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ग्वाला को फिर नागाह कीन, जब दर्शन अपना आप दीन । सूरत देखी नति ही अनूप, हैं नम दिगम्बर शान्ति रूप ॥ तहां श्रावक जन वह गये आय, किये दर्शन करि मनवचनकाय । है चिह्न का ठोक जान, निश्चय हैं ये श्री वर्द्धमान ॥ सब देवन के श्रावक जु आय. जिन भवन अनूपम दियो बनाय | फिर शुद्ध दई वेदी कराव, तुरतहि गजन्य फिर लयो सजाय ॥ ये देन वाल मन में अधीर, मम ग्रह को त्यागो नही वीर । तेरे दर्शनविनतम् प्राण, सुनि टेर मेरी किरपा निधान ॥ कीने के प्रभु विराजमान, रय हुआ अत्तल गिरि के समान । तब तरह के किये और बहुतन न्य गाडी दिये तोड़ ॥ निशिमाहि राचिवहि दिसात, रथ चलै ग्वाल का लगत हाथ । भोरहिट चरण दियो बनाय, नन्तोष दियो ग्वालहिं कराय ॥ करि जय जय प्रभु से कारी ढेर, रध चल्यो फेर लागी न देर । वहु नृत्य करत वाजे बजाई, स्थापन कोने तह भवन जाई ॥ इक दिन नृप को लगा दोष, धरि तोप कही नृप खाई रोष । तुमको जब ध्याया वहा वीर गोला से भट वच गया वजीर ॥ मन्त्री चांदनगांव आय, दर्शन करि पूजा करितीन शिखर मन्दिर स्वाय, कवन कलशा दीने वह हुक्म कियो जयपुर नरेश सालाना अव जुडन लगे नर और नार, तिथि चैत शुक्ल पूनी मीना गुजर आये विचिन, सब वरण जुटे करि मन पवित्र । निरत करत गावें सुहाय, कोई-कोई घृत दीपक रह्यो चढाय ॥
की
मेला हो
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मकार ॥
बहु
वनाय ।
धराय ॥
हमेश ।