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जय गुना
जब आवत है षष्ठम जु काल, दुःखमादुःख प्रगटे अति कराल | तब मांसभक्षी नर सर्व होय, जहाँ धर्म नाम नहिं सुनें कोय ॥१०॥ याही विधि से पटकाल जोय, दश क्षेत्रन में इकसार होय । सब क्षेत्र में रचना समान, जिनवाणी भाख्यो सो प्रमान ॥११॥ चौवीसी है इक क्षेत्र तीन, दश क्षेत्र तीस जानों प्रवीन । आगत नागत जिन वर्त्तमान, सब सात सतक अरु बीस जान ||१२|| सही जिनराज नसों त्रिकाल, मोहि भव वारिधिते ल्यो निकाल । यह वचन हिये में धारि लेव, मम रक्षा करो जिनेन्द्र देव || १३|| "रविमल" की विनती सुनो नाथ, मैं पांय पडू जुग जोरि हाथ । मन वांछित कारज करो पूर, यह अरज हिये में धरि हजूर ||१४||
घत्ता ।
शत सात जू बीसं श्रीजगदीशं आगत नागत बरततु है । मन वच तन पूजै शुद्ध मन हुजै सुरंग मुक्ति पद धारतु है ॥
ॐ ह्रौं पाच भरत पाच ऐरावत दक्षेत्र के विर्षे तीनचौवीसी के सात सौ वीस जिनेन्द्रे भ्यो अवं निर्वपामीति स्वाहा ।
पूजाकार की प्रार्थना ।
दोहा - संवत् शत उगनीस के, ता ऊपर पुनि आठ । पौष कृष्ण तृतीया गुरु, पूरण कोना पाठ ॥ अक्षर मात्रा की कसर, बुधजन शुद्ध करेहिं । अल्प बुद्धि मो जानके, दोष नाहिं मम देहिं ॥ पढ्यो नहीं व्याकरण मैं, पिङ्गल देख्यो नाहिं । जिनवाणी परसादतै, उमग भई घट माहिं || मान बड़ाई ना चहूं, चहूं धर्म को अंग । नितप्रति पूजा कीजियो. मनमें धार उमंग ॥
इयाशीर्वाद
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