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है। शुक्ल ध्यानके चार भेद हैं--१ पृथक्त्ववितर्कविचार, २. एकत्ववितर्कअविचार, ३ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और ४. व्युपरतक्रियानिवति । पृथक्त्ववितर्कविचार
उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीका आरोहण करनेवाला कोई पूर्वज्ञानधारी इस ध्यानमे वितर्क-श्रुतज्ञानका आलम्बन लेकर विविध दृष्टियोसे विचार करता है और इसमे अर्थ, व्यञ्जन तथा योगका सक्रमण होता रहता है । इस तरह इस ध्यानका नाम पृथक्त्ववितर्कविचार है। इस ध्यान द्वारा साधक मुख्य रूपसे चारित्रमोहनीयका उपशम या क्षपण करता है। एकत्ववितर्क-अविचार
क्षीणमोहगुणस्थानको प्राप्त होकर श्रुतके आधारसे किसी एक द्रव्य या पर्यायका चिन्तन करता है और ऐमा करते हुए वह जिस द्रव्य, पर्याय, शब्द या योगका अवलम्बन लिये रहता है, उसे नही बदलता है, तब यह ध्यान एकत्ववितर्क-अविचार कहलाता है। इस ध्यान द्वारा साधक धातिकर्मकी शेष प्रकृतियोका क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करता है। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति
सर्वज्ञदेव योगनिरोध करने लिए स्थल योगोका अभाव कर सक्ष्मकाययोगको प्राप्त होते हैं, तब सक्ष्मक्रियामप्रतिपाति ध्यान होता है। कायवर्गणाके निमित्तसे आत्मप्रदेशोका अतिसूक्ष्म परिस्पन्द शेष रहता है। अत इसे सूक्ष्मक्रियामप्रतिपाति कहते हैं। व्युपरतक्रियानिति ___ कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्मप्रदेशोका अतिसूक्ष्म परिस्पन्दनके भी शेष नही रहनेपर और आत्माके सर्वथा निष्प्रकम्प होनेपर व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान होता है। किसी भी प्रकारके योगका शेष न रहनेके कारण इस ध्यानका उक्त नाम पडा है। इस ध्यानके होते ही सातावेदनीयकर्मका आस्रव रुक जाता है और अन्तमे शेष रहे सभी कर्म क्षीण हो जानेसे मोक्ष प्राप्त होता है । ध्यानमें स्थिरता मुख्य है । इस स्थिरताके बिना ध्यान सम्भव नही हो पाता। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति
आत्मिक गुणोके विकासको क्रमिक अवस्थाओको गुणस्थान कहते है । आत्मा स्वभावत' ज्ञान-दर्शन-सुखमय है। इस स्वरूपको विकृत अथवा आवृत करनेका कार्य कर्मों द्वारा होता है। कर्मावरणको घटा जैसे-जैसे धनी होती जाती है,
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना ५४३