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तुम अगाध जिनदेव चित्त के गोचर नाहीं । निःकिंचन भी प्रभू धनेश्वर जावत सांई ॥ भये विश्व के पार दृष्टिसों पार न पावै । जिनपति एम तिहारि जगजन शरण आवै ॥ ३५ ॥ नमीं नमौं जिनदेव जगतगुरु शिक्षादायक । निज गुण सेती भई उन्नति महिमा लायक ॥ पाहनखण्ड पहार पलै ज्यो होत और गिर । त्यों कुलपर्वत नाहिं सनातन दीर्घ भूमिवर ॥३६॥ स्वयं प्रकाशी देव रैन दिनकूं नहिं वाधित । दिवस रात्रि भी छतैं आपकी प्रभा प्रकाशित || लाघव गौरव नाहिं एकसो रूप तिहारो । कालकलातें रहित प्रभूसूँ नमन हमारो ॥३७॥ इहविधि बहु परकार देव तव भक्ति करी हम | जाचू वर न कदापि दीन है रागसहित तव ॥ छाया बैठत सहज वृक्ष के फिर छाया को जाचत यामें जो कुछ इच्छा होय देन की यो बुधि ऐसी करूँ प्रीतिसौं भक्ति करो कृपा जिनदेव हमारे परि है सनमुख अपनो जानि कौन पण्डित नहिं पोषित ॥३६॥
नीचे है है ।
प्रापति है है ||३८|| तौ उपगारी ।
तिहारी ॥ तोषित ।