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दोग-नि गुरसेम सिप पहै, लय फिनि इनि अपनाय ।
मुनि बोले जिन-घस फो, थारे पाप पलाय ॥३२॥ चौपाई-गुरुशिप पचन मुतामन्यो , उपशम भान सुसाकर गुन्यो।
पा अमर पल त्यागेज, अमन मिले लागो शुभ तये ।। पुल भाममा छोरे प्रान, नगर उजनी श्रेणिक जान । तदा दरिद्री सिजक रहे, पाप उद कारि या दुःख लहै । वा हिज के पद पुत्री गई, पिता मात जम के पसि धई। उप यह दु.खपती जति हाय, पाप समान न बरी कोय ॥ रुष्ट फर फरिपरि जु मई, एक समय सो यन में गई। नहा सुदर्शन चे मुनिराप, अजितसेन राजा निहिं जाय ॥ धर्म सुन्यो भूपति गुवकार, इद पुनि गई नदां विहिवार ।
अधिक लोफ कन्या जोर, पाप की ऐसी फल होय ॥ दोहा-जान समे ह पन्यका, घासपुज सिरधारि।
सही मुनि बच सुनत धी, पुनि निज भार उदारि ॥३८॥ चौपाई-सनि मुसतं गुण पान्या भाय, पूरव भव सुमरण जब धाय।
याट करी पिछली वेदना, मूळ खाय परी दुःस घना।
प गजा उपचार कराय, चेत करी फुनि पूछि बुलाय। पुनी तं ऐसे क्यं मई, गुणि कन्या तव यू परनई ।। पूरब भर विरतन्त बताय, मैं जु दुःसायो थो मुनिराय। करीत दिशा की जु आहार, दियो मुनिक अति दुःखकार ।। सो अघ अपली पणि मुझ ट है, हम सुनि नृप मुनिवर सों कहै । इद किन विधि मुख पाय अच, तर मुनिराज वखान्यू तवै ॥