनुभृताम् । भयज्ज्वाला- शान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि
महावीर स्वामी नयन - पथ-गामी भवतु मे ॥ ३ ॥ यद-भावेन प्रमुदित-मना दर्दुर इह
क्षणादासीत्स्वर्गी गुण-गण-समृद्धः सुख-निधिः । लभन्ते समुक्ताः शिव-सुख- समाजं किमु तदा
महावीर स्वामी नयन- पथ-गामी भवतु मे ॥ ४ ॥ कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगत-तनुर्ज्ञान - निवहो
विचित्रात्माप्येको नृपति-चर- सिद्धार्थ - तनयः । अजन्मापि श्रीमान् विगत-भव- रागोद्भुत - गतिः
नयन- पथ- गामी भवतु मे ॥ २ ॥
महावीर स्वामी नयन-पथ - गामी भवतु मे ॥ ५ ॥
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यदीया वाम्गङ्गा विविध-नय-कल्लोल-विमला
हज्जानाम्भोभिर्जेगति जनतां या स्लपयति । इदानीमप्येषा बुध-जन-मरालैः परिचिता
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ६ ॥ अनिारोद्रेकत्रिभुवन-जयी काम-सुभटः
कुमारावस्थायामपि निज-बलायेन विजितः । स्फुरन्नित्यानन्द-प्रशम-पद-राज्याय स जिनः
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ७ ॥ महामोहातक-प्रशमन-पराकस्मिक भिषक्
निरापेक्षो पन्धुर्विदित-महिमा मङ्गलकरः। शरण्यः साधूनां भव-भयभृतामुत्तमगुणो
महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ८॥ महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या 'भागेन्दु'ना कृतम् । यः पठेच्छृणुयाचापि स याति परमां गतिम् ॥ ६ ॥
वचन बल
- जिनमें वचन बल था उन्हीं के द्वारा आज तक मोक्ष-मार्ग की पद्धति का
सुप्रकाश हो रहा है और उन्हीं की अकाट्य युक्तियों और तको द्वारा बड़े-बड़े वादियों का गर्व दूर हुआ है। - वचन बल की हो ताक्त है कि एक वक्ता व गायक अपने भाषण या गायन
से श्रोताओं को मुग्ध कर के अपनी ओर आकर्षित कर लेता है । जिसके वचन बल नहीं, वह मोक्षमार्ग को प्राप्त करने में अक्षम होता है।
-'वर्णी वाणी' से
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३ ४४
मेन पूजा पाठ म
निर्वाणकांड [ गाथा ]
अडावयम् उही चपाए बापु विणणाहा । उज्जते गमि जिणो पावाए विदा मरावी ॥२॥ चीन तु जिणग्दिा अमरारामा । सम्मेद गिरि-निहरे पिया गया मां नमि ॥ वरदत्तो य रंगो नायरडतो व नावरणवरे । आयकोटीओ णिल्याण गया पमो तेमिं ॥
मि-नामी पज्जुगी सकुमारो तहेब अणिरुद्रो । बाहत्तरि-कोडीओ उज्जत सत्त-सवा चट || राम-सुआ विष्णि जणा लाट परिंदाण पत्र कोडी । पावाए गिरि-मिहरे णिव्वाण गया णमो तेसि || पद-सुख तिणिजणा उनि गरिदा अड कोटीओ। सत्तु जय - गिरिसिहरे जिव्वाण गया णमो तेनिं ॥ सत्तेन चला जब गरिंदाण अट्ट कोडीओ । राजपथे गिरि - सिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ राम-हणू सुग्गीवो गवय गवक्सो य णील महणीलो । णवणचटी कोडीओ लुंगीगिरि- णिच्वदे चडे ॥ अंगाणंगकुमारा विक्खा - पचद्ध-कोटि- रितिसहिया । सुवण्णगिरि-मत्थयत्थे णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ दहमुह - रायस्स मुआ कोडी-पंचद्र-मुणिवरे महिया । रेवा - उम्म तीरे णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ रेवा - usए तीरे पच्छिम - भायम्मि सिद्धवर - कूडे । दो चकी दह कप्पे आहुट्ठय-कोटि- णिव्बुदे वदे ||
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वडवाणी-वर-णयरे दक्खिण-भायम्मि चूलगिरि - सिहरे । इंदजिय-कुंभयण्णो णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ पावागिरि-वर - सिहरे सुवण्णभद्दाइ -मुणिवरा चउरो । चलणा-ई-तडग्गे णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ फलहोडी - वर-गामे पच्छिम-भायम्मि दोणगिरि - सिहरे । गुरुदत्ताड़-मुणिंदा णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ णायकुमार - सुणिंदो वालि महाबालि चेव अज्या । अट्ठावय- गिरि - सिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ अचलपुर- वर-णयरे ईसाणभाए मेढगिरि - सिहरे । आय - कोडीओ णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ वंसत्थल-वण-णियरे पच्छिम भायम्मि कुंथुगिरि - सिहरे । कुल- देस भूसण- मुणी णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ जसरह - रायस्स सुआ पंचसया कलिंग - देसम्मि | कोडसिलाए कोड-मुणी णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ पासस्स समवसरणे गुरुदत्त - वरदत्त - पंच- रिसिपमुहा । रिरिंदे गिरिसिहरे णिव्वाण गया - णमो तेसिं ॥ जे जिणु जित्थु तत्था जे दु गया गिव्बुदिं परमं । ते वंदामि यणिचं तिरयण-सुद्धो णमंसामि ॥ सेसाणं तु रिसीणं णिव्वाणं जम्मि जम्मि ठाणम्मि | ते हं वंदे सव्वे दुक्खक्खय-कारणट्ठाए ||
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भक्तामरस्तोत्र [ भाषा ] [ हेमराज ]
जन पूजा पाठ सप्रह
आदिपुरुष आढीश जिन, आदि सुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमो आदि अवतार || सुर- नत - मुकुट रतन - छवि करें, अंतर पाप - तिमिर सब हरें । जिनपट बंदों मन वच काय, भव-जल- पतित उधरन-सहाय ॥
श्रुत- पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव । शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभुकी वरनों गुन- माल ॥ विबुध - वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज धुति-मनसा कीन । जल-प्रतिबिंब बुद्ध को है, शशि-मंडल वालक ही चहै ॥ गुन- समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावैं पार । प्रलय-पवन उद्धत जल-जंतु, जलधि तिरै को भुज बलवंतु ॥ सो मैं शक्ति-हीन थुति करूं, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूं । ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ॥ मैं शठ सुधी हॅसनको घाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम । ज्यो पिक अंब-कली - परभाव, मधु ऋतु मधुर करै आराव || तुम जस जंपत जन छिनमाहिं, जनम जनमके पाप नशाहिं । ज्यों रपि उगै फटै ततकाल, अलिवत नील निशा -तम-जाल || तव प्रभावतै कहूँ विचार, होसी यह थुति जन- मन- हार | ज्यों जल-कमल पत्रपै परै, मुक्ताफलकी दुति विस्तरै ॥
तुम गुन- महिमा हत-दुख-दीप, सो तो दूर रहो सुख-पोष । पाप - विनाशक है तुम नाम, कमल - विकाशी ज्यों रवि-धाम ॥
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नहि अनंग जो होहिं तु तुमसे तुम गुण चरण संत | जो अनको आप समान, कन नो निति धनवान || इक्टक जन तुमको अपिलीय अवरति क न सोय | को कर छोर जलधि जल पान, चार नीर पी मतिमान || प्रभु तुम वीतराग गुन लीन, जिन परमानु देह तुम कीन । हें तितने हो ते परनानु या तुम नम रूप न आनु ॥ कई तुम ग्य अनुपम अधिकार, सुर-तर-नाग-नयन-मनहार | कहां नेद्र मंडल सफलंफ, दिनमे टाक-पत्र राम क ॥ पूरन चंद्र ज्योति दवियंत, तुम गुन तीन जगत लंपंत । एक नाथ त्रिपन आधार, तिन विचारत को करें निवार || जो गुरु-तिय विश्रम आरम्भ, मन न डिग्यो तुम तौ न अचंभ | अचल चला प्रलय नमी, मेरु-शिखर डगमगे न धीर ॥ धूमरहित पानी गत नेह, परकारी निशुवन-घर एह । वात-गम्य नाहीं परचंड, अपर दीप तुम चलो अमंड || छिप न प गएकी छांहिं. जग-परकाशही छिनमांहिं । धन अपने दाह निनिवार, रवि अधिक घरो गुणसार || सदा उदिन विदलित मनमोर चिटिन नेह राह अवरोह । तुम मुसकमल अपच चंद, जगत विकाशी जोति अमंद ॥ निश-दिन शशिरनिको नहि काम, तुम मुख-चंद हरे तम-धाम | जो स्वभावत उपजे नान, मजल गेघ तो कौन काज ॥ जो सुबोध मोहे तुममाहिं, हरि नर आदिकर्म सां नाहि ॥ जो दुति महान्तन में होय, कांच-संड पावै नहिं मोय ॥ नाराच हुँद सराग देव देस में गला विशेष मानिया | स्वरूप जाहि देस वीतराग तू पिछानिया |
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जैन पूजा पाठ मह
कछू न तोहिं देखके जहाँ तुही विशेखिया । मनोग चित्त चोर और भूल हूँ न पेखिया ।। अनेक पुत्ररंतिनी नितंविनी सपूत हैं । न तो समान पुत्र और माततै प्रसूत हैं || दिशा धरंत तारिका अनेक कोटिको गिनै । दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ॥ पुरान हो पुमान हो पुनीत पुन्यवान हो । कहैं मुनीश अंधकार - नाशको सुभान हो । महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके । न और नोहि मोखपंथ देय वोहि टालके ॥ अनंत नित्य चिचकी अगस्य रम्य आदि हो । असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो || महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो । अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो || तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धिके प्रमानतें । तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रये विधानतें ॥ तुही विघात है तही सुमोखपंथ नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थके विचारतें ॥ नमों करूं जिनेश तोहि आपदा निवार हो । नमो करूं सु भूरि भूमि-लोकके सिंगार हो || नमों करूं भवान्धि-नीर- राशि - शोष हेतु हो । नमो करूं महेश तोहि मोखपंथ देतु हो ||
धारतें ।
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चौपाई तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे । और देवगण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय ॥ तरु अशोक तर किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार | मेघ निकट ज्यों तेज फुरत, दिनकर दिपै तिमिर निहनत || सिंहासन मनि- किरन -विचित्र, वापर कंचन वरन पवित्र । तुम तन शोभित किरन - विथार, ज्यों उदयाचल रवि तम-हार ॥ कुंद - पुहुप - सित-चमर दुरंत, कनकवरन तुम तन शोभंत । ज्यों सुमेट निर्मल कांति, भरना भरै नीर उमगांति ॥ ऊँचे रहें सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपै अगोप । तीन लोककी प्रभुता कहें, मोती-झालरसों छवि लहैं ॥ दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर । त्रिभुवन-जन शिव-संगम करै, मानूँ जय जय रव उच्चरै ॥ मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहप- सुवृष्ट । देव करै विकसित दल सार, मानों द्विज-पकति अवतार || तुम तन-भामंडल जिनचंद, सब दुतिवंत करत है मंद | कोटि शंख रवि तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करै अछाय ॥ स्वर्ग -मोख मारग संकेत, परम धरम उपदेशन हेत । दिव्य वचन तुम खिरै अगाध, सब भाषागर्भित हित साध ॥ दोहा विकसित - सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं । तुम पद पदवी जहॅ धरो, तहॅ सुर कमल रचाहि || ऐसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय । सूरजमें जो जोत है, नहिं तारागण होय ॥
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पट्पद
बेन पूजा पाठ सह
मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल कारें । तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्भुत अति धारें || काल- वरन विकराल, कालवत सनमुख आवै । ऐरावत सो प्रवल सकल जन भय उपजावै ॥ देखि गयंद न नय करें तुम पद- महिमा छीन । विपतिरहित संपतिसहित वरतै भक्त अदीन ॥ अति मद-मत्तगयंद कुंभल नखन विदारे | मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै ॥ सांकी दाढ विशाल वदनमें रसना लोलै । भीम भयानक रूप देखि जन थरहर डोलै ॥ ऐसे मृगपति पगतले जो नर आयो होय | शरण गये तुम चरणकी बाधा करें न सोय || प्रलय-पवनकर उठी आग जो तास पटंतर । चमै फुलिंग शिखा उतंग पर जलें निरंतर || जगत समस्त निगल्ल भस्मकर हैगी मानों । तडताट दव-अनल जोर चहंदिशा उठानो ॥ सो इक छिनमें उपशमें नाम-नीर तुम लेत | होय सरोवर परिन में विकसित कमल समेत ॥ कोलिल-कंठ - समान श्यामतन क्रोध जलंता । रक्त-नयन फुंकार नार विप-कण उगलंता ॥ फणको ऊंचो करै वेग ही सन्मुख धाया । तव जन होय निशंक देख फणिपतिको आया ॥ जो चांपे निज पगतले व्यापै विष न लगार ।
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नाग-दमनि तुम नामकी है जिनके आधार ॥ जिस रनमाहिं भयानक रख कर रहे तुरंगम । घनसे गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम ॥ अति कोलाहलमाहिं बात जहें नाहिं सुनीजै । राजनको परचंड देख बल धीरज छीजै ॥ नाथ तिहारे नामतें सो छिनमाहिं पलाय । ज्यों दिनकर परकाशते अंधकार विनशाय ॥ मारे जहा गयंद कुंभ हथियार विदारै । उमगै रुधिर प्रवाह वेग जलसम विस्तारै ।। होय तिरन असमर्थ महाजोधा वल पूरे । तिस रनमें जिन तोर भक्त जे हैं नर सरे ।। दुर्जय अरिकुल जीतके जय पा निकलंक । तुम पद-पंकज मन बसै ते नर सदा निशंक ।। नक चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै । जामैं बडवा अग्नि दाहतें नीर जलावै ॥ पार न पात्र जास थाह नहिं लहिये जाकी। गरजै अतिगंभीर लहरिकी गिनति न ताकी ॥ सुखसों तिरै समुद्रको जे तुम गुन सुमराहिं । लोलक-लोलनके शिखर पार यान ले जाहि ॥ महा जलोदर रोग, भार पीड़ित नर जे है।। वात पित्त कफ कुष्ट आदि जो रोग गहै हैं । सोचत रहैं उदास नाहिं जीवनकी आशा ।। अति घिनावनी देह धरै दुगंधि-निवासा ॥ तुम पद-पंकज-धूलको जो लावै निज-अंग ।
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जन पूजा पाठ सह
ते नीरोग शरीर लहि दिनमे होय अनंग ।। पांच कटते जकर बांध माफल अति भारी । गाढी बेड़ी पैरमाहि जिन जाघ निदारी ॥ भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने । सरन नाहि जिन कोय सृपके पदीखाने ।। तुम सुमरत स्वयमेव ही पंधन सब खुल जाहि । छनमें ते संपति लहँ चिंता भय विनलाहिं ।। महासत्त गजराज गौर नगराज ददानह । फणपति रण परल्ड दीर-निधि रोग महावल ।। पंधन ये गय आठ डरपान मानों नाश । तुम सुपरत छिनमाहिं अभय थानक परकाश ॥ इस अपार संसारमे शरन नाहि प्रशु लोय । सातै तुम पद-सक्तको भक्ति लहाई होय ।। यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी । शिषिध-वर्णमय-पुडुप गूंथ में सक्ति विक्षारी ॥ जे नर पहिरे कंठ भावना मनमे आवै । 'भानतुंग' ते निजाधीन शिव-लछमी पावै ॥ भाषा भक्तामर कियो 'हेमराज' हित हेत । जे नर पढे सुलावसों ते पाच शिव-खेत ।।
वर्णी-वाणो की डायरी से - मन को शुद्धि बिना काय शुद्धि का कोई महत्व नहीं ।
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कल्याणमन्दिर स्तोत्र भाषा दोहा-परमज्योति परमात्मा, परमज्ञान परवीन ।
बन्दू परमानन्दमय, घटघट अन्तर लीन ॥१॥ निर्भय करन परम परधान, भवसमुद्र जल तारण यान। शिवमंदिर अघहरण अनिन्द, बंदहूँ पासचरण अरविन्द॥ कमठमान भञ्जन वरवीर, गरिमा सागर गुण गम्भीर । सुरगुरु पार लहैं नहिं जास, मैं अजान जपहूं जस तास॥ प्रभुस्वरूप अति अगम अथाह, क्यों हमसेती होय निवाह। ज्यों दिन अन्ध उलूकोपोत,कहि न सकै रवि-किरण उदोत 'मोहहीन जानै मलमाहिं, तोहु न तुम गुण वरणे जाहिं। प्रलय पयोधि करै जल बौन,प्रगटहिरतन गिनैतिहिं कौन।। तुम असंख्य निर्मल गुणखान, मैं मतिहीन कहूं निज बान।
ज्यों बालक निज बांह पसार, सागर परमित कहै विचार ॥ 'जे जोगीन्द्र करहिं तपखेद, तऊ न जानहिं तुम गुणभेद ।
भक्तिभाव मुझ मन अभिलाष,ज्यों पंछी बोलें निजभाष। तुमजस महिमा अगम अपार, नाम एक त्रिभुवन आधार । आवै पवन पदमसर होय, ग्रीषमतपत निवार सोय। तुम आवत भविजन घटमाहि,कर्म निबंध शिथिल है जाहि।
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ज्यों चन्दनतरु बोलहि मोर, डरहिं भुजंग लगे चहुँओर ॥ तुम निरखत जन दीन दयाल, संकटतें छूटै तत्काल | ज्यों पशु घेर लेहिं निशि चोर, ते तज भागहिं देखत भोर ॥ तू भविजन तारक किमि होहि, ते चित धार तिरहिं ले तो हि । यह ऐसे कर जान स्वभाव, तिरहिं मसक ज्यों गर्भित वाव ॥ जिहं सब देव किये वश बाम, तैं छिनमें जीत्यो सो काम । ज्यों जल करै अगनिकुल हान, बड़वानल पावै सो पान ॥ तुम अनन्त गरवागुण लिये, क्योंकर भक्ति धरौं निज हिये ।
लघुरूप तिरहिं संसार, यह प्रभु महिमा अगम अपार । क्रोध निवार कियो मन शांत, कर्मसुभट जीते किहि भांत । . यह पटतर देखहु संसार, नील विरछ ज्यों दहै तुषार ॥ मुनिजन हिये कमल निज टोहि, सिद्ध रूप सम ध्यावहिं तोहि कमलकरणिका बिन नहिं और, कमल बीज उपजनकी ठौर ॥ जब तुव ध्यान धरै मुनि कोय, तब विदेह परमातम होय । जैसे धातु शिलानु त्याग, कनकस्वरूप धर्वे जब आग ॥ . जाके मन तुम करहु निवास, विनशि जाय क्यों विग्रह तास । ज्यों महन्त विच आवै कोय, विग्रहमूल निवारै सोय ॥ करहिं विबुध जे आतमध्यान, तुम प्रभावतें होय निदान ।
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जैसे नीर सुधा अनुमान, पीवत विषविकार की हान ॥ तुम भगवंत विमल गुण लीन, समलरूप मानहिं मति हीन । ज्यों पीलिया रोग हग गहै, वर्ण विवर्ण शंखसों कहै ॥ दोहा - निकट रहत उपदेश सुन तरुवर भयो अशोक ।
ज्यों रवि ऊगत जीव सव, प्रगट होत भुविलोक ॥ सुमनवृष्टि ज्यों सुर करहिं, हेठ वीठमुख सोहि । त्यों तुम सेवत सुमनजन वन्ध अधोमुख होहिं ॥ उपजी तुम होय उदधितैं, वाणी सुधा समान जिहं पीवत भविजन लहहि, अजर अमरपद थान । कहहिं सार तिहुँ लोक को, ये सुर चामर दोय । भावसहित जो जिन नमैं, तिहुँगति ऊरध होय ॥ सिंघासन गिरिमेरुसम, प्रभु धुनि गरजत घोर । श्याम सु तनु घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ॥. छविहत होत अशोक दल, तुम भामण्डल देख ॥। वीतराग के निकट रह, रहत न राग विशेष ॥ सीख कहै तिहुँ लोक को, ये सुरदुन्दुभिनाद | शिवपथसारथिवाह जिन, भजहु तजहु परमाद | तीन छत्र त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छविदेत । त्रिविधरूप धर मनहु शशि, सेवत नखत समेत ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
पद्धडी छन्द ।
प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम, परतापपुञ्ज जिम शुद्ध हेम । अतिधवल सुजस रूपा समान, तिनके गढ़ तीन विराजमान ॥ सेवहिं सुरेन्द्र कर नमत भाल, तिन शीश मुकुट तज देहिं भाल । तुम चरणलगत लहलहैं प्रीति, नहिं रमहि और जन सुमन रीति ॥ प्रभु भोगविमुख तन गरमदाह, जन पार करत भवजल निवाह | ज्यों माटी कलश सुपक्क होय, ले भार अधोमुख तिरहि तोय || तुम महाराज निरधन निराश, तज विभव विभव सब जग प्रकाश । अक्षर स्वभाव सुलिखे न कोय, महिमा भगवन्त अनन्त सोय || कर कोप कमठ निज वैर देख, तिन करी धूलि वर्षा विशेष | प्रभु तुम छाया नहि भई हीन, सो भयो पापि लंपट मलीन || गरजन्त घोर घन अन्धकार, चमकन्त विज्जु जल मुसलधार । चरषन्त कमठ घर ध्यान रुद्र, दुस्तर करन्त निज भव समुद्र || वास्तु छन्द | मेघमाली मेघमाली आप बल फोरि
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भेजे तुरत पिशाचगण, नाथ पास उपसर्ग कारण । अग्नि जाल झलकन्त मुख धुनि करत जिमि मत्तवारण ॥ कालरूप विकराल तन, मुण्डमाल हित कण्ठ । चौपाई |
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तुम चरणकमल तिहुँकाल, सेवहिं तज माया जजाल । भाव भगतिमन हरष अपार, धन्य-धन्य जग तिन अवतार ॥ भवसागर में फिरत अजान, मैं तुव सुजस सुन्यो नहिं काने । जो प्रभु नाम मन्त्र मन धरै तास विपति भुजगम डरे ॥
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मनवांछित फल जिनपदमाहिं, मैं पूरव भव पूजे नाहि । मायामगन फिस्यो अज्ञान, करहि रंकजन मुझ अपमान ॥ मोहतिमिर छायो ग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि । तौ दुर्जन मुझ संगति गहैं, मरमछेद के कुवचन कहैं ।। । सुन्यो कान जम पूजे पाय, ननन देख्यो रूप अघाय । भक्तिहेतु न भयो चित्त चाव, दुःखदायक किरिया विन भाव ॥ महाराज शरणागत पाल, पतित उधारण दीनदयाल सुमिरण करहुँ नाय निज शीश, मुझ दुःख दूर करहु जगदीश ।। कर्म निकन्दन महिमा सार, अशरणशरण सुजस विस्तार । नहिं सेये प्रभ तुमरे पाय, तो मुझ जन्म अकारथ जाय ॥, सुरगणवन्दित दयानिधान, जगतारण जगपति अनजान । दुःख सागरते मोहि निकासि, निर्भयथान देहु सुखरासि ।। मैं तुम चरणकमल गुणगाय, बहुविधि भक्ति करी मनलाय।'
जनम-जनम प्रभु पाऊ तोहि, यह सेवाफल दीजे मोहि ॥ - इह विधि श्रीभगवन्त, सुजस जे भविजन भाषहिं। ते जिन पुण्य भण्डार, संचि चिरपाप प्रणाशहिं । रोम-रोम हुलसन्ति, अंग प्रभु गुणमन ध्यावहिं। स्वर्ग सम्पदा भुञ्ज वेग पञ्चमगति पावहिं॥ यह कल्याणमन्दिर कियो, कुमुदचन्द्र की बुद्धि । भाषा कहत 'बनारसी' कारण समकित शुद्धि ॥४४॥
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चैन पूजा पाठ सग्रह
एकीभाव स्तोत्र भाषा दोहा-वादिराज सुनिराजके, चरणकमल चितलाय ।
भाषा एकीभाव की, करू स्वपरसुखदाय ॥१॥
पाल-"अहो जगत गुरुदेव सुनियो अर्ज हमारी" जो अति एकीक्षार भयो मानो अलिवारी।। लो मुल कर्ल प्रबन्ध करत भाभव दुःख भारी ॥ ताहि तिहारी भक्ति जगतरवि जो निरवारै । तो अब और कलेश कौल सो नाहि विदारै ॥ १॥ तुल जिल जोतिस्वरूप दुरित अंधिधारि निशरी। लो गणेश गुरु कहैं तत्व विद्याधन धारी॥ मेरे चितघर माहिं वलौ तेजोमय यावत । पापतिलिर अवकाश तहां तो क्योंकरि पावत ॥ २ ॥ आलन्द ऑसूबदत धोय तुलसों चित लाने । गदगद सुरतों सुघश मन्त्र पदि पूजा ठाने । ताके बहविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी। भाजै थालक छोड़ देह वांनइ के वासी ॥३॥ दिविसे आवनहार भये भविभाग उदयबल । पहले ही सुर आय कनकलय कीय लहीतल !} भलगृह ध्यान दुवार आय निवसो जगनामी । जो सुवरण तन करो कौन यह अचरज स्वामी ॥ ४ ॥
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प्रभु सब जग के बिना हेतु बांधव उपकारी। निरावरण सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहारी ॥ भक्ति रचित ममचित्त सेज नित वास करोगे। मेरे दुःख सन्ताप देख किम धीर धरोगे ॥ ५ ॥ भववनमें चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई । तुम थुति कथा पियूषवापिका भागन पाई ।। शशि तुषार धन सार हार शीतल नहिं जा सम । करत न्हौन तामाहिं क्यों न भवताप बुझे मम ॥ ६ ॥ श्रीविहार परिवाह होत शुचि रूप सकल जग । कमलकनक आमाव सुरभि श्रीवास धरत एग ।। मेरो मन सवंग परस प्रभु को सुख पावै । अब सोकौन कल्याणजोनदिन दिन ढिग आवै ॥ ७ ॥ भवतज सुखपद बसे काममद सुभट संहारे । जो तुमको निरखन्त सदा प्रियदास तिहारे । तुम वचनामृतपान भकि अंजुलिसों पी। तिन्हें भयानक ऋररोगरिपु कैसे छीवै ॥ ८ ॥ मानथम्भ पाषाण आल पाषाण पटन्तर । ऐसे और अनेक रतन दीखें जग अन्तर ।। देखत दृष्टिप्रमाण नाममद तरत मिटावै । जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर पावै ।। ६ ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
प्रभुतन पर्वतपरस पवन उर में निवहै है । तासों ततछिन सकल रोगरज बाहिर है है ॥ जाके ध्यानाहूत बसो उर अम्बुज माहीं । कौन जगत उपकार करन समरथ सो जनम जनम के दुःख सहे सब ते तुम याद किये मुझ हिये लगें आयुध से तुम दयाल जगपाल स्वामि में शरण जो कछ करनो होय करो परमाण वही है ॥ ११ ॥ मरन सँमय तुम नाम मन्त्र जीवकतैं पायो । पापाचारी श्वान प्राण तज अमर कहायो || जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरन्तर । इन्द्र सम्पदा लहै कौन संशय इस अन्तर ॥१२॥ जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै । अनवधि सुखकी सार भक्ति कूची नहिं लाधै ॥ सो शिववांछक पुरुष मोक्षपट केम उधारै । मोह मुहर दिढ करी मोक्ष मन्दिर के द्वारे ॥ १३ ॥ शिवपुर केरो पंथ पापतमसों अति छायो । दुःखसरूप बहु कूप खाड सों विकट बतायो ॥ स्वामी सुख सों तहां कौन जन मारग लागें । प्रभु प्रवचनमणिदीप जोन के आगें आगें ॥१४॥
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नाहीं ॥ १० ॥ जानो ।
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मानो ॥ गही है ।
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कर्मपटल भूमाहिं दुबी आतमनिधि भारी । देखत अतिसुख होय विमुख जन नाहिं उघारी ॥ तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै। थुति कुदालसों खोद बन्द भू कठिन विदारे ॥१५॥ स्यादवादगिरि उपज मोक्ष सागर लों धाई। तुम चरणांबज परस भक्ति गंगा सुखदाई॥ मो चित निर्मल थयो न्होन रुचिपूरव तामें । अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामें ॥१६॥ तुम शिवसुखमय प्रगट प्रभु चिंतन तेरो। मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो॥ यद्यपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावै । तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै ॥१७॥ वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापै । भंग तरंगिनि विकथवादमल मलिन उथापै ॥ मनसुमेरुसों मथै ताहि जे सम्यकज्ञानी । परमामृत सों तृपत होहिं ते चिरलों प्रानी ॥१८॥ जो कुदेव छवि हीन वसन भूषण अभिलाखै। वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखे । तुम सुन्दर सर्वग शत्रु समरथ नहिं कोई । भूषण वसन गदादि ग्रहण काहे को होई ॥१६॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
सुरपति सेवा कर कहा प्रभु प्रभुता तेरी | सो सलाघना लहै मिटै जगसों जगफेरी ॥ तुम भवजलधि जिहाज तोहि शिवकन्त उचरिये । तुही जगत जनपाल नाथ थुति की थुति करिये ॥२०॥ वचन जाल जडरूप आप चिन्मूरति सांई । तातें थुलि आलाप नाहिं पहुँचे तुम लांई ॥ तो भी निष्फल नाहिं भक्तिरस भीने वाधक । सन्तनको सुरतरु समान वांछित वर दायक ॥२१॥ कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहु नहिं धारों । अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहारो || तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये । यह प्रभुता जग तिलक कहाँ तुम बिन सरदहिये ||२२|| सुरतिय गावें सुरनि सर्वगति ज्ञान स्वरूपी । जो तुमको थिर होहिं नमैं भवि आनन्दरूपी || ताहि छेमपुर चलनवाट बाकी नहिं हो है । श्रुतके सुमरन माहिं सो न कबहूँ नर मोहै ॥२३॥ अतुल चतुष्टयरूप तुमैं जो चित में धारै । आदरसों तिहुँकाल माहिं जग थुति विस्तारै ॥ सो सुकत शिवपंथ भक्ति रचना कर पूरै । पञ्चकल्याणक ऋद्धि पाय हिचे दुःख चूरै ॥२४॥
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अहो जगतपति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि हारे। तुम गुणकीर्तन माहिं कौन हम मन्द विचारे ।। थुति छलसों तुम विपै देव आदर विस्तारे । शिवसुख पूरणहार कलपतरु यही हमारे ॥२५॥४ वादिराज मुनितें अनु, वैय्याकरणी सारे । वादिराज मुनितें अनु तार्किक विद्यावारे ॥ वादिराज मुनित अनु हे काव्यन के ज्ञाता । वादिराज मुनिः अनु है अविजन के त्राता ॥२६॥ दोहा-मूल अर्थ वहुविधि कुसुम, भाषा सूत्र मंझार ।
भक्तिमाल भूधर' करी करो कण्ठ सुखकार ॥
श्री नेमिनाथ के पूर्वभव-छप्पय पहले भव वन भील, दुतिय अभिकेतु सेठघर । तीजै सुर सौधर्म, चौम चिंतागति नभचर ॥ पंचम चौथे वर्ग, छठें अपराजित राजा। अच्युतैन्द्र सातवें अमरकुलतिलक विराजा ।। सुप्रतिष्टराय आठम नबैं जन्म जयन्त विमान धर । फिर भये नेमिहरि वंशशशि ये दशभव सुधिकरहु नर
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जैम पूजा पाठ सप्रह
, विषापहार स्तोत्र भाषा.
दोहा - नमो नाभिनन्दन बली, तत्त्वप्रकाशनहार । तुर्यकाल की आदि में, भये प्रथम अवतार ॥
रोला छन्द
निज आतम में लीन ज्ञानकरि व्यापत सारे। जानत सब व्यापार संग नहिं कछू तिहारे || बहुत काल हो पुनि जरा न देह तिहारी । ऐसे पुरुष पुरान करहु रक्षा जु हमारी ॥ १ ॥ परकरिकें जु अचिन्त्य भार जग को अतिभारो । सो एकाकी भयो वृषभ कीनों निसतारो || करि न सके जोगीन्द्र स्तवन मैं करिहों ताको । भानु प्रकाश न करै दीप तम हरे गुफा को ॥ २ ॥ स्तवन करनको गर्व तज्यो शकी बहु ज्ञानी । मैं नहिं तजों कदापि स्वल्पज्ञानी शुभध्यानी ॥ अधिक अर्थको कहूँ यथा विधि बैठि झरोके ॥ जालान्तर घरि अक्ष भूमिधर को जु विलोकै ॥ ३ ॥ सकल जगतकों देखत अर सबके तुम ज्ञायक । तुमको देखन नाहि नाहि जानत सुखदायक ॥ हो किसाक तुम नाथ और कितनाक बखाने । लाते थुति नहि बनै अशक्ति भये सयानै ॥ ४ ॥
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बालकवत निजदोष थकी इहलोक दुखी अति । रोगरहित तुम कियो कृपाकरि देव भुवनपति ॥ हित अनहितकी समझि मांहि है मन्दमती हम । सब प्राणिन के हेत नाथ तुम बालवेद सम ।। ५ दाता हरता नाहिं सानु सबको बहकावत । आजकालके छलकर नित प्रति दिवस गुमावत ॥ हे अच्युत जो भक्त नमैं तुम चरण कमलको । छिनक एकमैं आप देत मनवांछित फलको ॥ ६ ॥ तुमसों सन्मुख रहे भक्तिसौं सो सुख पावै । जो सुभावतैं विमुख आप दुःखहि बढ़ावै ॥ सदा नाथ अवदात एक 'ति रूप गुसांई । इन दोन्यों के हेत स्वच्छ दरपणवत झांई ॥ ७ ॥ है अगाध जलनिधि समुदजल है जितनो ही । मेरु तुङ्गसुभाव शिखरलौं उच्च भन्यो ही ॥ वसुधा अर सुरलोक एहु इस भांति सई है । तेरी प्रभुता देव ! भुवनिकं लंधि गई है ॥ ८ ॥ है अनवस्था र्म परम सो तत्त्व तुमारे । कह्यो न आवागमन प्रभू मतमांहिं तिहारे ॥ दृष्ट प्रदारथ छांडि आप इच्छति अदृष्टको । विरुध वृद्धि तव नाथ समंजस होय सृष्टकौ ॥ ६ ॥
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जैन पूजा पाठ संग्रह
हास्यो । उजाखो || १० बतावें ।
कामदेव को किया भस्म जगत्राता थे ही। लीनी भस्म लपेट नॉम शम्भू निजदेही | सूतो होय अचेत विष्णु वनिताकरि तुमको काम न गहै आप घट सदा पापवान वा पुण्यवान सो देव तिनके औगुण कहै नाहिं तू गुणी निज सुभावतें अम्बुराशि निज महिमा तोक सरोवर कहे कहा उपमा बढ़ि जावै ॥ ११ ॥ कर्मन की थिति जन्तु अनेक करे दुःख कारी । सो थिति बहु परकार करे जीवन की ख्वारी ॥ भवसमुद्र के मांहि देव दोन्यों के साखी । नाविक नाव समान आप वाणी मैं भाखी ॥ १२ ॥ सुखकों तो दुःख कहै गुणनकूं दोष धर्मकरन के हेत पाप हिरदै बिच तेल निकासन काज धूलिकों पेलै तेरे मतसों वाह्य इसे जे जीव अज्ञानी ॥ १३ ॥ विष मोर्चे aantल रोगकौं हरै ततच्छन । मणि औषधी रसाण मन्त्र जो होय सुलच्छन ॥ ए सब तेरे नाम सुबुद्धी यों मन धरिहैं । भ्रमत अपर जन वृथा नहीं तुम सुमिरन करिहैं ॥१४॥
विचारै ।
धारै ॥
घानी ।
३६६
कहावै ॥
पावै ।
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किंचित भी चितमाहिं आप कछु करो न स्वामी। जे गर्दै जितमाहिं आपको शुभ परिणामी ॥ हस्तामलवत लखें जगत को परिणति जेती। तेरे चित के वाह्य तोउ जीवै सुखसेती ॥ १५ ॥ तीनलोक तिरकालमाहिं तुम जानत सारी। स्वामी इनकी संख्या थी तितनीहिं निहारी॥ जो लोकादिक हुते अनन्ते साहिब मेरा । तेऽपि झलकते आनि ज्ञान का ओर न तेरा ॥१६॥ है अगन्य तबरूप करै सुरपति प्रभु सेवा। ना कछु तुम उपकार हेत देवन के देवा ।। भक्ति तिहारी नाथ इन्द्र के तोषित मन को। ज्यों रवि सन्मुख छत्र कर छाया निज तन को ॥१७॥ वीतरागता कहां - कहां उपदेश सुखाकर । सो इच्छा प्रतिकूल वचन किम होय जिनेसर ॥ प्रतिकूली भी वचन जगतकं प्यारे अतिही। हम कछ जानी नाहिं तिहारी सत्यासतिही ॥१८॥ उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित न धरन । जो प्रापति तुम थकी नाहि सो धनेसुरनतें ॥ उच्च प्रकृति जल बिना भूमिधर धुनी प्रकाशै । जलधि नीरत भयो नदी ना एक निकासै ॥१६॥
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२० ॥
धन ।
तीन लोक के जीव करो जिनवर की नियम थकी करदन्ड धस्त्रो देवन के प्रातिहार्य तौ वने इन्द्र के वनै न अथवा तेरे वनै तिहारे निमित्त परेरे ॥ तेरे सेवक नाहिं इसे जे पुरुषहीन धनवानों की ओर लखत वे नाहिं लखतपन ॥ जैसैं तमथिति किये लखत परकास थितीकूं । तैसें सुकत नाहिं तमथिति मन्दमतीकूं ||२१|| निज वृध स्वासोच्छास प्रगट लोचन टमकारा । तिनको वेदत नाहि लोकजन मूढ विचारा || सकल ज्ञेय ज्ञायक जु अमूरति ज्ञान सुलच्छन । सो किमि जान्यो जाय देव रूप विचच्छत ॥२२॥ नाभिराय के पुत्र पिता प्रभु भरततने हैं । कुलप्रकाशिक नाथ तिहारो स्तवन भनें हैं ॥ ते लघु धी असमान गुणनकों नाहिं भजै हैं । सुवरण आयो हाथि जानि पाषाण
तजै हैं ॥२३॥
ढोल
बजाया ।
सुरासुरन को जीति मोहने तीनलोक में किये सकल वशि यों गरभाया । तुम अनन्त बलवन्त नाहिं ढिग आवन पाया ।
करि विरोध तुम थकी मूल नाश कराया ॥२४॥
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सेवा 1
देवा ॥
तेरे
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एक मुक्ति का मार्ग देव तुमने परकास्या । गहन चतुरगतिमार्ग अन्य देवनकूं भास्या ॥ हम सब देखन हार, इसी विधि भाव सुमिरिकैं । भुज न बिलोको नाथ कदाचित गर्भ जु धरिकैं ||२५|| केतु विपक्षी अर्कतनो फुनि अग्नितनो जल | अम्बुनिधि अरि प्रलय कालको पवन महाबल ॥ जगतमांहिं जे भोग वियोग विपक्षी है निति । तेरो उदयो है विपक्षतै रहित जगत्पति ॥ २६ ॥ जाने बिन हू नवत आपको शुभ फल पावे | नमत अन्य को देव जानि सो हाथ न आवे ॥ हरित मणीकूं कांच, कांच मणी रटत हैं । ताकी बुधि में भूल, सूल सणि को न घटत हैं ||२७|| जे विवहारी जीव वचन मैं कुशल सयाने । ते कपायकरि दुग्ध नरनकों देव वखानें ॥ ज्यों दीपक बुझि जाय ताहि कह 'नन्दि' भयो है । भग्न घड़े को कहैं कलश ए मंगल गयो है ॥२८॥ स्यादवाद संयुक्त अर्थ का प्रगट चखानत । हितकारी तुम वचन श्रवणकरि को नहिं जानत ॥ दोषरहित ए देव शिरोमणि वक्ता जगगुर । जो ज्वरसेती मुक्त भयो सो कहत सरल सुर ||२६||
२४
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विन वांछा ए वचन आपके विरं कदाचित है नियोग एकोपि जगत को करन सहज हित । करे न वांछा इसी चन्द्रमा पृरो जलनिधि सीतरश्मिक पाय उदधि जल बढे स्वयं सिधि तेरे गुण गम्भीर परम पावन जगमाई बहु प्रकार प्रभु है अनन्त कछु पार न पाई ॥ तिन गुणान को अन्त एक याही विधि दी । ते गुण तुम्ही मांहि और में नाहि जगीत । केवल श्रुति ही नाहिं भक्तिपूर्वक हम ध्यावत ।
सुमरण प्रणमन तथा जनकर तुम गुण गावत ॥ चितवन पूजन ध्यान नमनकरि नित आराधे । को उपावकरि देव सिद्धि फल को हम साधें । त्रैलोकी नगराधि देव नित ज्ञान प्रकाशी । परम ज्योति परमातम यक्ति अनन्ती भाती ॥ पुण्य पाप रहित पुण्य के कारण स्वामी । नमो नमो जगवन्य अवन्धक नाथ अकामी । रस सपरस अर गन्ध रूप नहि शब्द तिहारे । इनके विषय विचित्र भेद सब जाननहारे ॥ सब जीवन प्रतिपाल अन्य करि है अगम्यगन | मरण गोचर नाहि करो जिन तेरो सुमिरन ॥
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तुम अगाध जिनदेव चित्त के गोचर नाहीं । निःकिंचन भी प्रभू धनेश्वर जावत सांई ॥ भये विश्व के पार दृष्टिसों पार न पावै । जिनपति एम तिहारि जगजन शरण आवै ॥ ३५ ॥ नमीं नमौं जिनदेव जगतगुरु शिक्षादायक । निज गुण सेती भई उन्नति महिमा लायक ॥ पाहनखण्ड पहार पलै ज्यो होत और गिर । त्यों कुलपर्वत नाहिं सनातन दीर्घ भूमिवर ॥३६॥ स्वयं प्रकाशी देव रैन दिनकूं नहिं वाधित । दिवस रात्रि भी छतैं आपकी प्रभा प्रकाशित || लाघव गौरव नाहिं एकसो रूप तिहारो । कालकलातें रहित प्रभूसूँ नमन हमारो ॥३७॥ इहविधि बहु परकार देव तव भक्ति करी हम | जाचू वर न कदापि दीन है रागसहित तव ॥ छाया बैठत सहज वृक्ष के फिर छाया को जाचत यामें जो कुछ इच्छा होय देन की यो बुधि ऐसी करूँ प्रीतिसौं भक्ति करो कृपा जिनदेव हमारे परि है सनमुख अपनो जानि कौन पण्डित नहिं पोषित ॥३६॥
नीचे है है ।
प्रापति है है ||३८|| तौ उपगारी ।
तिहारी ॥ तोषित ।
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जैन पूजा पाठ सग्रह
यथा कथंचित भक्ति रचे विनयी तिनकू श्रीजिलदेव मनोवांछित फल देही ॥ फुनि विशेष जो नमत सन्तजन तुमको ध्यावै । सो सुख जल 'धन-जय' प्रापति द्वै शिवपद पावै ॥४०॥ श्रावक माणिकचन्द सुबद्धी अर्थ बताया। लो कवि 'शान्तिदास' सुगमकरि छन्द बनाया ॥ फिर फिरिक ऋषि रूपचन्द ने करी प्रेरणा। साषा स्तोत्र 'विषारहार' की पढ़ो अविजना ॥४१॥
सुख
• हम ही अपनी शान्ति में वायक है। जितने भी पदार्थ ससार में हैं उन
में से एक भी पदार्थ शान्त स्वभाव का वाधक नहीं वर्त्तन में रक्खी हुई मदिरा अथवा डिब्बे में रक्खा हुआ पान पुरुषों में विकृति का कारण नहीं। पदार्थ हमें बलात् विकारी नहीं बनाता, हम स्वय मिथ्या विकल्पो से इष्टानिष्ट कल्पना कर सुखी और दुखी होते हैं। कोई भी पदार्थ न तो सुख देता है और न दुख देता है, इसलिये जहाँ तक बने आभ्यन्तर परिणामों की विशुद्धि पर सदैव ध्यान रखना चाहिए । - सुखी होने का सर्वोत्तम उपाय तो यह है कि पर पदार्थों में स्वत्व को त्याग दो।
- 'वर्णी वाणी' से
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पाश्र्वनाथ स्तोत्र ( भृधरकृत)
दोहा -कर जिन पूजा अष्ट विधि, भाव भक्त जिन भाय । अब सुरेश परमेश थुति, करौ शीश निज नाय ।
चौपाई
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प्रभु इस जग समरथ ना कोय जामो तुम यश वर्णन होय : नार ज्ञानधारी मुनि थर्के, हमसे मन्द कहा कर सकें | यह उर जानत निश्चय होन, जिन महिला वर्णन हम कीन । पर तुम भक्ति थकी वाचाल. तिस वा होय कहूँ गुण माल || जय तीर्थकर त्रिभुवन धनी, जय चन्द्रोपम चूडामणी जय जय परम धाम दातार, कर्मकुलाचल चूरणहार | जय शिव कामिनि कन्त महन्त, अतुल अनन्त चतुष्टय वन्त । जय जय आशभरण बड़ भाग. तप लक्ष्मी के सुसँग सुहाय ॥ जय जय धर्मध्वजाधर धीर. स्वर्ग मोक्ष दाता वरवीर । जय रत्नत्रय रत्नकरण्ड, जय जिन तारण तरण तरण्ड ॥ जय जय समवशरण शृङ्गार, जय संशय वन दहून तुषार । जय जय निर्विकार निर्दोष, जय अनन्त गुण माणिक कोष ॥ जय जय ब्रह्मचर्यदल साज, काम सुभट विजयी भटराज । जय जय मोहमहातरु करी, जय जय मदकुअर केहरी । क्रोधमहानल - मेघ प्रचण्ड, मान मोह घर दामिन दण्ड । माया बेल धनञ्जय वाह. लोभ सलिल शोषण दिननाह ॥ तुम गुणसागर अगम अपार ज्ञान जहाज न पहुँचे पार । तँट ही तट पर डोले सोय, कारण सिद्ध यहा ही होय ॥ तुमरी कीर्तिबेल बहु बढ़ी, यत्न विना जममण्डप चढी ! अवर कुदेव सुयस निज चहैं, प्रभु अपने यल ही यश लहैं ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
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जगति जीव घमै विन ज्ञान, कीना मोह महाविष पान । तुम सेवा विषनाशक जरी, तिहुँ मुनिजन मिल निश्चय करी ॥ जन्म- जरा मिथ्या मत मूल, जन्म मरण लागे तिहॅ फूल | सो कबहूँ विन भक्त कुठार, कटै नहीं दुःख फल दातार || कल्प सरोवर चित्रा बेल, काम पोरवा नवनिधि मेल । चिन्तामणि पारस पाषान पुण्य पदारथ और महान || ये सब एक जन्म संयोग, किंचित सुखदातार नियोग । त्रिभुवननाथ तुम्हारी सेव, जन्म-जन्म सुखदायक देव || तुम जग बांधव तुम जगतात, अशरणशरण विरद विख्यात । तुम सब जीवन के रखवाल, तुम दाता तुम परम दयाल ॥ तुम पुनीत तुम पुरुष प्रमान, तुम समदर्शी तुम सब जान । जय मुनि-यज्ञ पुरुष परमेश, तुम ब्रह्मा तुम विष्णु महेश ॥ तुम जगभर्त्ता तुम जगजान, स्वामि स्वयम्भू तुम अमलान । तुम बिन तीन कॉल तिहुँ लोय, नाही कारण जीवका होय ॥ यात अत्र करुणानिधि नाथ, तुम सन्मुख हम जोडें हाथ । जबलों निकट होय निर्वान, जंग निवास छूटै दुःखदान ॥ तबलौं तुम चरणांवुज वास, हम उर होय यही अर दास । और न कछु बांछाँ भगवान, है दयालु दीजें वरदान || दोहा - इहिविधि इन्द्रादिक अमर, कर बहु भक्ति विधान । निज कोठे बैठे सकल, प्रभु सन्मुख सुख मान ॥ जीति कर्मरिपु जे भये, केवल लब्धि निवास । सो श्री पार्श्व प्रभु सदा, करो विघ्नघन नाश ॥
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निर्वाणकाण्ड भाषा
चन्द्रत्तराय
दोहा - चीतराग बंदौ सदा भावमहित सिरनाय । कॉ कांड निर्वाणकी, भाषा सुगम बनाय ॥ चोपाई अष्टापट आदीवर स्वामि, वासुपूज्य चंपापुर नामि || नेमिनाथ स्वामी गिरनार, चंदो भाव-भगति उर धार ॥ चरम तीर्थकर चरम शरीर, पाचापुरि स्वामी महावीर । शिसनमेद जिनेसुर बीस, भावसहित चंदों निश-दीस || इंद मुनिंद, सायरदत्त आदि गुणवृंद | नगर तारवर मुनि उटकोडि, चंदी भावसहित कर जोड़ि || श्रीगिरनार शिसर विख्यात, कोडि बहत्तर अरु सौ सात । संग्रदस्त कुमर है भाय, अनिरुध आदि नमू तमुपाय || रामचंद्र वीर. लाटनरिंद आदि गुणधीर । पाच कोटि मुनि मुक्ति मकार, पाचागिरि वढी निरधार ॥ पांडव तीन द्रविड राजान, आट कोटि मुनि मुकति पयान । श्रीशत्रु जयगिरिके शीन, भावसहित वंदी निश-दीस || जे बलभद्र मुकतिमं गये, आट कोडि मुनि औरह भये । श्रीगजपंथ शिसर सुनिशाल, तिनके चरण नम्रं तिहुँ काल ॥ राम हणू सुग्रीव गुडील, गव गवाख्य नील महानील । कोटि निन्यानव मुक्ति पयान, तुंगीगिरि वंढा धरि ध्यान || नंग अनंग कुमार गुजान, पॉच कोडि अरु अर्ध प्रमान । मुक्ति गये सोनागिरि-शीश, ते वर्दी त्रिभुवनपति ईस || रावणके सुत आदिकुमार, मुक्ति गये रेवा-तट सार |
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कोटि पंच अरु लाख पचास, ते वढौ धरि परम हुलास ॥ रेवानटी सिद्धवरकूट, पश्चिम दिशा देह जहॅ छूट | द्वै चक्री दश कामकुमार, ऊठकोडि वंदौ मत्र पार || वडवानी वडनयर सुचंग, दक्षिण दिशि गिरि चूल उतंग ! इंद्रजीत अरु कुभ जु कर्ण, ते बंदौ भव-सायर-तर्ण || सुवरणभद्र आदि मुनि चार, पावागिरि-वर - शिखरमॅकार । चेलना - नदी-तीरके पास, मुक्ति गये वंदौ नित तास || फलहोडी वड़गाम अनूप, पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप | गुरुदत्तादि मुनीसुर जहाँ, मुक्ति गये बंदौ नित तहाँ ॥ चाल महावाल मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय । श्रीअष्टापद मुक्ति मॅझार, ते बंदौ नित सुरत सॅभार || अचलापुरकी दिश ईसान, तहाँ मेंढ्रगिरि नाम प्रधान | साढे तीन कोडि मुनिराय, तिनके चरण नमू' चित लाय ॥ वंसस्थल वनके ढिग होय, पश्चिम दिशा कुंथुगिरि सोय । कुलभूषण दिशिभूषण नाम, तिनके चरणनि करूँ प्रणाम || जसरथ राजाके सुत कहे, देश कलिंग पॉचसौ लहे । कोटिशिला मुनि कोटि प्रमान, चंदन करूँ जोर जुग पान ॥ समवसरण श्रीपार्श्व-जिनंद, रेसिंदीगिरि नयनानंद | वरदत्तादि पंच ऋषिराज, ते बंदौ नित धरम-जिहाज ॥ मथुरापुर पवित्र उद्यान जम्बू स्वामी जी निरवान । चरम केवली पंचमकाल, ते वदो नित दीन दयाल || तीन लोकके तीरथ जहाँ, नित प्रति बंदन कीजै तहाँ । मन-चच-कायसहित सिर नाय, वंदन करहि भविक गुण गाय || संवत सतरहसौ इक्ताल, आश्विन सुदि दशमी सुविशाल । 'भैया' बंदन करहि त्रिकाल, जय निर्वाणकाड गुणमाल ॥
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आलोचनापाठ
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बंदोपांची परम-गुरु चौबीसों जिनराज । करूँ शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरनके काज ॥१॥ ससीनन्द सुनिये जिन अरज हमारी. हम दोष किये अति भारी । तिनको अय निषेति काज, तुम सरन लही जिनराज ॥ इक वे तेच मंत्री था. मनरहित महित जे जीवा । तिनकी नहिं क्या धारी, निरदह है घात विचारी ॥ समरस समारंभ आरंभ, मन चच तन कीने प्रारंभ | कृत कारित मोदन करिकैं, क्रोधादि चतुष्टय धरिकै ॥ शत आठ इनि मैदनते, अघ कीने परछेदनतें । निकी कई कोलों कहानी तुम जानत केवलज्ञानी ॥ विपरीत एकांत विनयुके मंशय अज्ञान कुनयके । यश होय पोर अप फोने. चचते नहिं जाय कहीने ॥ लग्नकी सेवा कीनी, केवल अदयाकरि भीनी । याविधि मिध्यात भ्रमायो, चहुंगति गधि दोष उपायो ॥ हिंसा पनि ट ज चोरी, परवनितासों हग जोरी। आरभ परिग्रह भीनी. पन पाप जु या विधि कीनो ॥ परस रसना धाननको, चतु कान विपय सेवनको । वह करम किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय न जाने ॥ फलै पच उदंवर खावे, मधु मांस मय चित चाये । नहि अष्ट मूलगुण घारी, सेये कुविसन दुसकारी ॥ दुहवीम अभय जिन गाये, सो भी निस दिन भुंजाये । कटु मंदाभेद न पायो, ज्यों त्यों करि उदर भरायो । अनतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो । संज्वलन चौकी गुनिये, सच मेद जु पोडश सुनिये || परिहास अरति रति शोग, भय ग्लानि त्रिवेद संयोग ।
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जैन पूजा पाठ सग्रह
किये हम ॥
पनवीस जु मेद भये इम इनके वश पाप निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई । फिर जागि विषय वन घायो. नानाविध विव- फल खायो || कियेऽहार निहार विहारा, इनमें नहिं जतन विचारा | विन देखी घरी उठाई, विन शोधी त्रस्तु जु खाई ॥ तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकलप उपजायो । कछु सुधि बुषि नाहिं रही हैं, मिथ्या मति छाय गयी है । मरजादा तुम टिंग लीनी, ताहमें दोष जु कीनी । भिनभिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविषै सब पहये ॥ हा हा ! मैं दुठ अपराधी, त्रस - जीवन -राशि विराधी । थावरकी जतन न कीनी, उरमे करुना नहिं लीनी ॥ पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई पुनि विन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातें पवन विलोल्यो || हा हा । मैं अदयाचारी बहु हरितकाय जु विदारी । तामधि जीवनके खंदा, हम खाये धरि आनंदा || हा हा ! परसाद बसाई, विन देखे अगनि जलाई । तामध्य जीव जे आये. ते हु परलोक सिधाये ॥ वीध्यो अन रात पिसायो, ईधन बिन सोध जलायो । भाइ ले जागा बहारी, चिंउटी आदिक जीव विदारी । जल छानि जिवानी कीनी, सो हु पुनि डारि जु दीनी । नहिं जल- थानक पहुँचाई, किरिया विन पाप उपाई ॥ जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि कुल बहु घात करायो । नदियन बिच चीर धुवाये, कोसनके जीव मराये || अस्मादिक शोध कराई, गमैं जु जीव निसराई ।
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तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया ॥ पुनि नृत्य कमावन का यह आरंभ हिसा साजै । किये अव तिमनावश भार्ग, करुना नहिं रंच
विचारी ॥ भगवंता ।
श्री
शिवधानी । सही है ।
इत्पादिक पाप अनंता, हम फीने संतति चिरकाल उपाई, चानी ते कहिय न जाई ॥ ताकी जय आयो, नानाविध मोहि सतायो । फल झुंजत जिय दुख पारे, वचतं केले करि गावै ॥ तुम जानत केवलगानी दुख दूर करो हम तो तुम शरण ली है. जिन तारन नि जी गावपनी कहो तो भी इसिया दुस खो तुम तीन सुजनके स्वामी, दुस मेटहु अंतरजामी || द्रोपदी चीर दायी, सीताप्रति कमल रचायो । अंजनसे किये अकामी, दुस मेटो अंतरजामी ॥ मेरे अवगुन न चितारी, प्रभु अपनी विरद सम्हारो । सब दोषरहित करि स्वामी, दस मेट अंतरजामी ॥ इंद्रादिक पदची नहिं चाहे विषयनिमे नाहिं लुभाऊँ । रागादिक दोपहरी, परमानम निज पद दीजै ॥ बीटा टोपरहित जिनदेवजी, निजपट दीज्यो मोय | नव जीवनके गुस चह, आनंद मंगल होय ॥ अनुभव माणिक पारसी, 'जौहरि' आप जिनन्द | यही वर मोहि दीजिये, चरन शरन आनन्द ||
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नेन पूजा पाठ सप्रह
सामायिक पाठ भाषा
प्रथम प्रतिक्रमण कम काल अनन्त भयो जग में सहिये दुःख भारी। जन्म मरण नित किये पाप को है अधिकारी ।। कोटि अवान्तर माहि मिलन दुर्लभ सामायिक । धन्य आज मैं भयो जोग मिलियो सुखदायिक ॥ १॥ हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जु मैं अब । ते सब भनवचकाय योग की गुप्ति बिना लभ ॥ आप समीप हजूर मांहि मैं खड़ो-खड़ो सब । दोष कहूँ सो सुनो करो नठ दुःख देहि जब ॥ २ ॥ क्रोध सान मद लोभ मोह मायावशि प्रानी। दुःख सहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ॥ बिला प्रयोजन एकेन्द्रिय बितिचउपंचेन्द्रिय । आप प्रसादहिं मिट दोष जो लग्यो मोहि जिय ॥ ३ ॥ आपस में इकठौर थाप करि जे दुःख दीने । पेलि दिए पगतले दावि करि प्राण हरीने ॥ आप जगतके जीव जिते तिन सबके नायक । अरज करूँ मैं सुनो दोष मेटो दुःखदायक ॥ ४ ॥ अञ्जन आदिक चोर महा घनघोर पाप मय । 'तिनके जै अपराध भये ते क्षमा-क्षमा किय ।। मेरे जे अव दोष भये ते क्षमहु दयानिधि ।
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यह पडिकोणो कियो आदि षट्कर्म मांहि विधि ॥ ५ ॥
इसके आदि वा अन्त में आलोचना पाठ बोल कर फिर द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म का पाठ करना चाहिये।।
द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे । तिनको जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे ॥ सो सब झूठो होउ जगतपति के परसाद । जा प्रसाद से मिले सर्व सुख दुःख न लाधै ॥ ६ ॥ मैं पापी निर्लज्ज दया करि हीन महाशठ । किये पाप अघढेर पापमति होय चित्त ठ॥ निन्दू हूं मैं बार-बार निज जिय को गरहूं। सब विधि धर्म उपाय पाय फिर पाप न करहूं ॥७॥ दुर्लभ है नर-जन्म तथा श्रावक कुल भारी। सतसंगति संयोग धर्म जिन श्रद्धा धारी ॥ जिन वचनामृत धार समावर्ते जिनवानी । तोह जीव संघारे धिक धिक धिक हम जानी ॥ ८॥ इन्द्रिय लंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सा । अज्ञानी जिनि कर तिसी विधि हिंसक है अब । गमना गलन करन्तो जीव विराधे भोले। ते सब दोष किये निन्द्रं अब मन वच तोले ॥६॥ आलोचन विधि थकी दोष लागे जु घनेरे। - ते सव दोष विनाश होउ तुस तें जिन मेरे ॥ बार-बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता।
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जैन पूजा पाठ संग्रह
ईर्षादिकतै भये निंदिये जे भयभीता ॥१०॥
तृतीय सामायिक भाव-कर्म सब जीवन में मेरे समता भाव जग्यो है। सब जिय मोसम समता राखो भाव लग्यो है। आर्त रौद्र द्वय ध्यान छांडि करिहूं सामायिक । संजममो कन शद्ध होय यह भाव बधायिक ॥११॥ पृथिवी जल अरु अलि वायु चउकाय वनस्पति । पंचहि थावर मांहि तथा उस जीव बर्से जिति ॥ वे इन्द्रिय लिय 13 पंचेन्द्रिय मांहि जीव सब । तिनतै क्षमा कराऊँ मुझ पर क्षमा करौ अब ॥१२॥ इस अवसर में मेरे सब सम कञ्चन अरु तृण । महल मलान समान शत्रु अरु भित्रहि समगण ॥ जामन भरण लबान जानि हम समता कीनी। सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी ॥१३॥ मेरो है इक आतम तामैं ममत जु कीनो। और सीमा भिन्न जानि लमता रस भीनो ॥ भात पिता सुत बन्धु मित्र तिय आदि सबै यह । मोते न्यारे जानि जथारथ रूप कयो गह ॥१४॥ मैं अनादि जगजाल मांहि फँसि रूप न जाण्यो। एकेन्द्रिय दे आदि जन्तु को प्राण हराण्यो। ते सब जीव समूह सुनो मेरी यह अरजी। भव-भव को अपराध छिमा कीज्यो कर मरजी ॥१५॥
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चतुर्थ स्तवन कर्म
नम ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्मको । सम्भव भवदुःखहरण करण अभिनन्दन शर्मको ॥ सुमति सुमति दातार तार भवसिंधु पार कर । पद्मप्रभ पद्माभ भानि भवभीति प्रीति घर ॥१६॥ श्रीसुपार्श्व कृतपाश नाश भव जास शुद्ध कर । श्रीचन्द्रप्रभ चन्द्रकान्ति सम देह कान्तिधर || पुष्पदन्त दमि दोषकोश भविषोष शेषहर । शीतल शीतल करण हरण भवताप दोषकर ॥ १७॥ श्रेय रूप जिन श्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन | वासुपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभयहन ॥ विमल विमलमति देय अन्तगत है अनन्तजिन । धर्म - शर्म शिवकरण शान्तिजिन शान्तिविधायिन ॥१८॥ कुंथु कुंथुमुख जीवपाल अरनाथ जालहर | मल्लि मल्लसम मोहमलमारण प्रचार धर ।। मुनिसुवत व्रतकरण नमल सुरसंघहि नमिजिल । नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरत मांहि ज्ञानधन ॥१६॥ पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपलसम मोक्ष रमापति । दर्द्धमान जिन नमूं बसूं भवदुःख कर्मकृत ॥ या विधि में जिन संघ रूप चउवीस संख्यधर । स्तवं नमूं हूँ बार-बार बंदू शिव सुखकर ॥२०॥
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३८४
जैन पूजा पाठ सप्रह
पचम वन्दना-कर्म वंद्र में जिननीर धीर महावीर सुलनलति । वर्द्धमान अतिवीर बंदि हूं मलवचतन कृत। त्रिशला तलुज महेश धीश विद्यापति वढूं। बंदौं लित प्रति कलकरूप तनु पापनिकन्दू ॥२१॥ लिद्धारथ लुपनन्द इन्द दुःख दोष लिटार ! दुरितवानल मलित उबाल जगजीव उधारन ।। कुण्डलपुर करि जन्म जगत जिय आनंद हारले ! वर्ष बहत्तर आयु पाच लबही दुःख टारल १९२६ सप्तहस्त लनु तुङ्ग भगकृत जन्म मरण भय । बालनामय क्षेय हेय आदेय ज्ञानमय ॥ दे उपदेश उधारि तारि भवसिंध जीवधन । आप बसे शिवमांहि ताहि वंदौं भन दच तल ॥२६॥ जाके बन्दनथकी दोष दुःख दूरहि जाये। जाके बन्दनथकी मुक्ति तिय सन्मुख आई ।। जाके बन्दनथकी वंद्य होवै सुरमनके । ऐसे वीर जिनेश बंदि हूँ मयुग तिलके ॥२४॥ सामायिक षटकमसांहि वन्दन यह पश्चल । बन्दौं वीर जिनेन्द्र इन्द्रशत वंद्य वंद्य मल ॥ जन्मलरणभय हरो करो अघशान्ति शान्तिमय । में अघकोष सुपोष दोषको दोष विनाशय ॥२५॥ कायोत्सर्ग विधान करूँ अन्तिम सुखदाई।
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जन पूजा पाठ सग्रह
३८५
काय त्यजन सय होय काय सबको दुःखदाई ॥ पूर दक्षिण नमूँ दिशा पश्चिम उत्तर में जिनगृह वन्दन करूँ हरु भवतापतिमिर मैं ॥२६॥ शिरोनती मैं करूँ नयूँ मस्तक कर धरिकैं । आवर्तादिक क्रिया करूँ मन वच मद हरिकै ॥ तीनलोक जिनभवन मांहि जिन हैं जु अकृत्रिम | कृत्रिम हैं द्वय अर्द्ध द्वीप नाही वन्दों जिम ||२७|| आठकोडि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याणं । च्यारि शतक पर असीएक जिनमन्दिर जाणूं ॥ व्यन्तर ज्योतिष सांहिं संख्य रहिते जिनमन्दिर । ते सव वन्दन करूँ हरहुँ मम पाप संघकर ॥२८॥ सामायिक सम नाहिं और कौऊ वैर मिटायक । सामायिक सम नाहिं और कोऊ मैत्रीदायक ॥ श्रावक अणुव्रत आदि अन्त सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुःखहानक ॥२६॥ जे भवि आतमकाज करण उद्यम के धारी । ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी ॥ राग रोप मदमोहक्रोध लोभादिक जे सब । बुध 'महाचन्द्र' विलाय जाय तातैं कीज्यो अब ||३०||
इति सामायिक पाठ समाप्त |
२५
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३८६
न पूजा पाठ पढ
पं० भूधरकृत स्तुति
पुलकन्त नयन चकोर पक्षी, हँसत उर इन्दीवरो । दुर्बुद्धि चकवी विलख बिछुड़ी, निविड़ मिथ्यात हरो ॥ आनन्द अम्बुज उमगि उद्धस्यो, अखिल आलम निरदले । जिन बहुत पूरणचन्द्र निरखत, सकल मनवांछित फले ॥ सम आज आतम भयो पावन, आज विधन विनाशिया । संसार सागर नीर निवढ्यो, अखिल तत्व प्रकाशिया ॥ अब भई कमला किंकरी, मम उभय भत्र निर्मल ठये । दुःख जस्यो दुर्गति वास निवस्यो, आज नव मंगल भये ॥ मन हरण सूरति हेरि प्रभु की, कौन उपला लाइये |
म कल तनके रोम हुलसे, हर्ष और न पाइये ॥ कल्याण काल प्रत्यक्ष प्रभुको, लखे जो सुर नर बने । तिह समयकी आनन्द सहिमा, कहत क्यों मुखलों वने ॥ भर नयन निरखे नाथ तुमको, और बांछा ना रही । म सब मनोरथ भये पूरण, रंक मानो निधि लही ॥ अब होऊ भव भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोर 'भूधरदास ' विनवै, यही वर मोहि दीजिये ||
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तब विलंब नहि कियो-स्तुति दोहा-जास धर्म परभावसों. संकट कटत अनन्त ।
___मंगल मूरति देव सो, जैवन्तो अरहन्त ।। हे करुणानिधि सुजन को, कष्ट विर्षे लखि लेत । तजि विलंब दुःख नष्ट किय, अव विलंब किह हेत ॥ तव विलंब नहिं कियो, दियो नमिको रजता चल । तव विलंब नहि कियो, मेघवाहन लका थल । तव विलंब नहिं कियो, सेठ सुत दारिद भंजै । तब विलंब नहिं कियो, नागजुग सुरपद रंजै॥ इमिचर भूरि दुःख भक्तके, सुख पूरे शिवतिय वरन । प्रभु मोर दुःख नाशनविपे, अब विलंब कारण कवन॥ तब विलंब नहि कियो, सिया पावक जल कीन्हौं। तव विलंब नहिं कियो, चन्दना शृङ्खल छीन्हों॥ तव विलंब नहिं कियो, चीर द्रौपदी को वाट्यो। तव विलंब नहिं कियो, सुलोचना गंगा काढ्यो । इमि तन विलंब नहि कियो, सांप कियो कुसुम सुमाला। तव विलंब नहिं कियो, उर्मिला सुरथ निकाला॥ तब विलंब नहिं कियो, शीलवल फाटक खुल्ले। तब विलंब नहि कियो, अञ्जना वन मन फुल्ले ॥ इमि तव विलंब नहिं कियो, सेठ सिंहासन दीन्हौं। । तव विलंब नहिं कियो, सिंधु श्रीपाल कढ़ीन्हों॥
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३८८
जेन पूजा पाठ सग्रह
तब विलंब नहिं कियो, प्रतिज्ञा वज्रकर्ण पल । तब विलंब नहिं कियो, सुधन्ना काढ़ि वापि थल ।। इमि० तब विलंब नहिं कियो, कंस भय त्रिजग उबारे । तब विलंब नहिं कियो, कृष्णसुत शिला उधारे ॥ तब विलंब नहिं कियो, खड्ग मुनिराज बचायो। तब विलंब नहिं कियो, नीर मातंग उचायो । इमि० तब विलंब लाहिं कियो, लेठसुत निर विष कीन्हौं। तब विलंब नहिं कियो, मानतुंग बंध हरीन्हौं तब विलंब नहि कियो, वादिमुनि कोढ़ मिटायो। तब विलंब नहिं कियो, कुमुद निज पास कटायो। इमि० तब विलंब नहिं कियो, अञ्जना चोर उबास्यो । सब विलंब नहिं कियो, पूरवा भील सुधारयो । तब विलंब नहिं कियो, गृद्ध पक्षी सुन्दर तन । तब विलंब नहिं कियो, भेक दिय सुर अदभुत तनाइमि० इहविधि दुःख निरवार, सारसुख प्रापति कीन्हौं । अपनो दास निहारि, भक्तवत्सल गुण चीन्हौं । अब विलंब किहिं हेत. कृपा कर इहां लगाई। कहा सुनो अरदास नाहि, त्रिभुवन के राई॥ जनवृन्द सुमनवचतन अबै, गही नाथ तुम पदशरन। सुधि ले दयाल मम हाल पै, कर मंगल मंगलकरनाइमि०
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न पूजा पाठ उप्रह
३८९
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स्तुति [कविवर दौलतरामजी ]
दोहा
सकल ज्ञेय जायक तदपि, निजानन्द-रस-लीन । सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस-विहीन ॥१॥..
जय वीतराग विज्ञान-पूर, जय मोह-तिमिरको हरन सूर । जय ज्ञान अनंतानंत धार, दृग-सुख-वीरज-मण्डित अपार ।। जय परम शांत मुद्रा समेत, भवि-जनको निज अनुभूति हेत। भवि-भागनवश जोगेवशाय, तुम धुनि है सुनि विभ्रम नशाया। तुम गुण चिंतत निज-पर-विवेक, प्रगटै विघटै आपद अनेक । तुम जग-भूपण दपण-वियुक्त, सब महिमायुक्त विकल्प-मुक्त। अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप । शुभ अशुभ विभाव अभाव कीन,स्वाभाविक परिणतिमय अछीन अष्टादश दोप विमुक्त धीर, स्व चतुष्टयमय राजत गभीर । मुनि गणधरादि सेवत महंत, नव केवल-लब्धि-रमा धरंत ।। तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैह सदीव । भव-सागरमें दुस छार वारि, तारनको अवर न आप टारि ॥ यह लखि निज दुख-गद-हरण-काज,तुम ही निमित्त कारण इलाज जाने तात में शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय ।। में भ्रम्यो अपनपो विसरि आप, अपनाये विधि-फल-पुण्य-पाप निजको परको करता पिछान, परमें अनिष्टता इष्ट ठान ।।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
आकुलित भयो अज्ञान पारि, ज्यों मृग मृग-तृष्णा जानि वारि तन- परणति आपो चितार, कबहूं न अनुभवो स्व-पदसार ॥ तुमको बिन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । पशु-नारक-नर-सुर- गति-मकार, भव घर घर मत्यो अनंत बार।। अन काललन्ति वलतै दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल । मन शांत र्भयो मिटि सफल द्वन्द, चारूपो स्वातमरस दुखनिकंद ॥ तातें अब ऐसी करहु नाथ, विधुरै न कभी तुअ चरण साथ । तुम गुणगगको नहिं छैव देव, जग तारन को तुम विरद एव ॥ आतमके अहित विक्य कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । मैं रहूँ आपमें आप लीन, सो करो होउँ ज्यों निनाधीन ॥ मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय - निधि दीजै मुनीश । मुझ कारजके कारन सु आप, शिव करहु हरहु मम मोह- ताप ॥ शशि शांतिकरन तप हग्न हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत । पीवत पियूप ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभव भव नशाय ॥ त्रिभुवन तिहुँकाल मंकार कोय, नहि तुम बिन निज सुखदाय होय मो उर यह निश्रय भयो आज, दुखजलघि उतारन तुम जिहाज ॥
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दोहा
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तुम गुणगण-मणिगणपती, गणत न पावहिं पार । 'दौल' स्वल्प - मति किमि कहें, नम्र त्रियोग संभार ॥
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HA
दुख:हरण स्तुति श्रीपति जिनवर करुणा यतनं, दुःसहरण तुम्हारा बाना है । मत मेरी बार भार करो, मोहि देहु विमल कल्याना है ॥ टेक!!
कालिफ वस्तु प्रत्यक्ष लसो, तुममा कछ बात न छाना है। मेरे उर आरत जो वरत, निहचे सब सो तुम जाना है। अबलोक विधा मत मौन गही, नही मेरा कही ठिकाना है। दो राजिरलोचन गांचविमोचन, मैं तुममौ हित ठाना है। श्री. सर ग्रन्धान में निरग्रन्यनि ने, निरधार यही गणधार कही। जिननायक ही सब लायक है, सुखदायक क्षायक ज्ञानमही ।। यह बात हमारे कान परी, तर आन तुमारी शरण गही। क्यों मेरी वार विलय करो, जिननाध सुनो यह बात सही ।। श्री. काह को भोग मनोग करो, काह को स्वर्ग विमाना है। काह को नाग नरेशपति, काहू को ऋद्धि निधाना है। वर मो पर क्यों न कृपा करते, यह क्या अन्धेर जमाना है। इनसाफ करो मत देर करो, सुखवृन्द भजो भगवाना है ।। श्री. खल कम मुझे हैरान किया, तब तुम सों आन पुकारा है। तुम ही समग्य नहीं न्याय करो, तब बन्देका क्या चारा है। सल घातक पालक बालक का, नृप नीति यही जगसारा है। तुम नीतिनिपुण लोकपती, तुमही लगि दौर हमारा है। श्री. जबसे तुमसे पहिचान भई, तबसे तुमही को माना है। तुमरे दी शासन का स्वामी, हमको सच्चा सरधाना है। जिनको तुमरी शरणागत है, तिनमो जमराज डराना है। यह सुजस तम्हारे सांचे का, सब गावत वेद पुराना है। श्री.
