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और शरीरसे रहित चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ। पुरुषाकार चैतन्यधातुकी वनी शुद्ध मूर्तिके समान हूँ । पूर्न चन्द्रमाके तुल्य ज्योतिस्वरूप हूँ। __ क्रमश इन पांच धारणाओ द्वारा पिंडस्थ ध्यानका अभ्यास किया जाता है। यह ध्यान आत्माके कर्मकलङ्कपड़को दूरकर ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य गुणोका विकास करता है।
पदस्थ ध्यान
मन्त्रपदोंके द्वारा अर्हन्त. सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साघु तथा आत्माका स्वरूप चिन्तन करना पदस्थ ध्यान है। किसी नियत स्थान-नासिकान या भृकुटिके मध्यमे मन्त्रको अकित कर उसको देखते हुए चित्तको एकाग्र करना पदस्थ ध्यानके अन्तर्गत है। इस ध्यानमे इस वातका चिन्तन करना भी आवश्यक है कि शुद्ध होनेके लिए जो शुद्ध आत्माओका चिन्तन किया जा रहा है वह कर्मरजको दूर करनेवाला है। इस ध्यानका सरल और साध्य रूप यह है कि हृदयमे आठ पत्राकार कमलका चिन्तन करे और इन आठ पत्रोमेसे पांच पत्रोपर "णमो अरहताण णमो सिद्धाण, णमो आइरियाण, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्वसाहूण," लिखा चिन्तन करे तथा शेष तीन पत्रोपर क्रमशः "सम्यग्दर्शनाय नम , सम्यग्ज्ञानाय नम. और सम्यक्चारित्राय नम" लिखा हुआ विचारे। इस प्रकार एक-एक पत्तेपर लिखे हुए मत्रका ध्यान जितने समय तक कर सके, करे। रूपस्थ ध्यान
अर्हन्त परमेष्ठीके स्वरूपका-विचार करे कि वे समवशरणमे द्वादश सभाओंके मध्यमे ध्यानस्थ विराजमान है। वे अनन्तचतुष्टय सहित परम वीतरागी हैं अथवा ध्यानस्थ जिनेन्द्रकी मूर्तिका एकाग्रचित्तसे ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है। रूपातीत
सिद्धोके गुणोका विचार करे कि सिद्ध, अमूर्तिक, चैतन्यपुरुषाकार, कृतकृत्य, परमशान्त, निष्कलक, अष्टकर्म रहित, सम्यक्त्वादि अष्टगुण सहित, निर्लेप, निर्विकार एव लोकाग्रमे विराजमान हैं। पश्चात् अपने आपको सिद्धस्वरूप समझकर ध्यान करे कि मै ही परमात्मा हूं, सर्वज्ञ हूँ, सिद्ध हूँ, कृतकृत्य हूं, निरञ्जन हूँ, कर्मरहित हूँ, शिव हूँ, इस प्रकार अपने स्वरूपमे लोन हो जाय । शुक्ल ध्यान
मनको अत्यन्त निर्मलताके होवेपर जो एकाग्रता होती है वह शुक्ल ध्यान ५४२ . तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा