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________________ ३७० विन वांछा ए वचन आपके विरं कदाचित है नियोग एकोपि जगत को करन सहज हित । करे न वांछा इसी चन्द्रमा पृरो जलनिधि सीतरश्मिक पाय उदधि जल बढे स्वयं सिधि तेरे गुण गम्भीर परम पावन जगमाई बहु प्रकार प्रभु है अनन्त कछु पार न पाई ॥ तिन गुणान को अन्त एक याही विधि दी । ते गुण तुम्ही मांहि और में नाहि जगीत । केवल श्रुति ही नाहिं भक्तिपूर्वक हम ध्यावत । सुमरण प्रणमन तथा जनकर तुम गुण गावत ॥ चितवन पूजन ध्यान नमनकरि नित आराधे । को उपावकरि देव सिद्धि फल को हम साधें । त्रैलोकी नगराधि देव नित ज्ञान प्रकाशी । परम ज्योति परमातम यक्ति अनन्ती भाती ॥ पुण्य पाप रहित पुण्य के कारण स्वामी । नमो नमो जगवन्य अवन्धक नाथ अकामी । रस सपरस अर गन्ध रूप नहि शब्द तिहारे । इनके विषय विचित्र भेद सब जाननहारे ॥ सब जीवन प्रतिपाल अन्य करि है अगम्यगन | मरण गोचर नाहि करो जिन तेरो सुमिरन ॥
SR No.010139
Book TitleSanatkumar Chavda Punyasmruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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