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जैन पूजा पाठ मप्रह
जिमने तुमसे दिलदर्द कहा, तिसका तुमने दुःख हाना है। अब छोटा मोटा नाशि तुरत, सुख दिया तिन्हें मनमाना है। पावकसों शीतल नीर किया, और चीर बढ़ा असमाना है। भोजन था जिसके पास नहीं, सो किया कुवेर समाला है। श्री. चिंतामण पारम कल्पतरु, सुखदायक ये परधाना है। त्व दासन के सब दास यही, हमरे मन में ठहराना है। तुम भक्तन को सुरइन्द्रपदी, फिर चक्रवर्तिपद पाना है। क्या बात कहौं विस्तार बड़े, वे पावं मुक्ति ठिकाना है। श्री. गति चार चौरासी लाख विष, चिन्सूरत मेरा भटका है। हो दीनबन्धु करुणा-निधान, अवलों न मिटा वह खटका है। जब जोग मिला शिव साधनका, तब विधन कर्मने हटका है। अब विधन हमारे दूर करो, सुख देहु निराकुल घटका है। श्री. गजग्राहग्रसित उद्धार लिया, ज्यों अजन तस्कर तारा है। ज्यों सागर भोपदरूप किया, मैना का संझट टारा है।। ज्यों शूलीत सिंहासन, और वेडी को काट विडारा है। त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकू आस तुम्हारा है।। श्री. ज्यों फाटक टेकत पाय खुला, और साँप सुमन कर डारा है। ज्यों खड्ग कुसुमका माल किया, वालकका जहर उतारा है ।। ज्यों सेठ विपति चकचरपूर, घर लक्ष्मी सुख विस्तारा है। त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोक आस तुम्हारा है ।। श्री. यद्यपि तुमरे रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है। चिन्मूरति आप अनन्तगुणी, नित शुद्ध दशा शिव थाना है। तहपि भक्तन की पीर हरो, सुख देत तिन्हें जु सुहाना है।
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यह गति अनिन्त तुम्हारी का पपा पा पार सयाना है। श्री. दामिन्टन भी मुम्बमदन रा. तुमरा प्रण परम प्रमाणा है। वरदान दया जन कीरत का, नि, लोक धुजा फहराना है। फमन रजी! मलारुम्जी, फरिये कमला अमलाना है। अपनी विधा अरोर मातिान पार लगाना है। श्री. हदीनानाथ अनारहित . उन टीन अनाथ पुकारी है। उदगागन फरिपार, नाल, मार विधा विस्तारी है। जो भार और मर जापनकी, ततकाल विधा निरवारी।
नहाना , अज कर, प्रभ गाज हमारी पारी है। श्रीह
दौलत पद अपनी लुधि भूल आप, आप दुख उपायो, . ज्या शुक नभचाल विसरि नलिनी लटकायो । अपनी
चंतन अविरुद्ध शुद्ध दरशयोधमय विशुद्ध, तजि जइ-मपरल रूप, पुदगल अपनायो॥ अपनीय इन्द्रिय सुख-दुम्ब से नित्त, पाग रागरुखमें चित्त, दायका भवविपतिबन्द, बन्धको बढ़ायो । अपनी चाहदाद दाहे, त्यागौ न ताह चाहै, समता-नुमान गाहे जिन, निकट जो वतायो। अपनी मानुपस नुकृत पाय, जिनवरशासन लहाय 'दौल निजस्वभाव भज अनादि जो न ध्यायो। अपनी०
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जैन पूजा पाठ सप्रह
समाधिमरण भाषा
गौतम स्वामी बन्दों नामी मरण समाधि भला है । मैं कब पाऊँ निशिदिन ध्याऊँ गाऊँ वचन कला है ॥ देव धर्म गुरु प्रीति महा दृढ़ सप्त व्यसन नहिं जाने । त्यागि बाइस अभक्ष संयमी बारह व्रत नित ठाने ॥ १ ॥ चक्की उखरी चूलि बुहारी पानी त्रस न विराधे | निज करे पर द्रव्य हरै नहिं छहों करम इमि साधै ॥ पूजा शास्त्र गुरुन की सेवा संयम तप चहुँ दानी । पर उपकारी अल्प अहारी सामायक विधि ज्ञानी ॥ २ ॥ जाप जपै तिहुँ योग धरै दृढ़ तनकी ममता टारे । अन्त समय वैराग्य सम्हारै ध्यान समाधि विचारै ॥ आग लगै अरु नाव डूबै जब धर्म विघन जब आवे । चार प्रकार आहार त्यागि के मन्त्र सु मनमें ध्यावै ॥ ३ ॥ रोग असाध्य जहां बहु देखे कारण और निहारै । बात बड़ी है जो बनि आवे भार भवनको दारै ॥ जो न बने तो घर में रह करि सबसों होय निराला । मात पिता सुत त्रियको सोंपै निज परिग्रह इहिकाला ॥४॥ कुछ चैत्यालय कुछ श्रावकजन कुछ दुःखिया धन देई । क्षमा क्षमा सबहीं सों कहिके मनकी शल्य हनेई ॥ शत्रुन सों मिल निज कर जोरें मैं बहु करिहै बुराई ।
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तुमसे प्रोतमको दुःख दीने ते सब छमियो भाई ॥ ५ ॥ धन धरती जो मुखसों मांगे सो सब दे सन्तोषै । छहों कायके प्राणी ऊपर करुणा भाव विशेषै ॥ ऊँच नीच घर बैंठ जगह इक कुछ भोजन कुछ पय लै । दूधाहारी क्रम क्रम तजिके छाछ आहार गहे लै ॥ ६ ॥ छाछ त्यागिके पानी राखै पानी तजि संथारा । भूमि मांहि थिर आसन मांडे साधर्मी ढिग प्यारा ॥ जब तुम जानो यह न जपे है तब जिनवाणी पढ़िये । यो कहि मौन लियौ सन्यासी पंच परम पद गहिये ॥ ७ ॥ चौ आराधन मनमें ध्यावै बारह भावन भावे । दशलक्षण मुनि धर्म विचारे रत्नत्रय मन ल्यावै ॥ पैंतीस सोलह षट् पन चारों दुइ इक वरण विचारै । काया तेरी दुःख की ढेरी ज्ञानमयी तूं सारे ॥ ८ ॥ अजर अमर निज गुणसों पूरे परमानन्द सु भावै । आनन्द कन्द चिदानन्द साहब तीन जगपति ध्यावै ॥ क्षुधा तृषादिक होय परीषह सह भावसम राखे । अतीचार पांचों सब त्यागे ज्ञान सुधारस चाखे ॥६॥ हाड़ मांस सब सूख जाय जब धर्मलीन तन त्यागे । अद्भुत पुण्य उपाय स्वर्ग में सेज उठे ज्यों जागे ॥
तह आवै शिव पद पावै विलसै सुक्ख अनन्तो । 'द्यानत' यह गति होय हमारी जैन-धर्म जयवन्तो ॥ १०॥
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जैन पूजा पाठ मह
वैराग्य भावना दोहा - बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जगमांहिं । त्यो चक्री तृप सुख करें, धर्म वितारै नाहिं ॥
योगीरासा छन् ।
इह विधि राज करै नायक, भोगे पुण्य विशालो । सुखसागर में रमत निरन्तर जात न जान्यो कालो ॥ एक दिवस शुभ कर्म संजोगे, क्षेमंकर मुनि वन्दे । देखे श्रीगुरु के पदपङ्कज, लोचन अलि आनन्दे ॥ तीन प्रदक्षिणा दे शिर नायो, करि पूजा धुति कीनी । साधु समीप विनय कर बैठ्यो, चरणन में दिठि दीनी ॥ गुरु उपदेश्यो धर्म- शिरोमणि, सुन राजा वैरागे । राजरमा वनितादिक जे रस, ते रस वेरस लागे ॥ सुति सूरज कथनी किरणावलि, लगत भरम बुधि भागी । भवतत भोगस्वरूप विचारों, परम धरम अनुरागी ॥ इह संसार महावन भीतर असते ओर न आवै । जासुत मरण जरा दो दा जीव महा दुःख पावे || कबहूँ जाये नरक थिति भुंजे, छेदन भेदन भारी । कबहूँ पशु परजाय धरै तहँ, बध बन्धन भयकारी ॥ सुरगति में परसम्पति देखे, राग उदय दुःख होई | मानुष योनि अनेक विपतिमय, सर्व सुखी नहिं कोई ॥ कोई इष्ट वियोगी विलखै, कोई अनिष्ट संरोगी । कोई दीन दरिद्री विशुचे. कोई तन के रोगी ॥ किलही घर कलिहारी नारी कै बैरी सम भाई |
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किसही के दुःख बाहिर दीसै, किसही उर दुचिताई ॥ कोई पुत्र विना नित झरे, होय मरे तब रोवे । खोटी संततिसो दुःख उपजै, क्यों प्राणी सुख सोवै ॥ पुण्य उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुखसाता । यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखै दुःखदाता | जो संसार विषै सुख होतो. तीर्थंकर क्यों त्यागे । काहे को शिव साधन करते, संजस सों अनुराग ॥ देह अपावन अथर घिनावन, यामैं सार न कोई सागर के जलसो शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई ॥ सात कुधातु भरी मल सूरति, चाल लपेटी सोहे : अन्तर देखत या सम जगमें, और अपावन को है । नवमलद्वार सबै निशिवासर, नाम लिये घिन आवे । व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तह, कौन सुधी सुख पावे ॥४ पोषत तो दुःख दोष करै अति, सोबत सुख उपजावै । दुर्जन देह स्वभाव बराबर, सूरख प्रीति बढ़ावे ॥ राचनजोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है । यह तन पाय महा तप कीजै, या सार यही है । भोग चुरे भव रोग बढ़ावे, वैरी है जग जीके ! बेरस होय विपाक समय अति, सेवत लार्गे नीके ! वज्र अग्नि विषसे विषधरसे, ये अधिके दुःखदाई । धर्मरतन के चोर चपल अति दुर्गति पंथ सहाई ॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कञ्चन माने ॥
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ज्यों-ज्यो भोग संयोग मनोहर, मनवांछित जन पावै । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंक, लहर जहर की आवै । मैं चक्रीपद पाय निरन्तर, भोगे भोग घनेरे। तो सी ललक सये नहिं पूरण, भोग मनोरथ मेरे ॥ शराज ललाज नहा अधकारण, वर बढ़ावन हारा। वेश्यालम लछमी अति चञ्चल, याका कौन पत्यारा ॥ मोह महारिपु वैर विचास्यो, जगजिय सङ्कट डारे । 'घर कारागृह बनिता बेड़ी, परिजन जन रखवारे । सम्यकदर्शन ज्ञान चरण तप, ये जिय के हितकारी। येही लार असार और सब, यह चक्री चित्तधारी ॥ छोड़े चौदह रत्न नबोंनिधि अरु छोड़े संग साथी॥ कोड़ि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी । सहस छियानवे रानी छोडी, अरु छोडा घर बारा । सकल अवस्था ऐसे त्यागी, ज्यो जल बीच बतासा ॥ इत्यादिक सम्पत्ति बहुतेरी, जीरणतृण सम त्यागी। नीति विचार नियोगी सुतकी, राज दियो बड़भागी ॥ होय निःशल्य अनेक पति संग, भूषणवसन उतारे। श्रीगुरु चरण धरी जिन मुद्रा, पंच महाव्रत धारे ॥ धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरज धारी। ऐसी सम्पति छोड़ क्से वन, तिनपद धोक हमारी ।। दोहा-परिग्रह पोट उतार सब, लीनों चारित पंथ ।
निज स्वभावमें थिर भये, बज्रनाभि निरग्रन्थ
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मेरी भावना
है ॥
जिसने राग दोष कामादिक जीते सब जग जान लिया । सब जीवोंको मोक्षमार्गका निस्पृह हो उपदेश दिया || बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो । भक्ति-भावसे प्रेरित हो यह चित्त उसीमें लीन रहो ॥ विपयोंकी आशा नहिं जिनके साम्य-भाव धन रखते हैं । निज-परके हित-साधनमें जो निश-दिन तत्पर रहते है || स्वार्थ त्यागकी कठिन तपस्या विना खेट जो करते हैं । ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुख समूहको हरते रहे सदा सत्संग उन्हींका ध्यान उन्हीका नित्य रहै । उनहीं जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त नहीं सताऊँ किसी जीवको भूठ कभी नहिं कहा परथन - वनितापर न लुभाऊ, संतोषामृत पिया अहंकारका भाव न रक्खूँ नहीं किसीपर क्रोध देख दूसरोंकी बढतीको कभी न ईर्षा भाव रहे भावना ऐसी मेरी सरल-सत्य - व्यवहार चनै जहां तक इस जीवन में औरौका उपकार करूँ ।। मैत्रीभाव जगतमें मेरा सब जीवोंसे नित्य रहे । दीन-दुखी जीवोंपर मेरे उरसे करुणा-स्रोत बहे ॥ दुर्जन-क्रूर- कुमार्गरतों पर क्षोभ नही मुझको आये । साम्यभाव रक्खूँ मै उनपर ऐसी परिणति हो जाये || गुणी जनोंको देख हृदयमें मेरे प्रेम उमड आवै । पनै जहांतक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावै ॥
रहै ॥
करूँ ।
करूँ ||
करूँ ।
धरूँ ।
करूँ ।
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र
पार म
होऊँ नहीं नन्न कभी में टोह न म उन आर। गुण-ग्ररणका मान रहे निन "टि न दोपॉपर जान ।। कोई युग की या अन्ला लन्मी जाने या जाने। लाखो यी नक. जीऊ या मृत्यु आज ही आना ।। अथवा कोई कला ही भय या लालच देने मात्र । तो भी न्याय-मागने मेग कभी न पर टिगन पान ।। होकर गुसमें मन्न न फले दरमे कमी न बर्ग । सर्वत-नदी श्मशान भगनक अटवाने नहिं भर पाने ।। म्ह अटोल-अका निरंतर यह मन हन्तर बन जाने । टष्ट्रवियोग-भनियोगमे सहनशीलता दिग्गलावे ।। मुनी र मब जीव जगतक कोई कभी न बनगावै । वर-पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मरू, गावे ।। घर-घर चर्चा रहै धर्मकी दुष्कृत दुकर हो जाये । नान-चरित उन्नत कर अपना मनुज-जन्म-फल नत्र पारे॥ ईति भीति व्यापै नहि जगने वृष्टि नमयपर हुआ करें । धमनिष्ठ होकर गजा भी न्याय प्रजाका किया पर । रोग मरी दर्भित न फैले प्रजा शातिसे जिया करें। परम अहिंसा-धर्म जगतमें फैल सर्व-हित किया करे । फैले प्रेम परस्पर जगमें मोह दूर ही रहा करै । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहिं कोई मुखसे कहा करै ।। वनकर सब 'युगवीर' हृदयसे देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु-स्वरूप-विचार खुशीसे सब दुख-संकट सहा करे ।
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भजन
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श्रीसिद्धचकका पाठ करो दिन आठ, ठाटसेप्राणी, फलपायो मैना रानी ॥ टेक मैना सुन्दरि एक नारी थी, कोढ़ी पति लखि दुःखियारी थी । नहिं पडै चैन दिन रैन व्यथित अकुलानी, फल पायो मैना रानी ॥ जो पति का कष्ट मिटाऊंगी, तो उभय लोक सुख पाऊँगी । नहि अजागलस्तनवत निष्फल जिन्दगानी, फल पायो मैना रानी ॥ इक दिवस गई जिन मन्दिर मे दर्शन करि अति हर्पी उर मे । फिर लखे साधु निर्ग्रन्थ दिगम्बर ज्ञानी, फल पायो मैना रानी ॥ बैठी मुनि को कर नमस्कार, निज निन्दा करती बार-बार । भरि अश्रु नयन कहि मुनिसो दुःखद कहानी, फल पायो मैना रानी || बोले मुनि पुत्री धैर्य धरो, श्री सिद्धचक्र का पाठ करो । नहि रहे कुष्ट की तन मे नाम निशानी, फल पायो मैना सुनि साधु वचन हर्षी मैना, नहिं होय झूठ मुनि के करिके श्रद्धा श्री सिद्धचक्र की ठानी, फल पायो मैना जव पर्व अठाई आया है, उत्सवयुक्त पाठ कराया है । सवके तन छिडका यन्त्र न्हवन का पानी, फल पायो मैना रानी || गन्धोदक छिटकत वसु दिन मे नहिं रहा कुट किचित तन मे । भई सात शतक की काया स्वर्ण समानी, फल पायो मैना रानी ॥ भव भोगि भोगि योगेश भये, श्रीपाल कर्म हनि मोक्ष गये । दूजे भव मैना पावे शिव रजधानी, फल पायो मैना रानी ॥ जो पाठ कर मन वच तन से, वे छूटि जाय भव बन्धन से । 'मक्खन' मत करो विकल्प कहा जिनवानी, फल पायो मैना रानी ॥
रानी ॥
वैना । रानी ॥
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जन पूजा पाठ सह
आराधना पाठ मै देव नित अरहन्त चाहूँ, सिद्ध का सुमिरण करौ । मै सूर गुरु मुनि तीन पद, मैं साधुपद हिरदय धरौ ।। मैं धर्म करुणामयी चाहूँ, जहा हिंसा रश्च ना । मैं शास्त्र ज्ञान विराग चाहूं, जासु मे परपञ्च ना ॥ १ ॥ चौबीस श्रीजिनदेव चाहूँ, और देव न मन बसे । जिन बोस क्षेत्र विदेह चाहूँ, वन्दिते पातिक नसे ॥ गिरिनार शिखर सम्मेद चाहूँ, चम्पापुरी पावापुरी । कैलाश श्रीजिन-धाम चाहूँ, भजत भाजे भ्रम जुरी ॥ २ ॥ नवतत्व का सरधान चाहूं, और तत्व न मन धरौ । षट् द्रव्य गुण परिजाय चाहूँ, ठीक तासो भय हरी ॥ पूजा परम जिनराज चाहूँ, और देव नही सदा । तिहुँकाल की मैं जाप चाहूँ, पाप नहि लागे कदा ॥ ३ ॥ सम्यक्त दरशन ज्ञान चारित, सदा चाहूँ, भावसो । दशलक्षणी मैं धर्म चाहूँ, महा हर्ष उछावसो ॥ सोलह जु कारण दुःख निवारण, सदा चाहूँ प्रीतिसो। मै चित्त अठाई पर्व चाहूँ, महा मङ्गल रीतिसो ॥ ४ ॥ मै वेद चारो सदा चाहूँ, आदि अन्त निवाहसो। पाए धरम के चार चाहूँ, अधिक चित्त उछाहसो । मैं दान चारो सदा चाहूँ, भुवन वशि लाहो लहूँ। आराधना मैं चारि चा, अन्त मे जेई गहूँ॥ ५॥
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बन पूजा पाठ सद
भावना बारह सदा माऊँ, भाव निर्मल होत है। में व्रत जुबारह सदा चाहूँ, त्याग भाव उद्योत हैं। प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूँ, ध्यान आसन सोहना । वसुफम त में छुटा चाहूँ, शिव लहूँ जहं मोहना ॥ ६ ॥ में साधुजन को सग चाहूँ, प्रीति तिनही सौ करो। मै पर्व के उपवास चाहूँ, सब आरम्भे परिहौं । न दुग पमकाल, माही, कुल धावक में लहो । अरु महायन धरि सकी नाही, निवल तन मैंने गहो ॥ ७ ॥ आराधना उत्तम सदा चाहूँ, गुनो जिनरायजी। तुम पानाय अनाय 'चानत', दया करना नाथजी ।। चमुफम नाम विकाग ज्ञान, प्रकाा मोको कीजिये। कार गुगनि गमन समाधिमरण, सुभक्ति चरणन दीजिए ॥ ८॥
मरण भय मरमा प्राणों का नियोग हो जाना हो तो मरण है । पाच सन्दिग, तीन यल, एए भायु और एक चासोच्छवाग इनफा पियोग होते ही मरत होता है। परन्तु पद समापन त, नित्योद्यत और मानस्वरूपी अपने को निन्तपन परता।एर चेतना दो उममा प्राण है। तीन फाल में उसका पियोग नहीं होता । आत चेतनागमो झानात्मा के ध्यान से उसे मरण का भी भय नदी होता। इस प्रकार मात भयों में से यह किसी प्रकार भय नहीं -परता । अतः गम्यग्दृष्टि पूर्णतया निर्भय है।
-'पर्णी वाणी से
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जैन पूजा पाठ सप्रह
अठाईरासा
प्राणी वरत अठाई जे करै, ते पावं भव पार || प्राणी० जम्बूद्वोप सुहावनो, लख योजन विस्तार | भरतक्षेत्र दक्षिण दिशा, पोदनपुर हित सार || प्राणी० विद्यापति विद्या धरी, सोमा रानी
राय । अधिकाय ॥ प्राणी०,
राजा गेह ।
अति नेह || प्राणी०
समकित श्रावक व्रत धरै, धर्म सुने चारण मुनि तहा, पारणे आये सोमा राणी आहार दे, पुण्य बढ़ो तिस समय नभ मे देवता, चले जात विमान । जय जय शब्द भयो, घनो मुनिवर पूछो ज्ञान || प्राणी० मुनिवर बोले राय सुनि, नन्दीश्वर सुर जात । जे नर करहि स्वभाव सो, ते होवे शिवकन्त ॥ प्राणी० यही वचन रानी सुने, मन मे भयो आनन्द । नन्दीश्वर पूजा करै, ध्यावै आदि जिनेन्द्र || प्राणी० कार्तिक फाल्गुन बाढ़ मे, पालौ बसु दिन बसु पूजा करै, तीन विद्यापति सुनि चालियो, रच्यो विमान रानी वरजै राय को, तुम तो मानुष भूप ॥ प्राणी०
अनूप |
मन वच देह |
भवान्तर लेह || प्राणी०
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मानुपौत्तर या नहीं, मानुष नाती जात । जिनवाती निदय सही. तीन भुवन विख्यात ॥ प्राणी० सो विद्यार्णत ना रहो, चलो मन्दीरवर होय। मानतर तिरिगे मिलो, पायो न जाय महीप ॥ प्रासी० माणतर भेटले, परी धरसि सिर भार। विद्यापनि रियो, देव भयो सुरसार ॥ प्रासी० हीच नन्दीश्वर हिनक में, पूजा वसु विधि ठान । करी सुमन बेच काय से, माला पहनी आन ॥ प्राणी० विदापति तो मा धरि, परखन रानी बात ।
आनन्द सो घर अाइयो, नन्दीश्वर करि जात ॥ प्राणी० रानी वाल रायसी, यह तो कव न होय । जिनवारी मिथ्या नही, निश्चय मन में सोय ॥ प्राणी० नन्दीश्वर जयमाल को राय दिखाई आणि । अब सांचों मोहि जानियो, पूजा करी बहुमान ॥ पाणी० रानी फिर तासों को, यह भव परसें नाहिं । पश्चिम सूरज उगई, हो विष अमृत माहि ।। प्राणी० चन्द अङ्गारा जो भरे, निशा कमल उपजन्त ।' रवि अन्धेरा जो करे, वालू घी निकलन्त ॥ प्राणी०
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जेन पूजा पाठ सप्रह
पुनि रानी सो नृप कहे, बावन भवन जिनाल । तेरह चोका बन्दि कर, पूज करी तत्काल || प्राणी० ॥ जयमाला तहाँ मो मिली, आयो हूँ तुम पास । । अब तू मिथ्या मत कहे, पूज करी तज आस ।। प्राणी० ॥ पूरब दक्षिण वन्दि कर, पश्चिम उत्तर जान । मिथ्या भाषौ हूँ नही, मोहि जिनवर की आन ॥ प्राणो० ॥' सुन राजा तें सच कही, जिनवाणी शुभसार । ' ढाई दीप न लघई, मानुष गिरि विस्तार ॥ प्राणी० ॥ विद्यापति से सुर भयो, रूप धारि यह सोय । । रानी को तव स्तुति करी, निश्चय समकित तोय ॥ प्राणी० ॥ देव कहे रानो सुनो, मानुषोत्तर गिरि जाय । तह ते चय मैं सुर भयो, पूजि नन्दीश्वर आय ॥ प्राणी० ॥ एक भवान्तर मो रहो, जिन शासन परमाण । मिथ्याती माने नहीं, श्रावक निश्चय आण ॥ प्राणो० ॥ सुरचय तहाँ हयनापुरी, राज कियो भरपूर । ' परिग्रह तज सयम लियो, कर्म महागिरि चूर ॥ प्राणी० ॥ केवलज्ञान उपाय कर, मोक्ष गयो मुनिराय । शाश्वत सुख विलसे सदा, जामन मरण मिटाय ॥ प्राणी०॥ अब रानो की सुन कथा, सयम लीनो सार । तप करके वह सुर भई, विलसे सुख विस्तार ॥ प्राणी० ॥
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जैन पूजा पाठ समह
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गजपुर नगरी अवतरी, राज करें बहु भाय । सोलह कारण भाइयो, धर्म सुनो अधिकाय ॥ प्राणी० ॥ मुनि संघाटक आइयो, माली सार जनाय । राजा वन्दे भावसो, पुण्य बढ़ी अधिकाय ॥ प्राणी० ॥ राजा मन वैरागियो, संयम लीनो सार । आठ सहस नृप साथ ले, यह ससार असार । प्राणी० ॥ केवलज्ञान उपाय के, दोय सहस दोय सहस सुख स्वर्ग के, भोगे भोग
1
बहु
चार सहस भूलोक मे भोगे काल पाय शिव जायेंगे, उत्तम
धर्म
४०७
निर्वाण |
सुयान || प्राणी० ॥
ससार ।
विचार || प्राणी० ॥
परमाण ।
याही मानुष लोक में तीन जनम
"
कुल
ठाण ॥ प्राणी० ॥
लोकालोक सुजान ही, सिद्धारथ भव समुद्र के तरण को, बावन नौका जान । जे जिय करे स्वभावसो, जिनवर साच बखान ॥ प्राणी० ॥
मन वच काया जे पढे, ते पावे भव पार । भणे, जनम सफल ससार ॥
विनय कीर्ति सुख सो प्राणी बरत अठाई जे करें, ते पावें भव पार ॥ प्राणी० ॥
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૨૦:
जेन पूज' पाठ सग्रह
वारहभावना मंगतराबकृत
दोहा - चन्द्र श्री अरहन्तपद, वीतराग विज्ञान | वरणूं बारह भावना, जगजीवनहित जान ॥ १ ॥ छन्द - कहां गये चक्री जिन जीता, भरतखण्ड सारा । कहां गये वह रामरु लछमन, जिन रावन मारा ॥ क कृष्ण रुक्मिणि सतभामा, अरु संपति सगरी । कहां गये वह रङ्गमहल अरु, सुवरन की नगरी ॥ २ ॥ नहीं रहे वह लोभी, कौरव जूझ मरे रन में । गये राज तल पांडव वन को, अगनि लगी तन में ॥ मोहनींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को । हो दयाल उपदेश करें गुरु, बारह भावन को ॥ ३ ॥
१ अथिर भावना ।
सूरज चाँद छिपे निकले ऋतु फिर-फिर कर आवे । प्यारी आयू ऐसी वीते, पता नहीं पावै ॥ पर्वत पतित नदी सरिता, तल बहकर नहीं हटता । स्वास चलत यो घटै काठ व्यों, आरेसों कटता ॥ ४ ॥
ओसवूद यों गलै धूप में, वा अजुलि पानी । छिन छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी ॥ इन्द्रजाल आकाश नगर सम, जगसंपति सारी । अथिर रूप ससार विचारों, सब नर अरु नारी ॥ ५ ॥
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जेन पूजा पाठ सग्रह
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, “२ अशरण भावना। । कालसिंह ने मृगचेतन को, घेरा भव वन मे।
नहीं बचावनहारा कोई, यों समझो मन मे ।। मन्त्र यन्त्र सेना धन सपति, राज पाट छूटै। वश नहिं चलता काल लुटेरा, काय नगरि लूटै ॥६॥ चकरतन हलधरसा भाई, काम नहीं आया। . एक तीर के लगत कृष्ण की, विनश गई काया ।। देव धर्म गुरु शरण जगत में, और नहीं कोई। भ्रम से फिर भटकता चेतन, युही उमर खोई ॥७॥
३ संसार भावना। - । ।' जनम मरन अरु जरा रोग से, सदा दुःखी रहता । । । 'द्रव्य क्षेत्र अरु कालभाव भव, परिवर्तन सहता ।।
छेदन भेदन नरक पशुगति, बध बन्धन सहा । राग उदय से दुःख सुरंगति में, कहीं सुखी रहना ।। ८॥ भोगि पुण्यफल हो इकइन्द्री, क्या इसमें लाली । "कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली ॥ मानुप जन्म अनेक विपतिमय, कहीं न सुख देखा। पञ्चमगति सुख मिले शुभाशुभ को, मेटो लेखा॥8॥
४ एकत्व भावना-1 - - - ... ' जन्मै मरै अकेला चेतना सुख दुःख का भोगी। - । और किसीका क्या इक दिन यह, देह जुदी होगी ।।, -
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बैन पूजा पाठ सह
कमला चलत न पैड जाय, मरघट तक परिवारा। अपने-अपने सुख को रोवें, पिता पुत्र दारा ।। १० ।। ज्यों मेले में पीजन, मिलि नेह फिर धरते। ज्यों तरुवर पै रैन बसेरा, पंछी आ करते ।। कोस कोई दो कोस कोई, उड फिर धक-धक हार। नाय अकेला हंस सग में, कोई न पर मारै।। ११॥
५ मिन्न (अन्यत्व) भावना ! मोहरूप मृगतृष्णा जग में, मिथ्या जल चमक। मृग चेतन नित भ्रम में उठ-उठ, दो धक-धक । अल नहि पाच प्राण गमाव, मटक-मटक मरता । वस्तु पराई मानै अपनी, भेद नहीं करता ।।१२।। तू पंतन अरु देह अचेतन, यह जड तू ज्ञानी । मिले अनादि यवन विछुई, ज्यों पय अरु पानी। रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जौलों पौरुष ध न दोलों, उद्यमसों घरना ॥ १३ ॥
६ अशुचि भावना। तू नित पोखे यह सूख ज्यों, घोर त्यो मैली। निश दिन करै उपाय देह का, रोगदशा फैली ॥ मात-पिता रज वीरज मिल कर, बनी देह तेरी। मास हाड़ नश लहू राधकी, प्रगट व्याधि घेरी ॥१४॥
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बेन पूजा पाठ संग्रह
काना पौंडा पडा हाथ. यह, चूस तौ रोवै। फले अनन्त जु धर्म ध्यान की, भूमिबिष बोव ॥ केसर चन्दन पुष्प सुगन्धित, वस्तु देख सारी । देह परसते होय अपावन, निशदिन मल जारी ॥ १५ ।।
७ आस्रव भावना। ज्यों सरजल आवत मोरी त्यों, आस्रव कर्मन को। दर्वित जीव प्रदेश गहै जब, पुद्गल भरमन को ।। भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को। पाप पुण्य के दोनों करता, कारण बन्धन की ॥ १६॥ पन मिथ्यात योग पन्द्रह, द्वादश अविरत जानो। पंचरु बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मानो। मोहभाव की ममता टारे, पर परणत खोते। कर मोक्ष का यतन निरासव, ज्ञानी जन होते ॥ १७ ॥
८ सवर भावना। ज्यों मोरी में डाट लगावै, तब जल रुक जाता। त्यों आस्रव को रोकै सवर, क्यों नहिं मन लाता। पञ्च महाव्रत समिति गुप्तिकर, वचन काय मन को। दश विध धर्म परीषह बाइस, बारह भावन को ॥ १८ ॥ यह सब भाव सतावन मिलकर, आस्रव को खोते । सुपन दशा से जागो चेतन, कहा पड़े सोते ।। भाव शुभाशुभ रहित, शुद्ध भावन संवर पावै । डाट लगत यह नाव पड़ी, मझधार पार जावै ॥ १६॥
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जैन पूजा पाठ समह
९ निर्जरा भावना ।
ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पडै भारी । सवर रोकै कर्म निर्जरा, है सोखनहारी ॥ उदय भोग सविपाक समय, पक जाय आम डाली । दूजी है अविपाक पकावे, पालविषै माली ॥ २० ॥ पहली सबके होय नहीं, कुछ सरै काम दूजी करें जु उद्यम करके, मिटै जगत संवर सहित करो तप प्रानी, मिलै मुकत रानी । इस दुलहिन की यही सहेली, जाने सब ज्ञानी ॥ २१ ॥ १० लोक भावना ।
तेरा ।
फेरा ॥
लोक अलोक आकाश माहि थिर, निराधार जानो । पुरुषरूप कर कटी भये षट्, द्रव्यनसो मानों ॥ इसका कोइ न करता हरता, अमिट अनादी है । जीवरु पुद्गल नाचै यामें, कर्म उपाधी है ॥ २२ ॥ पाप पुन्यसों जीव जगत में, नित सुख दुःख भरता । अपनी करनी आप भरै शिर, औरन के धरता ॥ मोहकर्म को नाश मेटकर, सब जग की आसा । निज पद मे थिर होय, लोक के, शीश करो बासा ॥ २३ ॥ ११ बोधिदुर्लभ भावना ।
दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु नरकाया को सुरपति तरसे, सो
सगति प्रानी । दुर्लभ प्रानी ॥
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उत्तम देश सुसगति दुर्लभ, धावफफुल पाना। दुर्लभ नम्यक दुर्लभ संगम, पञ्चम गुण ठाना ॥ २४॥ दुलंभ रजत्रय अाराधन दीक्षा का धरना । दुलंभ मुनिवर को प्रत पालना न भाव परना ।। दुर्लभ में दुर्लभ है चेतन, बोधिज्ञान पावै । पाफर चिरतान नहीं फिर, इस भव मे आव ।। २५ ।।
१२ धर्म नावना। पट दरशन अन वीर नास्तिक ने, जग को लूटा । भूना ना और गुमनाद का, मजहब भूठा ।। हो सुरमा सय पाप का सिर, करता ऐ लाव। फोई दिन कोई परता से, जग मे भटकारे ।। २६ ।। वीतराग सवंश दोप चिन, नीजिन की वानी । मात तत्य का वर्णन जाम, नरको सुखदानी ।। इनमा चितवन बार-बार पर. असा उर धरना । 'मगत' हमी जतनतं दिन, भवसागर तरना ॥ २७ ।। पति नुतनपुर निवासी मगतराबजीयत बारह भावना समाप्त ।
वर्णी-वाणो की डायरी से • गन को शुद्धि यिना गाय शुद्धि का कोई महत्व नहीं । • जो मनुष्य में मनुष्यपने को दुलगता की ओर देखता है, वही ससार मे पार होने का उपाय अपने आप मोज लेता है।
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जैन
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तत्वार्थसूत्र पूजा षट् द्रश्य को जानें कह्यो जिनराज-वाक्य प्रमाण सों। किय तत्व सातों का कथन जिन-आप्त-आगम मान लों॥ तत्वाथ-सूत्राहि शास्त्र सो पूजो भविक मन धारि के । लहि ज्ञान तत्त्व विचार भवि शिव जाभवोदधि पार के॥ दोहा-जामें षट् यहि कयो, क्ह्यो तत्व पुनि लात ।
लो दश सूत्रहि थापि के. जज कम कटि जात ॥
सुरसरी कर नीर सुलाय के. करि सुप्रास्लुक कुम्भ भराय के। जजन सूत्रहिं शास्त्रहिको करो.लहि सुतत्व-ज्ञानहि शिववरो। मलयदारू पवित्र मंगायके, घसि कपरवरेण मिलायके । ज०
सुनवशालिलुगंधितलायके,खंड विवर्जित थाल भरायके।ज. सुमन वेल चमेलिहिकेवरा,जिनसुगंधदशोंदिश बिस्तरा।ज०
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जैन पूजा पाठ सग्रह
वर सुहाल सुफेनिहिं मोदका, रसगुला रसपूरित ओदका । ज०
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवद्वादशांगसारभूताय श्रीतत्वार्थ सूत्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य• ।
घृत कपूर मणीकर दीयरा, करि उद्योत हरौ तम हीयरा । ज०
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ॐ ह्रीं थी जिनमुखोद्भवद्वादशांगसारभूताय श्रीतत्वार्थ सूत्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं •
हु सुगंधित धूप दशांगहीं, धरि हुताशन धूम उठावहीं। ज०
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवद्वादशांगसारभूताय श्रीतत्वार्थसूत्राय अष्टकर्मदहनाय धूप• ।
क्रमुकदाख बदामअनारला, नरंग नीबूहिं आमहिं श्रीफला । ज०
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवद्वादशांगसारभूताय श्रीतत्वार्थसूत्राय मोक्षफलप्राप्तये फल • ।
जल सुचंदन आदिक द्रव्य ले, अरघ के भरि थालहिंले भले | ज०
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवद्वादशांगसारभूताय श्रीतत्वार्थसूत्राय अनर्घ्य पदप्राप्तये अर्ध
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सवैया
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विमल विमल वाणी, श्री जिनवर बखानी । सुन भये तत्वज्ञानी ध्यान आत्म पाया है ॥ सुरपति मनमानी, सुरगण सुखदानी |
सुभव्य उर आना, मिथ्यात्व हटाया है ॥ समझहिं सब नीके, जीव समवशरण के ।
निज-निज भाषा मांहि, अतिशय दिखानी है ॥ निरअक्षर अक्षर के, अक्षरन सों शब्द के ।
शब्द सों पद बने, जिन जु बखानी है ॥
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उन पूजा पाठ सह
पादाकुला छन्दसंसार मोह में मोह तरा, प्रगटी जिनवाणी मोह हग । ऊद्धरत हो तम नाश कग, प्रणमामि र जिनवाणि वरा ॥ अति मानसरोवर झील खरा, कन्णाग्न पूरित नीर भरा। दश-धर्म वहे शुभ हम तरा, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वग। कल्पद्र म के मम जानतरा, रत्नत्रय के शुभ पुष्ट वा । गुण तत्व पदार्थन पात्र करा, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा ॥ वमुकर्म महारिपु दुष्ट खरा, तसु उपजी जैली वेली बरा। तसु नागन वाहि कुठार करा, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा ।। मद मायर लोमऽरू क्रोध धग, ए कपाय महादु.सदाय तरा। तिन नाशि भवोदधि पार करा, प्रणमामि मूत्र जिनवाणि वरा ।। वर षोडग कारण भाव धरा, पट कायन रक्षण नियम करा। मद आठह मदि के गर्द करा, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा ।। जिनवाणि न जाने त्रिजगत फिरा, जड़ चेतन भाव न भिन्न वरा।। नहिं पायो आतम बोध वरा, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा ॥ शुम-कर्म उद्योत कियो हियरा, जिरवाणिहि जान जन्यो जियरा। भवमर मणहर शिव मार्ग धग, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा ॥ सुत कन्हैयालाल परणाम करा, भगवानदास जिहि नाम धरा। जिनवाणि वसोनित तिहि हियरा, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा।।
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पत्ता ।
जिनवाणी माता सब सुख दाता. भवभ्रमहर मुक्तिकरा । शुभ सूत्रहिं शास्त्रहिं, वारहि चारहि दासजोरिकरनमनकरा
ॐ श्रीमातीपासून अयंनिपानीति
जे पूजें घ्यावें भक्ति वढावै जिनवाणी सेती । ते पावहिं धन धान्य सम्पदा पुत्र पौत्र जेती ॥ निरोग शरीर लहे कीरति जग हरें भ्रमण फेरी । अनुक्रम सेती लहें मोक्षधल तह के होय वसेरी ॥
इति श्री पूजा सना ।
श्री ऋषभदेवके पूर्वभव कवित्त गनहर |
यादि जयवर्मा दूजे महानलभूप तीज,
चौथे प्रजनंघ एक पांच जुगल देह
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तुम्ईशान ललिवांग देव थयौ है ।
सात बुद्दिराय आठवें अच्युतइन्द्र,
つい
सम्यक ले दूज देवलोक फिर गयो है ॥
दर्श अहमिन्द्र जान प्यार ऋषभ - भानु,
नवमे नगेन्द्र वज्रनाभ नाम भयो है ।
नाभिनंद-भूधरके, शीस जन्म लयी है ॥ ८२ ॥
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Y'C
पूजा पाठ ग्रह
सुगन्ध दशमी व्रत कथा
भादों सुदी दशमी के दिन सुगन्धित धूप से चुने के बाद स्त्री-पुरुषों को सुयोग्य वक्ता द्वारा सुगन्ध दशमी व्रत कथा का श्रवण करना चाहिये । चौपाई |
पञ्च परम गुरु वन्दन करू, ताकर मम अघ बन्धन हरु | सार सुगन्ध दशै व्रत कथा, भापत हूं भाषी जिन यथा ॥ १ ॥ गुरु गुरु शारद के परसादि, कहस्यू मेद सार पूजादि । जे भवि व्रत करिह सही, तिन स्वर्गादिक पदवी लही ॥ २ ॥ सन्मति जिन गौतम सुनिराय, तिनके पढ नमि श्रेणिक राय । करत भयो इम थुति सुखकार, विन कारण जग बन्धु करार ॥ ३ ॥ भन्न कमल प्रतिबोधन सूर्य, मुक्ति पन्ध निरवाहन धूर्य | श्रुतिवारिधि को पोत समान, इन्द्रादिक तुम सेवक जान ॥ ४ ॥ व्रत सुगन्ध दशमीडहमार, कीन्हं किनि किमि विधि विस्तार | अरुयाको फल कैमो होय, मोकू उपदेशो मुनि सोय ॥ ५ ॥ गौतम बोले सुन भूपाल, पुण्य कथा यह व्रत की माल । भूप प्रश्न तुम उत्तम कस्यो, में भापू जो जिन उच्चयो ॥ ६ ॥ सुनत मात्र व्रत को विस्तार, पाप अनन्त हरै तत्काल | जे कर्ता क्रमतें शिव जाय, और कहा कहिये अधिकाय ॥ ७ ॥ दोहा - जम्बू द्वीप विषै यहां, भरत क्षेत्र सु जान ।
वहां देश काशी लसे, पुर वाराणमी मान ॥ ८ ॥ चौपाई |
पद्मनाभ जाको भूपाल, कीन्हूं वसुमद को परिहार | सप्त व्यसन तजि गुण उपजाय, ऐसे राज करे सुखदाय ॥ ६ ॥
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मा STERED
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श्रीमती बार्क पर नारि, निन पति अति ही सुसकारि। एक समय बन कीड़ा हेत, जात हतो निज सैन्य समेत ॥ १०॥ निज पुरम से जप ही गयो, तर मन माही आनन्द लयो। सपही एक सुनीम्बर सार, मास पाम फरिक भवतार ।। ११ ॥ जनन काजिमाते मुनि जोग, राणीसा भासे नृप सोय।। तुम जानो पो भोजन सार, कोजी मुनिकी भक्ति अपार ।। १२ ।। हम मुणि गपी मनम यो, भागों में मुनि अन्तर करो। दुपारी पापी मुनि आय, मेरे मुयान दियो गमाय ॥ १३ ॥ मनदी में दुमी अनि पणी, आता मान चली पति तणी। आप भोजन तत्काल, जाग बार उनी भृपाल ॥ १४ ॥ निरनिरूही घर गयो, राणी असन महानिन्द दयो। फर्गदर्ग को जु जहार, दिशगनीय दुःसकार ॥ १५ ॥ गोसनकारि नाले मुनिगर, मारग मादि गहल अति आय। परती भूमि पर तर मुनिगल, कियो सायका देखि इलाज ।। १६ ।। नंटे एक मिनालय मार, नहीं ले गये परि उपचार । फेगिरल में वर की, राणी पोटो भोजन दयो ॥१७॥ जात नी महा दुःख पाय, मान्य हो गये है अधिकाय । धिर-धिक है नामी अति पण, दुष्ट स्वभाव अधिक जा तणू ॥ १८ ॥ तबही पनों गायों राय, गुणी बात राजा दुःस पाय । रानीनों गोटं बच कहे, पन्नाभरण खासि करि लये ॥ १६ ॥ कादि दई घर बाहरि जर्ष, दुःखी भई अति ही सो त । अष्टातर आरत फियो, प्राण छोरि महिपी तन लियो ॥२०॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
याकी मात भैंस मर गई, तब ये अति दुर्बलता लई । एक समय कदम मधि जाय, मग्न भई ताला दुःख पाय ।। २१ ॥ तहां थकी देख्यो मुनि कोय, सीग हलाये क्रोधित होय । तवही पफ वि गडि गई, प्राण छोरि खरणी उपमई ॥ २२ ॥ भई पाँगुरी पिछले पाय, तबही एक मुनीश्वर आय । पूरव वैर सु मन मे ठयो, तहां कलुप परिणाम जु भयो ।॥ २३ ॥ दोहा-कियो क्रोध मन में घणू, दई दुलाती जाय ।
प्राण छोरि निज पापतै, लई करी काय ॥ २४ ॥ स्वानादिक के दुःखत, भृसी प्यासी होय ।
मरिकर चण्डाली सुता, उपजी निन्दित सोय ॥ २५ ॥ चौपाई-गर्भ आयतां विनस्यो तात, उपजता तन त्यागो मात ।
पालै सुजन मरै फुनि सोय. अरु आवत तन में बदबोय ॥ इक योजनलो आवै वांस, ताहि थकी आवै नहिं सांस । पञ्च अभख फल साबो करै, ऐसी विधि वन में सो फिरै ।। यहां एक मुनि शिष्य जु देख, राग द्वप तजि शुद्ध विशेष ! ता वन में आये गुण भरे, लघु मुनि गुरुसों प्रश्न जु करे ।। वासनिन्ध आवे अधिकाय, स्वामी कारण मोहि बताय । मुनि भार्थं सुनि मनवचकाय, जो प्राणी ऋपि को दुःखदाय ॥ ते नाना दुःख पावै सही, मुनि निन्दा सम अघको नही। कन्या ईनि पूरव भयसाहि, मुनि दुःखायो थो अधिकाहिं ।। ता करि तिरजगमे दुःख पाय, भुई वधिकक कन्या आय । सो इह देखि फिरतु है वाल, मुनि सशय भागौ तत्काल ।।
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दोग-नि गुरसेम सिप पहै, लय फिनि इनि अपनाय ।
मुनि बोले जिन-घस फो, थारे पाप पलाय ॥३२॥ चौपाई-गुरुशिप पचन मुतामन्यो , उपशम भान सुसाकर गुन्यो।
पा अमर पल त्यागेज, अमन मिले लागो शुभ तये ।। पुल भाममा छोरे प्रान, नगर उजनी श्रेणिक जान । तदा दरिद्री सिजक रहे, पाप उद कारि या दुःख लहै । वा हिज के पद पुत्री गई, पिता मात जम के पसि धई। उप यह दु.खपती जति हाय, पाप समान न बरी कोय ॥ रुष्ट फर फरिपरि जु मई, एक समय सो यन में गई। नहा सुदर्शन चे मुनिराप, अजितसेन राजा निहिं जाय ॥ धर्म सुन्यो भूपति गुवकार, इद पुनि गई नदां विहिवार ।
अधिक लोफ कन्या जोर, पाप की ऐसी फल होय ॥ दोहा-जान समे ह पन्यका, घासपुज सिरधारि।
सही मुनि बच सुनत धी, पुनि निज भार उदारि ॥३८॥ चौपाई-सनि मुसतं गुण पान्या भाय, पूरव भव सुमरण जब धाय।
याट करी पिछली वेदना, मूळ खाय परी दुःस घना।
प गजा उपचार कराय, चेत करी फुनि पूछि बुलाय। पुनी तं ऐसे क्यं मई, गुणि कन्या तव यू परनई ।। पूरब भर विरतन्त बताय, मैं जु दुःसायो थो मुनिराय। करीत दिशा की जु आहार, दियो मुनिक अति दुःखकार ।। सो अघ अपली पणि मुझ ट है, हम सुनि नृप मुनिवर सों कहै । इद किन विधि मुख पाय अच, तर मुनिराज वखान्यू तवै ॥
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जैन पूजा पाठ मह
जव सुगन्ध दशमी व्रत धरै, तब कन्या अघ सचय हर। कसी विधि याकी मुनिराय, तव ऋपि भादवमास वताय ॥ सुदि पञ्चमि दिनसों आचर, यथाशक्ति नवमीलों कर। दशमी दिन की उपवास, ता करि होय अधिक अवनास ॥ शुक्ल पक्ष दशमी दिन सार, दश पूजा करि वसु परकार । दश स्तोत्र पढ़िये मनलाय, दश मुख का घटसार वनाय ॥ ता में पावक उत्तम धरै, धूप दशांग खेय अघ हरे। सप्त धान्य को साथ्यो सार, करि तापरि दश दीपक धार । ऐसे पूज कर मनलाय, सुखकारी जिनरान वताय !
ताते इह विधि पूजा करै, सो भवि जीव भवोदघि तरै ॥ दोहा-जिनकी पूज समान फल, हुवो न हसी कोय ।
स्वर्गादिक पद को करै, पुनि देहे शिव जोय ॥ ४८॥ चौपाई-दश संवत्सरलों जो कर, ताही के जिन गुण अवतरै।
कर बहुरि उद्यापन राय, सुनहु सुविधि तुम मन वचकाय ॥ महाशान्तिक अभिषेक करेय, जिनवर आगै पुहुप घरेय । जो उपकरण धरे जिन थान, ताको भेद सुण चित आन ॥ दश जु वर्णको चन्दवो लाय, सो जिन विम्ब उपरि तणवाय।
और पताका दश घन सार, वाजै घण्टानाद अपार ।। मुक्ति माल की शोभा करै, चमर युगल छवि अनुपम धरै । और सुणं आर्गे मनलाय, प्रभु की भक्ति किये सुख थाय ।। धूपदहन दश आरति आनि, सिंह पीठि आदिक पहचानि । इत्यादिक उपकरण मंगाय, भक्ति भाव जुत भन्य चढ़ाय ।।
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जन पूजा पाठ सप्रह
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दान आहार आदि उच देय, ताकरि भविअधिकौ फल लेय । आर्याको अम्बर दीजिये, कुण्डी श्रुत नजरे कीजिये ।। यथा योग्य मुनि को दे दान, इत्यादिक उद्यापन जान । जो नहिं इतनी शक्ति लगार, थोरो ही कीजे हितधार ।। जो न सर्वथा घर में होय, तो दृण कीजे व्रत सोय ।
पणि व्रत तौ करिये मनलाय, जो सुर मोक्ष सुथानक दाय ।। दोहा-शाक पिण्ड के दानते, रतन वृष्टि ह राय।
यहां द्रव्य लागो कहां, भावनिकौ अधिकाय ॥ ५७॥ तात भक्ति उपायके, स्वातम हित मनलाय ।
व्रत कीजै जिनवर कयो, इम सुणि करि तव राय ।। ५८ ॥ सौपाई-द्विज कन्या को भूप बुलाय, व्रत सुगन्ध दशमी वतलाय ।
राय सहाय थकी व्रत करयो, पूरव पाप सकल तब हरथो । उद्यापन करि मन वप काय, और सुण आगे मन लाय। एक कनकपुर जाणो सार, नाम कनकप्रभु तसु भूपाल ।। नारि कनकमाला अभिराम, राजसेठ इक जिनदत्त जु नाम ।। जाके जिनदत्ता वर नारि, तिहि ताकै लीन्हूं अवतारि ॥ तिलकमती नामा गुण भरी, रूप सुगन्ध महा सुन्दरी । क्यू इक पाप उदै पुनि आय, प्राण तजे ताकी तब माय ॥ जननी विन दुःख पावै वाल, और सुण श्रेणिक भूपाल । जिनदत्त यौवनमय थौ जबै, अपनो व्याह विचारो तवे ।। इक गौधनपुर नगर सुजान, वृषभदत्त वाणिज तिहिं थान । ताके एक सुता शुभ भई, बन्धुमती वसु संज्ञा दई ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
तासों कीन्हूं सेठ विवाह, वाजा वाजे अधिक उछाह । परणि सुपर लायो सुख भार, आगे और सुण विस्तार ॥ दोहा - भोग शर्म करती भई, कन्या इक लखि माय ।
नाम धरयो तब मोद, तेजोमती सुभाय ॥ ६६ ॥ छन्द - प्यारी माताकू लागै, नहि तिलकमती सों रागै।
नाना विधि करि दुःख द्यावे, तार्के मनसा नहीं भावै ॥६७॥ तब तात सुतासु निहारी, कन्या इह दुःखित विचारी । तब दासी आदिक नारी, तिनसों इमि सेठ उचारी ॥६८॥ याकी सेवा सुख कारी, कीज्यो तुम भक्ति विधारी ।
ऐसे सुणि सो सुख पावै, तब नीकी भांति खिलावै ॥ ६६ ॥ चौपाई - एक समय कञ्चन प्रभ राय, दीपान्तर जिन दत्त पठाय । नारीसों तव भाखै जाय, हमकू राजा दीपि भिजाय ॥ तार्ते एक सुनो तुम बात, इह दो परणाज्यो हरपात | अष्ट गुणां युत जो वर होय, इनकौ करि दीज्यो अब लोय ॥ इम कहि दीपि चल्यो तत्काल, और सुणू श्रेणिक भूपाल । आवे करन सगाई कोय, तिलकमती जाचै तव सोय ॥ बन्धुमती भाखै जब आय, यामें अवगुण हैं अधिकाय । मम पुत्री गुणवन्ती घणी, रूप आदि शुभ लक्षण भणी ॥ ता मो कन्या शुभ जान, वर नक्षत्र व्याहौ तुम आन । इनकी मानें नाहीं बात, तिलकमती जाचै शुभ गात ॥ व्याह समय कन्या मम सार, करदेस्यूं व्याहित जिहिंवार । करी सगाई आनन्द होय, व्याह समै आये तब सोय ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
बन्धुमती फेरांकी वार, तिलकमती बहु भांति सिंगार। घडी दोय रजनी जब गई, तिलकमतीकू निज संग लई ।। जयहि मसाण भूमि मधि जाय, पुत्री लिह धान बैठाय।. तहां दीप जोये शुभ चारि, पूरे तेल उद्योत अपारि ।। चौगिरधा दीपक चउधरे, मध्य तिलकमती थिरता करे। तिलकमतीसों भापी जहां, तौ भरता आवेगो यहां ॥ ताहि विवाहि आवजे वाल, इमि कहि कर चाली तत्काल । आधी रात गये तब राय, महल थकी लखि वितरक लाय॥ नृप ने सन इम निश्चय कियो, अवशि देखिये जो कछु भयो। 'देवसुता वा यक्षिन कोय, ना जाने वा किन्नर होय ।। । केह नारी इहां को आय, ऐसी विधि चितवन करि राय।
हस्त खड्गले चालो तहां, तिलकमती तिठे थी जहां ॥ दोहा-जाय पूछियो रायजी, तूं कुण है इनि थान ।
तिलकमती सुण के तवै, ऐसी भांति वखानि ।। ८२ ॥ भूपति मेरे तातक, स्तन सुदीप पठाय ।
मोकू मम माता इहां, थापि गई अब आय ॥ ८३ ॥ चौपाई-भाखि गई इनि थानिक कोय, आवेगो ते भरता सोय।
यातें तुम आये अब धीर, मैं नारी तुम नाथ गहीर ॥ सुणि राजा तव व्याहसु करयो, रैनि रखो तैठे सुख घो। राजा प्रात समै अव लोय, निज मन्दिरकू आवनि होय ॥ तिलकमती ऐसे तब कही, अब तो तुम मेरे पति सही। सर्प जेमि डसि जावो कहां, सुनि इमि भा भूपति तहां ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
मैं निशि-निशि आस्य तुझि पास, तू तो महा शर्म की राशि | तिलकमती पूछै सिरनाय, कहा नाम तुम मोहि बताय ॥ राजा गोप को निज नाम, इम सुणि तिय पायो सुखधाम । यू कहि अपने थानिक गयो, तबसे ही परभात सु भयो । बन्धुमती कहि कपट विचार, तिलकमती है अति दुःखकार । व्याह समय उठि गई किनि थान, जन जन से पूछे दुःखमान ॥
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दोहा - देखो ऐसी पापिनी, गई कहां दुःखद्याय |
दूढत ढूढ़त कन्यका, लखी मसाणां जाय ॥ ६० ॥ जाय कहै दुःखदा सुता, इनिथानिक किमि आय | भूत प्रेत लागो कहां, ऐसी विधि बतलाय ॥ ६१ ॥ चौपाई – तिलकमती भाषै उमगाय, तैं भाख्यो सो कीन्हूं माय । बन्धुमती कहिं त्वङ्गपुकार, देखो तो इह असत्य उचार ॥ जानूं कहा क इह आय, व्याह समै दुःख दिया अघाय । तेजोमती विवाहित करी, सावा की समये नहिं टरी || पुनि भाषी उठि चल घर अबै ले आई अपने घर जबै । तिलकमती सों पूछें मात, तै कैसो वर पायो रात ॥ सुता को परियो हम गोप, रैनि परणि परभात अलोप । बन्धुमती भाषी ततकाल, री ! तैं वर पायौ गोपाल ॥ दोहा - घर इक गेह समीपथो, सो दीन्हों दुःखपाय |
नित प्रति रजनी के विषै, आवै तहां सुराय ॥ ६६ ॥ दीप निमित्त नही तेल दे, तबही अन्धेरे मांहि । राजा तैठेही रहे, सुख पावै अधिकांहि ॥ ६७ ॥
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बेन पूजा पाठ संग्रह
चौपाई-फइक दिन पुनि ऐसे गये, वन्धुमती तब यूं व कहे। - तोहि गुवाल्या ते कहि जाय, दोय बुहारी तो दे लाय
तिलकमती आरे करि लई, रात्रि भये निज पतिपै गई। करि क्रीड़ा सुख वचन उचार, नाथ सुणूं अरदास हमार ।। जुगल बुहारी मेरी माय, जाची हैं तुमपै हरपाय । यात ला दीज्यो तुम देव, अङ्गी कीन्हूं भूप स्वमेव ।। सभा जाय बेख्यो तब राय, स्वर्णकार तब सार बुलाय ! तिनत कही बुहारी दोय, अब करो जो उत्तम होय ॥ इम सुनि तवहीं कश्चनकार, लागि गये गढ़ने अधिकार । स्वर्णसींक सबके मन मोहि, रत्न जड़ित मूख्यो अति सोहि ॥ पोड़श भूषण और मंगाय, डाबा में धरि चाल्यो गय। एक वेश उत्तम करि लियो, रजनी समय नारि ढिग गयो । रतन जड़ित की कोर जु सार, शोभै सारी के अधिकार । भूपण वेश दये नृप जाय, दोय बुहारी लखित सुहाय ॥ नारि चरण नृप के तव धोय, सिरकेशनि से पूछत थोय । कोड़ा करि बहुते सुख पाय, प्रात भये नृप तो धरि जाय । तिलकमती अति हर्पित होय, जाय दई सु बुहारी दोय ।
और दिखाये भूषण वेश, माहीं देख्यो सार जु वेश ।। मन में दुःखित वचन इमि कहो, तेरो भरता तस्कर भयो। राजा के भूषण अरु वेश, लाय दये तोकू जु अशेप ।। हम सबकू दुःखद्यासी सोय, इम कहि खोसि लये दुःखि होय । - यह दलगीर भई अधिकाय, रात वि पति सों कहि जाय ।
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जैत्र पूजा पाठ सप्रह
भूषण वेश खोसि लये माय, निज पासे राखे दुःख पाय । 'राय तपै सम्बोधी जोय, मन चिन्ता राखो मति कोय ॥ ' और घणेही देहूं लाय, इस सुणि तिलकमती सुख पाय । दीप थकी जिनदत्त जु आय, बन्धुमती पतिसों बतलाय ।। तिलकमती के अवगुण घणां, कहा कहूँ पति अब वा तणां। । व्याह समै उठिगी किनि थान, परण्यो चोर तहां सुख ठान |
सो तस्कर भूपति के जाय, भूषण वेश चोर कर लाय । याकू वह दीन्हें तब राय, खोसि रखे मौ ढिग में लाय ॥' सेठ देख कम्पित मन मांहि, तब ही राज स्थानक जाय । ५ धरे जाय राजा के पाय, सब विरतन्त कह्यो सुणि राय ।। कयो वेश भूषण तौ आय, परि वह चोर आनिधौ लाय । इहि विधि सेठ सुणी नृप वात, चाल्यो निज घर कम्पित गात ।। साह सुतासों इह दच कह्यो, तू हमकू यह कुण दुःख दियो। पतिकू जाणे है अकि नाहिं, कयो द्वीप विन जाणू काहि ॥ कवहूं दीपक हेति सनेह, मोकू मम माता नहिं देह । सेठ कहें किसही विधि जान, तिलकमती जव बहुरि बखान ॥ इक विधि कर मैं जान तात, सो इह सुण हमारी वात । जब पति आवे मो ढिग यहां, तब उनि पद धोक्त थी तहां ॥ धोवत चरण पिछ सही, और इलाज इहां अब नहीं। सेठ कही भूपतिसों जाय, कन्या तौ इस भांति वताय ॥ ऐसे सुणि तव बोल्यो भूप, इहतौ विधि तुम जाणि अनूप । तस्कर ठीक करण के काज, तुम घर आयेंगे हम आज ॥ सेठ तवै अति प्रसन्न भयौ, जाय तैयारी करतो भयो। तब राजा परिवार बुलाय, तवही सेठ तण घर जाय॥
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रेन पूजा पाठ सम्रा
प्रजा जु सकल इकट्ठी भई, तिलकमती बुलवाय सु लई। नेत्र मुदि पद धोयत जाय, यह भी नहीं नहीं पति आव ।। जब नृप के चरणाम्बुज धोय, कहती भई यही पति होय । राजा हंसि इम कहतो भयो, इनि हम तस्कर कर दियो । तिलकाती पुनि ऐसे कही, नृप हो वा अन्य होई सही। लोक हसन लागे निहिं वार, भूप मने कीन्हे ततकार ॥ पृधा तास्प लोकां मति करो, में ही पति निश्चय मन घो। लोक व कैसे इह वणी, आदि अन्तलो भूपति भणी।। तयही लोक सकल इम कमी, कन्या धन्य सृप पति लखो। पूरव इन व्रत कीन्हं, सार, ताको फल इह फल्यो अपार ॥ भोजन अन्तर कर उत्साह, सेठ कियो सब देखत व्याह । ताक पटराणी नृप करी, भूपति मन में साता धरी ।। एक नमै पतियुत मों नार, गई सु जिनके गेह, मझार । वीतराग मुख देख्यो सार, पुन्य उपायो सुखदातार ।। सभा विष श्रुतिसागर सुनी, बैठे ज्ञान निधी बहु गुनी । तिनको प्रणमि परम सुख पाय, पूछ सुनिवर सों इमि राय ॥ पूरव भव मेरी पट नार, कहा सुबत कीन्हु विधि धार । जाकर रूपवती इह मई, अधिक सम्पदा शुभ करि लई ।। योगी प्रश्न सब विरतन्त, सुनि निन्दादिक सर्व कहन्त । अरु सुगन्ध दशमी व्रत सार, सो इनि कीन्हूं सुखदातार ॥ ताको पल इह जाणं सही, ऐसे मुनि श्रुति सागर कही। तवही आयो एक विमान, जिन श्रुत गुरु वन्दे तजि मान । मुनि नमस्कार करि सार, फेर तहां नृप देवि निहार । लिलामती के पांवा परयो, जा ऐसे सु वचन उच्चत्यो ।
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जन पूजा पाठ सप्रह
दोहा-स्वामिनी ! तुम परसाद तैं मैं पायो फल सार ।
व्रत सुगन्ध दशमी कियो, पूरव विद्या धार ।। १३३।। ता व्रत के परभावत, देव भयो मैं जाय । तुम मेरी साधर्मिणी, जुग क्रम देखनि आय ॥ १३४॥ हमि कहि वस्त्राभरण तें, पूज करी मनलाय ।
अरु सुर पुनि ऐसे कहो, तुम मेरी वर माय ॥ १३५॥ चौपाई-थुतिकर सुरनिजथानिक गयो,लोकांइह निश्चय लखि लियो।
धन्य सुगन्थ दशमी व्रत सार, ताको फल है अनन्त अपार ।। तव सवही जन यह व्रत धस्यो, अपन कर्म महाफल हरयो । तिलकमती कञ्चन प्रभु राय, मुनिक नमि अपने घरि जाय । देती पात्रनि को शुभ दान, करती सज्जन जन सन्मान । नित प्रति पूजै श्री जिनराय, अरु उपवास करै मनलाय ।। पति व्रत गुण को पालनहार, पुनि सुगन्ध दशमी व्रत धार । अन्त समाधि थकी तजि प्रान, जाय लयो ईशान सु थान ।। सागर दोय जहां थिति लई, शुभ नै भयो सुरोत्तम सही। नारी लिङ्ग निन्ध छेदियो, चय शिववासी जिनवर्णयो । जहां देव सेवा बहु करे, निरमल चमर तहां शिर ढरे ।
और विभव अधिकौ जिहिं जान, पूरव पुन्य भये तिहि आन ॥ इह लखि सुगन्ध दशैं व्रत सार, कीजै हो! भवि शर्म विचार ।
जे भवि नर-नारी व्रत करें, ते संसार समुद्र सों तिरै ॥ दोहा-श्रुतसागर ब्रह्मचारी को, ले पूरव अनुसार ।
भाषा सार बनाय के, सुखित 'खुशाल' अपार ॥१४३॥
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संने दूसरा हम
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रविप्रत कथा श्री सुमदायक पार्श्व जिनेश, गुमति सुगति दाता परमेश | सुमरी शारदपद अरविन्द, विनपर मत प्रयी सानन्द ॥ १ ॥ यापारसि नगरी तू विशाल, प्रजापाल प्रगट्यो भूपाल । मतिमागर वह सेट सु जान, ताकी भूष करे सन्मान ॥ २ ॥ कामु ठिया गुण सुन्दरी नाम, गाउ पुत्र ताके अभिराम । पट व भोग करें परणीत, यावरूप गुणधर सु विनीत ॥ ३ ॥ सहनट शोभित तिन धाम, आये यविपति राष्टित काम | सुनि मुनि आगम दति भये, सर्प लोग वन्दन को गये ॥ ४ ॥ गुरु वाणी सुनि के गुणवती, सेटिन तय करे विनती । प्रमो गम बताय, जामों रोग शोक भय जाय ॥ ५ ॥ कलानिधिमादि सुनिराय, नो भव्य तुम चित्त लगाय । पशु पक्ष विचार, कीजें अन्तिम रविवार || ६ || अनशन अपना अन्य नहार, को परिवार । लवणादिक ज न फल त पचामृत धार, चे प्रकार पूजा भनहार ॥ ७ ॥ उमरी जान, नव श्रापक पर दीजे आन । या कर नव वर्ष प्रमाण, जात होय सर्व कल्याण ॥ ८ ॥ अथवा एक वर्ष सनार, कोर्जे रविप्रत मनहि विचार । सुनि साहुन निज परको गई, नत निन्दा करि निन्दित भई || ६ || म निन्दा निर्धन भये, मानहिं पुत्र अवधपुर गये । वहां जिनदन सेठ घर रहें, पर दुष्कृत का फल लीं ॥१०॥ मात-पिता गृह दःसित सदा, अवध सहित मुनि पूछे तथा । दयावन्त मुनि ऐसे की, व्रत निन्दा से तुम दुःख लो || ११|| मुनि गुरु वचन बहुरि न लयो, पुण्य थयो घरमें धन भयो । afeजन सुनो कथा सम्बन्ध, जहं रहते थे वे सब नन्द ||१२|
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जन पूजा पाठ सप्रह
एक दिवस गुणधर सुकुमार, घास लेन आयो गृह द्वार । क्षुधावन्त भावज पै गयो, दन्त बिना नहि भोजन दयो ||१३|| बहुरि गयो जहाँ भूल्यो दन्त, देख्यो तासों अहि लिपटन्त । फणिपति की वह विनती करी, पद्मावति प्रगटी तिर्हि घरी ॥ १४॥ सुन्दर मणिमय पारसनाथ, प्रतिमा एक दई तिहिं हाथ । देकर को कुवर कर भोग, करो क्षणक पूला सचोव ॥१॥ आनर्विव निज वर से धरथो, दिहंकर तिनको दारिद्र हत्थो । सुख विलास सेवें सब नन्द, निव प्रति पूजें पार्द जिनन्द ॥१६॥ साकेता नगरी अभिराम, सुन्दर बनवायो जिद-धाम । करी प्रतिष्ठा पुण्य संयोग, आये भविजन सग सु लोग ॥१७॥ सङ्घ चतुर्विधि का सनमान कियो दियो मनवाछित दान | देख सेठ विनकी सम्पदा, जाय कही भूपतितों तदा ॥१८॥ भूपति तत्र पृछ्यो विरतन्व, सत्य को गणधर गुणवन्त । देख सुलक्षण ताको रूप, अति आनन्द भयो सो भूप ॥ १६ ॥ भूपति गृह तनुजा सुन्दरी, गुणधर को दीनों गुण भरी । कर विवाह मङ्गल सानन्द, इय गज पुरजन परमानन्द ||२०|| मनवांछित पाये सुख भोग, विस्मित भये सकल पुर लोग । सुखसों रहत बहुत दिन भये, तब सब वघु बनारस गये ॥२१॥ मात-पिता के परसे पाँय, अति आनन्द हिरदे न समाय । विघट्यो सबको विषय वियोग, भयो सकल पुरजन संयोग ||२२|| आठ सात नोलह के अङ्क, रवित्रत कथा रची अकलङ्क | थोड़ो अर्थ ग्रन्थ विस्तार कहे कवीश्वर ओ गुणसार ||२३|| यह व्रत जो नर-नारी करें, कबहूं दुर्गति में नहिं परें भाव सहित ते शिवसुख लहै, भानु कीर्ति मुनिवर इमि कहैं ||२४||
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श्री वासुपूज्य जिन-पूजा
(वृन्दावन कृत)
छन्द रूप कवित्त श्रीमत वासुपूज्य जिनवर -पद, पूजन हेतु हिये उमगाय । धारो मन-वच-तन सुचि करिके, जिनकी पाटल-देव्यामाय ।। महिप-चिह्न पढ़ लसे मनोहर, लाल-वरन-तन समता-दाय । सो करुना-निधि-कृपा-दृष्टि, करितिष्ठहु सुपरितिष्ठ यहँमाय ।।
ॐ ही श्री वासुपूज्यजिनेन्द्र । अत्र अवतर अवतर सोपट् । ॐ हीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्र । अब तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । ॐ हो श्री वासुपूज्यजिनेन्द्र ! अब मम सन्निहितो भव भव वपट् सन्निधीकरण ।
अष्टक
छन्द जोगीरासा गगा-जल भरि कनक-कुभ मे, प्रासुक गन्ध मिलाई, करम-कलक विनाशन कारन, धार देत हरषाई । वासुपूज्य वसु-पूज-तनुज-पद, वासव संपत आई
वाल ब्रह्मचारी लखि जिनको, शिव-तिय सनमुख धाई । _* हों श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निवपामोति स्वाहा ।
कृष्णागरु मलयागिरि चदन, केशरसग घसाई,
भव आताप विनाशन कारन, पूजो पद चितलाई ॥ वासु० ॥ ___ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दन निवंपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
देवजीर मुखदास शुद्ध वर, सुवरन यार भराई पुज धरत तुम चरनन आर्गे, तुरित अखय-पद पाई । वासुपूज्य वसु- पूज- तनुज पद, वासव सेवत आई बाल ब्रह्मचारी लखि जिनको, शिव-तिय सनमुख धाई ॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतानि निर्वपामीति स्वाहा । पारिजात सतान कल्पतरु, जनित सुमन बहु लाई,
मीनकेतु - मत-भजन- कारन तुम पद-पद्म चढाई ॥ वासु० ॥ ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा । नव्य गव्य आदिक रस-पूरित, नेवज तुरित उपाई,
क्षुधा - रोग निरवारन - कारन, तुम्हे जजों शिर-नाई ॥ वासु० ॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । दीपक - जोत उदोत होत वर, दश दिशमे छवि छाई । तिमिर-मोह-नाशक तुमको लखि, जजो चरन हरषाई ॥ वासु० ॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय माहान्धकार विनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा । दशविध गध मनोहर लेकर, वातहोत्र मे डाई | अष्ट करम ये दुष्ट जरतु हैं, धूम सु धूम उडाई ॥ वासु०॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा | सुरस सुपक्व सुपावन फल ले, कञ्चन - थार भराई । मोक्ष- महाफल-दायक लखि प्रभु, भेंट धरों गुन गाई ॥ वासु०॥ ॐ ह्रीं वासुपूज्य जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ।
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सित भादव चौदशि लीनो, निरवार सुधान प्रवीनों ।
पुर चपा थानकसेती, हम पूजत निज हित हेती ॥ ५ ॥
जैन पूजा पाठ सप्रद
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ॐ ही श्री माद्रपद शुक्लचतुर्दश्या मोसमगलप्राप्ताय श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा - चपापुर मे पचवर, कल्याणक तुम पाय
सत्तर धनु तन शोभनो, जे जे जे जिनराय ॥ १ ॥
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छन्द मोतियादाम वर्ण १२
महासुख सागर आगर ज्ञान, अनंत सुखामृत भुक्त महान् । महाबल - मडित खडत - काम, रमा - शिव - संग सदा विसराम ॥ सुरिंद फनिंद खर्गिद नरिंद, मुनिंद जजे नित पादरविद । प्रभु तुव अन्तर भाव विराग, सुबालहते व्रत - शीलसो राग ॥ कियो नहिं राज उदास-सरूप, सुभावन भावत आतम रूप । अनित्य शरीर प्रपच समस्त, चिदातम नित्य सुखाश्रित वस्त ॥
अशर्न नही कोउ शर्न सहाय, जहांजिय भोगत कर्म - विपाय | निजातमके परमेसुर शर्न, नही इनके विम आपद - हर्न ॥ जगत्त जथा जलबुदबुद येव, सदा जिय एक लहे फलमेव । अनेक प्रकार धरी यह देह, भ्रमें भव - कानन आन न नेह ॥
अपावन सात कुधात भरीय, चिदातम शुद्ध - सुभाव धरोय । धरै इनसो जब नेह तबेव, सुभावत कर्म तबे वसुभेव ॥
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शंभर
जवे तन भोग-जगत-उदास, धरै तव सवर-निर्जर-मास । फरे जब फर्म फलंक विनास, लहै तब मोक्ष महासखराश ॥ तपा यह लोक नगएन नित, विलोफिय ते पट द्रव्य-विचित । गमातम-जानन-यो-विहीन, धरै पिन तत्त्व-प्रतोत प्रवीन ॥ जिनागम-शानर मजम माय, सर्व-निज मान चिना विसराव । गदुम र नशे काल, सुभाव सर्व जिहते शिव हाल । लयो अब जोग स्तन्य वाय, कहो किमि दीजिय ताहि गंवाय । विचारत यो स्वकांतिस नाय, नमे पद-पकण पुप्प चढाय ॥ गायो प्रभु पन्य फिी मुविचार, प्रबोधि सु येम कियो तु विहार । नये गय धर्म सनो हरि नाय, रच्यो मिविफा चदि आप जिनाय ।। परे प पाय मोवान-बोध, दियो उपदेश सुमव्य संबोध । नियो पिर मोर महानुग-गा, नमें नित भक्त सोई सुख आश ॥
मसाएर निन बागव-वदत, पाप- निहायत, यासपूज्य व्रत-ब्रह्म-पती। भय ममट गान, मानद मडित, जे जे जे जैवत जती ॥
श्री पापा पूर्णान शिपागीति साहा । वानपूज- पद सार, जजो दरब विधि भावसों। गा पायें मुखमार, मुक्ति मुक्ति को जो परम ॥
1ो । परिपुष्पांजलि दिपागि]
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भक्तामर भाषा
( लेखक - हजारीलाल 'काका' घुन्देलखण्डी )
( वीरवाणी, पाक्षिक पत्र के वर्ष ३५, अक ८ एव ६ से साभार उद्धृत )
देवों के मुकुटो की मणिर्थी, जिन चरणो में जगमगा रही, जो पाप रूप अंधियारे को दिनकर बन कर के भगा रही, जो भव सागर में पडे हुये जीवो के लिये सहारे हैं, मन-वचन्तन से उन श्री जिन के चरणो में नमन हमार है || १ |
श्रुतज्ञानी सुरपति लोकपति जिनके गुण गाते हर प्रकार, स्तोत्र विनय पूजन द्वारा वन्दन करते हैं बार-बार, आश्चर्य आज मैं मन्द बुद्धि उन आदिनाथ के गुण गाता, उनकी भक्ति में भक्तामर भाषा मे लिख कर हर्षाता ॥ २ ॥ जो देवो द्वारा पूज्य प्रभु मैं उनके गुण गाने जाया, होकर जल्पन ढीठता हो, अपनी दिखलाने को लाया, मतिमद हूँ उस बालक समान जिसके कुछ हाथ न जाता है, प्रतिविम्ब चन्द्र का जल में लख लेने को हाथ डुदाता है || ३ ॥
जब प्रलयकाल की वायु से सागर लहराता जोरो से, तिस पर भी मगरमच्छ घूमें मुँह बाये चारों जोरो से ऐसे सागर का पार भुजाओ से क्या कोई पा सकता, बस इसी तरह मैं मन्द बुद्धि प्रभु के गुण कैसे गा सकता ॥ ४ ॥ जिस तरह सिंह के पंजे मे बच्चा लख हिरणी जातो है, ममता वश सिंह समान बलो को अपना रोष जताती है, बस इसी तरह से शक्ति मेरी मुनिनाथ न स्तुति करने को, जो कहा भक्तिवश ही स्वामी है शक्ति न मक्ति करने की ॥ ५ ॥
ज्यों आम्र मजरी को लख कर कोयल मधुराग सुनाती है, वैसे ही तेरी भक्ति प्रभु जबरन गुण गान कराती है, है अल्प ज्ञान विद्वानो के सन्मुख यह दास हँसी का है, तेरी भक्ति की शक्ति ने जो कहा ये काम
उसी का है || ६ |
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धन पूजा पाठ संप्रद
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पद जग के ऊपर हा जाता मंवरे-सा काला धकार, सरज की एक किरस उसको ख में कर देती हार-छार, वेसे ही भव भव के पातक जो भी सश्य हो जाते हैं. तेरी स्तुति के द्वारा ही सय बरा में भय हो जाते है । ७।
ज्यों कमत पत्र के ऊपर पड़ जल की वदं मन हरती है मोती समान लामा पाकर जो जगमग-जगमग करती हैं, बस उसी तरह यह स्तुति मी तेरे घरसो का दल पाकर,
विद्वानों का मन हर सेगी मुझ मल्प युद्धि द्वारा गाकर 15. हे बिनदर तेरो कथा हो पर हर पधा दूर कर देती है. फिर स्तुति का कहना हो या जो कोटि पाप हर लेती है,
से सूरज को उपयोती मग का हर काम चलाती है, पर उससे पहिसे को साती कमतो के झुण्ड सिताती हैं ।।।
हे भुवनरत । है त्रिभुवनपति को तेरी स्तुति गाते हैं, नामवर्य नही इसमें कुछ भी दो तुम से धन जाते हैं, पैसे उदार स्वामो पाकर सेवक धनवाते बन जाते.
है जन्म व्यर्थ पग में उनका मो पर के काम नही माते । १० । पो चन्द्र किरण सम उज्ज्वस पत मोठा क्षीरोदधि पान करे, वह नवखोदधि का धारा जस पाने का कमी न ध्यान करे. वैसे ही तेरी धोतराग मुद्रा को नेत्र देख तेते, तो उन्हें सरागी देव कमी अन्तर में शान्ति नही देते । १५ ।
जितने परमाणु शुद्ध नग में उनसे निर्मित तेरी काया, इसलिये माप बेसा सुन्दर दूजा न कोई नजर आया देवा को अति सुन्दर कान्ति जो नेत्रो में गड़ जाती है
पर वही कान्ति तेरै सन्मुस जाते फोकी पड़ जाती है । १२६ है नाय जाप का मुख मण्डल सुर नर के नेत्र हरण करता, दनिया को सन्दर उपमायें कर सके नही जिसको समता,
कान्तिहीन चन्दा दिन में बस टाक पत्र-सा सगता है, यह भी जिन के सुन्दर मुख को उपमा केसे पा सकता है। १३ ।
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जैन पूजा पाट सह
है त्रिभुवनपति तुम में सब ही उत्तम गुण दिये दिखाई हैं, हैं पूर्ण चन्द्र से कनावान जो त्रिभुवन को सुखदाई हैं, इसलिये उन्हे इच्छानुसार विचररा से कौन रोक सकता, जो त्रिभुवनपति के जाप्रय हैं उनको फिर कौन टोक सकता ॥ १४ ॥ जो प्रलयकाल को तेज वायु पर्वत करती कम्पायमान, वह पर्वतपति सुमेर राज कर सकती नही चलायमान, दस उमी तरह से जो देवी देवों का मन हर सकती है,
वह सभी देवियों मिल प्रभु को विचलित न जरा कर सकती हैं ॥ १५ ॥ हे ना दोप जितने जग के जो नजर हमारो जाते हैं, जरते जो तेल दाति द्वारा वायु लगते वुम जाते हैं, पर नाथ जाप वह दीपक हैं जो त्रिभुवन के प्रकाशक हो, निर्धूम जला करते निशदिन त्रिभुवन के तभी उपासक हो ॥ १६ ॥
हैं सतत् प्रकाशो सूर्य जाप ग्रस सके न राहू पाप रूप, इक समय एक सग तीन लोक का प्रकाशित होता स्वरूप, यह सूर्य मेघ से जाच्छादित होकर दिन में छिप जाता है, पर हे मुनीन्द्र वह सूर्य जाप जो सदा प्रकाश दिखाता है ॥ १७ ॥ मुखचन्द्र जाप का हे स्वामी मोहान्धकार का नाश करे, राहू मेघो से दूर सदा नित त्रिभुवन में प्रकाश करे, पर यह साधारण चन्द्र प्रभु राहू मेघो से घिर जाता, इतने पर भी यह सिर्फ रात में ही प्रकाश कुछ दे पाता | 15 | जब धान्य खेत में पक जाता जल को रहती परवाह नही, जल भरे बादलों को जग को रहतो फिर किंचित चाह नही, दस उसी तरह मुखचन्द्र तेरा जज्ञान तिमिर जब हर लेता,
तो सूर्य चन्द्रमा को पाने पर कोई ध्यान नही देता ॥ १६ ॥ मणियों पर पडने से प्रकाश को जाभा जितनी बढ़ जाती, वह छटा कांच के टुकड़ों पर पड़ने से कभी न जा पाती, बस उसी तरह हे देव जापका स्वपर प्रकाशक तत्व ज्ञान,
वह अन्य देवताओं से है कितना उज्ज्वल कितना महान ॥ २० ॥
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जैन पूजा पाठ मप्रह
उन्नत जशोक तर के नीचे निर्मल शरीर अतिशय कारी, सति ज्ञान्तिदान जगमगा रहा झोकी लगती है नति प्यारी, यह हृदय देव लगता मानो तन ने उजियाला पाया हो, या फिर मेघों को चोर सूर्य का दिम्ब निकन्न जाया हो ॥ २८ ।।
है प्रभु ये मणिमय सिंहासन जितकी किरणें जगमगा रही, सुवरण से ज्यादा कान्तिवान तन को शोमा जति बढ़ा रही, ऐसा लगता उदयाचल पर सोने का सूरज बना हुमा,
जिस पर किरणों का कातिवान अन्दर चन्दोवा तना हुजा ।। २६ !! जब समोशरण मे मगदन के सोने समान सुन्दर तन पर, दुरते हैं जति रमलोक चवर जो कुन्द पुष्प जसे मनहर, तब ऐसा लगता है सुमेर पर जल की धारा बहती हो, चन्द्रमा समान उज्ज्वल राशि मरमर मरनों से मरती हो ॥ ३० ॥
शशि के समान सुन्दर मन हर रवि ताप नाश करनेवाले, मोतो मरिणयो से जड़े हुये शोमा महान देनेवाले, प्रभु के सर पर शोभायमान वय छत्र समो को दता रहे,
ये तोनसोक के स्वामी हैं जगमग कर जग को बता रहे ॥ ३१ ॥ गम्भीर उच्च रुचिकर ध्वनि से जो चारो दिशा गुलाते हैं, सत्सग की महिमा तीनलोक के जीवो को बतलाते हैं, जो तोयटर की विजय घोषणा का यश गान सुनाते हैं, गुलायमान जो नम करते वह दुन्दुमि देव घजाते हैं ।। ३२॥
जो पारिजात के दिव्य पुष्प मन्दार सादि से लेकर के, करते हैं सरगरा पुष्पवृष्टि गन्दोदविन्दु को दे कर के, ठण्डो क्यार में समावति जद कल्प वृक्ष से गिरती है,
तद लगता प्रभु को दिव्यध्वनि ही पुष्प रूप में सिरती है ॥ ३३ ॥ जो त्रिभुवन में दैदीप्यमान की दोष्ठि जीतनेवाली है, पो कोटि सूर्य को नामा को मो लजित करनेवाली है, जो शशि समान हो शान्ति सुघा जग को वर्षानेवाली है, उस मामण्डल की दिव्य चर्चादनी से मी छटा निराली है।। ३४ ।।
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है प्रभु जाप की दिव्य ध्वनि जब समवशरण में खिरती है, तब सभी मोक्ष प्रेमी जोवो का मनायास मन हरती है, परिसमन आप को वाणी का खुद हो जाता हर बोती में, जो भी प्रासी आकर सुनता है समवशरण की टोली में ॥ ३५ ॥
नूनन कमलो सो कान्तिदान चरणो की शोमा प्यारी हैं, नख की किरणों का तेज स्वर्ण जैसा लगता मनहारी है, ऐसे मनहारी चरणो को जिस जगह प्रभुजी धरते हैं, उस जगह देव उनके नीचे कमलो की रचना करते हैं ।। ३६ ॥
हे श्री जिनेन्द्र तेरो विभूति सचमुच ही जतिशयकारी है, धर्मोपदेश की सभा जाप जैसी न और ने धारी है, जैसे सूरज का उजियाला सारा अम्बर चमकाता है, वैसे नक्षत्र अनेको पर सूरज को एक न पाता है ॥ ३७ ॥
मदमस्त कली के गण्डस्थल पर जब भरे मँडराते हैं, उस समय क्रोध से हाथी के दोउ नयन लाल हो जाते हैं, इतने विकराल रूपवासा हाथो जब सन्मुख जाता है, ऐसे सङ्कट के समय जाप का भक्त नहीं घबराता है ।। ३८ ॥
जो सिंह मदान्ध हाथियो के सिर को विदीर्ण कर देता है, शोणित से सथपथ गज मुक्ता पृथ्वी को पहिना देता है, ऐसा क्रूर धनराज शत्रुता छोड़ मित्रता धरता है, जव उसके पंजे मे भगवन कोई भक्त जाप का पड़ता है ।। ३६ ॥ हे प्रभो प्रलय का पवन जिसे धू-धू कर के धधकाता हो, ऐसी विकराल अग्नि ज्वाला जो क्षण मे नाश कराती हो, उसको तेरे वचनामृत जल पल भर मे शान्ति प्रदान करे,
जो भक्तिभाव कीर्तन रूपी तेरा पवित्र जल पान करे || ४० ॥
हे प्रभु नागदमनी से उयो सर्पों की एक न चल पाती, विषधर को डंसने की सारी शक्ति क्षण में क्षय हो जाती, बस उसी तरह श्रद्धा से जो तेरा गुण गान किया करते, वह उरते नही क्रुद्ध काले नागो पर कभी पैर धरते ॥ ४१ ॥
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'जैसे सूरज की किरणो से अंधियारा नजर नहीं जाता, भीषण से भीषण अन्धकार का कोई पता नही पाता. बस उसी तरह से है जिनवर जो गाता तेरी गुण गाथा, उसको सशक्त हय गज वाले राजा टेका करते माथा ।। ४२ ॥
रण मे माले से अरियो का जब रुधिर वेग से बहता है, वह रुधिर धार कर पार वैग से हर योद्धा तत्पर रहता है, ऐसे दुर्जय शत्रु पर भी वह विजय पताका फहराते,
हे प्रम आप के चरण कमल जिनके द्वारा पूजे जाते ।। ४३ ॥ सागर की भीषण लहरो से जब नया डगमग करती है, या फिर प्रलयकारी स्वरूप अग्नि जब अपना धरती है, उस वक्त मापका ध्यान मात्र जो भक्त हृदय से करते हैं, इन आकस्मिक विपदामो में हर समय देव गण रहते हैं ।। ४४ ॥
हे प्रमो जलोदर से जिनकी काया निबेल हो जाती है, जीने को जाशा छोड़ दशा जब शोचनीय हो जाती है, उस समय मापके चरणों की रज जो बीमार लगाते हैं,
वह फिर से कामदेव जैसा सन्दर स्वरूप पा जाते हैं ॥ ४५ ॥ जो लौह श्रृङ्खलामो द्वारा पग से गर्दन तक जकड़ा हो, जकड़न से जवानों पर का चमड़ा भी कुछ-कुछ उखड़ा हो, ऐसा मानव भी बन्धन से पल में मुक्ति पा जाता है, 'जो तेरे नाम मन्त्र को प्रभु अपने अन्तर मे ध्याता है ।। ४६ ||
हे प्रभु जाप को यह विनती जो भक्ति भाव से गाते हैं, दावानल सिंह सर्प हाथी हर विघ्न दूर हो जाते हैं, तिर जाते गहरे सागर से तन के बन्धन कट जाते हैं,
हर रोग दूर हो जाते जो भक्तामर पाठ रचाते हैं ॥ ४७ ।। यह शब्द सुमन से गूथी है प्री जिनवर के गुण की माला, वह मोक्ष लक्ष्मी पाता है जिसने भी इसे गले डाला, प्री मानतुङ्ग मुनिवर ने ये स्तोत्र रचा सुखदाई है, कवि 'काका' ने भाषा द्वारा हर कण्ठो तक पहुंचाई है ।। ४८॥
दोहाभक्तामर स्तोत्र का करे मव्य जो जाप,मनोकामना पूर्ण हो मिटे सभी सताए । विघ्न हरन मगल करन सभी सिद्धि दातार, 'काका' मक्तामर नमो भव दधि तारनहार ।
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समाधिमरण भाषा बन्दों श्री मरहत परमगुरु, जो सबको सुखदाई ,
इस जग मे दु ख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई । अब मैं मरज करू प्रभु तुमसे, कर समाधि उर माही । मन्त समय में यह वर मागू, सो दोज जग-राई ।। ५ ॥ भव भव में तनधार नया मैं, भव भव शुभ सग पायो, भव भव में नृपरिद्धि तई में, मात पिता सुत थायो। भव भव में तन पुरुपतनों धर. नारी हूँ तन लीनो , भव भव मे मैं मया नपु सक, मातम गुण नहि चीन्हो ॥ २ ॥ भव भव मै सुरपदवी पाई. ताके सुख अति भागे , भव मद मे गति नरकतनो धर, दुख पायो विधि योगे। भव मद में तिर्यञ्च योनिधर, पायो दुख जति भारी, भव मद में साधर्माजनको, सग मिल्यो हितकारी ।। ३ ।। भव भव मे जिनपूजन कोनी, दान सुपात्रहि दीनो , भव भव में में समवसरण मे, देखो जिनगुण भीनो । एती वस्तु मिली भव भव में, सम्यकगुण नहिं पायो , नहिं समाधियुत मरण कियो मैं, तात जग भरमायो ॥ ४ काल जनादि भयो जग भ्रपते, सदा कुमरणहि कीनो , एकधार हूँ सम्यकयुत मैं, निज मातम नहिं चीनी । जो निज पर को ज्ञान होय तो, मरण समय दु ख कोई . देह विनासी में निज भासी, ज्योति स्वरूप सदाई ॥ ५ ॥ विषय कषायन के वश होकर, देह जापनो जान्यो , कर मिथ्या सरधान हिये विच, मातम नाहि पिछान्यो । यो कलश हियधार मरणकर, चारों गति भरमायो , सम्यकदर्शन-ज्ञान-चरन ये हिरदे मे नहिं लायो ।। ६ ।। अव या अरज करू प्रभु सुनिये, मरण समय यह मांगो, रोगजनित पीडा मत होवे, अरु कषाय मत जागो। ये मुम मरण समय दुखदाता, इन हर साता कीजै , जो समाधियुत मरण होय मुझ, अरु मिथ्यामद छीजे ।। ७I
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अन पूजा पाठ सप्रह
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यह सब मद मोह बढावनहारे, जियकी दुर्गति दाता , इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता। मृत्युकल्पद्रुम पाय सयाने. मागो इच्छा जेती , समता धरकर मृत्यु करो तो, पावो सम्पत्ति तैती ।।१५।। चौमाराधन सहित प्राण तज, तो या पदवी पावो , हरि प्रतिहरि चक्रो तीर्थेश्वर, स्वर्गमुक्ति में जावो । मृत्युकल्पद्रुम सम नहिं दाता, तोनो लोक प्रझारै, ताको पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ।।१६।। इस तन में क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरन हो है , तेजकांति बल नित्य घटत है, या सम मथिर सु को है। पाचौ इन्द्री शिथिल मई जब, स्वास शुद्ध नहिं जावै , तापर भी ममता नहिं छोडै, समता उर नहि लावै ॥१७॥ मृत्युराज उपकारी जियको, तनसौं तोहि छुड़ावै , नातर या तन बन्दीगृह में, परयो परयो बिललावै । पुद्रन के परमाणु मिलके, पिण्डरूपतन मासी, याही मूरत मैं अमूरतो, ज्ञानजोति गुणवासी ।।१८।। रोगशोक मादिक जो वेदन. ते सब पुद्गल लारै , में तो चेतन व्याधि बिना नित, है सो भाव हमारे । या तनसों इस क्षेत्रसम्बन्धी, कारन आन बन्यो है , खान-पान दे याको पोष्यो, अब सम भाव ठन्यो है ।।१६।। मिथ्यादर्शन गात्मज्ञान बिन, यह तन अपनो मा यो , इन्द्री मोग गिने सुख मैंने, जापो नाहिं पिछान्यो । तन विनशनते नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई, कुटुम्ब मादि को अपनी जान्यो, भूल अनादि छाई ।।२०।। अब निज भेद जथारथ समभयो, मैं हूँ ज्योतिस्वरुपी, उपजे विनसे सो यह पुनल, जान्यो याको रूपो । इष्ट अनिष्ट जेते सुख-दुख हैं, सो सेब पुद्गल लागें , मैं जब अपनो रूप विचारो, तब वे सब दुस्स भागें ॥२१॥
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मेन पूजा पाठ समह
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मन थिरता करके तुम चिन्तो, चौ आराधन भाई, वे ही ताको सुख की दाता, और हितू कोउ नाही । आगे बहु मुनिराज भये है तिन गर्हि थिरता भारी, बहु उपसर्ग सहै शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥ २६ ॥ तिनमे कछुइक नाम कहूँ मै, सुनो जिया चित लाके, भावसहित जनुमोदे तासे, दुर्गति होय न जाके । अरु समता निज उर में जावे, भाव अधीरज जावे, यो निशदिन जो उन मुनिवर को, ध्यान हिये बिच लावे ||३०|| धन्य-धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी, एक इथालनी युगबच्चायुत, पवि मरुयो दुखकारी । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, जाराधन चित धारी. तो तुमरे जिय कौन दुख है, मृत्यु महोत्सव बारी ||३१|| धन्य-धन्य जु सुकौशल स्वामी, व्याघ्री ने तन खायो
?
