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जीवनको रंचमात्र भी परवाह नही करता है । आजका व्यक्ति चाहता है कि मैं अच्छे-से-अच्छा भोजन करूँ, अच्छी सवारी मुझे मिले । रहने के लिये अच्छा भव्य प्रासाद हो तथा मेरी अलमारीमे सोने-चांदीका ढेर लगा रहे, चाहे अन्य लोगोके लिये खानेको सूखी रोटियां भी न मिलें, तन ढकनेको फटे - चिथडे भी न हो । मेरे भोग-विलासके निमित्त सैकड़ोके प्राण जाये, तो मुझे क्या? इसप्रकार हम देखते है कि ये भावनाएं केवल व्यक्तिकी ही नही, किन्तु समस्त ममाजको है । यही कारण है कि समाजका प्रत्येक सदस्य दुखो है ।
अविश्वासकी तोव्र भावना अन्य व्यक्तियोका गला घोटनेके लिये प्रेरित किये हुए है। अधिकारापहरण और कर्त्तव्य-अवहेलना समाजमे सर्वत्र व्याप्त हैं । निरकुश और उच्छू खल भोगवृत्ति मानवकी बुद्धिका अपहरण कर उसका पशुता की ओर प्रत्यावर्त्तन कर रही है । सुखको कल्पना स्वार्थ-साधन और वासना पूर्तिमे परिसीमित हो समाजको अगान्त बनाये हुए है। हिमा प्रतिहिंसा व्यक्ति और राष्ट्रके जीवन अनिवार्य सी हो गयी है । यही कारण है कि समाजका प्रत्येक सदस्य आज दुखी है ।
मनुष्यमे दो प्रकारका वल हाता है- (१) आध्यात्मिक और (२) शारीरिक । अहिंसा मनुष्यको आध्यात्मिक वल प्रदान करती है । धैर्य, क्षमा, सयम, तप, दया, विनय प्रभृति आचरण अहिंसा के रूप है । कष्ट या विपत्तिके आ जाने पर उसे समभावसे सहना, हाय हाय नही करना, चित्तवृत्तियोको सयमित करना एव सब प्रकारसे कष्टसहिष्णु बनना अहिंसा है और है यह आत्मवल । यह वह शक्ति है, जिसके प्रकट हो जाने पर व्यक्ति और समाज कष्टोके पहाडोको भी चूर-चूर कर डालते हैं । क्षमाशील बन जाने पर विरोध या प्रतिशोधकी भावना समाजमे रह नही पाती । अतएव अहिंसक आचरणका अर्थ है मनसा, वाचा और कर्मणा प्राणीमात्रमे सद्भावना और प्रेम रखना । अहिंसामे त्याग है, भोग नही । जहाँ राग-द्वेष हैं, वहाँ हिंसा अवश्य है । अत समाजधर्मकी चौथी सीढी पर चढनेके लिये आत्मशोधन या अहिंसक भावना अत्यावश्यक है । व्यक्तिका अहिंसक आचरण ही समाजको निर्भय, वीर एवं सहिष्णु बनाता है ।
समाजधर्मको पाचवीं सीढ़ी सत्य या कूटनीतित्याग
कूटनीति और धोखा ये दोनो हो समाजमें अशान्ति - उत्पादक हैं । सत्यमे वह शक्ति है, जिससे कूटनीतिजन्य अशान्तिकी ज्वाला शान्त हो सकती है । दूसरेको कष्ट पहुँचाने के उद्देश्यसे कटु वचन बोलना या अप्रिय भाषण करना मिथ्या भाषणके अन्तर्गत है ।
५८८ . तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा