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उन्मूलन होता है । इन आठ अंगोमे वैयक्तिक उन्नतिके लिए प्रारम्भिक चार अंग मोर समाज-सम्बन्धी उन्नतिके लिए उपगूहनादि चार अग आवश्यक है । निःशङ्कित-अंग
वीतराग, हितोपदेशी और सर्वज्ञ परमात्माके वचन कदापि मिथ्या नही हो सकते । कषाय अथवा अज्ञानके कारण हो मिथ्याभाषण होता है । जो रागद्वेष-मोहसे रहित, निष्कषाय, सर्वज्ञ है, उसके वचन मिथ्या नही हो सकते । इसप्रकार वीतराग- वचनपर दृढ आस्था रखना नि शङ्कित अग है ।
सम्यग्दृष्टि जिनोदित सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंके विषय मे भी शकित नही होता । सम्यग्दर्शनके आप्त, आगम, गुरु और तत्त्व ये चार विषय हैं। इनके सम्बन्ध ये तत्त्व ये ही है, और इसी प्रकासे हैं, अन्य या अन्य प्रकारसे ही, इस प्रकारका श्रद्धान करना नि शङ्कित भग है । नि शंकतामे अकम्पता - का रहना भी आवश्यक है। श्रद्धा या प्रतीतिमे चलिताचलित वृत्तिका पाया जाना वर्जित है ।
नि शङ्कसम्यग्दर्शन ही ससार और उसके कारणोका उच्छेदक है । यदि श्रद्धा कुछ भी शका बनी रहती है, तो तत्त्वज्ञानके रहनेपर भी अभोष्ट प्रयोजनकी सिद्धि नही होती ।
शका मुख्यतया दो प्रकारसे उत्पन्न होती है - (१) अज्ञानमूलक और (२) दौर्बल्यमूलक । दुर्बलताका कारण इहलोकभय, परलोकभय, वेदनाभय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय और आकस्मिकभय ये सात भय वतलाये गये हैं । जो इन भयोसे मुक्त हो जाता है, वही नि.शक हो सकता है । निकांक्षित-अंग
किसी प्रकारके प्रलोभनमे पडकर परमतकी अथवा सासारिक सुखोकी अभिलाषा करना कांक्षा है, इस काक्षाका न होना नि काक्षितधर्म है । सासारिक सुखकी किसी प्रकारकी आकाक्षा न करना निःकाक्षित अग है । वस्तुत. सासा - रिक सुख व्यक्तिके अधीन न होकर कर्मोंके अधीन है । कर्मोक तीव्र, मन्द उदयके समय यह घटता- वढता रहता है। यह सांसारिक सुख सान्त है और है आकुलता उत्पन्न करनेवाला । यह सुख अनेक प्रकारके दुखोंसे मिश्रित है और है बाधा उत्पन्न करनेवाला' ।
पूर्ण शुद्ध सम्यग्दृष्टि अपने शुद्ध आत्मपदके सिवाय अन्य किसी भी पदको
सपर बाधासहियं विच्छिण्ण वधकारणं विसम 1
जं इंदियेहि लद्ध तं सोक्खं दुक्खमेव तथा ॥
५०२ : तीर्थंकर महावीर और उनका आचार्य-परम्परा
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प्रतचनसार गाथा ७६.