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के सिद्धान्त और व्यवहारपक्षको एक करके दिखला दिया । विरोधीसे विरोधीके प्रति भी उनके मनमे घृण नही थी, द्वेष नही था वे उत्पीडक एव घातकके प्रति भी मगलकल्याणकी पवित्र भावना रखते थे । सगमदेव और शूलपाणि यक्ष जैसे उपसर्ग देनेवाले व्यक्तियो के प्रति भो उनके नेत्रोमे करुणा थी । तीर्थंकर महावोरका अहिंसक जीवन क्रूर और निर्दय व्यक्तियो के लिये भी आदर्श था ।
महावीरका सिद्धान्त था कि अग्निका शमन अग्निसे नही होता, इसके लिये जलकी आवश्यकता होती है । इसीप्रकार हिसाका प्रतिकार हिसासे नही, अहिंसासे होना चाहिये । जब तक साधन पवित्र नही, साध्यमे पवित्रता आ नही सकती । हिंसा सूक्ष्मरूपमे व्यक्तिके व्यक्तित्वको अनन्त पतमे समाहित है । उसे निकालनेके लिये सभी प्रकारके विकारो, वासनाओका त्याग आवश्यक है । यही कारण है कि महावीरने जगतको बाह्य हिसासे रोकने के पूर्व अपने अन्तरमे विद्यमान राग-द्वेषरूप भावहिसाका त्याग किया और उनके व्यक्तित्वका प्रत्येक अणु अहिसाकी ज्योतिसे जागृत हो उठा। महावीरने अनुभव किया कि समस्त प्राणी तुल्य शक्तिधारी है, जो उनमे भेद-भाव करता है, उनकी शक्तिको समझने मे भूल या किसी प्रकारका पक्षपात करता है, वह हिंसक है। दूसरो को कष्ट पहुँचाने के पूर्व ही विकृति आ जानेके कारण अपनी ही हिंसा हो जाती है ।
सचमुच मे अहिसा के साधक महावीरका व्यक्तित्व धन्य था और धन्य थी उनकी सचरणशक्ति । वे बारह वर्षोंतक मौन रहकर मोह-ममता का त्याग कर अहिंमाकी साधनामे सलग्न रहे । महावीरके व्यक्तित्वको प्रमुख विशेषताओमे उनका अहिसक व्यक्तित्व निर्मल आकाशके समान विशाल और समुद्रके समान अतल स्पर्शी है । उनकी अहिंसामे आग्रह नही था, उद्दण्डता नही थी, पक्षपात नही था और न किसी प्रकारका दुराव या छिपाव ही था । दया, प्रेम और विनम्रताने उनकी अहिसक साधनाको सुसस्कृत किया था ।
क्रातिद्रष्टा
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तीर्थंकर महावीरके व्यक्तित्वमे क्रान्तिकी चिनगारी आरम्भसे ही उपलब्ध होती है । वे व्यवहारकुशल, स्पष्ट वक्ता, निर्भीक साधक, अहिंसक, लोककल्याणकारी और जनमानसके अध्येता थे । चाटुकारिताकी नीतिसे वे सदा दूर थे । उनके मनमे आत्मविश्वासका दीपक सदा प्रज्वलित रहता था । धर्मके नामपर होनेवाली हिंसाए और समाजके सगठनके नामपर विद्यमान भेद-भाव एव आत्मसाधना के स्थानपर शरीर साधनाकी प्रमुखताने महावीरके मनमे किशोरावस्थासे ही क्रान्तिका बीज - वपन किया था । रईसो और अमीरोके यहाँ दास-दासीके रूपमे शोषित नर-नारी महावीरके हृदयका अपूर्वं मथन करते
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६१० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा