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साथ परिवर्तित होते हुए मानवीय मूल्योंको स्थिरता प्रदान की और प्राणियोमे निहित शक्तिका उद्घाटन कर उन्हे निर्भय बनाया। उन जैसा अपूर्व साहसी शताब्दियोमे ही एकाध व्यक्ति पैदा होता है। शूलपाणि जैसे यक्षका आंतक और चण्डकौशिक जैसे सर्पको विषज्वाला इनके साहसके फलस्वरूप ही शमनको प्राप्त हुई। अनार्य देशमे साधना करते हुए महावीरके स्वरूपसे अनभिज्ञ व्यक्तियोने उन्हे गालियाँ दी, पाषाण बरसाए, दण्डोसे पूजा की, दश-मशक और चीटियोने काटा, पर महावीर अपने साहससे विचलित न हुए। उनकी अपूर्व सहिष्णुता और अनुपम शान्ति विरोधियोका हृदय परिवर्तित कर देती थी। वे प्रत्येक कष्टका साहसके साथ स्वागत करते, शरीरको आराम देनेके लिये न वस्त्र धारण करते, न पृथ्वी पर आसन विछाकर शयन करते, न अपने लिये किसी वस्तुकी कामना ही करते । उनके अनुपम धैर्यको देखकर देवराज इन्द्र भी नतमस्तक था। सगमदेवने महावीरके साहसकी अनेक प्रकारसे परीक्षा की, पर वे अडिग हिमालय ही बने रहे। लोक-प्रदीप
महावीरके व्यक्तित्वमे अनुपम प्रदीप-प्रकाश उपलब्ध है । उन्होने ससारके घनीभूत अज्ञान-अन्धकारको दूरकर सत्य और अनेकान्तके आलोकद्वारा जननेतृत्व किया था। घरका दीपक घरके कोनेमे ही प्रकाश करता है, उसका प्रकाश सीमित और धुधला होता है, पर महावीर तो तीन लोकके दीपक थे। लोकत्रयको प्रकाशित किया था। महावोर ऐसे दीपक थे, जिसकी ज्योतिके स्पर्शने अगणित दीपोको प्रज्वलित किया था । अज्ञानअन्धकारको हटा जनताको आवरण और बन्धनोको तोड़नेका सन्देश दिया था। उन्होने राग-द्वेष विकल्पोको हटाकर आत्माको अखण्ड ज्ञान-दर्शन चैतन्यरूपमे अनुभव करनेका पथ आलोकित किया था। निश्चयसे देखनेपर आत्मापर बन्धन या आवरण है ही नही । अनन्त चैतन्यपर न कोई आवरण है और न कोई बन्धन । ये सब बन्धन और आवरण आरोपित हैं। जिसके घटमे ज्ञान-दीप प्रज्वलित है, उसके बन्धन और आवरण स्वत क्षीण हैं । सकल्प-विकल्पोका जाल स्वयमेव ही विलीन हो जाता है। करुणामूर्ति
महावीरका सवेदनशील हृदय करुणासे सदा द्रवित रहता था। वे अन्धविश्वास, मिथ्या आडम्बर और धर्मके नामपर होनेवाले हिंसा-ताण्डवसे अत्यन्त द्रवीभूत थे। 'यज्ञीयहिंसा हिंसा न भवति' के नारेको बदलनेका सकल्प ६०६ नोर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा