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यह स्मरणीय है कि सत्ता और धोसा ये दोनो हो समाजके अकल्याणकारक हैं। इन दोनोका जन्म सठसे होता है। झठा व्यक्ति आत्मवचना तो करना हो है, किन्तु ममाजको भी जरित कर देता है। प्राय देखा जाता है कि मिथ्या भापणा नगरमा स्नाको भावनासे होता है। सर्वात्महितवादको भावना असत्यापण वाया है। रवच्छन्दता, वृणा, प्रतिशोध जैसी भावनाएँ असत्यनापासे प्रो उत्पन्न होती है, क्योकि मानव-समाजका समस्त व्यवहार वचनोसे चलता है। बागोगे दीप आ जानेगे समाजको अपार क्षति होती है। लोकमे प्रसिद्धि भी है दिगो जिहामे विष और जमृत दोना है। समाजको उन्नत स्तर पर लेजानेवारे अहिम बनन अमृत और समाजको हानि पहुँचानेवाले वचन विप हैं। टोल भापग कारना, निन्दा या चुगली करना, कठोर वचन बोलना जौर हमी-मजाक करना गमाज-हितमे बाधक हैं। छेदन, भेदन, मारण, गोषण, अपहरण और ताडन गम्बन्ली वचन भी हिंसक होनेके कारण समाजको शान्तिमे वाधक हैं। अविश्वाम, भयकारक, खेदजनक, सन्तापकारक अप्रिय वचन भी समाजको विघटित करते हैं। अतएव समाजको सुगठित, सम्बद्ध और प्रिय व्यवहार करनेवाला बनानेके हेतु सत्य वचन अत्यावश्यक है। भोगसामग्रीकी बहुलताके हेनु जो वचनोका असयमित व्यवहार किया जाता है, वह भी अधिकार और कर्तगके सन्तुलनका विघातक है। समाजमे मच्ची गान्ति, सत्य व्यवहार द्वारा ही उत्पन्न की जा मस्ती है और इसीप्रकारका व्यवहार जीवनमे ईमानदागे और सच्चाई उत्पन्न कर गकता है। साधारण परिस्थितियोके बीच व्यक्तिका विकास अहिंसक वचनव्यवहार द्वारा राग्भव होता है । यह समस्त मनुष्यसमाज एकवृहत् परिवार है और इस वहत् परिवारका सन्तुलन साधन और साध्यके सामजस्य पर हो प्रतिष्ठित है। जो नैतिकता,अहिंसा और सत्यको जीवन में अपनाता है, वह समाजको सुखी और शान्त बनाता है। आत्मविकासके साथ समाजविकासका पूरा सम्बन्ध जुडा हुआ है। मिथ्या मान्यताएँ, धर्मके सकल्पविकल्प, क्रिया-काण्ड एवं धार्मिक सम्प्रदायोके विभिन्न प्रकार आदि सभी सामाजिक जीवनको गतिविधिमे वाधक हैं। अन्धश्रद्धा और मिथ्या विश्वासोका निराकरण भी समाजधर्मकी इस पांचवी सीढीपर चढनेसे होता है। अनुकम्पा, करुणा और सहानुभूतिका क्रियात्मक विकास भी सत्यव्यवहार द्वारा सम्भव है। जीवनके तनाव, कुण्ठाएँ, सग्रहवृत्ति, स्वार्थपरता आदिका एकमात्र निदान अहिंसक वचन ही है।
समाजधर्मको छठी सीढ़ी · अस्तेय-भावना अस्तेयकी भावना समाजके सदस्योके हृदयमे अन्य व्यक्यिोके अधिकारोके
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना ५८९