तो मी श्रीमुनि नेक डिगो नहि, आतमसो हित लायो । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, जाराधन चित धारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है । मृत्यु महोत्सव बारी ||३२||
देखो गजमुनि के सिर ऊपर, विप्र अगिनि बहु बारी, शीश जलै जिमि लकडी तनको, तो भी नाहि चिगारी । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, जाराधन चित धारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है, मृत्यु महोत्सव बारी ॥३३॥ सनत्कुमार मुनि के तन मे, कुष्ठ वेदना व्यापी, छिन्नभिन्न तन तासो हूवो, तब चिन्त्यो गुण आयो । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, जाराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है, मृत्यु महोत्सव बारी ||३४|| श्रेणिकसुत गगा में डून्यो, तब जिन नाम चितारयो, धर सलेखना परिग्रह छोड्यो, शुद्ध भाव उर धारयो । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, जाराधन चितधारी, तौ तुमरे जिये कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥ ३५ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
समन्तभद्र मुनिवर के तन मे क्षुधावेदना भाई , तो दुख मे मुनि नेक न डिगियो, चित्यो निजगुण भाई। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, माराधन चितधारी , तौ तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥३६॥ ललितघटादिक तीस दोय मुनि, कौशाम्बीतट जानो , नदी मे मुनि बहकर डूबे, सो दु ख उन नहि मानो । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥३७।। धर्मकोष मुनि चम्पानगरी, बाह्म ध्यान धर ठाढ़ो , एक मास की कर मर्यादा, तृषा दुख सह गाढ़ो। यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी , तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥३८।। श्रीदत्तमुनि के पूर्व जन्म को, बैरी देव सु जाके , विक्रिय कर दु ख शीततनो, सो सह्यो साधु मनलाके । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, माराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ।। ३६ ।। वृषमसेन मुनि उष्ण शिला पर, ध्यान धरयो मनलाई , सूर्य धाम अरु उष्ण पवन की, वेदन सहि अधिकाई । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी , तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ।।४०।। अभयघोष मुनि काकदीपुर, महावेदना पाई , बैरी चन्डने सब तन छेद्यो, दु ख दोनो अधिकाई । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, माराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारो॥४१॥ विद्य त चर ने बहु दु ख पायो, तो मी धीर न त्यागी , शम भावना से प्राण तजे निज, धन्य और बड़भागी। यह उपसर्ग सह्यो धर धिरता, माराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ।। ४२।।
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जय पूजा
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पुत्र चिलाती नामा मुनि को, बैरी ने तन घातो, मोटे-मोटे कोट पडे तन, तापर निज गुण रातो । यह उपसर्ग सह्यो घर धिरता, जाराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्युमहोत्सव बारी ॥ ४३ ॥ दण्डकनामा मुनि की देही, बाणन कर अति भेदी, तापर नेक डिगे नहि वे मुनि, कर्म महारिपु छेदी । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥ ४४ ॥ अभिनन्दन मुनि आदि पांच सौ घानि पेलि जु मारे तो भी श्रीमुनि समता धारी, पूरब कर्म विचारे । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी, तो तुमरे जिथ कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥ ४५ ॥ चाणक मुनि गौधर के माही, मन्द अननि पर जाल्यो श्रीगुरु उर समभाव धारके, अपनो रूप सम्हाल्यो । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी, त्तौ तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ०४६ ० सात शतक मुनिवर ने पाथो, हस्तनापुर मे जानो, बलिब्राह्मण कृत घोर उपद्रव, सो मुनिवर नहि मानो । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥ ४७ ॥ लोहमयी आभूषण गढके, ताते कर पहराये, पांचो पाण्डव मुनि के तन में, तो भो नाहि चिगाये । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी,
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तो तुपरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥ ४८ ॥
और अनेक भये इस जग मे, समता रस के वे ही हमको हो सुखदाता, हर हैं टेव सम्यक् - दर्शन ज्ञान चरन तप, ये आराधन ये ही मोकू सुख के दाता, इन्हे सदा उर धारो ॥ ४६ ॥
स्वादी
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प्रमादी |
चारो,
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४५२
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जैन
यो समाधि उरमाही तावा, अपनो हित जो चाहो, तज ममता अरु जाठी मदको जोतिस्वरूपी ध्यावो । जो कोई नित करत पयानो, ग्रामान्तर के का, सो मी शकुन विचारै नीके, शुभ के कारण साजे ॥ ५०१ मातादिक जरु सर्व कुटुम्ब सौ, नोको शकुन बनावे, हलदी धनिया पुनो जक्षत, दूव दही फल लावे | एक ग्राम के कारण एते करें शुभाशुभ सारे, जब परगति को करत पयानो, तउ नहि सोचे प्यारे ५१८
सर्व कुटुम्ब जब रोवन लागे, तोहि रुनावे सारे, ये अपशकुन करें सुन तोको, तू यो क्यो न विचारे । जब परगति को चालत विरिया, धर्मध्यान उर आना चारो
पूजा पाठ समह
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पञ्च उभव नव एक नम, लाश्विन श्यामा सप्तमी,
आराधन आराधा, माहतनो दुख हानो ॥ ५२ ॥ हृनि शल्य तजो सब दुविधा आतमराम सुध्यावो, जब परगति को करहु पथानो परम तत्व उर तावो । मोह जानको काट पियारे, अपनी रूप विचारो मृत्यु मित्र उपकारी तरी, यो उर निश्चय धारो [ ५३ 6
दोहा - मृत्युमहोत्सव पाठको पढो सुनो बुधिवान । सरधा घर नित सुरू लहो, सूरचन्द्र शिवधान सबतै सो सुखदाय | कह्यो पाठ मनलाथ 8
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________________ श्री शांतिनाथ जिन पूजा ( कवि श्री रामचन्द्रजी कृत) अडिल्ल शान्ति जिनेश्वर नमूं तीर्थ वस दुगुण ही, पचमचक्री मनग दुविध षट् सगुण ही। तृणवत रिधि सब छारि धारि तप शिव वरी, जाह्वानन विधि करू वारत्रय उच्चरी // 2 // ॐ हौं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र / अत्र अवतर अवतर सवौषट् / ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन / ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र ! मन मम सन्निहितो भव भव वपट् / नाराच छन्द शैल हेमतें पतत जापिका सुन्यौमहो। रत्नभृन्गधारि नोर सोत अग सो मही / रोग सोग माधि व्याधि पूजते नसाय हैं। अनत सौख्यसार शांतिनाथ सेय पाय है // 2 // ॐ हीं थी शान्तिनाजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निक चदनादि कुकमादि गधसार ल्यावही भृग वद गजत समोर सग ध्यावही / / रोग सोग० / / 2 / / ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय ममारतापविनाशनाय चन्दन निर्व इदु कुद हारतें अपार स्वेत साल ही। दुति खडकार पुज धारिये विशाल ही / / रोग सोग० / / 3 / / ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ भगवज्जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् / पचवरन पुष्पसार ल्याइये मनोग्य ही। स्वर्न थाल धारिये मनोज नास जोग्यही || रोग सोग० / / 4 / / ॐ ह्री श्री शान्तिनाथ भगवजिनेन्द्राय कामबाणविध्वसनाय पुष्प
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________________ जेठ असित चउदसि धरयो, तप तजि राज महान / सुर नर खगपति पद जज, है जज हूँ भगवान / / 3 / / ॐ ही श्री ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्या तपोमगलमडिताय श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा / पोस सुकल ग्यारसि हने, घाति कर्म सुखदाय / केवल लहि वृष माखियो, जज शांति पद ध्याय // 4 / / ॐ ही श्री पौषशुक्लकादश्या ज्ञानमगलमडिताय श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामोति स्वाहा / कृष्ण चतुरदसि जेठकी, हनि अघाति सिवथान / गये समैदाचल थकी, जज मोक्ष कल्यान / / 5 / / ॐ हीं श्री ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्या मोक्षमगलमडिताय श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा / जयमाला सोरठा-शांति जिनेश्वर पाय, बद् मन बच कायतै / देहु सुमति जिनराय, ज्यौ विनती रुचिौ करौं / / 1 / / (चाल ससार सासरियो भाई दोहिलो) शांति करम वसुहानिक, सिद्ध भये सिव जाय / शांति करो सब लोक मे, मरज यहै सुखदाय / / शांति करो जगशांतिजी // 1 // धन्य नयरि हथनापुरी, धन्य पिता विश्वसेन / धन्य उदर जयरा सतो, शांति मये सुख देन // शांति० // 2 // भादव सप्तमि स्यामहि, गर्भकल्याणक ठानि / रतन धनद वरषाइये, षट नव मास महान / / शांति० // 3 // जेठ मसित चउजस विष, जनम कल्याणक इद / मेरु करयौ अभिषेककैं, पूजि नचे सुरवृन्द / / शांति० // 4 // हेम वरन तन सोहना, तुग धनुष चालीस / जायुवरसलख नरपति, सेवत सहस बतीस / / शांति० // 5 //
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________________ 456 जन पूजा पाठ सग्रह षटखड नवविधि तियसवे, चउदहरतन भडार / कछुकारण लखिके तजे, पणचव मसिय जगार / शांति० // 6 // देव रिपि सब आयक, पूजि चले जिन बोधि / लेय सुरा सिवका धरो, विरछ नदीश्वर सोधि / शाति० / 7 / कृष्ण चतुरदसि जेठको, मनपरजे लहि ज्ञान / इद कल्याणक तप करलो, ध्यान धरया भगवान / शांति० // 8B षष्ठम करि हित असनकै, पुर सोमनस मझार / गये दयो पय मित्तजी, वरष रतन अपार : शाति० // 6 // मौनसहित वसु दुगुणही, बरस करे तप ध्यान / पौष सुकह ग्यारसि हने, घाति लह्यो प्रभु ज्ञान / शाति० 110 // समवसरन धनपति रच्यो, कमलासनपर देव / इन्द्र नरा षटद्रव्यकी, सुति थिति थुति करि एव / शांति० // 21 // धन्य जगलपद सो तनौ, मायौ तुम दरबार / धन्य उम चखि ये मथे, वदन जिनन्द निहारि / शाति० // 22 // माज सफल कर ये मये, पूजत श्रीजिन पाय / सीस सफल अब ही मयो, धोक्यो तुम प्रभु माय / शाति० // 13 // साज सफल रसना भई, तुम गुणगान करन्त / धन्य भयौ हिय मो तनी, प्रभुपदध्यान धरन्त // शाति० 1140 साज सफल जग मो तनौ, श्रवन सुनत तुमवैन / धन्य मये वसु अग थे, नमत लयौ अति चैन / शांति० // 15 // राम कहै तुम गुणतणा, इन्द लहै नहि पार / मैं मति अलप अजान हूँ, होय नही विसतार / शाति० // 16 // बरस सहस पचीसही, षोडस कम उपदेश / देय समेद पधारिये, मास रहे इक सेस / शाति० // 17 // जेठ मसित चउदसि गये, हनि अघाति सिवथान / सुरपति उत्सव अति करे, मगल मोछि कल्यान / शांति०१८॥
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________________ जैन पूजा पाठ सप्रह सेवक सरज करै सनो, हो करुणानिधि देव / दुखमय भवदधि नै मुझे, तारि करू तुम सेव / शाति०१६॥ पत्ता छन्द इति जिन गुणमाला ममल रसाला जो भविजन कठे धरई। हुय दिवि अमरेस्वर, पहमि नरेस्वर, शिवसुन्दरि ततछिन वरई // ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा / षोडशकारण व्रत जाप समुच्चय - ॐ हो श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारण भावनाभ्यो नम / (1) ॐ हो श्री दर्शन विशुद्धये नम (2) ॐ ही श्री विनय सम्पन्नताय नम (3) ॐ ही श्री शोलव्रतेष्वनतिचाराय नम (4) ॐ ह्री श्री भाभीक्ष्णज्ञानो पयोगाथ नम (5) ॐ ह्री श्री सवैगाय नम (6) ॐ ही श्री शक्तितस्त्यामाय नम (7) ॐ ही प्री शक्तितस्नपसे नम (8) ॐ ह्री श्री साधुसमाधये नम (6) ॐ ह्री श्री वैयाव्रत्य करणाय नम (10) ॐ ही श्री महद्भक्त्यै नम (11) ॐ ह्री श्री आचार्य मक्त्यै नम (22) ॐ ही श्री बहूतभक्त्यै नम (13) ॐ ह्री श्री प्रवचनभक्त्य नम (14) ॐ ही श्री मावश्यकापरिहाणये नम (15) ॐ ही श्री मार्गप्रभावनाय नम - (2) ॐ ह्री श्री प्रवचन-वत्सलत्वाय नम / - * भजन * सांवलिया पारसनाथ शिखर पर भले विराजे जी। भले पिराजे, भले विराजे, भले विराजे जी // साव० // 1 // टोंक टॉक पर ध्वजा विराजे झालर घंटा वाजे जी। झालर की झंकार सुनो जव अनदह बाजे बाजे जी // साव० // 2 // दूर दूर से यात्री आवें मन में लेकर चाव / अष्ट द्रव्य से पूजा कीनी, पुष्प दिये चढाय // सांच० // 3 // पैंड पैड पर सिंह दहाडे जहाँ भीलों का वासा। जहां प्रभु तुम मोक्ष गये थे वहाँ लियो निरवासा // साव० // 4 // दूर दूर से मील भी आये जिनकी मोटी चोटी। जिन के दया धर्म नहीं मन में उनकी किस्मत खोटी / सांव० // 5 //
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________________ 458 जैन पूजा पाठ सप्रह * आरती इह विधि मंगल आरती कीजे, पच परमपदभज सुख लीजे / टेक / पहली आरती श्री जिनराजा, भवदधि पार उतार जिहाजा / यह / दूसरी आरती सिद्धन केरो, सुमरन, फरत मिटे भव फेरो। यह० / तीजी आरती सूर मुनिन्दा, जनम मरण दुःख दूर करिन्दा / यह / चौथी आरती श्री उवज्झाया, दर्शन देखत पाप पलाया / यह / पाची आरती साधु तिहारी, कुमति विनाशन शिव अधिकारी॥ छट्ठी ग्यारह प्रतिमा धारी, श्रावक बन्दी आनन्दकारी / यह० / सातवीं आरती श्री जिनवाणी, 'धानत' स्वर्ग मुक्ति सुखदानी / सध्या करके आरती कीजे, अपनो जनम सफल कर लीजे / जो कोई आरती करे करावे, सो नर नारी अमर पद पावे // * चौबीसों भगवान की आरती * पभ अजित संभव अभिनन्दन, सुमति पदम सुपार्श्व की जय हो। जिनराजा, दीनदयाला, श्री महाराज की आरती / टेक। चन्द्र पहुप शीतल श्रेयाशा, वासुपूज्य महाराज की जय हो। जिन विमल अनन्त धर्म जस उज्ज्वल, शान्तिनाथ महाराज की जय हो / जिन कुंथुनाथ, अरि, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमिनाथ महाराज की जय हो / जिन नेमिनाथ प्रभु पार्श्व शिरोमणि, वर्धमान महाराज की जय हो। जिन जिन चौबीसों की आरती करो, म्हारो आवागमन, म्हारो जामण मरण मिटावो महाराज जी, जय हो जिनराजा, दीनदयाला श्री महाराज की आरती।
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________________ // श्री महावीर स्वामी की आरती // जय महावीर प्रभो स्वामी जय महावीर प्रभो। कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानन्द विभो॥ ओम जय महावीर प्रभो // सिद्धारथ घर जन्मे, वैभव था भारी स्वामी वैभव था भारी वाल ब्रह्मचारी, व्रत पाल्यो तपधारी / 1 / ओम जय आतम ज्ञान विरागी, सम दृष्टि धारी। माया मोह विनाशक, ज्ञान ज्योति जारी / 2 / ओम जय - जग में पाठ अहिंसा, यापही विस्तारयो / हिंसा पाप मिटा कर, सुधर्म परिवार्यो / 3 / ओम जय यहि विधि वादनपुर में अतिशय दरशायो। ग्वाल मनोरथ पुरयो दूध गाय पायो / 4 / ओम जय अमरचन्द को स्वपना, तुमने प्रभु दीना। मन्दिर तीन शिखिर फा, निर्मित है कीना / 5 / ओम जय / जयपुर नृप भी तेरे, अतिशय के सेवी। एक ग्राम तिन दिनों, सेवा हित यह भी / 6 / मोम जय जो कोई तेरे दर पर, इच्छा कर आवे। मनवाछित फल पावै, संकट मिट जावे / 7 / ओम जय * निशि दिन प्रभु मन्दिर में जगमग ज्योति जरे। सेवक प्रभु चरणों में, आनन्द मोद भरे / 8 / ओम जय महावीर प्रभो॥
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________________ पार्श्वनाथ की आरती रचयिता-जियालाल जैन जय पारस देवा प्रभु जय पारस देवा / सुर नर मुनि जन तव चरनन की करते नित सेवा // टेक पौष बदो ग्यारसी, काशी मे आनन्द अति भारी / अश्वसेन घर वामा के उर लोनो अवतारी // जय० // 1 // श्याम वरण नव हाथ काय पग उरग लखन सोहै / सुरकृत अति अनुपम पट भूषण सबका मन मोहै // जय० // 2 // जलते देख नाग नागिनी को पच नवकार दिया। हरा कमठ का मान ज्ञान का भानु प्रकाश किया // जय० // 3 // मात-पिता तुम स्वामो मेरे आश करूं किसकी। तुम बिन दूजा और न कोई शरण गहूँ जिसकी // जय० // 4 // तुम परमातम तुम अध्यातम तुम अन्तर्यामी / स्वर्ग मोक्ष पदवी के दाता त्रिभुवन के स्वामी // जय० // 5 // दीनबन्धु दुखहरण जिनेश्वर तुम ही हो मेरे / दो शिवपुर का वास दास हम द्वार खड़े तेरे // जय० // 6 // विषय विकार मिटाओ मन का अर्ज सुनो दाता। 'जियालाल' कर जोड प्रभु के चरणो चित लाता // जय० // 7 //
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________________ अथ शांति मंत्र प्रारम्यते ॐनमः सिद्धन्यः / श्री वीतरागाय नमः / ॐ नमोऽर्हते भगवते, धीमते पार्वतीयंदराय द्वादशगणपरिवेप्टिताय, शुरुध्यान पवित्राय, सर्वज्ञाय स्वयभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय, लोकमहोव्याताय, मनन्तससारचक्रपरिमदंनाय, अनन्तदर्शनाय, अनन्तवीर्याय, अनन्तमुरवाय, सिद्धाय, बुद्धाय, लोक्यवशङ्कराय, सत्यनानाय, सत्यव्रह्मणे, धरणेन्द्र फणामण्डलमण्डिताय, ऋष्यायिका श्रावक श्राविका प्रमुख चतुस्सोपसर्गविनाशनाय, घातिकर्म विनाशनाय, मघातिकर्म विनाशनाय / अपवाय छिधि-छिधि भिधि-भिघि / मृत्यु छिघि-विधि मिधि-भिधि / अतिकामछिधि 2 भिधि २रतिकाम छिधि-छिधि भिधि भिधि / क्रोध छिधि-छिधि मिधि-भिधि। मन्ति छिधि-छिधि भिघि-भिधि / सर्वशत्रु छिधि 2 भिघि 2 / सर्वोपसर्गछिधि 2 भिधि 2 / सर्वविघ्न छिधि 2 भिधि 2 / सर्वभय छिघि 2 भिधि 2 / सर्वराजभय छिधि 2 भिधि 2 / सर्वचोरभय लिधि 2 भिघि 2 / सर्वदुष्टभय विधि 2 भिधि 2 / सर्वमृगमय छिधि 2 भिधि 2 / सर्वमात्मचक्रभय छिधि 2 भिधि२ / सर्वपरमन्त्र छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वशूलरोग छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वक्षयरोग छिन्धि 2 भिन्ध 2 / सर्वकुष्ठरोग छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वकररोग छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वनरमारी छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वगजमारी छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वाश्वमारी छिन्धि 2 भिन्धि 2 // गर्वगोमारी छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वमहिपमारि छिन्धि 2 भिधि२। सर्वधान्यमारि छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्ववृक्षमारि छिन्धि 2
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________________ YE जेन पूजा पाठ सप्रह भिन्धि 2 / सर्वगलमारि छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वपत्रमारि छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वपुप्पमारि छिन्धि 2 भिन्धि 2 सर्वफलमारि छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वराष्ट्रमारि छिन्धि : भिन्धि 2 / सर्वदेशमारि सिवि 2 भिन्धि 2 / सर्वविषमारि छिन्धि 2 भिन्धि 2 / वेतालगाकिनोभय छिन्धि 2 भिन्धि 2 सर्ववेदनीय छिन्धि 2 भिन्धि 2 / सर्वमोहनीय छिन्धि 2 भिन्वि 2 सर्वकर्माष्टक छिन्धि 2 भिन्धि 2 / ___ॐ सुदर्शन महाराज चक्र विक्रम तेजोवल गौर्यवोर्य जान्ति कुरुकुरु / सर्वजनानन्दन कुरुकुरु / सर्वभव्यानन्दन कुरुकुरु / सर्व गोकुलानन्दन कुरकुरु / सर्वग्राम नगरखेट कर्वटमट वपत्तनद्रोण मुर सवाहानन्दन कुरुकुरु / सर्वलोकानन्दन कुस्कुरु। सर्वदेगानन्दन कुकुरु सर्वजयमानानन्दन कुरुकुरु / सर्वदु ल हन हन, दह दह, पच कुट कुट, शीघ्र शीघ्र / यत्सुख त्रिषुलोकेषु व्याधिव्यसनजित / अभय क्षेममारोग्य स्वतिरस्तुविधीयते // शिवमस्तु। कुलगोत्रधन धान्य सदास्तु / चन्द्रप्रभु वासुपूज्य मल्लिवर्द्धमान पुष्पदन्तशोतल मुनिसुव्रत नेमिनाथ पार्श्वनाथ इत्येभ्यो नमः // इत्यनेन मन्त्रेण नवग्रहार्थ गन्दोध धारा वर्षणम् // अष्टाहिका व्रत जाप समुच्चय - ॐ ह्री प्री नन्दोश्वर द्वोपस्यद्रापचाशज्जिन चैत्यालयेभ्यो नम / / (5) ॐ ह्री श्री नन्दीश्वर सज्ञाय नम (2) ॐ ह्री श्री नष्टमहादिभूति सज्ञाय नम (3) ॐ ह्री श्री त्रिलोकसार सज्ञाय नम (4) ॐ ह्रो शी चतुर्मुख सज्ञाय नम (5) ॐ ह्री श्री स्वर्गसोपान सज्ञाय नम (6) ॐ हो श्री सिद्धचक सज्ञाय नम (7) ॐ ह्री श्री पञ्चमहालक्षण सज्ञाय नम (5) ॐ ह्री प्रो इन्द्रध्वज सज्ञाय नम
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________________ श्री चौबीस तीर्थङ्करों के पञ्च-कल्याणक तिथियां श्रावकों को नीचे लिखे दिनों में पूजन और स्पाध्याय करना चाहिये, ऐसा करने से पुण्य वध होता है। स० नाम तीर्थदर गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष 1 श्री आदिनाथ जी आपाद कृष्ण 2 चैत्र वदी 9 चैत्र वदी 9 फाल्गुन वदी 11 माघ वदी 14 , 2 श्री अजितनाथ जी ज्येष्ठ वदी 15 माघ सुदी 10 माघ सुदी 10 पोप सुदी 4 चैत्र सुदी 5 3 श्री सम्भवनाथ जी फाल्गुन सुदी 8 कातिफ सुदी 15 मगसिर सुदी 15 कार्तिक यदी 4 चैत्र सुदी 6 4 श्री अभिनन्दननाथ जी वैसाख सुदी 6 माघ वदी 12 माघ सुदी 12 पोप सुदी 14 वैसात्य पदी 6 5 श्री सुमतिनाथ जी श्रापण सुदी 2 चैत्र सुदी 11 चैत्र सुदी 11 चैत्र सुदी 11 चै7 मुती 11 6 श्री पद्मप्रभु जी माप पदी 6 कातिक सुदी 13 कार्तिक सुदी 13 चेत्र सुदी 15 फागुन वदी 4 7 श्री मुपाश्वनाथ जी भादों सुदी 6 ज्येष्ठ सुदी 12 ज्येष्ठ सुदी 12 फाल्गुन वदी 6 पारगुन यदी 7 8 श्री चन्द्रप्रभु जी चैत्र वदी 5 पौष पदी 11 पौष यदी 11 फाल्गुन वदी 7 फाल्गुन पुरी 7 9 श्री पुष्पदन्त जी फाल्गुन वदी 9 मगपिर सुर्द ? मगसिर सुदी 1 कातिक सुदी 2 आसोज सुदी 8 10 श्री शीतलनाथ जी , चैत्र वदी 8 माघ वदी 12 माघ वदी 12 पौष वदी 14 आराोज सुदी 8 11 श्री श्रेयांसनाथ जी ज्येष्ठ वदी 8 फाल्गुन 11 फाल्गुन वदी 11 माघ वदी 1 ण सुदी 15 12 ध्री वासुपूज्य जी आषाढ़ वदी 6 फाल्गुन 6ii 11 फाल्गुन पदी 14 भादों वदी 2 भादों सुदी 14
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________________ तप Ar :- Timirm स० नाम तीर्भर 13 श्री पिगलनाथ जी 14 श्री अनन्तनाथ जी 5 श्री धर्मनाथ जी श्री शान्तिनाथ जी श्री कुन्थुनाथ जी श्री अरहनाथ जी श्री गल्लिनाथ जी श्री गुनिसुव्रतनाथ ज श्री नमिनाथ जी * श्री नेमिनाथ जी 3 श्री पार्श्वनाथ जी 4 श्री महावीर जी गर्ग जग शान , गोक्षा ज्येष्ठ वदी 10 गाप सुदी 14 माग गुदी 14 गाघ सुदी भासद नंदी 1 फातिक वदी 1 ज्येष्ठ पदी 12 ज्येष्ठ यदी 10 चैत्र वदी वैसाख सुदी 8 माघ सुदी 13 गाघ सुदी 13 पौष सुदी 15 ज्येष्ठ सुदी 14 भादो चदी 7 ज्येष्ठ वदी 4 ज्येष्ठ यदी 14 पोप सुदी 10 ज्येष्ठ पदी श्रायण वदी 10 वैशाख सुदी 1 पैसाख सुदी 1 चैत्र सुदी 3 वैसाख सुंदा 1 फागुन सुदी 3 मगसिर सुदी 14 मगसिर सुदी 14 कातिक सुदी 12 चैन सुनी 11 चैत्र सुदी 1 मगसिर सुदी 11 मगसिर सुदी 11 पौष वदी 2 फाल्गुन सुदी 5 श्रावण वदी 2 वैशारा वदी 10 वैशाख वदी 10 वैसाख नदी 9 फागुन पदी 12 मासोज वदी 2 मापाढ़ पदी 10 आपाय वदी 10 गगसिर सुदी 11 पैसाख पदी 14 फातिक सुदी 6 श्रावण मुदी 6 श्रायण सुदी 6 आसोज सुदी 1 आषाढ़ सदी 8 वैशाख वदी 2 पौष वदी 11 पौष यदी 11 चैत्र वदी प्रावण सदी 1 भाषाढ़ सदी 6 चैत्र सुदी 13 मगसिर पदी 10 साख सुदी 10 फातिफ पदी 15
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लोभसे नही, सन्तोष और उदारतासे जीतना चाहिए। वैर, घृणा, दमन, उत्पीडन,
हकार आदि सभीका प्रभाव कर्त्तापर पडता है । जिस प्रकार कुएँगे की गयी ध्वनि प्रतिध्वनिके रूपमे वापस लौटती है, उसी प्रकार हिंसात्मक क्रियाओका प्रतिक्रियात्मक प्रभाव कर्त्तापर ही पडता है |
अहिंसाद्वारा हृदयपरिवर्तन सम्भव होता है । यह मारनेका सिद्धान्त नही, सुधारनेका है । यह ससारका नही, उद्धार एव निर्माणका सिद्धान्त है । यह ऐसे प्रयत्नोका पक्षधर है, जिनके द्वारा मानवके अन्तस्मे मनोवैज्ञानिक परिवर्तन किया जा सकता है और अपराधकी भावनाओको मिटाया जा सकता है । अपराध एक मानसिक बीमारी है, इसका उपचार प्रेम, स्नेह, सद्भावके माध्यमसे किया जा सकता है ।
घृणा या द्वेप पापसे होना चाहिए, पापोसे नही । बुरे व्यक्ति और बुराईके बीच अन्तर स्थापित करना ही कर्तव्य है । बुराई सदा बुराई है, वह कभी भलाई नही हो सकती; परन्तु बुरा आदमी यथाप्रसंग भला हो सकता है । मूलमे कोई आत्मा बुरी है ही नही । असत्यके बीचमे सत्य, अन्धकारके बीचमे प्रकाश और विषके भोतर अमृत छिपा रहता हैं। अच्छे बुरे सभी व्यक्तियोमे आत्मज्योति जल रही है । अपराधी व्यक्तिमे भी वह ज्योति है किन्तु उसके गुणोका तिरोभाव है । व्यक्तिका प्रयास ऐसा होना चाहिए, जिससे तिरोहित
आविर्भूत हो जाये |
इस सन्दर्भमे कर्त्तव्यपालनका अर्थ मन, वचन और कायसे किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, न किसी हिंसाका समर्थन करना और न किसी दूसरे व्यक्तिके द्वारा किसी प्रकारकी हिंसा करवाना है । यदि मानवमात्र इस कर्त्तव्यको निभानेकी चेष्टा करे, तो अनेक दुःखोका अन्त हो सकता है और मानवमात्र सुख एव शान्तिका जीवन व्यतीत कर सकता है । जबतक परिवार या समाजमे स्वार्थो - का सघर्ष होता रहेगा, तबतक जीवनके प्रति सम्मानको भावना उदित नही हो सकेगी । यह अहिंसात्मक कर्त्तव्य देखनेमे सरल और स्पष्ट प्रतीत होता है, किन्तु व्यक्ति यदि इसो कर्त्तव्यका आत्मनिष्ठ होकर पालन करे, तो उसमे नैतिकता के सभी गुण स्वत उपस्थित हो जायेंगे ।
मूलरूपमे कर्त्तव्योको निम्नलिखित रूपमे विभक्त किया जा सकता है
१ स्वतन्त्रताका सम्मान ।
२ चरित्रके प्रति सम्मान ।
३. सम्पत्तिका सम्मान ।
४ परिवारके प्रति सम्मान ।
५. समाजके प्रति सम्मान ।
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चरित्रके प्रति सम्मान
प्रत्यक परियारको नरम्यको अन्य सदस्य गरिसका मम्मान गारना चरियके प्रति सम्मान है। जीवनमम्बन्धी गाव हिमा निषेधा है, तो स्वतन्नता मन्त्रन्यो क्नंव्य अन्य व्यगिनाको स्वतन्त्रताका दमन न गग्ने मात करता है। यह कनय अन्य व्यक्तियोको भनि पानेका निषेध नो करता ही है, साथ ही इस वातको विपि भी करना है किहने मग व्यगितत्व विकामको प्रोत्साहित करना है। यह विधेयामका कर्तव्य अन्ग व्यक्तियोके चारित्रिक विकासके लिए अनुप्रणित करता है। जो गति परिवार और समाजके समस्त सदस्याको चारिप-विकास अगर देता है, वह परिवारकी उनति करता है और सभी प्रकारसे जीवनको मुमो-नामुद बनाता है। सम्पत्तिका सम्मान
सम्पत्तिके सम्मानका अर्थ व्यनियोको सम्पत्तिसम्बन्धी अधिकारको स्वीकृत करना । यह कर्तव्य भो त निषेधात्मक कर्तव्य है, क्योंकि यह अन्य व्यक्तियो
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के सम्पत्तिसम्वन्धी अपहरणका निषेध करता है। यह 'अस्तेय' के नामसे अभिहित किया जा सकता है । आध्यात्मिक व्यक्तित्वके विकासके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति श ुद्ध अहिंमात्मक जोवन व्यतीत करे । इस कर्त्तव्यका आधार सत्य और अहिंसा है । यदि अहिमाका अर्थ किसी भी व्यक्तिको मन, वचन और कर्म से मानसिक और शारीरिक क्षति पहुंचाना है, तो यह स्पष्ट है कि दूसरे की सम्पत्तिका अपहरण न करना अहिसाका अग है । किसीकी सम्पत्तिका अपहरण करनेका अर्थ निस्सन्देह उस व्यक्तिका मानसिक और शारीरिक क्षति पहुँचाना है और उसके व्यक्तित्व विकासको अवरुद्ध करना है । यह कर्त्तव्य हमे इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम भोगोपभोगकी वस्तुओका अमर्यादित रूपसे सेवन न करें । अपव्ययको भी यह कर्त्तव्य रोकता है। परिवारके लिए मितव्ययता अत्यावश्यक है। मितव्ययता समस्त वस्तुओको मध्यम मार्गके रूपमे ग्रहण करनेमे है । सम्पत्तिका अपव्यय या अनुचित अवरोध ये दोनो ही कर्त्तव्य बाहर हैं, जब भौतिक वस्तुओं या मानसिक शक्तिका अपव्यय किया जाता है, तो कुछ दिनोमे व्यक्ति शक्तिहीन हो जाता है, जिससे व्यक्ति, परिवार और समाज ये तीनो विनाशको प्राप्त होते हैं । जो सम्पत्तिसम्मान का आचरण करता है, वह निम्नलिखित वस्तुओमे मध्यम मार्ग या मितव्ययताका प्रयोग करता है
1
१ सम्पत्ति ।
२ आहार-विहार |
३. वस्त्र और उपस्कर ।
४ मनोरञ्जनके साधन ।
५ विलास और आरामकी वस्तुएं ।
६ समय । ७. शक्ति |
अर्थका प्रतीक सिक्का परिवर्तनका मानदण्ड है और उससे हमारी क्रय शक्तिका बोध होता है । जो व्यक्ति सम्पत्ति प्राप्त करना चाहता है और ऋणसे बचना चाहता है, वह व्ययको आयके अनुरूप बनाकर अभिवृद्धि प्राप्त कर सकता है । विलास और आरामकी वस्तुओं के क्रय करनेमे अपव्यय होता है।
इस अपव्ययका रोकना परिवारके हितके लिए अत्यावश्यक है। अपव्यय ऐसा मानसिक रोग है जिसके कारण अनुचित लाभ और स्तेयसम्बन्धी क्रियाप्रतिक्रियाएँ सम्पादित करनी पडती है । वह अनुचित रीतिसे किसीकी
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सम्पत्ति, क्षेत्र, भवन बादिपर अपना अधिकार करता है । चोरोके अन्तरग कारणोपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि जब द्रव्यको लोलुपता चढ जाती है, तो तृष्णा वृद्धिगत होती है, जिनसे व्यक्ति येन केन प्रकारेण धनसचय करनेवी और झुकता है। यहां विवेक और ईमानदारोके न रहने से व्यक्ति अपनी प्रामाणिकता वो बैठता है, जिसमें उने अनेतिकरूपमे धनार्जन करना पडता है ।
अपव्यय चोरी करना भी निकलता है। एक बार हाथके खुल जाने पर फिर अपनेको नयमित रगना कठिन हो जाता है। अपव्ययी के पास घन स्थिर नहीं रहता और वह निर्धन होकर चौकी ओर प्रवृत्त होता है । कुछ व्यक्ति मान-प्रतिष्ठा हेतु धनव्यय करते हैं और अपनेको वडा दिसलाने के प्रयास व्ययं यं करते है परिणामस्वरूप उन्हें अनीति और शोषणको अपनाना पहना है । अतएव सम्पति सम्मान कर्तव्यका आचरण करते हुए चिन्ता, उद्विग्नता निराना, बोध, लोभ, माया आदिले वचनेका भी प्रयास करना चाहिए ।
परिवारके प्रति सम्मान
परिवारके प्रति सम्मानका अर्थ है पारिवारिक समस्याओके सुलझाने के लिए विवाह बादि कार्यों का नम्पन्न करना । मन्यास या निवृत्तिमार्ग वैयक्तिक जीवनोत्थान के लिए आवश्यक है, पर गंमारके बीच निवास करते हुए पारिवारिक दायित्वका निर्वाह करना ओर समाज एवं सघको उन्नतिके हेतु प्रयत्नशील रहना भी आयक है । वास्तवमे श्रावक जीवनका लक्ष्य दान देना, देवपूजा करना और मुनिधर्मके सरक्षणमं सहयोग देना है । साधु-मुनियोको दान देने की क्रिया श्रावक - जीवन के बिना सम्पन्न नही हो सकती। नारीके बिना पुरुष और पुरुष के बिना अंत्री नारी दानादि क्रिया सम्पादित करने मे असमर्थ है। अत चतुविध सघके सरक्षण एवं कुलपरम्पराके निर्वाहकी दृष्टिमे पारिवारिक कर्तव्योका निर्वाह अत्यावश्यक है । सातावेदनीय और चाग्निमोहनीयके उदयसे विवहन - कन्यावरण विवाह कहलाता है । यह जीवनमे धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थीका नियमन करता है । अतएव पारिवारिक कर्त्तव्य तथा सस्कारोके प्रति जागरुकता अपेक्षित है ।
• सस्कारशब्द धार्मिक क्रियाओं के लिए प्रयुक्त है । इसका अभिप्राय वाह्य धार्मिक क्रियाओ, व्यर्थ आडम्बर, कोरा कर्मकाण्ड, राज्य द्वारा निर्दिष्ट नियम एव औपचारिक व्यवहारोसे नही है; बल्कि आत्मिक और आन्तरिक सौन्दर्य से
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है । सस्कारशब्द व्यक्तिके देहिक, मानसिक ओर वौद्धिक परिष्कारके लिए किये जानेवाले अनुष्ठानोसे सम्बद्ध है । सस्कार तीन वर्गोमे विभक्त हैं
१. गर्भान्वय क्रियाएँ ।
२. दीक्षान्वय क्रियाएँ ।
३. क्रियान्वय क्रियाएं ।
इन क्रियाओ द्वारा पारिवारिक कर्त्तव्योका सम्पादन किया जाता हैं ।
समाजके प्रति सम्मान
1
सामाजिक व्यवस्थाको सुचारुरूपसे सचालित करनेके लिए समाज और व्यक्ति दोनोके अस्तित्वकी आवश्यकता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके सभी अधिकार उसे समाजका सदस्य होनेके कारण ही प्राप्त हैं । अत वह समाज, जो कि उसके अधिकारोका जनक और रक्षक है, व्यक्तिसे आशा रखता है कि वह सामाजिक सस्थाके सरक्षणको अपना प्रधान कर्त्तव्य समझे । समाजके प्रति आदर एव सम्मानकी भावना वह भावना है जो व्यक्तिको परम्परागत प्रथाओको भङ्ग करनेसे रोकती है। चाहे वे परम्पराएँ समाजको इकाई कुटुम्बसे सम्बन्ध रखती हो, चाहे वे सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखती हो अथवा राज्य या राष्ट्रसे। समाजमे प्रचलित अन्धविश्वासों और रूढिवादी परम्पराओका निर्वाह कर्तव्यके अन्तर्गत नही है । कर्त्तव्य वह विवेकबुद्धि है जो समाजकी बुराइयोको दूर कर उसके विकासके प्रति श्रद्धा या निष्ठा उत्पन्न करे । इसमे सन्देह नही कि व्यक्तिका समाजके प्रति बहुत बडा दायित्व है । उसे समाजको सुगठित, नैतिक और आचारनिष्ठ बनाना है ।
सत्यके प्रति सम्मान
सत्य के प्रति सम्मान या सत्यनिष्ठा व्यक्ति और समाजके विकासके लिए आवश्यक है । सत्य और अहिंसाको साथ-साथ लिया जाता है और इनके आचरणसे सामाजिक कल्याण माना जाता है । सत्यके प्रति सम्मान या कर्त्तव्यकी भावना क्रियाशीलताके लिए प्रेरित करती है और सत्यपरायण जीवन व्यतीत करनेका आदेश देती है । इस आदेशका अर्थ यह है कि हमें अपने वचनोके अनुसार ही व्यवहार करना है। जो व्यक्ति अपने जीवनको सत्यके आधार पर चलाता है, उसे व्यावहारिक कठिनाइयोका सामना अवश्य करना पडता है, पर सत्यपरायण व्यक्तिको जीवनमे सफलता प्राप्त होती है । यदि व्यक्ति अपना कर्त्तव्य कर्तव्यभावसे सम्पादित करता है, तो उसका यह
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कर्तव्य सम्पादन विधायक तत्त्व माना जाता है । सत्यके आधार पर सम्पादित बाचास्यवहार व्यक्ति और समाज दोनोके लिए हितकर होते हैं। ___ मनुष्य जब लोभ-लालचमे फंस जाता है, वासनाके विपसे मूच्छित हो जाता है जोर अपने जीवनक महत्वको भूल जाता है, उस जीवनकी पवित्रताका स्मरण नहीं रहता, तब उमका विवेक समाप्त हो जाता है और वह यह सोच नहीं पाता कि उसका जन्म ससारसे कुछ लेनेके लिए नही हुआ है बल्कि कुछ देनेके लिए हमा है। जो कुछ प्राप्त हुमा है, वह अधिकार है और जो समाजके प्रति नपित किया जाता है यह कर्तव्य है। मनुष्यकी इस प्रकारको मनोवृत्ति हो उसके मनको विगाल एव विराट् बनाती है। जिसके मनमे ऐसी उदारभावना रहती है यहो अपने कर्तव्य-सम्पादन द्वारा परिवार और समाजको सुखी, समृद्ध बनाता है। महमार, क्रोध, लोभ और मायाका विष सत्याचरण द्वारा दूर होता है। जिगका जीवन सत्याचरणमे घुलमिल गया है, वही निश्छल और मच्ने व्यपहारदारा क्षुद्रतामोको दूर करता है।
सहजभावसे अपने कर्तव्यको निभानेवाला व्यक्ति केवल अपने आपको देखता है। उसकी दष्टि दूगरों की ओर नहीं जाती। वह अपनी निन्दा और स्तुतिको परवाह नहीं करता, पर भद्रता, सरलता और एकरूपताको छोडता भो नही। वास्तवमै यदि मनुष्य अपने व्यवहारको उदार और परिष्कृत बना ले, तो उसे सघर्ष और तनावोमे टकराना न पडे । जीवनमे सघर्ष, तनाव और कुण्ठाएं अमत्याचरणके कारण ही उत्पन्न होती हैं। प्रगतिके प्रति सम्मान
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुमार प्रत्येक वस्तुमे निरन्तर परिवर्तन होता है। परिवर्तन प्रगतिस्प भी सम्भव है और अप्रगतिरूप भी। जिस व्यक्तिके विचारोंमें उदारता और व्यवहारमे सत्यनिष्ठा समाहित है, वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कर्तव्योका हृदयसे पालन करता है। सकटके समय व्यक्तिको किस प्रकारका आचरण करना चाहिए और परिस्थिति एव वातावरण द्वारा प्रादुर्भूत प्रगतियोको किस रूपमे ग्रहण करना चाहिए, यह भी कर्तव्यमार्गके अन्तर्गत है।
एकाकी मनुष्यको धारणा निसन्देह कल्पनामात्र है। अत कर्तव्योका महत्त्व नैतिक और सामाजिक दष्टिसे कदापि कम नही है। कर्तव्योका सवध अधिकारोंके समान सामाजिक विकाससे भी है। कर्तव्योकी विशेषता जीवनके दो मुख्य अगोंसे सम्बद्ध है
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१. जीवनका आर्थिक अंग । २. जीवनका सामाजिक अग ।
आर्थिक दृष्टिसे मनुष्यके सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार और कर्त्तव्यविशेष महत्त्वपूर्ण हैं और सामाजिक दृष्टिसे मनुष्यके परिवार तथा समाज सम्बन्धी अधिकार और कर्त्तव्य भी कम महत्त्वपूर्ण नही हैं । अधिकारो तथा कर्त्तव्योका आर्थिक दृष्टिसे सतुलित रूपमे प्रयोग अपेक्षित है । पुरुषार्थो के क्रममे अर्थपुरुषार्थको इसीलिए द्वितीय स्थान प्राप्त है कि इसके बिना धर्माचरण एव कामपुरुषार्थका सेवन सम्भव नही है | आज आर्थिक प्रगतिके अनेक साधन विकसित है पर कर्त्तव्यपरायण व्यक्तिको अपनी नैतिकता बनाये रखना आवश्यक है । जीवनको आवश्यकताओके वृद्धिंगत होने और आर्थिक समस्याओके जटिल होने पर भी उत्पादन, वितरण और उपयोग सम्बन्धी नैतिक नियम जीवनको मर्यादित रखते है । सुरक्षा और आत्मानुभूति ये दोनो ही नैतिक जीवनके लिए अपेक्षित हे । श्रम-सिद्धान्त भी प्रगतिके नियर्मोको अनुशासित करता है । अत सम्पत्तिके प्रति दो मुख्य कर्त्तव्य है -१ सम्पत्ति प्राप्त करनेके लिए कर्म करना और २. उपलब्ध सम्पत्तिका सदुपयोग करना । जो व्यक्ति किसी भी प्रकारका कर्म नही करता, उसका कोई अधिकार नही कि वह निष्क्रिय होते हुए भी सामाजिक सम्पत्तिका भोग करे । इस कर्त्तव्यके आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए श्रम करना अत्यावश्यक है। श्रम करनेसे ही श्रमणत्वकी प्राप्ति होती है और इसी श्रम द्वारा आश्रमधर्मका निर्वाह होता है । जो व्यक्ति अन्यके श्रम पर जीवित रहता है और स्वय श्रम नही करता ऐसे व्यक्तिको समाजसे कुछ लेनेका अधिकार नही । जो कर्त्तव्यपरायण है वही समाजसे अपना उचित अश प्राप्त करनेका अधिकारी है ।
विवेक, साहस, सयम और न्याय ये ऐसे गुण हैं जो सामाजिक कल्याणकी ओर व्यक्तिको प्रेरित करते हैं । इन गुणोके अपनानेसे परिवार और समाजकी विषमता दूर होकर प्रगति होती है तथा समानताका तत्त्व प्रादुर्भूत होता है । समाजके गतिशील होने पर साहस, सयम और विवेकका आचरण करते हुए कर्त्तव्यकर्मो का निर्वाह अपेक्षित होता है । ज्यो -ज्यो समाजिक विकास होता है, अधिकारो और कर्त्तव्योका स्वरूप स्वतः ही परिवर्तित होता चला जाता है । इसी कारण प्रत्येक समाजमे व्यवस्था, विधान और अनुशासनकी आवश्यकता रहती है । यदि अधिकार और कर्त्तव्योमे सतुलन स्थापित हो जाय, तो समाजमे अनुशासन उत्पन्न होते विलम्ब न हो ।
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सहिष्णुता
पारिवारिक दायित्वोंके निर्वाह के लिए सहिष्णुता अत्यावश्यक है। परिवारमें रहकर व्यक्ति सहिष्णु न बने और छोटी-सी छोटी बातके लिए उत्तावला हो जाय, तो परिवारमे सुस-शान्ति नही रह सकती। सहिष्णु व्यक्ति शान्तभावसे परिवारके अन्य सदस्योंकी बातो और व्यवहारोको सहन कर लेता है, जिसके फलस्वरूप परिवारमे शान्ति और सुख सर्वदा प्रतिष्ठित रहता है । अभ्युदय और नि श्रेयसको प्राप्ति सहनशीलता द्वारा ही सम्भव है। जो परिवारमे सभी प्रकारको समृद्धिका इच्छुक है तथा इस समृद्धिके द्वारा लोकव्यवहारको सफरूपमे संचालित करना चाहता है ऐमा व्यक्ति समाज और परिवारका हित नही कर सकता है। विकारी मन शरीर और इन्द्रियोंपर अधिकार प्राप्त करनेके स्थान पर उनके वश होकर काम करता है, जिससे सहिष्णुताको शक्ति घटती है। जिसने मात्मालोचन आरम्भ कर दिया है और जो स्वय अपनी बुराईयोका अवलोकन करता है वह समाजमे शान्तिस्थापनका प्रयास करता है । सहिष्णुताका नपं कृमिम भावुकता नहीं और न अन्याय और अत्याचारोको प्रत्रय देना हो है, किन्तु अपनी आत्मिक शकिका इतना विकास करना है, जिससे व्यक्ति, समाज और परिवार निष्पक्ष जीवन व्यतीत कर सके। पूर्वागहके कारण असहिष्णुता उत्पन्न होती है, जिससे सत्यका निर्णय नहीं होता। जो शान्तवित है, जिसको वासनाएं सयमित हो गई है और जिसमे निष्पक्षता जागृत हो गई है वही व्यक्ति सहिष्णु या सहनशील हो सकता है। सहनशील या सहिष्णु होनेके लिए निम्नलिखित गुण अपेक्षित हैं
१ दृटता। २. आत्मनिर्भता। ३ निष्पक्षता। ४. विवेकशीलता।
५ कर्तव्यकर्मके प्रति निष्ठा । अनुशासन
मानवताके भव्य भवनका निर्माण अनुशासनद्वारा ही सम्पन्न किया जा सकता है । वास्तवमै जहां अनुशासन है, वही अहिंसा है। और जहां अनुशासनहोनता है वही हिंसा है। पारिवारिक और सामाजिक जीवनका विनाश हिंसा द्वारा होता है। यदि धर्म मनुष्यके हृदयको क्रूरताको दूर कर दे और अहिंसा द्वारा उसका अन्त करण निर्मल हो जाय तो जीवनमे सहिष्णुताकी साधना सरत हो जाती है। वास्तवमे अनुशासित जीवन ही समाजके लिए उपयोगी
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है। जिस समाजमे अनुशासनको अभाव रहता है वह समाज कभी भी विकसित नही हो पाता । अनुशासित परिवार ही समाजको गतिशील बनाता है, प्रोत्साहित करता है और आदर्शकी प्रतिष्ठा करता है। संघर्षोंका मूलकारण उच्छ - खलता या उदण्डता है । जबतक जीवनमे उदण्डता आदि दुर्गुण समाविष्ट रहेगे, तबतक सुगठित समाजका निर्माण सम्भव नही है। समाज और परिवारको प्रमुख समस्याओंका समाधान भी अनुशासन द्वारा ही सम्भव है। शासन और शासित सभीका व्यवहार उन्मुक्त या उच्छङ्खलित हो रहा है। अत अतिचारी और अनियन्त्रित प्रवृत्तियोको अनुशासित करना आवश्यक है। __ अनुशासनका सामान्य अर्थ है कतिपय नियमो, सिद्धान्तो आदिका परिपालन करना और किसी भी स्थितिमे उसका उलघन न करना । सक्षेपमे वह विधान, जो व्यक्ति, परिवार और समाजके द्वारा पूर्णत. आरित होता है, अनुशासन कहा जाता है। जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमे सुव्यवस्थाकी अनिगर्य आवश्यकताको कोई भी अस्वीकार नही कर सकता। इसके बिना मानव-समाज विलकुल विघटित हो जायगा और उसकी कोई भी व्यवस्था नही बन सकेगी। जो व्यक्ति स्वेच्छासे अनुशासनका निर्वाह करता है, वह परिवार और समाजके लिए एक आदर्श उपस्थित करता है। जीवनके विशाल भवनकी नीव अनुशासनपर हो अवलम्बित है।
पारस्परिक द्वेषभाव, गुटबन्दी, वर्गभेद, जातिभेद आदि अनुशासनहीनतादो बढावा देते हैं और सामाजिक संगठनको शिथिल बनाते हैं । अतएव सहज और स्वाभाविक कर्तव्यके अन्तर्गगत असुशासनको प्रमुख स्थान प्राप्त है । अनुशासन जावनको कलापूर्ण, शान्त और गतिशील बनाता है। इसके द्वारा परिवार और समाजको अव्यवस्थाएं दूर होती हैं।
पारिवारिक चेतनाका सम्यक विकास, अहिंसा, करुणा, समर्पण, सेवा, प्रेम, सहिष्णुता आदिके द्वारा होता है। मनुष्य जन्म लेते ही पारिवारिक एव सामाजिक कर्तव्य एव उत्तरदायित्वसे वध जाता है। प्राणोमात्र एक दूसरेसे उपकृत होता है। उसका आधार और आश्रय प्राप्त करता है । जब हम किसीका उपकार स्वीकार करते हैं, तो उसे चुकानेका दायित्व भी हमारे हो ऊपर रहता है। यह आदान-प्रदानकी सहजवृत्ति ही मनुष्यको पारिवारिकता और सामाजिकताका मूलकेन्द्र है। उसके समस्त कर्तव्यो एव धर्माचरणोका आधार है । राग और मोह आत्माके लिए त्याज्य हैं, पर परिवार और समाज सचालनके लिए इनकी उपयोगिता है । जीवन सर्वथा पलायनवादी नही है। जो कर्मठ बनकर श्रावकाचारका अनुष्ठान करना चाहता है उसे अहिंसा, सत्य, करुणा ५६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सेवा समर्पण आदिके द्वारा परिवार और समाजको दृढ करना चाहिए। यह दृढीकरणको क्रिया ही दायित्वो या कर्त्तव्यो की श्रृङ्खला है ।
समाजगठनकी आधारभूत भावनाएं
समाज गठन के लिए कुछ मौलिक सूत्र हैं, जिन सूत्रोके आधारपर समाज एकरूप बघता है । कुछ ऐसे सामान्य नियम या सिद्धान्त है, जो सामाजिकताका सहजमे विकास करते है । संवेदनशील मानव समाजके बीच रहकर इन नियमोके आधारपर अपने जीवनको सुन्दर, सरल, नम्र और उत्तरदायी बनाता है । मानव जीवनका सर्वागीण विकास अपेक्षित है । एकागरूपसे किया गया विकास जीवनको सुन्दर, शिव और सत्य नही बनाता है । कर्मके साथ मनका सुन्दर होना और मनके साथ वाणीका मधुर होना विकासकी सीढी है । जीवनमे धर्म और सत्य ऐसे तत्व हैं, जो उसे शाश्वतरूप प्रदान करते है । समाज सगठनके लिए निम्नलिखित चार भावनाएं आवश्यक है -
१. मैत्री भावना ।
२ प्रमोद भावना |
३. कारुण्य भावना ।
४. माध्यस्थ्य भावना ।
मैत्री भावना मनको वृत्तियोंको अत्यधिक उदात्त बनाती है । यह प्रत्येक प्राणी के साथ मित्रताकी कल्पना ही नही, अपितु सच्ची अनुभूतिके साथ एकात्मभाव या तादात्मभाव समाजके साथ उत्पन्न करती है । मनुष्यका हृदय जब मैत्रीभावनासे सुसस्कृत हो जाता है, तो अहिंसा और सत्यके वीरुध स्वय उत्पन्न हो जाते हैं । और आत्माका विस्तार होने से समाज स्वर्गका नन्दन- कानन बन जाता है । जिस प्रकार मित्रके घरमे हम और मित्र हमारे घरमे निर्भय और नि कोच स्नेह एव सद्भावपूर्ण व्यवहार कर सकता है उसी प्रकार यह समस्त विश्व भी हमे मित्रके घरके रूपमे दिखलाई पडता है। कही भय, सकोच एव आतककी वृत्ति नही रहती । कितनी सुखद और उदात्त भावना है यह मैत्रीकी । व्यक्ति, परिवार और समाज तथा राष्ट्रको सुगठित करनेका एकमात्र साधन यह मैत्री भावना है ।
इस भावना विकसित होते ही पारस्परिक सौहार्द, विश्वास, प्रेम, श्रद्धा एव निष्ठाकी उत्पत्ति हो जाती है। चोरी, धोखाधडी लूट-खसोट, आदि सभी विभीषिकाएं समाप्त हो जाती हैं । विश्वके सभी प्राणियोके प्रति मित्रताका भाव जागृत हो जाय तो परिवार और समाजगठनमे किसी भी प्रकारका दुराव -
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छिपाव नही रह सकता है। वस्तुत मैत्री-भावना समाजकी परिधिको विकसित करती है, जिससे आत्मामे समभाव उत्पन्न होता है। प्रमोद-भावना
गुणीजनोको देखकर अन्त करणका उल्लसित होना प्रमोद-भावना है। किसीकी अच्छी वातको देखकर उसकी विशेषता और गुणोका अनुभव कर हमारे मनमे एक अज्ञात ललक और हर्षानुभूति उत्पन्न होती है। यही आनन्दकी लहर परिवार और समाजको एकताके सूत्रमे आवद्ध करती है। प्राय देखा जाता है कि मनुष्य अपनेसे आगे बढे हुए व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या करता है और इस ईर्ष्यासे प्रेरित होकर उसे गिरानेका भी प्रयत्न करता है। जब तक इस प्रवृत्तिका नाश न हो जाय, तबतक अहिंसा और सत्य टिक नही पाते । प्रमोदभावना परिवार और समाजमे एकता उत्पन्न करती है। ईर्ष्या और विद्वेष पर इसी भावनाके द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है। ईर्ष्याकी अग्नि इतना विकराल रूप धारण कर लेती है कि मनुष्य अपने भाई और पुत्रके भी उत्कर्ष को फूटी ऑखो नहीं देख पाता । यही ईष्याकी परिणति एवं प्रवृत्ति ही परिवार और समाजमे खाई उत्पन्न करती है। समाज और परिवारकी छिन्न-भिन्नता ईर्ष्या, घृर्णा और द्वेषके कारण ही होती है। प्रतिस्पर्धावश समाज विनाशके कगारकी ओर बढ़ता है। अत 'प्रमोद-भावना'का अभ्यास कर गुणोके पारखी बनना और सही मूल्याकन करना समाजगठनका सिद्धान्त है । जो स्वय आदरसम्मान प्राप्त करना चाहता है, उसे पहले अन्य व्यक्तियोका आदर-सम्मान करना चाहिए। अपने गुणोके साथ अन्य व्यक्तियोके गुणोकी भी प्रशसा करनी चाहिए । यह प्रमोदकी भावना मनमे प्रसन्नता, निर्भयता एव आनन्दका संचार करती है और समाज तथा परिवारको आत्मनिर्भर, स्वस्थ और सुगठित बनाती है। करुणा-भावना
करुणा मनकी कोमल वृत्ति है, दुखी और पीडित प्राणीके प्रति सहज अनुकम्पा और मानवीय सवेदना जाग उठती है । दुखोके दु खनिवारणार्थ हाथ बढते है और यथाशक्ति उसके दुखका निराकरण किया जाता है।
करुणा मनुष्यकी सामाजिकताका मूलाधार है। इसके सेवा, अहिंसा, दया, सहयोग, विनम्रता आदि सहस्रो रूप सभव है। परिवार और समाजका आलम्बन यह करुणा-भावना ही है।
मात्राके तारतम्यके कारण करुणाके प्रमुख तीन भेद है-१ महाकरुणा, २ अतिकरुणा और, ३ लघुकरुणा। महाकरुणा नि स्वार्थभावसे प्रेरित ५७० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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होती है और इस करुणाका धारी प्राणिमात्रके कष्ट-निवारणके लिए प्रयास करता है। इस श्रेणीकी करुणा किसी नेता या महान व्यक्तिमे ही रहती है। इस करुणा द्वारा समस्त मानव-समाजको एकताके सूत्रमे आबद्ध किया जाता है और समाजके समस्त सदस्योको सुखी बनानेका प्रयास किया जाता है।
अतिकरुणा भी जितेन्द्रिय, सयमी और निस्वार्थ व्यक्तिमे पायी जाती है। इस करुणाका उद्देश्य भी प्राणियोमे पारस्परिक सौहार्द उत्पन्न करना है। दूसरेके प्रति कैसाव्यवहार करनाऔर किस वातावरणमे करना हितप्रद हो सकता है, इसका विवेक भी महाकरुणा और अतिकरुणा द्वारा होता है। प्रतिशोध, सकीर्णता और स्वार्थमूलकता आदि भावनाएं इसी करुणाके फलस्वरूप समाजसे निष्कासित होती हैं। वास्तवमे करुणा ऐसा कोमल तन्तु है, जो समाजको एकतामे आबद्ध करता है। ___ लघुकरुणाका क्षेत्र परिवार या किसी आधारविशेषपर गठित सघ तक ही सीमित है। अपने परिवारके सदस्योके कष्टनिवारणार्थ चेष्टा करना और करुणावृत्तिसे प्रेरित होकर उनको सहायता प्रदान करना लघुकरुणाका क्षेत्र है।
मनुष्यमे अध्यात्म-चेतनाको प्रमुखता है, अतः वह शाश्वत आत्मा एवं अपरिवर्तनीय यथार्थताका स्वरूप सत्य-अहिंसासे सम्बद्ध है । कलह, विषयभोग, घृणा, स्वार्थ, सचयशोलवृत्ति आदिका त्याग भी करुणा-भावना द्वारा सभव है। अतएव सक्षेपमे करुणा-भावना समाज-गठनका ऐसा सिद्धान्त है जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषोसे रहित होकर समाजको स्वस्थ रूप प्रदान करता है। माध्यस्थ्य-भावना
जिनसे विचारोका मेल नही बैठता अथवा जो सर्वथा सस्कारहीन हैं, किसी भी सद्वस्तुको ग्रहण करनेके योग्य नहीं हैं, बी कुमार्गपर चले जा रहे हैं तथा जिनके सुधारने और सही रास्ते पर लानेके सभी यत्न निष्फल सिद्ध हो गये हैं, उनके प्रति उपेक्षाभाव रखना माध्यस्थ्य-भावना है।
मनुष्यमे असहिष्णुताकाभाव पाया जाता है। वह अपने विरोधी और विरोध को सह नही पाता। मतभेदके साथ मनोभेद होते विलम्ब नहीं लगता। अत इस भावना द्वारा मनोभेदको उत्पन्न न होने देना समाज-गठनके लिए आवश्यक है। इन चारों भावनाओका अभ्यास करनेसे आध्यात्मिक गुणोका विकास तो होता ही है, साथ ही परिवार और समाज भी सुगठित होते हैं। माध्यस्थ्य-भावनाका लक्ष्य है कि असफलताको स्थितिमे मनुष्यके उत्साहको
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भंग न होने देना तथा बड़ी से बड़ी विपत्तिके आनेपर भी समाजको सुदृढ बनाये रखनेका प्रयास करना ।
जिजीविषा जीवका स्वभाव है और प्रत्येक प्राणी इस स्वभावको साधना कर रहा है । अतएव माध्यस्थ्य - भावनाका अवलम्बन लेकर विपरीत आचरण करनेवालोके प्रति भी द्वेष, घृणा या ईर्ष्या न कर तटस्थवृत्ति रखना आवश्यक है ।
सक्षेप समाज गठनका मूलाधार अहिसात्मक उक्त चार भावनाएं हैं । समाजके समस्त नियम और विधान अहिंसाके आलोकमे मनुष्यहितके लिए निर्मित होते है । मानवके दुख और दैन्य भौतिकवाद द्वारा समाप्त न होकर अध्यात्मद्वारा ही नष्ट होते हैं । समाजके मूल्य, विश्वास और मान्यताएं अहिंसा के धरातल पर हो प्रतिष्ठित होती हैं । मानव समाजको समृद्धि पारस्परिक विश्वास, प्रेम, श्रद्धा, जोवनसुविधाओको समता, विश्वबन्धुत्व, मैत्री, करुणा और माध्यस्थ्य - भावना पर ही आधृत है। अतएव समाजके घटक परिवार, सघ, समाज, गोष्ठी, सभा, परिषद् आदिको सुदृढ़ता नैतिक मूल्यों और आदर्शो पर प्रतिष्ठित है ।
समाजघर्म पृष्ठभूमि
मानव समाजको भौतिकवाद और नास्तिकवादने पथभ्रष्ट किया है । इन दोनोने मानवताके सच्चे आदर्शोंसे च्युत करके मानवको पशु बना दिया है । जबतक समाजका प्रत्येक सदस्य यह नही समझ लेता कि मनुष्मात्रकी समस्या उसकी समस्या है, तबतक समाजमे परस्पर सहानुभूति एवं सद्भावना उत्पन्न नही हो सकती है । जातोय अहकार, धर्म, धन, वर्ग, शक्ति, घृणा और राष्ट्रके कृत्रिम बन्धनोने मानव समाजके बीच खाई उत्पन्न कर दी है, जिसका आत्मविकासके विना भरना सम्भव नहीं । यत' मानव-समाज और सभ्यताका भविष्य आत्मज्ञान, स्वतन्त्रता, न्याय और प्रेमको उन गहरी विश्वभावनाओके साथ बघा हुआ है, जो आज भौतिकता, हिंसा, शोषण प्रभृतिसे भाराक्रान्त
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इसमे सन्देह नही कि समाजकी सकीर्णताए, धर्मके नामपर की जानेवाली हिंसा, वर्गभेदके नामपर भेद-भाव, कच-नीचता आदिसे वर्तमान समाज त्रस्त है । अत. मानवताका जागरण उसी स्थितिमे सम्भव है, जब ज्ञान-विज्ञान, अर्थ, काम, राजनीति-विधान एव समाज - जीवनका समन्वय नैतिकताके साथ स्थापित
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तथा प्राणिमात्र के साथ अहिंसात्मक व्यवहार किया जाय । पशु-पक्षी भी मानवके समान विश्वके लिए उपयोगी एवं उसके सदस्य हैं। अत. उनके साथ
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भी प्रेमपूर्ण व्यवहार होना आवश्यक है। विशाल ऐश्वर्य और महान वैभव प्राप्त करके भी प्रम ओर आत्मनियन्त्रणके विना शान्ति सम्भव नही । जबतक समाजके प्रत्येक सदस्यका नैतिक और आध्यात्मिक विकास नही हुआ है, तबतक वह भौतिकवादके मायाजालसे मुक्त नही हो सकता । व्यक्ति और समाज अपनी दृष्टिको अधिकारकी ओरसे हटाकर कर्त्तव्यकी ओर जबतक नहीं लायेगा, तवतक स्वार्थबुद्धि दूर नहीं हो सकती है।
वस्तुत समाजका प्रत्येक सदस्य नैतिकतासे अनैतिकता, अहिंसासे हिंसा, प्रेमसे घृणा, क्षमासे क्रोध, उत्सर्गसे सघर्ष एव मानवतासे पशुतापर विजय प्राप्त कर सकता है । दासता, बर्वरता और हिंसासे मुक्ति प्राप्त करनेके लिए अहिंसक साधनोका होना अनिवार्य है। यत अहिंसक साधनो द्वारा हो अहिंसामय शाति प्राप्त की जा सकती है । विना किसी भेद-भावके ससारके समस्त प्राणियोके कप्टोका अन्त अहिंसक आचरण और उदारभावना द्वारा ही सम्भव है । भौतिक उत्कर्षको सर्वथा अवहेलना नही की जा सकती, पर इसे मानव-जीवनका अन्तिम लक्ष्य मानना भूल है। भौतिक उत्कर्ष समाजके लिए वही तक अभिप्रेत है, जहांतक सर्वसाधारणके नैतिक उत्कर्षमे बाधक नहीं है। ऐसे भौतिक उत्कर्षसे कोई लाभ नही, जिससे नैतिकताको ठेस पहुँचती हो।
समाज-धर्मका मूल यही है कि अन्यकी गलती देखनेके पहले अपना निरीक्षण करो, ऐसा करनेसे अन्यकी भूल दिखलायी नही पडेगी और एक महान सघर्षसे सहज ही मुक्ति मिल जायगी। विश्वप्रेमका प्रचार भी आत्मनिरीक्षणसे हो सकता है। विश्पप्रेमके पवित्र सूत्रमे वध जानेपर सम्प्रदाय, वर्ग, जाति, देश एव समाजकी परस्पर घृणा भी समाप्त हो जाती है और सभी मित्रतापूर्ण व्यवहार करने लगते है। हमारा प्रेमका यह व्यवहार केवल मानव-समाजके साथ ही नहीं रहना चाहिए, किन्तु पशु, पक्षी, कीडे और मकोडेके साथ भी होना चाहिए। ये पशु-पक्षी भी हमारे ही समान जनदार हैं और ये भी अपने साथ किये जानेवाले सहानुभति, प्रेम, क्रूरता और कठोरताके व्यवहारको समझते हैं। जो इनसे प्रेम करता है, उसके सामने ये अपनी भयकरता भूल जाते हैं और उसके चरणोमे नतमस्तक हो जाते हैं। पर जो इनके साथ कठोरता, क्रूरता और निर्दयताका व्यवहार करता है; उसे देखते ही ये भाग जाते हैं अथवा अपनेको छिपा लेते हैं। अत समाजमे मनुष्यके ही समान अन्य प्राणियोको भी जानदार समझकर उनके साथ भी सहानुभूति और प्रेमका व्यवहार करना आवश्यक है।
समाजको विकृत या रोगी वनानेवाले तत्त्व हैं--(१) शोषण, (२) अन्याय, (३) अत्याचार, (४) पराधीनता, (५) स्वार्थलोलुपता, (६) अविश्वास और,
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________________ (7) अहकार। इन विनाशकारी तत्त्वोका आचरण करनेसे समाजका कल्याण या उन्नति नही हो सकती है। समाज भो एक शरीर है और इस शरीरको पूर्णता सभी सदस्योके समूह द्वारा निष्पन्न है। यदि एक भी मदस्य माया, धोखा, छल-प्रपच और क्रूरताका आचरण करेगा, तो समाजका समस्त शरीर रोगी वन जायगा और शनै शने सगठन गिथल होने लगेगा। अत हिंसा, आक्रमण और अहकारको नीतिका त्याग आवश्यक है / जिस समाजमे नागरिकता और लोकहितकी भावना पर्याप्तरूपमे पायी जाती है वह समाज गान्ति और सुखका उपभाग करता है। सहानुभूति समाज-धर्मोकी सामान्य रूपरेग्वामे सहानुभूतिकी गणना की जाती है / इसके अभावसे अहकार उत्पन्न होता है। वास्तविक महानुभूति प्रेमके रूपमे प्रकट होती है / अहकारके मूलमे अज्ञान है। अहकार उन्ही लोगोके हृदयमे पनपता है, जो यह सोचते है कि उनका अस्तित्व अन्य व्यक्तियोसे पृथक् है तथा उनके उद्देश्य और हित भी दूसरे सामाजिक सदस्योसे भिन्न है और उनकी विचारधारा तथा विचारधाराजन्य कार्यव्यवहार भी सही हैं। अत वे समाजमे सर्वोपरि हैं, उनका अस्तित्व और महत्त्व अन्य सदस्योसे श्रेष्ठ है। __ सहानुभूति मनुष्यको पृथक् और आत्मकेन्द्रित जीवनसे ऊचा उठाती है और अन्य सदस्योके हृदयमे उसके लिए स्थान बनाती है, तभी वह दूसरोके विचारो और अनुभूतियोमे सम्मिलित होता है। किसी दुखी प्राणीके कष्टके सवधमे पूछ-ताछ करना एक प्रकारका मात्र शिष्टाचार है। पर दु खोके दुखको देखकर द्रवित होना और सहायताके लिए तत्पर होना ही सच्चे सहानुभूतिपूर्ण मनका परिचायक है। सच्ची सहानुभूतिका अहंकार और आत्मश्लाघाके साथ कोई सम्बन्ध नही है। यदि कोई व्यक्ति अपने परोपकारसम्बन्धो कार्योका गुणानुवाद चाहता है और प्रतिदानमे दुर्व्यवहार मिलनेपर शिकायत करता है तो समझ लेना चाहिए कि उसने वह परोपकार नही किया है। विनीत, आत्मनिग्रही और सेवाभावीमे ही सच्ची सहानुभूति रहती है। __यथार्थत महानुभूति दूसरे व्यक्तियोके प्रयासो और दु खोके साथ एकलयताके भावकी अनुभूति है। इससे मानवके व्यक्तित्वमे पूर्णताका भाव आता है। इसी गुणके द्वारा सहानुभूतिपूर्ण व्यक्ति अपनी निजतामे अनेक आत्माओका प्रतीक बन जाता है। वह समाजको अन्यसदस्योकी दृष्टि से देखता है, अन्यके कानोसे सुनता है, अन्यके मनसे सोचता है और अन्य लोगोके हृदयके द्वारा ही अनुभूति प्राप्त करता है। अपनी इसी विशेषताके कारण वह अपनेसे भिन्न 574 : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्पग
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________________ व्यक्तियोके मनोभावोको समझ सकता है। अत इसप्रकारके व्यक्तिका जीवन समाजके लिए होता है। वह समाजको नीद सोता है और समाजकी ही नीद जागता है। सहानुभूति ऐसा सामाजिक धर्म है, जिसके द्वारा प्रत्येक सदस्य अन्य सामाजिक सदस्योके हृदयतक पहुंचता है और समस्त समाजके सदस्योके साथ एकात्मभाव उत्पन्न हो जाता है। एक सदस्यको होनेवाली पीडा, वेदना अन्य सदस्योकी भी बन जाती हैं और सुख-दुखमे साधारणीकरण हो जाता है। भावात्मक सत्ताका प्रसार हो जाता है और अशेष समाजके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। सहानुभूति एकात्मकारी तत्त्व है, इसके अपनानेसे कभी दूसरोकी भर्त्सना नहीं की जाती और सहवर्ती जनसमुदायके प्रति सहृदयताका व्यवहार सम्पादित किया जाता है। इसकी परिपक्वावस्थाको वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसने जीवनमे सम्पूर्ण हार्दिकतासे प्रेम किया हो, पीडा सही हो और दु खोके गम्भीर सागरका अवगाहन किया हो / जीवनकी आत्यन्तिक अनुभूतियोके ससर्गसे ही उस भावकी निष्पत्ति होती है, जिससे मनुष्यके मनसे अहकार, विचारहीनता, स्वार्थपरता एव पारस्परिक अविश्वासका उन्मूलन हो जाय / जिस व्यक्तिने किसी-न-किसी रूपमे दुःख और पीडा नही सही है, सहानुभूति उसके हृदयमे उत्पन्न नही हो सकती है। दुख और पीडाके अवसानके बाद एक स्थायी दयालुता और प्रशान्तिका हमारे मनमे वास हो जाता है। वस्तुत जो सामाजिक सदस्य अनेक दिशाओमे पीडा सहकर परिपक्वताको प्राप्त कर लेता है, वह सन्तोषका केन्द्र बन जाता है और दुखी एव भग्नहृदय लोगोंके लिए प्रेरणा और सवलका स्रोत बन जाता है। सहानुभूतिकी सार्वभौमिक आत्मभाषाको, मनुष्योकी तो बात ही क्या, पशु भी नैसर्गिकरूपसे समझते और पसद करते हैं। स्वार्थपरता व्यक्तिको दूसरेके हितोका व्याघात करके अपने हितोकी रक्षाकी प्रेरणा करती है, पर सहानुभूति अपने स्वार्थ और हितोका त्यागकर दूसरोके स्वार्थ और हितोकी रक्षा करनेकी प्रेरणा देती है। फलस्वरूप सहानभूतिको समाज-धर्म माना जाता है और स्वार्थपरताको अधर्म / सहानुभूतिमे निम्नलिखित विशेषताएं समाविष्ट हैं: 1 दयालुता-क्षणिक आवेशका त्याग और प्राणियोके प्रति दया-करुणाबुद्धि दयालुतामे अन्तहित है। अविश्वसनीय आवेशभावना दयालुतामे परि तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना . 575
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गणित नही है । किसीकी प्रशंसा करना और बादमे उसे गालियां देने लगना निर्दयता है। यदि दाता अपने दानका पुरस्कार चाहने लगता है, तो दान निष्फल है, इसीप्रकार कोई व्यक्ति किसी बाहरी प्रेरणासे उदारताका कोई कार्य करता है और कुछ समयके बाद किसी अप्रिय घटनाके कारण बाहरी प्रभावके वशीभूत हो विपरीत आचरण करने लगे, तो इसे भी चरित्रकी दुर्बलता माना जायगा। सच्ची दयालुता अपरिवर्तनीय है और यह बाहरी प्रभावसे अभिव्यक्त नहीं की जा सकती । प्राणियोके दुःखको देखकर अन्तःकरणका आई हो जाना दयालुता है । यह जीवका स्वभाव है, इससे चरित्रके सौन्दर्यको वृद्धि होतो है और सौम्यभावको उपलब्धि होती है। सामाजिक सम्बन्धोकी रक्षामे दयाका प्रधान स्थान है ।
२. उदारता-हृदयको विशालताके माथ इसका सम्बन्ध है । जिस व्यक्तिके चरित्रमे औदार्य, दया, सहानुभूति आदि गुण पाये जाते हैं, उसका जीवन आकर्षण और प्रभावयुक्त हो जाता है। चरित्रकी नीचता और भोडापन घृणास्पद है । उदारतावश ही व्यक्ति अपने सहवर्ती जनोके प्रति आध्यात्मिक और सामाजिक ऐक्यका अनुभव करते हैं और अपनी उपलब्धियोका कुछ अश समाजके मगल हेतु अन्य सदस्योको भी वितरित कर देते हैं।
३. भद्रता-इस गुणद्वारा व्यक्ति निष्ठुरता और पाशविक स्वार्थपरतासे दूर रहता है । आत्मानुशासनके अभ्याससे इस गुणकी प्राप्ति होती है। अपनी पाशक्कि वासनाओका दमन और नियन्त्रण करनेसे मनुष्यके हृदयमे भद्रता उत्पन्न होती है । जिस व्यक्तिमे इस भावकी निष्पत्ति हो जायगी, उसके स्वरमे स्पष्टता, दृढता और व्यामोहहीनता आ जाती है । विपरीत ओर आपत्तिजनक परिस्थितियोमे वह न उद्विग्न होता है और न किसीसे घृणा ही करता है ।
भद्रतामे आत्मसयम, सहिष्णुता, विचारशीलता और परोपकारिता भी सम्मिलित हैं। इन गुणोके सद्भावसे समाजका सम्यक् सचालन होता है तथा समाजके विवाद, कलह और विसवाद समाप्त हो जाते हैं । __ ४ अन्तर्दृष्टि-सहानुभूतिके परिणामस्वरूप समाजके पर्यवेक्षणको क्षमता अन्तर्दृष्टि है। वाद-विवादके द्वारा वस्तुका बाह्य रूप ही ज्ञात हो पाता है, पर सहानुभूति अन्तस्तल तक पहुंच जाती है । निश्छल प्रेम एक ऐसो रहस्यपूर्ण एकात्मीयता है, जिसके द्वारा व्यक्ति एक दूसरेके निकट पहुंचते हैं और एक दूसरेसे सुपरिचित होते है।
अन्तर्दृष्टिप्राप्त व्यक्तिके पूर्वाग्रह छूट जाते हैं, पक्षपातकी भावना मनसे निकल जाती है और समाजके अन्य सदस्योके साथ सहयोगकी भावना प्रस्फुटित ५७६ . तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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हो जाती है । प्रतिद्वन्द्विता, शत्रुता, तनाव आदि समाप्त हो जाते हैं भीर समाज के सदस्योमे सहानुभूतिके कारण विश्वास जागृत हो जाता है ।
सक्षेप महानुभूति ऐसा समाज धर्म है, जो व्यक्ति और समाज इन दोनोका मगल करता है । इस धर्मके आचरणसे समाज व्यवस्था सुदृढता आती है । अपने समस्त दोषोंसे मुक्ति प्राप्तकर मानव समाज एकताके सूत्रमे वघता है ।
अहिंसाका ही रूपान्तर सहानुभूति है और अहिंसा ही सर्वजीव- समभावका आदर्श प्रस्तुत करतो है, जिससे समाजमे सगठन सुदृढ होता है । यदि भावनाओमे क्रोध, अभिमान, कपट, स्वार्थ, राग-द्वेष आदि हैं, तो समाजमे मित्रताका आचरण सम्भव नही है । वास्तवमे अहिंसा प्राणीको सवेदनशील भावना और वृत्तिका रूप है, जो सर्वजीव- समभावसे निर्मित है । समाज धर्मका समस्त भवन इसी सर्वजीव- समभावकी कोमल भावनापर आधारित है । अहिंसा या सहानुभूति ऐसा गुण है, जो चराचर जगत्मे सम्पूर्ण प्राणियोके साथ मेत्रोभावको प्रतिष्ठा करता है । किसोके प्रति भी वैर और विरोधकी भावना नही रहती । दुखियो के प्रति हृदयमे करुणा उत्पन्न हो जाती है ।
जो किसी दूसरेके द्वारा आतकित हैं, उन्हे भी अहिंसक अपने अन्तरको कोमल किन्तु सुदृढ भावनाओकी सम्पति द्वारा अभयदान प्रदान करता है । उसके द्वारा ससारके समस्त प्राणियोके प्रति समता, सुरक्षा, विश्वास एव सहकारिताको भावना उत्पन्न होती हैं । अन्याय, अत्याचार, शोषण, द्वेप, बलात्कार, ईर्ष्या आदिको स्थान प्राप्त नही रहता । यह स्मरणीय है कि हमारे मनके विचार और भावनाओकी तरगें फैलती हैं, इन तरगोमे योग और वल रहता है । यदि मनमे हिंसाकी भावना प्रबल है, तो हिंसक तर समाजके अन्य व्यक्तियोंको भी क्रूर, निर्दय और स्वार्थी बनायेंगी । अहिंसाकी भावना रहनेपर समाज के सदस्य सरल, सहयोगी और उदार बनते है । अतएव समाजधर्मकी पृष्ठभूमि अहिंसा या सहानुभूतिका रहना परमावश्यक है ।
सामाजिक नैतिकताका आधार आत्मनिरीक्षण
समाज एव राष्ट्रकी इकाई व्यक्तिके जीवनको स्वस्थ - सम्पन्न करनेके लिए स्वार्थत्याग एव वैयक्तिक चारित्रकी निर्मलता अपेक्षित है । आज व्यक्तिमे जो असन्तोष और घबडाहटकी वृद्धि हो रही है, जिसका कुफल विषमता और अपराधोकी बहुलताके रूपमे है, नैतिक आचरण द्वारा ही दूर किया जा सकता है, क्योकि आचरणका सुधारना ही व्यक्तिका सुधार और आचरणको बिगडना ही व्यक्तिका बिगाड़ है |
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प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्योंको मन, वचन और काय द्वारा सम्पन्न करता है तथा अन्य व्यक्तियोसे अपना सम्पर्क भी इन्हीके द्वारा स्थापित करता है। ये तीनो प्रवृत्तियाँ मनुष्यको मनुष्यका मित्र और ये ही मनुष्यको मनुष्यका शत्रु भी बनाती हैं । इन प्रवृत्तियोके सत्प्रयोगसे व्यक्ति सुख और शान्ति प्राप्त करता है तथा समाजके अन्य सदस्योके लिए सुख-शान्तिका मार्ग प्रस्तुत करता है, किन्तु जब इन्ही प्रवृत्तियोका दुरुपयोग होने लगता है, तो वैयक्तिक एव सामाजिक दोनो ही जीवनोमे अशान्ति आ जाती है। व्यक्तिको स्वार्थमूलक प्रवृत्तियाँ विषय-तृष्णाको बढानेवाली होती हैं। मनुष्य उचित-अनुचितका विचार किये बिना तृष्णाको शान्त करनेके लिए जो कुछ कर सकता है, करता है। अतएव जीवनमे निषेधात्मक या निवृत्तिमूलक आचारका पालन करना आवश्यक है। यद्यपि निवृत्तिमार्ग आकर्षक और सुकर नही है, तो भी जो इसका एकबार आस्वादन कर लेता है, उसे शाश्वत और चिरन्तन शान्तिकी प्राप्ति होती है। विध्यात्मक चारित्रका सम्बन्ध शुभप्रवृत्तियोसे है और अशुभप्रवृत्तियोसे निवृत्तिमिलक भी चारित्र संभव है। जो व्यक्ति समाजको समृद्ध एव पूर्ण सुखी बनाना चाहता है, उसे शुभविधिका ही अनुसरण करना आवश्यक है।
व्यक्तिके नैतिक विकासके लिए आत्मनिरीक्षणपर जोर दिया जाता है। इस प्रवृत्तिके बिना अपने दोषोको ओर दृष्टिपात करनेका अवसर ही नहीं मिलता । वस्तुत व्यक्तिकी अधिकाश क्रियाएं यन्त्रवत् होती हैं, इन क्रियाओमे कुछ क्रियाओका सम्बन्ध शुभके साथ है और कुछका अशुभके साथ । व्यक्ति न करने योग्य कार्य भी कर डालता है और न कहने लायक बात भी कह देता है तथा न निचार योग्य बातोकी उलझनमे पड़कर अपना और परका अहित भी कर बैठता है। पर आत्मनिरीक्षणकी प्रवृत्ति द्वारा अपने दोष तो दूर किये ही जा सकते हैं तथा अपने कर्तव्य और अधिकारोका यथार्थत परिज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है।
प्राय देखा जाता है कि हम दूसरोंकी आलोचना करते हैं और इस आलो. चना द्वारा हो अपने कर्तव्यकी समाप्ति समझ लेते हैं। जिस बुराईके लिए हम दूसरोको कोसते हैं, हममे भी वही बुराई वर्तमान है, किन्तु हम उसकी ओर दृष्टिपात भी नहीं करते। अत. समाज-धर्मका आरोहण करनेकी पहली सीढी आत्म-निरीक्षण है । इसके द्वारा व्यक्ति घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, मान, मात्सर्य प्रभृति दुर्गुणोसे अपनी रक्षा करता है और समाजको प्रेमके धरातल पर लाकर उसे सूखी और शान्त बनाता है।
आत्मनिरीक्षणके अभावमे व्यक्तिको अपने दोषोका परिज्ञान नही होता , ५७८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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और फलस्वरूप वह इन दोषोको समाजमें भी मारोपित करता है, जिससे समाजेमे भेदभाव उत्पन्न हो जाते हैं और शने. शनं. समाज विघटित होने लगता है। समाजधर्मकी पहली सीढी विचारसमन्वय-उवारदृष्टि ___"मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना" लोकोक्तिके अनुसार विश्वके मानवोमें विचारभिन्नताका रहना स्वाभाविक है, क्योकि सबको विचारशेलो एक नही है। विचार-भिन्नता ही मतभेद और विद्वे पोको जननी है। वैयक्तिक और सामाजिक जीवनमे अशान्तिका प्रमुख कारण विचारोमे भेद होना ही है। विचारभेदके कारण विद्वेष और घृणा भी उत्पन्न होती है। इस विचार-भिन्नताका शमन उदारदृष्टि द्वारा ही किया जा सकता है। उदारदृष्टिका अन्य नाम स्याद्वाद है। यह दष्टि हो आपमी मतभेद एवं पक्षपातपूर्ण नोतिका उन्मूलन कर अनेकताम एकता, विचारोमे उदारता एवं सहिष्णुता उत्पन्न करती है । यह विचार और कथनको सकुचित, हठ एव पक्षपातपूर्ण न बनाकर उदार, निष्पक्षा
और विशाल बनाती है। वास्तवमै विचारोको उदारता हो समाजमे शान्ति, सुख और प्रेमको स्थापना कर सकती है। ____ आज एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिसे, एक वर्ग दूसरे वर्गसे और एक जाति दसरी जातिसे इमीलिए संघर्षरत है कि उसमे भिन्न व्यक्ति, वर्ग और जातिक विचार उनके विचारोंके प्रतिकूल हैं। साम्प्रदायिकता और जातिवादके नशेमे मस्त होकर निर्मम हत्याएं की जा रही हैं और अपनेसे विपरीत विचारवालोके ऊपर असंख्य अत्याचार किये जा रहे हैं। साम्प्रदायिकताके नामपर परपस्परमे सवर्ष और क्लेश हो रहे हैं। धर्मको सकीर्णताके कारण सहस्रो मक व्यक्तियोको तलवारके घाट उतारा जा रहा है । जलते हुए अग्निकुण्डोमे जीवित पशुओको डालकर म्वर्गका प्रमाणपत्र प्राप्त किया जा रहा है। इस प्रकार विचारभिन्नताका भूत मानवको राक्षम बनाये हुए है।
उदारताका सिद्धान्त कहता है कि विचार-भिन्नता स्वाभाविक है क्योकि प्रत्येक व्यक्तिके विचार अपनी परिस्थिति, समझ एव आवश्यकताके अनुसार वनते हैं । अत विचारोमे एकत्व होना असम्भव है। प्रत्येक व्यक्तिका ज्ञान एव उसके साधन सोमित हैं। अत एकसमान विचारोका होना स्वभावविरुद्ध है। ____ अभिप्राय यह है कि वस्तुमे अनेक गुण और पर्याय-अवस्थाएं हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति एव योग्यताके अनुसार वस्तुकी अनेक अवस्थाओमेसे
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किसी एक अवस्थाको देखता और विचार करता है। अतः उसका ऐकागिक ज्ञान उसीकी दृष्टि तक सत्य है। अन्य व्यक्ति उसो वस्तुका अवलोकन दूसरे पहलसे करता है। अतः उसका ज्ञान भी किसी दृष्टिसे ठीक है। अपनी-अपनी दृष्टिसे वस्तुका विवेचन, परीक्षण और कथन करनेमे सभीको स्वतन्त्रता हैं। सभीका ज्ञान वस्तुके एक गुण या अवस्थाको जाननेके कारण अशात्मक है, पूर्ण नही। जैसे एक ही व्यक्ति किसीका पिता, किसीका भाई, किसीका पुत्र और किसीका भागनेय एक समयमे रह सकता है और उसके भ्रातृत्व, पितृत्व, पुत्रत्व एव भागनेयत्वमे कोई बाधा नही आती। उसी प्रकार ससारके प्रत्येक पदार्थमे एक ही कालमे विभिन्न दृष्टियोसे अनेक धर्म रहते हैं। अतएव उदारनीति द्वारा ससारके प्रत्येक प्राणीको अपना मित्र समझकर समाजके सभी सदस्योके साथ उदारता और प्रेमका व्यवहार करना अपेक्षित है। मतभेदमात्रसे किसीको शत्रु समझ लेना मर्खताके सिवाय और कुछ नही। प्रत्येक बातपर उदारता और निष्पक्ष दृष्टिसे विचार करना ही समाजमे शान्ति स्थापित करनेका प्रमुख साधन है। यदि कोई व्यक्ति भ्रम या अज्ञानतावश किसी भी प्रकारकी भूल कर बैठता है, तो उस भूलका परिमार्जन प्रेमपूर्वक समझाकर करना चाहिए।
अहवादी प्रकृति, जिसने वर्तमानमे व्यक्तिके जीवनमे बडप्पनकी भावनाकी पराकाष्ठा कर दी है, उदारनीतिसे ही दूर की जासकती है। व्यक्ति अपनेको बडा और अन्यको छोटा तभी तक समझता है जबतक उसे वस्तुस्वरूपका यथार्थ बोध नहीं होता। अपनी ही बाते सत्य और अन्यकी बातें झूठी तभी तक प्रतीत होती है जबतक अनेक गुणपर्यायवाली वस्तुका यथार्थ वोध नहीं होता। उदारता समाजके समस्त झगडोको शान्त करनेके लिए अमोघ अस्त्र है। विधि, निषेध, उभयात्मक और अवक्तव्यरूप पदार्थोका यथार्थ परिज्ञान संघर्ष
और द्वन्द्वोका अन्त करनेमे ममर्थ है। यद्यपि विचार-समन्वय तर्क क्षेत्रमे विशेष महत्व रखता है, तोगी लोकव्यवहारमे इसकी उपयोगिता कम नही है । समाजका कोई भी व्यावहारिक कार्य विचारोकी उदारताके बिना चलता ही नही है। जो व्यक्ति उदार है, वही तो अन्य व्यक्तियोके साथ मिल-जुल सकता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि रात्य सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नहीं। हमे वस्तुओके अनन्त रूपो या पयायोमेरो एक कालमे उसके एक ही रूप या पर्यायका ज्ञान प्राप्त होता है और कथन भी किसी एक रूप या पार्यायका ही किया जाता है। अतएव कथन करते समय अपने दृष्टिकोणके सत्य होनेपर भी उस कथनको पूर्ण मत्य नही माना जा सकता, क्योकि उसके अतिरिक्त भी सत्य अवशिष्ट रहता है। उन्हे असत्य तो कहा ही नहीं जा सकता, क्योकि वे वस्तुका ५८० तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्पग
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ही वर्णन करते हैं । अत उन्हे सत्याश कहा जा सकता है । अतएव एक व्यक्ति जो कुछ कहता है वह भी सत्याश है, दूसरा जो कहता है वह भी सत्याश है। तीसरा कहता है वह भी सत्याश है। इस प्रकार अगणित व्यक्तियोके कथन सत्याश ही ठहरते है। यदि इन सब सत्याशोको मिला दिया जाय तो पूर्ण सत्य बन सकता है। इस चूर्ण सत्यको प्राप्त करनेके लिए हमे उन सत्याशो अर्थात् दूसरोके दृष्टिकोणोके प्रति उदार, सहिष्णु और समन्वयकारी बनना होगा और यही सत्यका आग्रह है। जबतक हम उन सत्याशो-दूसरोके दृष्टिकोणोके प्रति अनुदार-असहिष्णु बने रहेगे, समन्वय या सामञ्जस्यको प्रवृत्ति हमारी नही होगी, हम सत्यको नही प्राप्त कर सकेगे और न हमारा व्यवहार ही समाजके लिए मगलमय होगा। विराट् सत्य असख्य सत्याशोको लेकर बना है। उन सत्याशोकी उपेक्षा करनेसे हम कभी भी उस विराट् सत्यको नही प्राप्त कर सकेगे । आपेक्षिक सत्यको कहने और दूसरोके दृष्टिकोणमे सत्य ढूँढने एव उनके समन्वय या सामजस्य करनेको पद्धति या शैलो उदारता है । यह उदारता समाजको सुगठित, सुव्यवस्थित और समृद्ध बनानेके लिए आवश्यक है।
उदारता सत्यको ढूंढने तथा अपनेसे भिन्न दृष्टिकोणोके साथ समझौता करनेकी प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया द्वारा मनोभूमि विस्तृत होती है और व्यक्ति सत्याशको उपलब्ध करता है। उदार दृष्टिकोण या समन्वयवृत्ति ही सत्यकी उपलब्धिके लिए एकमात्र मार्ग है। आग्रह, हठ, दम्भ और सघर्षोंका अन्त इसीके द्वारा सम्भव है। हठ, दुराग्रह और पक्षपात ऐसे दुगुण है जो एक व्यक्तिको दूसरे व्यक्तिसे समझौता नही करने देते । जब तक विचारोमे उदारता नही, अपने दृष्टिकोणको यथार्थरूपमे समझनेकी शक्ति नही, तव तक पूर्वाग्रह लगे ही रहते हैं। उदारता यह समझनेके लिए प्रेरित करती है कि किसी भी पदार्थमे अनेक रूप और गुण है । हम इन अनेक रूप और गुणोमेसे कुछको हो जान पाते हैं । अत हमारा ज्ञान एक विशेष दृष्टि तक ही सीमित है। जब तक हम दूसरोके विचारोका स्वागत नही करेंगे, उनमे निहित सत्यको नही पहचानेगे, तबतक हमारी ऐकान्तिक हठ कैसे दूर हो सकेगी। उदारता या विचारसमन्वय वैयक्तिक और सामाजिक गुत्थियोको सुलझाकर समाजमे एकता और वैचारिक अहिंसाकी प्रतिष्ठा करता है। समाजधर्मको दूसरी सीढ़ी · विश्वप्रेम और नियन्त्रण
समस्त प्राणियोको उन्नतिके अवसरोमे समानता होना, समाजधर्मको दूसरी सोढी है और इस समानताप्राप्तिका साधन विश्वप्रेम या अत्मनियन्त्रण है । जिस व्यक्तिके जीवनमे आत्म-नियन्त्रण समाविष्ट हो गया है वह समाजके
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सभी सदस्योंके साथ भाईचारेका व्यवहार करता है । उनके दुःख-दर्दमे सहायक होता है । उन्हे ठीक अपने समान समझता है । हीनाधिकको भावनाका त्यागकर अन्य अन्य व्यक्तियोकी सुख-सुविधाओका भी ध्यान रखता है । पाखण्ड और धोखेबाजो की भावनाओका अन्त भी विश्वप्र ेम द्वारा सम्भव है । शोषित और शोषकोका जो सघर्ष चल रहा है, उसका अन्त विश्वप्र ेम और आत्मनियन्त्रणके विना सम्भव नही । विश्वप्र मकी पवित्र अग्निमे दम्भ, पाखण्ड, हिंसा, ऊँच-नीच की भावना, अभिमान, स्वार्थबुद्धि, छल-कपट प्रभृति समस्त भावनाएँ जलकर छार वन जाती हैं- ओ . कर्तव्य, अहिंसा, त्याग और सेवाकी भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं ।
यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो व्यक्ति और समाजके वीच अधिकार और कर्त्तव्यकी श्रृङ्खला स्थापित कर सकता है । समाज एव व्यक्तिके उचित सबधोका सतुलन इसीके द्वारा स्थापित हो सकता है । व्यक्ति सामाजिक हितकी रक्षा के लिए अपने स्वार्थका त्यागकर सहयोगको भावनाका प्रयोग भी प्रेमसे ही कर सकता है। आज व्यक्ति और समाजके वीचको खाई सघर्प और शोषण के कारण गहरी हो गई है। इस खाईको इच्छाओके नियन्त्रण और प्रेमाचरण द्वारा ही भरा जा सकता है। निजी स्वार्थसाधनके कारण अगणित व्यक्ति भूख से तड़प रहे हैं और असख्यात विना वस्त्र के अर्धनग्न घूम रहे हैं। यदि भोगोपभोगकी इच्छाओके नियन्त्रणके साथ आवश्यकताएं भी सीमित हो जाये और विश्व मके जादूका प्रयोग किया जाय, तो यह स्थिति तत्काल समाप्त हो सकती है ।
मानवका जीना अधिकार है, किन्तु दूसरेको जीवित रहने देना उसका कर्तव्य है । अतः अपने अधिकारोकी मांग करनेवालेको कर्त्तव्यपालनवी ओर सजग रहना अत्यावश्यक है | समाजमे व्याप्त विषमता, अशान्ति और शोषणका मूल कारण कर्त्तव्योकी उपेक्षा है ।
समाजधर्मको दूसरी सीढ़ीके लिए सहायक
अहिंसाके आधारपर सहयोग और सहकारिताको भावना स्थापित करने से समाजघर्मंकी दूसरी सीढीको बल प्राप्त होता है । समाजका आर्थिक एवं राजनीतिक ढाँचा लोकहितकी भावनापर आश्रित हो तथा उसमे उन्नति और विकासके लिए सभीको समान अवसर दिये जायें । अहिंसा के आधारपर निर्मित समाजमे शोषण और सघर्ष रह नही सकते | अहिंसा ही एक ऐसा शस्त्र है जिसके द्वारा बिना एक बूंन्द रक्त बहाये वर्गहीन समाजकी स्थापना की जा ५८२ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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सकती है। यद्यपि कुछ लोग अहिंसाके द्वारा निर्मित समाजको आदर्श या कल्पनाकी वस्तु मानते हैं, पर यथार्थत यह समाज काल्पनिक नही, प्रत्युत व्यावहारिक होगा। यतः अहिंसाका लक्ष्य यही है कि वर्गभेद या जातिभेदसे ऊपर उठकर समाजका प्रत्येक सदस्य अन्यके साथ शिष्टता और मानवताका व्यवहार करे। छलकपट या इनसे होनेवाली छीनाझपटी अहिंसाके द्वारा ही दूर को जा सकती है। यह सुनिश्चित है कि बलप्रयोग या हिंसाके आधारपर मानवीय सबधोको दोवार खडी नहीं की जा सकती है । इसके लिए सहानुभूति, प्रेम, सौहार्द, त्याग, सेवा एव दया आदि अहिसक भावनाओको आवश्यकता है । वस्तुत अहिंसामे ऐसी अद्भुत शक्ति है जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओको सरलतापूर्वक सुलझा सकती है। समाजधर्मकी दूसरी सोढीपर चढनेके लिए लोकहितकी भावना सहायक कारण है।
समाजको जर्जरित करनेवाली काले-गोरे, ऊँच-नीच और छुआ-छूतकी भावनाको प्रश्रय देना समाजधर्मकी उपेक्षा करना है। जन्मसे न कोई ऊंचा होता है और न कोई नीचा। जन्मना जातिव्यवस्था स्वीकृत नही की जा सकती । मनुष्य जैसा आचरण करता है, उसीके अनुकूल उसकी जाति हो जाती है । दुराचार करनेवाले चोर और डकैत जात्या ब्राह्मण होनेपर भो शूद्रसे अधिक नहीं हैं। जिन व्यक्तियोके हृदयमे करुणा, दया, ममताका अजस्र प्रवाह समाविष्ट है, ऐसे व्यक्ति समाजको उन्नत बनाते हैं, जाति-अहकारका विष मनुष्यको अर्धमूच्छित किये हुए हैं । अत इस विषका त्याग अत्यावश्यक है।
जिस व्यक्तिका नेतिक स्तर जितना हो समाजके अनुकूल होगा वह उतना ही समाजमे उन्नत माना जायगा, किन्तु स्थान उसका भी सामाजिक सदस्य होनेके नाते वही होगा, जो अन्य सदस्योका है। दलितवर्गके शोषण, जाति और धर्मवादके दुरभिमानको महत्त्व देना मानवताके लिए अभिशाप है। जो समाजको सुगठित और सुव्यवस्थित बनानेके इच्छुक हैं, उन्हे आत्म-नियन्त्रण कर जातिवाद, धर्मवाद, वर्गवादको प्रश्रय नहीं देना चाहिए। समाजधर्मकी तीसरी सीढ़ी : आर्थिक सन्तुलन
समाजकी सारी व्यवस्थाएं अर्थमलक है और इस अर्थके लिए ही संघर्ष हो रहा है। व्यक्ति, समाज या राष्ट्रके पास जितनी सम्पत्ति बढ जाती है वह व्यक्ति, समाज या राष्ट्र उतना ही असन्तोषका अनुभव करता रहता है । अतः घनाभावजन्य जितनी अशान्ति है, उससे भी कही अधिक घनके सद्भावसे है।
धनके असमान वितरणको अशान्तिका सबल कारण माना जाता है, पर यह असमान वितरणको समस्या विश्वकी सम्पत्तिको बाँट देनेसे नही सुलझ
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सकती है। इसके समाधानके कारण अपरिग्रह और सयमवाद हैं । ये दोनो सविधान समाजमेसे शोषित और शोषक वर्गकी समाप्ति कर आर्थिक दष्टिसे समाजको उन्नत स्तरपर लाते हैं । जो व्यक्ति समस्त समाजके स्वार्थको ध्यानमे रखकर अपनो प्रवृत्ति करता है वह समाजको आर्थिक दिपमताको दूर करनेमे सहायक होता है। यदि विचारकर देखा जाय तो परिग्रहपरिमाण
और भोगोपभोगपरिमाण ऐसे नियम है, जिनसे समाजकी आर्थिक समस्या सुलझ सकती है। इसी कारण समाजधर्मकी तीसरी सोढो आर्थिक सन्तुलनको माना गया है। स्वार्थ और भोगलिप्साका त्याग इस तीसरी सोढीपर चढनेका आवार है। परिग्रहपरिमाण आर्थिक सयमन
अपने योग-क्षमके लायक भरण-पोषणको वस्तुओको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय और अत्याचार द्वारा धनका सचय न करना परिग्रहारिमाण या व्यावहारिक अपरिग्रह है। धन, धान्य, रुपया-पैसा, सोना-चादो, स्त्री-पुत्र प्रभृति पदार्थोंमे 'ये मेरे हैं', इस प्रकारके ममत्वपरिणामको परिग्रह कहते है। इस ममत्व या लालसाको घटाकर उन वस्तुओके सग्रहको कम करना परिग्रहपरिमाण है ' बाह्यवस्तु-रुपये-पैसोकी अपेक्षा अन्तरग तृष्णा या लालसाको विशेष महत्त्व प्राप्त है, क्योकि तृष्णाके रहनेसे धनिक भी आकुल रहता है। वस्तुत धन आकुलताका कारण नहीं है, आकुलताका कारण है तृष्णा । सचयवृत्तिके रहनेपर व्यक्ति न्याय-अन्याय एव युक्त-अयुक्तका विचार नहीं करता।
इस समय ससारमे धनसंचयके हेतु व्यर्थ ही इतनी अधिक हाय-हाय मची हुई हे कि सतोप और शान्ति नाममात्रको भी नही । विश्वके समझदार विशेषज्ञोने धनसम्पत्तिके बटवारेके लिए अनेक नियम बनाये हैं, पर उनका पालन आजतक नही हो सका । अनियन्त्रित इच्छाओको तृप्ति विश्वकी समस्त सम्पत्तिके मिल जानेपर भी नही हो सकती है। आशारूपी गड्ढेको भरनेमे ससारका सारा वैभव अणुके समान है। अत इच्छाओके नियन्त्रणके लिए परिग्रहपरिमाणके साथ भोगोपभोगपरिमाणका विधान भी आवश्यक है। समय, परिस्थिति और वातावरणके अनुसार वस्त्र, आभरण, भोजन, ताम्बूल आदि भोगोपभोगकी वस्तुओके सबधमे भी उचित नियम कर लेना आवश्यक है।
उक्त दोनो व्रतो या नियमोके समन्वयका अभिप्राय समस्त मानव-समाजकी आर्थिक व्यवस्थाको उन्नत बनाना है। चन्द व्यक्तियोको इस बातका कोई अधिकार नहीं कि वे शोषण कर आर्थिक दृष्टिसे समाजमे विषमता उत्पन्न करे। ५८४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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इतना सुनिश्चित है कि समस्त मनुष्योमे उन्नति करनेकी शक्ति एक-सी न होने के कारण समाजमे आर्थिक दृष्टिसे समानता स्थापित होना कठिन है, तो भी समस्त मानव समाजको लौकिक उन्नतिके समान अवसर एव अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार स्वतन्त्रताका मिलना आवश्यक है, क्योकि परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाणका एकमात्र लक्ष्य समाजको आर्थिक विषमताको दूर कर सुखी बनाना है । यह पूँजीवादका विरोधी सिद्धान्त है और एक स्थान पर धन सचित होनेकी वृत्तिका निरोध करता है । परिग्रहपरिमाणका क्षेत्र व्यक्तितक हो सीमित नही है, प्रत्युक्त समाज, देश, राष्ट्र एव विश्वके लिए भी उसका उपयोग आवश्यक है । सयमवाद व्यक्तिको अनियन्त्रित इच्छाभोको नियन्त्रित करता है । यह हिंसा झूठ, चोरी, दुराचार आदिको रोकता है ।
परियहके दो भेद हैं- बाह्यपरिग्रह और अन्तरगपरिग्रह। बाह्यपरिग्रहमे घन, भूमि, अन्न, वस्त्र आदि वस्तुएँ परिगणित है । इनके सचयसे समाजको आर्थिक विषमताजन्य कष्ट भोगना पड़ता है । अत श्रमार्जित योग क्षेमके योग्य धन ग्रहण करना चाहिये । न्यायपूर्वक भरण-पोषण की वस्तुओके ग्रहण करनेसे धन सचित नही हो पाता । अतएव समाजको समानरूपसे सुखी, समृद्ध और सुगठित बनाने के हेतु धनका सचय न करना आवश्यक है। यदि समाजका प्रत्येक सदस्य श्रमपूर्वक आजीविकाका अर्जन करे, अन्याय और बेईमानोका त्याग कर दे, तो समाजके अन्य सदस्योको भी आवश्यकताको वस्तुओकी कभी कमी नही हो सकती है ।
आभ्यन्तरपरिग्रहमे काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि भावनाएँ शामिल हैं । वस्तुत सचयशील बुद्धि- तृष्णा अर्थात् असतोप ही अन्तरगपरिग्रह है । यदि बाह्यपरिग्रह छोड़ भी दिया जाय, और ममत्वबुद्धि बनी रहे, तो समाजकी छीना-झपटी दूर नही हो सकती । धनके समान वितरण होनेपर भी, जो बुद्धिमान है, वे अपनी योग्यतासे घन एकत्र कर ही लेंगे और ममाजमें विषमता बनी ही रह जायगी । इसी कारण लोभ, माया, क्रोध आदि मानवीय विकारोके त्यागने - का महत्त्व है । अपरिग्रह वह सिद्धान्त है, जो पूँजी और जीवनोपयोगी अन्य आवश्यक वस्तुओके अनुचित सग्रहको रोक कर शोपणको बन्द करता है और समाजमे आर्थिक समानताका प्रचार करता है । अतएव सचयशील वृत्तिका नियन्त्रण परम आवश्यक है । यह वृत्ति ही पूजीवादका मूल है ।
तीसरी सीढोका पोषक : संयमवाद
ससारमे सम्पत्ति एव भोगपभोगकी सामग्री कम है । भोगनेवाले अधिक है और तृष्णा इससे भी ज्यादा है । इसी कारण प्राणियोमे मत्स्यन्याय चलता है,
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छीना-झपटी चलती है और चलता है संघर्ष । फलत. नाना प्रकारके अत्याचार और अन्याय होते है, जिनसे अहर्निश अशान्ति बढती है । परस्परमे ईर्ष्या-द्वेषकी मात्रा और भी अधिक बढ जाती है, जिससे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिको आर्थिक उन्नति के अवसर ही नही मिलने देता। परिणाम यह होता है कि सघर्ष और अशान्तिकी शाखाएँ बढकर विषमतारूपी हलाहलको उत्पन्न करती है।
इस विषको एकमात्र औषध सयमवाद है । यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओ, कषायो और वासनाओ पर नियन्त्रण रखकर छोगा-झपटीको दूर कर दे, तो समाजसे आर्थिक विषमता अवश्य दूर हो जाय । और मभी सदस्य शारीरिक आवश्यकताओकी पूर्ति निराकुलरूपसे कर सकते हैं । यह अविस्मरto है कि आर्थिक समस्याका समाधान नैतिकता के विना सम्भव नही है। नैतिक मर्यादाओका पालन हो आर्थिक साधनोमे समीकरण स्थापित कर सकता है । जो केवल भौतिकवादका आश्रय लेकर जीवनको समस्याओको सुरझाना चाहते हैं, वे अन्धकार है । आध्यात्मिकता और नैतिकता के अभाव मे आर्थिक समस्याएँ सुलझ नही सकता है |
सयमके भेद और उनका विश्लेषण --सयमके दो भेद हैं- ( १ ) इन्द्रियसयम और (२) प्राणिसयम । सयमका पालनेवाला अपने जीवनके निर्वाहके हेतु कम-सेकम सामग्रीका उपयोग करता है, जिससे अवशिष्ट सामग्री अन्य लोगोके काम आती है और सर्प कम होता है । विषमता दूर होती है । यदि एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करे, तो दूसरोके लिये सामग्री कम पडेगी तथा शोपणका आरम्भ यहीसे हो जायगा । समाजमे यदि वस्तुओका मनमाना उपभोग लोग करते रहे, सयमका अकुश अपने ऊपर न रखें, तो वर्ग सघर्ष चलता ही रहेगा। अतएव आर्थिक वैषम्यको दूर करनेके लिये इच्छाओ और लालसाओका नियत्रित करना परम आवश्यक है तभी समाज सुखी और समृद्धिशाली बन सकेगा ।
अन्य प्राणियोको किंचित् भी दुःख न देना प्राणिसयम है । अर्थात् विश्वके समस्त प्राणियोकी सुख-सुविधाओ का पूरा-पूरा ध्यान रखकर अपनी प्रवृत्ति करना, समाजके प्रति अपने कर्त्तव्यको सुचारूरूपसे सम्पादित करना एव व्यक्तिगत स्वार्थभावनाको त्याग कर समस्त प्राणियोके कल्याणकी भावनासे अपने प्रत्येक कार्यको करना प्राणिसयम है । इतना ध्रुव सत्य है कि जब तक समर्थ लोग सयम पालन नही करेंगे, तब तक निर्बलोको पेट भर भोजन नही मिल सकेगा और न समाजका रहन-सहन ही ऊंचा हो सकेगा । आत्मशुद्धिके साथ सामाजिक, आर्थिक व्यवस्थाको सुदृढ करना और शासित एव शासक या शोषित एव शोषक इन वर्गभेदोको समाप्त करना भी प्राणिसंयमका लक्ष्य है ।
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उत्पादन और वितरणजन्य आर्थिक विषमताका सन्तुलन भी अपरिग्रहवाद और सयमवादद्वारा दूर किया जा सकता है। आज उत्पादनके ऊपर एक जाति, समाज या व्यक्तिका एकाधिकार होनेसे उसे कच्चे मालका सचय करना पड़ता है तथा तैयार किये गये पक्के मालको खपानेके लिए विश्वके किसी भी कोनेके बाजारपर वह अपना एकाधिकार स्थापित कर शोषण करता है। इस शोषणसे आज समाज कराह रहा है। समाजका हर व्यक्ति त्रस्त है । किसीको भी शान्ति नही । स्वार्थपरताने समाजके घटक व्यक्तियोको इतना सकोर्ण बना दिया है, जिससे वे अपने ही आनन्दमे मग्न हैं । अतएव इजाओको नियत्रित कर जीवनमे सयमका आचरण करना परम आवश्यक है। समाजधर्मको चौथो सोढी : अहिंसाकी विराट भावना
समाजमे सघर्षका होना स्वाभाविक है, पर इस सघर्षको कैसे दूर किया जाय, यह अत्यन्त विचारणीय है । जिस प्रकार पशुवर्ग अपने संघर्षका सामना पशुवलसे करता है, क्या उसी प्रकार मनुष्य भी शक्तिके प्रयोग द्वारा सघर्षका प्रतिकार करे ? यदि मनुष्य भी पशुवलका प्रयोग करने लगे, तो फिर उसकी मनुष्यता क्या रहेगी ? अत. मनुष्यको उचित है कि वह विवेक और शिष्टताके साथ मानवोचित विधिका प्रयोग करे। वस्तुत अत्याचारीकी इच्छाके विरुद्ध अपने सारे आत्मवलको लगा देना ही संघर्षका अन्त करना है, यही अहिंसा है । अहिंसा ही अन्याय और अत्याचारसे दीन-दुर्वलोको वचा सकती है। यही विश्वके लिये सुख-शान्ति प्रदायक है। यही ससारका कल्याण करने वाली है, यही मानवका सच्चा धर्म है और यही है मानवताको सच्ची कसौटी।
मानवको यह विकारजन्य प्रवृत्ति है कि वह हिंसाका उत्तर हिंसासे झट दे देता है । यह बलवान-बलवानको लडाई है । समाजमे सभी तो बलवान नही हाते । अत कमजोरोकी रक्षा और उनके अधिकारोकी प्राप्ति अहिंसाद्वारा ही सम्भव है । यह निर्वल, सबल, धनी, निर्धन, राक्षस और मनुष्य सभीका सहारा है । यह वह साधन है, जिसके प्रयोग द्वारा हिंसाके समस्त उपकरण व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं । पशुबलको पराजित कर आत्मवल अपना नया प्रकाश सर्वसाधारणको प्रदान करता है।
इसमे सन्देह नहीं कि हिंसा विश्वमे पूर्ण शान्ति स्थापित करनेमे सर्वथा असमर्थ है। प्रत्येक प्राणीका यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह आरामसे खाये और जीवन यापन करे । स्वय 'जीओ और दूसरोको जीने दो', यह सिद्धान्त समाजके लिये सर्वदा उपयोगी है। पर आजका मनुष्य स्वार्थ और अधिकारके वशीभूत हो वह स्वय तो जीवित रहना चाहता है किन्तु दूसरोके
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जीवनकी रंचमात्र भी परवाह नही करता है । आजका व्यक्ति चाहता है कि मैं अच्छे से अच्छा भोजन करूँ, अच्छी सवारी मुझे मिले। रहने के लिये अच्छा भव्य प्रासाद हो तथा मेरी आलमारीमे सोने-चांदीका ढेर लगा रहे, चाहे अन्य लोगोके लिये खानेको सूखी रोटियां भी न मिलें, तन ढकनेको फटे - चिथडे भी न हो । मेरे भोग-विलासके निमित्त सैकड़ोके प्राण जाये, तो मुझे क्या? इसप्रकार हम देखते है कि ये भावनाएं केवल व्यक्तिकी ही नही, किन्तु समस्त समाजको है । यही कारण है कि समाजका प्रत्येक सदस्य दुखो है ।
अविश्वासको तो भावना अन्य व्यक्तियोका गला घोटनेके लिये प्रेरित किये हुए है | अधिकारापहरण और कर्तव्य-अवहेलना समाजमे सर्वत्र व्याप्त हैं । निरकुश और उच्छ्र खल भोगवृत्ति मानवको बुद्धिका अपहरण कर उसका पशुता की ओर प्रत्यावर्तन कर रही है । सुखको कल्पना स्वार्थ साधन और वासना पूतिमे परिसीमित हो समाजको अगान्त बनाये हुए है। हिमा प्रतिहिंसा व्यक्ति और राष्ट्रके जीवन मे अनिवार्य सी हो गयी है । यही कारण है कि समाजका प्रत्येक सदस्य आज दुखी है |
मनुष्य दो प्रकारका वल हाता है - (१) आध्यात्मिक ओर (२) शारीरिक । अहिंसा मनुष्यको आध्यात्मिक वल प्रदान करती है । धैर्य, क्षमा, सयम, तप, दया, विनय प्रभृति आचरण अहिंसा के रूप है । कष्ट या विपत्तिके आ जाने पर उसे समभावसे सहना, हाय हाय नही करना, चित्तवृत्तियोको सर्यामित करना एव सव प्रकारसे कष्टसहिष्णु बनना अहिंसा है और है यह आत्मबल | यह वह शक्ति है, जिसके प्रकट हो जाने पर व्यक्ति और समाज कष्टोके पहाडोको भी चूर-चूर कर डालते हैं । क्षमाशील बन जाने पर विरोध या प्रतिशोधकी भावना समाजमे रह नही पाती । अतएव अहिंसक आचरणका अर्थ है मनसा, वाचा और कर्मणा प्राणीमात्रमे सद्भावना और प्रेम रखना । अहिंसामे त्याग है, भोग नही । जहाँ राग-द्वेष है, वहाँ हिंसा अवश्य है । अत समाजधर्मकी चौथी सीढी पर चढनेके लिये आत्मशोधन या अहिंसक भावना अत्यावश्यक है । व्यक्तिका अहिंसक आचरण ही समाजको निर्भय, वीर एवं सहिष्णु बनाता है ।
समाजधर्मकी पाचवीं सोढ़ी सत्य या कूटनीतित्याग
कूटनीति और धोखा ये दोनो ही समाजमें अशान्ति - उत्पादक हैं । सत्यमे वह शक्ति है, जिससे कूटनीतिजन्य अशान्तिकी ज्वाला शान्त हो सकती है । दूसरेको कष्ट पहुँचाने के उद्देश्यसे कटु वचन बोलना या अप्रिय भाषण करना मिथ्या भाषणके अन्तर्गत है ।
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यह स्मरणीय है कि सत्ता और धोसा ये दोनो ही समाजके अकल्याणकारक हैं। इन दोनो का जन्म सूक्ष्मे होता है। झूठा व्यक्ति आत्मवचना तो करना हो
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, किन्तु नमाज की भी जर्जरित कर देता है । प्राय देखा जाता है कि मिथ्या भाषणन्त्र र स्वार्थको भावनासे होता है । सर्वात्महितवादको भावना असत्य नागण मे वाचन है । स्वच्छन्दता, घृणा, प्रतिशोध जेसी भावनाएँ असत्यनाप से हो जलन होती है, क्योकि मानव समाजका समस्त व्यवहार वचनोसे चलता है। वो दीप आ जानेगे समाजकी अपार क्षति होती है । लोकमे प्रसिद्धि भी है कि गो जिलामे विप और अमृत दोना है । समाजको उन्नत स्तर पर लेजाने वनन अमृत और समाजको हानि पहुँचानेवाले वचन विप हैं। कोल भाषण करना, निन्दा या चुगली करना, कठोर वचन बोलना जोर हंसी-मजाक करना गमाज हितमे बाधक हैं। छेदन, भेदन, मारण, शोषण, अपहरण और ताउन गम्बन्नी वचन भी हिंसक होने के कारण समाजकी शान्तिमे वाधक हैं। अविश्वास, भयकारक, सेदजनक, सन्तापकारक अप्रिय वचन भी समाजको विघटित करते हैं । अतएव समाजको सुगठित, सम्बद्ध और प्रिय व्यवहार करनेवाला बनानेके हेतु सत्य वचन अत्यावश्यक है । भोगसामग्रीकी बहुलता हेतु जो वचनोका असयमित व्यवहार किया जाता है, वह भी अधिकार और कर्त्तके सन्तुलनका विघातक है । ममाजमे मच्ची शान्ति, सत्य व्यवहार द्वारा ही उत्पन्न की जा सकती है और इगीप्रकारका व्यवहार जीवनमे ईमानदारी और सच्चाई उत्पन्न कर सकता है । साधारण परिस्थितियो के बीच व्यक्तिका विकाम अहिंसक वचनव्यवहार द्वारा सम्भव होता है । यह समस्त मनुष्यसमाज एक वृहत् परिवार है और इस वृहत् परिवारका सन्तुलन साधन और साध्यके सामजस्य पर ही प्रतिष्ठित है। जो नैतिकता, अहिमा और सत्यको जीवन मे अपनाता है, वह समाजको सुखी और शान्त बनाता है । आत्मविकास के साथ समाजविकासका पूरा सम्बन्ध जुडा हुआ है । मिथ्या मान्यताएँ, धर्म के सकल्पविकल्प, क्रिया-काण्ड एवं धार्मिक सम्प्रदायोके विभिन्न प्रकार आदि सभी सामाजिक जीवनको गतिविधिमे बाधक हैं । अन्धश्रद्धा और मिथ्या विश्वासोका निराकरण भी समाजधर्मकी इस पांचवी सोढीपर चढनेसे होता है। अनुकम्पा, करुणा और सहानुभूतिका क्रियात्मक विकास भी सत्यव्यवहार द्वारा सम्भव है । जीवनके तनाव, कुण्ठाएँ, सग्रहवृत्ति, स्वार्थपरता आदिका एकमात्र निदान अहसक वचन ही है ।
समाजघर्मकी छठी सीढ़ी अस्तेय - भावना
अस्तेयकी भावना समाजके सदस्योके हृदयमे अन्य व्यक्यिोके अधिकारोके तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ५८९
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लिए स्वाभाविक सम्मान जागृत करती है । इसका वास्तविक रहस्य यह है कि दूसरेके अधिकारोपर हस्तक्षेप करना उचित नहीं, बल्कि प्रत्येक अवस्थामें सामाजिक या राष्ट्रीय हितकी भावनाको ध्यानमें रखकर अपने कर्तव्यका पालन करना मावश्यक है । यह भूलना न होगा कि अधिकार वह सामाजिक वातावरण है, जो व्यक्तित्वको वृद्धिके लिए आवश्यक और सहायक होता है। है। यदि इसका दुरुपयोग किया जाय तो समाजका विनाश अवश्यम्भावी हो जाय । अस्तेय-भावना एकाधिकारका विरोधकर समस्त समाजके अधिकारोंको सुरक्षित रखने पर जोर देती है। यह अविस्मरणीय है कि वैयक्तिक जीवनमे जो अधिकार और कर्तव्य एक दूसरेके आश्रित हैं वे एक ही वस्तुके दो रूप है। जब व्यक्ति अन्यकी सुविधाओका ख्यालकर अधिकारका उपयोग करता है, तो वह अधिकार समाजके अनुशासनमे हितकर बन कर्तव्य बन जाता है और जब केवल वैयक्तिक स्वत्व रक्षाके लिए उसका उपयोग किया जाता है, तो उस समय अधिकार अधिकार ही रह जाता है। ___ यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकारोपर जोर दे और अन्यके अधिकारोकी अवहेलना करे, तो उसे किसी भी अधिकारको प्राप्त करनेका हक नही है। अधिकार और कर्तव्यके उचित ज्ञानका प्रयोग करना हो सामाजिक जीवनके विकासका मार्ग है । अचौर्यको भावना इस समन्वयकी ओर ही इगित करती है।
मनुष्यकी आवश्यकताएं बढ़ती जा रही हैं, जिनके फलस्वरूप शोषण और सचयवृत्ति समाजमे असमानता उत्पन्न कर रही है। व्यक्तिका ध्यान अपनी आवश्यकताओकी पूर्ति तक ही है। वह उचित और अनुचित ढगसे धनसचय कर अपनी कामनाओकी पूर्ति कर रहा है, जिससे विश्वमे अशान्ति है । अस्तेयको भावना उत्तरोत्तर आवश्यकताओको कम करती है। यदि इस भावनाका. प्रचार विश्वमे हो जाय, तो अनुचित ढगसे धनार्जनके साधन समाप्त होकर ससारकी गरीबी मिट सकती है।
समाजमे शारीरिक चोरी जितनी की जा सकती है उससे कही अधिक मानसिक । दूसरोकी अच्छी वस्तुओको देखकर जो हमारा मन ललचा जाता है-या हमारे मनमे उनके पानेकी इच्छा हो जाती है, यह मानसिक चोरी है। द्रव्यचोरीकी अपेक्षा भावचोरीका त्याग अनिवार्य है, क्योकि भावनाएं ही द्रव्यचोरी करानेमे सहायक होती है। भोजन, वस्त्र और निवास आदि आरम्भिक शारीरिक आवश्यकताओसे अधिक संग्रह करना भी चोरीमे सम्मिलित है। यदि समाजका एक व्यक्ति आवश्यकतासे अधिक रखने लग जाय, तो स्वाभाविक ही है कि दूसरोको वस्तुएँ आवश्यकतापूतिके लिए भी नहीं मिल सकेगी। ५९० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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यदि दो जोडी कपडोंके स्थानपर यदि कोई पचास जोडी कपडे रखने लग जाय, तो इससे उसे दूसरे चौबीस व्यक्तियोंको वस्नहोन करना पडेगा । अत किसी भी वस्तुका सीमित आवश्यकता से अधिक सचय समाज - हितकी दृष्टिसे अनुचित है ।
सस्ता समझकर चोरोके द्वारा लाई गई वस्तुभोको खरीदना, चोरीका मार्ग बतलाना, अनजान व्यक्तियो से अधिक मूल्य लेना, अधिक मूल्यकी वस्तुओ मे कम मूल्यवाली वस्तुओको मिलाकर बेचना चोरी हे । प्राय. देखा जाता है कि दूध बेचनेवाले व्यक्ति दूवमे पानी डालकर वेचते | कपडा धोनेके सोडेमे चूना मिलाया जाता है। इसी प्रकार अन्य खाद्यसामग्रियोमे लोभवण अशुद्ध और कम मूल्यके पदार्थं मिलाकर बेचना नितान्त वर्ण्य है ।
समाजधर्मकी सातवीं सोढी भोगवासना - नियन्त्रण
यो तो अहिंसक आचरणके अन्तर्गत समाजोपयोगी सभी नियन्त्रण सम्मि लित हो जाते है, पर स्पष्टरूपसे विचार करनेके हेतु वासना नियन्त्रण या ब्रह्मचर्यभावनाका विश्लेषण आवश्यक है । यह आत्मा की आन्तरिक शक्ति है और इसके द्वारा सामाजिक क्षमताओकी वृद्धि की जाती है । वास्तवमे ब्रह्मचर्य - की साधना वैयक्तिक और सामाजिक दोनो ही जीवनोके लिए एक उपयोगी कला है। यह आचार-विचार और व्यवहारको बदलनेकी साधना है । इसके द्वारा जीवन सुन्दर, सुन्दरतर ओर सुन्दरतम बनता है । शारीरिक सौन्दर्यकी अपेक्षा आचरणका यह सौन्दर्यं सहस्रगुणा श्रेष्ठ है । यह केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही सुखप्रद नही, अपितु समाजके कोटि-कोटि मानवो के लिए उपादेय है ।
आचरण व्यक्तिको श्रेष्ठता और निकृष्टताका मापक यन्त्र है । इसीके द्वारा जीवनकी उच्चता और उसके उच्चतम रहन-सहन के साधन अभिव्यक्त होते हैं। मनुष्य के आचार-विचार और व्यवहारसे बढकर कोई दूसरा प्रमाणपत्र नही, है, जो उसके जीवन की सच्चाईको प्रमाणित कर सके ।
आचरणका पतन जीवनका पतन है ओर आचरणकी उच्चता जीवनकी उच्चता है । यदि रूढिवादवश किसी व्यक्तिका जन्म नीचकुलमे मान भी लिया जाय, तो इतने मात्रसे वह अपवित्र नही माना जा सकता । पतित वह है जिसका आचार-विचार निकृष्ट है और जो दिन-रात भोग-वासनामे डूबा रहता है । जो कृत्रिम विलासिताके साधनोका उपयोगकर अपने सौन्दर्य की कृत्रिमरूपमे वृद्धि करना चाहते है उनके जीवनमे विलासिता तो बढती ही है, | कामविकार भी उद्दीप्त होते हैं, जिसके फलस्वरूप समाज भीतर-ही-भीतर खोखला होता जाता है |
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जो वासनाओके प्रवाहमे बहकर भोगोमे अपनेको डुवा देता है, वह व्यक्ति समाज के लिए भी अभिशाप बन जाता है । भोगाधिक्यसे रोग उत्पन्न होते हैं, कार्य करनेकी क्षमता घटती है और समाजकी नीव खोखली होती है । अतएव सामाजिक विकासके लिए वासनाओको नियत्रित कर ब्रह्मचर्यं या स्वदा रसन्तोपकी भावना अत्यावश्यक है ।
ब्रह्मचर्य - साधना के दो रूप सम्भव है - (१) वासनाओ पर पूर्ण नियन्त्रण और (२) वासनाओका केन्द्रीकरण । समाजके बीच गार्हस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए वासनाओ पर पूर्ण नियन्त्रण तो सबके लिए सम्भव नहीं, पर उनका केन्द्रीकरण सभी सदस्यो के लिए आवश्यक है । केन्द्रीकरणका अर्थ विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए समाजकी अन्य स्त्रियोको माता, बहिन और पुत्रीके समान समझकर विश्वव्यापी प्रेमका रूप प्रस्तुत करना । यहाँ यह विशेषरूपसे विचारणीय है कि अपनी पत्नीको भी अनियन्त्रित कामाचारका केन्द्र बनाना व्रतसे च्युत होना है । एकपत्नीव्रतका आदर्श इसीलिए प्रस्तुत किया गया है कि जो आध्यात्मिक सन्तोष द्वारा अपनी वासनाको नही जीत सकते, वे स्वपत्नीके हो साथ नियन्त्रितरूपसे काम- रोगको शान्त करें । आध्यात्मिक और शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए इच्छाओपर नियन्त्रण रखना परमावश्यक है । सामाजिक और आत्मिक विकासकी दृष्टिसे ब्रह्मचर्य शब्दका अर्थ ही आत्माका आचरण है । अत केवल जननेन्द्रिय-सबधी विपयविकारोको रोकना पूर्ण ब्रह्मचर्य नही है । जो अन्य इन्द्रियोके विषयोके अधीन होकर केवल जननेन्द्रियसवघी विषयोके रोकनेका प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न वायुकी भीत होता है । कानसे विकारकी बातें सुनना, नेत्रोसे विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तुएँ देखना, जिह्वासे विकारोत्तेजक पदार्थोंका आस्वादन करना और घ्राणसे विकार उत्पन्न करनेवाले पदार्थोको सूधना ब्रह्मचर्य के लिए तो बाधक है हो, पर समाज हितकी दृष्टिसे भो हानिकर है । मिथ्या आहार-विहारसे समाजमे विकृति उत्पन्न होती हैं, जिससे समाज अव्यवस्थित हो जाता है। सामाजिक अशान्तिका एक बहुत बडा कारण इन्द्रियसवधी अनुचित आवश्यकताभोकी वृद्धि है । अभक्ष्य भक्षण भी इसी इन्द्रियकी चपलताके कारण व्यक्ति करता है ।
वस्तुत सामाजिक दृष्टिसे ब्रह्मचर्य - भावनाका रहस्य अधिकार और कर्त्तव्यके प्रति आदर भावना जागृत करना है । नैतिकता और बलप्रयोग ये दोनो विरोधी हैं । ब्रह्मचर्य की भावना स्वनिरीक्षण पर जोर देती है, जिसके द्वारा नैतिक जीवनका आरम्भ होता है । सामाजिक और राष्ट्रीय जीवनमे सगठन शक्तिकी जागृति भी इसीके द्वारा होती है । सयमके अभावमे समाजकी व्यवस्था सुचारुरूपसे नही की जा सकती । यत सामाजिक जीवनका आधार नैतिकता है । प्राय.
