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कर्मपटल भूमाहिं दुबी आतमनिधि भारी । देखत अतिसुख होय विमुख जन नाहिं उघारी ॥ तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै। थुति कुदालसों खोद बन्द भू कठिन विदारे ॥१५॥ स्यादवादगिरि उपज मोक्ष सागर लों धाई। तुम चरणांबज परस भक्ति गंगा सुखदाई॥ मो चित निर्मल थयो न्होन रुचिपूरव तामें । अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामें ॥१६॥ तुम शिवसुखमय प्रगट प्रभु चिंतन तेरो। मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो॥ यद्यपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावै । तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै ॥१७॥ वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापै । भंग तरंगिनि विकथवादमल मलिन उथापै ॥ मनसुमेरुसों मथै ताहि जे सम्यकज्ञानी । परमामृत सों तृपत होहिं ते चिरलों प्रानी ॥१८॥ जो कुदेव छवि हीन वसन भूषण अभिलाखै। वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखे । तुम सुन्दर सर्वग शत्रु समरथ नहिं कोई । भूषण वसन गदादि ग्रहण काहे को होई ॥१६॥