________________
२० ॥
धन ।
तीन लोक के जीव करो जिनवर की नियम थकी करदन्ड धस्त्रो देवन के प्रातिहार्य तौ वने इन्द्र के वनै न अथवा तेरे वनै तिहारे निमित्त परेरे ॥ तेरे सेवक नाहिं इसे जे पुरुषहीन धनवानों की ओर लखत वे नाहिं लखतपन ॥ जैसैं तमथिति किये लखत परकास थितीकूं । तैसें सुकत नाहिं तमथिति मन्दमतीकूं ||२१|| निज वृध स्वासोच्छास प्रगट लोचन टमकारा । तिनको वेदत नाहि लोकजन मूढ विचारा || सकल ज्ञेय ज्ञायक जु अमूरति ज्ञान सुलच्छन । सो किमि जान्यो जाय देव रूप विचच्छत ॥२२॥ नाभिराय के पुत्र पिता प्रभु भरततने हैं । कुलप्रकाशिक नाथ तिहारो स्तवन भनें हैं ॥ ते लघु धी असमान गुणनकों नाहिं भजै हैं । सुवरण आयो हाथि जानि पाषाण
तजै हैं ॥२३॥
ढोल
बजाया ।
सुरासुरन को जीति मोहने तीनलोक में किये सकल वशि यों गरभाया । तुम अनन्त बलवन्त नाहिं ढिग आवन पाया ।
करि विरोध तुम थकी मूल नाश कराया ॥२४॥
1
सेवा 1
देवा ॥
तेरे
।