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देखा जाता है कि ससारमे छीना-झपटीकी दो ही वस्तुएं है -१ कामिनी और २ कञ्चन । जबतक इन दोनोके प्रति आन्तरिक सयमकी भावना उत्पन्न नही होगी, तबतक समाजमे शान्ति स्थापित नही होगी । अभिप्राय यह है कि जीवन निर्वाह - शारीरिक आवश्यकताओको पूर्तिके हेतु अपने उचित हिस्सेसे अधिक ऐन्द्रियक सामग्रीका उपयोग न करना सामाजिक ब्रह्मभावना है ।
आध्यात्म-समाजवाद
समाजवाद शोषणको रोककर वैयक्तिक सम्पत्तिका नियन्त्रण करता है । यह उत्पादनके साधन और वस्तुओके वितरणपर समाजका अधिकार स्थापित कर ममस्त समाजके सदस्योको समता प्रदान करता है । प्रत्येक व्यक्तिको जीवित रहने और खाने-पीनेका अधिकार है तथा समाजको, व्यक्तिको कार्यं देकर उससे श्रम करा लेना और आवश्यकतानुसार वस्तुओकी व्यवस्था कर देना अपेक्षित है । सम्पत्ति समाजकी समस्त शक्तियोकी उपज है । उसमे सामाजिक शक्तिकी अपेक्षा, वैयक्तिक श्रमको भी कम महत्त्व प्राप्त नही है । सम्पत्ति सामाजिक रीति-रिवाजोपर आधारित है । अतएव सम्पत्तिके हकोकी भी उत्पत्ति सामाजिक रूपसे होती है । यदि सारा समाज सहयोग न दे, तो किसी भी प्रकारका उत्पादन सम्भव नही है | मामाजिक आवश्यकताएँ व्यक्तिको आवश्यकताएँ हैं । अतएव व्यक्ति को अपनी-अपनी आवश्यकताओकी पूर्ति के साथ सामाजिक आवश्यकताओकी पूर्ति के लिए सचेष्ट रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्तिको उस सीमातक वस्तुओ पर अधिकार करनेका हक है, जहाँ तक उसे अपने को पूर्ण बनानेमे सहायता मिलती है। उसकी भूख प्यास आदि उन प्राथमिक आवश्यकताओकी पूर्ति अनिवार्य है, जिनकी पूर्तिके अभावमे वह अपने व्यक्तित्वका विकास नही
कर पाता
उस व्यक्तिको जीवनोपयोगी सामग्री प्राप्त करनेका कोई अधिकार नही, जो जीनेके लिए काम नही करता है । दूसरेकी कमाईपर जीवित रहना अनैतिकता है । जिनकी सम्पत्ति दूमरोके श्रमका फल है, वे समाज के श्रमभोगी सदस्य है । उन. वस्तुओके उपभोगका उन्हें कोई अधिकार नही, जिन वस्तुओके अर्जनमे उन्होने सीधे या परम्परारूपमे सहयोग नही दिया है । समाजमे वह अपने भीतर ऐसे वर्गको सुरक्षित रखता है जो केवल स्वामित्वके कारण जिन्दा है । अतएव समाजशास्त्रीय दृष्टिसे प्रत्येक व्यक्तिको श्रमकर अपने अधिकारको प्राप्त करना चाहिए । जो समाजके सचित धनको समान वितरण द्वारा समाजमे समत्व स्थापित करना चाहते हैं, वे अधेरेमे हैं । यदि हम यह मान भी ले कि पूँजीके समान वितरणसे समाजमे समत्व स्थापित होना सम्भव है, तो भी यह आशका निरन्तर बनी रहेगी कि प्रत्येक व्यक्तिमे बुद्धि, क्षमता और शक्ति पृथक्-पृथक् तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ५९३
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रहनेके कारण यह ममत्व चिरस्थायी नही हो सकता है । जव भी समाजके इन क्षमतापूर्ण व्यक्तियोको अवसर मिलेगा, स्माजमे आर्थिक असमता उत्पन्न हो ही जायगी । अतएव इस सम्भावनाको दूर करने के लिए आध्यात्मिक समाजवाद अपेक्षित है । भौतिक समाजवादसे न तो नैतिक मल्योकी प्रतिष्ठा ही सम्भव है और न वैयक्तिक स्वार्थका अभाव ही। वैयक्तिक स्वार्थोका नियन्त्रण आध्यात्मिक आलोकमे ही सम्भव है। रहन-सहनका पद्धतिविशेषमे किसीका स्थान ऊँचा और किसीका स्थान नीचा हो सकता है, पर आध्यात्मिक और नैतिक मूल्योके मानदण्डानुसार समाजके सभी सदस्य समान सिद्ध हो सकते है । परोपजीवी और आक्रामक व्यक्तियोकी समाजमे कभी कमी नही रहती है । कानून या विधिका मार्ग सीमाएं स्थापित नही कर सकता । जहाँ कानून और विधि हे, वहाँ उसके साथ उन्हें तोडने या न माननेकी प्रवृत्ति भी विद्यमान है। अतएव आध्यात्मिक दृष्टिसे नैतिक मूल्योकी प्रतिष्ठा कर समाजमे समत्व स्थापित करना सम्भव है। सभी प्राणियोकी आत्मामे अनन्त शक्ति है, पर वह कर्मावरणके कारण आच्छादित है । कर्मका आवरण इतना विचित्र और विकट है कि आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रकट होने नही देता । जिस प्रकार सर्यका दिव्य प्रकाश मेघाच्छन्न रहनेसे अप्रकट रहता है उसी प्रकार कर्मोके आवरणके कारण आत्माकी अनन्त शक्ति प्रकट नही होने पाती । जो व्यक्ति जितना पुरुषार्थ कर अहता और ममताको दूर करता हुआ कर्मावरणको हटा देता है उसकी आत्मा उतनी ही शुद्ध होती जाती है । ससारके जितने प्राणी है समीकी आत्मामे समान शक्ति है । अत विश्वकी समस्त आत्माएँ शक्तिकी अपेक्षा तुल्य हैं और शक्ति-अभिव्यक्तिकी अपेक्षा उनमे असमानता है। आत्मा मलत समस्त विकार-भावोसे रहित है। जो इस आत्मशक्तिको निष्ठा कर स्वरूपकी उपलब्धिके लिए प्रयास करता है उसको आत्मामे निजी गुण और शक्तियाँ प्रादुर्भूत हो जाती है । अतएव सक्षेपमे आत्माके स्वरूप, गुण और उनकी शक्तियोको अवगत कर नैतिक और आध्यात्मिक मूल्योको प्रतिष्ठा करनी चाहिए। सहानुभूति, आत्मप्रकाशन एव समताकी साधना ऐसे मल्योके आधार है, जिनके अन्वयनसे समाजवादको प्रतिष्ठा सम्भव है । ये तथ्य सहानुभूति और आत्मप्रकाशनके पूर्वमे बतलाये जा चुके हैं। समताके अनेक रूप सम्भव है । आचारकी समता अहिंसा है, विचारो की समता अनेकान्त है, समाजकी समता भोगनियन्त्रण है और भाषाकी समता उदार नीति है। समाजमे समता उत्पन्न करनेके लिए आचार और विचार इन दोनोकी समता अत्यावश्यक है । प्रेम, करुणा, मैत्री, अहिंसा, अस्तेय, अब्रह्म, सत्याचरण समताके रूपान्तर हैं। वैर, घृणा, द्वेष, निन्दा, राग, लोभ, क्रोध विषमतामे सम्मिलित हैं। ५९४ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सामाजिक आचरणके लिए आत्मौपम्य दृष्टि अपेक्षित है । प्रत्येक आत्मा तात्त्विक दृष्टि से समान है। अत मन, वचन, और कायसे किसीको न स्वय सन्ताप पहुंचाना, न दूसरेसे सन्ताप पहुंचवाना, न सन्ताप पहुंचानेके लिए प्रेरित करना नैतिक मूल्योकी व्यवस्थामे परिगणित है।
हमारे मनमे किसीके प्रति दुर्भावना है, तो मन अशान्त रहेगा, नाना प्रकारके सकल्प-विकल्प मनमे उत्पन्न होते रहेगे और चित्त क्षुब्ध रहेगा। अतएव समाजवादको प्रतिष्ठाके हेतु प्रत्येक सदस्यका आचरण और कार्य दुर्भावना रहित अत्यन्त सावधानीके साथ होना चाहिए । नैतिक या अहिंसक मल्योके अभावमे न व्यक्ति जीवित रह सकता है, न परिवार और न समाज ही पनप सकता है । अपने अस्तित्वको सुरक्षित रखनेके लिए ऐसा आचार और व्यवहार अपेक्षित होता है, जो स्वय अपनेको रुचिकर हो । व्यक्ति, समाज और देशके सुख एव शान्तिको आधारशिला अध्यात्मवाद है। और इसीके साथ अहिसा, मैत्री और समताको कडी जुड़ी हुई है। जो अभय देता है वह स्वय भी अभय हो जाता है। जव दूसरोको पर माना जाता है, तब भय उत्पन्न होता है ओर जव उन्हे आत्मवत् समझ लिया जाता है, तब भय नही रहता । सव उसके बन जाते हैं और वह सवका बन जाता है । अतएव समताकी उपलब्धिके लिए तथा समाजवादको प्रतिष्ठित करनेके लिए निम्नलिखित तीन आधारोपर जोवन-मूल्योकी व्यवस्था स्वोकार करनी चाहिए। मल्यहीन समाज अत्यन्त अस्थिर और अव्यवस्थित होता है । निश्चयत मूल्योकी व्यवस्था हो समाजवादको प्रतिष्ठित कर सकती है।
१. स्वलक्ष्य पल्य एव अन्तरात्मक मूल्य-शारीरिक, आर्थिक और श्रम सवधी मूल्योके मिश्रण द्वारा जीवनकी मूलभूत प्रवृत्तियोसे ऊपर उठकर तुष्टि, प्रेम, समता और विवेकको दृष्टिमे रखकर मूल्योका निर्धारण ।
२. शाश्वत एव स्थायो मूल्य-विवेक, निष्ठा, सद्वृत्ति और विचारसामञ्जस्यकी दृष्टिसे मूल्य निर्धारण । इस श्रेणीमे क्षणिक विषयभोगकी अपेक्षा शाश्वतिक आध्यात्मिक मूल्योका महत्त्व । ज्ञान, कला, धर्म, शिव, सत्य सम्वन्धी मूल्य।
३ सृजनात्मक मूल्य-उत्पादन, थम, जीवनोपभोग आदिसे सम्बद्ध मूल्य। ___ सक्षेपमें समाजवादको प्रतिमा भौतिक सिद्धान्तोके आधारपर सम्भव न होकर अध्यात्म और नैतिकताके आधारपर ही सम्भव है।
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व्यक्ति और समाज : अन्योन्याश्रय सम्बन्ध ___ व्यक्तियोंके समह और उनके सम्बन्धोसे समाजका निर्माण होता है। व्यक्ति अनेक सामाजिक समहोका सदस्य होता है, जो कि उसके बीच पाये जाने वाले सम्बन्धोको प्रतिबिम्बित करते हैं। व्यक्तिके जीवनका प्रभाव समाजपर पडता है। व्यक्ति अपने व्यवहारसे अन्य सदस्योको प्रभावित करता है और अन्य सदस्योके व्यवहारसे स्वय प्रभावित होता है । अत व्यक्तिकी समस्त महत्त्वपूर्ण क्रियाएं एव चेतनाकी अवस्थाएँ सामाजिक परिस्थितियोमे जन्म लेती हैं
और इन्होसे सामाजिक व्यक्तित्वका निर्माण होता है। ___व्यक्ति और समाज एक ही वस्तुके दो पहलू हैं । अनेक व्यक्ति मिलकर समाजका गठन करते हैं। उन व्यक्तियोकी विचार-धाराओ, सवेगो, आदतो आदिका पारस्परिक प्रभाव पड़ता है। अत सक्षेपमे यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति और समाज इन दोनोका अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । व्यक्तिके बिना समाजका अस्तित्व नही और समाजके अभावमे व्यक्तिके व्यक्तित्वका विकास सम्भव नही । आर्थिक समानता, न्यायिक समानता, मानव समानता, स्वतन्त्रता आदिका सम्बन्ध व्यक्तियोके साथ है। व्यक्तिगत दक्षता समाजको पूर्णतया प्रभावित करती है । समाज-गठनके सिद्धान्तोमे धर्म, सस्कृति, नैतिक सिद्धान्त, कर्तव्य-पालन, जीवनके आदर्श, काम्य-भोग आदि परिगणित हैं । अतएव सुखी, सम्पन्न और आदर्श समाजके निर्माण हेतु वैयक्तिक जीवनकी पवित्रता और आचारनिष्ठा भी अपेक्षित है।
सामान्यत धार्मिक सस्कार और नैतिक विधि-विधान व्यक्तिके व्यक्तित्वको परिष्कृत करनेके लिये आवश्यक है । जिस समाजके घटक व्यक्ति सच्चरित्र, ज्ञानी और दृढसकल्पी होगें, उस ससाजका गठन भी उतना ही अधिक सुदृढ होगा। व्यक्तिके समाजमे जन्म लेते ही कुछ दायित्व या ऋण उसके सिरपर आ जाते है, जिन दायित्वों और ऋणोको पूरा करनेके लिये उसे सामाजिक सम्बन्धोके बीच चलना पडता है। शारीरिक, पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धोका निर्वाह करते हुए भी व्यक्ति इन सम्बन्धोमे आसक्त न रहे । जीवनसे सभी प्रकारके कार्य करने पड़ते है, पर उन कार्योंको कर्तव्य समझकर ही किया जाय, आसक्ति मानकर नही । यो तो वैयक्तिक जीवनका लक्ष्य निवृत्तिमूलक है। वह त्यागमार्गके बीच रहकर अपनी आत्माका उत्थान या कल्याण करता है। जीवनको उन्नत और समृद्ध बनानेके लिये आत्मशोधन करता है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारोको आत्मासे पृथक् कर वह निष्काम कर्ममे प्रवृत्त होता है। अत व्यक्ति और समाज इन दोनोका पर
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स्परमें अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है और परस्परमे दोनोंके सहयोगसे ही समाजका विकास और उन्नति होती है। समाजघटक, सामाजिक संस्थाएं एवं समाजमें नारीका स्थान
सामाजिक जीवनके अनेक घटक हैं । व्यक्ति माके उदरसे जन्म लेता है। मां उसका पालन-पोषण करती है। पिता आर्थिक व्यवस्था करता है। भाईवहन एवं मुहल्लेके अन्य शिशु उसके साथी होते हैं। शिक्षाशालामे वह शिक्षकोंसे विद्याध्ययन करता है । बडा होनेपर उसका विवाह होता है। इस प्रकार एक मनुष्यका दूसरे मनुष्यके साथ अनेक प्रकारका सम्बन्ध स्थापित होता है। इन्ही सम्बन्धोंसे वह बंधा हुआ है। उसका स्वभाव और उसकी आवश्यकताएं इन सम्बन्धोमे उसे रहनेके लिए वाध्य करती हैं । फलत मनुष्यको अपनी अस्तित्व-रक्षा और सम्बन्व-निर्वाहके लिये समाजके वीच रहना पडता है। एकरूपता, सहयोग सहकारिता, संघटन और अन्योन्याश्रितता तो पशुओंके वीच भी पायी जातो है, किन्तु पशुओमे क्रिया-प्रतिक्रियात्मक सम्बन्धो के निर्वाह एव सम्बन्ध-सम्बन्धी प्रतिवोधका अभाव है। सामाजिक सम्बन्धोके घटक अनेक तत्त्व हैं। इनमें निम्नलिखित तत्त्वो की प्रमुखता है
१ वैयक्तिक लाभके साथ सामूहिक लाभकी ओर दृष्टि २. न्यायमार्गको वृत्ति ३. उन्नति और विकासके लिये स्पर्धा ४ कलह, प्रेम, एव सघर्पके द्वारा सामाजिक क्रिया-प्रतिक्रिया। ५. मित्रताको दृष्टि ६ उचित सम्मान प्रदर्शन ७. परिवारका दायित्व ८. समानता और उदारताको दृष्टि
९ आत्म-निरीक्षणको प्रवृत्ति • १०. पाखण्ड-आडम्बरका त्याग ११. अनुशासनके प्रति आस्था १२ अर्जनके समान त्यागके प्रति अनुराग १३ कर्त्तव्यके प्रति जागरूकता १४ एकाधिकारका त्याग और स्वावलम्बनकी प्रवृत्ति १५ सेवा-भावना
सामाजिक जीवन अर्हाओ और नैतिक नियमोपर अवलम्बित है। रक्षाविधि और अस्तित्व निर्वाह समाजके लिये आवश्यक है । सामाजका आर्थिक
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एव राजनीतिक ढाँचा लोकहितको भावनापर आश्रित है, तथा सामाजिक उन्नति और विकास के लिये सभीको समान अवसर प्राप्त हैं । अत अहिंसा, दया, प्रम, सेवा और त्यागके आधारपर सामाजिक सम्बन्धोका निर्वाह कुशलतापूर्वक सम्पन्न होता है ।
अपने योग-क्षेमके लायक भरण-पोषणकी वस्तुओंको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय, अत्याचार द्वारा धनार्जन करनेका त्याग करना एव आवश्यकतासे अधिक सचय न करना स्वस्थ समाजके निर्माण
उपादेय हैं | अहिंसा और सत्यपर आधृत समाजव्यवस्था मनुष्यको केवल जीवित ही नही रखती, बल्कि उसे अच्छा जीवन यापनके लिये प्रेरित करती है | मनुष्यकी शक्तियोका विकास समाजमे ही होता है । कला, साहित्य, दर्शन, संगीत, धर्म आदिको अभिव्यक्ति मनुष्यको सामाजिक चेतनाके फलस्वरूप ही होती है । ज्ञानका आदान-प्रदान भी सामाजिक सम्बन्धोके बीच सम्भव होता है । समाजमे ही समुदाय सघ और संस्थाएँ बनती है ।
निसन्देह समाज एक समग्रता है और इसका गठन विशिष्ट उपादानोके द्वारा होता है । तथा इसके भौतिक स्वरूपका निर्माण भावनोपेत मनुष्योद्वारा होता है। इसका आध्यात्मिक रूप विज्ञान, कला, धर्म, दर्शन आदि द्वारा सुसम्पादित किया जाता है । अत समाज एक ऐसी क्रियाशील समग्रता है, जिसके पीछे आध्यात्मिकता, नैतिक भावना और सकल्पात्मक वृत्तियोके सश्लेषोका रहना आवश्यक है ।
सामाजिक संस्था : स्वरूप और प्रकार
समाजके विभिन्न आदर्श और नियन्त्रण जनरीतियो, प्रथाओ और रूढियोके रूपमे पाये जाते हैं । अत नियन्त्रणमे व्यवस्था स्थापित करने एव पारस्परिक निर्भयता बनाये रखने हेतु यह आवश्यक है कि उनको एक विशेष कार्य के आधारपर सगठित किया जाय। इस सगठनका नाम ही सामाजिक सस्था है । यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकताकी पूर्ति के हेतु सामाजिक विरासतमै स्थापित सामूहिक व्यवहारोका एक जटिल तथा घनिष्ठ संघटन है । मानव सामूहिक हितोकी रक्षा एव आदर्शोके पालन करनेके लिये सामाजिक सस्थाओको जन्म देता है । इनका मूलाधार निश्चित आचार-व्यवहार और समान हित-सम्पादन है | अधिक समय तक एक ही रूपमे कतिपय मनुष्योके व्यवहार और विश्वासो - का प्रचलन सामाजिक सस्थाओको उत्पन्न करता है । ये मनुष्योकी सामूहिक क्रियाओ, सामूहिक हितो, आदर्शो एव एक ही प्रकारके रीति-रिवाजोपर अच
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लम्बित हैं। सामाजिक संस्थाओमे निम्नलिखित गुण और विशेषताएं पायी जाती हैं
१ सामाजिक संस्थाएं प्रारम्भिक आवश्यकताओकी पूर्तिका साधन होती हैं। २ सामाजिक सस्थाओद्वारा सामाजिक नियन्त्रणका कार्य सम्पन्न होता है।
३ सामाजिक अओि और प्रजातिक व्यवहारोका सम्पादन सामाजिक सस्थामो द्वारा सम्भव है।
४ अनुशासन और आदर्शको रक्षा इन्हीके द्वारा होती है। ५. इनका कोई निश्चित उद्देश्य होता है। ६ नैतिक आदर्श और व्यवहारोका सम्पादन इन्हीके द्वारा होता है।
७. सामाजिक सस्थाएं ऐसे बन्धन हैं, जिनसे समाज मनुष्योको सामूहिक रूपसे अपनो सस्कृतिके अनुरूप व्यवहार करनेके लिये बाध्य कर देता है, अत सामाजिक सस्थामाके आदर्श और धारणाएं होती हैं, जिन्हे समाज अपनी सस्कृतिको रक्षाके लिये आवश्यक मानता है।
८ सामाजिक सस्थाओका सचालन आचार-सहिताओके आधारपर होता है।
९. प्रत्येक धर्म सम्प्रदायको आवार-सहिता भिन्न हाती है । अत. सामाजिक सस्थाओका रूपगठन भी भिन्न धरातलपर सम्पन्न होता है ।
यो तो सामाजिक सस्याएं अनेक हो सकती हैं, पर आध्यात्मिक चतना और लोक-जीवनके सम्पादनके लिये जिन सामाजिक संस्थाओको आवश्यकता है, वे निम्नलिखित हैं
१. चतुर्विध सघ-सस्था २. आश्रम-सस्था ३ विवाह-सस्था ४. कुल-संस्था ५ सस्कार-सस्था ६ परिवार-सस्था ७ पुरुषार्थ-सस्था ८ चैत्यालय-सस्था ९ गुणकर्माधारपर प्रतिष्ठित वर्णजातिसस्था
इन सस्थाओ के सम्बन्धमे विशेष विवेचन करनेकी आश्यकता नही है। नामसे ही इनका स्वरूप स्पष्ट है।
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वर्तमानमे समाजमें नारीका स्थान बहुत निम्न श्रेणीका हो रहा है। आज नारी भोगेषणाकी पूर्तिका साधन मात्र रह गयी है । न उसे अध्ययन कर आत्मविकासके अवसर प्राप्त हैं और न वह धर्म एव समाजके क्षेत्रमे आगे ही आ सकती है। दासीके रूपमे नारीको जीवन यापन करना पडता है, उसके साथ होनेवाले सामाजिक दुर्व्यवहार प्रत्येक विचारशील व्यक्तिको खटकते हैं। नारीसमाजको देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है जैसे युगयुगान्तरसे इनकी आत्मा ही खरीद ली गयी है। अनमेल-विवाहने नारीको स्थितिको और गिरा दिया है। सामन्तयुगसे प्रभावित रहनेके कारण आज दहेज लेना-देना बड़प्पनका सूचक समझा जाता है । आज नारीका स्वतन्त्र व्यक्तित्व नही रहा है, पुरुषके व्यक्तित्वमे हो उसका व्यक्तित्व मिल गया है। अत इस दयनीय स्थितिको उन्नत बनाना अत्यावश्यक है। यह भूलना न होगा कि नारी भी मनुष्य है और उसको भी अपनी उन्नतिका पूरा अधिकार प्राप्त है। __ वर्तमान समाजने नारी और शुद्रके लिये वेदाध्ययन वर्जित किया है। यदि कदाचित् ये दोनो वर्ग किसोप्रकार वेदके शब्दोको सुन ले, तो इनके कानमे शोशा गर्म कर डाल देना चाहिये। ऐसे निर्दयता एव क्रूरतापूर्ण व्यवहार समाजके लिये कभी भी उचित नही है। नारी भी पुरुषके समान धर्मसाधन, कर्तव्यपालन आदि समाजके कार्योंको पूर्णतया कर सकती है। अतएव वत्तमानमे समाज-गठनके लिये लिंग-भेद, वर्ग-भेद, जाति-भेद, धन-भेदके भावको दूर करना परमावश्यक है । नारीको सभी प्रकारके सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त होने चाहिये । भेद-भावकी खाई समाजको सम धरातलपर प्रतिष्ठित नही कर सकती है। नर-नारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी मनुष्य है और सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता है। जो इनमे भेद-भाव उत्पन्न करते हैं, वे सामाजिक सिद्धान्तोके प्रतिरोधी है । अत समाजमे शान्तिसुखव्यवस्था स्थापित करनेके लिये मानवमात्रको समानताका अधिकार प्राप्त होना चाहिये। तीर्थंकर महावीरको समाजव्यवस्थाको आधुनिक उपयोगिता
तीर्थंकर महावीर द्वारा प्रतिपादित समाज-व्यवस्था आधुनिक भारतमे भी उपयोगी है । महावीरने नारीको जो उच्च स्थान प्रदान किया, आजके सविधानने भी नारीको वही स्थान दिया है। वर्गभेद और जाति-भेदके विषको दूर करने के लिये महावोरने अपनी पीयूष-वाणी द्वारा समाजको उद्बोधित किया । उनकी समाज-व्यवस्था भी कर्मकाण्ड, लिंग, जाति, वर्ग आदि भेदोसे मुक्त थी। इनकी ६०० तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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समाज-व्यवस्थाका आधार अध्यात्म, अहिंसा, नैतिक नियम और ऐसे धार्मिक नियम थे, जिनका सम्बन्ध किसी भी जाति, वर्ग या सम्प्रदायसे नही था। महावीरका सिद्धान्त है कि विश्वके समस्त प्राणियोके साथ आत्मीयता, बन्धुता और एकताका अनुभव किया जाय । अहिंसा द्वाग सबके कल्याण और उन्नतिकी भावना उत्पन्न होती है । इसके आचरणसे निर्भीकता, स्पष्टता, स्वतन्त्रता और सत्यता वढती है । अहिंसाको सीमा किसी देश, काल, और समाज तक सीमित नहीं है। अपितु इसकी सोमा सर्वदेश और सर्वकाल तक विस्तृत है। अहिंसासे हो विश्वास, आत्मीयता, पारस्परिक प्रेम एव निष्ठा आदि गुण व्यक्त होते हैं । अहकार, दम्भ, मिथ्या विश्वास, मसहयोग मादिका अन्त भी अहिंसा द्वारा ही सम्भव है। यह एक ऐसा साधन है जो बड़े-से-बड़े साध्यको सिद्ध कर सकता है।
अहिंसात्मक प्रतिरोध अनेक व्यक्तियोको इसीलिये निर्वल प्रतीत होता है कि उसके अनुयायियोने प्रमको उत्पादक शक्तिको पूर्णतया पहचाना नही है। वास्तवमे आत्मीयता और एकताको भावनासे ही समाजमे स्थायित्व उत्पन्न होता है । यदि भावनाओमे क्रोध, अभिमान, कपट, स्वार्थ. राग-द्वेष आदि है, तो ऊपरसे भले ही दया या करुणाका आडम्बर दिखलायी पडे, आन्तरिक विश्वास जागृत नही हो सकता । यदि हृदयमे प्रेम है, रक्षाकी भावना है और है सहानुभूति एव सहयोगको प्रवृत्ति, तो ऊपरका कठोर व्यवहार भी विश्वासोत्पादक होगा। इसमे सन्देह नहीं है कि अहिंसाके आधारपर प्रतिष्ठित समाज ही सुख और शान्तिका कारण बन सकता है ।
शक्तिप्रयोगसम्बन्धी सिद्धान्तका विश्लेषण इजिनियरिंग कलाके आलोकमे किया जा सकता है। मनुष्यके स्वभाव और समाजमे अपार शक्ति है। इसके क्रोधादिके रूपमे फूट पडनेसे रोकना चाहिये और प्रेमको प्रणाली द्वारा उपयोगी कार्योंमे लगाना चाहिये । इस सिद्धान्तको यो समझा जा सकता है कि हम भापकी शक्तिको फूट पडनेसे रोक कर वायलर और अन्य वस्तुओकी रक्षा करते हैं और इजिनको शक्तिशाली बनाते हैं। इसीप्रकार हम व्यक्तिके अहकार, काम, क्रोधादि दुर्गुणोको फूट पडनेसे राक सक और इन गुणोका परिवर्तन अहिंसक शक्तिके रूपमे कर सकें, तो समाजका सचालित करनेके लिये अपार शक्तिशाली व्यक्तिरूपी एजिन प्राप्त होता है ।
एकताको भावना अहिंसाका ही रूप हे। कलह, फूट, द्वन्द्व और सघर्ष हिमा है। ये हिंसक भावनाएं सामाजिक जीवनमे एकता और पारस्परिक विश्वास उत्पन्न नही कर सकती है।
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यदि हम समाजके प्रत्येक सदस्यके साथ समता, सहानुभूति और सहृदयताका व्यवहार करें, तो समाजके विकासमे अवरोध पैदा नही हो सकता है।
तीर्थंकर महावीरने समाज-व्यवस्थाके लिये दया, सहानुभूति, सहिष्णुता और नम्रताको साधनके रूपमे प्रतिपादित किया है । ये चारो ही साधन वर्तमान समाज-व्यवस्थाके लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। समाजके कष्टोके प्रति दया एक अच्छा साधन है। इससे समाजमे एकता और बन्धुत्वको भावना उत्पन्न होती है। तीर्थंकर महावीरका सिद्धान्त है कि दयाका प्रयोग ऐसा होना चाहिये, जिससे मनुष्यमे दयनीयताकी भावना उत्पन्न न हो और दया करनेवालोमे अभिमानकी भावना जागृत न हो। समाज-व्यवस्थाके लिये दया, दान, सयम और शील आवश्यक तत्त्व हैं। इन तत्वो या गुणोसे सहयोगको वृद्धि होती है। समाजकी समस्त विसगनियाँ एव कठिनाईयाँ उक्त सावनो द्वारा दूर हो जाती है।
सहिष्णुताकी भावनाको भी समाज-गठनके लिये आवश्यक माना गया है । मानव-समाज एक शरीरके तुल्य है। शरीरमे जिस प्रकार अंगोपाग, नस, नाड़ियाँ अवस्थित रहती है, पर उन सबका सम्पोषण हृदयके रक्तसचालन द्वारा होता है, इसी प्रकार समाजमें विभिन्न स्वभाव और गुणधारी व्यक्ति निवास करते हैं। इन समस्त व्यक्तियोकी शारीरिक एव मानसिक योग्यताएं भिन्न-भिन्न रहती हैं, पर इन समस्त सामाजिक सदस्योको एकताके सूत्रमे अहिंसाके रूप प्रेम, सहानुभूति, नम्रता, सत्यता आदि आबद्ध करते है । नम्रता और सहानुभूतिको कमजोरी, कायरता और दुरभिमान नही माना जा सकता। इन गुणोका अर्थ हीनता नही, किन्तु आत्मिक समानता है । भौतिक बडप्पन, वर्गश्रेष्ठता, कुलीनता, धन और पदवियोका महत्त्व आध्यात्मिक दृष्टिसे कुछ भी नही है। अतएव समाजको अहिंसात्मक शक्तियोके द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है। अहिंसक आत्मनिग्रही बनकर समाजको एक निश्चित मार्गका प्रदर्शन करता है। वास्तवमे मानव-समाजको यथार्थ आलोककी प्राप्ति राग-द्वेष और मोहको हटानेपर ही हो सकती है। अहिसक विचारोके साथ आचार, आहार-पान भी अहिंसक होना चाहिए।
कर्तव्य-कर्मोंका सावधानी पूर्वक पालन करना तथा दुर्व्यसन, धून क्रीडा, मासभक्षण, मदिरापान, आखेट, वेश्यागमन, परस्त्रो-सेवन एव चौर्यकर्म आदिका त्याग करना सामाजिक सदस्यताके लिये अपेक्षित है।
धन एव भोगोंकी आसुरी लालसाने व्यक्तिको तो नष्ट किया ही है, पर अगणित समाजोको भी बर्वाद कर डाला है। आसुरी वासनाओकी तृप्ति एक ६०२ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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काल तो क्या त्रिकालमें भी सम्भव नहीं है। अतएव न्याय-अन्याय, कर्तव्यअकर्तव्य, पुण्य-पाप आदिका विचार कर समाजको अहिंसक नीति द्वारा व्यवस्थित करना चाहिये । इसमे सन्देह नही कि महावीरकी समाज-व्यवस्था आजके युगमे भी उतनी ही उपयोगी है, जितनी उपयोगी उनके समयमे थी। महावीरने श्रमको जीवनका आवश्यक मूल्य बताया है। मानवीय मूल्योमे इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। समाज धन या सम्पत्तिसे पूर्ण ससका अनुभव नही कर सकता है। पर नीति और अध्यात्मके द्वारा तृष्णा, स्वार्थ और द्वषका अन्त हो सकता है।
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उपसंहार महावीर : व्यक्तित्व-विश्लेषण काचन काया
सात हाथ उन्नत शरीर, दिव्य काञ्चन आभा, आजानबाहु, समचतुरस्रसस्थान, वज्रवृषभनाराचसहनन आदिसे युक्त तीर्थंकर महावीर तन और मन दोनोसे ही अद्भत सुन्दर थे। उनकी लावण्य-छटा मनुष्योको ही नही, देव, पशुपक्षी एव कीट-पतगको भी सहजमे अपनी ओर आकृष्ट करती थी। देवेन्द्र भी उनके दिव्य तेजसे आकृष्ट हो चरण-वन्दनके लिये आते, अगणित मनुष्यसामन्तोकी तो बात ही क्या।
उनके व्यक्तित्वको लोक-कल्याणकी भावनाने सजाया था, सँवारा था। वे अपने भीतर विद्यमान शक्तिका स्फोटन कर प्रतिकूल कण्टकाकीर्ण मार्गको पुष्पावकीर्ण बनानेके लिये सचेष्ट थे। महावीर ऐसे नद थे, जो चट्टानोका भेदन
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कर स्वयं अपने लिये पथका निर्माण करते हैं। वे निर्झर थे, कुलिका (नहर) नहीं। उन्होने कठिन-से-कठिन तप कर, कामनाओ और वासनाओपर विजय पा कर लोक-कल्याणका ऐसा उज्ज्वल मार्ग तैयार किया, जो प्राणिमात्रके लिये सहजगम्य और सुलभ था। कर्मयोगी
महावीरके व्यक्तित्वमे कर्मयोगको माधना कम महत्त्वपूर्ण नही है। वे स्वयवुद्ध थे, स्वय जागरुक थे और बोधप्राप्तिके लिये स्वय प्रयत्नशील थे। न कोई उनका गुरु था और न किसी शास्त्रका आधार ही उन्होने ग्रहण किया था । वे कर्मठ थे और स्वय उन्होने पथका निर्माण किया था। उनका जीवन भय, प्रलोभन, राग-द्वेष सभीसे मुक्त था। वे नील गगनके नीने हिंस्र-जन्तुओसे परिपूर्ण निर्जन वनोमे कायोत्सर्ग मुद्रामे ध्यानस्थ हो जाते थे। वे कभी मृत्युछायासे आक्रान्त श्मशानभूमिमे, कभी गिरि-कन्दराओमे, कभी गगनचुम्बी उत्तुग पर्वतोके शिखरोपर, कभी कल-कल, छल-छल निनाद करती हुई सरिताओके तटोपर और कभी जनाकोण राजमार्गपर कायोत्सर्ग-मुद्रामे अचल और अडिगरूपसे ध्यानस्थ खडे रहते थे। वे कर्मयोगी शरीरमे रहते हुए शरीरसे पृथक्, शरीरको अनुभूतिसे भिन्न जीवनकी आशा और मरणके भयसे विप्रमुक्त स्वकी शोधमे सलग्न रहते थे ।
कर्मयोगी महावीरने अपने श्रम, साधना और तप द्वारा अर्गाणत प्रकारके उपसर्गोको सहन किया। कही सुन्दरियोने उन्हे साधनासे विचलित करनेका प्रयास किया, तो कही दुष्ट और अज्ञानियोने उन्हे नाना प्रकारकी यातनाएं दी, पर वे सब मौनरूपसे सहन करते रहे। न कभी मनमे ही विकार उत्पन्न हुआ और न तन हो विकृत हुआ । इस कर्मयोगीके समक्ष शाश्वत विरोधी प्राणी भो अपना वैरभाव छोडकर शान्तिका अनुभव करते थे । धन्य है महावीरका वह व्यक्तित्व, जिसने लौह पुरुपका सामर्थ्य प्राप्त किया और जिस व्यक्तित्वके समक्ष जादू, मणि, मन्त्र-तन्त्र सभी फीके थे। अद्भुत साहसी ___ महावीरके व्यक्तित्वमे साहस और सहिष्णुताका अपूर्व समावेश हुआ था। सिंह, सर्प जैसे हिंस्र जन्तुओके समक्ष वे निर्भयतापूर्वक उपस्थित हो उन्हे मौन रूपमे उद्बोधित कर सन्मार्गपर लाते थे। जरा, गेग और शारीरिक अवस्थाओके उस घेरेको, जिसमे फंस कर प्राणी हाहाकार करता रहता है, महावीर साहसी बन मृत्यु-विजेताके रूपमे उपस्थित रहते थे। महावीरने बडे साहसके
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साथ परिवर्तित होते हुए मानवीय मूल्योंको स्थिरता प्रदान की और प्राणियोमे निहित शक्तिका उद्घाटन कर उन्हे निर्भय बनाया। उन जैसा अपूर्व साहसी शताब्दियोमे ही एकाध व्यक्ति पैदा होता है। शूलपाणि जैसे यक्षका आंतक और चण्डकौशिक जैसे सर्पको विषज्वाला इनके साहसके फलस्वरूप ही शमनको प्राप्त हुई। अनार्य देशमे साधना करते हुए महावीरके स्वरूपसे अनभिज्ञ व्यक्तियोने उन्हे गालियाँ दी, पाषाण बरसाए, दण्डोसे पूजा की, दश-मशक और चीटियोने काटा, पर महावीर अपने साहससे विचलित न हुए। उनकी अपूर्व सहिष्णुता और अनुपम शान्ति विरोधियोका हृदय परिवर्तित कर देती थी। वे प्रत्येक कष्टका साहसके साथ स्वागत करते, शरीरको आराम देनेके लिये न वस्त्र धारण करते, न पृथ्वी पर आसन विछाकर शयन करते, न अपने लिये किसी वस्तुकी कामना ही करते । उनके अनुपम धैर्यको देखकर देवराज इन्द्र भी नतमस्तक था। सगमदेवने महावीरके साहसकी अनेक प्रकारसे परीक्षा की, पर वे अडिग हिमालय ही बने रहे। लोक-प्रदीप
महावीरके व्यक्तित्वमे अनुपम प्रदीप-प्रकाश उपलब्ध है । उन्होने ससारके घनीभूत अज्ञान-अन्धकारको दूरकर सत्य और अनेकान्तके आलोकद्वारा जननेतृत्व किया था। घरका दीपक घरके कोनेमे ही प्रकाश करता है, उसका प्रकाश सीमित और धुधला होता है, पर महावीर तो तीन लोकके दीपक थे। लोकत्रयको प्रकाशित किया था। महावोर ऐसे दीपक थे, जिसकी ज्योतिके स्पर्शने अगणित दीपोको प्रज्वलित किया था । अज्ञानअन्धकारको हटा जनताको आवरण और बन्धनोको तोड़नेका सन्देश दिया था। उन्होने राग-द्वेष विकल्पोको हटाकर आत्माको अखण्ड ज्ञान-दर्शन चैतन्यरूपमे अनुभव करनेका पथ आलोकित किया था। निश्चयसे देखनेपर आत्मापर बन्धन या आवरण है ही नही । अनन्त चैतन्यपर न कोई आवरण है और न कोई बन्धन । ये सब बन्धन और आवरण आरोपित हैं। जिसके घटमे ज्ञान-दीप प्रज्वलित है, उसके बन्धन और आवरण स्वत क्षीण हैं । सकल्प-विकल्पोका जाल स्वयमेव ही विलीन हो जाता है। करुणामूर्ति
महावीरका सवेदनशील हृदय करुणासे सदा द्रवित रहता था। वे अन्धविश्वास, मिथ्या आडम्बर और धर्मके नामपर होनेवाले हिंसा-ताण्डवसे अत्यन्त द्रवीभूत थे। 'यज्ञीयहिंसा हिंसा न भवति' के नारेको बदलनेका सकल्प ६०६ नोर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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कुलभेद, देश और प्रान्तभेद आदि सभी मानवताके विघातक हैं। तनावका वातावरण और अविश्वासको खाईंको दूर करनेका एकमात्र साधन जनसामान्यको पारस्परिक सहयोग और कल्याणके लिये प्रेरित करना है।
स्वर्गके देव विभूतिमे कितने ही बडे क्यो न हो, उनका स्वर्ग कितना ही सुन्दर और सुहावना क्यो न हो, पर वे मनुष्यसे महान नही। मनुष्यके त्याग और इन्द्रियसयमके प्रति उन्हे भी नतमस्तक होना पडता है। मानव-मानवताके कारण सभी मनुष्य समान है, जन्मसे कोई भी व्यक्ति न बड़ा है, न छोटा। कार्य, गुण, परिश्रम, त्याग, सयम ऐसे गुण हैं, जिनकी उपलब्धिसे कोई भी व्यक्ति महान् बन सकता है। जीवनका यथार्थ लक्ष्य आत्मस्वातन्त्र्यकी प्राप्ति है। कालका प्रवाह अनाहत चला आ रहा है। जीवन क्षण, पल, घडियोमे कण-कण विखर रहा है। पार्श्ववर्ती स्तब्ध वातावरणमे भी सूक्ष्मरूपसे अतीत और ब्यय समाहित है। नव नवीन रूपोमे प्रस्फुटित हो रहा है और वस्तुकी ध्रौव्यता भी यथार्थरूपमे स्थित है। इसप्रकार उत्पादादित्रयात्मकरूप वस्तु आत्मद्रष्टाको तटस्थ वृत्तिकी ओर आकृष्ट करती है और यहो उसे जन कल्याणकी ओर ले जाती है।
तोथंकर महावीर जन्मजात वीतराग थे । उनके व्यक्तित्वके कण-कणका निर्माण आत्मकल्याण और लोकहितके लिये हुआ था। लोककल्याण ही उनका इष्ट था और यही था उनका लक्ष्य । जोवनके प्रथम चरणसे हो उन्होने जनकल्याणके लिये संघर्प आरम्भ किया, पर उनका यह संघर्ष बाह्य शत्रुओसे नही था, अन्तरग काम, क्रोधादि वासनाओंसे था। उन्होने शाश्वत सत्यकी प्राप्तिके लिये राजवैभव, विलास, आमोद-प्रमोद आदिका त्याग किया और जनकल्याणमे सलग्न हो गये । ____ लोककल्याणके कारण ही तीर्थंकर महावीरने अपूर्व लोकप्रियता प्राप्त की थी। वे जिस नगर या ग्रामसे निकलते थे, जनता उनकी अनुयायिनी बन जाती थी। मनुष्य तो क्या; पशु-पक्षी भी उनसे प्रेम करते थे। हिंसक, क्रूर और पिशाच भी अपनी वृत्तियोका त्यागकर महावीरकी शरण ग्रहण करते थे। वे तत्कालीन समाजकी कायरता, कदाचार और पापाचारको दूर करनेके लिये कटिबद्ध थे । अत लोकप्रियताका प्राप्त होना उन्हे सहज था। स्वावलम्बी
महावीरके व्यक्तित्वकी अन्य विशेषताओमे स्वावलम्बनकी वृत्ति भी है। 'अपना कार्य स्वय करो' के वे समर्थक थे। जब साधनाकालमे अपरिचयके ६०८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कारण कुछ अज्ञ व्यक्ति उनका तिरस्कार करते, अपमान करते, शारीरिक यातनाएं देते, उस समय महावीर किसीकी सहायताकी अपेक्षा नही करते थे। वे अपने पुरुषार्थ द्वारा ही कर्मोंका नाश करना चाहते थे। जब इन्द्रने उनसे साधनामार्गमे सहायता करनेका अनुरोध किया, तब वे मौन भाषामे हुए कहने लगे-"देवेन्द्र, तुम भूल रहे हो। साधनाका मार्ग अपने-आपपर विजय प्राप्त करनेका मार्ग है । स्वयकृत कर्मका शुभाशुभ फल व्यक्तिको अकेले ही भोगना पडता है। कर्मावरणको छिन्न करनेके लिये किसी अन्यको सहायता अपेक्षित नहीं है। यदि किसी व्यक्तिको किसी दूसरेके सुख-दुख और जीवन-मरणका कर्ता माना जाय, तो यह महान् अज्ञान होगा और स्वयंकृत शुभाशुभ फल निष्फल हो जायेंगे। यह सत्य है कि किसी भी द्रव्यमे परका हस्तक्षेप नही चलता है। हस्तक्षेपको भावना हो आक्रमणको प्रोत्साहित करती है। यदि हम अपने मनसे हस्तक्षेप करनेकी भावनाको दूर कर दे, तो फिर हमारे अन्तस्मे सहजमे ही अनाक्रमणवृत्ति प्रादुर्भूत हो जायगी। माक्रमण प्रत्याक्रमणको जन्म देता है और यह आक्रमण-प्रत्याक्रमणकी परम्परा विश्वशान्ति और आत्मिक शान्तिमे विघ्न उत्पन्न करती है।" इस प्रकार तीर्थकर महावीरके व्यक्तित्वमें स्वावलम्वन और स्वतन्त्रताको भावना पूर्णतया समाहित थी। अहिंसक
महावीरके व्यक्तित्वका सम्पूर्ण गठन ही अहिंसाके आधारपर हुआ है। मनुष्यको जैसे अपना अस्तित्व प्रिय है, अपना सुख अभीष्ट है, उसी तरह अन्य प्राणियोको भी अपना अस्तित्व और सुख प्रिय है। अहिंसक व्यक्तित्वका प्रथम दृष्टिबिन्दु सहअस्तित्व और सहिष्णुता है । सहिष्णुताके विना सहअस्तित्व सम्भव नही है । ससारमे अनन्त प्राणी है और उन्हे इस लोकमे साथ-साथ रहना है। यदि वे एक दूसरेके अस्तित्वको आशकित दष्टिसे देखते रहे, तो अस्तित्वका संघर्ष कभी समाप्त नही हो सकता है । सघर्प अशान्तिका कारण है और यही हिंसा है।
जीवनका वास्तविक विकास अहिंसाके आलोकमे ही होता है । वैर-वैमनस्य द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, अहकार, लोभ-लालच, शोषण-दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाजको ध्वसात्मक विकृतियाँ है, वे सब हिसाक हा रूप है । मनुष्यका अन्तस् हिंसाके विवध प्रहारोसे निरन्तर घायल होता रहता है। इन प्रहारो का शमन करनेके लिये अहिंसाकी दष्टि और अहिंसक जीवन ही आवश्यक है। महावीरने केवल अहिंसाका उपदेश हो नही दिया, 48 उसे अपने जीवनमे उतारकर शत-प्रतिगत यथार्थता प्रदान की। उन्हान जाहता
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के सिद्धान्त और व्यवहारपक्षको एक करके दिखला दिया । विरोधीसे विरोधीके प्रति भी उनके मनमे घृण नही थी, द्वेष नही था वे उत्पीडक एव घातकके प्रति भी मगलकल्याणकी पवित्र भावना रखते थे । सगमदेव और शूलपाणि यक्ष जैसे उपसर्ग देनेवाले व्यक्तियो के प्रति भो उनके नेत्रोमे करुणा थी । तीर्थंकर महावोरका अहिंसक जीवन क्रूर और निर्दय व्यक्तियो के लिये भी आदर्श था ।
महावीरका सिद्धान्त था कि अग्निका शमन अग्निसे नही होता, इसके लिये जलकी आवश्यकता होती है । इसीप्रकार हिसाका प्रतिकार हिसासे नही, अहिंसासे होना चाहिये । जब तक साधन पवित्र नही, साध्यमे पवित्रता आ नही सकती । हिंसा सूक्ष्मरूपमे व्यक्तिके व्यक्तित्वको अनन्त पतमे समाहित है । उसे निकालनेके लिये सभी प्रकारके विकारो, वासनाओका त्याग आवश्यक है । यही कारण है कि महावीरने जगतको बाह्य हिसासे रोकने के पूर्व अपने अन्तरमे विद्यमान राग-द्वेषरूप भावहिसाका त्याग किया और उनके व्यक्तित्वका प्रत्येक अणु अहिसाकी ज्योतिसे जागृत हो उठा। महावीरने अनुभव किया कि समस्त प्राणी तुल्य शक्तिधारी है, जो उनमे भेद-भाव करता है, उनकी शक्तिको समझने मे भूल या किसी प्रकारका पक्षपात करता है, वह हिंसक है। दूसरो को कष्ट पहुँचाने के पूर्व ही विकृति आ जानेके कारण अपनी ही हिंसा हो जाती है ।
सचमुच मे अहिसा के साधक महावीरका व्यक्तित्व धन्य था और धन्य थी उनकी सचरणशक्ति । वे बारह वर्षोंतक मौन रहकर मोह-ममता का त्याग कर अहिंमाकी साधनामे सलग्न रहे । महावीरके व्यक्तित्वको प्रमुख विशेषताओमे उनका अहिसक व्यक्तित्व निर्मल आकाशके समान विशाल और समुद्रके समान अतल स्पर्शी है । उनकी अहिंसामे आग्रह नही था, उद्दण्डता नही थी, पक्षपात नही था और न किसी प्रकारका दुराव या छिपाव ही था । दया, प्रेम और विनम्रताने उनकी अहिसक साधनाको सुसस्कृत किया था ।
क्रातिद्रष्टा
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तीर्थंकर महावीरके व्यक्तित्वमे क्रान्तिकी चिनगारी आरम्भसे ही उपलब्ध होती है । वे व्यवहारकुशल, स्पष्ट वक्ता, निर्भीक साधक, अहिंसक, लोककल्याणकारी और जनमानसके अध्येता थे । चाटुकारिताकी नीतिसे वे सदा दूर थे । उनके मनमे आत्मविश्वासका दीपक सदा प्रज्वलित रहता था । धर्मके नामपर होनेवाली हिंसाए और समाजके सगठनके नामपर विद्यमान भेद-भाव एव आत्मसाधना के स्थानपर शरीर साधनाकी प्रमुखताने महावीरके मनमे किशोरावस्थासे ही क्रान्तिका बीज - वपन किया था । रईसो और अमीरोके यहाँ दास-दासीके रूपमे शोषित नर-नारी महावीरके हृदयका अपूर्वं मथन करते
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६१० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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थे । फलतः वे उस युगको प्रमुख धर्म धारणा यज्ञ और क्रिया-काण्डके विरोधी थे । उन दिनोमे नर और नारी नीति और धर्मका आंचल छोड़ चुके थे । वे दोनो ही कामुकताके पकमें लिप्त थे । नारियोमे पातिव्रत, शील और सकोचकी कमी हो रही थी । वे बन्धनोको तोड और लज्जाके आवरणको फेक स्वच्छन्द बन चुकी थी। पुरुषोमे दानवी वासनाका प्रावल्य था । वे आचार-विचार-शीलसयमका पल्ला छोड़ वासना पूर्तिको ही धर्म समझते थे। चारो ओर बलात्कार और अपहरणका तूफान उठ खडा हुआ था । चन्दना जैसो कितनी नारियोका अपहरण अहर्निश हो रहा था। जनमानसका धरातल आत्माकी धवलतासे हटकर शरीरपर केन्द्रित हो गया था। भोग-विलास और कृत्रिमताका जीवन हो प्रमुख था । मदिरापान, द्यूतक्रोडा, पशुहिंसा, आदि जीवनको साधारण बातें थी | बलिप्रथाने धर्मके रूपको और भी विकृत कर दिया था ।
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भौतिकताके जीवनकी पराकाष्ठा थी । धर्म और दर्शनके स्वरूपको औद्धत्य, स्वैराचार, हठ और दुराग्रहने खण्डित कर दिया था । वर्ग स्वार्थकी दूषित भावनाओने अहिंसा, मैत्री और अपरिग्रहको आत्मसात् कर लिया था । फलत समाजके लिये एक क्रान्तिकारी व्यक्तिको आवश्यकता थी । महावीरका व्यक्तित्व ऐसा ही क्रान्तिकारी था । उन्होने मानव जगतमे वास्तविक सुख और शान्तिको धारा प्रवाहित की ओर मनुष्यके मनको स्वार्थं एव विकृतियोसे रोककर इसी धरतीको स्वर्ग बनानका सन्देश दिया । महावीरने शताब्दियोसे चली आ रही समाज-विकृतियो को दूरकर भारतको मिट्टीको चन्दन बनाया । वास्तवमे महावीरके क्रान्तिकारी व्यक्तित्वको प्राप्तकर धरा पुलकित हो उठी, शत-शत वसन्त खिल उठे । श्रद्धा, सुख और शान्तिकी त्रिवेणी प्रवाहित होने लगी । उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्वसे कोटि-कोटि मानव कृतार्थ हो गये । निस्सन्देह पतितो और गिरों को उठाना, उन्हें गले लगाना और करस्पर्श द्वारा उनके व्यक्तित्वको परिष्कृत कर देना यही तो क्रान्तिकारीका लक्षण हे । महावीरको क्रान्ति जड नही थी, सचेतन थी और थी गतिशाल । जो अनुभवसिद्ध ज्ञानके शासन मे चल मुक्त चिन्तन द्वारा सत्यान्चेपण करता है, वही समाजमे क्रान्ति ला सकता है।
पुरुषोत्तम
महावीर पुरुषात्तम थे। उनके बाहा और आभ्यन्तर दोनो ही प्रकारके व्यक्तित्वो अलौकिक गुण समाविष्ट थे । उनका रूप त्रिभुवनमोहक, तेज सूर्यको भी हतप्रभ बनानेवाला और मुख सुर-नर-नागनयनको सहर करने वाला था । उनके परमोदारिक दिव्य शरीरकी जैसी छटा और आभा थी,
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उससे भी कही अधिक उनकी आत्माका दिव्य तेज था । अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य गुणोके समावेशने उनके आत्मतेजकोअलौकिक बना दिया था। निष्कामभावसे जनकल्याण करनेके कारण उनका आत्मबल अनुपम था। वे ससार-सरोवरमे रहते हुए भी कमलपत्रवत् निर्लिप्त थे । उनका यह व्यक्तित्व पुरुषोत्तम विशेषणसे विशिष्ट किया जा सकता है ।
यो तो महावीरके व्यक्तित्वमे एक महामानवके सभी गुण प्राप्य थे, पर वे एक सच्चे ज्ञानी, मुक्ति-नेता, कुशल उपदेष्टा और निर्भीक शिक्षक थे। जो भी उनकी वाणी सुनता, वही उनकी ओर आकृष्ट हो जाता । वे ऐसे ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी थे, जिन्हे 'घोरवभचेर' कहा गया है । ब्रह्मचर्यकी उत्कृष्ट साधना और अहिंसक अनुष्ठानने महावीरको पुरुषोत्तम बना दिया था। तप पूत भगवान् महावीर तीर्थकर पुरुषोत्तम थे । श्रेष्ठ पुरुषोचित सभी गुणोका समवाय उनमे प्राप्त था। निःस्वार्थ
महावीरके व्यक्तित्वमे निस्वार्थ सावकके समस्त गुण समवेत है । वे तपश्चरण और उत्कृष्ट शुभ अध्यवसायके कारण निरन्तर जागरूक थे। उन्हे सभी प्रकारको ऋद्धि-सिद्धियाँ ऊपलब्ध थी,पर वे उनसे थे निलिप्त, आत्मकेन्द्रित, शान्त और वीतराग । आत्मापर कठोर सयमकी वृत्ति रखनेके कारण उनमे विश्व बन्धुत्व समाहित था।
महावीर न उपसर्गोसे ही घबराते थे और न परीषह सहन करनेसे ही । वे सभी प्रकारके स्वार्थ और विकारोको जीतकर स्वतन्त्र या मुक्त होना चाहते थे । अनादिकालसे चैतन्य-ज्योति आवरणोसे आच्छादित है । जिसने इन आवरणोको हटाकर बन्धनोको तोडा है, जो सकल्प-विकल्पोसे मुक्त हुआ है और जिसने शरीर और इन्द्रियोपर पडी हुई परतोको हटाया है, वही नि स्वार्थ जीवन यापन कर सकता है। तीर्थंकर महावीरके व्यक्तित्वमे यह निस्वार्थको प्रवृत्ति पूर्णतया वर्तमान थी।
वस्तुत तीर्थंकर महावीरके व्यक्तित्वमे एक महामानवके सभी गुण विद्यमान थे। वे स्वयबुद्ध और निर्भीक साधक थे और अहिंसा ही उनका साधनासूत्र था। उनके मनमे न कुण्ठाओको स्थान प्राप्त था और न तनावोको। प्रथम दर्शनमे ही व्यक्ति उनके व्यक्तित्वसे प्रभावित हो जाता था। यही कारण है कि इन्द्रभूति गौतम जैसे तलस्पर्शी ज्ञानी पण्डित भी महावीरके दर्शनमात्रसे प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गये । ६१२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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यह सार्वजनीन सत्य है कि यदि व्यक्ति के मुखपर तेज, छविमे सोन्दयं, आंखो मे आभा, ओठो पर मन्द मुस्कान, शरीरमे चारुता और अन्तरंगमे निश्छल प्रेम हो, तो वह सहजमे ही अन्य व्यक्तियोको आकृष्ट कर लेता है । महावीरके वाह्य और अन्तरग दोनो ही व्यक्तित्व अनुपम थे । उनका शारीरिक गठन, सस्थान और आकार जितना उत्तम था उतना ही वीतरागताका तेज भी दीप्ति युक्त था । वृषभके समान मासल स्कन्ध, चक्रवर्तीके लक्षणों से युक्त पदकमल, लम्बी भुजाएँ, आकर्षक सोम्य चेहरा उनके वाह्य व्यक्तित्वको भव्यता प्रदान करते थे। साथ ही तप साधना, स्वावलम्बनवृत्ति, श्रमणत्वका आचार, तपोपलब्धि, सयम, सहिष्णुता, अद्भुत साहस, आत्मविश्वास आदि अन्तरग गुण उनके आभ्यन्तर व्यक्तित्वको आलोकित करते थे । महावीर धर्मनेता, तीर्थंकर, उपदेशक एव ससारके मार्ग-दर्शक थे। जो भी उनकी शरण या छत्रच्छायामे पहुँचा, उसे ही आत्मिक शान्ति उपलब्ध हुई ।
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निस्सन्देह वे विश्वके अद्वितीय क्रान्तिकारी, तत्वोपदेशक और जननेता थे । उनकी क्रान्ति एक क्षेत्र तक सीमित नही थी। उन्होने सर्वतोमुखी क्रान्तिका शखनाद किया, आध्यात्मिक, दर्शन, समाजव्यवस्था, धर्मानुष्ठान, तपश्चरण यहाँ तकको भाषाके क्षेत्रमे भी अपूर्व क्रान्तिको । तत्कालीन तापसोकी तपस्याके वाह्यरूपके स्थान मे आभ्यन्तररूप प्रदान किया । पारस्परिक खण्डन- मण्डन मे 1 निरत दार्शनिकोको अनेकान्तवादका महामन्त्र प्रदान किया । सद्गुणो की अवमानना करने वाले जन्मगत जातिवादपर कठोर प्रहारकर गुणकर्माधारपर जातिव्यवस्थाका निरूपण किया । इन्हो ने नारियोकी खोयी हुई स्वतन्त्रता उन्हे प्रदान की । इस प्रकार महावीरका व्यक्तित्व आद्यन्त क्रान्ति, त्याग, तपस्या, सयम, अहिंसा आदि से अनुप्राणित है ।
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छिपा नही रह सकता है। वस्तुत मैत्री भावना समाजकी परिधिको विकसित करती है, जिससे आत्मामे समभाव उत्पन्न होता है ।
प्रमोद-भावना
गुणीजन को देखकर अन्त करणका उल्लसित होना प्रमोद - भावना है । किसीकी अच्छी बातको देखकर उसकी विशेषता और गुणोका अनुभव कर हमारे मनमे एक अज्ञात ललक और हर्षानुभूति उत्पन्न होती है । यही आनन्दकी लहर परिवार और समाजको एकताके सूत्रमे आबद्ध करती है । प्राय देखा जाता है कि मनुष्य अपनेसे आगे बढे हुए व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या करता है और इस ईर्ष्यासे प्रेरित होकर उसे गिरानेका भी प्रयत्न करता है । जब तक इस प्रवृत्तिका नाश न हो जाय, तबतक अहिंसा और सत्य टिक नही पाते । प्रमोदभावना परिवार और समाजमे एकता उत्पन्न करती है । ईर्ष्या और विद्वेष पर इसी भावनाके द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है। ईर्ष्याकी अग्नि इतना विकराल रूप धारण कर लेती है कि मनुष्य अपने भाई और पुत्रके भी उत्कर्ष - को फूटी आंख नहीं देख पाता । यही ईर्ष्याकी परिणति एव प्रवृत्ति ही परिवार और समाजमे खाई उत्पन्न करती है । समाज और परिवारको छिन्न-भिन्नता ईर्ष्या, घृर्णा और द्वेषके कारण ही होती है । प्रतिस्पर्धावश समाज विनाशके कगारकी ओर बढता है । अत 'प्रमोद - भावना' का अभ्यास कर गुणोके पारखी बनना और सही मूल्याकन करना समाजगठनका सिद्धान्त है । जो स्वयं आदरI सम्मान प्राप्त करना चाहता है, उसे पहले अन्य व्यक्तियोका आदर-सम्मान करना चाहिए। अपने गुणोके साथ अन्य व्यक्तियोके गुणोकी भी प्रशसा करनी चाहिए। यह प्रमोदकी भावना मनमे प्रसन्नता, निर्भयता एव आनन्दका सचार करती है और समाज तथा परिवारको आत्मनिर्भर, स्वस्थ और सुगठित बनाती है ।
करुणा भावना
करुणा मनकी कोमल वृत्ति है, दुखी और पीडित प्राणी के प्रति सहज अनुकम्पा और मानवीय संवेदना जाग उठती है । दु खोके दुखनिवारणार्थं हाथ बढते हैं और यथाशक्ति उसके दुखका निराकरण किया जाता है ।
करुणा मनुष्यकी सामाजिकताका मूलाधार है । इसके सेवा, अहिंसा, दया, सहयोग, विनम्रता आदि सहस्रो रूप सभव हैं। परिवार और समाजका आलम्बन यह करुणा भावना ही है ।
मात्राके तारतम्यके कारण करुणाके प्रमुख तीन भेद हैं-१ महाकरुणा, २ अतिकरुणा और, ३ लघुकरुणा । महाकरुणा निस्वार्थभावसे प्रेरित
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३. द्रव्यनिक्षेप
जो वस्तुभाविपर्यायके प्रति अभिमुख है उसे द्रव्यनिक्षेप कहते हैं । इसके दो भेद हैं :- (१) मागम द्रव्यनिक्षेप और (२) नोआगम द्रव्यनिक्षेप | जीवविषयक शास्त्रका ज्ञाता किन्तु उसमे अनुपयुक्त जीव आगम द्रव्यजीव है । नोआगमके तीन भेद हैं - (१) ज्ञायकशरीर, (२) भावि और (३) तद्व्यतिरिक्त । उस ज्ञाता के भूत, भावि ओर वर्तमान शरीरको ज्ञायकशरीर कहते. हैं । भाविपर्यायको भावि नोभागम द्रव्यनिक्षेप कहा जाता है । यथा भविष्यमे होनेवालेको अभी राजा कहना । तद्व्यतिरिक्तके दो भेद हैं -कर्म और नोकर्म । कर्मके ज्ञानावरणादि अनेक भेद हैं और शरीरके पोषक आहारादिरूप पुद्गल द्रव्य नोकर्म है ।
४. भावनिक्षेप
वस्तुको वर्तमान पर्यायको भावनिक्षेप कहते हैं । वस्तुके पर्याय स्वरूपको भाव कहा जाता है । यथा स्वर्गके अधिपति साक्षात् इन्द्रको इन्द्र कहना भावनिक्षेप है ।
अतीत और अनागत पर्याय भी स्वकालकी अपेक्षा वर्तमान होनेसे भावरूप है। जो पर्याय पूर्वोत्तरकी पर्यायोमे अनुगमन नही करती उसे वर्तमान कहते है । यही भावनिक्षेपका विषय है । द्रव्यनिक्षेपके समान भावनिक्षपके भी दो भेद है: -- (१) आगम भावनिक्षेप और (२) नोआगम भावनिक्षेप । जीवादिविषयक शास्त्रका ज्ञाता जब उसमे उपयुक्त होता है तो उसे आगमभाव कहते हैं । और जीवादि पर्यायसे युक्त जीवको नोआगमभाव कहते हैं ।
निक्षेपोसे बोध्य अर्थका सम्यक् बोध होता है । आरम्भके तीन निक्षेप द्रव्यार्थिकनयके निक्षेप है और भाव पर्यायार्थिकनयका निक्षेप है
प्रमाण, नय ओर निक्षेप तीनो ही ज्ञानसाधन हैं । इन तीनोके द्वारा द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुकी पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है ।
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दशम परिच्छेद
धर्म और आचार-मीमांसा जोवन और धर्म
जीवन जड़ नही, गतिमान है । अत. आवश्यक है कि उस गतिको उचित ढंगसे इस भांति नियमित और नियन्त्रित किया जाय कि जीवनका अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो सके। जीवनका उद्देश्य केवल जीना नहीं है, बल्कि इस रूपमे जीवन-यापन करना है कि इस जीवनके पश्चात् जन्म और मरणके चक्रसे छुटकारा मिल सके । आज सुविचारित क्रमबद्ध और व्यवस्थित जीवन-यापनकी अत्यन्त आवश्यकता है। धर्माचरण व्यक्तिको लौकिक और पारलौकिक सुखप्राप्तिके साथ आकुलता और व्याकुलतासे मुक्त करता है । वह जीवन कदापि उपादेय नही, जिसमे भोगके लिए भौतिक वस्तुओकी प्रचुरता समवेत की जाय । जिस व्यक्तिके जीवनमे भोगोका बाहल्य रहता है और त्यागवृत्तिकी कमी रहती है, वह व्यक्ति अपने जीवनमें सुखका अनुभव नही कर सकता । भोग जीवनका
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स्वार्थपूर्ण और सकीर्ण दृष्टिकोण है। ऐसा जीवन उच्चतर आदर्शका प्रतिनिधित्व नही कर सकता, क्योकि सर्वोच्च ऐश्वर्य भी शने. शनै नष्ट होते-होते एक दिन बिलकुल नष्ट हो जाता है और अभावजन्य आकुलताएँ व्यक्तिके जीवनको अशान्त, अतृप्त और व्याकुल बना देती है ।
मनुष्य जन्म लेता है, समस्त सुखोपर अपना एकाधिकार करनेका प्रयत्न भी करता है । परिवार सहित सर्वोच्च ऐश्वर्य एव सुखोका भोग भी करता है, पर एक दिन ऐसा आता है जब वह सब कुछ यहाँका यही छोड मृत्युको प्राप्त होता है । अत यह सदैव स्मरणीय है कि सासारिक मुख ऐश्वर्य और भोग क्षणभगुर है। इनका यथार्थ उपयोग त्यागवृत्तिवाला व्यक्ति ही कर सकता है । जिसने शाश्वत, चिरन्तन आत्म-सुखकी अनुभूति प्राप्त को है, वही व्यक्ति ससारके विलास - वैभवोके मध्य निर्लिप्त रहता हुआ उनका उपभोग करता है ।
शाश्वत सुख अथवा परमशक्ति तक पहुँचनेका मार्ग ससारके मध्यसे ही है । चिरन्तन आत्म-सुख और अशाश्वत भौतिक सुख परस्परमे अविच्छिन्नरूपसे सम्बद्ध दिखलाई पडते है, पर जिन्होने अपनी अन्तरात्मा मे प्रकाशको प्राप्त कर लिया है, वे व्यक्ति मोहको जडोमे बद्ध नही रह पाते । वस्तुत मानवजोवनका मुख्य उद्देश्य आत्मसुख प्राप्त करना है । पर इस सुखकी उपलब्धि इस शरीरके द्वारा हो करनी है । अत सयम, अहिंसा, तर और सावनारूप धर्मका आश्रय लेना परम आवश्यक है ।
मानव जीवनके प्रमुख चार उद्देश्य है. - (१) धर्म, (२) अर्थ, (३) काम और (४) मोक्ष | मोक्ष परमलक्ष्य है । इस लक्ष्य तक पहुँचनेका साघन धर्मं है । काम लौकिक जीवनका उपादेय तत्त्व है और इसका साधन अर्थ है । अर्थ मानवको स्वाभाविक प्रवृत्तियोकी ओर प्रेरित करता है । वह धनार्जनको इच्छापूर्ति के लिए उपयोगी मानते हुए भी अन्याय, अत्याचार एव पर-पीडनको स्थान नही देता । यह मनुष्य की पाशविक प्रवृत्तियोका नियंत्रण कर उसे मनुष्य बनने के लिए अनुप्रेरित करता है ।
सामाजिक व्यवस्थामे धर्म अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एव प्रभावशाली अवधारणा है। धर्म मानवके समस्त नैतिक जीवनको नियन्त्रित करता है । मनुष्यकी अनेक प्रकारकी इच्छाएँ एव अनेक सघर्षात्मक आवश्यकताएँ होती हैं। धर्मका उद्देश्य इन समस्त इच्छाओं तथा आवश्यकतोको नियमित एव व्यवस्थित करना है । अतएव धर्म वह है जो मानव जीवनको विविधताओ, भिन्नताओ, अभिलाषाओ, लालसाओ, भोग, त्याग, मानवीय आदर्श एव मूल्योको नियमबद्ध
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कर एकता और नियमितता प्रदान करे । वास्तवमे धर्म जीवनका एक ऐसा तरीका है जो कार्यों और क्रियाओको सयोजित और नियमित करता है। धर्मके अभावमे मानव का जोवन मनुष्य-जीवन नही रह जाता है, अपितु वह पशुजीवनकी कोटिमे सम्मिलित हो जाता है। ___ मानव-जीवनमे चरित्रका अपना स्थान है। जीवनको ऊंचाई केवल ज्ञान या विश्वाससे नही आंकी जा सकती। दिव्यताको ओर होनेवाली यात्राका मुख्य मापदण्ड आचार ही है। दैनिक जीवनमे यह सभीको दिखलाई पडता है कि विश्वाम और ज्ञान तबतक जीवनमे साकार नही हो पाते, जबतक मनुष्य अपने आचार-व्यवहारको मानवोचित रूप प्रदान नहीं करता। सन्तोष, क्षमा, मात्म-संयम, इन्द्रिय-निग्रह, दया, अहिंसा और सत्य ऐसे मार्ग हैं, जिनका अनुसरण करनेसे व्यक्ति और समाज मुम-शान्ति प्राप्त करता है। ___ मनुप्यको विविध रुचियो, इच्छाओ, सघर्षात्मक आवश्यकताओ एव उत्तरदायित्वोके वीच सामञ्जस्य उत्पन्न करनेका कार्य आचारात्मक धर्म ही करता है। व्यक्ति या समाजके विभिन्न मदस्य जव धर्मके निर्देशानुसार अपने करणीय कत्र्तव्यको निश्चित ढगसे तथा निष्ठापूर्वक करते है, तो समाजमे सुव्यवस्था, शान्ति और समृद्धि सरल हो जाती है। अर्थ और कामका नियन्त्रक भी धर्म है। केवल अर्थ और केवल काम जीवनमे भोग तो उत्पन्न कर सकते हैं, पर जीवनको उदात्त नही बना सकते । अतएव मानव-जीवनका साफल्य नियन्त्रण, निग्रह, त्याग और सन्तोषपर ही निर्भर है।
ससार एक अनन्त अविगम प्रवाह है और नाना जीव इस प्रवाहमे अनादि कालसे अनन्तकाल तक धर्मविमुग्व हो लुढकते और टक्करें खाते रहते हैं। जीवनकी गति कही भी विधान्ति प्राप्त नहीं करती। सदाचार, विश्वास और तत्त्वज्ञान हो मानव-जीवनमे व्यवस्था, शान्ति और बन्धनोसे मुक्ति कराते हैं। क्षणिक जीवनके बदले गाश्वत जीवनका लाभ होता है और ससारके निस्सार सुख-दुखोसे ऊपर उठकर आत्मा अनन्त सुखमयमुक्तिका लाभ करती है। अत सक्षेपमे जीवनको सुव्यवस्थित और नियन्त्रित करनेके लिए धर्मको परम नावश्यकता है। धर्म :व्युत्पत्ति एवं स्वरूप
धर्मशन्द + मन्मे निष्पन्न है। "धीयते लोकोऽनेन, घरति लोक वा धर्म अथवा इष्टे स्थाने धत्ते इति धर्म" अर्थात् जो इष्ट स्थान-मुक्तिमे धारण कराता है अथवा जिसके द्वारा लोक श्रेष्ठ स्थानमे धारण किया जाता है अथवा जो लोकको श्रेष्ठ स्थानमे धारण करता है, वह धर्म है। धर्म सुखका कारण है।
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धर्म और सुखमे कार्य-कारणभाव या दीपक और प्रकाशके समान सहभावीभाव है, अर्थात् जहाँ दीपक है वहाँ प्रकाश अवश्य रहता है और जहाँ दीपक नही, वहाँ प्रकाश भी नही रहता। इसी प्रकार जहाँ धर्म होगा वहाँ सुख अवश्य रहेगा और जहाँ धर्म नही होगा वहाँ सुख भी नही रहेगा।
जो धारण किया जाय या पालन किया जाय, वह धर्म है। धर्मका एक अर्थ वस्तुस्वभाव भी है। जिस प्रकार अग्निका धर्म जलाना, जलका शीतलता, वायुका बहना धर्म है, उसी प्रकार आत्मा का चैतन्य धर्म है। वस्तुस्वभावरूप धर्म है तो यथार्थ पर इसकी उपलब्धि आचारके बिना सम्भव नही । जिस आचार द्वारा अभ्युदय और नि.श्रेयस-मुक्तिकी प्राप्ति हो, वह धर्म कहलाता है। अभ्युदयका अर्थ लोक-कल्याण है और नि.श्रेयसका अर्थ कर्मबन्धनसे मुक्त हो स्वस्वरूपकी प्राप्ति है।
स्वभावरूप धर्म जड और चेतन सभी पदार्थोमे समाविष्ट है, क्योकि इस विश्वमे कोई ऐसी वस्तु नही है, जिसका कोई न कोई स्वभाव न हो, पर आचाररूप धर्म केवल चेतन आत्मामे पाया जाता है। अत: धर्मका संबंध आत्मासे है। वस्तु स्वभावका विवेचन चिन्तनात्मक होनेसे दर्शन-केटिमें भी प्रविष्ट हो जाता है और आत्मा, लोक-परलोक, विश्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व प्रभृति प्रश्नोका उससे समाधान अपेक्षित हाताहै । वस्तुत. धर्म आत्माकोपरमात्मा बननेका मार्ग बतलाता है । इस मार्गके निरूपणक्रममे द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्त्व आदिके स्वभावकी जानकारी भी आवश्यक है। ज्ञाता व्यक्ति ही सम्यक् आचार द्वारा आत्मासे परमात्मा वननेके मार्गको प्राप्त करता है। जिस प्रकार कुशल स्वर्णकारको स्वर्णके स्वभाव और गुणकी भली-भांति पहचान होती है, तथा स्वर्णशोधनकी प्रक्रिया भी जानता है, वही स्वर्णकार स्वर्णको शुद्ध कर सकता है। इसी प्रकार जिस आत्म-शोधकको आत्मा और कर्मोके स्वरूप तथा विभावपरिणतिजन्य उनके सयोगकी जानकारी है वही आत्मा परमात्मा बननेमे सफल होतो है। मनुष्यके विचार भी आचारसे निर्मित होते है और विचारोंसे निष्ठा या श्रद्धा उत्पन्न होती है।
धर्मकी उपयोगिता कर्मनाश और प्राणियोको ससारके दु खसे छुडाकर सुख प्रासिके लिए है। इस सुखकी प्राप्ति तबतक सम्भव नही है जबतक कर्मबन्धनसे छुटकारा प्राप्त न हो । अत. जो कर्म-बन्धका नाशक है वह धर्म है। संसारमे जो सुख है जिसे हम ऐन्द्रयिक सुख कहते हैं वह भी यथार्थमे सुख नहीं है।' सुखकी प्राप्ति और दु खसे छुटकारा कर्म-बन्धनका नाश किये बिना सम्भव नहीं ४८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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है । सच्चा धर्म वही है जो कर्मवन्धनका नाश करा सके। सभी आत्मअस्तित्ववादी विचारक आत्मा, परलोक और पुनर्जन्म स्वीकार करते है । शरीर जड है, जो मृत्युके पश्चात् भी रहता है, पर आत्माके निकलते ही उसमे निष्क्रि यता आ जाती है और इन्द्रियो द्वारा जानने-देखनेका कार्य बन्द हो जाता है । इसका प्रधान कारण यह है कि शरीरमेसे चैतन्य धर्मका विलयन हो गया है । यह आत्मा ही ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता आदि गुणोसे सम्पन्न है । इसी कारण इन्द्रियोके माध्यमसे जानने-देखनेकी क्रिया सम्पन्न होती है । ये विभिन्न क्रियाएं शरीर या इन्द्रियोका धर्म नही है । ये तो आत्माकी क्रियाएं है । आत्माके शरीरसे पृथक होते ही चेतनाको क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं । अतः शाश्वत तत्त्व आत्मा है और उसके गुण धर्म है ।
जिस सुखको चाहमे ससारके प्राणी भटकते हैं, वह सुख भी जडका धर्म नही, चेतनका ही धर्म है । यत. मैं सुखी हूं इस प्रकारकी प्रतीति आत्माके ज्ञानगुणके बिना सम्भव नही । इसलिए सुख ज्ञानका ही सहभावो धर्म है। स्पष्टीकरण - के लिए यो कहा जा सकता है कि घट पट आदि पदार्थोंको देखकर जो ज्ञान होता है, वह ज्ञान घट-पट आदि पदार्थों का धर्म नही है । हाँ, ज्ञानके साथ उनका ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध आवश्यक है । इसी प्रकार हमे अपने अनुकूल वस्तुकी प्राप्तिसे सुख और प्रतिकूल वस्तुकी प्राप्तिसे दुखका जो अनुभव होता है, वह सुख या दु ख अनुकूल या प्रतिकूल वस्तुका धर्म नही है । ये वस्तुएँ हमारे सुख या दुखमे निमित्तमात्र अवश्य हैं, पर सुख या दुखका अस्तित्व स्वय हमारे भीतर विद्यमान है । सुखका खजाना कही दूसरी जगहसे लाना नही है । यह तो हमारे भीतर ही छिपा हुआ है । जो सुखकी खोजमे इधर-उधर भटकते हैं वे ही दुखका कारण बनते हैं ।
प्राय यह देखा जाता है कि जो जिसे प्राप्त है, वह उसमे सुखी नही है । सुखकी प्राप्तिका इच्छुक व्यक्ति प्राप्त से सन्तुष्ट न होकर अप्राप्तके लिए प्रयत्नशील है । केवल प्राप्तिका यत्न करनेसे ही इष्ट और अभिलषित वस्तुएं उपलब्ध नही होती, तथा जो प्राप्त होती है उनसे भी उसकी तृष्णा वृद्धिगत होती जाती है, जैसे जलती हुई अग्निमे इन्धन डालनेसे अग्नि बढती है । जिस विषय सेवनको सुख माना है, उसके अतिसेवनसे व्यक्तिकी शक्ति क्षीण होती है और अनेक रोगोका ग्रास बनता है । भोगोके समान ही भोग-सामग्रीका साधन अर्थ भी सुखके स्थानपर दुखका ही कारण बनता है और जीवनभर मनुष्यसे दुष्कर्म कराता है | अतः ससारमे दुख है ।
बिना कारण के कार्यकी उत्पत्ति नही होती । उपादान और निमित्त कारण मिलकर ही कार्यके निष्पादक हैं । अतएव ससारमे दु खके अस्तित्त्वका मो
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कोई हेतु अवश्य है । जोवके ज्ञान और सुख धर्म है, पर इन दोनोकी जीवमे कमी देखी जाती है। निचार करनेपर दुःखका हेतु जोधका अज्ञान, अश्रद्धा
और मिथ्याचरण हैं । अनादिकालसे यह प्राणी अतानके वशीभूत होकर इतना बहिर्दष्टि बन गया है और अन्तप्टिसे विमुख हो गया है कि इसे अपने स्वरूपको जाननेकी इच्छा नही होती। जिस शरीर के साथ उसका जन्म और मरण होता है, उसे ही अपना समझकर उसोकी चिन्ता और सवर्द्धनमे अपना समस्त जीवन व्यतीत करता है। इस प्राणोने कभी इस बातपर गम्भीरतासे विचार नही किया कि मैं शरीरसे भिन्न स्वतन्त्र आत्म तत्त्व हूँ। ज्ञान और सुखके निमित्तोको ही ज्ञात कर उन्हे हो परमार्थ समझ लिया गया और ज्ञान एव सुखके परमाय-स्त्रकाका जानने का चेष्टा नही का तया न इन्हे प्राप्त करने का प्रयत्न ही किया।
जोवको परपदार्थालाकनको यह दृष्टि निमित्तावोन दष्टि है। निमितको हो उसने अपना सर्वस्व समझा और उपादानकी ओर लक्ष्य नहीं दिया। उपादानकी ओर यदि कभी दृष्टि गई तो उसे भी निमित्तोके अधीन समझा । फलत यह सदा बाहरकी ओर हो देखता रहा, भीतरको ओर नहो । इसने कर्मजन्य अवस्था या पर्यायको हो सब कुछ समझा है। यह इस वातको भूले हुए है कि द्रव्यकर्म उसकी भूलके परिणाम है। राग, द्वेष ओर मोहरूप परिणाम यह जीव उत्पन्न न करता तो द्रव्यकर्मोका बन्थ् ही नहीं होता। यदि प्राणो स्वभाव और विभावपरिणत्तिको पूर्णरूपसे समझ जाय और अपनी परिणतिके प्रति सावधान हो जाय, तो पूर्वबद्ध द्रव्यकर्मोका उदय प्राणीकी परिणतिको विकृत नहीं कर सकता । राग, द्वेष और मोहको त्रिपुटोसे विकृति उत्पन्न होती है और विकृतिसे बन्ध होता है । तथ्य यह है कि जीवके द्वारा किये गये रागादि परिणामोका निमित्त प्राप्तकर अन्य पुद्गल-स्कन्ध स्वय हो ज्ञानावरणादि कमरूप परिणमन करते है तथा चैतन्यस्वरूप अपने रागादिपरिणामरूपसे परिणत पूक्ति आत्माको भी पौद्गलिक ज्ञानावरणादिकर्म निमित्तमात्र होते है।'
अज्ञानी जीव राग-द्वेष, मोहादि रूपसे स्वय परिणमन करता है और इन रागादिभावोका निमित्त पाकर शुभ और अशुभ, पुण्य और पापरूप कर्म१. जीवकृत परिणाम निमित्तमात्र प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गला कर्मभावेन ॥ परिणममानस्य चितश्चिदात्मक स्वयमपि स्वर्भाव । भवति हि निमित्तमात्र पोद्गलिकं कर्म तस्यापि ॥
-पुरुषार्थसिध्युपाय, पद्य १२-१३ ४९० . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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प्रकृतियोका बन्ध होता है। जीव और पुद्गलमे निमित्त-नैमित्तिक-सम्बन्ध है। आत्माके प्रदेशोमे रागादिके निमित्तसे वन्धे हुए पौद्गलिक कर्मोके कारण यह आत्मा अपनेको भूलकर अनेक प्रकारसे रागादिरूप परिणमन करती है। इसके वैभाविक भावोके निमित्तसे पुद्गलोमे ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो आत्माके विपरीत परिणमनमे कारण बनती है। इस प्रकार भावकर्मसे द्रव्यकर्म और द्रव्यकमसे भावकर्मका बन्य होता है और यही समार है।
कमोंके निमित्तसे रागादिरूपसे परिणमन करनेवाली आत्माके रागादि निजभाव नहीं है, क्योकि जो निजभाव होता है वह उसके स्वरूपमे प्रविष्ट रहता है, पर रागादि तो आत्माके स्वरूपमें प्रविष्ट हुए बिना ऊपर ही ऊपर प्रतिफलित होते है । शानी आत्मा इस रहस्यको जानता है इसलिए वह धर्मविद् है, किन्तु अज्ञाना ता आत्माको रागादिस्वरूप ही मानता है। यही मान्यता अधर्म है। ___धर्मका स्वरूप-निर्धारण कई दृष्टियोसे किया गया है। जो मोक्षका मार्ग है. वह धर्म है और मोक्षका मार्ग रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र है । सक्षेपमे धर्म उसोको कहा जा सकता है जो मुक्तिकी प्राप्तिका हेतु है या मुक्तिकी ओर ले जानेवाला है और जो इससे विपरीत है वह ससारका कारण होनेसे अधर्म है । धर्मकी निम्नलिखित परिभाषाएं सभव है ।
१ वस्तुस्वभाव । २ रत्नत्रय-मम्यकदर्शन, सम्यक्नान और सम्यक्चारित्ररूप । ३ उत्तमक्षमादि दशलक्षणरूप ।
८ दया-जीवका रागगभाव या शुभोपयोगरूप परिणति-आचार-धर्मके विघातक मोह और भोग है । मोहके उपगम, क्षय एव क्षयोपशमके होनेपर जो आत्मामे विशुद्धि उत्पन्न होती है, वहा वास्तविक एव भावरूप अन्तरग धर्म है। वाह्य रूपमे जीठ असयमवाली प्रवृतियोका त्याग करता है, उसे वहिरग द्रव्यरूप धर्म कहते है। इन्द्रियो तथा मनके विषपसे निवृत्ति, हिंसा आदि पापोका त्याग एव द्यूत आदि महाव्यमनाने उप.नि बहिरग धर्म है। यह वहिरग धर्म मोहनीय कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमके विना मन्द, मन्दतर और मन्दतम उदयकी स्थितिम होता है। वहिरग धर्म अनेक अम्युदयोके कारणभृत पुण्यवन्धका हेतु होनेके अतिरियत अन्तरग धर्मकी सिद्धिमे भी १. चारित्तं म्बल धम्मो-धम्मो जो सो ममोति णिहिट्ठो। मोहक्योहविहीणी परिणामो अप्पणो हु समो॥
-प्रवचनसार गाथा-७. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४९१
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कारण होता है । अन्तरंग धर्मके साथ बहिरंग धर्मको व्याप्ति है। जहाँ जिसजिस प्रमाणमे अन्तरंग धर्म पाया जाता है वहां उसके प्रतिपक्ष बाह्य असंयत प्रवृत्तिका अभाव भी अवश्य रहता है । अनन्तानुबन्धीकषाय तथा दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमादिसे सम्यग्दर्शनरूप धर्म उत्पन्न होता है। इस धर्मके उत्पन्न होते ही बहिरगमे भी निर्मलता आ जाती है और यह अन्तरग निश्चयरूपधर्म व्यवहारधर्मकी सिद्धिका सहायक होता है।
कर्मबन्धके कारण मोह और योग हैं। मोहके तीन भेद है:-(१) दर्शनमोहनीय, (२) कषायवेदनीय और (३) नोकषायवेदनीय । कषायवेदनीयका भेद अनन्तानुबन्धीका उदय सम्यग्दर्शनरूप धर्मका प्रतिपक्षी है। जब इसका उपशम, क्षय, क्षयोपशन होता है, तब अन्तरगमे धर्मको प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और आत्मा अपने स्वरूपको अनुभूति करती है। सम्यग्दर्शन : स्वरूपविवेचन
वस्तु अनन्तगुणधर्मोका अखण्ड पिण्ड है। इसके स्वरूपका परिज्ञान अनेकान्तात्मक वस्तुके स्वरूपज्ञानसे होता है। चारित्ररूप धर्म रत्नत्रयका ही रूपान्तर है। इस धर्मका मूल स्तम्भ सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनके अभावमे न तो ज्ञान ही सम्यक होता है और न चारित्र ही। सम्यगदर्शन आत्मसत्ताकी आस्था है और है स्वस्वरूपविषयक दृढनिश्चय । मै कौन हूँ, क्या हूँ, कैसा हूँ, इसका निर्णय सम्यग्दर्शन द्वारा ही होता है। जड़-चेतनकी भेदप्रतीति भी सम्यग्दर्शनसे हीहोती है। स्व और पर, आत्मा और अनात्मा, चैतन्य एवं जडकी स्वस्वरूपोपलब्धिका साधन भी सम्यग्दर्शन ही होती है। सम्यग्दर्शनके आलोकमे ही आत्मा यह निश्चय करती है कि अनन्त अतीतमे जब पुद्गलका एक कण भी मेरा अपना नही हो सका है, तब अनन्त अनागतमे वह मेरा कैसे हो सकेगा। वर्तमान क्षणमे तो उसे अपना मानना नितान्त भ्रम में 'मैं' हूँ और पुद्गल 'पुद्गल' है। आत्मा कभी पुद्गल नही हो सकती और पुद्गल कभी आत्मा नही।
यह सत्य है कि पुद्गलोकी सत्ता सर्वत्र विद्यमान है और उस सत्ताको कमी भी नष्ट नही किया जा सकता। इस विश्वके कण-कणमे अनन्तकालसे पुद्गलोंकी सत्ता रही है और अनन्त भविष्यमे भी सत्ता रहेगी। अतएव पुद्गलोंके रहते हुए भी आमाके स्वरूपको आस्था करना ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शनकी निम्नलिखित परिभाषाएं उपलब्ध होती है
१ तत्त्वार्थश्रिद्धा-सप्ततत्त्व और नौ पदार्थों की प्रतीति ।
२ स्वपरश्रद्धा-'स्व' और परकी रुचि । ४९२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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३. परमार्थ देवशास्त्रगुरुकी प्रतीति ।
४ आत्मश्रद्धान- श्रद्धागुणकी निर्मल परिणति ।
५ अनन्तानुबन्धीकी चार प्रकृतियाँ तथा दर्शनमोहनीयकी तीन इन सात प्रकृतियोके उपशम-क्षयोपगम अथवा क्षयसे प्रादुर्भूत श्रद्धागुणकी निर्मल परिणति ।
सात तत्त्व, पुण्य पाप, एवं द्रव्य गुण पर्याय, का यथार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है । मूलत दो तत्त्व हैं - जीव और अजोव । चेतनालक्षण जोव है और उससे भिन्न अजीव । जीवके साथ नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्मका सयोग है । अनादि कालसे इन तीनोका सयोग चला आ रहा है । आत्म-कल्याण के लिये सात तत्त्व या नव पदार्थ प्रयोजनीय है । इनके स्वरूपका वास्तविक निर्णय कर प्रतीति करना सम्यग्दर्शन है । इन सात तत्त्वोमे जीव अजोवका सयोग संसार है और इसके कारण आस्रव एव वन्ध है । जीव और अजीवका जो वियोग - पृथक भाव है उसके कारण सवर एव निर्जरा हैं । जिस प्रकार रोगी मनुष्यको रोग, उसके कारण रोग मुक्ति; और उसके कारण इन चारोका ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार जीवको समार, ससारके कारण, मुक्ति ओर मुक्तिके कारण इन चागेका परिज्ञान अपेक्षित है । सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति अत्यन्त आवश्यक है क्योकि जिसका मन मिथ्यात्वमे ग्रस्त है वह मनुष्य होते हुए भी पशुतुल्य है और जिसको आत्मामे सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है वह पशु होकर भी मनुष्य के समान है ।
सम्यक्त्वकी प्राप्ति के लिये कतिपय योग्यताओकी आवश्यकता है । पहली योग्यता तो उस जीवका भव्य होना है । भव्यको ही सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है, अभव्यको नही । यह योग्यता स्वाभाविक है, प्रयत्नसाध्य नही । इस योग्यताके साथ सज्ञीपर्याप्त तथा पांच लब्धियोसे युक्त होना अपेक्षित है । इन लब्धियोमे देशनालब्धि अत्यावश्यक है । यत सम्यक्त्वप्राप्तिके पूर्व तत्त्वोपदेशका लाभ होना आवश्यक है । साराश यह है कि सम्यग्दर्शन सज्ञा पचेन्द्रिय, पर्याप्तक, भव्यजीवको ही होता है, अन्यको नही । भव्योमे भी यह उन्हीको प्राप्त होगा, जिनका ससार - परिभ्रमणका काल अर्द्धपुद्गलपरावर्तनके काल से अधिक अवशिष्ट नही है । लेश्याओके विपयमे यह कथन है कि मनुष्य और तिर्यञ्चोके तीन शुभ लेश्याओमेसे कोई भी लेश्या रह सकती है । देव और नारकियोमे जहाँ जो लेश्या है उसीमे औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है । कर्म-स्थिति के विपयमे कहा जाता है कि जिसके वध्यमान कर्मोकी स्थिति अन्त कोडा - कोडी - प्रमाण हो तथा सत्तामे स्थित कर्मों की स्थिति सख्यातहजार सागर कम अन्त कोडा
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कोडी प्रमाण रह गई हो वही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। इससे अधिक स्थितिबन्ध पडनेपर सम्यग्दर्शन प्राप्त नही हो सकता है।
सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेकी योग्यता चारो गतिवाले भव्यजीवोको होती है। क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पांच लब्धियां भव्यको प्राप्त होती हैं। इनमे चार लब्धियाँ तो सामान्य है, क्योकि वे भव्य और अभव्य दोनोको प्राप्त होती हैं, पर करणलब्धिविशेष है । यह भव्यको ही प्राप्त होती है और इसके प्राप्त होनेपर नियमत सम्यग्दर्शन होता है। क्षायोपशमिक लब्धिमे जीवके परिणाम उत्तरोत्तर निर्मल होते जाते हैं। विशुद्धिलब्धि प्रशस्त प्रकृतियोके बन्धमे कारणभूत परिणामोको प्राप्ति स्वरूप है। देशनालब्धिमे तत्त्वोपदेश और प्रायोग्यलब्धिमे अशुभकर्मोमेसे घातियाकर्मों के अनुभागको लता और दारूरूप तथा अघातिया कर्मों के अनुभागको नीम और काजीरूप कर देना है। करणलब्धिमे भावोको उत्तरोत्तर विशुद्धि प्राप्त की जाती है। भाव तीन प्रकारके होते हैं -(१) अध.करण, (२) अपूर्वकरण और (३) अनिवृत्तिकरण | जिसमे आगमो समयमे रहनेवाले जीवोके परिणाम समान और असमान दोनो प्रकारके होते हैं वह अघ करण है। इस कोटिके परिणामोमे समानता पायी जाती है तथा नाना जीवोकी अपेक्षा समानता और असमानता दोनो ही घटित होती है।
जिसमे प्रत्येक समय अपूर्व-अपूर्व-नये-नये परिणाम उत्पन्न हो, उसे अपूर्वकरण कहते हैं। अपूर्वकरणमे समसमयवर्ती जीवोके परिणाम समान एव असमान दोनो ही प्रकारके होते हैं। परन्तु भिन्नसमयवर्ती जीवोंके परिणाम असमान ही होते हैं । अपूर्वकरणका काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता है।
जहाँ एक समयमे एक ही परिणाम उत्पन्न होता है उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इस करणमे समसमयवर्ती जीवोंके परिणाम समान ही होते हैं और विषमसमयवर्ती जीवोके परिणाम विषम ही होते है। इसका कारण यह है कि यहां एक समयमे एक ही परिणाम होता है । इसलिये उसे समयमे जितने जीव होंगे उन सबके परिणाम समान ही होगे और भिन्न समयोमे जो जीव होगे, उनके परिणाम भिन्न ही होगे । इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त है पर अपूर्वकरणकी अपेक्षा कम है। १ गोम्मट्टसार जीवकाण्ड, गाथा ६५१, ६५२. २. , , गाथा ५१,५२,५३, ४९, ५०. ४९४ तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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तोदो करणोका उपयोग - अध करण, अपूर्वंकरण और अनिवृत्तिकरणका उपयोग मिथ्यात्वकर्मो के निषेकोको घटाना है । अध करणमे परिणामोकी अनन्तगुणी विशुद्धिके साथ नवीन बन्धकी स्थितिका घटना, प्रशस्त प्रकृतियो के अनुभाग मे अनन्तगुणी वृद्धिका होना, एव अप्रशस्तप्रकृतियो के अनुभागका अनन्तवाँ भाग घटना-रूप क्रियाएं होती है । अपूर्वकरणमे सत्ता में स्थित पूर्वकर्मों की स्थिति प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त मे उत्तरोत्तर क्षोण होती हे । अत स्थितिकाण्डका घात होता है तथा प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तमें उत्तरात्तर पूर्व कर्मो का अनुभाग घटने से अनुभागकाण्डक भी क्षीण होता है । गुणश्रेणीके कालमे क्रमश असख्यातगुणित कर्म निर्जराके योग्य होते हैं । अत गुणश्रेणि निर्जरा होतो है । अपूर्वकरण के पश्चात् अनिवृत्तिकरण आता हे । उसका काल अपूर्वकरणके कालसे सख्यातवे भाग होता है । अनन्तर अभिवृत्तिकरणकालके पोछे उदय आने योग्य मिथ्यात्वक्रर्मो के निपेकोका अन्तर्मुहूत के लिये अभाव होता है । मिथ्यात्वके जो निषेक उदयमे आनेवाले थे उन्हे उदयके अयोग्य किया है ।
I
सम्यग्दर्शनको उत्पत्ति के कारण-- कारण दो प्रकार के होते है - ( १ ) उपादानकारण और (२) निमित्तकारण । जो स्वय कार्यरूपमे परिणत होता है, वह उपादान कारण है और जो स्वय कार्यकी सिद्धिमे कारण होता है वह निमित्तकारण है । अन्तरग और बहिरगके भेदसे निमित्तके भी दो भेद है । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका उपादानकारण आसन्नभव्यता, कर्महानि, सज्ञित्व, शुद्धपरिणाम और देशना आदि विशेषताओसे युक्त आत्मा है । अन्तरग निमित्तकारण सम्यक्त्वकी प्रतिबन्धक अनन्तानुबन्धि क्राध-मान-मायादि, सात प्रकृतियो - का उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम है । बहिरग निमित्तकारण सद्गुरु आदि है । अन्तरग निमित्तकारणके मिलनेपर सम्यग्दर्शननियमत होता है परन्तु वहिरग निमित्तके मिलने पर सम्यग्दर्शन होता भी है और नहीं भी ।
1
नरकगतिमे तीसरे नरक तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण, ओर तीव्र वेदना अनुभव ये तीन, चतुर्थ से सप्तम नरक तक जातिरमरण और ताव्रवेदनानुभव ये दो, तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिमे जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन ये तीन देवगतिमे बारहवे स्वर्ग तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनकल्याणकदर्शन और देवऋद्विदर्शन, ये चार, त्रयोदश स्वर्गसे पोडश स्वर्ग तक देवऋद्धिदर्शनको छोड़कर शेष तीन एवं उसके आगे नवम ग्रैवेयक तक जातिस्मरण तथा धर्मश्रवण ये दो वहिरग निमित्त है । ग्रैवेयकसे ऊपर सम्यग्दृष्टि
"
तीर्थंकर महावीर और उनकी देगना ४९५
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ही उत्पन्न होते हैं अत. वहां बहिरंग निमिक्तको आवश्यकता नही है ।"
वस्तुत. सम्यग्दृष्टि जीवको विपरीत अभिनिवेश रहित आत्माका श्रद्धान होता है तथा साथमे देवगुरु आदिका भी श्रद्धान रहता है । इनमेंसे प्रथमको निश्चय - सम्यग्दर्शन और द्वितीयको व्यवहार-सम्यग्दर्शन कहा जाता है । जो अपना कल्याण करना चाहता है उसे सर्वप्रथम ऐसे व्यक्तियोसे परिचित होना चाहिये, जिन्होने अपने पुरुषार्थसे पूर्ण आत्मकल्याण किया है । दूसरे शब्दोमे वितराग- सर्वज्ञ और हितोपदेशीकी पहचान करना चाहिये । पश्चात् इनके द्वारा प्रतिपादित श्रुतके ज्ञानका अवलम्बन लेकर अपने आत्म-स्वरूपका निर्णय करना एव सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्र ही उसमे निमित्त बनते हैं और उनकी श्रद्धा के बिना आगे नही बढा जा सकता है। जिनकी स्त्री, पुत्र, धन, गृह आदि ससारके निमित्तोमे तीव्र रुचि रहती है उन्हे धर्ममे निमित्त देव शास्त्रगुरुके प्रति रुचि उत्पन्न नही होती है । अतएव सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशीके वचनोका अवलम्बन लेकर आत्म-स्वरूपकी प्रतीतिका होना अशक्य है।
धर्म आत्माका स्वभाव है और यह किसी दूसरेके अधीन नही है और न दूसरेके अवलम्बनसे प्राप्त होता है । यह तो अपनेको जानने-देखनेसे अपनेमे ही प्रादुर्भूत होता है । इसी कारण ऐसे महापुरुषो और उनकी वाणीका आश्रय ग्रहण करना पडता है जिन्होने अपनेमे पूर्ण धर्म प्रकट किया है। सम्यग्दर्शनके भेद
उत्पत्तिको अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं . - (१) निसर्गज और (२) अधिगमज । जो पूर्वसस्कारको प्रवलतासे परोपदेशके बिना ही उत्पन्न होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाता है । जो परके उपदेशपूर्वक होता है वह अविगमज है । इन दोनो प्रकार के सम्यग्दर्शनोकी उत्पत्तिका अन्तरग कारण सात प्रकृतियोका उपशम, क्षय या क्षयोपशम ही है । बाह्य कारणकी अपेक्षा उक्त दो भेद हैं ।
सम्यग्दर्शनके सामान्यत तोन भेद हैं औपगमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक |
१. बाह्य नारकाणा प्राक्चतुर्थ्या सम्यग्दर्शनस्य सावन केषाविज्जातिस्मरण, केषाचिद्धर्मश्रवण, केषाचिद्वेदनाभिभव । चतुर्थीमारभ्य आ सप्तम्यया नारकाणा जातिस्मरण वेदनाभिभवश्च । तिरश्चा केपाचिज्जातिस्मरण, केषाचिद्धर्मश्रव, चिज्जिनबिम्बदर्शनम् । मनुष्याणामपि तथैव । देवाना केषाचिज्जातिस्मरण, केपाचिज्जिनमहिमदर्शन, केषाचिद्वेवद्धिदर्शन....
