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________________ किंचित भी चितमाहिं आप कछु करो न स्वामी। जे गर्दै जितमाहिं आपको शुभ परिणामी ॥ हस्तामलवत लखें जगत को परिणति जेती। तेरे चित के वाह्य तोउ जीवै सुखसेती ॥ १५ ॥ तीनलोक तिरकालमाहिं तुम जानत सारी। स्वामी इनकी संख्या थी तितनीहिं निहारी॥ जो लोकादिक हुते अनन्ते साहिब मेरा । तेऽपि झलकते आनि ज्ञान का ओर न तेरा ॥१६॥ है अगन्य तबरूप करै सुरपति प्रभु सेवा। ना कछु तुम उपकार हेत देवन के देवा ।। भक्ति तिहारी नाथ इन्द्र के तोषित मन को। ज्यों रवि सन्मुख छत्र कर छाया निज तन को ॥१७॥ वीतरागता कहां - कहां उपदेश सुखाकर । सो इच्छा प्रतिकूल वचन किम होय जिनेसर ॥ प्रतिकूली भी वचन जगतकं प्यारे अतिही। हम कछ जानी नाहिं तिहारी सत्यासतिही ॥१८॥ उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित न धरन । जो प्रापति तुम थकी नाहि सो धनेसुरनतें ॥ उच्च प्रकृति जल बिना भूमिधर धुनी प्रकाशै । जलधि नीरत भयो नदी ना एक निकासै ॥१६॥
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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