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अहिसाणवतकी रक्षाके लिये निम्नाग्मित पाच भावनाओका पालन करना भी आवश्यक है(१) वचनगुप्ति-वचनकी प्रवृत्तिको रोकना, (२) मनोगुप्ति-मनकी प्रवृत्तिको रोकना, (३) ईर्यासमिति-सावधानीपूर्वक देखकर चलना, (४) आदान-निक्षेपणसमिति-सावधानीपूर्वक देखकर वस्तुको उठाना और रखना।
(५) आलोकितपानभोजन-दिनमे अच्छी तरह देख-भालकर आहारपानीका ग्रहण करना।
२ सत्याणुवत-अहिंसा और सत्यका परस्परम धनिष्ट सम्बन्ध है । एकके अभावमे दूसरेकी साधना शक्य नही। ये दोनो परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित है। अहिंसा सत्यको स्वरूप प्रदान करती है और सत्य अहिंसाकी सुरक्षा करता है। अहिंसाके बिना सत्य नग्न एव कुस्प है । अत मृपावादका त्याग अपेक्षित है। स्थूल झूठका त्याग किये विना प्राणी अहिसक नही हो सकता है । यत सत्ता और धोखा इन दोनोका जन्म झूठसे होता है। झूठा व्यक्ति आत्मवचना भी करता है। मिथ्याभाषणमे प्रमुख कारण स्वार्थकी भावना है। स्वच्छन्दता, घृणा, प्रतिशोध जैसी भावनाएँ, असत्य या मिथ्याभाषणसे उत्पन्न होतो है। मानवसमाजका समस्त व्यवहार वचनोसे संचालित होता है । वचनके दोषसे व्यक्ति और समाज दोनोमे दोप उत्पन्न होता है। अतएव मृषावादका त्याग आवश्यक है।
असत्य वचनके तीन भेद है-१. गहित २ सावध और ३. अप्रिय । निन्दा करना, चुगली करना, कठोर वचन बोलना एव अश्लील वचनोका प्रयोग करना गहित असत्यमे परिगणित हैं । छेदन, भेदन, मारन. शोषण, अपहरण एव ताड़न सम्बन्धी वचन भी हिंसक होनेके कारण सावध असत्य कहलाते हैं। इन दोनो प्रकारके वचनोके अतिरिक्त अविश्वास, भयकारक, खेदजनक, वैर-शोक उत्पादक, सन्तापकारक आदि अप्रिय वचनोका त्याग करना आवश्यक है।
झुठो साक्षी देना, झूठा दस्तावेज या लेख लिखना, किसीकी गुप्त बात प्रकट करना, चुगली करना, सच्ची झूठी कहकर किसीको गलत रास्ते पर ले जाना, आत्मप्रशसा और परनिन्दा करना आदि स्थूल मृषावादमे सम्मिलित हैं।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना . ५१७