अनुदिशानुत्तरविमानवास नामिय कल्पना न सम्भवति ।
४९६ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा
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बोपशामिक सम्पपल ___ अनन्तानुबन्धोगो मार और गनगोरनीयको तीन इन गात प्रतियोके उपगमसे जोपरामिक सन्माल उत्पन्न होतामफे दो भेद है-प्रमगोपशम सम्बग्दर्शन बोर सितोपोपगम गम्परांन ।
अपमा लादि परिणाम गिनिहाग मिल्खायो जो निषेगा उदगमे मानेवाले पे, उन्हे उस्य सयोग्यगर बगन्तानुवनगीचागो भी उदयके बयोग्य दिल्या जाता है। प्रसार उम्प अयोग्य प्रातियोका अभाव होनेसे प्रपमोपाम सम्पपत्य होता- ननम्गाचोराम गमगे गियाव प्रकृतिके तीन भेद हो जाते। -(1) गम्मपन, (२) गागोर () गम्महिमा ध्यात्व।-न तीन परसिया ममा अनातानुवन्धी तोगमान, गागा मोर लोभ इन चार प्रानियो उस्माभागगनपर पापम नायगाराना है। इन मम्मपत्वमा अन्नित्य चतुरंगणस्यानो माम गणम्मान सम पाया जाता है।
अनन्नानुबन्यो-गानाको विगोगा जोर मनमोनीयको तीन प्रवृतियोंगा उमामहोगे दिलीपापा मम्मालागसम्यग्दर्शनको पाप फग्नेवारण जीय उपगगोगा जागरण मा ज्यान गुणम्यान तक गताबोर वामे पतनगर गाने गातानी - चतुर्थ, पचम और पट गमापानमे भी मला मगाय गता।
क्षायोपामिफ मम्यपत्य
जनम्पत्वमा एमरा नाम दामात्य भी है। मध्यात्व, सम्पमिथ्यात्व. यनन्तानुवनी कोष, मान, माया, लोग नागपाती प्रकृतियोंके वर्तमान कालमे उदय नानेवाले निकोका उदयानाची धग तथा आगामी कालमे उदय थानेवाले, निकोका गदवानाप उपनग और मम्गगत्वप्रमानिनामक देशपाती प्रानिका उदय रहनेपर जो नम्गगत्व होता है, उसे क्षायोपामिक मध्यपन्य नहते है। मगम्यात्वगे गम्यगन्यप्रगतिका उदय रहनेमे चल, गलिन और अगाट दोष उतान्न होते रहते हैं। छह सर्वघाती प्रकृतियोके उदयाभावो क्षय और सदयरपाम्प उपनगी प्रशानतागे कारण क्षायोपमिक नया सम्यगत्वप्रतिको उदयको अपेक्षा वेदकसम्यग्दर्शन कहलाता है। मात्र उत्पत्ति सादिमिथ्यादष्टि और गम्यग्दष्टि दोनोके होती है। यह नम्यग्दर्शन नागे गनियोग उत्पन्न होता है। वरनुत गर्वघाती छह प्रकृतियोंके उदया नावी क्षय और गदवम्याम्प उपगम तथा सम्यक्त्वपकृति नामक देशघाती प्रजातिका उदय अपेक्षित होता है।
नीगंगर महावीर और उनकी देशना . ४९७
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क्षायिक सम्यग्दर्शन
मिथ्यात्व, सम्यडू मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोके क्षयसे जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है | दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिमे उत्पन्न हुआ मनुष्य केवली या श्रुतकेवलोके पादमूलमें आरम्भ करता है ।" इसकी पूर्णता चारो गतियोमे सम्भव है । यह सम्यग्दर्शन छूटता नही है । जिसे क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है, वह उसी भवसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है, अथवा तृतीय, चतुर्थ भवसे । चतुर्थ भवका अतिक्रमण नही कर सकता है । जिस क्षायिक सम्यग्दृष्टिने आयुका बन्ध कर लिया है, वह नरक या देवगतिमे उत्पन्न होता है और वहांसे मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त करता है । चारो गतिसम्बन्धी आयुका बन्ध होनेपर सम्यक्त्व हो सकता है । अत बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टिका चारो गतियोमे जाना सम्भव है । यह नियम है कि सम्यक्त्वके कालमे यदि मनुष्य या तियंचके आयुका बन्ध होता है, तो नियमत देवायु ही बंधती है । और नारकी तथा देवके नियमसे मनुष्य आयुका ही बघ होता है ।"
सम्यग्दर्शनके अन्य भेद
सम्यग्दर्शनके निश्चयसम्यग्दर्श। और व्यवहारसम्यग्दर्शन ये दो भेद भी किये जाते हैं। शुद्धात्मकी श्रद्धा करना निश्चय सम्यग्दर्शन है और विपरीताभिनिवेश रहित परमार्थं देव, शास्त्र, गुरुकी पच्चीस दोषरहित अष्टागसहित श्रद्धा करना व्यवहारसम्यग्दर्शन है । अथवा जीवादि सात तत्त्वोके विकल्पसे रहित शुद्ध आत्माके श्रद्धानको निश्चयसम्यग्दर्शन और सात तत्त्वोके विकल्पोसे सहित श्रद्धान करना व्यवहारसम्यग्दर्शन है । अध्यात्म-दृष्टिसे सम्यग्दर्शनके सराग और वीतराग ये दो भेद सम्भव है । आत्म-विशुद्धिमात्रको वीतराग सम्यग्दर्शन और प्रशम, सवेग, अनुकम्पा एव आस्तिक्य इन चार गुणोकी अभिव्यक्तिको सरागसम्यग्दर्शन कहते है ।
१ दंसणमोहक्खवणापटूवगो कम्मभूमिजादो हु ।
सो केवलमूले विगो होदि सव्वत्य ॥
— गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ६४७
२. चत्तारि वि खेत्ताइ आउगब घेण होदि सम्मत्तं । अणुवदमहन्वदाइ ण लहइ देवाउग मोत्तु ॥
-- वही, गाथा ६५२.
४९८ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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प्रशम
प्रशमगुण आत्माके कषाय या विकारोके उपशम होनेपर उत्पन्न होता है। राग या द्वेष जो आत्माके सबसे बडे शत्रु है, जिनके कारण इग जीवको नाना प्रकारको इष्टानिष्ट कल्पनाएं होती रहती है, जिससे ससारके पदार्थोको सुखमय समझा जाता है, वे सब समाप्त हो जाते है। प्रशभगुण आत्माको निर्मल वनाता है, चित्तके विकारोको दूर करता है और मनको विकल्पोंसे रहित वनाता है। प्रशमगुण द्वारा जोवको विकृत अवस्था दूर होती है और आत्माको निर्मल प्रवृत्ति जागृत होती है। संवेग ___ ससारसे भीतरूप परिणामोका होना संवेग है । इस गुणके उत्पन्न होनेसे
आत्मामे शुद्धि उत्पन्न होती है । जो व्यक्ति इस संसारमै रहता हुआ यह विचार करता है कि आयुके समाप्त होनेपर मुझे अन्य गतिको प्राप्त करना है और यह ससारका चक्र निरन्तर चलता रहेगा, यह आत्मा अकेला ही राग-द्वेष, मोहके कारण उत्पन्न होनेवाली कर्म-पर्यायोका भोक्ता है। अतएव आत्मोत्यानके लिये सदैव सचेष्ट रहना अत्यावश्यक है। जब तक संसारसे सवेग उत्पन्न नही होगा, तब तक अहकार और ममकारकी परिणति दूर नही हो सकती है। ज्ञानदर्शनमय और संसारके समस्त विकारोंसे रहित आध्यात्मिक मुखका भण्डार यह आत्मतत्त्व ही है और इसको उपलब्धि सम्यक्त्वके द्वारा होती है। अनुकम्पा
समस्त जीवोमे दयाभाव रखना अनुकम्पा गुण है । व्यवहारमे धर्मका लक्षण जीवरक्षा है । जीवरक्षासे सभी प्रकारके पापोका निरोध होता है। दयाके समान कोई भी धर्म नही है । अत पहले आत्म-स्वरूपको अवगत करना
और तत्पश्चात् जीव-दयामे प्रवृत्त होना धर्म है। जिस प्रकार हमे अपनी आत्मा प्रिय है उसी प्रकार अन्य प्राणियोको भी प्रिय है । जो व्यवहार हमे अरुचिकर प्रतीत होता है, वह दूसरे प्राणियोको भी अरुचिकर प्रतीत होता होगा। अत: समस्त परिस्थितियोमे अपनेको देखनेसे पापोका निरोध तो होता ही है, साथ ही अनुकम्पाकी भी प्रवृत्ति जागृत होती है । अनुकम्पा या दयाके आठ भेद है
१. द्रव्यदया-अपने समान अन्य प्राणियोका भी पूरा ध्यान रखना और उनके साथ अहिंसक व्यवहार करना।
२ भावदया-अन्य प्राणियोको अशुभ कार्य करते हुए देखकर अनुकम्पा बुद्धिसे उपदेश देना।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४९९
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३. स्वदया-आत्मालोचन करना एवं सम्यग्दर्शन धारण करनेके लिये प्रयासशील रहना और अपने भीतर रागादिक विकार उत्पन्न न होने देना।
४. परदया-पटकायके जीवोंकी रक्षा करना ।
५ स्वरूपदया-सूक्ष्म विवेक द्वारा अपने स्वरूपका विचार करना, आत्मा के ऊपर कर्मोका जो आवरण आ गया है, उसके दूर करनेका उपाय विचारना।
६. अनुवन्वदया-मित्रो, शिष्यों या अन्य प्राणियोको हितको प्रेरणासे उपदेश देना तथा कुमार्गसे सुमार्गपर लाना।
७. व्यवहारदया-उपयोगपूर्वक और विधिपूर्वक अन्य प्राणियोकी सुख सुविधामोका पूरा-पूरा ध्यान रखना।
८. निश्चयदया-शुद्धोपयोगमे एकताभाव और अभेद उपयोगका होना। समस्त पर-पदार्थोसे उपयोगको हटाकर आत्म-परिणतिमें लीन होना निश्चय दया है। आस्तिक्य ___ जोवादि पदार्थोके अस्तित्वको स्वीकार करने रूप वुद्धिका होना आस्तिक्य भाव है। आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है, अनन्त है, अमूर्त है, ज्ञान-दर्शनयुक्त है, चेतन है और है ज्ञानादिपर्यायोका का। इस आत्म-स्वरूपके साथ अजीवादि छह तत्त्वोंके सम्बन्धको स्वीकार करते हुए आत्माकी विकृत परिणतिको दूर करने के हेतु सात तत्त्वोंके स्वरूपपर दृढ़ आस्था रखना आस्तिक्यभाव है । आत्मा अस्तित्वरूपमे विश्वास करनेसे हो सम्यक्त्वको उपलब्धि होती है।
ज्ञानप्रधान निमित्तादिककी अपेक्षासे सम्यक्त्वके दश भेद हैं:
१. आज्ञासम्यक्त्व'-जिनाज्ञाको प्रधानतासे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरखता पदार्थों की उत्पन्न श्रद्धा।
२. मार्गसम्यक्त्व-निर्गन्य मार्गका अवलोकनसे उत्पन्न । ३. उपदेशसम्यक्त्व-आगमवेत्ता पुरुषोंके उपदेशके श्रवणसे उत्पन्न ।
आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भत्रमवपरमावादिगाढं च ॥ आज्ञासम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरचितं वीतरागायव त्यक्तप्रन्यप्रपञ्चं शिवममृतपथं श्रद्दधन्मोहशान्तः । मार्गश्रद्धानमाहु पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता
या संज्ञानागमाधिप्रसृतिमिरुपदेशादिरादेशि दृष्टि ।। ५०० . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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४. सूत्रसम्यवत्व - मुनि आचरणके प्रतिपादक आचारसूत्रोके श्रवणसे उत्पन्न । ५ वीजसम्यक्त्व - गणितज्ञानके कारण बीजसमूहो के श्रद्धानसे उत्पन्न । ६. सक्षेपसम्यक्त्व - पदार्थोक संक्षिप्त विवेचनको सुनकर श्रद्धाका उत्पन्न होना ।
७. विस्तारसम्यक्त्व - विस्तारपूर्वक आगमके सुननेसे उत्पन्न श्रद्धान । ८ अर्थसम्यक्त्व - शास्त्रके वचन बिना किसी अर्थके निमित्तसे उत्पन्न श्रद्धान ।
९. अवगाढसम्यक्त्व - श्रुतकेवलोका तत्त्वश्रद्धान | १० परमावगाढसम्यक्त्व - केवलीका तत्त्वश्रद्धान |
सम्यग्दर्शनका स्थितिकाल
औपशमिक सम्यग्दर्शनको स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी है । क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छियासठ सागर प्रमाण है । क्षायिकसम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर नष्ट नही होता, इसलिये इस अपेक्षासे उसकी स्थिति सादि अनन्त है, पर ससारमे रहनेको अपेक्षा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तं सहित आठ वर्षं कम, दो करोड़ वर्ष पूर्व तथा तैतीस सागर है ।
सम्यग्दर्शनके अंग
जिस प्रकार मानवशरीरमे दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पृष्ठ, उरस्थल ओर मस्तक ये माठ अग होते हैं और इन आठ अगोसे परिपूर्ण रहनेपर ही मनुष्य काम करनेमे समर्थ होता है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी नि शक्तित्व, नि काक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, अमूढदृष्टित्व, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अ हैं । इन अष्ठायुक्त सम्यग्दर्शन का पालन करनेसे ही ससार- सततिका
सक्षपेर्णव
आकर्ण्याचारसूत्र मुनिचरणविषे. सूचनं श्रद्दधानः सूक्तासी सूत्र दृष्टिर्दुरधिगमगतेरथंसार्थस्य बीजं । कैश्चिज्जातोपलब्धेरसमदामवशाद्वीजदृष्टि पदार्थान् बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साघु सक्षेणदृष्टि ॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गी कृतरुचिरय त विद्धि विस्तारदृष्टि सजातार्थात्कुतश्चित्प्रवचनवचनान्यन्तरेणार्थदृष्टि | दृष्टि साङ्गाङ्गवाह्यप्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा कैवल्यालोकितायें रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ॥
- आत्मानुशासन, गाथा ११-१४. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना . ५०१
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उन्मूलन होता है । इन आठ अंगोमे वैयक्तिक उन्नतिके लिए प्रारम्भिक चार अंग मोर समाज-सम्बन्धी उन्नतिके लिए उपगूहनादि चार अग आवश्यक है । निःशङ्कित-अंग
वीतराग, हितोपदेशी और सर्वज्ञ परमात्माके वचन कदापि मिथ्या नही हो सकते । कषाय अथवा अज्ञानके कारण हो मिथ्याभाषण होता है । जो रागद्वेष-मोहसे रहित, निष्कषाय, सर्वज्ञ है, उसके वचन मिथ्या नही हो सकते । इसप्रकार वीतराग- वचनपर दृढ आस्था रखना नि शङ्कित अग है ।
सम्यग्दृष्टि जिनोदित सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंके विषय मे भी शकित नही होता । सम्यग्दर्शनके आप्त, आगम, गुरु और तत्त्व ये चार विषय हैं। इनके सम्बन्ध ये तत्त्व ये ही है, और इसी प्रकासे हैं, अन्य या अन्य प्रकारसे ही, इस प्रकारका श्रद्धान करना नि शङ्कित भग है । नि शंकतामे अकम्पता - का रहना भी आवश्यक है। श्रद्धा या प्रतीतिमे चलिताचलित वृत्तिका पाया जाना वर्जित है ।
नि शङ्कसम्यग्दर्शन ही ससार और उसके कारणोका उच्छेदक है । यदि श्रद्धा कुछ भी शका बनी रहती है, तो तत्त्वज्ञानके रहनेपर भी अभोष्ट प्रयोजनकी सिद्धि नही होती ।
शका मुख्यतया दो प्रकारसे उत्पन्न होती है - (१) अज्ञानमूलक और (२) दौर्बल्यमूलक । दुर्बलताका कारण इहलोकभय, परलोकभय, वेदनाभय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय और आकस्मिकभय ये सात भय वतलाये गये हैं । जो इन भयोसे मुक्त हो जाता है, वही नि.शक हो सकता है । निकांक्षित-अंग
किसी प्रकारके प्रलोभनमे पडकर परमतकी अथवा सासारिक सुखोकी अभिलाषा करना कांक्षा है, इस काक्षाका न होना नि काक्षितधर्म है । सासारिक सुखकी किसी प्रकारकी आकाक्षा न करना निःकाक्षित अग है । वस्तुत. सासा - रिक सुख व्यक्तिके अधीन न होकर कर्मोंके अधीन है । कर्मोक तीव्र, मन्द उदयके समय यह घटता- वढता रहता है। यह सांसारिक सुख सान्त है और है आकुलता उत्पन्न करनेवाला । यह सुख अनेक प्रकारके दुखोंसे मिश्रित है और है बाधा उत्पन्न करनेवाला' ।
पूर्ण शुद्ध सम्यग्दृष्टि अपने शुद्ध आत्मपदके सिवाय अन्य किसी भी पदको
सपर बाधासहियं विच्छिण्ण वधकारणं विसम 1
जं इंदियेहि लद्ध तं सोक्खं दुक्खमेव तथा ॥
५०२ : तीर्थंकर महावीर और उनका आचार्य-परम्परा
१
प्रतचनसार गाथा ७६.
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अपना स्वतन्त्र, स्वाधीन, शाश्वतिक, सर्वथा निराकुल और उपादेय नही मानता । आत्मामे पर-पुद्गल के सम्बन्धसे विकार हैं अथवा होते हैं, वे वास्तवमे आत्मा नही हैं । शुद्ध आत्माका स्वरूप तत्त्वत उन सभी विकारोसे रहित है । इस प्रकारकी निशक और निश्चल आत्मा सभी प्रकारकी आकाक्षाओसे रहित होती है । अतएव सम्यग्दृष्टि सासारिक सुख को या भोगोकी आकाक्षा नही करता । निर्विचिकित्सा - अंग
मुनिजन देहमे स्थित होकर भी देह सम्वन्धी वासनासे भतीत होते है । अत वे शरीरका संस्कार नही करते। उनके मलिन शरीरको देखकर ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा - अग है' । वस्तुत मनुष्यका अपवित्र देह भी रत्नत्रयके द्वारा पूज्यताको प्राप्त हो जाता है । अतएव मलिन शरीरकी ओर ध्यान न देकर रत्नत्रयपूत आत्माकी ओर दृष्टि रखना और वाह्य मलिनतासे जुगुप्सा या ग्लानि न करना निविचिकित्सा-अग है । यो तो विचिकित्मा के अनेक कारण हो सकते हैं, पर सामान्यतया इन कारणोको तोन भागोमे विभक्त किया जा सकता है. - (१) जन्मजन्य, (२) जराजन्य और (३) रोगजन्य | अमूढदृष्टिअग
सम्यग्दृष्टिकी प्रत्येक प्रवृत्ति विवेकपूर्ण होती है। वह किसीका अन्धानुकरण नही करता । वह सोच-विचारकर प्रत्येक कार्यको करता है । उसकी प्रत्येक क्रिया आत्माको उज्ज्वल बनानेमे निमित्त होती है । वह किसी मिथ्यामार्गी जीवको अभ्युदय प्राप्त करते हुए देखकर भी ऐसा विचार करता है कि उसका वह वैभव पूर्वोपार्जित शुभ कर्मो का फल है, मिथ्यामार्ग के सेवनका नही । अत. वह मिथ्यामागंको न तो प्रशसा करता है और न उसे उपादेय ही मानता है । यह श्रद्धालु तो होता है, पर अन्धश्रद्धालु नही । अमूढदृष्टि अन्धश्रद्धा का पूर्ण त्याग करता है ।
उपगूहन-अंग
रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग स्वाभावत' निर्मल है । यदि कदाचित् अज्ञानी अथवा शिथिलाचारियो द्वारा उसमे कोई दोष उत्पन्न हो जाय -- -लोकापवादका अवसर आ जाय तो सम्यग्दृष्टि जीव उसका निराकरण करता है, उस दोषको छिपाता है । यह क्रिया उपगूहन कहलाती है । अज्ञानी और अशक्त व्यक्तियो द्वारा रत्नत्रय और रत्नत्रयके धारक व्यक्तियोंमे आये हुए दोपोका प्रच्छादन करना उपगूहन-अग है ।
१. स्वभावतोऽशुची काये --- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पद्य १३.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५०३
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सम्यग्यदृष्टि गुणी, संयमी, ज्ञानी और धर्मात्मा व्यक्तियोंकी समुचित प्रशंसा करता है उनके उत्साहकी वृद्धि करता है और यथाशक्ति धर्माराधनके लिए सहयोग प्रदान करता है । इस अगका अन्य नाम उपबृहण भी है, जिसका अर्थ आत्मगुणोकी वृद्धि करना है। स्थितीकरण-अंग __ सासारिक कष्टोंमे पडकर, प्रलोभनोके वशीभूत होकर या अन्य किसी प्रकारसे बाधित होकर जो धर्मात्मा रक्ति अपने धर्मसे च्युत होनेवाला है अथवा चारित्रसे भ्रष्ट होने जा रहा है, उसका कष्ट निवारण करना अथवा भ्रष्ट होनेके निमित्तको हटाकर उसे सिर करना स्थितीकरण-अग है।
साधर्मी बन्धुको धर्मश्रद्धा और आचरणसे विचलित न होने देना तथा विचलित होते हुओको धर्ममे स्थित करना भी स्थितीकरण है। वात्सल्य-अंग
धर्मका सम्बन्ध अन्य सासारिक सम्बन्धोसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। यह अप्रशस्त रागका कारण नही, किन्तु प्रकाशकी ओर ले जाने वाला है। साधर्मी बन्धुओके प्रति उसी प्रकारका आन्तरिक स्नेह करना, जिस प्रकार गाय अपने बछड़ेसे करती है।
वस्तुत. साधर्मी बन्धुओके प्रति निश्छल और आन्तरिक स्नेह करना वात्सल्य है। इस गुणके कारण साधर्मी भाई निकट सम्पर्कमे आते हैं और उनका संगठन दृढ होता है । धूर्तता मायाचार, वचकता आदिको छोड़कर सद्भावनापूर्वक साधर्मियोका आदर, सत्कार, पुरस्कार, विनय, वैयावृत्त्य, भक्ति, सम्मान, प्रशसा आदि करना वात्सल्य है। प्रभावना-अंग
जगतमे वीतराग-मार्गका विस्तार करना, धर्म-सम्बन्धी भ्रमको दूर करना और धर्मकी महत्ता स्थापित करना प्रभावना है।
जिनधर्म-विषयक अज्ञानको दूरकर धर्मका वास्तविक ज्ञान कराना प्रभावना है। देव, शास्त्र और गुरुके स्वरूपको लेकर जनसाधारणमे जो अज्ञान वर्तमान है, उसे दूर करना प्रभावनाके अन्तर्गत है। __ सम्यग्दृष्टि रत्नत्रयके तेजसे आत्माको प्रभावित करते हुए दान, तप, विद्या, जिनपूजा, मन्त्रशक्ति आदिके द्वारा लोकमे जिनशासनका महत्व प्रकट करता हैं। जिनशासनकी महिमा जिन जिन कार्योंसे अभिव्यक्त होती है, उन उन कार्योंका आचरण सम्यग्दृष्टि करता है। ५०४. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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उपगूहन, स्थितीकरण, वामन्य और प्रभावना उन नागेका पालन 'स्व' और 'पर' दोनोमे हो हुआ करता है। अन्य व्यक्तियोंके समान अपनेको भी सभालना, गिरनेका प्रसंग आनेपर सावधान हो जाना और कदाचित् गिरजानेपर पुन पदमे अपनेको प्रतिष्ठित करना आवश्यक है ।
नम्यग्दर्शन लगवा मोक्षमागंगे विनलित होनेके दो कारण है - (१) आगम ज्ञानका अभाव या अन्यता और (२) महननको कमी । इन दोनो कारणोसे जीव परोषह और उपमगं वहन करनेने विचलित हो जाता है । सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष घा न्यूनताएँ
सम्यग्दर्शन के आठ मद, आठ मल छ अनायतन और तीन गूटताएँ इस प्रकार पच्चीन दोष होते है । निवदृष्टि इन दोषोंके अधान होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पचपरावनन निरन्तर करता रहता है। ऐसी कोई पर्याय नहीं, जी एमने धारण न की हो, ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ यह उत्पन्न न हुआ हो तथा जहाँ मका मरण न हुआ हो, ऐसा कोई गमय नही, जिसमे इसने जन्म न ग्रहण किया हा, ऐसा कोई भय नही, जा इसने न पाया हो । अत मिध्यात्वका त्यागकर पत्नोग दोषरहित सम्यग्दर्शन धारण करना मनुष्यपर्यायका फल है ।
मद या अहूकार सम्यग्दर्शनका दोष है। ज्ञान आदि आठ वस्तुओका आश्रय लेकर अपना वन प्रकट करना मद है। मद आठ प्रकारके होते है'
१. ज्ञानमद' - क्षायोपशमिक ज्ञानका अहकार करना कि मुझमे बडा कोई ज्ञानी नही । में मकलशास्त्रोका जाता है ।
२. प्रतिष्ठा या पूजामद - अपनी पूजा-प्रतिष्ठा या लौकिक सम्मानका गर्व करना प्रतिष्ठा या पूजामद है ।
३ कुलमद --- मेरा पितृपक्ष अतीव उज्ज्वल है, मेरे इस वशमे आजतक कोई दोष नही लगा है | इस प्रकार पितृवशका गर्व करना कुलमद है ।
४ जातिमद - मेरा मातृपक्ष बहुत उन्नत है । यह शीलमे सुलोचना, सीता, अनन्तमती और चन्दनांके तुल्य है । इस प्रकार माताके वशका अभिमान करना जातिमद है
१ यह ज्ञानवान् सकलशास्त्रशी यते' अह मान्यो महामण्डनेदवरा मत्पादसेवका । कुलमपि मम पितृपक्षोऽनोवोज्ज्वल । मम माता सघस्य पत्युर्दुहिता शीलेन सुलोचना-सीता - अनन्तमती-चन्दनादिका वर्तते ।" मम रूपानं कामदेवोऽपि दासत्व करोतीत्यष्टमदा. । - मोक्ष पाहुड-टीका गा० २७
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ५०५
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५. बलमद-शारीरिक शक्तिको दृष्टिसे गर्व करना बलमद है।
६. ऋद्धिमद-बुद्धि आदि ऋद्धियो अथवा गृहस्थकी अपेक्षा धनादि वैभवका गर्व करना ऋद्धिमद है।
७ तपमद-अनशनादि तपोका गर्न करना तपमद है। ८. शरीरमद-अपने स्वस्थ एव सुन्दर शरीरका गर्व करना शरीरमद है।
वस्तुत सम्यग्दृष्टि विचार करता है कि क्षयोपशमजन्य ज्ञान, पूजा आदि वस्तुएं मेरे अधीन नहीं है, किन्तु कर्माधीन हैं और कर्मोदय प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है, अतएव शरीर, ज्ञान, ऐश्वर्य आदिका मद करना निरर्थक है। रत्नत्रयरूप धर्म ही जोवात्माके स्वाधीन है, कालानवच्छिन्न है, पवित्र-निर्मल और स्वय कल्याणस्वरूप है । ससारके अन्य सब पदार्थ 'पर' हैं और आत्मोत्थानमे सहायक नही हैं । अतः सम्यग्दृष्टि यदि अपने अन्य समिओके साथ ज्ञान, पूजा, कुल, जाति आदि आठ विषयोमेसे किसीका भी आश्रय लेकर तिरस्कारभाव रखता है, तो वह उसका 'स्मय' नामक दोष कहलाता है। इससे उसकी विशुद्धि नष्ट होती है और कदाचित् वह अपने स्वरूपसे च्युत भी हो सकता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि ज्ञानादि हेय नही हैं, अपितु ज्ञानादिके मद हेय हैं। आस्था सम्बन्धी अन्धविश्वास __ अन्धश्रद्धालु बनकर आत्महितका विचार किये बिना ही लोक, देव, एव धर्म-सम्बन्धी मूढतायुक्त क्रियाओमे प्रवृत्त होना अन्धश्रद्धा या मुढता है। ये मूढताएं तीन हैं:-१ लोकमूढता, २ देवमूढता और ३ पाषण्डमूढता।।
ऐहिकफलकी इच्छासे धर्म समझकर नदी, समुद्र एवं पुष्कर आदिमे स्नान करना, बालुका एव पत्थरके ढेर लगाना-पर्वतसे गिरना, एव अग्निमे कूदकर प्राण देना मूढता या अन्धश्रद्धामे समाविष्ट है। जो आत्मधर्मसे विमुख होकर लौकिक क्रिया-काण्डोको ही धर्म समझता है और धर्म-साधनाके रूपमे प्रवृत्ति करता है वह लोकमूढ कहा जाता है। ___ लौकिक अभ्युदय एव वरदान प्राप्तिकी इच्छासे आशायुक्त हो राग-द्वेषसे मलिन देवोकी आराधना करना देवमूढता है । वस्तुत देवसम्बन्धी अन्धविश्वास एव उस विश्वासको पूर्तिके साधन देवमूढतामे समाविष्ट हैं। देव सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी होता है। इसके विपरीत जो रागद्वेषसे मलिन है वह कुदेव है और ऐसे कुदेवोकी आराधना करनेसे धर्माचरण नही होता है। यदि सम्यग्दृष्टि सासारिक फलकी इच्छासे वीतरागदेवकी उपासना भी करता है तो भी सम्यक्त्वमे दोष आता है । जो मिथ्या आशावश सराग देवोकी आराधनासे लौकिक फल प्राप्त करना चाहता है उसकी आस्था पड्गु और अन्ध है। ५०६ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है और इस मार्गके लिये आरम्भ-परिग्रहके त्यागी गुरुके अवलम्बनकी आवश्यकता है । जो आरम्भ, परिग्रह और हिंसासे सहित, ससारपरिभ्रमणके कारणभूत कार्योंमे लीन हैं वे कुगुरु है । ऐसे कुगुरुओकी भक्ति, वन्दना करना पाषण्ड या गुरुमूढता है। षड् अनायतन या मिथ्या आस्थाएँ
भय, आशा एवं स्नेहवश कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और इन तीनोके आराधकोकी भक्ति-प्रशसा करना षड् अनायतन है। शंकादि दोष
सम्यग्दर्शनके अष्टागोके विपरीत शकादि आठ दोष भी श्रद्धाको मलिन बनाते है। वे हैं शका, आकाक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, दोषव्यक्तीकरण, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना।
वस्तुत सम्यग्दर्शन आत्माके श्रद्धागुणकी निर्मल पर्याय है। इसे धारण कर नोचकुलोत्पन्न चाण्डाल भो महान् बन जाता है और श्वान जैसा निन्द्यप्राणी भी देवोद्वारा पूज्य बन जाता है। सम्यग्ज्ञान
नय और प्रमाण द्वारा जीवादि पदार्थोका यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। दृढ आत्मविश्वासके अनन्तर ज्ञानमे सम्यक्पना आता है। यो तो ससारके पदार्थोका होनाधिक रूपमे ज्ञान प्रत्येक व्यक्तिको होता है। पर उस ज्ञानका आत्मविकासके लिये उपयोग करना कम ही व्यक्ति जानते है । सम्यग्दर्शनके पश्चात् उत्पन्न हुआ ज्ञान आत्मविकासका कारण होता है। 'स्व' और 'पर' का भेदविज्ञान यथार्थत सम्यग्ज्ञान है।
निश्चयसम्यग्ज्ञान अपने आत्म-स्वरूपका बोध ही है। जिसने आत्माको जान लिया है, उमने सब कुछ जान लिया है और जो आत्माको नही जानता, वह सब कुछ जानते हए भी अज्ञानी है। सम्यग्ज्ञानके सम्बन्धमे ज्ञान-मीमासाके अन्तर्गत विचार किया जा चुका है। सम्यक्चारित्र या सम्यगाचार
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित व्रत, गुप्ति, समिति आदिका अनुष्ठान करना उत्तमक्षमादि दशधर्मोंका पालन करना, मूलगुण और उत्तरगुणोका धारण करना सम्यकचारित्र है। अथवा विषय, कषाय, वासना, हिंसा, झूठ,
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चोरी, कुशील और परिग्रहणरूप क्रियाओसे निवृत्ति करना सम्यक्चारित्र है। चारित्र वस्तुत आत्मस्वरूप है। यह कषाय और वासनाओसे सर्वथा रहित है। मोह और क्षोभसे रहित जीवको जो निर्विकार परिणति होती है, जिससे जीवमे साम्यभावकी उत्पत्ति होती है, चारित्र है। प्रत्येक व्यक्ति अपने चारित्रके बलसे ही अपना सुधार या बिगाड करता है। अत मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको सर्वदा शुभ रूपमे रखना आवश्यक है। मनसे किसीका अनिष्ट नही सोचना, वचनसे किसीको बुरा नही कहना तथा शरीरसे कोई निन्द्य कार्य नही करना सदाचार है।
विषय-तृष्णा और अहकारकी भावना मनुष्यको सम्यक् आचरणसे रोकती है। विषयतृष्णाकी पूर्तिहेतु ही व्यक्ति प्रतिदिन अन्याय, अत्याचार, बलात्कार, चोरी, बेईमानी हिंसा आदि पापोको करता है । तृष्णाको शान्त करनेके लिये स्वय अशान्त हो जाता है तथा भयकर-से-भयकर पाप कर बैठता है। अत विषय-निवृत्तिरूप चारित्रको धारण करना परमावश्यक है।
मनुष्यके सामने दो मार्ग विद्यमान है -शुभ और अशुभ | जो राग-द्वेषमोहको घटाकर शुभोपयोगरूप परिणति करता है वह शुभमार्गका अनुगामी माना जाता है और जो रागद्वेष-कषायरूप परिणतिमे सलग्न रहता है वह अशुभमार्गका अनुसरणकर्ता है। अज्ञान एव तीन रागद्वेषके अधीन होकर व्यक्ति कर्त्तव्य-च्युत होता है । जीव अपनी सत्प्रवृत्तिके कारण शुभका अर्जन करता है और असत्प्रवृत्तिके कारण अशुभका । एक ही कर्म शुभ और अशुभ प्रवृत्तियोके कारण दो रूपोमे परिणत हो जाता है । शुभ और अशुभ एक ही पुद्गलद्रव्यके स्वभावभेद है | शुभ कर्म सातावेदनीय, शुभायु, शुभ नाम, शुभगोत्र एव अशुभ कर्म, पाति या असाता वेदनीय अशुभायु, अशुभ नाम, अशुभगोत्र है। यह जीव शुद्धनिश्चयसे वीतराग, सच्चिदानन्दस्वभाव है और व्यवहारनयसे रागादिरूप परिणमन करता हुआ शुभोपयोग और अशुभोपयोगरूप है। यो तो आत्माकी परिणति शुद्धोपयोग, शुभोपयोग और अशुभोपयोगरूप है। चैतन्य, अखण्ड आत्मस्वभावका अनुभव करना शुद्धोपयोग, कषायोकी मन्दतावश शुभरागरूप परिणति होना शुभोपयोग एव तीव्र कषायोदयरूप परिणामोका होना अशुभोपयोग है। शुद्धोपयोगका नाम १ असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्त । ____ वदसमिदिगुत्तिरूव ववहारणया दु जिणभणिय ॥ -द्रव्यसग्रह ४५ २ साम्यतुदर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोहक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणाम ।
-प्रवचनसार, गाथा ७ को अमृतचन्द्र-टीका ५०८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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वीतराग चारित्र, शुभोपयोगका नाम सदाचार एवं अश भोपयोगका नाम कदाचार है। परमपद-प्राप्तिहेतु : आचारके भेद
परमपद-प्राप्तिके मार्गविवेचनको दृष्टिसे आचारके दो भेद है।-(१) निवृत्तिमूलक आचार और (२) प्रवृत्तिमूलक आचार । निवृत्तिमूलक आचारको त्यागमार्ग या श्रमणमार्ग कहा जाता है । यह मार्ग कठिन है, पर जल्द पहुंचानेवाला है। समस्त पदार्थोसे मोह-ममत्व त्यागकर वीतराग आत्म-तत्त्वको उपलब्धिके हेतु अरण्यवास स्वीकार करना और इन्द्रिय तथा अपने मनको अधीनकर आत्मस्वरूपमे रमण करना निवृत्ति या त्यागमार्ग है। यह आचारका मार्ग सर्वसाधारणके लिये सुलभ नही। पर है निर्वाणको प्राप्त करानेवाला। यह कण्टकाकीर्ण मार्ग है । इसकी साधना विरले जितेन्द्रिय ही कर पाते हैं। इसमे सन्देह नहीं कि इस निवृत्तिमार्गका अनुसरण करनेसे रागद्वेष-मोहादिसे रहित निर्मल आत्मतत्त्वकी उपलब्धि शीघ्र ही होती है। इस आचारमार्गका नाम सकलचारित्र या मुनिधर्म है।
द्वितीय मार्ग प्रवृत्ति मार्ग है । यह सरल है, पर है दूरवर्ती। इस मार्ग द्वारा आत्मतत्त्वकी प्राप्तिमे वहुत समय लगता है। इस आचारमार्गमे किसीका भय नही है । अत इसे पुष्पाकीर्ण मार्ग कहा जाता है। प्रवृत्तिके दो रूप हैं - (१) शुभ और (२) अशुभ । अशुभ प्रवृत्तिका त्यागकर शुभ प्रवृत्तिका अनुसरण करना विकलाचरण है। संक्षेपमे आचारको दो भागोमे विभक्त किया जा सकता है। मुनि या साधुका आचार और गृहस्य या श्रावकका आचार । श्रावकाचार
श्रावकशब्द तीन वर्षों के सयोगसे बना है और इन तीनो वर्णोके क्रमशः तीन अर्थ हैं:-(१) श्रद्धालु, (२) विवेकी और (३) क्रियावान | जिसमे इन तोनो गुणोका समावेश पाया जाता है वह श्रावक है। व्रतधारी गृहस्थको श्रावक, उपासक और सागार आदि नामोसे अभिहित किया जाता है। यह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनो-निर्ग्रन्थमुनियोके प्रवचनका श्रवण करता है, अत यह श्राद्ध या श्रावक कहलाता है। श्रावकके आचारका वर्गीकरण कई दृष्टियोसे किया जाता है। पर इस आचारके वर्गीकरणके तोन आधार प्रमुख है
१. द्वादशवत, २ एकादशप्रतिमाएँ, ३ पक्ष, चर्या और साधन । सावधक्रिया-हिंसाकी शुद्धिके तीन प्रकार है -(१) पक्ष, (२) चर्या या
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निष्ठा ओर (३) साधन | वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी देव, निर्ग्रन्थ गुरु और निर्ग्रन्थ धर्मको मानना पक्ष है। ऐसे पक्षको रखनेवाला श्रावक पाक्षिक कहलाता है । इस श्रेणी श्रावककी आत्मामे समस्त प्राणियोके प्रति मैत्री, गुणी जीवके प्रति प्रमोद, दीन-दुखियोके प्रति करुणा एव विपरीतवृत्तिवालोके प्रति माध्यस्थ्यभाव रहता है। यह न्यायपूर्वक आजीविकाका उपार्जन करते हुए जीवहिंसा से विरत रहने की चेष्टा करता है। पाक्षिकश्रावकके लिये निम्नलिखित क्रियाओका पालन करना आवश्यक है ।
१ न्यायपूर्वक धनोपार्जन - गार्हस्थिक कार्योंको सम्पादित करनेके लिये आजीविका अर्जित करना आवश्यक 1 पर विश्वासघात, छल-कपट, धूर्त्तता और अन्यायपूर्वक धनार्जन करना त्याज्य है । जिसे धर्मका पक्ष है, देव, शास्त्र और गुरुके प्रति निष्ठा या श्रद्धा है ऐसा श्रावक धनार्जनमे अन्याय और अनीतिका प्रयोग नही करता । सन्तोप, शान्ति और नियन्त्रित इच्छाओके आलोकमे शुभप्रवृत्तियो द्वारा आजीविकोपार्जनका प्रयास करता है । आजीविकाके साधनोमे हिसा और आरम्भका उपयोग कम से कम किया जाय, इस जातका पूरा ध्यान रखता है। तृष्णा और विषय कषायोको सीमित और नियन्त्रित कर परिवारके भरण-पोषण हेतु आजोविकोपार्जन करता है ।
२ गुणपूजा - आत्मामे मार्दवधर्मके विकासहेतु गुणां व्यक्ति ओर ज्ञान, दर्शन, चैतन्यादि गुणोका वहुमान, श्लाघा एव प्रशसा करना गुणपूजा है । गुण, गुरु और गुणयुक्त गुरुओका पूजन एव सम्मान करना गुणविकासका कारण है अपने भीतर सदाचर, मज्जनता, उदारता, दानशीलता ओर हित-मित-प्रियवचनशीलताका प्रयोग स्व और परका उपकारक है। जिस पाक्षिकश्रावकको धर्मके प्रति निष्ठा है वह अपने आचरणमे वैय्यावृत्ति एव गुण-गु-पूजाको उपयोगी समझता है, अत पाक्षिकथावककी पात्रता प्राप्त करनेके । ये गुण- पूजा आवश्यक है । इससे आत्माके अहकार और ममकार भो क्षीण होते है ।
३ प्रशस्त वचन-- निर्दोप चाणीका प्रयोग करना प्रशस्त वचन है । परनिंदा और कठोरता आदि दोषोमे रहित प्रशस्त तथा उत्कृष्ट वचनाका व्यवहार जीवनके लिये हितकर ओर उपयोगी है ।
४ निर्बाध त्रिवर्गका सेवन - धर्म, अर्थ और काम इन तीनो पुरुषार्थीका विरोध रहित सेवन करना निर्वाध त्रिवर्गसेवन है । इन तीन पुरुषार्थोमेसे कामका कारण अर्थ है, क्योकि अर्थके विना इन्द्रिय-विषयोकी सामग्री उपलब्व नही हो सकती है और अर्थका कारण धर्म है, क्योकि पुण्योदय अथवा प्रामाणि५१०. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कता के बिना धनकी प्राप्ति नही होती । प्रामाणिकता सदाचारपर निर्भर है । पाक्षिक श्रावकको अविरोधभावसे उक्त तीनो पुरुषार्थों का सेवन करना चाहिये ।
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५ त्रिवर्गयोग्य स्त्री, ग्राम, भवन — त्रिवर्गके साधन मे सहायक स्त्री या भार्या है । सुयोग्य भार्याके रहनेसे परिवारमे शान्ति, सुख और सहयोग विद्यमान रहते हैं । सयम, अतिथि-सेवा एव शिष्टाचारको वृद्धि होती है । भार्याके समान ही त्रिवर्गमे साधक भवन और ग्रामका होना भी आवश्यक है ।
६. उचित लज्जा -- लज्जा मानवजीवनका भूषण है । लज्जाशील व्यक्ति स्वाभिमानकी रक्षा हेतु अपयशके भयसे कदाचारमे प्रवृत्त नही होता है । विरुद्ध परिस्थितिके आनेपर भी लज्जाशील व्यक्ति कुकर्म नही करता । वह शिष्ट और सयमित व्यवहारका आचरण करता है ।
७ योग्य आहार-विहार -- अभक्ष्य, अनुपसेव्य और चलितरसके सेवनका त्याग करना तथा स्वास्थ्यप्रद और निर्दोष भोजन ग्रहण करना योग्य आहार है । जिह्वालोलुपी और विषयलम्पटी भक्ष्य- अभक्ष्य का विवेक नही रख सकता है । अतएव विवेक और सयमपूर्वक आहार-विहारपर नियन्त्रण रखना योग्य आहार-विहार है ।
८ आर्यसमिति - जिनके सहवाससे आत्मगुणोमे विकास हो, संयमको प्रवृत्ति जागृत हो और आत्मप्रतिष्ठा बढे, ऐसे सदाचारी व्यक्तियोकी सगति करना आर्यसमिति कहलाती है । व्यक्ति शुभाचरणवाले पुरुषोके सम्पर्कसे आचारवान् बनता है । नीच और दुराचारी व्यक्तियोकी सगतिका त्याग अत्यावश्यक है ।
९ विवेक - कर्त्तव्याकर्त्तव्यका तर्क-वितर्कपूर्वक निर्धारण करना विवेक है । विवेक द्वारा लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकारके करणीय और अकरणीय कार्योका निर्धारण किया जाता है ।
१० उपकार स्मृति या कृतज्ञता - कृतज्ञता मनुष्यका एक गुण है । जो व्यक्ति अपने ऊपर किये गये दूसरोके उपकारोका स्मरण रखता है और उपकारके बदलेमे प्रत्युपकार करनेकी भावना रखता है वह कृतज्ञ कहलाता है । कृतज्ञता जीवन-विकासके लिये आवश्यक है । इस गुणके सद्भावसे धर्मंघारणकी योग्यता उत्पन्न होती है ।
११ जितेन्द्रियता - इन्द्रियोंके विषयोको नियन्त्रित करना तथा अनाचार और दुराचाररूप प्रवृत्तिको रोकना जितेन्द्रियता है । जो व्यक्ति इन्द्रियोंके अधीन है और विषय - सुखोको ही जिसने अपना सर्वस्व मान लिया है वह कषाय
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(३) अदत्तादान - वस्तुके स्वामीकी इच्छाके बिना किसी वस्तुको ग्रहण करना, या अपने अधिकारमे करना अदत्तादान है। मार्गमे पडी हुई या भूली हुई वस्तुको हडप जाना भी अदत्तादान है । नीति-अनीति के विवेकको तिलाजलि देकर अनधिकृत वस्तुपर भी अधिकार करनेका प्रयत्न करना चोरी हे ।
(४) मैथुन - स्त्री ओर पुरुषके कामोद्वेगजनित पारस्परिक सम्बन्धकी लालसा एव क्रिया मैथुन है और है यह अब्रह्म । यह आत्माके सद्गुणोका विनाश करनेवाला है । इस दोषाचरणसे समाजको नैतिक मर्यादाओका उल्लघन होता है ।
(५) परिग्रह - किसी भी परपदार्थको ममत्वभावसे ग्रहण करना परिग्रह है । ममत्व, मूर्च्छा या लोलुपताको वास्तवमे परिग्रह कहा जाता है । समारके अधिकाश दु ख इस परिग्रहके कारण ही उत्पन्न होते हैं। आत्मा अपने स्वरूपसे विमुख होकर और राग-द्वेष के वशीभूत होकर परिग्रहमे आसक्त होती है ।
इन दोपोंके गमनसे आत्मामे स्वहितकी क्षमता ओर योग्यता उत्पन्न होती है । जो श्रावकके द्वादश व्रतोका पालन करना चाहता है, उसे सप्तव्यसनका त्याग आवश्यक है । द्यूतक्रीडा, मासाहार, मदिरा-पान, वेश्यागमन, आखेट, चोरी और परस्त्रीगमन ये सातो ही व्यसन जीवनको अध पतनकी ओर ले जानेवाले हैं । व्यसनोका सेवन करनेवाला व्यक्ति श्रावकके द्वादश व्रतोंके ग्रहण करनेका अधिकारी नही है । इसीप्रकार मद्य, मास, मधु और पच क्षीरफलोके भक्षणका त्याग कर अष्ट मूलगुणोका निर्वाह करना भी आवश्यक है । वास्तवमे मद्यत्याग, मामत्याग, मधुत्याग, रात्रिभोजनत्याग, पचोदुम्बरफलत्याग, देववन्दना, जीवदया और जलगालन ये आठ मूलगुण श्रावकके लिये आवश्यक है ।
इसप्रकार जो सामान्यतया विरुद्ध आचरणका त्याग कर इन्द्रिय और मनको नियत्रित करनेका प्रयास करता है, वही श्रावक धर्मको ग्रहण करता है ।
श्रावकके द्वादश व्रतोमे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोकी गणना की गयी है । वस्तुत इन व्रतोका मूलाधार अहिंसा है । अहिमासे ही मानवताका विकास ओर उत्थान होता है, यही सस्कृतिकी आत्मा है और है आध्यात्मिक जीवनकी नीव ।
१. मद्यपलमधुनिशाशनपञ्च फली विर तिपञ्चका प्तनुती ।
जीवदया लगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणा ॥ - सागारधर्मामृत, २1१८
५१४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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अणुव्रत
हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और मूर्छा-परिग्रह इन पांच दोप या पापोसे स्थूलरूप या एक देशरूपसे विरत होना अणुव्रत है । अणुशब्दका अर्थ लघु या छोटा है। जो स्थूलरूपसे पच पापोका त्याग करता है, वही अणुव्रतका धारी माना जाता है । अणुवत पांच हैं
(१) अहिंसाणुव्रत-स्थूलप्राणातिपातविरमण-जीवोको हिंसासे विरत होना अहिंसाणुव्रत है । प्रमत्तयोगसे प्राणोके विनाशको हिसा कहा जाता है। प्रमत्तयोगका अभिप्राय राग-द्वेषरुप प्रवृत्तिसे है। यहाँ प्रमत्तयोग कारण है
और प्राणोका विनाग कार्य । प्राण दो प्रकारके होते है -(१) द्रव्यप्राण और (२) भावप्राण । प्रमत्तयोगके होनेपर द्रव्यप्राणोके विनागका होना नियमित नहीं है। हिंसाके अन्य भी निमित्त हो सकते है। पर प्रमत्तयोगसे भावप्राणोका विनाश होता है और भावप्राणोका विनाश ही यथार्थमे हिंसा है। राग-द्वेषकी प्रवृत्ति हिंसा है और निवृत्ति अहिमा। वस्तुत ससारमे न कोई इष्ट होता है, न कोई अनिष्ट, न कोई भोग्य होता है और न कोई अभोग्य । मनुष्यका राग-द्वेप हो ससारको इष्ट और अनिष्ट रूपमे दिग्पलाता है। इष्टसे राग और अनिष्टसे द्वेष होता है । अत राग-द्वे पके अवलम्बनस्प वाह्य पदार्थोका त्याग आवश्यक है। हिंसाका कारण राग-द्वेपरूप परिणति ही है। अतएव अहिंसाका पालन आवश्यक है । इसीके द्वारा मनुष्यताको प्रतिष्ठा सम्भव हे । अत्याचारीकी इच्छाके विरुद्ध अपने समस्त आत्मवलको लगा देना ही सघर्षका अन्त करना है और यहो अहिंसा है। अहिंसा ही अन्याय और अत्याचारसे दीन-दुर्वलोकी रक्षा कर सकती है । यही विश्वके लिये सुखदायक है। ___ हिंसा विश्वमे शान्ति और सुखकी स्थापना नही कर सकती। प्रत्येक प्राणीको यह जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है कि वह स्वय सुखपूर्वक जिये और अन्य प्राणियोको भी जीवित रहने दे। आजका मनुष्य स्वार्थ और अधिकारके वशीभूत हो स्वय तो सुखपूर्वक रहना चाहता है, पर दूसरोको चैन और शान्तिसे नही रहने देता है। अतएव अहिंसाणुव्रतका जीवनमे धारण करना आवश्यक है। अहिंसाका अर्थ मनसा, वाचा और कर्मणा प्राणीमात्रके प्रति सद्भावना और प्रेम रखना है। दम्भ, पाखण्ड, ऊंच-नीचकी भावना, अभिमान, स्वार्थबुद्धि, छल-कपट प्रभृति भावनाएँ हिंसा हैं। अहिंसामे त्याग है, भोग नही ।
१ रागद्वेषो प्रवृत्तिः स्यान्निवृत्तिस्तन्निषेधनम् । तौ च वाह्यार्थसवद्धी तस्मात्तान् सुपरित्यजेत् ॥-आत्मानुशासन, श्लोक २३७
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जहाँ राग-द्वेष है, वहाँ हिंसा अवश्य है । अत. राग-द्व ेषकी प्रवृत्तिका नियंत्रण आवश्यक है ।
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हिंसा चार प्रकारको होती है - ( १ ) सकल्पी, (२) उद्योगी, (३) आरभी और (४) विरोधी । निर्दोष जीवका जानबूझकर बध करना संकल्पी; जीविकासम्पादनके लिये कृषि, व्यापार, नोकरी आदि कार्यों द्वारा होनेवाली हिंसा उद्योगी, सावधानीपूर्वक भोजन बनाने, जल भरने आदि कार्यो मे होनेवाली हिंसा आरम्भी एव अपनी या दूसरोकी रक्षाके लिये को जानेवाली हिंसा विरोधी हिंसा कहलाती है । प्रत्येक गृहस्थको सकल्पपूर्वक किसी भी जीवकी हिंसा नही करनी चाहिये । अहिंसाणुव्रतका धारी गृहस्थ सकल्पी हिंसाका नियमत त्यागी होता है । इस हिसाके त्याग द्वारा श्रावक अपनी कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियोको शुद्ध करता है । अहिंसक यतनाचारका धारी होता है ।
अहसाणुव्रतका धारी जीव त्रसहिंसाका त्याग तो करता ही है, साथ ही स्थावर-प्राणियो की हिसाका भी यथाशक्ति त्याग करता है । इस व्रतकी शुद्धिके लिये निम्नलिखित दोषोका त्याग भी अपेक्षित है
(१) बन्ध - सप्राणियोको कठिन बन्धन से बांधना अथवा उन्हे अपने इष्ट स्थानपर जानेसे रोकना । अधीनस्थ व्यक्तियोंको निश्चित समयसे अधिक काल तक रोकना, उनसे निर्दिष्ट समयके पश्चात् भी काम लेना, उन्हे अपने इष्ट स्थानपर जानेमे अन्तराय पहुँचाना आदि बन्धके अन्तर्गत है ।
(१) वध - सप्राणीको मारना, पीटना या त्रास देना, वध है । प्रत्यक्ष या परोक्षरूपसे किसी भी प्राणीकी हत्या करना, कराना, किसीको मारना, पीटना या पिटवाना, सन्ताप पहुंचाना, शोषण करना आदि वधके विविध रूप हैं । स्वार्थवश वघके विविध रूपोमे व्यक्ति प्रवृत्त होता है। जिसके हृदयमे सर्वहितकी भावना समाहित रहती है, वह वध नही करता है ।
(३) छविच्छेद - किसीका अंग भंग करना, अपग बनाना या विरूप करना छविच्छेद है ।
(४) अतिभार -- अश्व, वृषभ, ऊँट आदि पशुओ पर अथवा मजदूर आदि नौकरोपर उनकी शक्तिसे अधिक बोझ लादना अतिभार है । शक्ति एवं समय होनेपर भी अपना काम स्वय न कर दूसरोसे करवाना अथवा किसीसे शक्तिसे अधिक काम लेना भी अतिभार है ।
(५) अन्न-पाननिरोध - अपने आश्रित प्राणियोको समयपर भोजन-पानी न देना अधीनस्थ सेवकोको उचित वेतन न देना अन्न-पाननिरोध है ।
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अहिसाणवतकी रक्षाके लिये निम्नाग्मित पाच भावनाओका पालन करना भी आवश्यक है(१) वचनगुप्ति-वचनकी प्रवृत्तिको रोकना, (२) मनोगुप्ति-मनकी प्रवृत्तिको रोकना, (३) ईर्यासमिति-सावधानीपूर्वक देखकर चलना, (४) आदान-निक्षेपणसमिति-सावधानीपूर्वक देखकर वस्तुको उठाना और रखना।
(५) आलोकितपानभोजन-दिनमे अच्छी तरह देख-भालकर आहारपानीका ग्रहण करना।
२ सत्याणुवत-अहिंसा और सत्यका परस्परम धनिष्ट सम्बन्ध है । एकके अभावमे दूसरेकी साधना शक्य नही। ये दोनो परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित है। अहिंसा सत्यको स्वरूप प्रदान करती है और सत्य अहिंसाकी सुरक्षा करता है। अहिंसाके बिना सत्य नग्न एव कुस्प है । अत मृपावादका त्याग अपेक्षित है। स्थूल झूठका त्याग किये विना प्राणी अहिसक नही हो सकता है । यत सत्ता और धोखा इन दोनोका जन्म झूठसे होता है। झूठा व्यक्ति आत्मवचना भी करता है। मिथ्याभाषणमे प्रमुख कारण स्वार्थकी भावना है। स्वच्छन्दता, घृणा, प्रतिशोध जैसी भावनाएँ, असत्य या मिथ्याभाषणसे उत्पन्न होतो है। मानवसमाजका समस्त व्यवहार वचनोसे संचालित होता है । वचनके दोषसे व्यक्ति और समाज दोनोमे दोप उत्पन्न होता है। अतएव मृषावादका त्याग आवश्यक है।
असत्य वचनके तीन भेद है-१. गहित २ सावध और ३. अप्रिय । निन्दा करना, चुगली करना, कठोर वचन बोलना एव अश्लील वचनोका प्रयोग करना गहित असत्यमे परिगणित हैं । छेदन, भेदन, मारन. शोषण, अपहरण एव ताड़न सम्बन्धी वचन भी हिंसक होनेके कारण सावध असत्य कहलाते हैं। इन दोनो प्रकारके वचनोके अतिरिक्त अविश्वास, भयकारक, खेदजनक, वैर-शोक उत्पादक, सन्तापकारक आदि अप्रिय वचनोका त्याग करना आवश्यक है।
झुठो साक्षी देना, झूठा दस्तावेज या लेख लिखना, किसीकी गुप्त बात प्रकट करना, चुगली करना, सच्ची झूठी कहकर किसीको गलत रास्ते पर ले जाना, आत्मप्रशसा और परनिन्दा करना आदि स्थूल मृषावादमे सम्मिलित हैं।
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सावधानीपूर्वक सत्याणुव्रतका पालन करनेके लिए निम्नलिखित अतिचारोका त्याग आवश्यक है ।
१ मिथ्योपदेश -- सन्मार्ग पर लगे हुए व्यक्तिको भ्रमवश अन्य मार्ग पर ले जानेका उपदेश करना |मथ्योपदेश है । असत्य साक्षी देना और दूसरे पर अपवाद लगाना भी मिथ्योपदेशके अन्तर्गत है ।
२ रहो भ्याख्यान - गुप्त बात प्रकट करना रहोभ्याख्यान है । विश्वासघात करना भी इसी सम्मिलित है ।
३ कूटलेख क्रिया- झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज तैयार करना, झूठे हस्ताक्षर करना, गलत बही खाते तैयार कराना, नकली सिक्के तैयार करना अथवा नकली सिक्के चलाना कूटलेखक्रिया है ।
४. न्यासापहार- कोई धरोहर रखकर उसके कुछ अशको भूल गया, तो उसको इस भूलका लाभ उठाकर धरोहरके भूले हुए अशको पचाने की दृष्टिसे कहना कि जितनी धरोहर तुम कह रहे हो उतनी ही रखी थी, न्यासापहार है ।
५. साकारमन्त्रभेद - चेष्टा आदि द्वारा दूसरेके अभिप्रायको ज्ञात कर ईर्ष्यावश उसे प्रकट कर देना साकारमन्त्रभेद है । इस व्रतका सम्यक्तया पालन करनेके लिए क्रोध, लोभ, भय और हास्यका त्याग करना तथा निर्दोष वाणीका व्यवहार करना आवश्यक है ।
अचौर्याणुव्रत
मन, वाणी और शरीरसे किसीकी सम्पत्तिको बिना आज्ञा न लेना अचोर्याणुव्रत है । स्तेय या चोरी के दो भेद है- (१) स्थूल चोरी और (२) सूक्ष्म चोरी | जिस चोरी के कारण मनुष्य चोर कहलाता है, न्यायालयसे दडित होता है और जो चोरी लोकमे चोरी कही जाती है, वह स्थूल चोरी है। मार्गं चलतेचलते तिनका या ककड़ उठा लेना सूक्ष्म चोरोके अन्तर्गत है ।
किसीके घरमे सेंध लगाना, किसीके पॉकेट काटना, ताला तोडना, लूटना, ठगना आदि चोरी है। आवश्यकतासे अधिक सग्रह करना या किसी वस्तुका अनुचित उपयोग करना भी एक प्रकारसे चोरी है । अचौर्याणुव्रतके धारी गृहस्थको एकाघिकारपर भी नियन्त्रण करना चाहिए। समस्त सुविधाए अपने लिए सञ्चित करना तथा आवश्यकताओको अधिक-से-अधिक बढाते जाना भी स्तेयके अन्तर्गत है । ससारमें धनादिककी जितनी चोरी होती है, उससे कही अधिक विचार एव भावोकी भी चोरी होती है । अतएव अचौर्य भावना द्वारा भौतिक आवश्यकताओको नियन्त्रित करना चाहिए। वस्तुत. जीवनकी किसी भी प्रकारकी
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कमजोरीको छिपाना कमजोरी हे । जीवनमे अगणित कमजोरियां है और होती रहेगी, पर उनपर न तो पर्दा डालना और न उनके अनुसार प्रवृत्ति करना ही उचित है।
अचौर्याणुव्रतके पालनके लिए निम्नलिखित अतिचारोका त्याग भी अपेक्षित है
१ स्तेनप्रयोग-चोरी करनेके लिए किसीको स्वय प्रेरित करना, दूसरेसे प्रेरणा कराना या ऐसे कार्यमे सम्मति देना स्तेनप्रयोग है।
२ स्तेनाहत-अपनी प्रेरणा या सम्मतिके विना किसीके द्वारा चोरी करके लाये हुए द्रव्यको ले लेना स्तेनाहत है।
३ विरुद्धराज्यातिक्रम-राज्यमे विप्लव होनेपर होनाधिक मानसे वस्तुओका आदान-प्रदान करना विरुद्धराज्यातिक्रम है। राज्यके नियमोका अतिक्रमण कर जो अनुचित लाभ उठाया जाता है, वह भी विरुद्धराज्यातिक्रम है। ___ ४ होनाधिकमानोन्मान-मापने या तौलनेके न्यूनाधिक बाँटोसे देन-लेन करना होनाधिकमानोन्मान है।
५. प्रतिरूपकव्यवहार असली वस्तुके बदलेमे नकली वस्तु चलाना या असलोमे नकली वस्तुमिलाकर उसे बेचना या चालू करना प्रतिरूपकव्यवहार है।
वास्तवमे इन अतिचारोका उद्देश्य विश्वासघात, वेईमानी, अनुचित लाभ आदिका त्याग करना है।
अचौर्याणुव्रतकी शून्यागारावास-निर्जन स्थानमे निवास, विमोचितावास-दूसरेके द्वारा त्यक्त आवास, परोपरोधाकरण-अपने द्वारा निवास किये गये स्थानमे अन्यका अनवरोष, भेक्ष्यशुद्धि-भिक्षाके नियमोका उचित पालन करना एव सधर्माविसवाद ये पाँच भावनाएं है।
स्वदारसन्तोष-मन, वचन और कायपूर्वक अपनी भार्याके अतिरिक्त शेप समस्त स्त्रियोके साथ विषयसेवनका त्याग करना स्वदारसन्तोषव्रत है। जिस प्रकार श्रावकके लिए स्वदारसन्तोषव्रतका विधान है उसी प्रकार श्राविकाके लिए स्वपतिसन्तोषका नियम है। काम एक प्रकारका मानसिक रोग है। इसका प्रतिकार भोग नही, त्याग है। रोगके प्रतिकारके लिए नियन्त्रित रूपमे विषयका सेवन करना और परस्त्रीगमनका त्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदारसन्तोषमे परिगणित है। यह अणुव्रत जीवनको मर्यादित करता है और मैथुनसेवनको नियन्त्रित करता है। इस व्रतके निम्नलिखित पाँच अतिचार है।
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१. परविवाहकरण-जिनका विवाह करना अपने दायित्व अन्तर्गत नही है उनका विवाह सम्पादित कराना, परविवाहकरण है।
२. इत्वरिकापरिगृहीतागमन-जो स्त्रियाँ परदारकोटिमे नही आती, ऐसी स्त्रियोको धनादिका लालच देकर अपनी बना लेना अथवा जिनका पति जीवित है, किन्तु पुश्चली हैं उनका सेवन करना इत्वरिकापरिगृहीतागमन है। वस्तुत: यह अतिचार उसी समय अतिचारके रूपमे आता है जब व्रतका एकदेश भग होता है, अन्यथा व्रतभग माना जाता है।
३. इत्वरिकाअपरिग्रहीतागमन-जो स्त्री अपरिग्रहीता-अस्वीकृतपतिका है, उसके साथ अल्प कालके लिए कामभोगका सम्बन्ध स्थापित करना इत्त्वरिकाअपरिग्रहीतागमन है। वेश्या या अनाथ पुश्चली स्त्रीका नियत काल सेवन करनेमे यह अतिचार है। ___ ४ अनङ्गक्रीडा-कामसेवनके अतिरिक्त अन्य अङ्गोसे क्रीड़ा करना अनङ्गक्रीडा है।
४ कामतीव्राभिनिवेश-काम एव भोगरूप विषयोमें अत्यन्त आसक्ति रखना कामतीव्राभिनिवेश है।
ब्रह्मचर्याणुव्रतके धारोको स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग, स्त्रीमनोहराङ्गनिरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरणत्याग, वृष्य-इष्टरसत्याग और स्वशरीर-सस्कारत्याग करना भी आवश्यक है। परिग्रहपरिमाण-अणुव्रत
परिग्रह ससारका सबसे बड़ा पाप है। ससारके समक्ष जो जटिल समस्याएं आज उपस्थित है, सर्वव्यापी वर्गसंघर्षकी जो दावाग्नि प्रज्वलित हो रही है, वह सब परिग्रह-मूर्छाकी देन है। जब तक मनुष्यके जीवनमे अमर्यादित लोभ, लालच, तृष्णा, ममता या गृद्धि विद्यमान है, तब तक वह शान्तिलाभ नही कर सकता। श्रावक अपनी इच्छाओको नियन्त्रित कर परिग्रहका परिमाण ग्रहण करता है। ससारके धन, ऐश्वर्य आदिका नियमन कर लेना परिग्रहपरिमाणवत है। अपने योग-क्षेमके लायक भरणपोषणकी वस्तुमोको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना न्याय और अत्याचार द्वारा धनका सचय न करना परिग्रहपरिमाण है। धन, धान्य, रुपया, पैसा, सोना, चाँदी, स्त्री, पुत्र, गृह प्रभृति पदार्थोंमे ये मेरे है। इस प्रकारके ममत्वपरिणामको परिग्रह कहते है। इस ममत्व या लालसाको घटाकर उन वस्तुओको नियमित या कम करना परिग्रहपरिमाणवत है। इस व्रतका लक्ष्य समाजकी आर्थिक विषमताको दूर करना है । इस व्रतके निम्नलिखित पांच अतिचार हैं५२० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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१. खेत और मकानके प्रमाणका आंतकम। २. हिरण्य और स्वर्णके प्रमाणका अतिक्रमण । ३. धन और धान्यकै प्रमाणका अतिकमण । ४ दास और दामोके पमाणमा अनिकगण | ५ कुप्प-भाण्ड (वतंन) आदि प्रमाणवा अतिक्रमण ।
इस व्रतका :न्द्रियोंके मनोश विषयोमे गग नही करना और अमनोज्ञ विषयोमे द्वेष नहीं करना रूप पांच भावनाएं हैं। गुणयत और शिक्षायत
अणुव्रतोकी मम्मुष्टि, वृद्धि और रक्षाके लिए तीन गणव्रत और चार शिक्षाप्रतोंका पामगारना जायस्या है। इन तीनो पालनगे मुनिवतो गहण करनेको शिक्षा प्राप्त होता है । गुणत्रत तीन है
१.दिगनत। २ देशवत या देशावफाशिकरत । ३ अनयंदाउरत। दिगवत-मनुष्यको अभिलाषा आता गमान सोम और अग्निक ममान ममग मलपर अपना एबटन नाम्राज्य स्थापित करनेका मधुर स्वप्न ही नहीं दयनो, अपितु उग स्वप्नको माकार रनेक लिए समस्त दिशाओम विजय करना चाहती है। अर्थलालूपों मानव तृष्णाके वश होकर विभिन्न देगोमे परिभ्रमण करता है और विदगोमे व्यापारसम्थान स्थापित करता है। मनुष्यको म निरकुन तृष्णाको नियन्त्रित करनेक लिए दिनतका विधान किया गया है।
पूर्वादि दिशाओम नदी, ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध स्थानोका गर्यादा बांधकर जन्मपर्यन्त उममे बाहर न जाना और उसके भीतर लेन-देन करना दिग्यत है। इस व्रतके पालन करनेमे क्षेत्रमर्यादाके बाहर हिसादि पापोका त्याग हो जाता है और उम क्षेत्रमे वह महाव्रतीतुल्य बन जाता है। दिग्यतके निम्नलिखित पांच अतिचार है
१ कलव्यतिक्रम-लोभादिवश कर्वप्रमाणका अतिक्रम। २ अघोव्यतिक्रम-वापी, कूप, खदान आदिको अव.मर्यादाका अतिक्रम । ३ तिर्यग्व्यतिक्रम-तिरछे रूपमे क्षेत्रका अतिक्रम। ४. क्षेत्रवृद्धि-एक दिशासे क्षेत्र घटाकर दूसरी दिशामे क्षेत्रप्रमाणको
वृद्धि।
५ स्मृत्यन्तराधान-निश्चित की गई क्षेत्रको मर्यादाका विस्मरण ।
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वैशावकाशिक व्रत
दिग्व्रतमे जीवन पर्यन्तके लिए दिशाओका परिमाण किया जाता है । इसमे किये गये परिमाणमे कुछ समयके लिए किसी निश्चित देश पर्यन्त आनेजानेका नियम ग्रहण करना देशावकाशिकव्रत है । इस व्रतके पांच अतिचार है—
१ आनयन - मर्यादासे बाहरकी वस्तुका बुलाना ।
२ प्रेष्यप्रयोग — मर्यादासे बाहर स्वय न जाना किन्तु सेवक आदिको आज्ञा देकर वहाँ बैठे हुए ही काम करा लेना प्रेष्यप्रयोग है ।
३ शब्दानुपात - मर्यादाके बाहर स्थित किसी व्यक्तिको शब्दद्वारा बुलाना ।
४ रूपानुपात -- मर्यादित क्षेत्रके बाहरसे आकृति दिखाकर सकेतद्वारा बुलाना ।
५ पुद्गलक्षेप - मर्यादाके बाहर स्थित व्यक्तिको अपने पास बुलाने के लिए पत्र, तार आदिका प्रयोग करना ।
rajasat
बिना प्रयोजनके कार्यों का त्याग करना अनर्थदण्डव्रत कहलाता है । जिनसे अपना कुछ भी लाभ न हो और व्यर्थ ही पापका सचय होता हो, ऐसे कार्यों कोअनर्थदण्ड कहते है और उनके त्यागको अनर्थदण्डव्रत कहा जाता है। अनर्थaush निम्न पांच भेद है
१ अपध्यान – दूसरोका बुरा विचारना ।
२ पापोपदेश -- पापजनक कार्योंका उपदेश देना ।
३. प्रमादाचरित - आवश्यकताके बिना वन कटवाना, पृथ्वी खुदवाना, पानी गिराना, दोष देना, विकथा या निन्दा आदिमे प्रवृत्त होना ।
४. हिंसादान - हिंसा के साधन अस्त्र, शस्त्र, विष, विषैली गैस आदि सामग्रीका देना अथवा सहारक अस्त्रोका आविष्कार करना ।
५. अशुभश्रुति - हिंसा और राग आदिको बढ़ानेवाली कथाओका सुनना, सुनाना अशुभश्रुति है ।
शिक्षाव्रतके चार भेद हैं- १ सामायिक, २. प्रोषधोपोवास, ३. भोगोपभोगपरिमाण और ४. अतिथिस विभाग ।
सामायिक – तीनो सन्ध्याओमे समस्त पापके कर्मोंसे विरत होकर नियत स्थानपर नियत समयके लिए मन, वचन और कायके एकाग्र करनेको सामायिक
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व्रत कहते है। जितने समय तक व्रती सामायिक करता है, उतने समय तक वह महाव्रतीके समान हो जाता है । समभाव मा शान्तिको प्राप्तिके लिए सामायिक किया जाता है । सामायिकततके निम्नलिखित पाँच अतिचार हैं-
१ कायदुष्प्रणिधान - सामायिक करते समय हाथ, पैर आदि शरीरके अवयवोको निश्चल न रखना, नोदका सोका लेना ।
२. वचनदुष्प्रणिधान -मामायिक करते समय गुनगुनाने लगना ।
३. मनोदुष्प्रणिधान मनमे संकल्प-विकल्प उत्पन्न करना एव मनको गृहस्थोके कार्य मे फँसाना ।
४. अनादर-सामायिकमे उत्साह न करना ।
५ स्मृत्यनुपस्थान - एकाग्रता न होनेसे सामायिकको स्मृति न रहना । प्रोषधोपवास
पांच इन्द्रियां अपने-अपने विषयने निवृत्त होकर उपवासी - नियन्त्रित रहे, उसे उपवास कहते है । प्रोषध अर्थात् पर्वके दिन उपवास करना प्रोषघोपवास है । साधारणत चारों प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास है, पर सभी इन्द्रियो विषयभोगोसे निवृत्त रहना हो यथार्थमे उपवास है । प्रोषधोपवाससे ध्यान, स्वाध्याय, ग्रह्मचर्यं ओर तत्त्वचिन्तन आदिकी सिद्धि होती है । प्रोषघोपवासके निम्नलिखित अतिचार हैं
१ प्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सगं - जीव-जन्तुको देखे विना और कोमल उपकरण द्वारा बिना प्रमाजंनके ही मल मूत्र और श्लेष्मका त्याग करना ।
२ अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादान -- विना देखे और बिना प्रमार्जन किये हो पूजाके उपकरण आदिको ग्रहण करना ।
३. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजित संस्तरोपक्रमण - बिना देखे और बिना प्रमार्जन किये ही भूमिपर चटाई आदि बिछाना ।
४ अनादर - प्रोपधोपवास करनेमें उत्साह न दिखलाना ।
५ स्मृत्यनुपस्थान - प्राषधोपवास करने के समय चित्तका चञ्चल रहना । भोगोपभोगपरिमाण
आहार-पान, गन्ध-माला आदिको भोग कहते हैं । जो वस्तु एकवार भोगने योग्य है, वह भोग है और जिन वस्तुओको पुन - पुन भोगा जा सके वे उपभोग हैं । इन भोग और उपभोगको वस्तुओका कुछ समयके लिये अथवा जीवन पर्यन्तके लिए परिमाण करना भोगोपभोगपरिमाणव्रत है । इस व्रतके पालन
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करनेसे लोलुपता एव विषयवांछा घटती है। इस व्रतके निम्नलिखित अतिचार हैं
१. सचित्ताहार-अमर्यादित वस्तुओका उपयोग करना और सचित्त पदार्थोंका भक्षण करना।
२. सचित्तसम्बन्धाहार-जिस अचित्त वस्तुका सचित्त वस्तुसे सबध हो गया हो, उसका उपयोग करना । ___३ सचित्तसम्मिश्राहार-चीटी आदि क्षुद्र जन्तुओसे मिश्रित भोजनका आहार अथवा सचित्तसे मिश्रित वस्तुका व्यवहार ।
४. अभिषवाहार-इन्द्रियोको मद उत्पन्न करनेवाली वस्तुका सेवन ।
५. दुष्पक्वाहार-अधपके, अधिकपके, ठोक तरहसे नही पके हुए या जले भुने हुए भोजनका सेवन । अतिथिसंविभाग ___ जो सयमरक्षा करते हुए विहार करता है अथवा जिसके आनेकी कोई निश्चित तिथि नही है, वह अतिथि है। इस प्रकारके अतिथिको शुद्धचित्तसे निर्दोष विधिपूर्वक आहार देना अतिथिसविभागवत है। इस प्रकारके अतिथियाको योग्य औषध, धर्मोपकरण, शास्त्र आदि देना इसी व्रतमे सम्मिलित है । अतिथिसविभागवतके निम्नलिखित अतिचार है
१ सचित्तनिक्षेप-सचित्त कमलपत्र आदिपर रखकर आहारदान देना। २ सचित्तापिधान-आहारको सचित्त कमलपत्र आदिसे ढकना।
३ परव्यपदेश-स्वय दान न देकर दूसरेसे दिलवाना अथवा दूसरेका द्रव्य उठाकर स्वय दे देना।
४ मात्सर्य-आदरपूर्वक दान न देना अथवा अन्य दाताओसे ईर्ष्या करना।
५. कालातिक्रम-भिक्षाके समयको टालकर अयोग्य कालमे भोजन कराना। सल्लेखनावत
सम्यक रीतिसे काय और कषायको क्षीण करनेका नाम सल्लेखना है । जब मरणसमय निकट आ जाय तो गृहस्थको समस्त पदार्थोंसे मोह-ममता छोड़कर शन शनै. आहारपान भी छोड देना चाहिए। इस प्रकार शरीरको कृश करनेक साथ ही कषायोको भी कृश करना तथा धर्मध्यानपूर्वक मृत्युका स्वागत करना सल्लेखनाव्रतके अन्तर्गत है। ५२४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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शरीरका उद्देश्य धर्मसाधन है। धार्मिक विधि-विधानका अनुष्ठान इस शरीरके द्वारा ही सम्भव होता है। अत जब तक यह शरीर स्वस्थ है और धर्मसाधनको क्षमता है तबतक धर्मसाधनमे प्रवृत्त रहना चाहिए, पर जब शरीरके विनाशके कारण उपस्थित हो जायें और प्रयत्न करनेपर भी शरीरकी रक्षा सम्भव न हो, तव आहार, पानको त्याग करते हुए गृहस्थ राग, द्वेष और मोहसे आत्माकी रक्षा करता है । वस्तुत श्रावकके लिए आत्मशुद्धिका अन्तिम अस्त्र सल्लेखना है । सल्लेखनाद्वारा ही जीवनपर्यन्त किये गये व्रताचरणको सफल किया जाता है। यह आत्मघात नहीं है. क्योकि आत्मघातमे कषायका सद्भाव रहता है, पर सल्लेखनामे कषायका अभाव है। सल्लेखनावतके निम्नलिखित अतिचार हैं
