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बैराठ सं
बन्द कियो वालों में वही प्र तत्र हरे,
श्रीमत नानतुङ्ग मुनिवर पर, भूप कोप जब थियो गंवार | भकार गुरु रच्यो उद्वार || किनो जयकार | नो० ॥
२९:
को बुद्धि नृपतिहिं दार |
श्रीमत वादिराज मुनिवरों श्रावक सेठ को दिई
मेरे गुरु कञ्चन तत्वार् ॥
तबहीं एकीभाव रच्यो गुरु तन सुरण बुद्धि भयो अपार ॥ नो०६ ॥
श्रीमत कुमुद्रचन्द्र कुत्रिम वापर वह नमा मलार तत्र ही श्रीकल्याग धानधुनि श्रीगुरु रक्तरची अपार ॥ तब प्रतिमा श्रीणश्वताय की
नयी त्रिभुत्र जयकार | सो० ७ ॥
श्रीमद मवचन्द्र गुरुनों जब केतुन मोहि
विजीपति इति की पुकार | अतिशय के पदो मेरो कार || दब गुरु प्रव ब्लॉकिन अतिशय तुरंत हरयो नानो स्वभार | सो गुरुदेव वर्ते, विक्त हर
लान || सो० ८ ॥
दोहा - विश्व हरण नहल करण वाहिद फल दातार । 'इन्द्रावतं अष्टक रच्यो, मेरो कण्ठ सुखकार |
वर्गी - वाणी (डायरी) से
से कहने में करो।
"
करो।
■ोच्छा
किसी से राग-द्वेष
राग-द्वेष के बेग ने लाकर अन्य प्रकार मत करो, वही कारमा के सुधार की शिक्षा है।