१ जीवितागसा-जीवित रहनेको इच्छा। २. मरणागसा-सेवा-मुश्रपाके अभावमे गोघ्र मरनेकी इच्छा। ३ मित्रानुराग-मित्रोके प्रति अनुराग जागत करना । ४. सुन्वानुवन्ध-भोगे हुए मुखोका पुन पुन स्मरण करना।
५ निदान-तपश्चर्याका फल भोगरूपमे चाहना । श्रावकके दैनिक षट् कर्म
थावक अपना सर्वांगीण विकास निलिप्तभावसे स्वकर्तव्यका सम्पादन करते हुए घरमे रहकर भी कर सकता है। दैनिक कृत्योमे पट्कर्मोको गणना की गई है।
१ देवपूजा-देवपूजा गुभोपयोगका साधन है। पूज्य या अय॑ गणोंके प्रति आत्मसमर्पणकी भावना ही पूजा है । पूना करनेसे शुभरागको वृद्धि होती है, पर यह गभराग अपने 'स्व'को पहचाननेमे उपयोगी सिद्ध होता है। पूजाके दो भेद हैं-द्रव्यपूजा और भावपूजा । अष्टद्रव्योंसे वीतराग और सर्वज्ञदेवकी पूजा करना द्रव्यपूजा है। और विना द्रव्यके केवल गुणोका चिन्तन और मनन करना भावपूजा है। भावपूजामे आत्माके गुण ही आधार रहते है, अत' पूजकको आत्मानुभूतिको प्राप्ति होती है । सराग वृत्ति होनेपर भी पूजन द्वारा रागद्वपके विनागकी क्षमता उत्पन्न होती है।
पूजा सम्यग्दर्शनगुणको तो विशुद्ध करती ही है, पर वीतराग आदर्शको प्राप्त करनेके लिये भी प्रेरित करती है। यह आत्मोत्यानकी भूमिका है। ...२ गुरुभक्ति-गुरुका अर्थ अज्ञान-अन्धकारको नष्ट करने वाला है। यह निर्ग्रन्थ, तपस्वी और आरम्भपरिग्रहरहित होता है। जीवनमे सस्कारोका
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प्रारम्भ गुरुचरणोकी उपासनासे ही सम्भव है । इसी कारण गृहस्थ के दैनिक षट्कर्मो मे गुरूपास्तिको आवश्यक माना है । यत गुरुके पास सतत निवास करनेसे मन, वचन, कायकी विशुद्धि स्वत होने लगती है और वाक्सयम, इन्द्रियसंयम तथा आहारसंयम भी प्राप्त होने लगते हैं । गुरु-उपासनासे प्राणीको स्वपरप्रत्ययकी उपलब्धि होती है । अतएव गृहस्थको प्रतिदिन गुरु-उपासना एवं गुरुभक्ति करना आवश्यक है ।
स्वाध्याय-स्वाध्यायका अर्थ स्व- आत्माका अध्ययन - चिन्तन-मनन है | प्रतिदिन ज्ञानार्जन करनेसे रागके त्यागकी शक्ति उपलब्ध होती है । स्वाध्याय समस्त पापोका निराकरणकर रत्नत्रयकी उपलब्धिमे सहायक होता है । बुद्धिबल और आत्मबलका विकास स्वाध्याय द्वारा होता है । स्वाध्याय द्वारा सस्कारोमे परिणामविशुद्धि होती है और परिणामविशुद्धि ही महाफलदायक है । मनको स्थिर करनेकी दिव्यौषधि स्वाध्याय ही है । हेय - उपादेय और ज्ञेयकी जानकारोका साधन स्वाध्याय है । स्वाध्याय वह पीयूष है जिससे ससाररूपी व्याधि दूर हो जाती है । अतएव प्रत्येक श्रावकको आत्मतन्मयता, आत्मनिष्ठा, प्रतिभा, मेघा आदिके विकासके लिये स्वाध्याय करना आवश्यक है ।
संयम - इन्द्रिय और मनका नियमनकर सयममे प्रवृत्त होना अत्यावश्यक है । कषाय और विकारोका दमन किये बिना आनन्दकी उपलब्धि नही हो सकती है । सयम ही ऐसी ओषधि है, जो रागद्वेषरूप परिणामोको नियन्त्रित करता है । सयमके दो भेद हैं- १ इन्द्रियसयम और २ प्राणिसयम । इन दोनो सयमोमे पहले इन्द्रियसयमका धारण करना आवश्यक है क्योकि इन्द्रियोके वश हो जानेपर ही प्राणियोकी रक्षा सम्भव होती है । इन्द्रियसम्बन्धी अलाषाओ, लालसाओ और इच्छाओका निरोध करना इन्द्रियसयमके अन्तर्गत है । विषय- कषायाओको नियन्त्रित करनेका एकमात्र साधन संयम है । जिसने इन्द्रियसयमका पालन आरम्भ कर दिया है वह जीवननिर्वाहके लिये कम-से-कम सामग्रीका उपयोग करता है, जिससे शेष सामग्री समाजके अन्य सदस्योके काम आती है, सघर्ष कम होता है और विपमता दूर होती है । यदि एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करे तो दूसरोके लिये सामग्री कम पडेगी, जिससे शोषण आरम्भ हो जायगा । अतएव इन्द्रियसयमका अभ्यास करना आवश्यक है ।
प्राणिसयममे षट्कायके जोवोकी रक्षा अपेक्षित है । प्राणिसयमके धारण करनेसे अहिंसाकी साधना सिद्ध होती है और आत्मविकासका आरम्भ होता है ।
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तप-इच्छानिरोधको तप कहते है। जो व्यक्ति अपनी महत्त्वाकाक्षाओ और इच्छाओका नियन्त्रण करता है, वह तपका अभ्यासी है। वास्तवमे अनशन, ऊनोदर आदि तपोके अभ्याससे आत्मामे निर्मलता उत्पन्न होती है। अहकार और ममकारका त्याग भी तपके द्वारा ही सम्भव है। रत्नत्रयके अभ्यासी श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिदिन तपका अभ्यास करना चाहिए।
दान-शक्त्यनुसार प्रतिदिन दान देना चाहिए। सम्पत्तिकी सार्थकता दानमे ही है। दान सुपात्रको देनेसे अधिक फलवान होता है। यदि दानमे अहकारका भाव आ जाय तो दान निष्फल हो जाता है। श्रावक मुनि, आयिका, क्षुल्लिका, क्षुल्लक, ब्रह्मचारो, व्रती आदिको दान देकर शुभभावोका अर्जन करता है । बावकाचारके विकासको सोढियां
श्रावक अपने आचारके विकासके हेतु मूलभूत व्रतोका पालन करता हुआ सम्यग्दर्शनको विशुद्धिके साथ चारित्रमे प्रवृत्त होता है। उसके इस चारित्रिक विकास या आध्यात्मिक उन्नतिके कुछ सोपान हैं जो शास्त्रीय भाषामे प्रतिमा या अभिग्रहविशेष कहे जाते हैं। वस्तुत ये प्रतिमाएँ श्रमणजीवनकी उपलब्धिका द्वार हैं। जो इन सोपानोका आरोहणकर उत्तरोत्तर अपने आचारका विकास करता जाता है वह श्रमणजीवनके निकट पहुँचनेका अधिकारी बन जाता है । ये सोपान या प्रतिमाएं ग्यारह हैं।
१ दर्शनप्रतिमा-देव, शास्त्र और गुरुकी भक्ति द्वारा जिसने अपने श्रद्धानको दृढ और विशुद्ध कर लिया है और जो ससार-विषय एव भोगोसे विरक्त हो चला है वह निर्दोष अष्टमूलगुणोका पालन करता हुआ दर्शनप्रतिमाका धारी श्रावक कहलाता है । दार्शनिक श्रावक मद्य, मास, मधुका न तो स्वय सेवन करता है और न इन वस्तुओका व्यापार करता है, न दूसरोसे कराता है, न सम्मति ही देता है। मद्य-मासके सेवन करनेवाले व्यक्तियोसे अपना सम्पर्क भी नही रखता है। चर्मपात्रमे रखे हए घृत, तैल या जलका भी उपभोग नहीं करता। रात्रिभोजनका त्याग करनेके साथ जल छानकर पीता है और सप्तव्यसनोका त्यागी होता है । यह श्रावक नियन्त्रित रूपमे ही विषयभोगोका सेवन करता है।
२ व्रतप्रतिमा-माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योसे रहित होकर निरतिचार पञ्चाणुव्रत और सप्तशीलोका धारण करनेवाला श्रावक प्रतिक या व्रतो कहलाता है। राग-द्वेष और मोहपर विजय प्राप्त करनेके
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लिये साम्यभाव रखना व्रतिकके लिये आवश्यक है । पूर्वमे प्रतिपादित श्रावकके द्वादश व्रतोका पालन करना वतिकके लिये विधेय है।
३ सामायिकप्रतिमा-व्रतप्रतिमाका अभ्यासी श्रावक तीनो संध्याओमे सामायिक करता है और कठिन-से-कठिन कष्ट आ पडनेपर भी ध्यानसे विचलित नही होता है । वह मन, वचन और कायको एकाग्रताको स्थिर बनाये रखता है। सामायिक करनेवाला व्यक्ति एक-एक कायोत्सर्गके पश्चात् चार बार तीन-तीन आवर्त करता है। अर्थात् प्रत्येक दिशामे "णमो अरहताणं" इस आद्य सामायिकदण्डक और "थोस्सामि ह" इस अन्तिम स्तविकदण्डकके तीनतीन आवर्त और एक-एक प्रणाम इस तरह बारह आवर्त और चार प्रणाम करता है । श्रावक इन आवर्त आदिकी क्रियाओको खडे होकर सम्पन्न करता है। सामायिकका उद्देश्य आत्माकी शक्तिका केन्द्रीकरण करना है । सामायिकप्रतिमाका धारण करनेवाला सामायिकी कहलाता है। दूसरी प्रतिमामे जो सामायिकशिक्षावत है वह अभ्यासरूप है और इस तीसरी प्रतिमामे किया जानेवाला सामायिक व्रतरूप है।
४ प्रोषधप्रतिमा-प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करना प्रोषध प्रतिमा है। पूर्वमे द्वितीय प्रतिमाके अन्तर्गत जिस प्रोषधोपवासका वर्णन किया गया है, वह अभ्यासरूपमे है। पर यहा यह प्रतिमा व्रतरूपमे ग्रहीत है।
५ सचित्तविरत-प्रतिमा-पूर्वको चार प्रतिमाओका पालन करनेवाले दयालु श्रावक द्वारा हरे साग, सब्जी, फल, पुष्प आदिके भक्षणका त्याग करना सचित्तविरत-प्रतिमा है। वस्तुत इस प्रतिमामे किये गये सचित्तत्यागका उद्देश्य सयम पालन करना है। सयमके दो रूप हैं-१ प्राणिसयम और २. इन्द्रियसयम। प्राणियोकी रक्षा करना प्राणिसयम और इन्द्रियोको वशमे करना इन्द्रियसयम है।
वस्तुत वनस्पतिके दो भेद हैं -१) सप्रतिष्ठित और (२) अप्रतिष्ठित । सप्रतिष्ठित दशामे प्रत्येक वनस्पतिमे अगणित जीवोका वास रहता है, अतएव उसे अनन्तकाय कहते हैं और अप्रतिष्ठत दशामे उसमे एक हो जीवका निवास रहता है । सप्रतिष्ठित या अनन्तकाय वनस्पतिके भक्षणका त्याग अपेक्षित है। जब वही वनस्पति अप्रतिष्ठित-अनन्तकायके जीवोका वास नही रहनेके कारण अचित्त हो जाती है तो उसका भक्षण किया जाता है। सुखाकर, अग्निमे पकाकर, चाकसे काटकर सचित्तको अचित्त बनाया जा सकता है। इन्द्रियसयमका पालन करनेके लिये सचित्त वनस्पतिका त्याग आवश्यक है।
६ दिवामैथुन या रात्रिभुक्तित्याग-पूर्वोक्त पांच प्रतिमाओके आचरणका ५२८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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पालन करते हए श्रावक जब दिनमे मन, वचन और कायसे स्त्रीमात्रका त्याग करता है तब उसके दिवामैथुनत्याग-प्रतिमा कहलाती है। पूर्वोक्त पांच प्रतिमामे इन्द्रियमदकारक वस्तुओके खानपानका त्यागकर इन्द्रियोको सयर करनेकी चेष्टा की गई है । इस छठी प्रतिमामे दिनमे कामभोगका त्यार कराकर मनुष्यको कामभोगको लालसाको रात्रिके लिये ही सीमित कर दिय गया है।
इस प्रतिमाको रात्रिभुक्तिविरति भी कहा जाता है। दयालुचित्त थावर रात्रिमे खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारो ही प्रकारके भोजनोको मन वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे त्याग करता है।
७. ब्रह्मचर्यप्रतिमा-पूर्वोक्त छह प्रतिमाओमे विहित सयमके अभ्याससे मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति द्वारा स्त्रीमानके सेवनका त्याग करना सप्तम् ब्रह्मचर्यप्रतिमा है। छठी प्रतिमामे दिवामेथुनका त्याग कराया गया है और इस सप्तम प्रतिमामे रात्रिमे भी मैथुनका त्याग विहित है ।
आत्मशक्तिको केन्द्रित करनेके लिये ब्रह्मचर्य एक अपूर्व वस्तु है। यह ब्रह्मचर्यका अर्थ शारीरिक कागभोगोसे निवृत्ति करना ही नही है अपित पञ्चेन्द्रियोके विषयभोगोका त्याग करना है।
८ आरम्भत्यागप्रतिमा-पूर्वको सात प्रतिमाओका पालन करनेवाल श्रावक जव आजीविकाके साधन कृपि, व्यापार एव नौकरी आदिके करने-कराने का त्याग कर देता है तो वह आरम्भत्यागप्रतिमावाला कहलाता है। ब्रह्मचर्य प्रतिमामे कौटुम्बिक जीवनको मर्यादित कर दिया जाता है और इस प्रतिमा सुयोग्य सतानको दायित्व मौंपकर उससे विरत हो जाता है। ____९ परिगृहत्यागप्रतिमा-पूर्वोक्त आठ प्रतिमाओके आचारका पालन करनेके साथ-साथ भूमि, गह आदिसे अपना स्वत्व छोडना परिगृहत्याग प्रतिमा है। अष्टम प्रतिमामे अपना उद्योग-धन्धा पुत्रोको सुपुर्दकर सम्पत्ति अपने ही अधिकारमे रखता है। पर इस प्रतिमामे उसका भी त्याग कर देता है।
१० अनुमतित्यागप्रतिमा-पूर्वकी नौ प्रतिमाओके आचारका अभ्यास हो जानेके पश्चात् घरके किसी भी कारोबारमे किसी भी प्रकारको अनुमति न देना अनुमतित्यागप्रतिमा है। इस प्रतिमाका धारी श्रावक घरमे न रहकर मन्दिर या चैत्यालयमे निवास करने लगता है और अपना समय स्वाध्याय
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व्यतीत करत. है । मध्यान्ह कालमे आमन्त्रण मिलनेपर अपने या दूसरेके घर भोजन कर आता है । भोजनमें उसकी अपनी कोई भी रुचि नही रहती।
११. उद्दिष्टत्यागप्रतिमा-अपने उद्देश्यसे बनाये गये आहारका ग्रहण न करना उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है । इस प्रतिमाके दो भेद हैं :-(१) ऐलक और (२) क्षुल्लक । क्षुल्लक लगोटीके साथ चादर भी रखता है और कैंची या छुरेसे अपने केशोको बनवाता है। जिस स्थान पर क्षुल्लक वैठता या उठता है उस स्थानको कोमल वस्त्र आदिसे स्वच्छ कर लेता है, जिससे किसी जीवको पीडा नही होती है ।
ऐलक केवल एक लगोटी ही रखता है तथा केशलुञ्च करता है। मुन्याचार या साध्वाचार
श्रमण-सस्था आत्मकल्याण और समाजोत्थान दोनो ही दृष्टियोसे उपयोगी है। मुनि-आचार, पुरुषार्थमार्गका द्योतक है। मुनि परम पुरुषार्थके हेतु ही निर्गन्यपद धारण करते है। वे विमल स्वभावकी प्राप्ति हेतु अन्तरग और बहिरग दोनो प्रकारके परिग्रहका त्याग करते हैं। वास्तवमे दिगम्बर वेश आकिंचन्यकी पराकाष्ठा है और है अहिंसाकी आधारशिला । कषाय और वासनासे हिंसक परिणति होती है तथा आकिंचनत्व न स्वीकार करने पर अहकारका उदय होकर अहिंसा धर्मको उच्चकोटिकी परिपालनामे विक्षेप उत्पन्न हो सकता है। अतएव मुनिके लिये दिगम्बर वेश परमावश्यक है। निर्ग्रन्यत्वके कारण ही मुनि कचन और कामिनी इन दोनों ही परवस्तुओका त्याग कर मोह-रात्रिका उपशमन करता है। अतएव यहाँ संक्षेपमे मुनिके आचारका विचार प्रस्तुत किया जा रहा है
मुनिके अट्ठाईस मूलगुण होते हैं। इन मूलगुणोका भली प्रकार पालन करता हुआ मुनि आत्मोत्थानमे प्रवृत्त होता है।
पंच महाव्रत-अहिंसा महाव्रत, सत्य सहाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत । श्रावक जिन व्रतोका एकदेशरूपसे अणुरूपमे पालन करता था, मुनि उन्ही व्रतोका पूर्णतया पालन करता है। षट्कायके जीवोका घात नही करते हुए राग-द्वेष, काम, क्रोधादि विकारोको उत्पन्न नहीं होने देता। प्राणोपर सकट आनेपर भी न असत्य भाषण करता है, न किसीकी बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण करता है। पूर्ण शीलका पालन करते हुए अन्तरग और बहिरग सभी प्रकारके परिग्रहोका त्यागी होता है। शुद्धिके हेतु कमण्डलु और प्राणिरक्षाके लिये मयूरपखकी पिच्छि ग्रहण करता है। ५३० . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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६-१० पांच समितियां-मुनि दिनमे सूर्यालोकके रहने पर चार हाथ आगे भूमि देखकर गमन करते हैं। हित, मिन और प्रिय वचन बोलते हैं । श्रद्धा और भक्तिपूर्वक दिये गये निर्दोष आहारको एक बार ग्रहण करते है। पिच्छिकमण्डल आदिको सावधानीपूर्वक रखते और उठाते है। जीव-जन्तु रहित भूमि पर मल-मूत्रका त्याग करते हैं। प्रमादत्यागको हेतुभूत ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और व्युत्सर्ग ये पांच समितियां हैं।
११-१५ पंचेन्द्रियनिग्रह-जो विषय इन्द्रियोको लुभावने लगते हैं, उनसे मुनि राग नहीं करते और जो विषय इन्द्रियोको बुरे लगते हैं, उनसे द्वेष नही करते।
१६-२१ षडावश्यक-सामायिक, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन षडावश्यकोका मुनिपालन करते हैं। सामायिकके साथ तीर्थकरोको स्तुति, उन्हे नमस्कार, प्रमादसे लगे हए दोषोका शोधन, भविष्यमे लग सकनेवाले दोषोंसे बचनेके लिए अयोग्य वस्तुओका मन-वचन-कायसे त्याग, तपवृद्धि अथवा कर्मनिर्जराके लिये कायोत्सर्ग करना अपेक्षित है। खडे होकर दोनो भुजाओको नीचेकी ओर लटकाकर, पैरके दोनो पजोको एक सीधमे चार अगुलके अन्तरालसे रखकर आत्मध्यानमे लीन होना कायोत्सर्ग है।
२२-२८ शेष ७ गुण-स्नान नही करना, दन्तधावन नही करना, पृथ्वीपर शयन करना, खडे होकर भोजन करना, दिनमे एक बार भोजन करना, नग्न रहना और केशलुञ्च करना।
मुनि क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दश-मशक, नाग्न्य, अर्रात, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, आलाभ, रोग, तृण-स्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन बाईस परीषहोको सहन करता है। मुनि कष्ट आनेपर सभी प्रकारके उपसर्गोंको भी शान्तिपूर्वक सहता है। उसके लिये शत्रु-मित्र, महल-श्मशान, कचन-काच, निन्दा-स्तुति सब समान हैं । यदि कोई उसकी पूजा करता है, तो उसे भी वह अशीर्वाद देता है और यदि कोई उसपर तलवारसे वार करता है, तो उसे भी आशीर्वाद देता है। उसे न किसीसे राग होता है और न किसीसे द्वेष । वह राग-द्वेषको दूर करनेके लिये ही साधुआचरण करता है । साधु या मुनिकी आवश्यकताएं अत्यन्त परिमित होती हैं। नग्न रहनेके कारण उसको निर्विकारता स्पष्ट प्रतीत होती है। वह विकार छिपानेके लिये न तो लगोटी ग्रहण करता है और न किसी प्रकारका संकोच ही करता है। साधुका जोवन अकृत्रिम और स्वाभाविक रहता है, किसी भी प्रकारका
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आडम्बर उसके पास नही रहता । सिर, दाढ़ी, मूछोके केशोको द्वितीय, चतुर्थं और छठे महीनोमे वह अपने हाथसे उखाड डालता है ।
साधुका अन्य आचार
- आचार या साधु आचारका पालन करनेके लिये गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रका पालन करना भी आवश्यक है। योगोका सम्यक् प्रकारसे निग्रह करना गुप्ति है । गुप्तिका जीवनके निर्माणमे बड़ा हाथ है, क्योकि भावबन्धनसे मुक्ति गुप्तियोके द्वारा ही प्राप्त होती है । गुप्ति प्रवृत्तिमात्रा निषेध कहलाती है । शारीरिक क्रियाका नियमन, मौन धारण और सकल्प-विकल्पसे जीवनका संरक्षण क्रमश काय, वचन और मनोगुप्ति है ।
जब-तक शरीरका सयोग है, तब-तक क्रियाका होना आवश्यक है । मुनि गमनागमन भी करता है। आचार्य, उपाध्याय, साघु या अन्य जनोसे सम्भाषण भी करता है, भोजन भी लेता है । सयम और ज्ञानके साधनभूत पिच्छि, कमण्डलु और शास्त्रका भी व्यवहार करता है और मल-मूत्र आदिका भी त्याग करता है । यह नही हो सकता कि मुनि होनेके बाद वह एक साथ समस्त क्रियाओका त्याग कर दे । अत वह पाँच प्रकारकी समितियोंका पालन करता है । जीवनमे पूर्णतया सावधानी रखता है ।
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मुनि कर्मो के उन्मूलन और आत्मस्वभावकी प्राप्तिके हेतु, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम सयम, उत्तम तप उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचयंका पालन करता है । उत्तम क्षमाका अर्थ है - क्रोधके कारण मिलनेपर भी क्रोध न कर सहनशीलता बनाये रखना । भीतर और बाहर नम्रता धारण करना एव अहकारपर विजय पाना मार्दव है । मन-वचन और कायकी प्रवृत्तिको सरल रखना आर्जव है। सभी प्रकारके लोभका त्यागकर शरीरमे आसक्ति न रखना शौच है । साधु पुरुषोके लिये हितकारी वचन बोलना सत्य है । षट्कायके जीवोकी रक्षा करना और इन्द्रियोको विषयोमे प्रवृत्त नही होने देना सयम है | शुभोद्देश्यसे त्यागके आधारभूत नियमोको अपने जीवनमे उतारना तप है । सयतका ज्ञानादि
१. जघजादरूवजाद उपादिकेसम सुगं सुद्ध | रहिद हिंसादोदो अप्पडिकम्म हवदि लिंगं ॥ मुच्छारभविजुत्त जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहि । लिंग ण परावेक्ख अपुणव्भवकारण जेव्हं ||
--प्रवचनसार, गाथा २०५ - २०६.
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गुणों का प्रदान करना त्याग है । शरोर और परवस्तुओसे ममत्व न रखना माकिंचन्य है | स्त्री-विषयक सहवास, स्मरण और कथा आदिका सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य है ।
ससार एव ससारके कारणोके प्रति विरक्त होकर धर्मके प्रति गहरी आस्था उत्पन्न करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा का अर्थ है, पुन. पुन चिन्तन करना । साधु या अन्य आत्मसाधक व्यक्ति ससार और ससारको अनित्यता आदिके विषयमे और साथ ही आत्मशुद्धिके कारणभूत भिन्न-भिन्न साघनोके विषयमे पुन पुन चिन्तन करता है, जिससे ससार और ससारके कारणोके प्रति विरक्ति उत्पन्न होती है और धर्मके प्रति आस्था उत्पन्न होती है । अनुप्रेक्षाएँ निम्नलिखित बारह हैं
(१) अनित्य - शरीर, इन्द्रिय, विषय और भोगोपभोगको जलके बुलबुलेके समान अनवस्थित और अनित्य चिन्तन करना । मोहवश इस प्राणीने परपदार्थो को नित्य मान लिया है, पर वस्तुत. आत्माका ज्ञान दर्शन ओर चैतन्य स्वभाव ही नित्य है और यही उपयोगी है ।
(२) अशरण - यह प्राणी जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधियोसे घिरा हुआ है । यहाँ इसका कोई भी शरण नही है । कष्ट या विपत्तिके समय धर्मके अतिरिक्त अन्य कोई भी रक्षक नही है । इसप्रकार ससारको अशरणभूत विचार करना अशरणानुप्रेक्षा है ।
(३) ससारानुप्रेक्षा -- ससारके स्वरूपका चिन्तन करना तथा जन्म-मरणरूप इस परिभ्रमणमे स्वजन और परिजनकी कल्पना करना व्यर्थ है । जो साधक ससार के स्वरूपका चिन्तनकर वैराग्य उत्पन्न करता है, वह ससारानुप्रेक्षाका चिन्तक होता है ।
( ४ ) एकत्वानुप्रेक्षा मे अकेला ही जन्मता हूँ और अकेला ही मरण प्राप्त करता हूँ । स्वजन या परिजन ऐसा कोई नही जो मेरे दु खोको दूर कर सकते है, इस प्रकार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है ।
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा -- शरीर जड है, में चेतन हूँ । शरीर अनित्य है, मै नित्य हूँ । ससारमे परिभ्रमण करते हुए, मैने अगणित शरीर धारण किये, पर मै जहाँ-का-तहाँ हूँ । जब मे शरीरसे पृथक् हूँ, तब अन्य पदार्थों से अविभक्त कैसे हो सकता हूँ ?" इस प्रकार शरीर और बाह्य पदार्थोंसे अपनेको भिन्न चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है ।
(६) अशुचित्वानुप्रेक्षा -- शरीर अत्यन्त अपवित्र है । यह शुक्र, शोणित तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५३३
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आदि सप्त धातुओ और मल-मूत्रसे भरा हुआ है। इससे निरन्तर मल झरता है । इस प्रकार शरीरकी अशुचिता का चिन्तन करना अशुचि-अनुप्रेक्षा है ।
(७) आस्रवानुप्रेक्षा -- इन्द्रिय, कपाय और अव्रत आदि उभय लोकमे दुखदायी है । इन्द्रियविपयोकी विनाशकारी लोला तो सर्वत्र प्रसिद्ध है । जो इन्द्रियविषयो और कपायोके अधीन है, उसके निरन्तर आस्रव होता रहता है और यह आस्रव ही आत्मकल्याणमे बाधक है । इस प्रकार आस्रवस्वरूपका चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है ।
(८) संवरानुप्रेक्षा -सवर आस्रवका विरोधी है । उत्तम क्षमादि सवरके साधन हैं । सवरके बिना आत्मशुद्धिका होना असम्भव है । इस प्रकार सवरस्वरूपका चिन्तन करना सवरानुप्रेक्षा है ।
( ९ ) निर्जरानुप्रेक्षा - फल देकर कर्मोंका झड जाना निर्जरा है । यह दो प्रकार को है- (१) सविपाक और (२) अविपाक । जो विविध गतियोमे फलकालके प्राप्त होनेपर निर्जरा होती है, वह सविपाक है । यह अवुद्धिपूर्वक सभी प्राणियोमे पायो जाती है । किन्तु अविपाक निर्जरा तपश्चर्याके निमित्त सम्यग्दृष्टि होती है । निर्जराका यही भेद कार्यकारी है । इस प्रकार निर्जराके दोष- गुणका विचार करना निर्जरानुप्रेक्षा है ।
( १० ) लोकानुप्रेक्षा - अनादि, अनिवन और अकृत्रिम लोकके स्वभावका चिन्तन करना तथा इस लोकमे स्थित दुख उठानेवाले प्राणीके दुखोका विचार करना लोकानुप्रेक्षा है ।
( ११ ) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा - जिस प्रकार समुद्रमे पडे हुए हीरकरत्नका प्राप्त करना दुर्लभ है, उसी प्रकार एकेन्द्रियसे त्रसपर्यायका मिलना दुर्लभ है । सपर्यायमे पचेन्द्रिय, सज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य एव सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके योग्य साधनोका मिलना कठिन है । कदाचित् ये साधन भी मिल जायें, तो रत्नत्रयकी प्राप्ति के योग्य बोधिका मिलना दुर्लभ है । इसप्रकार चिन्तन करना दोषि - दुर्लभानुप्रेक्षा है ।
(१२) धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा - तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट धर्म अहिंसामय है और इसकी पुष्टि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, विनय, क्षमा, विवेक आदि धर्मों और गुणोसे होती है । जो अहिंसा धर्मको धारण नही करता । उसे संसारमे परिभ्रमण करना पडता है, इस प्रकार चिन्तन करना धर्मस्वाख्यात्तत्वानुप्रेक्षा है।
इन अनुप्रेक्षाओके चिन्तनसे वैराग्यको वृद्धि होती है । ये अनुप्रेक्षाएं माताके समान हितकारिणी और आत्म-आस्थाको उद्बुद्ध करनेवाली हैं ।
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चारित्र
संयमी व्यक्तिको कर्मोके निवारणार्थ जो अन्तरंग और बहिरंग प्रवृत्ति होतो है वह चारिन है । परिणामोंको विशुद्धिके तारतम्यकी अपेक्षा और निमित्तभेदसे चारित्रके पांच भेद हैं । मुनि इन पांचो प्रकारके चारित्रोका पालन करता है।
१ सामायिक चारित्र-सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप इनके साथ ऐक्य स्थापित करना और राग एव द्वेपका विरोध करके आवश्यक कर्तव्योमे समताभाव बनाये रखना सामायिक चारित है। इसके दो भेद हैं-(१) नियत काल और (२) अनियत काल । जिनका समय निश्चित है ऐसे स्वाध्याय आदि नियत काल सामायिक हैं और जिनका समय निश्चत नही है ऐसे ईर्यापथ आदि अनियतकाल है। सक्षेपतः समस्त सावद्ययोगका एकदेश त्याग करना सामायिक चारित्र है।
२ छेदोपस्थापना चारित्र-मामायिक चारिपसे विचलित होनेपर प्रायश्चित्तके द्वारा सावध व्यापारमे लगे दोपोको छेदकर पुन सयम धारण करना छेदोपस्थापना चारिम है। वस्तुत समस्त सावद्ययागका भेदरूपसे त्याग करना छेदोपस्थापना चारित्र है। यथा-मैंने समस्त पापकार्योका त्याग किया, यह सामायिक है और मैने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहका त्याग किया, यह छेदोपस्थापना है ।
३ परिहारविशुद्धि-जिस चारित्रमे प्राणिहिंसाको पूर्ण निवृत्ति होनेसे विशिष्ट विशुद्धि पायी जाती है उसे परिहारविशुद्धि कहते हैं। जिस व्यक्तिने अपने जन्मसे तीस वर्षको अवस्थातक सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया, पश्चात् दिगम्बर दीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थकरके निकट प्रत्याख्याननामक नवम पूर्वका अध्ययन किया हो तथा तीनो सन्ध्याकालको छोड़कर दो कोप विहार करलेका जिसका नियम हो उस दुर्धरचर्याक पालक महामुनिको ही परिहारविशुद्धि चारित्र होता है। इस चारित्रवालेके शरीरसे जीवोका घात नही होता है । इसोसे इसका नाम परिहारविशुद्धि है।
४ सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र-जिसमे क्रोध, मान, माया इन तीन कपायोका उदय नहीं होता, किन्तु सूक्ष्म लोभका उदय होता है वह सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र है । यह दशमगुणस्थानमे होता है ।
५. यथाल्यात चारित्र-समस्त मोहनीयकर्मके उपशम अथवा क्षयसे जैसा आत्माका निर्विकार स्वभाव है वैसा ही स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है।
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तप-विषयोंसे मनको दूर करनेके हेतु एव राग-द्वेषपर विजय प्राप्त करनेके हेतु जिन-जिन उपायो द्वारा शरीर, इन्द्रिय और मनको तपाया जाता है अर्थात् इनपर विजय प्राप्त की जाती है वे सभी उपाय तप हैं। तपके दो भेद है-(१) बाह्य एव (२) आभ्यन्तर । बाह्य द्रव्यको अपेक्षा होनेके कारण जो दूसरोको दिखाई पड़ते है, वे वाह्यतप है। बाह्यतप आभ्यन्तर तपको पुष्टिमे कारण है । जिन तपोमे मानसिक क्रियाओकी प्रधानता हो, जो अन्यको दिखलाई न पडें वे आभ्यन्तर तप हैं।
बाह्यतप
अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप है।
१ अनशन-सयमकी पुष्टि, रागका उच्छेद, कर्मनाश और ध्यानसिद्धिके लिये भोजनका त्याग करना अनशन तप है। इसमें ख्याति, पूजा आदि फलप्राप्तिकी आकाक्षा नही रहती।
२ अवमौदर्य-सयमको जागृत रखने, दोषोके प्रशम करने, सन्तोष एव स्वाध्यायको सिद्ध करनेके लिये भूखसे कम खाना अवमौदर्य तप है। मुनिका उत्कृष्ट ग्रास बत्तीस ग्रास है, अत: इससे अल्प आहार करना अवमोदर्य है।
३ वृत्तिपरिसख्यान-आहारके लिये जाते समय घर, गली आदिका नियम ग्रहण करना वृत्तिपरिसख्यान तप है। यह चित्तवृत्तिपर विजय प्राप्त करने और आसक्तिको घटानेके लिये धारण किया जाता है। __४. रसपरित्याग-इन्द्रियो और निद्रा पर विजयप्राप्तार्थ घो, दुग्ध, दधि, तैल, मोठा और नमकका यथायोग्य त्याग करना रसपरित्याग तप है।
५. विविक्तशय्यासन-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान आदिकी सिद्धि हेतु एकान्त स्थानमे शयन करना तथा आसन लगाना विविक्तशय्यासन तप हैं।
६ कायक्लेश-कष्ट सहन करनेके अभ्यासके हेतु विलासभावनाको दूर करने तथा धर्मकी प्रभावनाके लिये ग्रीष्म ऋतुमे पर्वतशिलापर, शीत ऋतुमे खुले मैदानमे और वर्षा ऋतुमे वृक्षके नीचे ध्यान लगाना कायक्लेश है।
आभ्यन्तर तप-आभ्यन्तर तपके प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह भेद है।
१. प्रायश्चित्त-प्रमादसे लगे हुए दोषोको दूर करना प्रायश्चित्त तप है। ५३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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इसके आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, और उपस्थापना ये नौ भेद है । गुस्से अपने प्रमादको निवेदन करना आलोचना; किये गये अपराधके प्रति मेरा दोष मिथ्या हो ऐसा निवेदन प्रतिक्रमण; आलोचना और प्रतिक्रमण दानोका एक साथ करना तदुभय, अन्य पात्र और उपकरण आदिके मिल जाने पर उनका त्याग करना विवेक, मनमे अशुभ या अशुद्ध विचारोंके आनेवर नियत समय तक कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्गं है, दोपविशेषके हो जानेपर उसके परिहार के लिये अनशन आदि करना तप है । किसा विशेष दोपके हानेर उस दोपके परिहारार्थं दीक्षाका छेद करना छेद है; विशिष्ट अपराधके होनेपर सघमे पृथक् करना परिहार हैं, और बडे दोषके लगने पर उस दोपके परिहारहेतु पूर्ण दोक्षाका छेद करके पुन दीक्षा देना उपस्थापना है |
२. विनय - पूज्य पुरुपोके प्रति आदरभाव प्रकट करना विनयतप है । इसके चार भेद है । मोक्षापयागी ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास रखना और किये गये अभ्यासका स्मरण रखना ज्ञानविनय है, सम्यग्दर्शनका शकादि दापोसे रहित पालन करना दर्शनविनय, सामायिक आदि यथायोग्य चारित्रके पालन करनेमें वित्तका समाधान रखना चारित्रविनय है । और आचार्य आदिके प्रति " नमास्तु" आदि प्रकट करना उपचारविनय है ।
३. वैयावृत्त्य - शरोर आदिके द्वारा सेवा-शुश्रूषा करना वैय्यावृत्त्य है । जिनको वैय्यावृत्ति का जाती है, वे दश प्रकारके है ।
१ आचार्य - जिनके पास जाकर मुनि व्रताचरण करते हैं । २ उपाध्याय - जिनके पाम मुनिगण शास्त्राभ्यास करते हैं । ३ तपस्वी--जो बहुत व्रत-उपवास करते है ।
४. शैक्ष्य---जो श्रुतका अभ्यास करते हैं ।
५ ग्लान - रोग आदिसे जिनका शरीर क्लान्त हो ।
६ गण - स्थविरोकी सतति ।
७ कुल - दोक्षा देने वाले आचार्यको शिष्यपरम्परा |
८ सघ - ऋषि, यति, मुनि और अनगारके भेदसे चार प्रकारके साघुका
समूह
९. साधु बहुत समयसे दीक्षित मुनि ।
१० मनोज्ञ - जिनका उपदेश लोकमान्य हो अथवा लोकमे पूज्य हो ।
४ स्वाध्याय-- आलस्यको त्यागकर ज्ञानका अध्ययन करना स्वाध्याय
है | स्वाध्यायके पांच भेद हैं ।
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१ वाचना -- ग्रन्थ, अर्थ तथा दोनोका निर्दोषरीति से पाठ करना । २. पृच्छना - शकाको दूर करने या विशेष निर्णयकी पृच्छा करना । ३ अनुप्रेक्षा -- अधीत शास्त्रका अभ्यास करना, पुनः पुन विचार करना । ४ आम्नाय -- जो पाठ पढा है उसका शुद्धतापूर्वक पुनः पुन उच्चारण
करना ।
५. धर्मोपदेश - धर्मकथा या धर्मचर्चा करना ।
५. व्युत्सर्ग-- शरीर आदिमें अहकार और ममकार आदिका त्याग करना व्युत्सर्ग है। इसके दो भेद है- (१) वाह्यव्युत्सर्ग और (२) आभ्यान्यर व्युत्सगं । भवन, खेत, धन, धान्य आदि पृथक्भूत पदार्थके प्रति ममताका त्याग करना बाह्यव्युत्सर्ग और आत्माके क्राधादि परिणामोंका त्याग करना आभ्यन्तर व्युत्सर्ग है ।
६ ध्यान - चञ्चल मनको एकाग्र करनेके लिए किसी एक विषयमे स्थित करना ध्यान है । उत्तम ध्यान तो उत्तम सहननके धारक मनुष्यको प्राप्त होता है । यह अपनी चित्तवृत्तिको सभी ओरसे रोककर आत्मस्वरूपमे अवस्थित करता है । जब आत्मा समस्त श ुभाश ुभ सकल्प-विकल्पोको छोड, निर्विकल्प समाधि लीन हो जाती है, तो समस्त कर्मों की श्रृङ्खला टूट जाती है। ध्यानका अर्थ भी यही है कि समस्त चिन्ताओ, सकल्प - विकल्पोको रोककर मनको स्थिर करना, आत्मस्वरूपका चिन्तन करते हुए पुद्गल द्रव्यसे आत्माको भिन्न विचारना और आत्मस्वरूपमे स्थिर होना ।
ध्यान करनेसे मन, वचन और शरीरकी शुद्धि होती है | मनशुद्धिके विना शरीरको कष्ट देना व्यर्थ है, जिसका मन स्थिर होकर आत्मामे लीन हो जाता है वह परमात्मपदको अवश्य प्राप्त कर लेता है । मनको स्थिर करनेके लिए ध्यान ही एक साधन है ।
ध्यानके भेद
ध्यानके चार भेद है -- १. आर्त्तध्यान, २. रौद्रध्यान ३. धर्म ध्यान और ४ शुक्ल ध्यान । इनमेसे प्रथम दो ध्यान पापास्रवका कारण होनेसे अप्रशस्त हैं और उत्तरवर्ती दो ध्यान कर्म नष्ट करनेमे समर्थ होनेके कारण प्रशस्त है । आर्त्तध्यान : स्वरूप और भेद
ऋतका अर्थ दुख है । जिसके होनेमे दुःखका उद्व ेग या तीव्रता निमित्त है, वह आतंध्यान है। आर्त्तध्यानके चार भेद हैं-१ अनिष्टसयोगजन्य आर्त्तध्यान, २. इष्टवियोगजन्य आतंध्यान, ३. वेदनाजन्य आर्त्तध्यान और ४ निदानज
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आर्त्तध्यान | अनिष्ट पदार्थोके सयोग हो जानेपर उस अनिष्टको दूर करनेके लिए बार-बार चिन्तन करना अनिष्ट सयोगजन्य आर्त्तध्यान है। स्त्री, पुत्र, घन, धान्य आदि इष्ट पदार्थोके वियुक्त हो जानेपर उनकी प्राप्तिके लिए बार-बार चिन्तन करना इष्टवियोगजन्य आर्तध्यान है । रोगके होने पर अधीर हो जाना, यह रोग मुझे बहुत कष्ट दे रहा है, कब दूर होगा, इस प्रकार सदा रोगजन्य दुखका विचार करते रहना तीसरा आर्त्तध्यान है । भविष्यत्कालमे भोगोकी प्राप्तिकी आकाक्षाको मनमे बार-बार लाना निदानज आर्त्तध्यान है ।
रौद्रध्यान : स्वरूप और मेद
रुद्रका अर्थ क्रूर परिणाम है। जो क्रूर परिणामोके निमित्तसे होता है, वह रौद्रध्यान है । रौद्रध्यानके निमित्तकी अपेक्षा चार भेद है - १. हिसानन्द रौद्रध्यान, २ मृषानन्द रौद्रध्यान, ३. चोर्यानन्द रौद्रध्यान और ४. विषयसरक्षण रौद्रध्यान । जीवोके समूहको अपने तथा अन्य द्वारा मारे जानेपर, पीडित किये जानेपर एव कष्ट पहुंचाये जानेपर जो चिन्तन किया जाता है या हर्ष मनाया जाता है उसे हिंसानन्द रौद्रव्यान कहा जाता है । यह ध्यान निर्दयी, क्रोधी मानी, कुशीलसेवी नास्तिक एव उद्दीप्तकषायवालेको होता है । शत्रुसे बदला लेनेका चिन्तन करना, युद्धमे प्राणघात किये गये दृश्यका चिन्तन करना एवं किसीको मारने-पीटने कष्ट पहुँचाने आदिके उपायोका चिन्तन करना भी हिसानन्द रौद्रध्यानके अन्तर्गत है । झूठी कल्पनाओ के समूह से पापरूपी मैलसे मलिनचित्त होकर जो कुछ चिन्तन किया जाता है, वह मृषानन्द रौद्रध्यान है । इस ध्यानको करनेवाला व्यक्ति नाना प्रकार के झूठे सकल्प-विकल्पकर आनन्दानुभूति प्राप्त करता रहता है। चोरी करनेकी युक्तियाँ सोचते रहना, परधन या सुन्दर वस्तुको हड़पनेकी दिन-रात चिन्ता करते रहना चीर्यानन्द नामक रौद्रध्यान है । सासारिक विषय भोगनेके हेतु चिन्तन करना, विषयभोगकी सामग्री एकत्र करनेके लिए विचार करना एव धन-सम्पत्ति आदि प्राप्त करनेके साधनोका चिन्तन करना विषयसरक्षणनामक रौद्रध्यान है ।
आ और रौद्र दोनो ही ध्यान आत्मकल्याण मे बाधक है । इनसे आत्मस्वरूप आच्छादित हो जाता है तथा स्वपरिणति लुप्त होकर परपरिणतिकी प्राप्ति हो जाती है । ये दोनो ध्यान दुर्घ्यान कहलाते हैं और दुर्गंतिके कारण हैं । इनका आत्मकल्याण से कुछ भी सम्बन्ध नही है ।
धर्मध्यान : स्वरूप और भेद
शुभ राग और सदाचार सम्बन्धी चिन्तन करना धर्मध्यान है । धर्मध्यान
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आत्माकी निर्मलताका साधन है। इस ध्यानके समन भेदोका साधन करनेसे रत्नत्रयगुण निर्मल होता है और कर्मोंकी निर्जरा होती है। धर्मध्यानके चार भेद है-१ आज्ञा, २. अपाय, ३. विपाक और ४. सस्थान । आगमानुसार तत्त्वोका विचार करना आज्ञाविचय, अपने तथा दूसरोके राग-द्वेष-मोह आदि विकारोको नाश करनेका चिन्तन करना अपायविचय, अपने तथा दूसरोके सुख-दुखको देखकर कर्मप्रकृतियोके स्वरूपका चिन्तन करना विपाकविचय एव लोकके स्वरूपका विचार करना सस्थानविचयनामक धर्मध्यान है । इस धर्मध्यानके अन्य प्रकारसे भी चार भेद है-१. पिंडस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रूपातीत । यह धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्तसयत और अप्रमत्तसयत जीवोके सम्भव है । श्रेणि-आरोहणके पूर्व धर्मध्यान और श्रेणिआरोहणके समयसे शुक्लध्यान होता है । पिण्डस्थ ध्यान
शरीर स्थित आत्माका चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है। यह आत्मा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धसे रागद्वेषयुक्त है और निश्चयनयकी अपेक्षा यह बिलकुल शुद्ध ज्ञान-दर्शन चैतन्यरूप है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध अनादिकालीन है और इसी सम्बन्धके कारण यह आत्मा अनादिकालसे इस शरीरमे आबद्ध है । यो तो यह शरीरसे भिन्न अमूर्तिक, सूक्ष्म और चैतन्यगुणधारी है, पर इस सम्बन्धके कारण यह अमूर्तिक होते हुए भी कथञ्चित् मूर्तिक है। इस प्रकार शरीस्थ आत्माका चिन्तन पिण्डस्थ ध्यानमे सम्मिलित है। इस ध्यानको सम्पादित करनेके लिए पांच धारणाएं वर्णित हैं-१ पार्थिवी, २. आग्नेय, ३ वायवी ४ जलीय और ४. तत्त्वरूपवती । पार्थिवी धारणा
इस धारणामे एक मध्यलोकके समान निर्मल जलका बडा समुद्र चिन्तन करे, उसके मध्यमे जम्बूद्वीपके तुल्य एक लाख योजन चौडा और एक सहस्र पत्रवाले तपे हए स्वर्णके समान वर्णके कमलका चिन्तन करे । कणिकाके बीचमे सुमेरु पर्वत सोचे। उस सुमेरु पर्वतके ऊपर पाण्डुकवनमे पाण्डक शिलाका चिन्तन करे। उसपर स्फटिक मणिका आसन विचारे । उस मासनपर पद्मासन लगाकर अपनेको ध्यान करते हए कर्म नष्ट करनेके हेतु विचार करे । इतना चिन्तन बार-बार करना पार्थिवी धारणा है। आग्नेयी धारणा
उसी सिंहासनपर बैठे हुए यह विचार करे कि मेरे नाभिकमलके स्थानपर ५४० . तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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भीतर ऊपरको उठा हुआ सोलह पत्तोका एक श्वेत रगका कमल है। उसपर पीतवर्णके सोलह स्वर लिखे हैं। अ आ, इ ई, उ ऋ ऋ, लु ल, ए ऐ, ओ ओ, म अ, इन स्वरो के वीचमे 'ह' लिखा है। दूसरा कमल हृदयस्थानपर नाभिकमलके ऊपर आठ पत्तोका औधा विचार करना चाहिए। इस कमलको ज्ञानावरणादि आठ पत्तोका कमल माना जायगा ।
पश्चात् नाभि-कमलके वीचमे जहाँ 'ह' लिखा है, उसके रेफसे धुआ निकलता हुआ सोचे, पुन' अग्निकी शिखा उठतो हुई विचार करे। यह लौ ऊपर उठकर आठ कोंके कमलको जलाने लगी। कमलके वीचसे फूटकर अग्निकी लौ मस्तकपर आ गई। इसका आधा भाग शरीरके एक ओर और आधा भाग शरीरके दूसरी ओर निकलकर दोनोके कोने मिल गये । अग्निमय त्रिकोण सब प्रकारसे शरीरको वेष्टित किये हए है। इस त्रिकोणमे र र र र र र र अक्षरोको अग्निमय फैले हुए विचारे अर्थात् इस त्रिकोणके तीनो कोण अग्निमय र र र अक्षरोके बने हुए हैं। इसके बाहरी तीनो कोणोपर अग्निमय साथिया तथा भीतरी तीनो कोणोपर अग्निमय 'ओम् है' लिखा सोचे। पश्चात् विचार करे कि भीतरी अग्निको ज्वाला कर्मोको और बाहरी अग्निकी ज्वाला शरीरको जला रही है। जलते-जलते कर्म और शरीर दोनों ही जलकर राख हो गये हैं तथा अग्निको ज्वाला शान्त हो गई है अथवा पहलेके रेफमे समाविष्ट हो गई है, जहाँसे उठी थो। इतना अभ्यास करना 'अग्निधारणा' है। वायु धारणा ___ तदनन्तर साधक चिन्तन करे कि मेरे चारो ओर बडी प्रचण्ड वायु चल रही है। इस वायुका एक गोला मण्डलाकार बनकर मुझे चारो ओरसे घेरे हुए है। इस मण्डलमे आठ जगह 'स्वॉय स्वॉय' लिखा हुआ है। यह वायुमण्डल कर्म तथा शरीरके रजको उडा रहा है। आत्मा स्वच्छ और निर्मल होती जा रही है। इस प्रकारका चिन्तन करना वायु-धारणा है । जल-धारणा
तत्पश्चात् चिन्तन करे कि आकाशमे मेघोकी घटाएं आच्छादित है । विद्युत् चमक रही है। बादल गरज रहे हैं और घनघोर वृष्टि हो रही है। पानीका अपने ऊपर एक अर्घ चन्द्राकार मण्डल बन गया है। जिसपर पपपप कई स्थानोपर लिखा है। जल-धाराएँ आत्माके ऊपर लगी हुई है और कर्मरज प्रक्षालित हो रहा है, इस प्रकार चिन्तन करना जल धारणा है। तत्त्वरूपवती-धारणा इसके आगे साधक चिन्तन करे कि अब मैं सिद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, निर्मल, कर्म
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और शरीरसे रहित चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ। पुरुषाकार चैतन्यधातुकी वनी शुद्ध मूर्तिके समान हूँ । पूर्न चन्द्रमाके तुल्य ज्योतिस्वरूप हूँ। __ क्रमश इन पांच धारणाओ द्वारा पिंडस्थ ध्यानका अभ्यास किया जाता है। यह ध्यान आत्माके कर्मकलङ्कपड़को दूरकर ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य गुणोका विकास करता है।
पदस्थ ध्यान
मन्त्रपदोंके द्वारा अर्हन्त. सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साघु तथा आत्माका स्वरूप चिन्तन करना पदस्थ ध्यान है। किसी नियत स्थान-नासिकान या भृकुटिके मध्यमे मन्त्रको अकित कर उसको देखते हुए चित्तको एकाग्र करना पदस्थ ध्यानके अन्तर्गत है। इस ध्यानमे इस वातका चिन्तन करना भी आवश्यक है कि शुद्ध होनेके लिए जो शुद्ध आत्माओका चिन्तन किया जा रहा है वह कर्मरजको दूर करनेवाला है। इस ध्यानका सरल और साध्य रूप यह है कि हृदयमे आठ पत्राकार कमलका चिन्तन करे और इन आठ पत्रोमेसे पांच पत्रोपर "णमो अरहताण णमो सिद्धाण, णमो आइरियाण, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्वसाहूण," लिखा चिन्तन करे तथा शेष तीन पत्रोपर क्रमशः "सम्यग्दर्शनाय नम , सम्यग्ज्ञानाय नम. और सम्यक्चारित्राय नम" लिखा हुआ विचारे। इस प्रकार एक-एक पत्तेपर लिखे हुए मत्रका ध्यान जितने समय तक कर सके, करे। रूपस्थ ध्यान
अर्हन्त परमेष्ठीके स्वरूपका-विचार करे कि वे समवशरणमे द्वादश सभाओंके मध्यमे ध्यानस्थ विराजमान है। वे अनन्तचतुष्टय सहित परम वीतरागी हैं अथवा ध्यानस्थ जिनेन्द्रकी मूर्तिका एकाग्रचित्तसे ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है। रूपातीत
सिद्धोके गुणोका विचार करे कि सिद्ध, अमूर्तिक, चैतन्यपुरुषाकार, कृतकृत्य, परमशान्त, निष्कलक, अष्टकर्म रहित, सम्यक्त्वादि अष्टगुण सहित, निर्लेप, निर्विकार एव लोकाग्रमे विराजमान हैं। पश्चात् अपने आपको सिद्धस्वरूप समझकर ध्यान करे कि मै ही परमात्मा हूं, सर्वज्ञ हूँ, सिद्ध हूँ, कृतकृत्य हूं, निरञ्जन हूँ, कर्मरहित हूँ, शिव हूँ, इस प्रकार अपने स्वरूपमे लोन हो जाय । शुक्ल ध्यान
मनको अत्यन्त निर्मलताके होवेपर जो एकाग्रता होती है वह शुक्ल ध्यान ५४२ . तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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है। शुक्ल ध्यानके चार भेद हैं--१ पृथक्त्ववितर्कविचार, २. एकत्ववितर्कअविचार, ३ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और ४. व्युपरतक्रियानिवति । पृथक्त्ववितर्कविचार
उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीका आरोहण करनेवाला कोई पूर्वज्ञानधारी इस ध्यानमे वितर्क-श्रुतज्ञानका आलम्बन लेकर विविध दृष्टियोसे विचार करता है और इसमे अर्थ, व्यञ्जन तथा योगका सक्रमण होता रहता है । इस तरह इस ध्यानका नाम पृथक्त्ववितर्कविचार है। इस ध्यान द्वारा साधक मुख्य रूपसे चारित्रमोहनीयका उपशम या क्षपण करता है। एकत्ववितर्क-अविचार
क्षीणमोहगुणस्थानको प्राप्त होकर श्रुतके आधारसे किसी एक द्रव्य या पर्यायका चिन्तन करता है और ऐमा करते हुए वह जिस द्रव्य, पर्याय, शब्द या योगका अवलम्बन लिये रहता है, उसे नही बदलता है, तब यह ध्यान एकत्ववितर्क-अविचार कहलाता है। इस ध्यान द्वारा साधक धातिकर्मकी शेष प्रकृतियोका क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करता है। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति
सर्वज्ञदेव योगनिरोध करने लिए स्थल योगोका अभाव कर सक्ष्मकाययोगको प्राप्त होते हैं, तब सक्ष्मक्रियामप्रतिपाति ध्यान होता है। कायवर्गणाके निमित्तसे आत्मप्रदेशोका अतिसूक्ष्म परिस्पन्द शेष रहता है। अत इसे सूक्ष्मक्रियामप्रतिपाति कहते हैं। व्युपरतक्रियानिति ___ कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्मप्रदेशोका अतिसूक्ष्म परिस्पन्दनके भी शेष नही रहनेपर और आत्माके सर्वथा निष्प्रकम्प होनेपर व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान होता है। किसी भी प्रकारके योगका शेष न रहनेके कारण इस ध्यानका उक्त नाम पडा है। इस ध्यानके होते ही सातावेदनीयकर्मका आस्रव रुक जाता है और अन्तमे शेष रहे सभी कर्म क्षीण हो जानेसे मोक्ष प्राप्त होता है । ध्यानमें स्थिरता मुख्य है । इस स्थिरताके बिना ध्यान सम्भव नही हो पाता। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति
आत्मिक गुणोके विकासको क्रमिक अवस्थाओको गुणस्थान कहते है । आत्मा स्वभावत' ज्ञान-दर्शन-सुखमय है। इस स्वरूपको विकृत अथवा आवृत करनेका कार्य कर्मों द्वारा होता है। कर्मावरणको घटा जैसे-जैसे धनी होती जाती है,
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वैसे वैसे आत्मिक शक्तिका प्रकाश मन्द होता जाता है। इसके विपरीत जैसेजैसे कर्मावरण हटता जाता है, वैसे-वैसे आत्माकी शक्ति प्रादुर्भूत होती जाती है। आत्मिक उत्कान्तिकी यह प्रक्रिया ही गुणस्थान है। गुणस्थानका गाब्दिक अर्थ गुणोका स्थान है । जीवके कर्मनिमित्त सापेक्ष परिणाम गुण है । इन गुणोके कारण ससारी जीव विविध अवस्थाओमे विभक्त होते है और ये विविध अवस्थाएं ही गुणस्थान है।
मोह और योग-मोह और मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके कारण जीवके अन्तरग-परिणामोमे प्रतिक्षण होनेवाले उतार-चढावका नाम गणस्थान है । परिणाम अनन्त है; पर उत्कृष्ट, मलिन परिणामोको लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामो तक तथा उसके ऊपर जघन्य वीतराग परिणामसे लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणामतक की अनन्तवृद्धियोके क्रमको वक्तव्य वनानेके लिए चौदह श्रेणियोमे विभा जित किया गया है । ये श्रेणियाँ ही गुणस्थान कहलाती हैं(१) मिथ्यादृष्टि
मिथ्यात्व, सम्यडिमथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोके उदयसे जिसकी आत्मामे अतत्वश्रद्धान होता है, वह मिथ्यादृष्टि है । मिथ्यात्वगुणस्थानमे जीवको 'स्व' और 'पर' का भेदज्ञान नहीं रहता है। न तत्त्वका श्रद्धान होता है और न आप्त, आगम , निर्ग्रन्थ गुरु पर विश्वास ही । सक्षेपमे यह आत्माकी ऐसी स्थिति है जहाँ यथार्थ विश्गस और यथार्थ वोधके स्थानपर अयथार्थ श्रद्धा और अयथार्थ बोध रहता है। आत्मोत्क्रातिकी यह प्राथमिक भूमिका है। यहीसे आत्मा मिथ्यात्वका क्षय, उपशम या क्षयोपशम कर चतुर्थ गुणस्थानपर पहुँचती है। यह है तो आत्माके ह्रासकी स्थिति, पर उत्क्राति यहीसे आरम्भ होती है। (२) सासादन
जिस आत्माने मिथ्यात्वका क्षय नही किया है, पर मिथ्यात्वको शान्त करके सम्यक्त्वकी भूमिका प्राप्त की थी, किन्तु थोडे कालके पश्चात् ही मिथ्यात्त्वके उभर आनेसे आत्मा सम्यक्त्वसे च्युत हो जाती है। जब तक वह सम्यक्त्वसे गिरकर मिथ्यात्वको भूमिपर नही पहुँच पाती, बीचको यह स्थिति ही सासादान गुणस्थान है। इस गणस्थानवर्ती आत्माका सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धीका उदय मा जानेके कारण असादन-विराधनासे सहित होता हैं । आत्माकी यह स्थिति अत्यल्प काल तक रहती है। ५४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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(३) मिषगुणस्थान
सम्यग्दर्शनके कालमें यदि सम्यङ्मिथ्यात्वप्रकृतिका उदय आ जाता है तो आत्मा चतुर्थ गुणस्थानसे च्युत हो तृतीय गुणस्थानमे आजाती है। जिसप्रकार मिले हुए दही और गुड़का स्वाद मिश्रित होता है उसी प्रकार इस गुणस्थानवर्ती जोवके परिणाम भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्वसे मिश्रित रहते है। अनादि मिथ्यादृष्टि चतुर्थ गुणस्थानसे पतित हो तृतीय गुणस्थानमे आता है परन्तु सादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम गुणस्थानसे भी तृतीय स्थानको प्राप्त करता है । यह गुणस्थान मिथ्यात्वसे ऊँचा है पर मिश्रपरिणामोके कारण यथार्थ प्रतीति नही रहती है । (४) अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान ___ अनादिमिथ्यादष्टि जीवके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्टय इन पांच प्रकृतियोंके और सादिमिथ्यादृष्टि जीवके दर्शनमोहनीयको तीन और अनन्तानुबन्धीचतुष्क इन सात प्रकृतियोके उपशमादि होनेपर तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है। पर अप्रत्याख्यानावरणादि कषायोंका उदय रहनेसे सयमभाव जागृत नही होते, अत यह असयत या अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान कहलाता है।
अविरतसम्यग्दष्टि जीव श्रद्धानके सद्धावके कारण सयमका आचरण नही करनेपर भी आत्म-अनात्मके विवेकसे सम्पन्न रहता है। भोग भोगते हुए भी उनमे लिप्त नही रहता। वह अपने विचारोपर पूर्ण नियन्त्रण रखता है। आर्त जीवोकी पीडा देखकर उसके हृदयमे करुणाका निर्मल स्रोत प्रवाहित होने लगता है। उसका लक्ष्य और बोध शुर हो जाता है और वह सयमके पथपर चलनेके लिए उत्कण्ठित रहता है । . . (५) संपतासंयतगुणस्थान
अप्रत्याख्यानावरणकषायका क्षयोपशम होनेपर जिसके एकदेश चारित्र प्रकट हो जाता है उसे सयतासंयत गुणस्थान कहते हैं। त्रसहिसासे विरत रहनेके कारण यह सयत और स्थावरहिंसासे अविरत रहनेके कारण बसयत कहलाता है। अप्रत्याख्यानावरणकषायके क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयमें तारतम्य होनेसे दार्शनिक आदि अवान्तर ग्यारह भेद होते हैं । इस गुणस्थानसे आत्माकी यथार्थ उत्क्राति आरम्भ होती है। चतुर्थगुणस्थानमे श्रद्धा और विवेक उपलब्ध होते हैं और इस पञ्चम गुणस्थानसे चारित्रिक विकास मारम्भ होता है ।
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(६) प्रमत्तसंयतगुणस्थान
आत्माको अपनी होनतापर विजय पानेका विश्वास हो जाता है तो वह अपनी अपूर्णताओको समाप्तकर महाव्रती बन जाता है और नग्न मुद्राको धारण कर लेता है । प्रत्याख्यानावरणकषायका क्षयोपशम और सज्वलनका तीव्र उदय रहनेपर प्रमाद सहित सयमका होना प्रमत्तसयतगुणस्थान है । हिंसादि पापोका सर्वदेश त्याग करनेपर भी संज्वलनचतुष्कके तीव्र उदयसे चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और स्नेह इन पन्द्रह प्रमादोके कारण आचरण किञ्चित् दूषित बना रहता है |
(७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान
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आत्मार्थी साधककी परमपवित्र भावनाके बलपर कभी-कभी ऐसी स्थिति प्राप्त होती है कि अन्त करणमें उठनेवाले विचार नितान्त शुद्ध और उज्ज्वल हो जाते हैं और प्रमाद नष्ट हो जाता है । सज्वलन कषायका तीव्र उदय रहनेसे साधक आत्मचिन्तनमे सावधान रहता है । इस गुणस्थानके दो भेद है: स्वस्थानाप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त । स्वस्थानाप्रमत्त साधक छठे गुणस्थान से सातवेंमे और सातवेसे छठे गुणस्थानमे चढता उतरता रहता है । पर जब भावोका रूप अत्यन्त शुद्ध हो जाता है तो साधक सातिशय अप्रमत्त होकर अस्खलितगतिसे उत्क्रांति करता है । सातिशय अप्रमत्तके अध करण आदि विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होते है । जिसमे समसमय अथवा भिन्नसमयवर्ती जीवोके परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनो ही प्रकारके होते है वह अघ. करण है । (८) अपूर्वकरणगुणस्थान
करणका अर्थ अध्यवसाय, परिणाम या विचार है । अभूतपूर्वं अध्यवसायो या परिणामोका उत्पन्न होना अपूर्वकरण गुणस्थान है । इस गुणस्थानमे चारित्र मोहनीय कर्मका विशिष्ट क्षय या उपशत्र करनेसे साधकको विशिष्ट भावोत्कर्षं प्राप्त होता है ।
(९) अनिवृत्तिकरणगुणस्थान
इस गुणस्थानमे भावोत्कर्षकी निर्मल विचारधारा और तीव्र हो जाती है। फलत. समसमयवर्ती जोवोके परिणाम सदृश और भिन्नसमयवर्ती जीवोके परिणाम विसदृश हो होते है । इस गुणस्थानमे सज्वलनचतुष्कके उदयकी मन्दताके कारण निर्मल हुई परिणतिसे क्रोध, मान, माया एव वेदका समूल नाश हो जाता है ।
(१०) सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान
मोहनीयकर्म का क्षय या उपशम करके आत्मार्थी साधक जब समस्त
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कषायको नष्ट कर देता है । सूक्ष्म लोभका उदय ही शेष रह जाता है, तो आत्माकी इस उत्कर्ष स्थितिका नाम सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान है ।
अष्टम गुणस्थानसे श्रेणी आरोहण प्रारम्भ होता है। श्रेणियाँ दो प्रकारकी : - (१) उपशमश्रेणी और (२) क्षपकश्रेणी । जो चारित्रमोहका उपशम करनेके लिये प्रयत्नशील हैं वे उपशमश्रेणीका आरोहण करते हैं और जो चारित्रमोहका क्षय करनेके लिये प्रयत्नशील है वे क्षपकश्रेणीका । क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी और औपशमिक एव क्षायिक दोनो ही सम्यग्दृष्टि क्षपकश्रेणीपर आरोहण कर सकते हैं।
(११) उपशान्तमोहगुणस्थान
A
उपशमश्रेणीकी स्थितिमे दशम गुणस्थानमे चारित्रमोहका पूर्ण उपशम करनेसे उपशान्तमोहगुणस्थान होता है । मोह पूर्ण शान्त हो जाता है पर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मोहोदय आजानेसे नियमत इस गुणस्थानसे पतन होता है ।
(१२) क्षीणमोह
मोहकर्म का क्षय संपादित करते हुए दशम गुणस्थानमे अवशिष्ट लोभाशका भी क्षय होनेसे स्फटिकमणिके पात्रमे रखे हुए जलके स्वच्छ रूपके समान परिणामोको निर्मलता क्षीण मोहगुणस्थान है । समस्त कर्मोंमे मोहकी प्रधानता है और यही समस्त कर्मों का आश्रय है, अत. क्षीण मोहगुणस्थान मे मोहके सर्वथा क्षीण हो जानेसे निर्मल आत्मपरिणति हो जाती है ।
(१३) सयोगकेवली गुणस्थान
शुक्लध्यानके द्वितीयपादके प्रभावसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायके क्षयसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है और आत्मा सर्वज्ञ- सर्वदर्शी बन जाती है । केवलज्ञानके साथ योगप्रवृत्ति रहनेसे यह सयोगकेवली गुणस्थान कहलाता है।
(१४) अयोगकेवली
योगप्रवृत्तिके अवरुद्ध हो जानेसे अयोगकेवलीगुणस्थान होता है । इस गुणस्थानका काल अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पांच लघु अक्षरोके उच्चारण काल तुल्य है । व्युपरतक्रियानिर्वात शुक्लध्यानके प्रभावसे सत्तामे स्थित पचासी प्रकृतियोका क्षय भी इसी गुणस्थानमे होता है ।
निष्कर्ष --- मानवजीवन के उत्थानके हेतु धर्म और आचार अनिवार्य तत्त्व हैं । आचार और विचार परस्परमे सम्बद्ध है। विचारो तथा आदर्शो का व्यवहारिक रूप आचार है । आचारकी आधारशिला नैतिकता है। वैयक्तिक और
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सामाजिक जीवनमें धर्मकी प्रतिष्ठा भी नैतिकताके आधारपर होती है । धर्म और आचार भौतिक और शारीरिक मूल्यों तक ही सीमित नही है, अपितु इनका क्षेत्र आध्यात्मिक और मानसिक मूल्य भी है । ये दोनो ही आध्यात्मिक अनुभूति उत्पन्न करते हैं । आचार वही ग्राह्य है, जो धर्ममूलक है तथा आघ्यात्मिकताका विकास करता है । दर्शनका सम्बन्ध विचार, तर्क अथवा हेतुवादके साथ है। जबकि धर्मका सम्बन्ध आचार और व्यवहारके साथ है । धर्मं श्रद्धापर अवलम्बित है और दर्शन हेतुवादपर । श्रद्धाशील व्यक्ति आचार और धर्मका अनुष्ठान करता हुआ विवारको उत्कृष्ट बनाता है । अतएव आत्मविकासकी दृष्टिसे धर्म और आचारका अध्ययन परमावश्यक है ।
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एकादश परिच्छेद
समाज-व्यवस्था लौकिक जीवनको उन्नति और समृद्धिके लिए समाजका विशिष्ट महत्त्व है। व्यक्ति समाजको इकाई अवश्य है, पर वह समाज या सपके बिना रह नही सकता है। यत व्यक्तिके जोवनकी अगणित समस्याएं समाजके द्वारा हो सही रूपमे सुलझती हैं और सामाजिक जीवनमें ही उसकी निष्ठा वृद्धिंगत
होती है।
जोवनमे जब सामाजिकताका विकास होता है, तो निजी स्वार्थ और व्यक्तिगत हितोका बलिदान करना पड़ता है। अपने हित, अपने स्वार्थ और अपने सुखसे ऊपर समाजके स्वार्थ एवं सामहिक हितको प्रधानता दी जाती है। मानव एकदूसरेके हितोको समझकर अपने व्यवहारपर नियन्त्रण रखता है । परस्पर एकदूसरेके कार्योंमे सहयोगी वन, अन्यके दुख और पीडामओमे यथोचित साहस-धैर्य वैधाकर उनमें भाग लेनेसे सामाजिक जीवनकी प्रथम भूमिकाका निर्वाह किया जाता है। जीवनमें जब अन्तर्द्वन्द्व उपस्थित हो जाते हजार व्यक्ति अकेला उनका समाधान नहीं कर पाता, तो उस स्थितिमे
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दूसरा साथी उसके अन्तर्द्वन्द्वोंको सस्नेह सहयोगी बन प्रकाश दिखलाता है और पराभवके क्षणोंमे उसे विजयमार्ग की ओर ले जाता है । अतएव वैयक्तिक जीवनको सुखी, शान्त और समृद्ध बनानेके लिए समाजकी आवश्यकता रहती है । व्यक्ति समाजके सहयोगके बिना एक कदम भी आगे नही बढ सकता है। समाज : व्युत्पत्ति एवं अर्थविस्तार
समाजशब्द सम् + अज् + घञसे निष्पन्न है । अज् धातु भ्वादिगणी है और इसका अर्थ गति और क्षेपण है । चुरादिगणी मानने पर 'दीप्ति' अर्थ है । पर यहाँ "सवीयतेऽत्रेति" अर्थात् एकत्रीकरण अभिप्रेत है । अमरकोषके अनुसार "पशुभिन्नाना सघ" पशु-पक्षी से भिन्न मानवोका समुदाय या सघ समाज है । समाजशब्द व्यापक है । एक प्रकारके व्यक्तियोके विश्वास एव स्वीकृतियाँ समाजमे विद्यमान रहती है ।
समाज सम्बन्धोका एक निश्चित रूप है । मानवजीवन सृष्टिका सबसे वडा विकसित रूप है । कर्त्तव्यकर्मोका निर्वाह जीवनके विकासका सर्वोत्तम रूप है । समाजका गठन जीवन्त मानवके अनुरूप होता है । समाजके लिए कुछ मान्य नियम या स्वय सिद्धियां होती हैं, जिनका पालन उस समुदायविशेषके व्यक्तियोको करना पडता है । जिस समुदायमे एक-सा धर्म, सस्कृति, सभ्यता, परम्परा, रीति-रिवाज समान धरातल पर विकसित और वृद्धिंगत होते है, वह समुदाय एक समाजका रूप धारण करता है । विश्वबन्धुत्वकी भावना जितनी अधिक बढती जाती है, समाजका क्षेत्र भी उतना ही अधिक विस्तृत होता जाता है । भावनात्मक एकता ही समाज-विस्तारका घटक है । मनुष्यताका विकास क्षुद्रसे विराट्को ओर होता है । सुख - दु: खकी धारणाओको समत्व रूपमे जितना अधिक बढनेका अवसर मिलता है, समाजकी परिधि उतनी ही बढती जाती है । अत: समाजका विकास प्रतिदिन होता जारहा है ।
व्यक्तिकेन्द्रित चेतना जब समष्टिकी ओर मुड जाती है, कर्त्तव्य और उत्तरदायित्वका संकल्प जागृत हो जाता है, पारस्परिक सुख-दुःखात्मक अनुभूतिकी सवेदनशीलता बढती जाती है, तो सामाजिकताका विकास होता जाता है। चिन्तन, मनन और अनुभवसे यह देखा जाता है कि मनुष्य अपने पिण्डकी क्षुद्र इकाईमे बद्ध रहकर अच्छे जीनेके ढगसे जी नही सकता; अपना पर्याप्त भौतिक और बौद्धिक विकास नही कर सकता । जीवनकी सुख-समृद्धि - का द्वार नही खोल सकता और न अध्यात्मकी श्रेष्ठ भूमिका तक पहुँच सकता है । अकेला रहनेमे मनुष्यका दैहिक विकास भी सम्यक्तया नही हो पाता । अतएव ५५० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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व्यक्तिको सामाजिक जीवन यापन करनेकी परम आवश्यकता रहती है। -: समाज एक व्यक्तिके व्यवहार पर निर्भर नही रहता, किन्तु बहुसंख्यक मनुष्यों
के व्यवहारोंके पूर्ण चित्रके आधार पर ही उसका गठन होता है। दूसरे - शब्दोंमें यह माना जा सकता है कि समाज मनुष्योंकी सामुदायिक क्रियाओं, '". सामूहिक हितों, आदर्शो, एवं एक ही प्रकारको आचारप्रथाओपर अवलम्बित क है। अनेका व्यक्ति जब एक ही प्रकारकी जनरीतियों ( folk ways ) और
रूढियों ( Mores) के अनुसार अपनी प्रवृत्ति करने लगते हैं, तो विभिन्न 'प्रकारके सामाजिक संगठन जन्म ग्रहण करते हैं। प्रत्येक सामाजिक सस्था "। समूहका एक ढांचा ( structure ) होता है, जिसमे कर्तव्याकर्तव्यो, उत्सवो,
संस्कारों एवं सामाजिक सम्बन्धोंका समावेश रहता है। साराश यह है कि " अधिक समय तक एक ही रूपमें कतिपय मनुष्योके व्यवहार और विश्वासो का
प्रचलन सामाजिक संस्थानों या समूहोंको उत्पन्न करता है। 'समोनको उत्पत्ति के कारण
" समाजको उत्पत्ति व्यक्तिको सुख-सुविधाओके हेतु होती है। जब व्यक्तिके
जीवनकी प्रत्येक दिशामें अशान्तिका भीषण ताण्डव वढ जाता है । भोजन, 1. वस्त्र और आवासको समस्याएँ विकट हो जाती है । भौतिक आवश्यकताएँ " - इतनी अधिक बढ़ जाती हैं, जिनको पूर्ति व्यक्ति अकेला रहकर नही कर सकता।
- उस समय वह सामाजिक संगठन आरम्भ करता है। असन्तोष और अधिकार1. लिप्सा वैयक्तिक जीवनकी अशान्तिके प्रमुख कारण हैं। भोग और लोभकी 'कामना विश्वके समस्त पदार्थोको जीवनयज्ञके लिए विष बनाती है। तथा । प्रभुताकी पिपासा, विवेकको तिलाजलि देकर कामनाओंको और अधिक वृद्धि - करती है। .....
'अहं' भावना व्यक्तिमें इतनी अधिक समाविष्ट है, जिससे वह अन्यके ; अधिकारोंकी पूर्ण: अवहेलना करता है। अहंवादी होनेके कारण उसकी दृष्टि
अपने अधिकारो एवं दूसरों के कर्तव्यों तक ही सीमित रहती है। फलतः । व्यक्तिको अपने अहंकारको तुष्टिके लिए समाजका आश्रय लेना पड़ता है। यही प्रवृत्ति समाजके घटक परिवारको जन्म देती है।
भोगभूमिके, प्रारम्भमें ही..युगलरूपमें मनुष्य जन्म ग्रहण करता था। इसा योगलिक परम्परासे परिवारका विकास हा है। मनुष्य अकेला नहीं है। वह स्वय पुरुष है और एक स्त्री भी उसके साथ है। वे दोनो साथ घूमते हैं भार साथ साथ रहते हैं। उन दोनोका केवल दैहिक सम्बन्ध है, पति-पत्नीके म.पवित्र पारिवारिक सबंधका परिस्फुरण नही है। वे साथी तो अवश्य
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हैं पर सुख-दुःखमे भागीदार नही। उन्हे एकदूसरेके हितों की चिन्ता नही थी। जब पुरुषको भूख लगती थी, तो वह इधर उधर चला जाता था और तत्कालीन कल्पवृक्षो से अपनी क्षुधाको शान्त कर लेता था । नारीको जब भख सताती, तो वह भी निकल पडती और पुरुषके ही समान कल्पवृक्षों द्वारा अपनी क्षुधाको शान्त कर लेती । न तो पुरुषको भोजनादिके लिए अर्थव्यवस्था ही करनी पड़ती थी और न नारीको पुरुषके लिए भोजनादि ही सम्पन्न करने पड़ते थे। पिपासा शान्त करनेके लिए भी कूप, सरोवर आदिके प्रवन्धकी मारश्यकता नही थी। उसका भी शमन प्रकृतिप्रदत्त कल्पवृक्षो द्वारा हो जाता था। इस प्रकार लाखों वर्षों तक नर और नारी साथ-साथ रहकर भी पृथक् पृथक् रहे, वे एकदूसरेके सुख-दुःखमे भागीदार नही बन सके और न उनमे पारस्परिक समर्पणकी कल्पना ही आ सकी। वे एक दूसरेको समस्यामे भी रस नही लेते थे।
जब कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ, तो परिवार-सस्था प्रादुर्भूत हुई । नर नारी परस्पर सहयोगके बिना रह नहीं सकते थे। उनकी शारीरिक आवश्यकताएं भी प्रकृतिद्वारा सम्पन्न नही होती थी। पुरुषको अर्थार्जनके लिए प्रयास करना पडता और नारीको भोजनादि सामग्रियां तैयार करनी पड़ती । अब वे पूर्णतया पति-पत्नी थे, उनमे समर्पणकी भावना थी और वे एक दूसरेके प्रति उत्तरदायी थे। इस प्रकार परिवार-सस्थाको उत्पत्ति हुई। वस्तुत सस्कृति और सामाजिकताका विकास परिवारसे ही होता है।
समाजघटक परिवार
समाजका आधारभूत परिवार है। चतुर्विध सघमे श्रावक और श्राविका सघकी अवस्थिति परिवार पर ही अवलम्बित है। यह कामकी स्वाभाविक वृत्तिको लक्ष्यमे रखकर यौनसम्बन्ध एव सन्तानोत्पत्तिकी क्रियामओको नियन्त्रित करता है। भावनात्मक घनिष्ठताका वातावरण तैयार कर बालकोंके समुचित पोषण और विकासके लिए आवश्यक पृष्ठभूमिका निर्माण करता है। इसप्रकार व्यक्तिके सामाजीकरण और सास्कृतिकरणको प्रक्रियामें परिवारका महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । परिवारके निम्नि लिखित कार्य हैं
१ स्त्री-पुरुष के यौनसबधको विहित और नियन्त्रित करना।
२. वशवर्धनके हेतु सन्तानकी उत्पत्ति, संरक्षण और पालन करना, मानवजातिके क्रमको आगे बढ़ाना।
३ गृह और गार्हस्थ्यमे स्त्री-सुरुषका सहवास और नियोजन । ५५२ तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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४. जीवनको सहयोग और सहकारितार्के आधार पर सुखी एवं समृद्ध
बनाना ।
५. व्यावसायिक ज्ञान, औद्योगिक कौशलके हस्तान्तरणका नियमन एवं वृद्ध, असहाय और बच्चोकी रक्षाका प्रबन्धसम्पादन ।
६ मानसिक विकास, सकेत (Suggestion) अनुकरण ( Imitalton ) एव सहानुभूति ( Sympathy) द्वारा बच्चोके मानसिक विकासका वातावरण वस्तुत
करना ।
७ भोगेच्छाओको नियन्त्रित करते हुए सयमित और आध्यात्मिक जीवनकी उन्नति करना ।
८ जातीय जीवनके सातत्यको दृड रखते हुए धर्मकार्य सम्पन्न करना । ९ प्रेम, सेवा, सहयोग, सहिष्णुता, शिक्षा, अनुशासन आदि मानवके महत्त्वपूर्ण नागरिक एव सामाजिक गुणोका विकास करना ।
१०. आर्थिक स्थायित्व के हेतु उचित आयका सम्पादन करना ।
११ विकास और दृढताके लिए आमोद-प्रमाद एव मनोरजनसे सम्बद्ध कार्योका प्रबन्ध करना ।
१२ मुनि सस्थाकी सुदृढताके लिए वैयावृत्तिका सम्पादन करना ।
१३. पारिवारिक बन्धनोको स्वीकार करना ।
१४ पारिवारिक दायित्व निर्वाहोके साथ आचार और धर्मका यथावत्
पालन करना ।
१५ अधिकारी और कर्त्तव्योमे सन्तुलन स्थापित करना ।
वस्तुत परिवार-गठनका आधार मातृ-स्नेह, पितृ प्रेम, दाम्पत्य- आसक्ति, अपत्य-प्रीति, अतिथि सत्कार, सेवा वैयावृत्ति और सहकारिता है । इन आवारो पर ही परिवारका प्रासाद निर्मित है । यदि ये आधार कमजोर या क्षीण हो जायें, तो परिवार-सस्थाका विघटन होने लगता है । यो तो परिवारके उद्देश्योमे स्त्री-पुरुष यौनसम्बन्धकी प्रमुखता है, पर विषयभोगोका सेवन कटु औषधके समान अल्परूपमे ही करना हितकर है। मनोहर विषयोका सेवन करने से तृष्णाकी जागृति होती है और यह तृष्णारूपी ज्वाला अहर्निश वृद्धिगत होती जाती है । अतएव विषयभोगोका सेवन बहुत ही सीमित और नियंत्रित रूपमे करना चाहिए। जिस प्रकार अधिक मिठाई खानेसे स्वस्थ रहनेकी अपेक्षा मनुष्य बीमार पड जाता है । उसी प्रकार जो अधिक कामभोगोका सेवन करता है, वह भी मानसिक और शारीरिक रोगोसे आक्रान्त हो जाता है । वासनाकी शान्तिके लिए सीमित रूपमे ही विषयोका सेवन परिवार के लिए हितकर होता
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है । ज्ञान, शान्ति, सुख और सन्तोषके हेतु संयमका पालन परिवारमें भी आवश्यक है । वही परिवार सुखी रह सकता है, जिस परिवारके सदस्योने अपनी आशाओ और तृष्णाओको नियंत्रित कर लिया है। ये आशाएँ विषयसामग्रीके द्वारा कभी शान्त नही होती हैं। जिस प्रकार जलती हुई अग्निमे जितना अधिक ईंधन डालते जाये, अग्नि उत्तरोत्तर बढती ही जायगी । यही स्थिति विषयभोगोकी अभिलाषाकी है ।
समस्याएँ परिस्थिति, काल एव वातावरणके अनुसार उत्पन्न होती है और इन समस्याओ के समाधान या निराकरण भी प्राप्त किये जा सकते है, पर इच्छाओकी उत्पत्ति तो अमर्यादित रूपमे होती है । फलत उन इच्छाओको भोग द्वारा तो कभी भी पूर्ण नही किया जा सकता है, पर सयम या नियत्रण द्वारा उन्हे सीमित किया जा सकता है। परिवारके कर्तव्य दया, दान और दमन - इन्द्रियसयमकी त्रिवेणी रूपये स्वीकृत हैं । यही संस्कृतिका स्थूल रूप है । प्रत्येक प्राणी प्रति दया करना, शक्ति अनुसार दान देना एव यथासामर्थ्य नियत्रित भोगोका भोग करना परिवारको आदर्श मर्यादामे सम्मिलित है । क्रूरतासे मनुष्य सुख नही प्राप्त कर सकता और न सग्रहवृत्तिके द्वारा उसे शान्ति ही मिल सकती है । भोगमे मनुष्यको चैन नही । अत' दमन या सयमको आवश्यकता है। परिवारको सुख-शान्तिके लिए भोग और त्याग दोनोकी आवश्यकता है | शरीरके लिए भोग अपेक्षित है तो आत्मकल्याणके लिए त्याग । भोग और योगका सतुलन ही स्वस्थ परिवारका धरातल है । परिवारको सुखी करने के लिए दया, ममता, दान और सयम परम आवश्यक है। परिवारको सुगठित करनेवाले सात गुण है -१ प्रेम, २. पारस्परिक विश्वास, ३ सेवाभावना, ४. श्रम, ५ कर्त्तव्यनिष्ठा, ७ सहिष्णुता, ७ और अनुशासनप्रवृत्ति । प्रेम
प्रेम समाजका मानवीय तत्त्व है । इसके द्वारा जीवन-मन्दिरका निर्माण होता है । प्रेमके द्वारा हम आध्यात्मिक वास्तविकताका सृजन करते हैं और व्यक्तियोके रूपमे अपनी भवितव्यताका विकास करते है । शारीरिक आनन्दके साथ मनकी प्रसन्नता और आत्मिक आनन्दका सृजन भी प्रेमसे ही होता है । प्रेम आत्माकी पुकार हे । प्रेममे आत्मसमर्पणका भाव रहता है और वह प्रतिदानमे कुछ नही चाहता । इसमे किसी भी प्रकारका दुराव या प्रतिबन्ध नही रहता । यह भारी कामको हल्का कर देता है । प्रेमवश व्यक्ति बडे-बडे बोझको बिना भारका अनुभव किये ढोता है और श्रम या थकावटका अनुभव नही करता है ।
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प्रेम आत्माको गहराइयोंमे विद्यमान रहता है । यह ऐसा रत्न-दीपक है जो परिस्थितियोके झंझावातोसे वुझता नही और न स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियोके प्रभाब ही इसपर पडते है । यह ऐसी शक्ति है जो पृथ्वीको स्वर्ग बनाती है। शरीरके साथ मन और आत्माको सबल करती है । प्रेम पवित्रतम सम्बन्ध है और है जीवनकी अमूल्य निधि।
परिवारके समस्त गुणोका विकास प्रेमके द्वारा ही होता है। समस्त सदस्योको एकताके सूत्रमे यही आवद्ध करता है। सच्चा प्रेम आत्मा और शरीरका मिलन है। पत्नी निस्वार्थभावसे पतिको प्रेम करती है और पति पत्नीको प्रेममे कुछ पानेकी भावना नही रहती ।यही एक ऐसा गुण है, जो सहस्र प्रकारके कष्टोको सहन करनेके लिए व्यक्तिको प्रेरित करता है। दो व्यक्तियोके बीचके ऐकान्तिक सम्बन्धको प्रेम स्थायित्व प्रदान करता है। अत विवाहका उद्देश्य प्रेमके द्वारा स्थायित्व और पूर्णताको प्राप्त होता है। विवाहित जीवनका लक्ष्य प्राकृतिक वासनाको पूर्ण करना ही नही है, अपितु आत्माके लिए त्यागका मार्ग प्रस्तुत करना है। प्रेमको भावनाके कारण मनुष्यका उत्सुक चित्त नये उत्साहके साथ अनुभवोको ग्रहण करता है। सभी इन्द्रिया तीव्रतर आनन्दसे पुलकित हो जाती हैं । मानो किसी अदृश्य आत्माने ससारके सव रगोको नया कर दिया हो और प्रत्येक जीवित वस्तुमे नवजीवन भर दिया हो ।
प्रेम ही पश और मनुष्यके भेदको स्थापित करता है। यही जीवनमे चारुता, सुन्दरता और लालित्यको उत्पन्न करता है । एक मानवका दूसरे मानवके प्रति प्रेमसे बढकर आनन्दका अन्य कोई सुनिश्चित और सच्चा साधन नही है। प्रेम ही टूटने हुए हृदयोको जोडता है और उत्पन्न हुए तनावोको कम करता है । मानवीय गुणोका विकास प्रेम द्वारा ही होता है। अतएव परिवारको आदर्श, प्रतिष्ठित और समाजोपयोगी बनानेके लिए निस्वार्थ प्रेमकी आवश्यकता है। यह जिस प्रकार एक परिवारके सदस्योमे एकता उत्पन्न करता है उसी प्रकार समाजके घटक विभिन्न परिवारोमे भी एकत्वकी स्थापना करता है। परिवारके सदस्य साथ-साथ रहते है, भोजन-पान करते हैं, मनोरञ्जन करते हैं और अपनेअपने कार्योका सुचारु रूपसे सचालन करते है, इन समस्त कार्यों के मूलमे प्रेम हो बन्धनसूत्र है। पारस्परिक विश्वास
परिवारके प्रति ममता, स्नेह, भक्ति और दायित्वका विकास पारस्परिक विश्वास द्वारा ही होता है । यदि परिवारके सभी सदस्य परस्परमे आशकित और भयभीत रहे, तो योग-क्षेमका निर्बाह सभव नहीं। कर्त्तव्यकी प्रेरणाका
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जागरण भी आत्मविश्वाससे होता है । आत्मस्वार्थसे किया गया कार्य अभ्युदयका साधक नही हो सकता ।
वस्तुत: पति-पत्नी, पिता-पुत्रका निकटतम सूत्र विश्वासके धागोसे जुडा हुआ है । जब परिवारके बीच सशय उत्पन्न हो जाता है, मनमे अविश्वास जग जाता है तो वे एक दूसरे की जानके ग्राहक बन जाते हैं । यदि साथमे रहते भी हे, तो शत्रुतुल्य | घर, परिवार, समाज राष्ट्रका हराभरा उपवन अविश्वासके कारण धूलिसात् हो जाता है । आवश्वासका वातावरण पारिवारिक जीवनको दिशाहीन और गतिहीन बना देता है । जीवन अस्त-व्यस्त-सा हो जाता है ।
जब तक परिवार और समाजमे अविश्वास या सशयका भाव बना रहेगा, तब तक इनकी प्रगति नही हो सकती है । जीवन, भविष्य, परिवार एव समाजके यथार्थ विकास पारस्परिक विश्वास द्वारा हो सभव हैं। मानव-जीवन कोट- पतगके समान अविश्वासको भूमिपर रंगने के लिए नही है । अत. आस्थाके अनन्त गगनमे विचरण करनेका प्रयास करना चाहिए ।
परिवारकी पतवारका आधार समस्त सदस्योका पारस्परिक विश्वास ही है । उदारताके अभाव मे सकोर्णता जन्म लेती है और इसीसे अविश्वास उत्पन्न होता है । परिवारको आर्थिक सुदृढता, धार्मिक क्रियाकलाप और सामाजिक चेतना आस्था एव विश्वाससे ही सम्बद्ध हैं । जीवनको उपामे मनोविनोदके रग, उत्सवोके विलास और लालित्यकी कलियाँ विश्वासके बलपर खिलती है।
विश्वासकी भावना दो भागोमे विभाजित है - (१) आत्मस्थ और (२) परस्थ । आत्मस्थ भावनामे आत्माभिव्यक्तिका प्रवल वेग है । वह भावना अभिलाषाओ और इच्छाओमे उमडकर गन्तव्य दिशामे अपने आदर्शको पूर्ति कर लेती है । भावनाका यह प्रवाह उदारता उत्पन्न करता है तथा आस्थावश स्वकथन या स्वव्यवहारको सबल बनाता हैं । परस्य भावना अधिक सामाजिक है, यह विश्वासकी देवी सम्पत्ति है और कार्यकारणकी श्रृंखलासे निबद्ध रहती है । परिवार या समाजकी नीव परस्थ विश्वासभावनापर ही अवलम्बित है । समाज और परिवारको विविध परिस्थितियोमे पारस्परिक विश्वास चिन्तन और व्यवहारको परिष्कृत करता है, जिसके फलस्वरूप समाज एव परिवारमे कल्याणका सृजन होता है ।
सेवा-भावना
सेवाशब्द / सेव - सेवने + टाप्से निष्पन्न है । दुखो, रोगो, वृद्ध, अशक्त एव गुणियोको सान्त्वना देना, शरीर, वचन और मनसे परिचर्या करना तथा उनके प्रति आदरभाव रखना सेवा है । सेवाभावसे हो व्यक्तिका व्यावहारिक
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जीवन श्रेष्ठ हो सकता है तथा परिवार और समाजमे वात्सल्यको स्थायित्व प्राप्त हो सकता है। एकता और शान्तिका विकास भी सेवाभावनाद्वारा किया जा सकता है । यह प्राय देखा जाता है कि गुणग्राही होना ससारमे कठिन है। गुणग्राहिता ही सेवाभावनाको उत्पन्न करती है। देखा जाता है कि गुणीजन एक-दूसरेसे आपसमे हो द्वेष करते हैं, फलस्वरूप कपायभाव उत्पन्न होते है।
दीन-दुखियोको सेवा करना, किसीसे घृणा न करना, परस्पर उपकारकी भावना रखना ही मानवता है और इसीसे परिवार एव समाजकी स्थिति सुदृढ होती है । अहिंसक भावना ही सेवाभाव है, इसे किसी पाठशालामे सीखा नही जाता है, यह तो प्रत्येक आत्मामे वर्तमान है।
ममस्त सफलताओके मूलमे सेवा हो कार्यकारी है। इसके स्पर्शसे निर्जीव कोयला अग्निका रूप धारण करता है और अवरुद्ध जल वेगवान निर्झर वन जाता है । साधारण-से-साधारण प्रतिभा सेवाभावनाके वलसे सक्रियता प्राप्त कर लेती है । सेवावृत्ति कदाचित् किसी मन्द व्यक्तिको भी प्राप्त हो जाय, तो उसकी भी सुषुप्त शक्ति जागृत हो उठती है और वह अग्निपुंज बन जाता है । सेवाकी उपलब्धि एक सद्गुणके रूपमे होती है ।
सेवा या वैयावृत्ति सफलताका आधारभत उपादान है, यह कर्मके सभी रूपोमे मौलिकतत्त्व है। सेवा और महयोगके विना परिवार और समाजकी कल्पना ही सभव नही है।
"व्यापृते यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम्"-रोगादिसे व्याकुल साधुके विषयमे जो कुछ किया जाता है, वह वैयावृत्य है। यह तप है, यत सेवा या वैयावृत्ति साधारण वात नही है । इसके लिए अहकारका त्याग, नि स्वार्थ प्रेम, दया और करुणा वृत्तिका सद्भाव आवश्यक है। सोने-वैठनेके लिए स्थान देना, उपकरण शाधन करना, निर्दोष आहार-औषध देना, व्याख्यान करना, अशक्त मुनि, सामाजिक या पारिवारिक सदस्यका मल-मूत्र उठाना, उसकी गेगीकी स्थितिमे सेवा करना, हाथ-पैर-सिर दवाना एवं विपत्तिमे पडे हुमोका उद्धार करना आदि वैयावृत्ति-सेवामे परिगणित है। __ सेवा या वैयावृत्तिके समय परिणामोको कलुषित न होने देना, स्वार्थभाव या प्रत्युपकारबुद्धिका त्याग करना, परिणामोमे कोमलता और आर्द्रता रखना तथा सेवा करते हुए प्रसन्नताका अनुभव करना आवश्यक है। निःस्वार्थभावसे की गयी सेवा आत्मशुद्धिका कारण बनती है। यह वासनाओंके क्लेशसे
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छटकारा दिलाती है । अन्त शोधनके लिए भी यह आवश्यक है । परिवार और समाजका कार्य सेवाभावके अभावमे नही चल सकता है । लूटमार, धोखाधडी, बेईमानी, घूसखोरी, छीना-झपटी सेवाभावके अभावमे स्वार्थवृत्तिसे उत्पन्न होती है।
सेवा करनेसे व्यक्ति नीच या छोटा नही बनता, उसकी आत्मशक्ति प्रबल हो जाती है और वह अपनी असफलताओ, बुराइयो एवं कमजोरियो पर विजय प्राप्त करता है । सेवनीयसे सेवककी भावभूमि उन्नत मानी जाती है। जीवनके प्रत्येक विभागमे सेवाभावको आवश्यकता है । सेवा या सहयोगसे जीवनमे सामर्थ्य, क्षमता और प्रगतिका सद्भाव आता है। यह सवसे मल्यवान् वस्तु है । इसके द्वारा व्यक्ति जागरूक, कर्मरत एव अहिंसक बनता है। परिवारके मध्य सम्पन्न होनेवाले अगणित कार्य इसीके द्वारा सम्पन्न होते हैं। कर्तव्यनिष्ठा
परिवार और समाजका विकास कर्तव्यनिष्ठा द्वारा होता है । जीवनका एक क्षण या एक पल भी कर्तव्यरहित नही होना चाहिए। जागरण और शयनमे भी कर्तव्यनिष्ठाका भाव समाहित रहता है। यहां अप्रमाद या सावधानी हो कर्तव्यनिष्ठा है। मानव जबसे जीवनयात्रा आरम्भ करता है, तभीसे उसमे कर्त्तव्यभावना समाहित हो जाती है।
कर्तव्य प्राप्तकार्यों को श्रद्धा और सतर्कतापूर्वक करनेकी क्रिया है । यह ऐसी शक्ति है, जो प्रत्येक कार्यमे हमारे साथ है, इसे सहव्यापिनी कहा जा सकता है। करणीय कार्यको ईमानदारी, भक्ति, निष्ठा, औचित्य और नियमित रूपमे पूर्ण करना कर्तव्यनिष्ठा है। जिनका जीवनक्रम व्यवस्थित होता है, वे ही अपने कर्तव्यको निष्ठाके साथ सम्पादित करते हैं । कर्तव्यनिष्ठा मानवका अनिवार्य गुण है।
वस्तुत मानवता और कर्तव्यपरायणता एक दूसरेके पूरक है। मानवमे बुद्धितत्त्वकी प्रधानता है और वह उसका प्रयोग करके यह समझानेकी शक्ति रखता है कि उसे कर्तव्य करना है, यह भाव अन्य प्राणियोमे नही पाया जाता। अत, जीवनमे सफलता प्राप्त करनेका साधन कर्तव्यनिष्ठा है। यह एक ऐसा गुण है जिसको सम्पूर्ति ही वास्तविक आनन्द और सफलता है। कर्तव्यनिष्ठा के बाधकतत्व निम्नलिखित है
१. कार्यके प्रति रुचिका अभाव । २. स्वार्थवृत्ति-स्वार्थवश मनुष्य कर्त्तव्यका निर्वाह नही कर पाता।
३ प्रमाद या शिथिलता। ५५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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४ जीवनके प्रति निरामा। ५ धमके प्रति बनाया।
चापा और अनुमानगो गोगका नाम नंगनिष्ठा है। व्यवस्थाको सहायतासे पाय घसा मान ली है और किमी प्रकारका वितण्डावाद उत्पन्न नहीं होता किम जोमन अनुभागनतोगता और अराजाता है, वे लापरवाह बोर अपने दिनानोमे अगापित होते। पतंयनिष्ठापो जागृत मारलेगाने पार करय - १ तत्परता-माना वीर यस्तारियता।
२. गुखना-उन्मलगेय नमिन नियमों के प्रति भाग्या-महिमाके नाधार पर गल्योगपत।
३. उपयोगिना-छोटे-बड़े सभी पार्योगो नमान महत्व देकर उनकी उपयोगिताको प्रवपासा।
४ विगदना-गठन और प्रशासनको गोग्यता, मरे गब्दोमे विचारो और कापच्यापारमे अपस्यापी बार गायानी । विश्लेषण जोर सश्लेषणका एकोभूत सामन्य।
वस्तुन मन्यो या अमिका निपांगन ही मनुष्यका कर्तव्य है। अतएव मानात्मक, नियामक गैर भापारमग निविप ज्यवहारको अभिव्यनि फतव्यसोमा है । फनंग विपिनियात्मपा उमम प्रकार होते हैं। तुम प्रवृत्तियोका सम्पादन विध्यात्मक और बगुन प्रतियोगा त्याग निषेधात्मक कर्तव्य हैं। __कनंव्यके म्यरूपका निवारण अहिनात्मक व्यवहार द्वारा सभव है। मातापिता, पुन-पुत्री, भाई-बहन और पति-पली आदिको पारस्परिक कर्तव्योका अवधारण भावनात्मक विकासको प्ररिया द्वाग होता है और यह अहिंसाका ही सामाजिक रूप है। मानव हृदयको आन्तरिक सवेदनाको व्यापक प्रगति ही तो बहिमा है और यही परिवार, समाज और राष्ट्रफे उद्भव एव विकासका मूल है। यह मत्य है कि उक्त प्रक्रियाम रागात्मक भावनाका भी एक बहुत बडा वग है, पर यह बा मामाजिक गतिविधिमे बाधक नहीं होता।
हिमा मानवको हिमामे मुक्त करती है। वैर, वैमनस्य-द्वेप, कलह, घृणा, इयो, दुमकल्प, दुर्वचन, क्रोध, अहंकार, दम, लोभ, शोषण, दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाजको ध्वसारमक प्रवृत्तियां है, विकृतियाँ है, वे सब हिंसाके रूप हैं। मानव-मन हिंसाके विविध प्रहारोंसे निरन्तर घायल होता रहता है। अत क्रोधको क्रोधसे नही, क्षमासे, अहकारको अहकारसे नही, विनय-नम्रतामे, दम्भको दम्भसे, नही, सरलता और निश्छलतासे, लोभको
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लोभसे नही, सन्तोष और उदारतासे जीतना चाहिए ।वैर, घृणा, दमन, उत्पीडन, अहकार आदि सभीका प्रभाव कापर पड़ता है। जिस प्रकार कुएंमे की गयी ध्वनि प्रतिध्वनिके रूपमे वापस लौटती है, उसी प्रकार हिंसात्मक क्रियाओका प्रतिक्रियात्मक प्रभाव कर्त्तापर हो पडता है।
अहिंसाद्वारा हृदयपरिवर्तन सम्भव होता है। यह मारनेका सिद्धान्त नही, सुधारनेका है । यह ससारका नही, उद्धार एव निर्माणका सिद्धान्त है। यह ऐसे प्रयत्नोका पक्षधर है, जिनके द्वारा मानवके अन्तसमे मनोवैज्ञानिक परिवर्तन किया जा सकता है और अपराधकी भावनाओको मिटाया जा सकता है। अपराध एक मानसिक बीमारी है, इसका उपचार प्रेम, स्नेह, सद्भावके माध्यमसे किया जा सकता है।
घृणा या द्वेप पापसे होना चाहिए, पापोसे नही। वुरे व्यक्ति और बुराईके बीच अन्तर स्थापित करना ही कर्तव्य है। बुराई सदा वुराई है, वह कभी भलाई नही हो सकती; परन्तु बुरा आदमी यथाप्रसग भला हो सकता है। मूलमे कोई आत्मा बुरी है ही नही । असत्यके बीचमे सत्य, अन्धकारके बीचमे प्रकाश और विषके भोतर अमृत छिपा रहता है। अच्छे बुरे सभी व्यक्तियोमे आत्मज्योति जल रही है। अपराधी व्यक्तिमे भी वह ज्योति है किन्तु उसके गुणोका तिरोभाव है। व्यक्तिका प्रयास ऐसा होना चाहिए, जिससे तिरोहित गुण आविर्भूत हो जाये। ___इस सन्दर्भमे कर्तव्यपालनका अर्थ मन, वचन और कायसे किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, न किसी हिंसाका समर्थन करना और न किसी दूसरे व्यक्तिके द्वारा किसी प्रकारको हिंसा करवाना है। यदि मानवमात्र इस कर्त्तव्यको निभानेकी चेष्टा करे, तो अनेक दुःखोका अन्त हो सकता है और मानवमात्र सुख एवं शान्तिका जीवन व्यतीत कर सकता है । जबतक परिवार या समाजमे स्वार्थीका सघर्ष होता रहेगा, तबतक जीवनके प्रति सम्मानको भावना उदित नही हो सकेगी। यह अहिंसात्मक कर्तव्य देखनेमे सरल और स्पष्ट प्रतीत होता है, किन्तु व्यक्ति यदि इसो कर्तव्यका आत्मनिष्ठ होकर पालन करे, तो उसमे नैतिकताके सभी गुण स्वत उपस्थित हो जायेंगे।
मूलरूपमे कर्तव्योको निम्नलिखित रूपमे विभक्त किया जा सकता है१ स्वतन्त्रताका सम्मान । २ चरित्रके प्रति सम्मान । ३. सम्पत्तिका सम्मान । ४ परिवारके प्रति सम्मान । ५. समाजके प्रति सम्मान ।
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चरित्रके प्रति सम्मान प्रत्येक परिवार को अन्य सदस्य का सम्मान करना चरित्रके प्रति सम्मान है। जोवनसम्बन्धी कव्य हिमाका निषेधक है, तो स्वतन्त्रता harat riव्य अन्य व्यक्ति स्वतन्त्रताका दमन न करनेका संकेत करता है। यह कर्त्तव्य अन्य व्यक्तियोको क्षति पहुँचाने का निषेध तो करता ही है, साथ ही इस बातको विधि भी करता है कि हुने दूसरो के व्यक्तित्व के विकामको प्रोत्साहित करना है । यह विधेयात्मक कर्तव्य अन्य व्यक्तियोंके चारित्रिक विकासके लिए अनुप्रणित करता है। जो व्यक्ति परिवार और समाज के समस्त सदस्योको चारित्र विकास अगर देता है, वह परिवारकी उनति करता है और सभी प्रकारसे जोवनको मुग्गी-समृद्ध बनाता है।
सम्पत्तिका सम्मान
सम्पत्तिके सम्मानका अर्थ व्यक्तियो के सम्पत्तिसम्बन्धी अधिकारको स्वीकृत करना । यह कर्तव्य भी एक निषेधात्मक कर्तव्य है, क्योंकि यह अन्य व्यक्तियो
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के सम्पत्तिसम्वन्धी अपहरणका निषेध करता है। यह 'अस्तेय' के नामसे अभिहित किया जा सकता है । आध्यात्मिक व्यक्तित्वके विकासके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति शुद्ध अहिंमात्मक जोवन व्यतीत करे। इस कर्त्तव्यका आधार सत्य ओर अहिंसा है । यदि अहिमाका अर्थ किसी भी व्यक्तिको मन, वचन और कर्मसे मानसिक और शारीरिक क्षति पहुँचाना है, तो यह स्पष्ट है कि दूसरेकी सम्पत्तिका अपहरण न करना अहिसाका अग है । किसीकी सम्पत्तिका अपहरण करनेका अर्थ निस्सन्देह उस व्यक्तिका मानसिक और शारीरिक क्षति पहुँचाना है और उसके व्यक्तित्व विकासको अवरुद्ध करना है । यह कर्त्तव्य हमे इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम भोगोपभोगकी वस्तुओका अमर्यादित रूपसे सेवन न करें । अपव्ययको भी यह कर्त्तव्य रोकता है। परिवारके लिए मितव्ययता अत्यावश्यक है । मितव्ययता समस्त वस्तुओको मध्यम मार्गके रूपमे ग्रहण करनेमे है । सम्पत्तिका अपव्यय या अनुचित अवरोध ये दोनो ही कर्त्तव्यके बाहर हैं, जब भौतिक वस्तुओ या मानसिक शक्तिका अपव्यय किया जाता है, तो कुछ दिनोमे व्यक्ति शक्तिहीन हो जाता है, जिससे व्यक्ति, परिवार और समाज ये तोनो विनाशको प्राप्त होते हैं । जो सम्पत्तिसम्मान का आचरण करता है, वह निम्नलिखित वस्तुओमे मध्यम मार्ग या मितव्ययताका प्रयोग करता है
१ सम्पत्ति ।
२ आहार-विहार ।
३. वस्त्र और उपस्कर ।
४ मनोरञ्जनके साधन ।
५ विलास और आरामकी वस्तुएं ।
६ समय ।
७. शक्ति ।
अर्थका प्रतीक सिक्का परिवर्तनका मानदण्ड है और उससे हमारी क्रय शक्तिका बोध होता है । जो व्यक्ति सम्पत्ति प्राप्त करना चाहता है और ऋणसे बचना चाहता है, वह व्ययको आयके अनुरूप बनाकर अभिवृद्धि प्राप्त कर सकता है । विलास और आरामको वस्तुओं के क्रय करनेमे अपव्यय होता है ।
इस अपव्ययका रोकना परिवारके हितके लिए अत्यावश्यक है । अपव्यय ऐसा मानसिक रोग है जिसके कारण अनुचित लाभ और स्तेयसम्बन्धी क्रियाप्रतिक्रियाएँ सम्पादित करनी पडती है । वह अनुचित रीतिसे किसीकी
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सम्पत्ति, क्षेत्र, भवन आदिपर अपना अधिकार करता है। चोरोके अन्तरग कारणोपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि जब द्रव्यको लोलुपता वढ जाती है, तो तृष्णा वृद्धिगत होती है, जिनसे व्यक्ति येन केन प्रकारेण धनसचय करनेवी और झुकता है। यहां विवेक और ईमानदारीके न रहनेसे व्यक्ति अपनी प्रामाणिकता वो बैठता है। जिससे उने अनैतिकरूपमे धनार्जन करना पडता है ।
अपव्यय चोरी करना भी निकलता है । एक बार हाथके सुल जाने पर फिर अपनेको नयमित रचना कठिन हो जाता है। अपव्ययोके पास घन स्थिर नहीं रहता और वह निर्धन होकर की ओर प्रवृत्त होता है । कुछ व्यक्ति मान-प्रतिष्ठा हेतु धनव्यय करते है और अपनेको वडा दिसलाने के प्रयास व्ययं पर्च करते है। परिणामस्वरूप उन्हे अनीति और शोषणको अपनाना पहना है। अतएव सम्पत्ति सम्मान कर्तव्यका आचरण करते हुए चिन्ता, उद्विग्नता निराशा, मध, लोभ, माया आदिले बचनेका भी प्रयास करना चाहिए।
परिवारके प्रति सम्मान
परिवारके प्रति सम्मानका अर्थ है पारिवारिक समस्याओके सुलझाने के लिए विवाह नादि कार्यो का सम्पन्न करना | गन्यास या निवृत्तिमागं वैयक्तिक जीवनोत्थान के लिए आवश्यक है, पर गंमारके वोच निवास करते हुए पारिवारिक दायित्वका निर्वाह करना ओर समाज एवं सघको उन्नतिके हेतु प्रयत्नशील रहना भी आवश्यक है । वास्तवमे श्रावक - जीवनका लक्ष्य दान देना, देवपूजा करना और मुनिधर्मके सरक्षणमं सहयोग देना है । साधु-मुनियोको दान देने को क्रिया श्रावक - जीवनके बिना सम्पन्न नही हो सकती । नारीके बिना पुरुष और पुरुषके बिना अत्र नारी दानादि क्रिया सम्पादित करने मे असमर्थ है। अत चतृधि सके सरक्षण एवं कुलपरम्पराके निर्वाहकी दृष्टिमे पारिवारिक कर्तव्योका निर्वाह अत्यावश्यक है । सातावेदनीय और चाग्निमोहनीयके उदयसे विवहन - कन्यावरण विवाह कहलाता है । यह जीवनमे धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थीका नियमन करता है । अतएव पारिवारिक कर्त्तव्यो तथा सस्कारोंके प्रति जागरुकता अपेक्षित है ।
• सस्कारणन्द धार्मिक क्रियाओं के लिए प्रयुक्त है । इसका अभिप्राय वाह्य धार्मिक क्रियाओ, व्यर्थ आडम्बर, कोरा कर्मकाण्ड, राज्य द्वारा निर्दिष्ट नियम एव औपचारिक व्यवहारोसे नही है; बल्कि आत्मिक और आन्तरिक सौन्दर्य से
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है । सस्कारशब्द व्यक्तिके देहिक, मानसिक ओर वौद्धिक परिष्कारके लिए किये जानेवाले अनुष्ठानोसे सम्बद्ध है । सस्कार तीन वर्गोमे विभक्त हैं
१. गर्भान्वय क्रियाएँ ।
२. दीक्षान्वय क्रियाएँ ।
३. क्रियान्वय क्रियाएँ ।
इन क्रियाओ द्वारा पारिवारिक कर्त्तव्योका सम्पादन किया जाता हैं ।
समाजके प्रति सम्मान
सामाजिक व्यवस्थाको सुचारुरूपसे सचालित करनेके लिए समाज और व्यक्ति दोनोके अस्तित्वकी आवश्यकता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके सभी अधिकार उसे समाजका सदस्य होनेके कारण ही प्राप्त हैं । अत वह समाज, जो कि उसके अधिकारोका जनक और रक्षक है, व्यक्तिसे आशा रखता है कि वह सामाजिक सस्थाके सरक्षणको अपना प्रधान कर्त्तव्य समझे । समाजके प्रति आदर एव सम्मानकी भावना वह भावना है जो व्यक्तिको परम्परागत प्रथाओको भङ्ग करनेसे रोकती है। चाहे वे परम्पराएँ समाजकी इकाई कुटुम्बसे सन्बन्ध रखती हो, चाहे वे सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखती हो अथवा राज्य या राष्ट्रसे। समाजमे प्रचलित अन्धविश्वासों और रूढिवादी परम्पराओका निर्वाह कर्तव्यके अन्तर्गत नही है । कर्त्तव्य वह विवेकबुद्धि है जो समाजकी बुराइयोको दूर कर उसके विकास के प्रति श्रद्धा या निष्ठा उत्पन्न करे । इसमे सन्देह नही कि व्यक्तिका समाजके प्रति बहुत बडा दायित्व है । उसे समाजको सुर्गाठत, नैतिक और आचारनिष्ठ बनाना है ।
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सत्यके प्रति सम्मान
सत्यके प्रति सम्मान या सत्यनिष्ठा व्यक्ति और समाजके विकासके लिए आवश्यक है । सत्य और अहिंसाको साथ-साथ लिया जाता है और इनके आचरणसे सामाजिक कल्याण माना जाता है । सत्यके प्रति सम्मान या कर्त्तव्यकी भावना क्रियाशीलताके लिए प्रेरित करती है और सत्यपरायण जीवन व्यतीत करनेका आदेश देती है । इस आदेशका अर्थ यह है कि हमें अपने वचनोके अनुसार ही व्यवहार करना है। जो व्यक्ति अपने जीवनको सत्यके आधार पर चलाता है, उसे व्यावहारिक कठिनाइयोका सामना अवश्य करना पडता है, पर सत्यपरायण व्यक्तिको जीवनमे सफलता प्राप्त होती है। यदि व्यक्ति अपना कर्त्तव्य कर्तव्यभावसे सम्पादित करता है, तो उसका यह
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कर्तव्य-सम्पादन विधायक तत्त्व माना जाता है। सत्यके आधार पर सम्पादित बाचास्यवहार व्यक्ति और समाज दोनोके लिए हितकर होते हैं।
मनुष्य जब लोभ-लालचमे फंस जाता है, वासनाके विपसे मूच्छित हो जाता है नोर अपने जीवन महत्त्वको भूल जाता है, उस जीवनकी पवित्रताका स्मरण नहीं रहता, तब उसका विवेक समाप्त हो जाता है और वह यह सोच नहीं पाता कि उसका जन्म ससारसे कुछ लेनेके लिए नही हुआ है बल्कि कुछ देने के लिए हमा है। जो कुछ प्राप्त हमा है, वह अधिकार है और जो समाजके प्रति अर्पित किया जाता है यह कर्त्तव्य है। मनुष्यको इस प्रकारको मनोवत्ति ही उसके मनको विगाल एव विराष्ट्र बनाती है। जिसके मनमे ऐसी उदारभावना रहती है यहो अपने कर्तव्य सम्पादन द्वारा परिवार और समाजको सुखी, समृद्ध बनाता है। अहसार, क्रोध, लोम और मायाका विष सत्याचरण द्वारा दूर होता है। जिगका जीवन सत्याचरणमे घुलमिल गया है, वही निश्छल और मच्ने व्यवहारद्वारा क्षुद्रतामोको दूर करता है।
सहजभावसे अपने कर्तव्यको निभानेवाला व्यक्ति केवल अपने आपको देखता है। उसकी दृष्टि दूसरों की ओर नहीं जाती। वह अपनी निन्दा और स्तुतिको परवाह नहीं करता, पर भद्रता, सरलता और एकरूपताको छोडता भो नही । वास्तवमै यदि मनुष्य अपने व्यवहारको उदार और परिष्कृत बना ले, तो उसे सघर्ष और तनावोमे टकराना न पडे । जीवनमे सघर्ष, तनाव और कुण्ठाएं अमत्याचरणके कारण ही उत्पन्न होती हैं। प्रगतिके प्रति सम्मान - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावने अनुमार प्रत्येक वस्तुमे निरन्तर परिवर्तन होता है। परिवर्तन प्रगतिरूप भी सम्भव है और अप्रगतिरूप भी। जिस व्यक्तिके विचारोमें उदारता और व्यवहारमे सत्यनिष्ठा समाहित है, वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कर्तव्योका हृदयसे पालन करता है। सकटके समय व्यक्तिको किस प्रकारका आचरण करना चाहिए और परिस्थिति एव वातावरण द्वारा प्रादुर्भूत प्रगतियोको किस रूपमे ग्रहण करना चाहिए, यह भी कर्त्तव्यमार्गके अन्तर्गत है।
एकाकी मनुष्यको धारणा निसन्देह कल्पनामात्र है। अत कर्तव्योका महत्त्व नैतिक और सामाजिक दृष्टिसे कदापि कम नहीं है। कत्र्तव्योका सवध अधिकारोंके समान सामाजिक विकाससे भी है। कर्तव्योको विशेपता जीवनके दो मुख्य अगोंसे सम्बद्ध है
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१. जीवनका आर्थिक अंग ।
२. जीवनका सामाजिक अग ।
आर्थिक दृष्टिसे मनुष्यके सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार और कत्र्त्तव्यविशेष महत्त्वपूर्ण हैं और सामाजिक दृष्टिसे मनुष्यके परिवार तथा समाज सम्बन्धी अधिकार और कर्त्तव्य भी कम महत्त्वपूर्ण नही हैं । अधिकारो तथा कर्त्तव्योका आर्थिक दृष्टिसे सतुलित रूपमे प्रयोग अपेक्षित है । पुरुषार्थो के क्रममे अर्थपुरुषार्थको इसीलिए द्वितीय स्थान प्राप्त है कि इसके बिना धर्माचरण एव कामपुरुषार्थका सेवन सम्भव नही है | आज आर्थिक प्रगति के अनेक साधन विकसित है पर कर्त्तव्यपरायण व्यक्तिको अपनी नैतिकता बनाये रखना आवश्यक है । जीवनको आवश्यकताओके वृद्धिंगत होने और आर्थिक समस्याओके जटिल होने पर भी उत्पादन, वितरण और उपयोग सम्बन्धी नैतिक नियम जीवनको मर्यादित रखते है । सुरक्षा और आत्मानुभूति ये दोनो ही नैतिक जीवनके लिए अपेक्षित हे । श्रम- सिद्धान्त भी प्रगतिके नियर्मोको अनुशासित करता है । अत सम्पत्तिके प्रति दो मुख्य कर्तव्य है -१ सम्पत्ति प्राप्त करनेके लिए कर्म करना और २. उपलब्ध सम्पत्तिका सदुपयोग करना । जो व्यक्ति किसी भी प्रकारका कर्म नही करता, उसका कोई अधिकार नही कि वह निष्क्रिय होते हुए भी सामाजिक सम्पत्तिका भोग करे । इस कर्त्तव्यके आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए श्रम करना अत्यावश्यक है। श्रम करनेसे ही श्रमणत्वकी प्राप्ति होती है और इसी श्रम द्वारा आश्रमधर्मका निर्वाह होता है । जो व्यक्ति अन्य के श्रम पर जीवित रहता है और स्वय श्रम नही करता ऐसे व्यक्तिको समाजसे कुछ लेने का अधिकार नही । जो कर्त्तव्यपरायण है वही समाजसे अपना उचित अश प्राप्त करनेका अधिकारी है
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विवेक, साहस, सयम और न्याय ये ऐसे गुण हैं जो सामाजिक कल्याणकी ओर व्यक्तिको प्रेरित करते हैं । इन गुणोके अपनानेसे परिवार और समाज की विषमता दूर होकर प्रगति होती है तथा समानताका तत्त्व प्रादुर्भूत होता है । समाजके गतिशील होने पर साहस, सयम और विवेकका आचरण करते हुए कर्त्तव्यकर्मो का निर्वाह अपेक्षित होता है । ज्यो -ज्यो समाजिक विकास होता है, अधिकारो और कर्त्तव्योका स्वरूप स्वतः ही परिवर्तित होता चला जाता है । इसी कारण प्रत्येक समाजमे व्यवस्था, विधान और अनुशासनकी आवश्यकता रहती है । यदि अधिकार और कर्त्तव्योमे सतुलन स्थापित हो जाय, तो समाजमे अनुशासन उत्पन्न होते विलम्ब न हो ।
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सहिष्णुता
पारिवारिक दायित्वों के निर्वाहके लिए सहिष्णुता अत्यावश्यक है। परिवारमें रहकर व्यक्ति सहिष्णु न बने ओर छोटो-सी छोटी बातके लिए उत्तावला हो जाय, तो परिवारमे सुख-शान्ति नही रह सकती । सहिष्णु व्यक्ति शान्तभावसे परिवारके अन्य सदस्योंकी वातो ओर व्यवहारोको सहन कर लेता है, जिसके फलस्वरूप परिवार मे शान्ति और सुख सर्वदा प्रतिष्ठित रहता है । अभ्युदय और नि यसको प्राप्ति सहनशीलता द्वारा ही सम्भव है । जो परिवारमे सभी प्रकारको समृद्धिका इच्छुक है तथा इस समृद्धिके द्वारा लोकव्यवहारको सफररूपमे संचालित करना चाहता है ऐसा व्यक्ति समाज और परिवारका हित नही कर सकता है | विकारी मन शरीर और इन्द्रियोंपर अधिकार प्राप्त करनेके स्थान पर उनके वश होकर काम करता है, जिससे सहिष्णुताको शक्ति घटती है । जिसने आत्मालोचन आरम्भ कर दिया है भोर जो स्वय अपनी चुराईयोका अवलोकन करता है वह समाजमे शान्तिस्थापनका प्रयास करता है । सहिष्णुताका कृत्रिम भावुकता नही और न अन्याय और अत्याचारोको प्रश्रय देना हो है, किन्तु अपनी आत्मिक शक्तिका इतना विकास करना है, जिससे व्यक्ति, समाज और परिवार निष्पक्ष जीवन व्यतीत कर सके। पूर्वाग्रहके कारण असहिष्णुता उत्पन्न होती है, जिससे सत्यका निर्णय नही होता । जो शान्तचित्त है, जिसकी वासनाएँ सयमित हो गई है और जिसमे निष्पक्षता जागृत हो गई है वही व्यक्ति सहिष्णु या सहनशील हो सकता है । सहनशील या सहिष्णु होनेके लिए निम्नलिखित गुण अपेक्षित हैं
१ दृटता ।
२. आत्मनिर्भता ।
३ निष्पक्षता ।
४. विवेकशीलता ।
५ कर्तव्यकर्मके प्रति निष्ठा ।
अनुशासन
मानवताके भव्य भवनका निर्माण अनुशासनद्वारा ही सम्पन्न किया जा सकता है । वास्तवमे जहाँ अनुशासन है, वही अहिंसा है । और जहाँ अनुशासनहोनता है वही हिंसा है । पारिवारिक और सामाजिक जीवनका विनाश हिंसा द्वारा होता है । यदि धर्मं मनुष्यके हृदयको क्रूरताको दूर कर दे और अहिंसा द्वारा उसका अन्तकरण निर्मल हो जाय तो जीवनमे सहिष्णुताकी साधना सर हो जाती है । वास्तवमे अनुशासित जीवन ही समाजके लिए उपयोगी
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है। जिस समाजमे अनुशासनको अभाव रहता है वह समाज कभी भी विकसित नही हो पाता । अनुशासित परिवार ही समाजको गतिशील बनाता है, प्रोत्साहित करता है और आदर्शकी प्रतिष्ठा करता है। संघर्षोंका मूलकारण उच्छ - खलता या उदण्डता है । जबतक जीवनमे उदण्डता आदि दुगुण समाविष्ट रहेगे, तबतक सुगठित समाजका निर्माण सम्भव नही है। समाज और परिवारकी प्रमुख समस्याओंका समाधान भी अनुशासन द्वारा ही सम्भव है। शासन और शासित सभीका व्यवहार उन्मुक्त या उच्छृङ्खलित हो रहा है। अत अतिचारी और अनियन्त्रित प्रवृत्तियोको अनुशासित करना आवश्यक है।
अनुशासनका सामान्य अर्थ है कतिपय नियमो, सिद्धान्तो आदिका परिपालन करना और किसी भी स्थितिमे उसका उलघन न करना । सक्षेपमे वह विधान, जो व्यक्ति, परिवार और समाजके द्वारा पूर्णत. आचरित होता है, अनुशासन कहा जाता है। जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमे सुव्यवस्थाकी अनिगर्य आवश्यकताको कोई भी अस्वीकार नही कर सकता। इसके बिना मानव-समाज विलकुल विघटित हो जायगा और उसको कोई भी व्यवस्था नही बन सकेगी। जो व्यक्ति स्वेच्छासे अनुशासनका निर्वाह करता है, वह परिवार और समाजके लिए एक आदर्श उपस्थित करता है। जीवनके विशाल भवनकी नीव अनुशासनपर हो अवलम्बित है।
पारस्परिक द्वेषभाव, गुटबन्दी, वर्गभेद, जातिभेद आदि अनुशासनहीनताको बढावा देते हैं और सामाजिक सगठनको शिथिल बनाते हैं । अतएव सहज और स्वाभाविक कर्तव्यके अन्तर्गगत असुशासनको प्रमुख स्थान प्राप्त है । अनुशासन जावनको कलापूर्ण, शान्त और गतिशील बनाता है। इसके द्वारा परिवार और समाजको अव्यवस्थाएं दूर होती हैं।
पारिवारिक चेतनाका सम्यक विकास, अहिंसा, करुणा, समर्पण, सेवा, प्रेम, सहिष्णुता आदिके द्वारा होता है। मनुष्य जन्म लेते ही पारिवारिक एव सामाजिक कर्तव्य एव उत्तरदायित्वसे वध जाता है। प्राणोमात्र एक दूसरेसे उपकृत होता है। उसका आधार और आश्रय प्राप्त करता है । जब हम किसीका उपकार स्वीकार करते हैं, तो उसे चुकानेका दायित्व भी हमारे ही ऊपर रहता है। यह आदान-प्रदानकी सहजवृत्ति ही मनुष्यको पारिवारिकता और सामाजिकताका मूलकेन्द्र है । उसके समस्त कर्तव्यो एव धर्माचरणोका आधार है। राग और मोह आत्माके लिए त्याज्य हैं, पर परिवार और समाज सचालनके लिए इनकी उपयोगिता है। जीवन सर्वथा पलायनवादी नही है। जो कर्मठ बनकर श्रावकाचारका अनुष्ठान करना चाहता है उसे अहिंसा, सत्य, करुणा ५६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सेवा समर्पण आदिके द्वारा परिवार और समाजको दृढ करना चाहिए। यह दृढीकरणको क्रिया ही दायित्वो या कर्तव्योकी शृङ्खला है । समाजगठनको आधारभूत भावनाएं
समाज-गठनके लिए कुछ मौलिक सूत्र हैं, जिन सूत्रोके आधारपर समाज एकरूपमे वधता है। कुछ ऐसे सामान्य नियम या सिद्धान्त है, जो सामाजिकताका सहजमे विकास करते है। संवेदनशील मानव समाजके बीच रहकर इन नियमोके आधारपर अपने जीवनको सुन्दर, सरल, नम्र और उत्तरदायी बनाता है। मानव-जीवनका सर्वागीण विकास अपेक्षित है । एकागरूपसे किया गया विकास जीवनको सुन्दर, शिव और सत्य नही बनाता है। कर्मके साथ मनका सुन्दर होना और मनके साथ वाणीका मधुर होना विकासको सीढो है। जीवनमे धर्म और सत्य ऐसे तत्व हैं, जो उसे शाश्वतरूप प्रदान करते है। समाज-सगठनके लिए निम्नलिखित चार भावनाएं आवश्यक है:
१. मैत्री भावना। २ प्रमोद भावना। ३. कारुण्य भावना। ४. माध्यस्थ्य भावना।
मैत्री भावना मनको वृत्तियोंको अत्यधिक उदात्त बनाती है। यह प्रत्येक प्राणोके साथ मित्रताकी कल्पना ही नहीं, अपितु सच्ची अनुभूतिके साथ एकात्मभाव या तादात्मभाव समाजके साथ उत्पन्न करती है। मनुष्यका हृदय जब मंत्रीभावनासे सुसस्कृत हो जाता है, तो अहिंसा और सत्यके वीरुध स्वय उत्पन्न हो जाते हैं । और आत्माका विस्तार होनेसे समाज स्वर्गका नन्दन-कानन बन जाता है। जिस प्रकार मित्रके धरमे हम और मित्र हमारे घरमे निर्भय और नि कोच स्नेह एव सद्भावपूर्ण व्यवहार कर सकता है उसी प्रकार यह समस्त विश्व भी हमे मित्रके घरके रूपमे दिखलाई पडता हे। कही भय, सकोच एव आतकको वृत्ति नहीं रहती। कितनी सुखद और उदात्त भावना है यह मैत्रीका व्यक्ति, परिवार और समाज तथा राष्ट्रको सुगठित करनेका एकमात्र साधन यह मैत्री-भावना है।
इस भावनाके विकसित होते ही पारस्परिक सौहार्द, विश्वास, प्रेम, श्रद्धा एव निष्ठाको उत्पत्ति हो जाती है। चोरी, धोखाधडी लट-खसोट, आदि सभी विभीषिकाएं समाप्त हो जाती है। विश्वके सभी प्राणियोके प्रति मित्रताका भाव जागृत हो जाय तो परिवार और समाजगठनमे किसी भी प्रकारका दुराव
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छिपाव नही रह सकता है। वस्तुत' मैत्री भावना समाजकी परिधिको विकसित करती है, जिससे आत्मामे समभाव उत्पन्न होता है ।
प्रमोद - भावना
गुणीजन को देखकर अन्त करणका उल्लसित होना प्रमोद - भावना है । किसीकी अच्छी बातको देखकर उसकी विशेषता और गुणोका अनुभव कर हमारे मनमे एक अज्ञात ललक और हर्षानुभूति उत्पन्न होती है । यही आनन्दकी लहर परिवार और समाजको एकता के सूत्रमे आवद्ध करती है । प्राय देखा जाता है कि मनुष्य अपनेसे आगे बढे हुए व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या करता है और इस ईर्ष्या प्रेरित होकर उसे गिरानेका भी प्रयत्न करता है । जब तक इस प्रवृत्तिका नाश न हो जाय, तबतक अहिंसा और सत्य टिक नही पाते । प्रमोदभावना परिवार और समाजमे एकता उत्पन्न करती है । ईर्ष्या और विद्वेष पर इसी भावनाके द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है। ईर्ष्याकी अग्नि इतना विकराल रूप धारण कर लेती है कि मनुष्य अपने भाई और पुत्रके भी उत्कर्ष को फूटी आँखो नहीं देख पाता । यही ईर्ष्याकी परिणति एव प्रवृत्ति हो परिवार और समाजमे खाई उत्पन्न करती है । समाज और परिवारकी छिन्न- भिन्नता ईर्ष्या, घृर्णा और द्वेषके कारण ही होती है । प्रतिस्पर्धावश समाज विनाशके कारकी ओर बढता है । अत 'प्रमोद - भावना का अभ्यास कर गुणोके पारखी
ना और सही मूल्याकन करना समाजगठनका सिद्धान्त है । जो स्वय आदरसम्मान प्राप्त करना चाहता है, उसे पहले अन्य व्यक्तियोका आदर-सम्मान करना चाहिए | अपने गुणोके साथ अन्य व्यक्तियोके गुणोकी भी प्रशसा करनी चाहिए। यह प्रमोदकी भावना मनमे प्रसन्नता, निर्भयता एव आनन्दका संचार करती है और समाज तथा परिवारको आत्मनिर्भर, स्वस्थ और सुगठित बनाती है ।
करुणा भावना
करुणा मनकी कोमल वृत्ति है, दुखी और पीडित प्राणी के प्रति सहज अनुकम्पा और मानवीय सवेदना जाग उठती है । दुखोके दु खनिवारणार्थ हाथ बढते है और भक्ति उसके दुखका निराकरण किया जाता है ।
करुणा मनुष्यकी सामाजिकताका मूलाधार है । इसके सेवा, अहिंसा, दया, सहयोग, विनम्रता आदि सहस्रो रूप सभव है । परिवार और समाजका
आलम्बन यह करुणा-भावना ही है ।
मात्राके तारतम्यके कारण करुणाके प्रमुख तीन भेद है - १ महाकरुणा, २ अतिकरुणा और, ३ लघुकरुणा । महाकरुणा निस्वार्थभावसे प्रेरित
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होती है और इस करुणाका धारी प्राणिमात्रके कष्ट-निवारणके लिए प्रयास करता है। इस श्रेणीको करुणा किसी नेता या महान् व्यक्तिमे ही रहती है। इस करुणा द्वारा समस्त मानव-समाजको एकताके सूत्रमे आबद्ध किया जाता है और समाजके समस्त सदस्योको सुखी बनानेका प्रयास किया जाता है।
अतिकरुणा भी जितेन्द्रिय, सयमी और नि स्वार्थ व्यक्तिमे पायी जाती है। इस करुणाका उद्देश्य भी प्राणियोमे पारस्परिक सौहार्द उत्पन्न करना है। दूसरेके प्रति कैसा व्यवहार करना और किस वातावरणमे करना हितप्रद हो सकता है, इसका विवेक भी महाकरुणा और अतिकरुणा द्वारा होता है। प्रतिशोध, सकीर्णता और स्वार्थमूलकता आदि भावनाएं इसी करुणाके फलस्वरूप समाजसे निष्कासित होती हैं। वास्तवमे करुणा ऐसा कोमल तन्तु है, जो समाजको एकतामे आबद्ध करता है।
लघुकरुणाका क्षेत्र परिवार या किसी आधारविशेषपर गठित सघ तक ही सीमित है। अपने परिवारके सदस्योके कष्टनिवारणार्थ चेष्टा करना और करुणावृत्तिसे प्रेरित होकर उनको सहायता प्रदान करना लघुकरुणाका क्षेत्र है।
मनुष्यमे अध्यात्म-चेतनाकी प्रमुखता है, अतः वह शाश्वत आत्मा एवं अपरिवर्तनीय यथार्थताका स्वरूप सत्य-अहिंसासे सम्बद्ध है । कलह, विषयभोग, घृणा, स्वार्थ, सचयशोलवृत्ति मादिका त्याग भी करुणा-भावना द्वारा सभव है। अतएव सक्षेपमे करुणा-भावना समाज-गठनका ऐसा सिद्धान्त है जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषोसे रहित होकर समाजको स्वस्थ रूप प्रदान करता है। माध्यस्थ्य-भावना
जिनसे विचारोका मेल नही बैठता अथवा जो सर्वथा सस्कारहीन हैं, किसी भी सद्वस्तुको ग्रहण करनेके योग्य नहीं हैं, बी कुमार्गपर चले जा रहे हैं तथा जिनके सुधारने और सही रास्ते पर लानेके सभी यत्न निष्फल सिद्ध हो गये हैं, उनके प्रति उपेक्षाभाव रखना माध्यस्थ्य-भावना है।
मनुष्यमे असहिष्णुताका भाव पाया जाता है। वह अपने विरोधी और विरोध का सह नही पाता । मतभेदके साथ मनोभेद होते विलम्ब नही लगता। अत इस भावना द्वारा मनोभेदको उत्पन्न न होने देना समाज-गठनके लिए आवश्यक है । इन चारों भावनाओका अभ्यास करनेसे आध्यात्मिक गुणोका विकास तो होता ही है, साथ ही परिवार और समाज भी सुगठित होते हैं। माध्यस्थ्य-भावनाका लक्ष्य है कि असफलताको स्थितिमे मनुष्यके उत्साहको
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भंग न होने देना तथा बड़ी-से-बड़ी विपत्तिके आनेपर भी समाजको सुदृढ बनाये रखनेका प्रयास करना।
जिजीविषा जीवका स्वभाव है और प्रत्येक प्राणी इस स्वभावको साधना कर रहा है । अतएव माध्यस्थ्य-भावनाका अवलम्बन लेकर विपरीत आचरण करनेवालोके प्रति भी द्वेष, घृणा या ईर्ष्या न कर तटस्थवृत्ति रखना आवश्यक है।
सक्षेपमे समाज-गठनका मूलाधार अहिसात्मक उक्त चार भावनाएं हैं। समाजके समस्त नियम और विधान अहिंसाके आलोकमे मनुष्यहितके लिए निर्मित होते है। मानवके दुख और दैन्य भौतिकवाद द्वारा समाप्त न होकर अध्यात्मद्वारा ही नष्ट होते हैं। समाजके मूल्य, विश्वास और मान्यताएं अहिंसाके धरातल पर ही प्रतिष्ठित होती हैं। मानव-समाजकी समृद्धि पारस्परिक विश्वास, प्रेम, श्रद्धा, जोवनसुविधाओको समता, विश्वबन्धुत्व, मैत्री, करुणा
और माध्यस्थ्य-भावना पर ही आधृत है। अतएव समाजके घटक परिवार, सघ, समाज, गोष्ठी, सभा, परिषद् आदिको सदढ़ता नैतिक मूल्यो और आदर्शो पर प्रतिष्ठित है। समाजधर्म · पृष्ठभूमि
मानव-समाजको भौतिकवाद और नास्तिकवादने पथभ्रष्ट किया है । इन दोनोने मानवताके सच्चे आदर्शोसे च्युत करके मानवको पशु बना दिया है। जबतक समाजका प्रत्येक सदस्य यह नही समझ लेता कि मनुष्मात्रकी समस्या उसकी समस्या है, तबतक समाजमे परस्पर सहानुभूति एव सद्भावना उत्पन्न नही हो सकती है । जातोय अहकार, धर्म, धन, वर्ग, शक्ति, घृणा और राष्ट्रके कृत्रिम बन्धनोने मानव-समाजके बीच खाई उत्पन्न कर दी है, जिसका आत्मविकासके विना भरना सम्भव नहीं । यतः मानव-समाज और सभ्यताका भविष्य आत्मज्ञान, स्वतन्त्रता, न्याय और प्रेमको उन गहरी विश्वभावनाओके साथ बधा हुआ है, जो आज भौतिकता, हिंसा, शोषण प्रभृतिसे भाराक्रान्त है।
इसमे सन्देह नही कि समाजकी सकीर्णताए, धर्मके नामपर की जानेवाली हिंसा, वर्गभेदके नामपर भेद-भाव, कच-नीचता आदिसे वर्तमान समाज त्रस्त है । अत. मानवताका जागरण उसी स्थितिमे सम्भव है, जब ज्ञान-विज्ञान, अर्थ, काम, राजनीति-विधान एव समाज-जीवनका समन्वय नैतिकताके साथ स्थापित हो तथा प्राणिमात्रके साथ अहिंसात्मक व्यवहार किया जाय। पशु-पक्षी भा मानवके समान विश्वके लिए उपयोगी एवं उसके सदस्य हैं। अत. उनके साथ ५७२ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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भी प्रेमपूर्ण व्यवहार होना आवश्यक है। विशाल ऐश्वर्य और महान वैभव प्राप्त करके भी प्रम मोर आत्मनियन्त्रणके विना शान्ति सम्भव नही । जबतक समाजके प्रत्येक सदस्यका नैतिक और आध्यात्मिक विकास नही हुआ है, तबतक वह भौतिकवादके मायाजालसे मुक्त नही हो सकता । व्यक्ति और समाज अपनी दष्टिको अधिकारकी ओरसे हटाकर कर्त्तव्यकी ओर जबतक नही लायेगा, तवतक स्वार्थबुद्धि दूर नहीं हो सकती है।
वस्तुत समाजका प्रत्येक सदस्य नैतिकतासे अनैतिकता, अहिंसासे हिंसा, प्रेमसे घृणा, क्षमासे क्रोध, उत्सर्गसे सघर्ष एव मानवतासे पशुतापर विजय प्राप्त कर सकता है। दासता, बर्वरता और हिंसासे मुक्ति प्राप्त करनेके लिए अहिंसक साधनोका होना अनिवार्य है। यत अहिंसक साधनो द्वारा हो अहिंसामय शाति प्राप्त की जा सकती है । विना किसी भेद-भावके ससारके समस्त प्राणियोके कप्टोका अन्त अहिंसक आचरण और उदारभावना द्वारा ही सम्भव है । भौतिक उत्कर्षकी सर्वथा अवहेलना नही की जा सकती, पर इसे मानव-जीवनका अन्तिम लक्ष्य मानना भूल है। भौतिक उत्कर्ष समाजके लिए वही तक अभिप्रेत है, जहांतक सर्वसाधारणके नतिक उत्कर्षमे वाधक नही है। ऐसे भौतिक उत्कर्षसे कोई लाभ नही, जिससे नैतिकताको ठेस पहुँचती हो।
समाज-धर्मका मूल यही है कि अन्यकी गलती देखनेके पहले अपना निरीक्षण करो, ऐसा करनेसे अन्यकी भूल दिखलायी नही पडेगी और एक महान् सघर्षसे सहज ही मुक्ति मिल जायगो । विश्वप्रेमका प्रचार भी आत्मनिरीक्षणसे हो सकता है। विश्पप्रेमके पवित्र सूत्रमे वध जानेपर सम्प्रदाय, वर्ग, जाति, देश एव समाजकी परस्पर घृणा भी समाप्त हो जाती है और सभी मित्रतापूर्ण व्यवहार करने लगते है। हमारा प्रेमका यह व्यवहार केवल मानव-समाजके साथ ही नहीं रहना चाहिए, किन्तु पशु, पक्षी, कीडे और मकोडेके साथ भी होना चाहिए। ये पशु-पक्षी भी हमारे ही समान जनदार हैं और ये भी अपने साथ किये जानेवाले सहानुभति, प्रेम, क्रूरता और कठोरताके व्यवहारको समझते हैं। जो इनसे प्रेम करता है, उसके सामने ये अपनी भयकरता भूल जाते हैं और उसके चरणोमे नतमस्तक हो जाते हैं। पर जो इनके साथ कठोरता, क्रूरता और निर्दयताका व्यवहार करता है; उसे देखते ही ये भाग जाते हैं अथवा अपनेको छिपा लेते हैं। अत समाजमे मनुष्यके ही समान अन्य प्राणियोको भी जानदार समझकर उनके साथ भी सहानुभूति और प्रेमका व्यवहार करना आवश्यक है।
समाजको विकृत या रोगी वनानेवाले तत्त्व हैं--(१) शोषण, (२) अन्याय, (३) अत्याचार, (४) पराधीनता, (५) स्वार्थलोलुपता, (६) अविश्वास और,
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(७) अहकार। इन विनाशकारी तत्त्वोका आचरण करनेसे समाजका कल्याण या उन्नति नही हो सकती है। समाज भो एक शरीर है और इस गरीरकी पूर्णता सभी सदस्योके समूह द्वारा निष्पन्न है। यदि एक भी मदस्य माया, धोखा, छल-प्रपच और क्रूरताका आचरण करेगा, तो समाजका समस्त शरीर रोगी वन जायगा और शनै शनै सगठन गिथल होने लगेगा। अत हिंसा, आक्रमण और अहकारको नीतिका त्याग आवश्यक है । जिस समाजमे नागरिकता और लोकहितकी भावना पर्याप्तरूपमे पायी जाती है वह समाज गान्ति और सुखका उपभाग करता है। सहानुभूति
समाज-धर्मोकी सामान्य रूपरेग्वामे सहानुभूतिकी गणना की जाती है । इसके अभावसे अहकार उत्पन्न होता है। वास्तविक सहानुभूति प्रेमके रूपमे प्रकट होती है । अहकारके मूलमे अज्ञान है । अहकार उन्ही लोगोके हृदयमे पनपता है, जो यह सोचते है कि उनका अस्तित्व अन्य व्यक्तियोसे पृथक् है तथा उनके उद्देश्य और हित भी दूसरे सामाजिक सदस्योसे भिन्न है और उनकी विचारधारा तथा विचारधाराजन्य कार्यव्यवहार भी सही हैं। अत वे समाजमे सर्वोपरि हैं, उनका अस्तित्व और महत्त्व अन्य सदस्योसे श्रेष्ठ है। ___ सहानुभति मनुष्यको पथक् और आत्मकेन्द्रित जीवनसे ऊचा उठाती है
और अन्य सदस्योके हृदयमे उसके लिए स्थान बनाती है, तभी वह दूसरोके विचारो और अनुमतियोमे सम्मिलित होता है। किसी दुखी प्राणीके कष्टके सवधमे पूछ-ताछ करना एक प्रकारका मात्र शिष्टाचार है। पर दुखीके दुखको देखकर द्रवित होना और सहायताके लिए तत्पर होना ही सच्चे सहानुभूतिपूर्ण मनका परिचायक है। सच्ची सहानुभूतिका अहंकार और आत्मश्लाघाके साथ कोई सम्बन्ध नही है। यदि कोई व्यक्ति अपने परोपकारसम्बन्धो कार्योका गुणानुवाद चाहता है और प्रतिदानमे दुर्व्यवहार मिलनेपर शिकायत करता है तो समझ लेना चाहिए कि उसने वह परोपकार नही किया है। विनीत, आत्मनिग्रही और सेवाभावीमे ही सच्ची सहानुभूति रहती है। ___ यथार्थत महानुभति दूसरे व्यक्तियोके प्रयासो और दुखोके साथ एकलयताके भावकी अनुभूति है। इससे मानवके व्यक्तित्वमे पूर्णताका भाव आता है। इसी गुणके द्वारा सहानुभूतिपूर्ण व्यक्ति अपनी निजतामै अनेक आत्माओका प्रतीक बन जाता है। वह समाजको अन्यसदस्योकी दृष्टिसे देखता है, अन्यके कानोसे सुनता है, अन्यके मनसे सोचता है और अन्य लोगोके हृदयके द्वारा ही अनुभूति प्राप्त करता है। अपनी इसी विशेषताके कारण वह अपनेसे भिन्न ५७४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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व्यक्तियोके मनोभावोको समझ सकता है । अत इसप्रकारके व्यक्तिका जीवन समाजके लिए होता है। वह समाजको नीद सोता है और समाजकी ही नीद जागता है।
सहानुभूति ऐसा सामाजिक धर्म है, जिसके द्वारा प्रत्येक सदस्य अन्य सामाजिक सदस्योके हृदयतक पहुंचता है और समस्त समाजके मदस्योके साथ एकात्मभाव उत्पन्न हो जाता है। एक सदस्यको होनेवाली पीडा, वेदना अन्य सदस्योकी भी बन जाती हैं और सुख-दुःखमे साधारणीकरण हो जाता है। भावात्मक सत्ताका प्रसार हो जाता है और अशेष समाजके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
सहानुभूति एकात्मकारी तत्त्व है, इसके अपनानेसे कभी दूसरोकी भर्त्सना नहीं की जाती और सहवर्ती जनसमुदायके प्रति सहृदयताका व्यवहार सम्पादित किया जाता है। इसकी परिपक्वावस्थाको वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसने जीवनमे सम्पूर्ण हार्दिकतासे प्रेम किया हो, पीडा सही हो और दु खोके गम्भीर सागरका अवगाहन किया हो । जीवनको आत्यन्तिक अनुभूतियोके ससर्गसे ही उस भावकी निष्पत्ति होती है, जिससे मनुष्यके मनसे अहकार, विचारहीनता, स्वार्थपरता एव पारस्परिक अविश्वासका उन्मलन हो जाय । जिस व्यक्तिने किसो-न-किसी रूपमे दुःख और पीडा नही सही है, सहानुभूति उसके हृदयमे उत्पन्न नही हो सकती है। दुख और पीडाके अवसानके बाद एक स्थायी दयालुता और प्रशान्तिका हमारे मनमे वास हो जाता है।
वस्तुत जो सामाजिक सदस्य अनेक दिशाओमे पीडा सहकर परिपक्वताको प्राप्त कर लेता है, वह सन्तोषका केन्द्र बन जाता है और दुखी एव भग्नहृदय लोगोंके लिए प्रेरणा और सवलका स्रोत बन जाता है। सहानुभूतिकी सार्वभौमिक आत्मभाषाको, मनुष्योकी तो बात ही क्या, पशु भी नैसर्गिकरूपसे समझते और पसद करते हैं। __ स्वार्थपरता व्यक्तिको दूसरेके हितोका व्याघात करके अपने हितोकी रक्षाकी प्रेरणा करती है, पर सहानुभूति अपने स्वार्थ और हितोका त्यागकर दूसरोके स्वार्थ और हितोकी रक्षा करनेकी प्रेरणा देती है। फलस्वरूप सहानभूतिको समाज-धर्म माना जाता है और स्वार्थपरताको अधर्म । सहानुभूतिमे निम्नलिखित विशेषताएं समाविष्ट हैं:
१ दयालुता-क्षणिक आवेशका त्याग और प्राणियोके प्रति दया-करुणाबुद्धि दयालुतामे अन्तहित है। अविश्वसनीय आवेशभावना दयालुतामे परि
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गणित नही है । किसीकी प्रशंसा करना और बादमे उसे गालियां देने लगना निर्दयता है । यदि दाता अपने दानका पुरस्कार चाहने लगता है, तो दान निष्फल है, इसीप्रकार कोई व्यक्ति किसी बाहरी प्र ेरणासे उदारताका कोई कार्य करता है और कुछ समयके बाद किसी अप्रिय घटनाके कारण बाहरी प्रभावके वशोभूत हो विपरीत आचरण करने लगे, तो इसे भी चरित्रकी दुर्बलता माना जायगा । सच्ची दयालुता अपरिवर्तनीय है और यह बाहरी प्रभावसे अभिव्यक्त नही की जा सकती । प्राणियोके दुखको देखकर अन्तकरणका आर्द्र हो जाना दयालुता है । यह जीवका स्वभाव है, इससे चरित्रके सौन्दयं की वृद्धि होतो है और सौम्यभावकी उपलब्धि होती है । सामाजिक सम्बन्धोकी रक्षामे दयाका प्रधान स्थान है |
२. उदारता - हृदयको विशालता के माथ इसका सम्बन्ध है । जिस व्यक्तिके चरित्रमे औदार्य, दया, सहानुभूति आदि गुण पाये जाते हैं, उसका जीवन आकर्षण और प्रभावयुक्त हो जाता है । चरित्रकी नीचता और भोडापन घृणास्पद है । उदारतावश ही व्यक्ति अपने सहवर्ती जनोके प्रति आध्यात्मिक और सामाजिक ऐक्यका अनुभव करते हैं और अपनी उपलब्धियोका कुछ अश समाजके मगल हेतु अन्य सदस्योको भी वितरित कर देते हैं ।
३. भद्रता - इस गुणद्वारा व्यक्ति निष्ठुरता और पाशविक स्वार्थपरतासे दूर रहता है । आत्मानुशासनके अभ्याससे इस गुणकी प्राप्ति होती है । अपनी पाशक्कि वासनाओका दमन और नियन्त्रण करनेसे मनुष्यके हृदयमे भद्रता उत्पन्न होती है । जिस व्यक्ति मे इस भावकी निष्पत्ति हो जायगी, उसके स्वरमे स्पष्टता, दृढता और व्यामोहहीनता आ जाती है । विपरीत ओर आपत्तिजनक परिस्थितियोमे वह न उद्विग्न होता है और न किसीसे घृणा ही करता है ।
भद्रतामे आत्मसयम, सहिष्णुता, विचारशीलता और परोपकारिता भी सम्मिलित हैं । इन गुणोके सद्भावसे समाजका सम्यक् सचालन होता है तथा समाजके विवाद, कलह और विसवाद समाप्त हो जाते हैं ।
४ अन्तर्दृष्टि – सहानुभूतिके परिणामस्वरूप समाजके पर्यवेक्षणको क्षमता अन्तर्दृष्टि है । वाद-विवादके द्वारा वस्तुका बाह्य रूप ही ज्ञात हो पाता है, पर सहानुभूति अन्तस्तल तक पहुँच जाती है । निश्छल प्रेम एक ऐसो रहस्यपूर्ण एकात्मीयता है, जिसके द्वारा व्यक्ति एक दूसरेके निकट पहुँचते हैं और एक दूसरेसे सुपरिचित होते है ।
अन्तर्दृष्टिप्राप्त व्यक्तिके पूर्वाग्रह छूट जाते हैं, पक्षपातकी भावना मनसे निकल जाती है और समाजके अन्य सदस्योके साथ सहयोगकी भावना प्रस्फुटित
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हो जाती है । प्रतिद्वन्द्विता, शत्रुता, तनाव आदि समाप्त हो जाते हैं भीर समाज के सदस्योमे सहानुभूतिके कारण विश्वास जागृत हो जाता है ।
सक्षेप महानुभूति ऐसा समाज धर्म है, जो व्यक्ति और समाज इन दोनोका मंगल करता है । इस धर्मके आचरणसे समाज-व्यवस्था मे मुदृढता आती है । अपने समस्त दोषों से मुक्ति प्राप्तकर मानव समाज एकताके सूत्रमे वधता है ।
अहिंसाका ही रूपान्तर सहानुभूति है और अहिंसा ही सर्वजीव- समभावका आदर्श प्रस्तुत करतो है, जिससे समाजमे सगठन सुदृढ होता है। यदि भावनाओ
क्रोध, अभिमान, कपट, स्वार्थ, राग-द्वेष आदि हैं, तो समाजमे मित्रताका आचरण सम्भव नही है । वास्तवमे अहिंसा प्राणीको सवेदनशील भावना और वृत्तिका रूप है, जो सर्वजीव- समभावसे निर्मित है । समाज धर्मका समस्त भवन इसी सर्वजीव- समभावकी कोमल भावनापर आधारित है । अहिंसा या सहानुभूति ऐसा गुण है, जो चराचर जगत्मे सम्पूर्ण प्राणियोके साथ मैत्रोभावकी प्रतिष्ठा करता है । किसीके प्रति भी वैर और विरोधकी भावना नही रहती । दुखियोके प्रति हृदयमे करुणा उत्पन्न हो जाती है ।
जो किसी दूसरेके द्वारा आतकित हैं, उन्हे भी अहिंसक अपने अन्तरकी कोमल किन्तु सुदृढ भावनाओकी सम्पति द्वारा अभयदान प्रदान करता है । उसके द्वारा ससारके समस्त प्राणियोके प्रति समता, सुरक्षा, विश्वास एव सहकारिताको भावना उत्पन्न होती हैं । अन्याय, अत्याचार, शोषण, द्वेष, बलात्कार, ईर्ष्या आदिको स्थान प्राप्त नही रहता । यह स्मरणीय है कि हमारे मनके विचार और भावनाओकी तरगें फैलती हैं, इन तरगोमे योग और वल रहता है । यदि मनमे हिंसाकी भावना प्रबल है, तो हिंसक तरगं समाजके अन्य व्यक्तियोंको भी क्रूर, निर्दय और स्वार्थी बनायेंगी । अहिंसाकी भावना रहनेपर समाज के सदस्य सरल, सहयोगी और उदार बनते है । अतएव समाजधर्मकी पृष्ठभूमि अहिंसा या सहानुभूतिका रहना परमावश्यक है ।
सामाजिक नैतिकताका आधार आत्मनिरीक्षण
समाज एव राष्ट्रकी इकाई व्यक्तिके जीवनको स्वस्थ - सम्पन्न करनेके लिए स्वार्थत्याग एव वैयक्तिक चारित्रकी निर्मलता अपेक्षित है । आज व्यक्तिमे जो असन्तोष और घबडाहटकी वृद्धि हो रही है, जिसका कुफल विषमता और अपराधोकी बहुलताके रूपमे है, नैतिक आचरण द्वारा ही दूर किया जा सकता है, क्योकि आचरणका सुधारना ही व्यक्तिका सुधार और आचरणको बिगडना ही व्यक्तिका बिगाड़ है ।
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प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्योंको मन, वचन और काय द्वारा सम्पन्न करता है तथा अन्य व्यक्तियोसे अपना सम्पर्क भी इन्हीके द्वारा स्थापित करता है । ये तीनो प्रवृत्तियाँ मनुष्यको मनुष्यका मित्र और ये ही मनुष्यको मनुष्यका शत्रु भी बनाती हैं । इन प्रवृत्तियोके सत्प्रयोगसे व्यक्ति सुख और शान्ति प्राप्त करता है तथा समाजके अन्य सदस्योके लिए सुख-शान्तिका मागं प्रस्तुत करता है, किन्तु जब इन्ही प्रवृत्तियोका दुरुपयोग होने लगता है, तो वैयक्तिक एव सामाजिक दोनो ही जीवनोमे अशान्ति आ जाती है । व्यक्तिकी स्वार्थमूलक प्रवृत्तियाँ विषय- तृष्णाको बढानेवाली होती हैं; मनुष्य उचित-अनुचितका विचार किये बिना तृष्णाको शान्त करनेके लिए जो कुछ कर सकता है, करता है । अतएव जीवनमे निषेधात्मक या निवृत्तिमूलक आचारका पालन करना आवश्यक है । यद्यपि निवृत्तिमार्ग आकर्षक और सुकर नही है, तो भी जो इसका एकबार आस्वादन कर लेता है, उसे शाश्वत और चिरन्तन शान्तिकी प्राप्ति होती है । विध्यात्मक चारित्रका सम्बन्ध शुभप्रवृत्तियोसे है और अशुभप्रवृत्तियोसे निवृत्तिमूिलक भी चारित्र संभव है । जो व्यक्ति समाजको समृद्ध एव पूर्ण सुखी बनाना चाहता है, उसे शुभविधिका ही अनुसरण करना आवश्यक है ।
व्यक्तिके नैतिक विकासके लिए आत्मनिरीक्षणपर जोर दिया जाता है। इस प्रवृत्तिके बिना अपने दोषोको ओर दृष्टिपात करनेका अवसर ही नही मिलता । वस्तुत व्यक्तिको अधिकाश क्रियाएँ यन्त्रवत् होती हैं, इन क्रियाओमे कुछ क्रियाओका सम्बन्ध शुभके साथ है और कुछका अशुभके साथ । व्यक्ति न करने योग्य कार्य भी कर डालता है और न कहने लायक बात भी कह देता है तथा न निचार योग्य बातोकी उलझनमे पड़कर अपना और परका अहित भी कर बैठता है । पर आत्मनिरीक्षणको प्रवृत्ति द्वारा अपने दोष तो दूर किये ही जा सकते हैं तथा अपने कर्तव्य और अधिकारोका यथार्थत परिज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है ।
प्राय देखा जाता है कि हम दूसरोंकी आलोचना करते हैं और इस मालोचना द्वारा ही अपने कर्त्तव्यकी समाप्ति समझ लेते हैं । जिस बुराईके लिए हम दूसरोको कोसते हैं, हममे भी वही बुराई वर्तमान है, किन्तु हम उसकी ओर दृष्टिपात भी नही करते । अत. समाज धर्मका आरोहण करनेकी पहली सीढी आत्म-निरीक्षण है | इसके द्वारा व्यक्ति घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, मान, मात्सर्य प्रभृति दुर्गुणोसे अपनी रक्षा करता है और समाजको प्र ेमके धरातल पर लाकर उसे सुखी और शान्त बनाता है
आत्मनिरीक्षणके अभावमे व्यक्तिको अपने दोषोका परिज्ञान नही होता
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और फलस्वरूप वह इन दोषोको समाजमें भी मारोपित करता है, जिससे समाजेमे भेदभाव उत्पन्न हो जाते हैं और शने. शन. समाज विघटित होने लगता है।
समाजधर्मकी पहली सीढी: विचारसमन्वय-उदारदृष्टि ___"मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना" लोकोक्तिके अनुसार विश्वके मानवोमें विचारभिन्नताका रहना स्वाभाविक है, मयोकि मत्रको विचारशेली एक नहीं है। विचार-भिन्नता ही मतभेद और विद्वे पोको जननी है। वैयक्तिक और सामाजिक जीवनमे अशान्तिका प्रमुख कारण विचारोमे भेद होना ही है। विचारभेदके कारण विद्वेष और घृणा भी उत्पन्न होती है। इस विचार-भिन्नताका शमन उदारदृष्टि द्वारा ही किया जा सकता है। उदारदृष्टिका अन्य नाम स्याद्वाद है । यह दृष्टि ही आपमो मतभेद एवं पक्षपातपूर्ण नोतिका उन्मूलन कर अनेकताम एकता, विचारोमे उदारता एवं सहिष्णुता उत्पन्न करती है। यह विचार और कथनको सफूचित, हठ एव पक्षपातपूर्ण न बनाकर उदार, निष्पक्ष और विगाल बनाती है। वास्तवमे विचारोको उदारता हो समाजमे शान्ति, सुख और प्रेमको स्थापना कर मकती है।
आज एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिसे, एक वर्ग दुसरे वर्गसे और एक जाति दूसरी जातिसे इमीलिए संघर्षरत है कि उसमे भिन्न व्यक्ति, वर्ग और जातिके विचार उनके विचारोंके प्रतिकूल हैं। साम्प्रदायिकता और जातिवादके नशेमे मस्त होकर निर्मम हत्याएं की जा रही हैं और अपनेसे विपरीत विचारवालोके ऊपर असंख्य अत्याचार किये जा रहे हैं। साम्प्रदायिकताके नामपर परपस्परमे सधपं और क्लेश हो रहे हैं। धर्मको सकीर्णताके कारण सहस्रो मूक व्यक्तियोको तलवारके घाट उतारा जा रहा है | जलते हुए अग्निकुण्डोमे जीवित पशुओको डालकर म्वर्गका प्रमाणपत्र प्राप्त किया जा रहा है। इस प्रकार विचारभिन्नताका भूत मानवको राक्षम बनाये हुए है।
उदारताका सिद्धान्त कहता है कि विचार-भिन्नता स्वाभाविक है क्योकि प्रत्येक व्यक्तिके विचार अपनी परिस्थिति, समझ एव आवश्यकताके अनुसार वनते हैं । अत विचारोमे एकत्व होना असम्भव है। प्रत्येक व्यक्तिका ज्ञान एव उसके साधन सोमित हैं। अत एकसमान विचारोका होना स्वभावविरुद्ध है। ___ अभिप्राय यह है कि वस्तुमे अनेक गुण और पर्याय-अवस्थाएं हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी शमित एव योग्यताके अनुसार वस्तुकी अनेक अवस्थाओमेसे
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किसी एक अवस्थाको देखता और विचार करता है। अतः उसका ऐकागिक ज्ञान उसीकी दृष्टि तक सत्य है । अन्य व्यक्ति उसी वस्तुका अवलोकन दूसरे पहलूसे करता है । अतः उसका ज्ञान भी किसी दृष्टिसे ठीक है । अपनी-अपनी दृष्टि से वस्तुका विवेचन, परीक्षण और कथन करनेमें सभी को स्वतन्त्रता हैं; सभीका ज्ञान वस्तु एक गुण या अवस्थाको जाननेके कारण अशात्मक है, पूर्ण नही। जैसे एक ही व्यक्ति किसीका पिता, किसीका भाई, किसीका पुत्र और किसीका भागनेय एक समय मे रह सकता है और उसके भ्रातृत्व, पितृत्व, पुत्रत्व एव भागनेयत्वमे कोई बाधा नही आती। उसी प्रकार ससारके प्रत्येक पदार्थमे एक ही कामे विभिन्न दृष्टियोसे अनेक धर्म रहते हैं । अतएव उदारनीति द्वारा ससारके प्रत्येक प्राणीको अपना मित्र समझकर समाजके सभी सदस्योके साथ उदारता और प्रेमका व्यवहार करना अपेक्षित है । मतभेदमात्रसे किसीको शत्रु समझ लेना मुर्खताके सिवाय और कुछ नही । प्रत्येक बातपर उदारता और निष्पक्ष दृष्टिसे विचार करना ही समाजमे शान्ति स्थापित करनेका प्रमुख साधन है । यदि कोई व्यक्ति भ्रम या अज्ञानतावश किसी भी प्रकारकी भूल कर बैठता है, तो उस भूलका परिमार्जन प्रेमपूर्वक समझाकर करना चाहिए।
अहवादी प्रकृति, जिसने वर्तमानमे व्यक्तिके जीवनमे बडप्पनकी भावनाकी पराकाष्ठा कर दी है, उदारनीति से ही दूर की जासकती है। व्यक्ति अपनेको ast और अन्यको छोटा तभी तक समझता है जबतक उसे वस्तुस्वरूपका यथार्थ बोध नही होता । अपनी ही बाते सत्य और अन्यकी बातें झूठी तभी तक प्रतीत होती है जबतक अनेक गुणपर्यायवाली वस्तुका यथार्थ बोध नही होता । उदारता समाजके समस्त झगडोको शान्त करनेके लिए अमोघ अस्त्र है । विधि, निषेध, उभयात्मक और अवक्तव्यरूप पदार्थोंका यथार्थ परिज्ञान सघर्ष और द्वन्द्वोका अन्त करनेमें समर्थ है । यद्यपि विचार - समन्वय तर्ककें क्षेत्रमे विशेष महत्त्व रखता है, तो भी कोकव्यवहारमे इसकी उपयोगिता कम नही है । समाजका कोई भी व्यावहारिक कार्य विचारोकी उदारता के बिना चलता ही नही है । जो व्यक्ति उदार है, वही तो अन्य व्यक्तियोके साथ मिल-जुल सकता है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि राज्य सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नही । हमे वस्तुओके अनन्त रूपो या पर्यायोंमेरो एक कालमे उसके एक ही रूप या पर्यायका ज्ञान प्राप्त होता है और कथन भी किसी एक रूप या पार्यायका हो किया जाता है । अतएव कथन करते समय अपने दृष्टिकोणके सत्य होनेपर भी उस कथनको पूर्ण मत्य नही माना जा सकता, क्योंकि उसके अतिरिक्त भी मत्य अवशिष्ट रहता है । उन्हें असत्य तो कहा ही नही जा सकता, क्योकि वे वस्तुका
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ही वर्णन करते हैं । अत: उन्हें सत्याश कहा जा सकता है। अतएव एक व्यक्ति जो कुछ कहता है वह भी सत्याश है, दूसरा जो कहता है वह भी सत्याश है। तीसरा कहता है वह भी सत्याश है। इस प्रकार अगणित व्यक्तियोके कथन सत्याश ही ठहरते है । यदि इन सब सत्याशोको मिला दिया जाय तो पूर्ण सत्य बन सकता है। इस पूर्ण सत्यको प्राप्त करनेके लिए हमे उन सत्याशो अर्थात् दूसरोके दृष्टिकोणोके प्रति उदार, सहिष्णु और समन्वयकारी बनना होगा और यही सत्यका आग्रह है। जबतक हम उन सत्याशो-दूसरोके दृष्टिकोणोके प्रति अनुदार-असहिष्णु बने रहेगे, समन्वय या सामञ्जस्यको प्रवृत्ति हमारी नहीं होगी, हम सत्यको नही प्राप्त कर सकेगे और न हमारा व्यवहार ही समाजके लिए मगलमय होगा। विराट् सत्य असख्य सत्याशोको लेकर बना है। उन सत्याशोकी उपेक्षा करनेसे हम कभी भी उस विराट् सत्यको नही प्राप्त कर सकेगे । आपेक्षिक सत्यको कहने और दूसरोके दृष्टिकोणमे सत्य ढूँढने एव उनके समन्वय या सामजस्य करनेकी पद्धति या शैलो उदारता है। यह उदारता समाजको सुगठित, सुव्यवस्थित और समृद्ध बनानेके लिए आवश्यक है। __उदारता सत्यको ढूंढने तथा अपनेसे भिन्न दृष्टिकोणोके साथ समझौता करनेकी प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया द्वारा मनोभूमि विस्तृत होती है और व्यक्ति सत्याशको उपलब्ध करता है। उदार दष्टिकोण या समन्वयवृत्ति ही सत्यकी उपलब्धिके लिए एकमात्र मार्ग है। आग्रह, हठ, दम्भ और सघर्षोंका अन्त इसीके द्वारा सम्भव है। हठ, दुराग्रह और पक्षपात ऐसे दुगुण है जो एक व्यक्तिको दूसरे व्यक्तिसे समझौता नहीं करने देते । जब तक विचारोमे उदारता नही, अपने दृष्टिकोणको यथार्थरूपमे समझनेकी शक्ति नही, तब तक पूर्वाग्रह लगे ही रहते हैं। उदारता यह समझनेके लिए प्रेरित करती है कि किसी भी पदार्थमे अनेक रूप और गुण है। हम इन अनेक रूप और गुणोमेसे कुछको हो जान पाते हैं । अत हमारा ज्ञान एक विशेष दृष्टि तक ही सीमित है। जब तक हम दूसरोके विचारोका स्वागत नही करेंगे, उनमे निहित सत्यको नही पहचानेगे, तबतक हमारी ऐकान्तिक हठ कैसे दूर हो सकेगी। उदारता या विचारसमन्वय वैयक्तिक और सामाजिक गुत्थियोको सुलझाकर समाजमे एकता और वैचारिक अहिंसाकी प्रतिष्ठा करता है। समाजधर्मको दूसरी सीढ़ी · विश्वप्रेम और नियन्त्रण
समस्त प्राणियोको उन्नतिके अवसरोमे समानता होना, समाजधर्मको दूसरी सोढी है और इस समानताप्राप्तिका साधन विश्वप्रेम या अत्मनियन्त्रण है । जिस व्यक्तिके जीवनमे आत्म-नियन्त्रण समाविष्ट हो गया है वह समाजके
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सभी सदस्योंके साथ भाईचारेका व्यवहार करता है । उनके दुःख-दर्दमे सहायक होता है । उन्हे ठीक अपने समान समझता है। हीनाधिकको भावनाका त्यागकर अन्य अन्य व्यक्तियोकी सुख-सुविधाओका भी ध्यान रखता है। पाखण्ड और धोखेबाजोकी भावनाओका अन्त भी विश्वप्रेम द्वारा सम्भव है। शोषित और शोषकोका जो संघर्ष चल रहा है, उसका अन्त विश्वप्रेम और आत्मनियन्त्रणके विना सम्भव नही। विश्वप्रमकी पवित्र अग्निमे दम्भ, पाखण्ड, हिंसा, ऊंच-नीचको भावना, अभिमान, स्वार्थबुद्धि, छल-कपट प्रभृति समस्त भावनाएं जलकर छार बन जाती हैं-औ.कर्तव्य, अहिंसा, त्याग और सेवाकी भावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं।
यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो व्यक्ति और समाजके वीच अधिकार और कर्तव्यको शृङ्खला स्थापित कर सकता है। समाज एव व्यक्तिके उचित सवधोका सतुलन इसीके द्वारा स्थापित हो सकता है । व्यक्ति सामाजिक हितकी रक्षाके लिए अपने स्वार्थका त्यागकर सहयोगको भावनाका प्रयोग भी प्रेमसे ही कर सकता है । आज व्यक्ति और समाजके वीचको खाई सघर्प और शोषणके कारण गहरी हो गई है। इस खाईको इच्छाओके नियन्त्रण और प्रेमाचरण द्वारा ही भरा जा सकता है। निजी स्वार्थसाधनके कारण अगणित व्यक्ति भूखसे तड़प रहे हैं और असख्यात विना वस्त्रके अर्धनग्न घूम रहे हैं। यदि भोगोपभोगकी इच्छाओके नियन्त्रणके साथ आवश्यकताएं भी सीमित हो जाये और विश्वप्र मके जादूका प्रयोग किया जाय, तो यह स्थिति तत्काल समाप्त हो सकती है।
मानवका जीना अधिकार है, किन्तु दूसरेको जीवित रहने देना उसका कत्र्तव्य है। अतः अपने अधिकारोकी मांग करनेवालेको कर्तव्यपालनवी ओर सजग रहना अत्यावश्यक है । समाजमे व्याप्त विषमता, अशान्ति और शोषणका मूल कारण कर्तव्योकी उपेक्षा है। समाजधर्मको दूसरी सीढ़ोके लिए सहायक
अहिंसाके आधारपर सहयोग और सहकारिताको भावना स्थापित करनेसे समाजधर्मकी दूसरी सीढीको बल प्राप्त होता है। समाजका आर्थिक एव राजनीतिक ढांचा लोकहितकी भावनापर आश्रित हो तथा उसमे उन्नति और विकासके लिए सभीको समान अवसर दिये जायें। अहिंसाके आधारपर निर्मित समाजमे शोषण और सघर्ष रह नही सकते । अहिंसा ही एक ऐसा शस्त्र है जिसके द्वारा बिना एक बून्द रक्त बहाये वर्गहीन समाजकी स्थापना की जा ५८२ . तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सकती है। यद्यपि कुछ लोग अहिंसाके द्वारा निर्मित समाजको आदर्श या कल्पनाकी वस्तु मानते हैं, पर यथार्थत यह समाज काल्पनिक नही, प्रत्युत च्यावहारिक होगा। यतः अहिंसाका लक्ष्य यही है कि वर्गभेद या जातिभेदसे ऊपर उठकर समाजका प्रत्येक सदस्य अन्यके साथ शिष्टता और मानवताका व्यवहार करे। छलकपट या इनसे होनेवाली छीनाझपटी अहिंसाके द्वारा ही दूर को जा सकती है। यह सुनिश्चित है कि बलप्रयोग या हिंसाके आधारपर मानवीय सबथोकी दीवार खडी नहीं की जा सकती है । इसके लिए सहानुभूति, प्रेम, सौहार्द, त्याग, सेवा एव दया आदि अहिसक भावनाओको आवश्यकता है । वस्तुत अहिंसामे ऐसी अद्भुत शक्ति है जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओको सरलतापूर्वक सुलझा सकती है। समाजधर्मकी दूसरी सोढीपर चढनेके लिए लोकहितकी भावना सहायक कारण है।
समाजको जर्जरित करनेवाली काले-गोरे, ऊंच-नीच और छुआ-छूतकी भावनाको प्रश्रय देना समाजधर्मकी उपेक्षा करना है। जन्मसे न कोई ऊंचा होता है और न कोई नीचा। जन्मना जातिव्यवस्था स्वीकृत नही की जा सकती । मनुष्य जैसा आचरण करता है, उसीके अनुकूल उसको जाति हो जाती है । दुराचार करनेवाले चोर और डकैत जात्या ब्राह्मण होनेपर भो शूद्रसे अधिक नहीं हैं। जिन व्यक्तियोके हृदयमे करुणा, दया, ममताका अजस्र प्रवाह समाविष्ट है, ऐसे व्यक्ति समाजको उन्नत बनाते हैं, जाति-अहकारका विष मनुष्यको अधमूच्छित किये हुए हैं । अत इस विषका त्याग अत्यावश्यक है।
जिस व्यक्तिका नेतिक स्तर जितना हो समाजके अनुकूल होगा वह उतना ही समाजमे उन्नत माना जायगा, किन्तु स्थान उसका भी सामाजिक सदस्य होनेके नाते वही होगा, जो अन्य सदस्योका है। दलितवर्गके शोषण, जाति और धर्मवादके दुरभिमानको महत्त्व देना मानवताके लिए अभिशाप है। जो समाजको सुगठित और सुव्यवस्थित बनानेके इच्छुक हैं, उन्हे आत्म-नियन्त्रण कर जातिवाद, धर्मवाद, वर्गवादको प्रश्रय नहीं देना चाहिए। समाजधर्मकी तीसरी सीढ़ी : आर्थिक सन्तुलन
समाजकी सारी व्यवस्थाएं अर्थमलक है और इस अर्थके लिए ही सघर्ष हो रहा है। व्यक्ति, समाज या राष्टके पास जितनी सम्पत्ति बढ़ जाती है वह व्यक्ति, समाज या राष्ट्र उतना ही असन्तोषका अनुभव करता रहता है । अत. धनाभावजन्य जितनी अशान्ति है, उससे भी कही अधिक घनके सद्धावसे है।
धनके असमान वितरणको अशान्तिका सबल कारण माना जाता है, पर यह असमान वितरणको समस्या विश्वकी सम्पत्तिको बांट देनेसे नही सुलझ
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सकती है। इसके समाधानके कारण अपरिग्रह और सयमवाद हैं । ये दोनो सविधान समाजमे से शोषित और शोषक वर्गकी समाप्ति कर आर्थिक दृष्टिसे समाजको उन्नत स्तरपर लाते हैं । जो व्यक्ति समस्त समाजके स्वार्थको ध्यानमे रखकर अपनो प्रवृत्ति करता है वह समाजको आर्थिक दिपमताको दूर करनेमे सहायक होता है। यदि विचारकर देखा जाय तो परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाण ऐसे नियम है, जिनसे समाजकी आर्थिक समस्या सुलझ सकती है। इसी कारण समाजधर्मकी तीसरी सोढो आर्थिक सन्तुलनको माना गया है | स्वार्थ और भोगलिप्साका त्याग इस तीसरी सोढीपर चढनेका आवार है ।
परिग्रहपरिमाण आर्थिक सयमन
अपने योग-क्षमके लायक भरण-पोषणको वस्तुओको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय और अत्याचार द्वारा धनका सचय न करना परिग्रहपरिमाण या व्यावहारिक अपरिग्रह है । धन, धान्य, रुपया-पैसा, सोना-चादो, स्त्री-पुत्र प्रभृति पदार्थोंमे 'ये मेरे हैं', इस प्रकारके ममत्वपरिणामको परिग्रह कहते है । इस ममत्व या लालसाको घटाकर उन वस्तुओके संग्रहको कम करना परिग्रहपरिमाण है। बाह्यवस्तु - रुपये-पैसोको अपेक्षा अन्नरग तृष्णा या लालसाको विशेष महत्त्व प्राप्त है, क्योकि तृष्णाके रहनेसे धनिक भी आकुल रहता है । वस्तुत घन आकुलताका कारण नही है, आकुलताका कारण है तृष्णा । सचयवृत्तिके रहनेपर व्यक्ति न्याय-अन्याय एव युक्त अयुक्तका विचार नही करता ।
इस समय ससार मे धनसंचयके हेतु व्यर्थ हो इतनी अधिक हाय-हाय मची हुई है कि सतोप और शान्ति नाममात्रको भां नही । विश्वके समझदार विशेषज्ञोने धनसम्पत्तिके बटवारेके लिए अनेक नियम बनाये हैं, पर उनका पालन आजतक नही हो सका । अनियन्त्रित इच्छाओको तृप्ति विश्वको समस्त सम्पत्तिके मिल जानेपर भी नही हो सकती है। आशारूपी गड्ढेको भरनेमे ससारका सारा वैभव अणुके समान है । अत इच्छाओके नियन्त्रण के लिए परिग्रहपरिमाणके साथ भोगोपभोगपरिमाणका विधान भी आवश्यक है । समय, परिस्थिति और वातावरणके अनुसार वस्त्र, आभरण, भोजन, ताम्बूल आदि भोगोपभोगकी वस्तुओके सबमे भी उचित नियम कर लेना आवश्यक है ।
उक्त दोनो व्रतो या नियमोके समन्वयका अभिप्राय समस्त मानव समाजकी आर्थिक व्यवस्थाको उन्नत बनाना है । चन्द व्यक्तियोको इस बातका कोई अधिकार नही कि वे शोषण कर आर्थिक दृष्टिसे समाजमे विषमता उत्पन्न करे । ५८४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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इतना सुनिश्चित है कि समस्त मनुष्योमे उन्नति करनेकी शक्ति एक-सी न होनेके कारण समाजमे आर्थिक दृष्टिसे समानता स्थापित होना कठिन है, तो भी समस्त मानव-समाजको लौकिक उन्नतिके समान अवसर एव अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार स्वतन्त्रताका मिलना आवश्यक है, क्योकि परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाणका एकमात्र लक्ष्य समाजको आर्थिक विषमताको दूर कर सुखो बनाना है। यह पूजीवादका विरोधी सिद्धान्त है और एक स्थान पर धन सचित होनेको वृत्तिका निरोध करता है। परिग्रहपरिमाणका क्षेत्र व्यक्तितक हो सीमित नही है, प्रत्युत्त समाज, देश, राष्ट्र एव विश्वके लिए भी उसका उपयोग आवश्यक है। सयमवाद व्यक्तिको अनियन्त्रित इच्छाओको नियन्त्रित करता है । यह हिंसा झूठ, चोरी, दुराचार आदिको रोकता है।
परिगहके दो भेद हैं-बाह्यपरिग्रह और अन्तरगपरिग्रह । बाह्यपरिग्रहमे धन, भूमि, अन्न, वस्त्र आदि वरतुएँ परिगणित है। इनके सचयसे समाजको आर्थिक विषमताजन्य कष्ट भोगना पड़ता है। अत श्रमार्जित योग-क्षेमके योग्य धन ग्रहण करना चाहिये । न्यायपूर्वक भरण-पोषणको वस्तुगोके ग्रहण करनेसे धन सचित नहीं हो पाता। अतएव समाजको समानरूपसे सुखी, समृद्ध और सुगठित बनाने हेतु धनका सचय न करना आवश्यक है। यदि समाजका प्रत्येक सदस्य श्रमपूर्वक आजीविकाका मर्जन करे, अन्याय और वेईमानीका त्याग कर दे, तो समाजके अन्य सदस्योको भी आवश्यकताको वस्तुओकी कभी कमी नही हो सकती है। ___ आभ्यन्तरपरिग्रहमे काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि भावनाएँ शामिल हैं। वस्तुत सचयशील वृद्धि-तष्णा अर्थात् असतोप ही अन्तरगपरिग्रह है। यदि वाह्यपरिग्रह छोड़ भी दिया जाय, और ममत्वबुद्धि बनी रहे, तो समाजकी छोना-झपटी दूर नहीं हो सकती। धनके समान वितरण होनेपर भी, जो बुद्धिमान है, वे अपनी योग्यतासे धन एकत्र कर ही लेगे और ममाजमे विषमता बनी ही रह जायगी । इसी कारण लोभ, माया, क्रोध आदि मानवीय विकारोके त्यागनेका महत्त्व है। अपरिग्रह वह सिद्धान्त है, जो पूँजी और जीवनोपयोगी अन्य जावश्यक वस्तुओके अनुचित सग्रहको रोक कर शोपणको बन्द करता है और समाजमे आर्थिक समानताका प्रचार करता है। अतएव सचयशील वृत्तिका नियन्त्रण परम आवश्यक है। यह वृत्ति ही पूजीवादका मूल है। तीसरी सीढोका पोषक : संयमवाद ।
ससारमै सम्पत्ति एव भोगपभोगको सामग्री कम है। भोगनेवाले अधिक है और तृष्णा इससे भी ज्यादा है। इसी कारण प्राणियोमे मत्स्यन्याय चलता है,
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छीना-झपटी चलती है और चलता है संघर्ष । फलत. नाना प्रकारके अत्याचार और अन्याय होते है, जिनसे अहर्निश अशान्ति बढती है । परस्परमे ईर्ष्या-द्वेषकी मात्रा और भी अधिक बढ जाती है, जिससे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिको आर्थिक उन्नति के अवसर ही नही मिलने देता। परिणाम यह होता है कि सघर्ष और अशान्तिकी शाखाएँ बढकर विषमतारूपी हलाहलको उत्पन्न करती है।
इस विषको एकमात्र औषध सयमवाद है । यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओ, कषायो और वासनाओ पर नियन्त्रण रखकर छोगा-झपटीको दूर कर दे, तो समाजसे आर्थिक विषमता अवश्य दूर हो जाय। और सभी सदस्य शारीरिक आवश्यकताओकी पूर्ति निराकुलरूपसे कर सकते हैं । यह अविस्मरto है कि आर्थिक समस्याका समाधान नैतिकताके विना सम्भव नहीं हैं। नैतिक मर्यादाओका पालन हो आर्थिक साधनोमे समीकरण स्थापित कर सकता है । जो केवल भौतिकवादका आश्रय लेकर जीवनको समस्याओको सुरझाना चाहते हैं, वे अन्धकार है । आध्यात्मिकता और नैतिकता के अभाव मे आर्थिक समस्याएँ झ नही सकता है |
सयमके भेद और उनका विश्लेषण - सयमके दो भेद हैं- ( १ ) इन्द्रियसयम और (२) प्राणिसयम । सयमका पालनेवाला अपने जीवनके निर्वाहके हेतु कम-सेकम सामग्रीका उपयोग करता है, जिससे अवशिष्ट सामग्री अन्य लोगोके काम आती है और सर्प कम होता है । विषमता दूर होती है । यदि एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करे, तो दूसरोके लिये सामग्री कम पडेगी तथा शोपणका आरम्भ यहीसे हो जायगा । समाजमे यदि वस्तुओका मनमाना उपभोग लोग करते रहे, सयमका अकुश अपने ऊपर न रखें, तो वर्ग-सघर्ष चलता ही रहेगा । अतएव आर्थिक वैषम्यको दूर करने के लिये इच्छाओ और लालसाओका नियंत्रित करना परम आवश्यक है तभी समाज सुखी और समृद्धिशाली बन सकेगा ।
अन्य प्राणियोको किंचित् भी दुःख न देना प्राणिसयम है । अर्थात् विश्वके समस्त प्राणियोकी सुख-सुविधाओ का पूरा-पूरा ध्यान रखकर अपनी प्रवृत्ति करना, समाजके प्रति अपने कर्त्तव्यको सुचारूरूपसे सम्पादित करना एव व्यक्तिगत स्वार्थभावनाको त्याग कर समस्त प्राणियोके कल्याणकी भावना से अपने प्रत्येक कार्यको करना प्राणिसयम है । इतना ध्रुव सत्य है कि जब तक समर्थ लोग सयम पालन नही करेंगे, तब तक निर्बलोको पेट भर भोजन नही मिल सकेगा और न समाजका रहन-सहन ही ऊंचा हो सकेगा । आत्मशुद्धिके साथ सामाजिक, आर्थिक व्यवस्थाको सुदृढ करना और शासित एव शासक या शोषित एव शोषक इन वर्गभेदोको समाप्त करना भी प्राणिसंयमका लक्ष्य है ।
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उत्पादन और वितरणजन्य आर्थिक विषमताका सन्तुलन भी अपरिग्रह. वाद और सयमवादद्वारा दूर किया जा सकता है। आज उत्पादनके ऊपर एक जाति, समाज या व्यक्तिका एकाधिकार होनेसे उसे कच्चे मालका सचय करना पड़ता है तथा तैयार किये गये पक्के मालको खपानेके लिए विश्वके किसी भी कोनेके बाजारपर वह अपना एकाधिकार स्थापित कर शोषण करता है। इस शोषणसे आज समाज कराह रहा है। समाजका हर व्यक्ति त्रस्त है । किसीको भी शान्ति नही । स्वार्थपरताने समाजके घटक व्यक्तियोको इतना सकोर्ण बना दिया है, जिससे वे अपने ही आनन्दमे मग्न हैं । अतएव इजाओको नियमित कर जीवनमे सयमका आचरण करना परम आवश्यक है। समाजधर्मको चौथो सीढी : अहिंसाको विराट् भावना
समाजमे सघर्षका होना स्वाभाविक है, पर इस सघर्षको कैसे दूर किया जाय, यह अत्यन्त विचारणीय है । जिस प्रकार पशुवर्ग अपने संघर्षका सामना पशवलसे करता है, क्या उसी प्रकार मनुष्य भी शक्तिके प्रयोग द्वारा सघर्षका प्रतिकार करे ? यदि मनुष्य भी पशुवलका प्रयोग करने लगे, तो फिर उसकी मनुष्यता क्या रहेगी ? अत. मनुष्यको उचित है कि वह विवेक और शिष्टताके साथ मानवोचित विधिका प्रयोग करे । वस्तुत अत्याचारीको इच्छाके विरुद्ध अपने सारे आत्मवलको लगा देना ही सघर्षका अन्त करना है, यही अहिंसा है। अहिंसा ही अन्याय और अत्याचारसे दीन-दुर्वलोको बचा सकती है। यही विश्वके लिये सुख-शान्ति प्रदायक है। यही ससारका कल्याण करने वाली है, यही मानवका सच्चा धर्म है और यही है मानवताकी सच्ची कसौटी।
मानवको यह विकारजन्य प्रवृत्ति है कि वह हिंसाका उत्तर हिंसासे झट दे देता है । यह बलवान-बलवानको लडाई है । समाजमे सभी तो बलवान नही हाते । अत कमजोरोकी रक्षा और उनके अधिकारोकी प्राप्ति अहिंसाद्वारा ही सम्भव है । यह निर्वल, सवल, धनी, निर्धन, राक्षस और मनुष्य सभीका सहारा है । यह वह साधन है, जिसके प्रयोग द्वारा हिंसाके समस्त उपकरण व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं । पशुबलको पराजित कर आत्मवल अपना नया प्रकाश सर्वसाधारणको प्रदान करता है।
इसमे सन्देह नही कि हिंसा विश्वमे पूर्ण शान्ति स्थापित करनेमे सर्वथा असमर्थ है। प्रत्येक प्राणीका यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह आरामसे खाये और जीवन यापन करे । स्वय 'जीओ और दूसरोको जीने दो', यह सिद्धान्त समाजके लिये सर्वदा उपयोगी है। पर आजका मनुष्य स्वार्थ और अधिकारके वशीभूत हो वह स्वय तो जीवित रहना चाहता है किन्तु दूसरोके
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जीवनको रंचमात्र भी परवाह नही करता है । आजका व्यक्ति चाहता है कि मैं अच्छे-से-अच्छा भोजन करूँ, अच्छी सवारी मुझे मिले । रहने के लिये अच्छा भव्य प्रासाद हो तथा मेरी अलमारीमे सोने-चांदीका ढेर लगा रहे, चाहे अन्य लोगोके लिये खानेको सूखी रोटियां भी न मिलें, तन ढकनेको फटे - चिथडे भी न हो । मेरे भोग-विलासके निमित्त सैकड़ोके प्राण जाये, तो मुझे क्या? इसप्रकार हम देखते है कि ये भावनाएं केवल व्यक्तिकी ही नही, किन्तु समस्त ममाजको है । यही कारण है कि समाजका प्रत्येक सदस्य दुखो है ।
अविश्वासकी तोव्र भावना अन्य व्यक्तियोका गला घोटनेके लिये प्रेरित किये हुए है। अधिकारापहरण और कर्त्तव्य-अवहेलना समाजमे सर्वत्र व्याप्त हैं । निरकुश और उच्छू खल भोगवृत्ति मानवकी बुद्धिका अपहरण कर उसका पशुता की ओर प्रत्यावर्त्तन कर रही है । सुखको कल्पना स्वार्थ-साधन और वासना पूर्तिमे परिसीमित हो समाजको अगान्त बनाये हुए है। हिमा प्रतिहिंसा व्यक्ति और राष्ट्रके जीवन अनिवार्य सी हो गयी है । यही कारण है कि समाजका प्रत्येक सदस्य आज दुखी है ।
मनुष्यमे दो प्रकारका वल हाता है- (१) आध्यात्मिक और (२) शारीरिक । अहिंसा मनुष्यको आध्यात्मिक वल प्रदान करती है । धैर्य, क्षमा, सयम, तप, दया, विनय प्रभृति आचरण अहिंसा के रूप है । कष्ट या विपत्तिके आ जाने पर उसे समभावसे सहना, हाय हाय नही करना, चित्तवृत्तियोको सयमित करना एव सब प्रकारसे कष्टसहिष्णु बनना अहिंसा है और है यह आत्मवल । यह वह शक्ति है, जिसके प्रकट हो जाने पर व्यक्ति और समाज कष्टोके पहाडोको भी चूर-चूर कर डालते हैं । क्षमाशील बन जाने पर विरोध या प्रतिशोधकी भावना समाजमे रह नही पाती । अतएव अहिंसक आचरणका अर्थ है मनसा, वाचा और कर्मणा प्राणीमात्रमे सद्भावना और प्रेम रखना । अहिंसामे त्याग है, भोग नही । जहाँ राग-द्वेष हैं, वहाँ हिंसा अवश्य है । अत समाजधर्मकी चौथी सीढी पर चढनेके लिये आत्मशोधन या अहिंसक भावना अत्यावश्यक है । व्यक्तिका अहिंसक आचरण ही समाजको निर्भय, वीर एवं सहिष्णु बनाता है ।
समाजधर्मको पाचवीं सीढ़ी सत्य या कूटनीतित्याग
कूटनीति और धोखा ये दोनो हो समाजमें अशान्ति - उत्पादक हैं । सत्यमे वह शक्ति है, जिससे कूटनीतिजन्य अशान्तिकी ज्वाला शान्त हो सकती है । दूसरेको कष्ट पहुँचाने के उद्देश्यसे कटु वचन बोलना या अप्रिय भाषण करना मिथ्या भाषणके अन्तर्गत है ।
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यह स्मरणीय है कि सत्ता और धोसा ये दोनो हो समाजके अकल्याणकारक हैं। इन दोनोका जन्म सठसे होता है। झठा व्यक्ति आत्मवचना तो करना हो है, किन्तु ममाजको भी जरित कर देता है। प्राय देखा जाता है कि मिथ्या भापणा नगरमा स्नाको भावनासे होता है। सर्वात्महितवादको भावना असत्यापण वाया है। रवच्छन्दता, वृणा, प्रतिशोध जैसी भावनाएँ असत्यनापासे प्रो उत्पन्न होती है, क्योकि मानव-समाजका समस्त व्यवहार वचनोसे चलता है। बागोगे दीप आ जानेगे समाजको अपार क्षति होती है। लोकमे प्रसिद्धि भी है दिगो जिहामे विष और जमृत दोना है। समाजको उन्नत स्तर पर लेजानेवारे अहिम बनन अमृत और समाजको हानि पहुँचानेवाले वचन विप हैं। टोल भापग कारना, निन्दा या चुगली करना, कठोर वचन बोलना जौर हमी-मजाक करना गमाज-हितमे बाधक हैं। छेदन, भेदन, मारण, गोषण, अपहरण और ताडन गम्बन्ली वचन भी हिंसक होनेके कारण समाजको शान्तिमे वाधक हैं। अविश्वाम, भयकारक, खेदजनक, सन्तापकारक अप्रिय वचन भी समाजको विघटित करते हैं। अतएव समाजको सुगठित, सम्बद्ध और प्रिय व्यवहार करनेवाला बनानेके हेतु सत्य वचन अत्यावश्यक है। भोगसामग्रीकी बहुलताके हेनु जो वचनोका असयमित व्यवहार किया जाता है, वह भी अधिकार और कर्तगके सन्तुलनका विघातक है। समाजमे मच्ची गान्ति, सत्य व्यवहार द्वारा ही उत्पन्न की जा मस्ती है और इसीप्रकारका व्यवहार जीवनमे ईमानदागे और सच्चाई उत्पन्न कर गकता है। साधारण परिस्थितियोके बीच व्यक्तिका विकास अहिंसक वचनव्यवहार द्वारा राग्भव होता है । यह समस्त मनुष्यसमाज एकवृहत् परिवार है और इस वहत् परिवारका सन्तुलन साधन और साध्यके सामजस्य पर हो प्रतिष्ठित है। जो नैतिकता,अहिंसा और सत्यको जीवन में अपनाता है, वह समाजको सुखी और शान्त बनाता है। आत्मविकासके साथ समाजविकासका पूरा सम्बन्ध जुडा हुआ है। मिथ्या मान्यताएँ, धर्मके सकल्पविकल्प, क्रिया-काण्ड एवं धार्मिक सम्प्रदायोके विभिन्न प्रकार आदि सभी सामाजिक जीवनको गतिविधिमे वाधक हैं। अन्धश्रद्धा और मिथ्या विश्वासोका निराकरण भी समाजधर्मकी इस पांचवी सीढीपर चढनेसे होता है। अनुकम्पा, करुणा और सहानुभूतिका क्रियात्मक विकास भी सत्यव्यवहार द्वारा सम्भव है। जीवनके तनाव, कुण्ठाएँ, सग्रहवृत्ति, स्वार्थपरता आदिका एकमात्र निदान अहिंसक वचन ही है।
समाजधर्मको छठी सीढ़ी · अस्तेय-भावना अस्तेयकी भावना समाजके सदस्योके हृदयमे अन्य व्यक्यिोके अधिकारोके
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लिए स्वाभाविक सम्मान जागृत करती है। इसका वास्तविक रहस्य यह है कि दूसरेके अधिकारोपर हस्तक्षेप करना उचित नहीं, बल्कि प्रत्येक अवस्थामें सामाजिक या राष्ट्रीय हितकी भावनाको ध्यानमें रखकर अपने कर्तव्यका पालन करना गावश्यक है। यह भूलना न होगा कि अधिकार वह सामाजिक वातावरण है, जो व्यक्तित्वकी वृद्धिके लिए आवश्यक और सहायक होता है। है। यदिइसका दुरुपयोग किया जाय तो समाजका विनाग अवश्यम्भावी हो जाय । अस्तेय-भावना एकाधिकारका विरोधकर समस्त समाजके अधिकारोंको सुरक्षित रखने पर जोर देती है। यह अविस्मरणीय है कि वैयक्तिक जीवनमे जो अधिकार और कर्तव्य एक दूसरेके आश्रित हैं वे एक ही वस्तुके दो रूप है। जब व्यक्ति अन्यकी सुविधाओका ख्यालकर अधिकारका उपयोग करता है, तो वह अधिकार समाजके अनुशासनमे हितकर बन कर्तव्य बन जाता है. और जब केवल वैयक्तिक स्वत्व रक्षाके लिए उसका उपयोग किया जाता है, तो उस समय अधिकार अधिकार ही रह जाता है। __ यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकारोपर जोर दे और अन्यके अधिकारोकी अवहेलना करे, तो उसे किसी भी अधिकारको प्राप्त करनेका हक नही है। अधिकार और कर्तव्यके उचित ज्ञानका प्रयोग करना हो सामाजिक जीवनके विकासका मार्ग है। अचौर्यको भावना इस समन्वयकी ओर ही इगित करती हैं।
मनुष्यको आवश्यकताएं बढ़ती जा रही हैं, जिनके फलस्वरूप शोषण और सवयवृत्ति समाजमे असमानता उत्पन्न कर रही है। व्यक्तिका ध्यान अपनी आवश्यकताओकी पूर्ति तक ही है। वह उचित और अनुचित ढगसे धनसचय कर अपनी कामनाओकी पूर्ति कर रहा है, जिससे विश्वमे अशान्ति है । अस्तेयको भावना उत्तरोत्तर आवश्यकताओको कम करती है। यदि इस भावनाका. प्रचार विश्वमे हो जाय, तो अनुचित ढगसे धनार्जनके साधन समाप्त होकर ससारकी गरीबी मिट सकती है।
समाजमे शारीरिक चोरी जितनी की जा सकती है उससे कही अधिक मानसिक । दूसरोकी अच्छी वस्तुओको देखकर जो हमारा मन ललचा जाता है-या हमारे मनमे उनके पानेकी इच्छा हो जाती है, यह मानसिक चोरी है। द्रव्यचोरीकी अपेक्षा भावचोरीका त्याग अनिवार्य है, क्योकि भावनाएं ही द्रव्यचोरी करानेमे सहायक होती है। भोजन, वस्त्र और निवास आदि आरम्भिक शारीरिक आवश्यकताओसे अधिक संग्रह करना भी चोरीमे सम्मिलित है । यदि समाजका एक व्यक्ति आवश्यकतासे अधिक रखने लग जाय, तो स्वाभाविक ही है कि दूसरोको वस्तुएँ आवश्यकतापूतिके लिए भी नही मिल सकेंगी। ५९० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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यदि दो जोडी कपडोंके स्थानपर यदि कोई पचास जोडी कपडे रखने लग जाय, तो इससे उसे दूसरे चौबीस व्यक्तियोंको वस्नहोन करना पड़ेगा। अत किसी भी वस्तुका सीमित आवश्यकतासे अधिक सचय समाज-हितको दष्टिसे अनुचित है।
सस्ता समझकर चोरोके द्वारा लाई गई वस्तुओको खरीदना, चोरीका मार्ग बतलाना, मनजान व्यक्तियोसे अधिक मूल्य लेना, अधिक मूल्यकी वस्तुओ मे कम मूल्यवाली वस्तुओको मिलाकर बेचना चोरी है। प्राय. देखा जाता है कि दूध बेचनेवाले व्यक्ति दूवमे पानी डालकर बेचते हैं । कपडा धोनेके सोडेमे चूना मिलाया जाता है। इसी प्रकार अन्य खाद्यसामग्रियोमे लोभवश अशुद्ध और कम मूल्यके पदार्थ मिलाकर बेचना नितान्त वर्ण्य है। समाजधर्मकी सातवीं सोढो भोगवासना-नियन्त्रण __ यो तो अहिंसक आचरणके अन्तर्गत समाजोपयोगी सभी नियन्त्रण सम्मिलित हो जाते है, पर स्पष्टरूपसे विचार करनेके हेतु वासना-नियन्त्रण या ब्रह्मचर्यभावनाका विश्लेषण आवश्यक है। यह आत्माकी आन्तरिक शक्ति है और इसके द्वारा सामाजिक क्षमताओकी वृद्धि की जाती है। वास्तवमे ब्रह्मचर्यकी साधना वैयक्तिक और सामाजिक दोनो ही जीवनोके लिए एक उपयोगी कला है। यह आचार-विचार और व्यवहारको बदलनेकी साधना है। इसके द्वारा जीवन सुन्दर, सुन्दरतर और सुन्दरतम बनता है। शारीरिक सौन्दर्यकी अपेक्षा आचरणका यह सौन्दर्य सहस्रगुणा श्रेष्ठ है । यह केवल व्यक्तिके जीवनके लिए ही सुखप्रद नही, अपितु समाजके कोटि-कोटि मानवोके लिए उपादेय है ।
आचरण व्यक्तिको श्रेष्ठता और निकृष्टताका मापक यन्त्र है । इसीके द्वारा जीवनकी उच्चता और उसके उच्चतम रहन-सहनके साधन अभिव्यक्त होते हैं। मनुष्यके आचार-विचार और व्यवहारसे बढकर कोई दूसरा प्रमाणपत्र नही, है, जो उसके जीवनको सच्चाईको प्रमाणित कर सके।
आचरणका पतन जीवनका पतन है और आचरणकी उच्चता जीवनकी उच्चता है। यदि रूढिवादवश किसी व्यक्तिका जन्म नीचकुलमे मान भी लिया जाय, तो इतने मात्रसे वह अपवित्र नही माना जा सकता। पतित वह है जिसका आचार-विचार निकृष्ट है और जो दिन-रात भोग-वासनामे डूबा रहता है। जो कृत्रिम विलासिताके साधनोका उपयोगकर अपने सौन्दर्यकी कृत्रिमरूपमे वृद्धि करना चाहते है उनके जीवनमे विलासिता तो बढती ही है, कामविकार भी उद्दीप्त होते हैं, जिसके फलस्वरूप समाज भीतर-ही-भीतर खोखला होता जाता है।
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जो वासनाओके प्रवाहमे बहकर भोगोमे अपनेको डुवा देता है, वह व्यक्ति समाज के लिए भी अभिशाप बन जाता है । भोगाधिक्यसे रोग उत्पन्न होते हैं, कार्य करनेकी क्षमता घटती है और समाजकी नीव खोखली होती है । अतएव सामाजिक विकासके लिए वासनाओको नियंत्रित कर ब्रह्मचर्यं या स्वदा रसन्तोपकी भावना अत्यावश्यक है ।
ब्रह्मचर्य - साधना के दो रूप सम्भव है -- (१) वासना ओपर पूर्ण नियन्त्रण और (२) वासनाओका केन्द्रीकरण । समाजके बीच गार्हस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए वासनाओ पर पूर्ण नियन्त्रण तो सबके लिए सम्भव नही, पर उनका केन्द्रीकरण सभी सदस्यो के लिए आवश्यक है । केन्द्रीकरणका अर्थ विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए समाजकी अन्य स्त्रियोको माता, बहिन और पुत्रीके समान समझकर विश्वव्यापी प्रेमका रूप प्रस्तुत करना । यहाँ यह विशेषरूपसे विचारणीय है कि अपनी पत्नीको भी अनियन्त्रित कामाचारका केन्द्र बनाना व्रतसे च्युत होना है । एकपत्नीव्रतका आदर्श इसीलिए प्रस्तुत किया गया है कि जो आध्यात्मिक सन्तोष द्वारा अपनी वासनाको नहीं जीत सकते, वे स्वपत्नीके ही साथ नियन्त्रितरूपसे काम-रोगको शान्त करें । आध्यात्मिक और शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए इच्छाओपर नियन्त्रण रखना परमावश्यक है । सामाजिक और आत्मिक विकासकी दृष्टिसे ब्रह्मचर्य शब्दका अर्थ ही आत्माका आचरण है । अत केवल जननेन्द्रिय-सबधी विपयविकारोको रोकना पूर्ण ब्रह्मचर्य नही है । जो अन्य इन्द्रियोके विषयोके अधीन होकर केवल जननेन्द्रियसवघी विषयोके रोकनेका प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न वायुकी भीत होता है । कानसे विकारकी वातें सुनना, नेत्रोसे विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तुएं देखना, जिह्वासे विकारोत्तेजक पदार्थों का आस्वादन करना और घ्राणसे विकार उत्पन्न करनेवाले पदार्थोको सूधना ब्रह्मचर्य के लिए तो बाधक है हो, पर समाज हितकी दृष्टिसे भो हानिकर है । मिथ्या आहार-विहारसे समाजमे विकृति उत्पन्न होती है, जिससे समाज अव्यवस्थित हो जाता है । सामाजिक अशान्तिका एक बहुत बडा कारण इन्द्रियसवधी अनुचित आवश्यकताओकी वृद्धि है । अभक्ष्य भक्षण भी इसी इन्द्रियकी चपलताके कारण व्यक्ति करता है ।
वस्तुत सामाजिक दृष्टिसे ब्रह्मचर्य - भावनाका रहस्य अधिकार और कर्त्तव्य के प्रति आदर - भावना जागृत करना है । नैतिकता और बलप्रयोग ये दोनो विरोधी हैं । ब्रह्मचर्य की भावना स्वनिरीक्षण पर जोर देती है, जिसके द्वारा नैतिक जीवनका आरम्भ होता है । सामाजिक और राष्ट्रीय जीवनमें सगठन-शक्तिकी जागृति भी इसके द्वारा होती है । सयमके अभावमे समाजकी व्यवस्था सुचारू रूप से नही की जा सकती । यत सामाजिक जीवनका आधार नैतिकता है । प्राय.
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देखा जाता है कि ससारमे छीना-झपटीकी दो ही वस्तुएं है -१ कामिनी और २ कञ्चन । जबतक इन दोनोके प्रति आन्तरिक सयमकी भावना उत्पन्न नही होगी, तबतक समाजमे शान्ति स्थापित नही होगी । अभिप्राय यह है कि जीवन निर्वाह - शारीरिक आवश्यकताओकी पूर्ति हेतु अपने उचित हिस्से से अधिक ऐन्द्रियक सामग्रीका उपयोग न करना सामाजिक ब्रह्मभावना है ।
आध्यात्म-समाजवाद
समाजवाद शोषणको रोककर वैयक्तिक सम्पत्तिका नियन्त्रण करता है । यह उत्पादनके साधन और वस्तुओके वितरणपर समाजका अधिकार स्थापित कर ममस्त समाजके सदस्योको समता प्रदान करता है । प्रत्येक व्यक्तिको जीवित रहने और खाने-पीनेका अधिकार है तथा समाजको, व्यक्तिको कार्य देकर उससे श्रम करा लेना और आवश्यकतानुसार वस्तुओकी व्यवस्था कर देना अपेक्षित है । सम्पत्ति समाजकी समस्त शक्तियोकी उपज है । उसमे सामाजिक शक्तिकी अपेक्षा, वैयक्तिक श्रमको भी कम महत्त्व प्राप्त नही है । सम्पत्ति सामाजिक रीति-रिवाजोपर आधारित है । अतएव सम्पत्तिके हकोकी भी उत्पत्ति सामाजिक रूपसे होती है । यदि सारा समाज सहयोग न दे, तो किसी भी प्रकारका उत्पादन सम्भव नही है | सामाजिक आवश्यकताएँ व्यक्तिको आवश्यकताएँ हैं । अतएव व्यक्ति को अपनी-अपनी आवश्यकताओकी पूर्ति के साथ सामाजिक आवश्यकताओकी पूर्ति के लिए सचेष्ट रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्तिको उस सीमातक वस्तुओ पर अधिकार करनेका हक है, जहाँ तक उसे अपने को पूर्ण बनानेमे सहायता मिलती है। उसकी भूख प्यास आदि उन प्राथमिक आवश्यकताओकी पूर्ति अनिवार्य है, जिनकी पूर्तिके अभावमे वह अपने व्यक्तित्वका विकास नही
कर पाता ।
उस व्यक्तिको जीवनोपयोगी सामग्री प्राप्त करनेका कोई अधिकार नही, जो जीने के लिए काम नही करता है। दूसरेकी कमाईपर जीवित रहना अनैतिकता है । जिनकी सम्पत्ति दूमरोके श्रमका फल है, वे समाज के श्रमभोगी सदस्य है । उन. वस्तुओके उपभोगका उन्हें कोई अधिकार नही, जिन वस्तुओके अर्जनमे उन्होने सीधे या परम्परारूपमे सहयोग नही दिया है । समाजमे वह अपने भीतर ऐसे वर्गको सुरक्षित रखता है जो केवल स्वामित्वके कारण जिन्दा है । अतएव समाजशास्त्रीय दृष्टिसे प्रत्येक व्यक्तिको श्रमकर अपने अधिकारको प्राप्त करना चाहिए। जो समाजके सचित धनको समान वितरण द्वारा समाजमे समत्व स्थापित करना चाहते हैं, वे अधेरेमे हैं । यदि हम यह मान भी ले कि पूँजीके समान वितरणसे समाजमे समत्व स्थापित होना सम्भव है, तो भी यह आशका निरन्तर बनी रहेगी कि प्रत्येक व्यक्तिमे बुद्धि, क्षमता और शक्ति पृथक्-पृथक्
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रहनेके कारण यह ममत्व चिरस्थायी नही हो सकता है । जब भी समाजके इन क्षमतापूर्ण व्यक्तियोको अवसर मिलेगा, समाजमे आर्थिक असमता उत्पन्न हो ही जायगी । अतएव इस सम्भावनाको दूर करनेके लिए आध्यात्मिक समाजवाद अपेक्षित है । भौतिक समाजवादसे न तो नैतिक मूल्योको प्रतिष्ठा ही सम्भव है और न वैयक्तिक स्वार्थका अभाव ही। वैक्तिक स्वार्थोका नियन्त्रण आध्यात्मिक मालोकमे ही सम्भव है। रहन-सहनका पद्धतिविशेषमे किसीका स्थान ऊंचा
और किसीका स्थान नीचा हो सकता है, पर आध्यात्मिक और नैतिक मूल्योके मानदण्डानुसार समाजके सभी सदस्य समान सिद्ध हो सकते है । परोपजीवी और आक्रामक व्यक्तियोकी समाजमे कभी कमी नही रहती है। कानून या विधिका मार्ग सीमाएं स्थापित नही कर सकता । जहाँ कानून और विधि हे, वहाँ उसके साथ उन्हें तोडने या न माननेकी प्रवृत्ति भी विद्यमान है । अतएव माध्यात्मिक दष्टिसे नैतिक मूल्योकी प्रतिष्ठा कर समाजमे समत्व स्थापित करना सम्भव है। सभी प्राणियोकी आत्मामे अनन्त शक्ति है, पर वह कर्मावरणके कारण आच्छादित है । कर्मका आवरण इतना विचित्र और विकट है कि आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रकट होने नही देता । जिस प्रकार सर्यका दिव्य प्रकाश मेघाच्छन्न रहनेसे अप्रकट रहता है उसी प्रकार कर्मोके आवरणके कारण आत्माकी अनन्त शक्ति प्रकट नही होने पाती । जो व्यक्ति जितना पुरुषार्थ कर अहता और ममताको दूर करता हुआ कर्मावरणको हटा देता है उसकी आत्मा उतनी ही शुद्ध होती जाती है। ससारके जितने प्राणी है समीकी आत्मामे समान शक्ति है। अत विश्वकी समस्त आत्माएँ शक्तिकी अपेक्षा तुल्य हैं और शक्ति-अभिव्यक्तिकी अपेक्षा उनमे असमानता है। आत्मा मूलत समस्त विकार-भावोसे रहित है । जो इस आत्मशक्तिकी निष्ठा कर स्वरूपकी उपलब्धिके लिए प्रयास करता है उसको आत्मामे निजी गुण और शक्तियाँ प्रादुर्भूत हो जाती है । अतएव सक्षेपमे आत्माके स्वरूप, गुण और उनकी शक्तियोको अवगत कर नेतिक और आध्यात्मिक मूल्योको प्रतिष्ठा करनी चाहिए । सहानुभूति, आत्मप्रकाशन एव समताकी साधना ऐसे मल्योके आवार है, जिनके अन्वयनसे समाजवादको प्रतिष्ठा सम्भव है । ये तथ्य सहानुभूति और आत्मप्रकाशनके पूर्वमे बतलाये जा चुके हैं। समताके अनेक रूप सम्भव हे । आचारकी समता अहिंसा है, विचारो की समता अनेकान्त है, समाजकी समता भोगनियन्त्रण है और भाषाकी समता उदार नीति है। समाजमे समता उत्पन्न करनेके लिए आचार और विचार इन दोनोकी समता अत्यावश्यक है। प्रेम, करुणा, मैत्री, अहिंसा, अस्तेय, अब्रह्म, सत्याचरण समताके रूपान्तर हैं। वैर, घृणा, द्वेष, निन्दा, राग, लोभ, क्रोध विषमतामे सम्मिलित हैं।
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सामाजिक आचरण के लिए आत्मीपम्य दृष्टि अपेक्षित है । प्रत्येक आत्मा तात्त्विक दृष्टिसे समान है । अत मन, वचन, और कायसे किसीको न स्वय सन्ताप पहुँचाना, न दूसरेसे सन्ताप पहुंचवाना, न सन्ताप पहुँचाने के लिए प्रेरित करना नैतिक मूल्योकी व्यवस्थामे परिगणित है ।
हमारे मनमे किसीके प्रति दुर्भावना है, तो मन अशान्त रहेगा, नाना प्रकार के सकल्प-विकल्प मनमे उत्पन्न होते रहेगे और चित्त क्षुब्ध रहेगा । अतएव समाजवादको प्रतिष्ठाके हेतु प्रत्येक सदस्यका आचरण और कार्य दुर्भावना रहित अत्यन्त सावधानीके साथ होना चाहिए । नैतिक या अहिंसक मूल्योके अभावमे न व्यक्ति जोवित रह सकता है, न परिवार और न समाज ही पनप सकता है । अपने अस्तित्वको सुरक्षित रखने के लिए ऐसा आचार और व्यवहार अपेक्षित होता है, जो स्वय अपनेको रुचिकर हो । व्यक्ति, समाज और देशके सुख एव शान्तिको आधारशिला अध्यात्मवाद है । और इसीके साथ अहिसा, मैत्री भीर समताकी कडी जुडी हुई है । जो अभय देता है वह स्वय भी अभय हो जाता है । जव दूसरोको पर माना जाता है, तब भय उत्पन्न होता है और जब उन्हें आत्मवत् समझ लिया जाता है, तब भय नही रहता । सब उसके बन जाते हैं और वह सबका बन जाता है । अतएव समताकी उपलब्धिके लिए तथा समाजवादको प्रतिष्ठित करनेके लिए निम्नलिखित तीन आधारोपर जोवन-मूल्योकी व्यवस्था स्वीकार करनी चाहिए। मूल्यहीन समाज अत्यन्त अस्थिर और अव्यवस्थित होता है । निश्चयत मूल्योकी व्यवस्था हो समाजवादको प्रतिष्ठित कर सकती है ।
१. स्वलक्ष्य पल्य एव अन्तरात्मक मूल्य - शारीरिक, आर्थिक और श्रम सबधी मूल्योके मिश्रण द्वारा जीवनकी मूलभूत प्रवृत्तियोसे ऊपर उठकर तुष्टि, प्रेम, समता और विवेकको दृष्टिमे रखकर मूल्योका निर्धारण ।
२. शाश्वत एव स्थायो मूल्य - विवेक, निष्ठा, सवृत्ति और विचारसामञ्जस्यकी दृष्टिसे मूल्य निर्धारण । इस श्रेणीमे क्षणिक विषयभोगकी अपेक्षा शाश्वतिक आध्यात्मिक मूल्योका महत्त्व । ज्ञान, कला, धर्म, शिव, सत्य सम्वन्धी मूल्य ।
३ सृजनात्मक मूल्य - उत्पादन, श्रम, जीवनोपभोग आदिसे सम्बद्ध मूल्य । सक्षेप में समाजवादको प्रतिा भौतिक सिद्धान्तोके आधारपर सम्भव न होकर अध्यात्म और नैतिकता के आधारपर ही सम्भव है ।
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व्यक्ति और समाज : अन्योन्याश्रय सम्बन्ध ___व्यक्तियोंके समूह और उनके सम्बन्धोसे समाजका निर्माण होता है । व्यक्ति अनेक सामाजिक समहोका सदस्य होता है, जो कि उसके बीच पाये जाने वाले सम्बन्धोको प्रतिबिम्बित करते हैं। व्यक्तिके जीवनका प्रभाव समाजपर पडता है। व्यक्ति अपने व्यवहारसे अन्य सदस्योको प्रभावित करता है और अन्य सदस्योके व्यवहारसे स्वय प्रभावित होता है । अत व्यक्तिकी समस्त महत्त्वपूर्ण क्रियाएं एव चेतनाकी अवस्थाएँ सामाजिक परिस्थितियोमे जन्म लेती हैं और इन्होसे सामाजिक व्यक्तित्वका निर्माण होता है। ___ व्यक्ति और समाज एक ही वस्तुके दो पहलू हैं । अनेक व्यक्ति मिलकर समाजका गठन करते हैं। उन व्यक्तियोकी विचार-धाराओ, सवेगो, आदतो आदिका पारस्परिक प्रभाव पड़ता है। अत सक्षेपमे यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति और समाज इन दोनोका अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । व्यक्तिके बिना समाजका अस्तित्व नही और समाजके अभावमे व्यक्तिके व्यक्तित्वका विकास सम्भव नही । आर्थिक समानता, न्यायिक समानता, मानव समानता, स्वतन्त्रता आदिका सम्बन्ध व्यक्तियोके साथ है। व्यक्तिगत दक्षता समाजको पूर्णतया प्रभावित करती है । समाज-गठनके सिद्धान्तोमे धर्म, सस्कृति, नैतिक सिद्धान्त, कर्तव्य-पालन, जीवनके आदर्श, काम्य-भोग आदि परिगणित हैं। अतएव सुखी, सम्पन्न और आदर्श समाजके निर्माण हेतु वैयक्तिक जीवनकी पवित्रता और आचारनिष्ठा भी अपेक्षित है।
सामान्यत धार्मिक सस्कार और नैतिक विधि-विधान व्यक्तिके व्यक्तित्वको परिष्कृत करनेके लिये आवश्यक है । जिस समाजके घटक व्यक्ति सच्चरित्र, ज्ञानी और दृढसकल्पी होगें, उस ससाजका गठन भी उतना ही अधिक सुदृढ होगा। व्यक्तिके समाजमे जन्म लेते ही कुछ दायित्व या ऋण उसके सिरपर आ जाते है, जिन दायित्वों और ऋणोको पूरा करनेके लिये उसे सामाजिक सम्बन्धोके बीच चलना पडता है। शारीरिक, पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धोका निर्वाह करते हुए भी व्यक्ति इन सम्बन्धोमे आसक्त न रहे । जीवनसे सभी प्रकारके कार्य करने पड़ते है, पर उन कार्योंको कर्तव्य समझकर ही किया जाय, आसक्ति मानकर नही । यो तो वैयक्तिक जीवनका लक्ष्य निवृत्तिमलक है। वह त्यागमार्गके बीच रहकर अपनी आत्माका उत्थान या कल्याण करता है । जीवनको उन्नत और समृद्ध बनानेके लिये आत्मशोधन करता है । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारोको आत्मासे पृथक् कर वह निष्काम कर्ममे प्रवृत्त होता है। अत व्यक्ति और समाज इन दोनोका पर५९६ तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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स्पर में अन्योन्याश्रय सम्वन्ध है और परस्परमे दोनोंके सहयोगसे हो समाजकां विकास और उन्नति होती है ।
समाजघटक, सामाजिक संस्थाएं एवं समाजमें नारीका स्थान
सामाजिक जीवनके अनेक घटक हैं । व्यक्ति माँके उदरसे जन्म लेता है । मी उसका पालन-पोषण करती है। पिता आर्थिक व्यवस्था करता है । भाईबहन एवं मुहल्लेके अन्य शिशु उसके साथी होते हैं । शिक्षाशालामे वह शिक्षकोंसे विद्याध्ययन करता है। बडा होनेपर उसका विवाह होता है । इस प्रकार एक मनुष्यका दूसरे मनुष्यके साथ अनेक प्रकारका सम्वन्ध स्थापित होता है । इन्ही सम्बन्धोंसे वह बंधा हुआ है । उसका स्वभाव और उसकी आवश्यकताएं इन सम्वन्धोमे उसे रहनेके लिए बाध्य करती हैं । फलत मनुष्यको अपनी अस्तित्व रक्षा और सम्बन्व-निर्वाह के लिये समाजके बीच रहना पडता है । एकरूपता, सहयोग सहकारिता, सघटन और अन्योन्याश्रितता तो पशुओंके बीच भी पायी जातो है, किन्तु पशुओमे क्रिया-प्रतिक्रियात्मक सम्बन्धो के निर्वाह एव सम्बन्ध-सम्बन्धी प्रतिवोधका अभाव है। सामाजिक सम्बन्धोके घटक अनेक तत्त्व हैं। इनमें निम्नलिखित तत्त्वो की प्रमुखता है
१ वैयक्तिक लाभके साथ सामूहिक लाभकी ओर दृष्टि २. न्यायमागं की वृत्ति
३. उन्नति और विकासके लिये स्पर्द्धा
४ कलह, प्रेम, एव सघर्षके द्वारा सामाजिक क्रिया-प्रतिक्रिया । ५. मित्रताकी दृष्टि
६ उचित सम्मान प्रदर्शन
७. परिवारका दायित्व
८. समानता और उदारताको दृष्टि
९ आत्म-निरीक्षणको प्रवृत्ति
१०. पाखण्ड - आडम्बरका त्याग
११. अनुशासनके प्रति आस्था
१२ अर्जनके समान त्यागके प्रति अनुराग
१३ कर्त्तव्यके प्रति जागरूकता
१४ एकाधिकारका त्याग और स्वावलम्बनकी प्रवृत्ति १५ सेवा-भावना
सामाजिक जीवन अर्हाओ ओर नैतिक नियमोपर अवलम्बित है । रक्षाविधि और अस्तित्व निर्वाह समाजके लिये आवश्यक है । सामाजका आर्थिक
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एव राजनीतिक ढाँचा लोकहितको भावनापर आश्रित है, तथा सामाजिक उन्नति और विकास के लिये सभीको समान अवसर प्राप्त हैं । अत अहिंसा, दया, प्रम, सेवा और त्यागके आधारपर सामाजिक सम्बन्धोका निर्वाह कुशलतापूर्वक सम्पन्न होता है ।
अपने योग-क्षेमके लायक भरण-पोषणकी वस्तुओंको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय, अत्याचार द्वारा धनार्जन करनेका त्याग करना एव आवश्यकतासे अधिक सचप न करना स्वस्थ समाजके निर्माण
उपादेय हैं | अहिंसा और सत्यपर आगृत समाजव्यवस्था मनुष्यको केवल जीवित ही नही रखती, बल्कि उसे अच्छा जीवन यापनके लिये प्रेरित करती है । मनुष्यकी शक्तियोका विकास समाज मे ही होता है । कला, साहित्य, दर्शन, संगीत, धर्म आदिको अभिव्यक्ति मनुष्य की सामाजिक चेतनाके फलस्वरूप ही होती है । ज्ञानका आदान-प्रदान भी सामाजिक सम्बन्धोके बीच सम्भव होता है । समाज मे ही समुदाय सघ और संस्थाएँ वनती है ।
निसन्देह समाज एक समग्रता है और इसका गठन विशिष्ट उपादानोके द्वारा होता है। तथा इसके भौतिक स्वरूपका निर्माण भावनोपेत मनुष्योके द्वारा होता है । इसका आध्यात्मिक रूप विज्ञान, कला, धर्म, दर्शन आदिके द्वारा सुसम्पादित किया जाता है । अत समाज एक ऐसी क्रियाशील समग्रता है, जिसके पीछे आध्यात्मिकता, नैतिक भावना और सकल्पात्मक वृत्तियोके सश्लेषोका रहना आवश्यक है ।
सामाजिक संस्था : स्वरूप और प्रकार
समाजके विभिन्न आदर्श और नियन्त्रण जनरीतियो, प्रथाओ और रूढियोके रूपमे पाये जाते हैं । अत नियन्त्रणमे व्यवस्था स्थापित करने एव पारस्परिक निर्भयता बनाये रखने के हेतु यह आवश्यक है कि उनको एक विशेष कार्यके आधारपर सगठित किया जाय। इस सगठनका नाम ही सामाजिक सस्था है । यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकताकी पूर्तिके हेतु सामाजिक विरासतमे स्थापित सामूहिक व्यवहारोका एक जटिल तथा धनिष्ठ संघटन है । मानव सामूहिक हितोकी रक्षा एव आदर्शोके पालन करनेके लिये सामाजिक सस्थाओको जन्म देता है । इनका मूलाधार निश्चित आचार-व्यवहार और समान हित-सम्पादन है | अधिक समय तक एक ही रूपमे कतिपय मनुष्योके व्यवहार और विश्वासो - का प्रचलन सामाजिक सस्थाओको उत्पन्न करता है । ये मनुष्योकी सामूहिक क्रियाओ, सामूहिक हितो, आदर्शो एव एक ही प्रकारके रीति-रिवाजोपर अव
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लम्बित हैं । सामाजिक सस्थाओमे निम्नलिखित गुण भर विशेषताएँ पायी जाती हैं
१ सामाजिक सस्थाएं प्रारम्भिक आवश्यकताओ की पूर्तिका साधन होती हैं । २ सामाजिक सस्थाओ द्वारा सामाजिक नियन्त्रणका कार्य सम्पन्न होता है । ३ सामाजिक अर्हाओ और प्रजातिक व्यवहारोका सम्पादन सामाजिक सस्थाओ द्वारा सम्भव है ।
४ अनुशासन और आदर्शको रक्षा इन्ही के द्वारा होती है ।
५. इनका कोई निश्चित उद्देश्य होता है ।
६ नैतिक आदर्श और व्यवहारोका सम्पादन इन्हीके द्वारा होता है ।
७• सामाजिक सस्थाए ँ ऐसे बन्धन हैं, जिनसे समाज मनुष्योको सामूहिक रूपसे अपनो संस्कृतिके अनुरूप व्यवहार करनेके लिये बाध्य कर देता है, अत सामाजिक सस्थामा के आदर्श और धारणाएं होती हैं, जिन्हे समाज अपनी सस्कृतिको रक्षा के लिये आवश्यक मानता है ।
८ सामाजिक सस्थाओका सचालन आचार सहिताओके आधारपर होता है । ९. प्रत्येक धर्म सम्प्रदायकी आवार सहिता भिन्न होती है । अत. सामाजिक सस्थाओका रूपगठन भी भिन्न धरातलपर सम्पन्न होता है ।
यो तो सामाजिक सस्थाएं अनेक हो सकती हैं, पर आध्यात्मिक चतना और लोक-जीवनके सम्पादनके लिये जिन सामाजिक सस्थाओकी आवश्यकता है, वे निम्नलिखित हैं
१. चतुर्विव सघ सस्था
२. आश्रम - सस्या ३ विवाह सस्था
४. कुल-संस्था
५ सस्कार सस्था
६ परिवार - सस्था
७ पुरुषार्थ-सस्था
८ चैत्यालय -सस्था
९ गुणकर्माधारपर प्रतिष्ठित वर्णजातिसस्था
इन सस्थाओ के सम्बन्धमे विशेष विवेचन करनेकी आश्यकता नही है । नामसे ही इनका स्वरूप स्पष्ट है ।
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वर्तमानमे समाजमें नारीका स्थान बहुत निम्न श्रेणीका हो रहा है । आज नारी भोगेषणाकी पूर्तिका साधन मात्र रह गयी है । न उसे अध्ययन कर आत्मविकासके अवसर प्राप्त हैं और न वह धर्म एव समाजके क्षेत्रमे आगे ही आ सकती है। दासीके रूपमे नारीको जीवन यापन करना पडता है, उसके साथ होनेवाले सामाजिक दुर्व्यवहार प्रत्येक विचारशील व्यक्तिको खटकते हैं। नारीसमाजको देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है जैसे युगयुगान्तरसे इनकी आत्मा ही खरीद ली गयी है। अनमेल-विवाहने नारीको स्थितिको और गिरा दिया है। सामन्तयुगसे प्रभावित रहनेके कारण आज दहेज लेना-देना बड़प्पनका सूचक समझा जाता है । आज नारीका स्वतन्त्र व्यक्तित्व नही रहा है, पुरुषके व्यक्तित्वमे हो उसका व्यक्तित्व मिल गया है । अत इस दयनीय स्थितिको उन्नत बनाना अत्यावश्यक है। यह भूलना न होगा कि नारी भी मनुष्य है और उसको भी अपनी उन्नतिका पूरा अधिकार प्राप्त है। ____ वर्तमान समाजने नारी और शुद्रके लिये वेदाध्ययन वर्जित किया है। यदि कदाचित् ये दोनो वर्ग किसोप्रकार वेदके शब्दोको सुन ले, तो इनके कानमे शोशा गर्म कर डाल देना चाहिये। ऐसे निर्दयता एव क्रूरतापूर्ण व्यवहार समाजके लिये कभी भी उचित नही है। नारी भी पुरुषके समान धर्मसाधन, कर्तव्यपालन आदि समाजके कार्योंको पूर्णतया कर सकती है। अतएव वत्तंमानमे समाज-गठनके लिये लिंग-भेद, वर्ग-भेद, जाति-भेद, धन-भेदके भावको दूर करना परमावश्यक है । नारीको सभो प्रकारके सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त होने चाहिये । भेद-भावकी खाई समाजको सम घरातलपर प्रतिष्ठित नही कर सकती है। नर-नारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी मनुष्य है और सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता है। जो इनमे भेद-भाव उत्पन्न करते हैं, वे सामाजिक सिद्धान्तोके प्रतिरोधी है । अत समाजमे शान्तिसुखव्यवस्था स्थापित करनेके लिये मानवमात्रको समानताका अधिकार प्राप्त होना चाहिये। तीर्थकर महावीरको समाजव्यवस्थाको आधुनिक उपयोगिता
तीर्थंकर महावीर द्वारा प्रतिपादित समाज-व्यवस्था आधुनिक भारतमे भी उपयोगी है। महावीरने नारीको जो उच्च स्थान प्रदान किया, आजके सविधानने भी नारीको वही स्थान दिया है। वर्गभेद और जाति-भेदके विषको दूर करने के लिये महावोरने अपनी पीयूष-वाणी द्वारा सम.जको उद्बोधित किया । उनकी समाज-व्यवस्था भी कर्मकाण्ड, लिंग, जाति, वर्ग आदि भेदोसे मुक्त थी । इनकी ६०० तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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समाज-व्यवस्थाका आधार अध्यात्म, अहिंसा, नैतिक नियम और ऐसे धार्मिक नियम थे, जिनका सम्बन्ध किसी भी जाति, वर्ग या सम्प्रदायसे नही था। महावीरका सिद्धान्त है कि विश्वके समस्त प्राणियोके साथ आत्मीयता, बन्धुता और एकताका अनुभव किया जाय । अहिंसा द्वाग सबके कल्याण और उन्नतिकी भावना उत्पन्न होती है। इसके आचरणसे निर्भीकता, स्पष्टता, स्वतन्त्रता और सत्यता वढती है । अहिंसाकी सीमा किसी देश, काल, और समाज तक सीमित नही है। अपितु इसकी सोमा सर्वदेश और सर्वकाल तक विस्तृत है। अहिंसासे हो विश्वास, आत्मीयता, पारस्परिक प्रेम एव निष्ठा आदि गुण व्यक्त होते हैं । अहकार, दम्भ, मिथ्या विश्वास, असहयोग आदिका अन्त भी अहिंसा द्वारा ही सम्भव है। यह एक ऐसा साधन है जो बड़े-से-बड़े साध्यको सिद्ध कर सकता है। ___ अहिंसात्मक प्रतिरोध अनेक व्यक्तियोको इसीलिये निर्वल प्रतीत होता है कि उसके अनुयायियोने प्रेमको उत्पादक शक्तिको पूर्णतया पहचाना नही है। वास्तवमे आत्मीयता और एकताको भावनासे ही समाजमे स्थायित्व उत्पन्न होता है । यदि भावनाओमे क्रोध, अभिमान, कपट, स्वार्थ, राग-द्वेष आदि है, तो ऊपरसे भले ही दया या करुणाका आडम्बर दिखलायी पडे, आन्तरिक विश्वास जागृत नही हो सकता। यदि हृदयमे प्रेम है, रक्षाकी भावना है और है सहानुभूति एव सहयोगकी प्रवृत्ति, तो ऊपरका कठोर व्यवहार भी विश्वासोत्पादक होगा। इसमे सन्देह नहीं है कि अहिंसाके आधारपर प्रतिष्ठित समाज ही सुख और शान्तिका कारण बन सकता है ।
शक्तिप्रयोगसम्बन्धी सिद्धान्तका विश्लेषण इजिनियरिंग कलाके आलोकमे किया जा सकता है। मनुष्यके स्वभाव और समाजमे अपार शक्ति है। इसके क्रोधादिके रूपमे फूट पडनेसे रोकना चाहिये और प्रेमकी प्रणाली द्वारा उपयोगी कार्योंमे लगाना चाहिये । इस सिद्धान्तको यो समझा जा सकता है कि हम भापकी शक्तिको फूट पडनेसे रोक कर वायलर और अन्य वस्तुओकी रक्षा करते हैं और इजिनको शक्तिशाली बनाते हैं। इसीप्रकार हम व्यक्तिके अहकार, काम, क्रोवादि दुर्गुणोको फूट पडनेसे राक सक और इन गुणोका परिवर्तन अहिंसक शक्तिके रूपमे कर सकें, तो समाजका सचालित करनेके लिये अपार शक्तिशाली व्यक्तिरूपी एजिन प्राप्त होता है।
एकताको भावना अहिंसाका ही रूप है। कलह, फूट, द्वन्द्व और सघर्ष हिमा है। ये हिंसक भावनाएँ सामाजिक जीवनमे एकता और पारस्परिक विश्वास उत्पन्न नही कर सकती है।
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यदि हम समाजके प्रत्येक सदस्यके साथ समता, सहानुभूति और सहृदयताका व्यवहार करें, तो समाजके विकासमे अवरोध पैदा नही हो सकता है ।
तीर्थंकर महावीरने समाज व्यवस्थाके लिये दया, सहानुभूति, सहिष्णुता और नम्रताको साधनके रूपमे प्रतिपादित किया है। ये चारो ही साधन वर्त्तमान समाज-व्यवस्था के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं । समाजके कष्टोके प्रति दया एक अच्छा साघन है। इससे समाजमे एकता और बन्धुत्वको भावना उत्पन्न होती है । तीर्थंकर महावीरका, सिद्धान्त है कि दयाका प्रयोग ऐसा होना चाहिये, जिससे मनुष्य दयनीयता की भावना उत्पन्न न हो और दया करनेवालोमे अभिमानकी भावना जागृत न हो । समाज-व्यवस्थाके लिये दया, दान, सयम और शील आवश्यक तत्त्व हैं । इन तत्त्वो या गुणोसे सहयोगकी वृद्धि होती है । समाजकी समस्त विसंगतियाँ एव कठिनाईयाँ उक्त साधनो द्वारा दूर हो जाती है ।
सहिष्णुता की भावना को भी समाज गठनके लिये आवश्यक माना गया है । मानव समाज एक शरीरके तुल्य है । शरीरमे जिस प्रकार अंगोपाग, नस, नाड़ियाँ अवस्थित रहती है, पर उन सबका सम्पोषण हृदयके रक्तसचालन द्वारा होता है, इसी प्रकार समाजमें विभिन्न स्वभाव और गुणधारी व्यक्ति निवास करते हैं । इन समस्त व्यक्तियोकी शारीरिक एव मानसिक योग्यताए भिन्न-भिन्न रहती हैं, पर इन समस्त सामाजिक सदस्योको एकताके सूत्रमे अहिंसा के रूप प्रेम, सहानुभूति, नम्रता, सत्यता आदि आबद्ध करते है । नम्रता और सहानुभूतिको कमजोरी, कायरता और दुरभिमान नही माना जा सकता । इन गुणोका अर्थ हीनता नही, किन्तु आत्मिक समानता है । भौतिक बडप्पन, वर्गश्रेष्ठता, कुलीनता, धन और पदवियोका महत्त्व आध्यात्मिक दृष्टिसे कुछ भी नही है । अतएव समाजको अहिंसात्मक शक्तियो के द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है | अहिंसक आत्मनिग्रही बनकर समाजको एक निश्चित मार्गका प्रदर्शन करता है । वास्तवमे मानव समाजको यथार्थं आलोककी प्राप्ति राग-द्वेष और मोहको हटानेपर ही हो सकती है । अहिसक विचारोके साथ आचार, आहार-पान भी अहिंसक होना चाहिए ।
कर्त्तव्य-कर्मोका सावधानी पूर्वक पालन करना तथा दुर्व्यसन, द्यून क्रीडा, मासभक्षण, मदिरापान, आखेट, वेश्यागमन, परस्त्रो सेवन एव चौर्यकर्म आदिका त्याग करना सामाजिक सदस्यताके लिये अपेक्षित है ।
धन एव भोगोंकी आसुरी लालसाने व्यक्तिको तो नष्ट किया ही है, पर अगणित समाजोको भी बर्वाद कर डाला है । आसुरी वासनाओकी तृप्ति एक
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are तो क्या त्रिकालमे भी सम्भव नही है । अतएव न्याय-अन्याय, कर्त्तव्यअकर्तव्य, पुण्य-पाप आदिका विचार कर समाजको अहिंसक नीति द्वारा व्यवस्थित करना चाहिये । इसमे सन्देह नही कि महावीरकी समाज-व्यवस्था आजके युगमे भी उतनी ही उपयोगी है, जितनी उपयोगी उनके समयमे थी। महावीरने श्रमको जीवनका आवश्यक मूल्य बताया है। मानवीय मूल्योमे इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । समाज धन या सम्पत्तिसे पूर्ण सुसका अनुभव नही कर सकता है । पर नीति और अध्यात्मके द्वारा तृष्णा, स्वायं और द्वेषका अन्त हो सकता है ।
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उपसंहार महावीर : व्यक्तित्व-विश्लेषण
काचन काया
सात हाथ उन्नत शरीर, दिव्य काञ्चन आभा, आजानबाहु, समचतुरस्रसस्थान, वज्रवृषभनाराचसहनन आदिसे युक्त तीर्थंकर महावीर तन और मन दोनोसे ही अद्भुत सुन्दर थे। उनकी लावण्य-छटा मनुष्योको ही नही, देव, पशुपक्षी एव कीट-पतगको भी सहजमे अपनी ओर आकृष्ट करती थी। देवेन्द्र भी उनके दिव्य तेजसे आकृष्ट हो चरण-वन्दनके लिये आते, अगणित मनुष्यसामन्तोकी तो बात ही क्या।
उनके व्यक्तित्वको लोक-कल्याणकी भावनाने सजाया था, सँवारा था। वे अपने भीतर विद्यमान शक्तिका स्फोटन कर प्रतिकूल कण्टकाकीर्ण मार्गको पुष्पावकीर्ण बनानेके लिये सचेष्ट थे। महावीर ऐसे नद थे, जो चट्टानोका भेदन
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कर स्वयं अपने लिये पथका निर्माण करते हैं। वे निर्झर थे, कुलिका (नहर) नही। उन्होने कठिन-से-कठिन तप कर, कामनाओ और वासनाओपर विजय पा कर लोक-कल्याणका ऐसा उज्ज्वल मार्ग तैयार किया, जो प्राणिमात्रके लिये सहजगम्य और सुलभ था। कर्मयोगी
महावीरके व्यक्तित्वमे कर्मयोगको माधना कम महत्त्वपूर्ण नही है। वे स्वयवुद्ध थे, स्वय जागरुक थे और वोधप्राप्तिके लिये स्वय प्रयत्नशील थे। न कोई उनका गुरु था और न किसी शास्त्रका आधार ही उन्होने ग्रहण किया था । वे कर्मठ थे और स्वय उन्होने पथका निर्माण किया था। उनका जीवन भय, प्रलोभन, राग-द्वेष सभीसे मुक्त था । वे नील गगनके नीचे हिंस्र-जन्तुओसे परिपूर्ण निर्जन वनोमे कायोत्सर्ग मुद्रामे ध्यानस्थ हो जाते थे। वे कभी मृत्युछायासे आक्रान्त श्मशानभूमिमे, कभी गिरि-कन्दराओमे, कभी गगनचुम्वी उत्तुग पर्वतोके शिखरोपर, कभी कल-कल, छल-छल निनाद करती हुई सरिताओके तटोपर और कभी जनाकीर्ण राजमार्गपर कायोत्सर्ग-मुद्रामे अचल और अडिगरूपसे ध्यानस्थ खड़े रहते थे। वे कर्मयोगी शरीरमे रहते हुए शरीरसे पृथक्, शरीरको अनुभूतिसे भिन्न जीवनकी आशा और मरणके भयसे विप्रमुक्त स्वको शोधमे सलग्न रहते थे।
कर्मयोगो महावीरने अपने श्रम, साधना और तप द्वारा अणित प्रकारके उपसर्गोको सहन किया। कही सुन्दरियोने उन्हे साधनासे विचलित करनेका प्रयास किया, तो कही दुष्ट और अज्ञानियोने उन्हे नाना प्रकारकी यातनाएं दी, पर वे सव मौनरूपसे सहन करते रहे। न कभी मनमे ही विकार उत्पन्न हुआ और न तन हो विकृत हुआ । इस कर्मयोगीके समक्ष शाश्वत विरोधी प्राणी भो अपना वैरभाव छोडकर शान्तिका अनुभव करते थे । धन्य है महावीरका वह व्यक्तित्व, जिसने लौह पुरुपका सामर्थ्य प्राप्त किया और जिस व्यक्तित्वके समक्ष जादू, मणि, मन्त्र-तन्त्र सभी फीके थे। अद्भुत साहसी
महावीरके व्यक्तित्वमे साहस और सहिष्णुताका अपूर्व समावेश हुआ था। सिंह, सर्प जैसे हिंस्र जन्तुओके समक्ष वे निर्भयतापूर्वक उपस्थित हो उन्हे मौन रूपमे उद्बोधित कर सन्मार्गपर लाते थे। जरा, गेग और शारीरिक अवस्थाओके उस घेरेको, जिसमे फंस कर प्राणी हाहाकार करता रहता है, महावीर साहसी वन मृत्यु-विजेताके रूपमे उपस्थित रहते थे। महावीरने बडे साहसके
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साथ परिवर्तित होते हुए मानवीय मूल्योंको स्थिरता प्रदान की और प्राणियोमे निहित शक्तिका उद्घाटन कर उन्हे निर्भय बनाया। उन जैसा अपूर्व साहसी शताब्दियोमे ही एकाध व्यक्ति पैदा होता है। शूलपाणि जैसे यक्षका आंतक और चण्डकौशिक जैसे सर्पकी विषज्वाला इनके साहसके फलस्वरूप ही शमनको प्राप्त हुई। अनार्य देशमे साधना करते हुए महावीरके स्वरूपसे अनभिज्ञ व्यक्तियोने उन्हे गालियाँ दी, पाषाण बरसाए, दण्डोसे पूजा की, दश-मशक और चीटियोने काटा, पर महावीर अपने साहससे विचलित न हुए। उनकी अपूर्व सहिष्णुता और अनुपम शान्ति विरोधियोका हृदय परिवर्तित कर देती थी। वे प्रत्येक कष्टका साहसके साथ स्वागत करते, शरीरको आराम देनेके लिये न वस्त्र धारण करते, न पृथ्वी पर आसन विछाकर शयन करते, न अपने लिये किसी वस्तुकी कामना ही करते । उनके अनुपम धैर्यको देखकर देवराज इन्द्र भी नतमस्तक था। सगमदेवने महावीरके साहसकी अनेक प्रकारसे परीक्षा की, पर वे अडिग हिमालय ही बने रहे । लोक-प्रदीप
महावीरके व्यक्तित्वमे अनुपम प्रदीप-प्रकाश उपलब्ध है। उन्होने ससारके घनीभूत अज्ञान-अन्धकारको दूरकर सत्य और अनेकान्तके आलोकद्वारा जननेतृत्व किया था। घरका दीपक घरके कोनेमे ही प्रकाश करता है, उसका प्रकाश सीमित और धुधला होता है, पर महावीर तो तीन लोकके दीपक थे। लोकत्रयको प्रकाशित किया था। महावीर ऐसे दीपक थे, जिसकी ज्योतिके स्पर्शने अगणित दीपोको प्रज्वलित किया था । अज्ञानअन्धकारको हटा जनताको आवरण और बन्धनोको तोड़नेका सन्देश दिया था। उन्होने राग-द्वेष विकल्पोको हटाकर आत्माको अखण्ड ज्ञान-दर्शन चैतन्यरूपमे अनुभव करनेका पथ आलोकित किया था। निश्चयसे देखनेपर आत्मापर बन्धन या आवरण है ही नही । अनन्त चैतन्यपर न कोई आवरण है और न कोई बन्धन । ये सब वन्धन और आवरण आरोपित हैं। जिसके घटमे ज्ञान-दीप प्रज्वलित है, उसके बन्धन और आवरण स्वत क्षीण हैं । सकल्प-विकल्पोका जाल स्वयमेव ही विलीन हो जाता है। करुणामूर्ति
महावीरका सवेदनशील हृदय करुणासे सदा द्रवित रहता था। वे अन्धविश्वास, मिथ्या आडम्बर और धर्मके नामपर होनेवाले हिंसा-ताण्डवसे अत्यन्त द्रवीभूत थे। 'यज्ञीयहिंसा हिंसा न भवति' के नारेको बदलनेका सकल्प ६०६ नोर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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कुलभेद, देश और प्रान्तभेद आदि सभी मानवताके विघातक हैं। तनावका वातावरण और अविश्वासको खाइको दूर करनेका एकमात्र साधन जनसामान्यको पारस्परिक सहयोग और कल्याणके लिये प्रेरित करना है।
स्वर्गके देव विभूतिमे कितने ही बडे क्यो न हो, उनका स्वर्ग कितना ही सुन्दर और सुहावना क्यो न हो, पर वे मनुष्यसे महान नही। मनुष्यके त्याग और इन्द्रियसयमके प्रति उन्हे भी नतमस्तक होना पडता है। मानव-मानवताके कारण सभी मनुष्य समान है, जन्मसे कोई भी व्यक्ति न बडा है, न छोटा। कार्य, गुण, परिश्रम, त्याग, सयम ऐसे गुण हैं, जिनकी उपलब्धिसे कोई भी व्यक्ति महान् बन सकता है। जीवनका यथार्थ लक्ष्य आत्मस्वातन्त्र्यकी प्राप्ति है। कालका प्रवाह अनाहत चला आ रहा है। जीवन क्षण, पल, घडियोमे कण-कण विखर रहा है। पार्श्ववर्ती स्तब्ध वातावरणमे भी सूक्ष्मरूपसे अतीत और व्यय समाहित है। नव नवीन रूपोमे प्रस्फुटित हो रहा है और वस्तुकी ध्रौव्यता भी यथार्थरूपमे स्थित है। इसप्रकार उत्पादादित्रयात्मकरूप वस्तु आत्मद्रष्टाको तटस्थ वृत्तिकी ओर आकृष्ट करती है और यहो उसे जन कल्याणकी ओर ले जाती है।
तोथंकर महावीर जन्मजात वीतराग थे। उनके व्यक्तित्वके कण-कणका निर्माण आत्मकल्याण और लोकहितके लिये हुआ था। लोककल्याण ही उनका इष्ट था और यही था उनका लक्ष्य । जोवनके प्रथम चरणसे हो उन्होने जनकल्याणके लिये संघर्ष आरम्भ किया, पर उनका यह सघर्ष बाह्य शत्रुओसे नही था, अन्तरग काम, क्रोधादि वासनाओंसे था। उन्होने शाश्वत सत्यको प्राप्तिके लिये राजवैभव, विलास, आमोद-प्रमोद आदिका त्याग किया और जनकल्याणमे सलग्न हो गये । ___ लोककल्याणके कारण ही तीर्थंकर महावीरने अपूर्व लोकप्रियता प्राप्त की थी। वे जिस नगर या ग्रामसे निकलते थे, जनता उनको अनुयायिनी बन जाती थी। मनुष्य तो क्या; पशु-पक्षी भी उनसे प्रेम करते थे। हिंसक, क्रूर और पिशाच भी अपनी वृत्तियोका त्यागकर महावीरकी शरण ग्रहण करते थे। वे तत्कालीन समाजको कायरता, कदाचार और पापाचारको दूर करनेके लिये कटिबद्ध थे । अत लोकप्रियताका प्राप्त होना उन्हे सहज था। स्वावलम्बी
महावीरके व्यक्तित्वकी अन्य विशेषताओमे स्वावलम्बनकी वृत्ति भी है। 'अपना कार्य स्वय करो' के वे समर्थक थे। जब साधनाकालमे अपरिचयके ६०८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कारण कुछ अज्ञ व्यक्ति उनका तिरस्कार करते, अपमान करते, शारीरिक यातनाएँ देते, उस समय महावीर किसीकी सहायताको अपेक्षा नही करते थे। वे अपने पुरुषार्थ द्वारा ही कर्मोंका नाश करना चाहते थे । जब इन्द्रने उनसे साधनामार्ग में सहायता करनेका अनुरोध किया, तब वे मौन भाषामे हुए कहने लगे--"देवेन्द्र, तुम भूल रहे हो । साधनाका मार्ग अपने-आपपर विजय प्राप्त करनेका मार्ग है । स्वयकृत कर्मका शुभाशुभ फल व्यक्तिको अकेले ही भोगना पडता है । कर्मावरणको छिन्न करनेके लिये किसी अन्यकी सहायता अपेक्षित नही है। यदि किसी व्यक्तिको किसी दूसरेके सुख-दुख और जीवन-मरणका कर्ता माना जाय, तो यह महान् अज्ञान होगा और स्वयंकृत शुभाशुभ फल निष्फल हो जायेंगे। यह सत्य है कि किसी भी द्रव्यमे परका हस्तक्षेप नही चलता है । हस्तक्षेपकी भावना हो आक्रमणको प्रोत्साहित करती है । यदि हम अपने मनसे हस्तक्षेप करनेकी भावनाको दूर कर दे, तो फिर हमारे अन्तस्मे सहज ही अनाक्रमणवृत्ति प्रादुर्भूत हो जायगी । आक्रमण प्रत्याक्रमणको जन्म देता है और यह आक्रमण- प्रत्याक्रमणकी परम्परा विश्वशान्ति और आत्मिक शान्तिमे विघ्न उत्पन्न करती है ।" इस प्रकार तीर्थकर महावीरके व्यक्तित्वमें स्वावलम्वन और स्वतन्त्रताको भावना पूर्णतया समाहित थी ।
अहसक
महावीरके व्यक्तित्वका सम्पूर्ण गठन हो अहिंसाके आधारपर हुआ है। मनुष्यको जैसे अपना अस्तित्व प्रिय है, अपना सुख अभीष्ट है, उसी तरह अन्य प्राणियोको भी अपना अस्तित्व और सुख प्रिय है। अहिंसक व्यक्तित्वका प्रथम दृष्टिबिन्दु सहअस्तित्व और सहिष्णुता है । सहिष्णुताके विना सहअस्तित्व सम्भव नही है । ससारमे अनन्त प्राणी है और उन्हे इस लोकमे साथ-साथ रहना है । यदि वे एक दूसरेके अस्तित्वको आशक्ति दृष्टिसे देखते रहे, तो अस्तित्वका सघर्ष कभी समाप्त नही हो सकता है। सघर्ष अशान्तिका कारण है और यही हिंसा है । वैर-वैमनस्य
जीवनका वास्तविक विकास अहिंसा के आलोकमे ही होता है । द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, अहकार, लोभ-लालच, शोषण दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाजको ध्वसात्मक विकृतियाँ है, वे सब हिसाके ही रूप है | मनुष्यका अन्तस् हिंसाके विवध प्रहारोसे निरन्तर घायल होता रहता है । इन प्रहारो का शमन करनेके लिये अहिंसाकी दृष्टि और अहिंसक जीवन ही आवश्यक है । महावीरने केवल अहिंसाका उपदेश हो नही दिया, अपितु उसे अपने जीवनमे उतारकर शत-प्रतिशत यथार्थता प्रदान की। उन्होने अहिंसा
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के सिद्धान्त और व्यवहारपक्षको एक करके दिखला दिया। विरोधीसे विरोधीके प्रति भी उनके मनमे घृण नही थी, द्वेष नही था वे उत्पीडक एव घातकके प्रति भी मगलकल्याणकी पवित्र भावना रखते थे। सगमदेव और शूलपाणि यक्ष जैसे उपसर्ग देनेवाले व्यक्तियो के प्रति भी उनके नेत्रोमे करुणा थी। तीर्थंकर महावीरका अहिंसक जीवन क्रूर और निर्दय व्यक्तियोके लिये भी आदर्श था।
महावीरका सिद्धान्त था कि अग्निका शमन अग्निसे नही होता, इसके लिये जलकी आवश्यकता होती है। इसीप्रकार हिसाका प्रतिकार हिसासे नही, अहिंसासे होना चाहिये । जब तक साधन पवित्र नही, साध्यमे पवित्रता आ नही सकती । हिंसा सूक्ष्मरूपमे व्यक्तिके व्यक्तित्वको अनन्त पोंमे समाहित है। उसे निकालनेके लिये सभी प्रकारके विकारो, वासनाओका त्याग आवश्यक है। यही कारण है कि महावीरने जगतको बाह्य हिसासे रोकनेके पूर्व अपने अन्तरमे विद्यमान राग-द्वेषरूप भावहिसाका त्याग किया और उनके व्यक्तित्वका प्रत्येक अणु अहिसाकी ज्योतिसे जागृत हो उठा । महावीरने अनुभव किया कि समस्त प्राणी तुल्य शक्तिधारी है, जो उनमे भेद-भाव करता है, उनकी शक्तिको समझने मे भूल या किसी प्रकारका पक्षपात करता है, वह हिंसक है। दूसरो को कष्ट पहचानेके पूर्व ही. विकृति आ जानेके कारण अपनी ही हिंसा हो जाती है।
सचमुचमे अहिसाके साधक महावीरका व्यक्तित्व धन्य था और धन्य थी उनकी सचरणशक्ति । वे बारह वर्षोंतक मौन रहकर मोह-ममताका त्याग कर अहिमाकी साधनामे सलग्न रहे। महावीरके व्यक्तित्वको प्रमुख विशेषताओमे उनका अहिसक व्यक्तित्व निर्मल आकाशके समान विशाल और समुद्रक समान अतल स्पर्शी है। उनकी अहिंसामे आग्रह नही था, उद्दण्डता नहीं थी, पक्षपात नही था और न किसी प्रकारका दुराव या छिपाव ही था। दया, प्रेम और विनम्रताने उनकी अहिसक साधनाको सुसस्कृत किया था। क्रातिद्रष्टा
तीर्थकर महावीरके व्यक्तित्वमे क्रान्तिकी चिनगारी आरम्भसे ही उपलब्ध होती है। वे व्यवहारकुशल, स्पष्ट वक्ता, निर्भीक साधक, अहिंसक, लोककल्याणकारी और जनमानसके अध्येता थे। चाटुकारिताकी नीतिसे वे सदा दूर थे। उनके मनमे आत्मविश्वासका दीपक सदा प्रज्वलित रहता था। धर्मके नामपर होनेवाली हिंसाएं और समाजके सगठनके नामपर विद्यमान भेद-भाव एव आत्मसाधनाके स्थानपर शरीर-साधनाकी प्रमुखताने महावीरके मनमे किशोरावस्थासे ही क्रान्तिका बीज-वपन किया था। रईसो और अमीरोके यहां दास-दासीके रूपमे शोषित नर-नारी महावीरके हृदयका अपूर्व मथन करते
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थे । फलतः वे उस युगकी प्रमुख-धर्म-धारणा यज्ञ और क्रियाकाण्डके विरोधी थे। उन दिनोमे नर और नारी नीति और धर्मका आंचल छोड़ चुके थे। वे दोनो ही कामुकताके पकमें लिप्त थे। नारियोमे पातिव्रत, शील और सकोचकी कमी हो रही थी। वे वधनोको तोड और लज्जाके आवरणको फेक स्वच्छन्द बन चुकी थी। पुरुषोमे दानवी वासनाका प्रावल्य था। वे आचार-विचार-शोलसयमका पल्ला छोड़ वासनापूर्तिको ही धर्म समझते थे। चारो ओर बलात्कार और अपहरणका तूफान उठ खडा हुआ था। चन्दना जैसो कितनी नारियोका अपहरण अहर्निश हो रहा था। जनमानसका धरातल आत्माको धवलतासे हटकर शरीरपर केन्द्रित हो गया था। भाग-विलास और कृत्रिमताका जीवन हो प्रमुख था। मदिरापान, द्यूतक्रोडा, पशुहिंसा, आदि जीवनको साधारण बातें थी। बलिप्रथाने धर्मके रूपको और भी विकृत कर दिया था।
भौतिकताके जीवनकी पराकाष्ठा थी। धर्म और दर्शनके स्वरूपको औद्धत्य, स्वैराचार, हठ और दुराग्रहने खण्डित कर दिया था। वर्ग-स्वार्थकी दुषित भावनाओने अहिंसा, मैत्री और अपरिग्रहको आत्मसात् कर लिया था। फलत समाजके लिये एक क्रान्तिकारी व्यक्तिकी आवश्यकता थी। महावीरका व्यक्तित्व ऐसा ही क्रान्तिकारी था। उन्होने मानव-जगतमे वास्तविक सुख और शान्तिको धारा प्रवाहित की और मनुष्यके मनको स्वार्थ एव विकृतियोसे रोककर इसी धरतीको स्वर्ग बनानका सन्देश दिया। महावीरने शताब्दियोसे चली आ रही समाज-विकृतियो को दूरकर भारतको मिट्टीको चन्दन बनाया। वास्तवमे महावीरके क्रान्तिकारी व्यक्तित्वको प्राप्तकर धरा पुलकित हो उठी, शत-शत वसन्त खिल उठे। श्रद्धा, सुख और शान्तिकी निवेणी प्रवाहित होने लगी। उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्वसे कोटि-कोटि मानव कृतार्थ हो गये। निस्सन्देह पतितो और गिरो'को उठाना, उन्हे गलेसे लगाना और करस्पर्श द्वारा उनके व्यक्तित्वको परिष्कृत कर देना यही तो क्रान्तिकारीका लक्षण है। महावीरको क्रान्ति जड नही थो, सचेतन थी और थी गतिशील । जो अनुभवसिद्ध ज्ञानके शासनमे चल मुक्त चिन्तन द्वारा सत्यान्येपण करता है, वही समाजमे क्रान्ति ला सकता है। पुरुषोत्तम
महावीर पुरुपात्तम थे। उनके बाहा और आभ्यन्तर दोनो ही प्रकारके व्यक्तित्वोमे अलौकिक गुण समाविष्ट थे। उनका रूप त्रिभुवनमोहक, तेज सूर्यको भी हतप्रभ बनानेवाला और मुख सुर-नर-नागनयनको सनहर करने वाला था। उनके परमौदारिक दिव्य शरीरकी जैसी छटा और आभा थी,
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उससे भी कही अधिक उनकी आत्माका दिव्य तेज था। अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य गुणोके समावेशने उनके आत्मतेजकोअलौकिक बना दिया था। निष्कामभावसे जनकल्याण करनेके कारण उनका आत्मबल अनुपम था। वे ससार-सरोवरमे रहते हुए भी कमलपत्रवत् निर्लिप्त थे । उनका यह व्यक्तित्व पुरुषोत्तम विशेषणसे विशिष्ट किया जा सकता है ।
यो तो महावीरके व्यक्तित्वमे एक महामानवके सभी गुण प्राप्य थे, पर वे एक सच्चे ज्ञानी, मुक्ति-नेता, कुशल उपदेष्टा और निर्भीक शिक्षक थे । जो भी उनकी वाणी सुनता, वही उनकी ओर आकृष्ट हो जाता । वे ऐसे ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी थे, जिन्हे 'घोरवभचेर' कहा गया है । ब्रह्मचर्यको उत्कृष्ट साधना और अहिंसक अनुष्ठानने महावीरको पुरुषोत्तम बना दिया था । तप पूत भगवान् महावीर तीर्थकर पुरुषोत्तम थे । श्रेष्ठ पुरुषोचित सभी गुणोका समवाय उनमे प्राप्त था। निःस्वार्थ
महावीरके व्यक्तित्वमे निस्वार्थ सावकके समस्त गुण समवेत है । वे तपश्चरण और उत्कृष्ट शुभ अध्यवसायके कारण निरन्तर जागरूक थे। उन्हे सभी प्रकारको ऋद्धि-सिद्धियाँ ऊपलब्ध थी,पर वे उनसे थे निलिप्त, आत्मकेन्द्रित, शान्त और वीतराग । आत्मापर कठोर सयमकी वृत्ति रखनेके कारण उनमे विश्व बन्धुत्व समाहित था।
महावीर न उपसर्गोसे ही घबराते थे और न परीषह सहन करनेसे ही । वे सभी प्रकारके स्वार्थ और विकारोको जीतकर स्वतन्त्र या मुक्त होना चाहते थे । अनादिकालसे चैतन्य-ज्योति आवरणोसे आच्छादित है । जिसने इन आवरणोको हटाकर बन्धनोको तोडा है, जो सकल्प-विकल्पोसे मुक्त हुआ है और जिसने शरीर और इन्द्रियोपर पडी हुई परतोको हटाया है, वही नि स्वार्थ जीवन यापन कर सकता है। तीर्थंकर महावीरके व्यक्तित्वमे यह निस्वार्थकी प्रवृत्ति पूर्णतया वर्तमान थी।
वस्तुत तीर्थंकर महावीरके व्यक्तित्वमे एक महामानवके सभी गुण विद्यमान थे। वे स्वयबुद्ध और निर्भीक साधक थे और अहिंसा ही उनका साधनासूत्र था। उनके मनमे न कुण्ठाओको स्थान प्राप्त था और न तनावोको। प्रथम दर्शनमे ही व्यक्ति उनके व्यक्तित्वसे प्रभावित हो जाता था। यही कारण है कि इन्द्रभूति गौतम जैसे तलस्पर्शी ज्ञानी पण्डित भी महावीरके दर्शनमात्रसे प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गये। ६१२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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यह सार्वजनीन सत्य है कि यदि व्यक्तिके मुखपर तेज, छविमे सोन्दयं, आँखो मे आभा, ओठो पर मन्द मुस्कान, शरीरमे चारुता और अन्तरंगमे निश्छल प्रेम हो, तो वह सहजमे ही अन्य व्यक्तियोको आकृष्ट कर लेता है । महावीरके वाह्य और अन्तरग दोनो ही व्यक्तित्व अनुपम थे । उनका शारीरिक गठन, सस्थान और आकार जितना उत्तम था उतना हो वीतरागताका तेज भी दीप्ति युक्त था । वृषभके समान मासल स्कन्ध, चक्रवर्तीके लक्षणो से युक्त पदकमल, लम्बी भुजाएँ, आकर्षक सोम्य चेहरा उनके बाह्य व्यक्तित्वको भव्यता प्रदान करते थे। साथ ही तप साधना, स्वावलम्बनवृत्ति, श्रमणत्वका आचार, तपोपलब्धि, सयम, सहिष्णुता, अद्भुत साहस, आत्मविश्वास आदि अन्तरग गुण उनके आभ्यन्तर व्यक्तित्वको आलोकित करते थे । महावोर धर्मनेता, तीर्थंकर, उपदेशक एव ससारके मार्ग-दर्शक थे । जो भी उनकी शरण या छत्रच्छायामे पहुँचा, उसे ही आत्मिक शान्ति उपलब्ध हुई ।
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निस्सन्देह वे विश्वके अद्वितीय क्रान्तिकारी, तत्वोपदेशक और जननेता थे। उनकी क्रान्ति एक क्षेत्र तक सीमित नही थी। उन्होने सर्वतोमुखी क्रान्तिका शखनाद किया, आध्यात्मिक, दर्शन, समाजव्यवस्था, धर्मानुष्ठान, तपश्चरण यहाँ तककी भाषाके क्षेत्रमे भी अपूर्वं क्रान्तिको । तत्कालीन तापसोकी तपस्याके वाह्यरूपके स्थान मे आभ्यन्तररूप प्रदान किया । पारस्परिक खण्डन-मण्डन मे 7 निरत दार्शनिकोको अनेकान्तवादका महामन्त्र प्रदान किया । सद्गुणो की अवमानना करने वाले जन्मगत जातिवादपर कठोर प्रहारकर गुणकर्माधारपर जातिव्यवस्थाका निरूपण किया । इन्हो ने नारियोकी खोयी हुई स्वतन्त्रता उन्हे प्रदान की। इस प्रकार महावीरका व्यक्तित्व आद्यन्त क्रान्ति, त्याग, तपस्या, सयम, अहिंसा आदिसे अनुप्राणित है ।
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छिपाव नही रह सकता है। वस्तुत मैत्री - भावना समाजकी परिधिको विकसित करती है, जिससे आत्मामे समभाव उत्पन्न होता है ।
प्रमोद-:
-भावना
गुणीजनको देखकर अन्त करणका उल्लसित होना प्रमोद - भावना है । किसीकी अच्छी बातको देखकर उसकी विशेषता और गुणोका अनुभव कर हमारे मनमे एक अज्ञात ललक और हर्षानुभूति उत्पन्न होती है । यही आनन्दकी लहर परिवार और समाजको एकताके सूत्रमे आबद्ध करती है । प्राय देखा जाता है कि मनुष्य अपनेसे आगे बढे हुए व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या करता है और इस ईर्ष्या प्रेरित होकर उसे गिरानेका भी प्रयत्न करता है । जब तक इस प्रवृत्तिका नाश न हो जाय, तबतक अहिंसा और सत्य टिक नही पाते । प्रमोदभावना परिवार और समाजमे एकता उत्पन्न करती है । ईर्ष्या और विद्वेष पर इसी भावनाके द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है। ईर्ष्याकी अग्नि इतना विकराल रूप धारण कर लेती है कि मनुष्य अपने भाई और पुत्रके भी उत्कर्ष - को फूटी आंखो नहीं देख पाता । यही ईर्ष्या की परिणति एव प्रवृत्ति ही परिवार और समाज मे खाई उत्पन्न करती है । समाज और परिवारको छिन्न-भिन्नता ईर्ष्या, घृर्णा और द्वेषके कारण ही होती है । प्रतिस्पर्धावश समाज विनाशके कगारकी ओर बढता है । अत 'प्रमोद - भावना' का अभ्यास कर गुणोके पारखी बनना और सही मूल्याकन करना समाजगठनका सिद्धान्त है । जो स्वय आदरसम्मान प्राप्त करना चाहता है, उसे पहले अन्य व्यक्तियोका आदर-सम्मान करना चाहिए। अपने गुणोके साथ अन्य व्यक्तियोके गुणोकी भी प्रशसा करनी चाहिए । यह प्रमोदकी भावना मनमे प्रसन्नता, निर्भयता एव आनन्दका सचार करती हे और समाज तथा परिवारको आत्मनिर्भर, स्वस्थ और सुगठित बनाती है ।
करुणा भावना
करुणा मनकी कोमल वृत्ति है, दुखी और पीडित प्राणी के प्रति सहज अनुकम्पा और मानवीय संवेदना जाग उठती है । दु वीके दु खनिवारणार्थ हाथ बढते हैं और यथाशक्ति उसके दुखका निराकरण किया जाता है ।
करुणा मनुष्यकी सामाजिकताका मूलाधार है । इसके सेवा, अहिंसा, दया, सहयोग, विनम्रता आदि सहस्रो रूप सभव हैं। परिवार और समाजका आलम्बन यह करुणा-भावना ही है ।
मात्राके तारतम्यके कारण करुणाके प्रमुख तीन भेद हैं-१ महाकरुणा, २ अतिकरुणा और, ३ लघुकरुणा । महाकरुणा नि स्वार्थभावसे प्रेरित ५७० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य -परम्परा
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________________ होती है और इस करुणाका धारी प्राणिमात्रके कष्ट-निवारणके लिए प्रयास करता है। इस श्रेणीकी करुणा किसी नेता या महान् व्यक्तिमे ही रहती है। इस करुणा द्वारा समस्त मानव-समाजको एकताके सूत्रमे आबद्ध किया जाता है और समाजके समस्त सदस्योको सुखी बनानेका प्रयास किया जाता है। अतिकरुणा भी जितेन्द्रिय, सयमी और नि स्वार्थ व्यक्तिमे पायी जाती है। इस करुणाका उद्देश्य भी प्राणियोमे पारस्परिक सौहार्द उत्पन्न करना है। दूसरेके प्रति कैसाव्यवहार करना और किस वातावरणमे करना हितप्रद हो सकता है, इसका विवेक भी महाकरुणा और अतिकरुणा द्वारा होता है। प्रतिशोध, सकीर्णता और स्वार्थमूलकता आदि भावनाएँ इसी करुणाके फलस्वरूप समाजसे निष्कासित होती हैं / वास्तवमे करुणा ऐसा कोमल तन्तु है, जो समाजको एकतामे आबद्ध करता है। __ लघुकरुणाका क्षेत्र परिवार या किसी आधारविशेषपर गठित सघ तक ही सीमित है। अपने परिवारके सदस्योके कष्टनिवारणार्थ चेष्टा करना और करुणावृत्तिसे प्रेरित होकर उनको सहायता प्रदान करना लघुकरुणाका क्षेत्र है। मनुष्यमे अध्यात्म-चेतनाकी प्रमुखता है, अत• वह शाश्वत आत्मा एवं अपरिवर्तनीय यथार्थताका स्वरूप सत्य-अहिंसासे सम्बद्ध है / कलह, विषयभोग, घृणा, स्वार्थ, सचयशीलवृत्ति आदिका त्याग भी करुणा-भावना द्वारा सभव है। अतएव सक्षेपमे करुणा-भावना समाज-गठनका ऐसा सिद्धान्त है जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषोसे रहित होकर समाजको स्वस्थ रूप प्रदान करता है। माध्यस्थ्य-भावना जिनसे विचारोका मेल नही बैठता अथवा जो सर्वथा सस्कारहीन हैं, किसी भी सद्वस्तुको ग्रहण करनेके योग्य नहीं हैं, बी कुमार्गपर चले जा रहे हैं तथा जिनके सुधारने और सही रास्ते पर लानेके सभी यत्न निष्फल सिद्ध हो गये हैं, उनके प्रति उपेक्षाभाव रखना माध्यस्थ्य-भावना है। __मनुष्यमे असहिष्णुताका भाव पाया जाता है। वह अपने विरोधी और विरोध को सह नही पाता। मतभेदके साथ मनोभेद होते विलम्ब नही लगता। अत इस भावना द्वारा मनोभेदको उत्पन्न न होने देना समाज-गठनके लिए आवश्यक है। इन चारो भावनाओका अभ्यास करनेसे आध्यात्मिक गुणोका विकास तो होता ही है, साथ ही परिवार और समाज भी सुगठित होते है। माध्यस्थ्य-भावनाका लक्ष्य है कि असफलताको स्थितिमे मनुष्यके उत्साहको / तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : 571